आत्मदाह (कहानी) : शंकर दयाल सिंह
Aatmdaah (Hindi Story) : Shanker Dayal Singh
तुम्हें लिखते हुए हाथ काँपता है, कलम नहीं चलती, आँखों में आँसू भर आते हैं; लेकिन लिखना ही पड़ता है—' अमर इस संसार में अब न रहा।' पत्र का इतना अंश पढ़ते ही राजीव को लगा, मानो उसकी आँखों के आगे अँधेरा छा गया, पाँवों के नीचे से धरती खिसकने लगी और वह बेहोश हो जाएगा। उसके आगे बस एक ही आकृति आकर खड़ी हो गई - ' अमर अब इस संसार में न रहा । ' क्या अमर न रहा तो संसार अभी भी है। अमर न रहा तो क्या राजीव जिंदा रह सकेगा ? अमर न रहा तो क्या किसी के रहने का भरोसा किया जा सकता है ? रह-रहकर आँधी- तूफान - झंझावात राजीव के सामने आते गए।
अमर केवल उसका ही दोस्त न था, बल्कि सैकड़ों ऐसे दोस्तों का दोस्त था, जो हर बेचैनी, हर मुसकान, हर पीड़ा और हर आग में उसे याद करते थे, और अमर भी बेझिझक लहराते समुद्र में, तूफान में, आग में, बिना सोचे-समझे कूदने को तैयार रहता था ।
'राजीव, किसी रात के सन्नाटे में, किसी गुलाबी साँझ में, किसी वीराने खँडहर के साये में, किसी होटल के कमरे में - एक दिन मैं अपनी साँस बंद कर लूँगा, और सबसे बड़ी बात तो यह होगी कि न मैं समझँगा कि मैं जा रहा हूँ और न दोस्तों को विश्वास होगा कि मैं चला गया ।' एक दिन हँसते हुए अमर ने राजीव से कहा था, और इस कथन को उसने कई बार दुहराया था, और राजीव ने हर बार इस पर उसे डाँटते हुए यह उपदेश देने की कोशिश की थी कि बेवकूफों की तरह बातें नहीं करनी चाहिए। पिछली बार जब अमर आया था तो उसने वही बात फिर दुहराई थी तो राजीव ने लाचार होकर अपनी पत्नी अरुणा को ये बातें सौंपते हुए झकझोरा था- देखो अरुणा, अमर को अब तुम्हीं सँभालो; इसकी बेवकूफी भरी बातें कभी बंद नहीं हो सकतीं।
अरुणा ने एक निरर्थक नजर से अमर की ओर देखा और जब आँखें एक-दूसरे से टकराईं तो अरुणा को अनायास लगा कि अमर वीणा के तारों के समान सधा, पतंग की डोर के समान दृढ, हरिण-शावक के समान उन्मुक्त और कुँवारी धरती के समान बेबाक है; फिर भी उसके अंदर कहीं-न-कहीं झंझावात, जिसे न तो राजीव जानता है और न अरुणा । कितने स्वाभाविक रूप से अमर हँसा था- 'भाभी, राजीव और मेरे बीच जब कभी विवाद हुआ है तो आपने बराबर मेरा साथ दिया है, आज आप फेर में पड़ी हैं, मैं तो उसे चिढ़ाने के लिए मजाक किया करता हूँ।'
अरुणा ने सहज रूप से अमर की इन बातों को लिया, लेकिन उसकी गाँठ में पता नहीं क्यों एक ऐसा सूत्र आकर बँध गया, जिसे वह खोल न सकी। आखिर औरत जो थी। और उस दिन से उसने अमर पर एक मनचाही निगरानी शुरू कर दी।
राजीव और अमर में कोई भेद न था । दोनों इतने हिले-मिले थे कि एक-दूसरे के लिए अभावों की आपरूप पूर्ति थे । राजीव जानता था कि अमर नदी की ऐसी धारा है, जिसका प्रवाह रोके नहीं रुकता। पानी के प्रवाह को रोक दोगे तो वह गंदा हो जाएगा, बाँध के ऊपर से बह निकलेगा, या यह भी संभव है कि वह बाँध को तोड़ दे। अमर की जिंदगी ऐसी ही थी। जीवन उसके लिए पलाश - कुसुम न था, जो छितरा जाता है - वह चंदन-सा जीवन जीने में विश्वास करता था। कब कहीं से कहाँ चल देगा, कहाँ से आ रहा है, कहाँ जा रहा है, किन भटकनों में कैद है- यह उसके अंतरंग से अंतरंग मित्र को भी पता नहीं चलता था।
उसमें असाधारण दृढता और प्रतिभा थी । महीनों दिन-रात बिना आराम किए वह किसी काम में लगा रहता, कई-कई दिन सफर में बिता देता । बिना खाए दो-चार दिन काट देता। लेकिन उसके माथे पर न तो कोई सिलवट आती और न मुसकानों में कोई कमी । धुन का ऐसा पक्का था कि एक साल में उसने पी-एच.डी. की थीसिस पूरी की थी और लापरवाह इतना कि विश्वविद्यालय की एक हजार रुपयों की अध्यापकी छोड़कर 'फ्री लांसिंग' पत्रकार की जिंदगी अपना ली थी। जहाँ कहीं भी जाता, अपनी छाप छोड़ देता तथा वृत्त में घूमते हुए राजीव और अरुणा, दो ही उसके लिए केंद्रबिंदु थे। कभी काठमांडू से, कभी कन्याकुमारी से, कभी श्रीनगर से, कभी बंबई से, अमर की चिट्ठियाँ अरुणा के नाम तो कभी राजीव के नाम आतीं, तो उनमें एक ऐसी निस्पृहता छलकती, जो केवल अमर के व्यक्तित्व में ही संभव थी ।
अरुणा अमर के लिए एक मर्माहत पूँजी थी, जहाँ ठहरकर अपनी निश्शेष बातों को आत्मविश्वासपूर्वक रख सकता था।
अरुणा ने अमर पर संजीदगी भरी निगरानी भी शुरू कर दी थी; अतः अमर के जीवन का एक-एक पट खुलता जा रहा था।
जीवन में रात और दिन, बंजर सुनसान भूमि के समान नहीं, किसी खिले गुलाबी उद्यान के समान आते-जाते रहते हैं। नियति और नियंता जो भी हो, जिंदगी की गाड़ी खींचने का भार उसी को रहता है, जिसके कंधे पर उसका जुआ पड़ा रहता है।
कोई नहीं जानता था कि निद्वंद्व और बेबाक अमर के कंधे पर जिंदगी का एक जुआ इस प्रकार आकर स्थिर हो गया है, जो न हिचकी लेता है, न मचमचाता है; लेकिन जिसे वह उतार भी नहीं सकता। शायद पहली बार, अरुणा को ही पता चला कि सूत्र क्या है और संधान क्या है। लेकिन उस प्रथम बोध में कुछ ऐसी बात अरुणा को नहीं नजर आई, जिससे वह भविष्य के लिए अतिशय शंकित होती ।
राजीव उन दिनों दिल्ली से बाहर था, जब अमर आकर ठहरा हुआ था । न जाने क्यों इस बार वह बहुत खुश था और चाय के प्याले के साथ अरुणा ने जब उसे गुदगुदाया, तो वह अपने को रोक न सका- 'भाभी, हर पतझड़ के बाद वसंत का आगमन होता है। '
'लेकिन अगर कहीं पतझड़ न हो, वसंत-ही-वसंत रहे, तो ?' अरुणा ने कहा ।
'क्या आप प्रकृति के नियम को बदलना चाहती हैं ? क्या यह कहीं संभव है ?' अमर ने हँसते हुए पूछा ।
अरुणा ने गहराई से चोट की - 'सामने ही तो इसका उदाहरण है। अमर, मैं पिछले आठ वर्षों से आपको देख रही हूँ। लेकिन मैंने आप में सदा वसंत ही वसंत देखा, पतझड़ तो कभी देखा ही नहीं ।'
किसी के व्यक्तित्व के लिए इतनी उदारता काफी है। सहज और सौम्य, शुभ और सरल, प्रातः किरण-सी तरोताजा- अरुणा सभी कलाओं और गुणों से युक्त थी और दूसरी ओर अमर भी सौ- हजारो में एक ही था। नाक-नक्श, वाक्माधुर्य, संस्कृति-बोध, प्रत्युत्पन्नमतित्व - हर तरह से वह एक उदाहरण था । बहुत दिनों से राजीव और अरुणा के साथ दूध-पानी के समान मिले रहने पर भी वह कहीं से बचता चला आ रहा था। लेकिन आज अरुणा की आँखों ने उसे बींध डाला और उसकी बातों ने उसका एक बंद द्वार खोल दिया। उसने उसी विश्वास के साथ बहुत सहमते- झिझकते कहा, 'वसंत भी ग्रीष्म में झुलसकर कालगत हो जाता है, तो फिर मेरे लिए भी यह सत्य है कि मेरा वसंत किसी बियाबान का प्रतीक है।'
'अमर, मुझसे पहेलियाँ न बुझाओ। मैंने कभी तुमसे कुछ पूछा नहीं । कारण, मैंने तुम्हारी हर बात को जानने का अपने को हकदार माना है- फिर वह पतझड़ हो या वसंत या ग्रीष्म !' अरुणा की भोली आँखों में प्रश्न का ऐसा सैलाब था, जिसने अमर को हिला दिया।
‘भाभी, मैं अपने आपसे जिन बातों को कहते हुए आज तक बचता रहा हूँ, उन्हें ही आपसे कहने जा रहा हूँ। मैं नहीं जानता कि ये बातें आपसे कहनी चाहिए या नहीं या आप इन्हें रख पाएँगी या नहीं। फिर भी, सिवा आपके इस दुनिया में और कौन है जिससे मैं ये बातें कहूँगा ?' अमर ने एक विराम लिया, उसके स्वर में तल्खी न थी, लेकिन उसकी आँखों में एक ज्वार जरूर था।
‘मैं पिछले पाँच वर्षों से बिना किसी ठौर-ठिकाने के भटकता फिर रहा हूँ। कहीं बैठ नहीं सकता, कहीं ठहर नहीं सकता, जम नहीं सकता, कुछ कर नहीं सकता, और इससे भी बड़ी बात यह है कि किसी से कुछ कह भी नहीं सकता ! आखिर क्यों ? आपने कभी सोचा है मेरी इस जिंदगी पर ?'
एक लम्हे के लिए वह फिर रुका। अरुणा बिल्कुल मौन रही । उसने फिर कहना शुरू किया — 'मैंने प्रोफेसरी छोड़ी, इलाहाबाद का अपना साहित्यिक परिवेश छोड़ा, कितने सारे संबंधों की अवहेलना की, परिवार से नाममात्र का नाता रखा और एक यायावर के समान अपने जीवन को मझधार में डाल दिया। लेकिन इन सब बातों से मुझे कोई शिकायत नहीं है और न कोई वेदना या पश्चात्ताप है, क्योंकि यह जो भी है, मेरा अपना है।'
अरुणा केवल श्रोता थी, कुछ समझ नहीं पा रही थी । उसने अमर को न इस रूप में देखा था, न सुना था और न जानती थी कि स्थिर जल में एक बड़ा सा भँवर प्रतीक्षारत है।
अमर बोलता गया - " विश्वविद्यालय में मेरी जब नियुक्ति हुई, उसी साल उसकी भी नियुक्ति हुई थी, और नमस्कारों के साथ जब हम दोनों का परिचय हुआ था तो पता नहीं क्यों, इस पहली मुलाकात में ही मेरी आँखों में एक अजीब विश्वास जग गया था। दिन-ब-दिन हम दोनों एक- दूसरे के पास होते जा रहे थे और छह महीनों के अंदर ही हम एक-दूसरे के इतने पास हो गए कि लगता था जन्म-जन्मांतर का साथ हो। और बड़ी बात तो यह थी कि हमने कभी दुनिया पर यह जाहिर नहीं होने दिया और न कहीं किसी मर्यादा को ही भंग किया।
'वह विवाहित थी, मैं अविवाहित - लेकिन पत्नी न होते हुए भी दो हृदय इतने पास हो सकते हैं, यह शायद सिवा उसके और मेरे, कोई विश्वास नहीं कर सकता है।
"मेरी हर पीड़ा उसका विश्वास थी और उसका हर विश्वास मेरे लिए एक नई चेतना । विश्वविद्यालय-प्रांगण में जब कभी हम एक-दूसरे को देख लेते तो आँखों से ही एक-दूसरे को पी लेते। देख भर लेने से सारी बातें हो जातीं। और किसी को हमने यह भान नहीं होने दिया कि हममें इतना गाढ़ा संबंध भी है। '
अरुणा मंत्रमुग्ध सी सारी बातें सुन रही थी । उसे लग रहा था जैसे अमर से आज वह पहली बार मिल रही है या वह पहली बार उसको पहचान रही हैं।
"मैं किसी प्रकार यह नहीं चाहता था कि मेरे कारण उसकी जिंदगी में कहीं कोई हलचल आए या कहीं से किसी प्रकार की कालिख लगे। मेरी बराबर यही कामना रहती थी कि वह, उसके पति और उसका एकमात्र बच्चा, सबके सब खुश रहें, प्रसन्न रहें, सुनहले भविष्य के हकदार हों।
"लेकिन इसके साथ ही, पता नहीं, मेरे मन में यह बात बैठ गई थी कि सुधा पर अगर किसी का सबसे बड़ा हक है तो मेरा । इसीलिए रात के वीराने में, दिन के कोलाहल में, चलती गाड़ी में, राजनीतिशास्त्र की पुस्तकों के अध्यापन के समय क्लास की बेंचों पर हर जगह सुधा मुझे नजर आती। और तब एक दिन लाइब्रेरी से लौटते हुए पाँच मिनटों के एकांत में मैंने सुधा से कहा था
- सुधा, मैं हर क्षण तुम्हें अपने में समेट लेना चाहता हूँ। मैं क्या करूँ - नहीं जानता, न तो कुछ कह सकता हूँ और किसी से तुम्हें छीन सकता हूँ, लेकिन अपने आपको लुटा जरूर सकता हूँ। उत्तर में सुधा ने अपनी आँखें उठाकर मेरी ओर देखाउन आँखों में न प्रश्न था, न उत्तर- आँसुओं से डबडबाई वे आँखें, जिनमें एक मौन था और एक पीड़ा थी— और ऐसे में ही हम दोनों विदा हो गए थे।" अरुणा ने महसूस किया, अमर का गला भर आया है और सुधा की आँखों का वह सागर अमर की आँखों में उतर आया है।
"लेकिन हम दोनों प्रोफेसर थे । हमारी सीमाएँ थीं, मर्यादाएँ थीं, ज्ञान का बंधन था । और सबसे बड़ी बात सुधा की जिंदगी थी, जिसमें किसी प्रकार की अस्थिरता लाना मैं नहीं चाहता था ।
"हम दोनों प्रायः रोज ही मिलते, एक-दूसरे की आँखों में झाँकते और रोज मैं देखता कि सुधा की आँखों में पूरे सागर का तट भयानक ज्वारों के साथ उफान खा रहा है; लेकिन समुद्र अपनी मर्यादा का उल्लंघन कभी नहीं करता ।
'और ऐसे में ही एक रात जब मैं सोने की तैयारी कर रहा था कि कॉलबेल की आवाज ने चौंका दिया। मैंने घड़ी देखी - ग्यारह बज रहे थे। उत्तर में किसी ने हलकी सी दस्तक दी। और मैंने जब दरवाजा खोला तो देखता हूँ, सुधा खड़ी है।
"सुधा, जो मेरे लिए एक ऐसा सपना थी, जिसे मैं वास्तविकता कह नहीं सकता था, क्योंकि मैं अपने सपने को तोड़ने के लिए तैयार नहीं था ।
"मैं दो कमरे का फ्लैट लेकर अकेला रहता था और पड़ोसियों को मेरे ऊपर श्रद्धा और विश्वास था। मैं कुछ बोलूँ, उसके पहले ही सुधा कमरे के अंदर आ गई और उसने दरवाजा बंद कर दिया और मैं कुछ कहूँ या पूहूँ उसके पहले ही उसने कहना शुरू किया- 'तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा कि मैं इस वक्त अकेली यहाँ कैसे और क्यों आई। आश्चर्य स्वाभाविक है, लेकिन आराम से पहले बैठो और सुनो- आज मैं घर में अकेली थी, मुन्ना और उसके पिता शाम की गाड़ी से अपने एक संबंधी की शादी में गए हैं, कल शाम तक लौटेंगे। और मैं जानती थी कि तुम वर्षों से मुझसे बातें करने के लिए तड़प रहे हो, इसलिए आज मैं सारे लाज - बंधन तोड़कर, घर में ताला लगाकर, तुम्हारे यहाँ चली आई हूँ। तुम जो कहना चाहते हो, कह दो; जो चाहते हो, पा लो। लेकिन याद रखो, आज से मैं तुम्हें भूखा प्यासा, उदास, मर्माहत, पीड़ित और सुनसान नहीं देखना चाहती हूँ... ' आगे वह बोलती ही गई।
'बिना बोले भी आदमी क्या सबकुछ नहीं बोल देता ? विश्वविद्यालय की परिधि में तुम्हारी उपस्थिति-मात्र से मैं अपने आपको स्थिर महसूस नहीं कर पाती हूँ । बराबर ऐसा लगता है मानो कोई मेरा पीछा कर रहा है, और वह केवल तुम हो । '
"भाभी, सुधा की स्थिति क्या रही होगी, यह बिना कहे भी आप समझ सकती हैं, क्योंकि वह भी एक स्त्री है। वह मेरे हाथों को अपने हाथों में लेकर बोली, 'अमर, मैं कुछ कहना नहीं चाहती हूँ और न ही मैं कभी तुमसे इस प्रकार मिलना चाहती थी; लेकिन मैं केवल एक बात के लिए आई हूँ और मैं यह भी नहीं पूछूंगी कि तुम मेरी बात मानोगे या नहीं । कारण, मैं जानती हूँ, मैं जो कहूँगी, मैं जो माँगूँगी - वह मुझे तुमसे मिलेगा ।' मेरे बिना एक शब्द की प्रतीक्षा किए वह बोली, 'अमर, तुम इस नौकरी को छोड़कर कहीं चले जाओ, तुम इस विद्यालय को छोड़कर कहीं और कोई काम पकड़ लो, इस शहर को छोड़कर तुम और कहीं अपना नीड़ बसा लो ।' और यह कहती हुई वह फफककर रो पड़ी।
'सुधा, बस इतनी सी बात ? यह तो कुछ भी परीक्षा न हुई । तुम इससे भी बड़ी चीज मुझसे माँगती ?' मैंने उससे कहा, 'बच्चों समान रोते नहीं, चुप हो जाओ।' मैंने सहलाया ।
" भाभी, एक मर्माहत प्यार क्या होता है, एक अनदेखा सपना क्या होता है, अव्यक्त चेतना क्या होती है, और किसके लिए नारी का प्रेम उत्सर्ग की किस सीमा तक पहुँच सकता हैं, इसका भान मुझे उस दिन पहली बार हुआ।
" 'लेकिन सुधा, मैं भी तुमसे दो बातें कहना चाहता हूँ- अस्वीकार करने के लिए नहीं, गाँठ में बाँधकर रख लेने के लिए। एक यह कि मैं कभी शादी नहीं करूँगा, इसलिए कि मेरी जिंदगी कोई दूसरी लड़की आकर उसे भर नहीं सकती, और दूसरी बात यह कि अगर मैं इस संसार से पहले चला गया तो तुम मुझसे वहाँ आकर मिलना, और यदि तुम पहले चली गईं तो उसके एक महीने के अंदर मैं तुमसे आकर वहीं मिलूँगा ।' मेरे शब्दों में कहीं भी भावुकता नाम की वस्तु नहीं थी।
"सुधा ने मेरी ओर बड़ी ही मर्माहत आँखों से देखा और बोली, 'अमर, मैं अगर तुम्हें अपने आपको नहीं दे सकती तो तुम्हें जीते जी जाने भी नहीं दूँगी।'
"भाभी, सुधा रात भर मेरे साथ रही, हम दोनों ने आँखों में पूरी रात काट दी, हमारी बातें महाकाव्य के समान खत्म होने का नाम नहीं लेती थीं और भोर का तारा घड़ी के चार बजने की ध्वनि के साथ प्रकट हुआ तो मैं उसे उसके घर तक छोड़ आया ।"
रात का सन्नाटा साँय-साँय कर रहा था। बाहर किसी कुत्ते के भूँकने की आवाज सुनाई दी थी। बगल के कमरे में चूहे ने किसी बरतन को गिरा दिया था और अरुणा निस्तब्ध बैठी थी । उसने देखा कि अमर की आँखों से ढुलककर आँसुओं की दो-चार बूँदें उसकी बुर्ट पर गिरी हैं, परंतु वह न तो उन आँसुओं को रोक सकती थी और न उन्हें पोंछ सकती थी ।
अमर ने फिर कहना शुरू किया - " यह रात हमारे संकल्प की रात थी, वह रात पाने और खोने की रात थी, वह रात सुहाग-नूपुरों और मंगलसूत्रों की झनझनाहट की रात थी, और वह एक ऐसी रात थी, जो जीवन में शायद एक बार ही आती है - और कोहबर, मंगलसूत्र, माँग का सिंदूर, अँगूठी का नग, भाँवर के फेरे, अक्षत - धूप-दीप - चंदन - सबसे पवित्र थी वह रात ।
"उसके बाद की सारी बातें आपको मालूम ही हैं। मैं नौकरी छोड़कर सीधा आपके घर ही आया था, राजीव ने मुझे फटकारा भी था; दोस्तों ने नसीहतें भी दी थीं सीनियर प्रोफेसर ने हमदर्दी भी दिखाई थी...क्या कर रहे हो यह मखौल कुछ ही दिनों में तुम रीडर बनोगे, फिर प्रोफेसर, फिर हेड ऑफ द डिपार्टमेंट, फिर रजिस्ट्रार और आगे भी कुछ और। मेरा बस एक ही जवाब था – 'अब यार, मन नहीं लगता इस बँधी - बँधाई नौकरी में सोचा है, अब फ्री लांसिंग लेखक और पत्रकार की जिंदगी बिताऊँगा । '
‘“ मैंने सुधा की ये बातें किसी से नहीं कहीं, आज केवल आपसे यह बात कह रहा हूँ, इसलिए भाभी, कि आपके हृदय में मेरे लिए अनुराग है और उस अनुराग की थाती भीख के रूप में माँग रहा हूँ कि आप अपने हृदय में मुझे और सुधा को एक साथ बैठा लें। "
दूसरे दिन अमर सदा की भाँति कहीं दूसरे स्थान को विदा हो गया था। उसके बाद आना- जाना बराबर बना रहा; लेकिन बराबर राजीव रहता, और उसकी उपस्थिति में अमर ने सुधा के बारे में न तो अरुणा से कभी कुछ कहा और न अरुणा ने कभी कुछ पूछा ।
हाँ, अरुणा के मन में उस दिन से अमर के प्रति प्यार तथा अपनापन और बढ़ गया। साथ-साथ श्रद्धा भी ।
पत्र में आगे लिखा था- ' पंद्रह-बीस दिन पहले वह ढाका से किसी प्रतिनिधि-मंडल में जाकर लौटा था और इलाहाबाद एक दिन के लिए आया था । परंतु यहाँ उसके एक मित्र की पत्नी डॉक्टर सुधा मल्होत्रा अस्पताल में भरती थी, इसलिए दो-चार दिनों के लिए रुक गया। उसके मित्र की पत्नी विश्वविद्यालय में अध्यापिका थी; वह बच नहीं सकी। किसी मामूली ऑपरेशन के बाद उसकी मृत्यु हो गई । अमर दाह-संस्कार से जब लौटा तो बहुत विचलित और उदास था । दूसरे दिन उसने तुम्हारे पास जाने का प्रोग्राम बनाया था, लेकिन उसी रात मैंने उसके कमरे में बत्ती जलती पाई, और दो बजे रात को बत्ती क्यों जल रही हैं, देखने गया तो मैंने देखा - जाड़े की रात में केवल बनियान पहने फुल स्पीड पर पंखा चलाकर वह बैठा था।
'मेरे पूछने पर उसने बताया कि उसे भयानक गरमी लग रही है और सीने में हलका हलका दर्द है। मैंने फौरन डॉक्टर बुलाया और उन्होंने जाँच कर बताया कि उसे हार्ट-अटैक हुआ है। उसे फौरन अस्पताल ले चला जाए।
तीन-चार दिनों में वहाँ रहकर वह स्वस्थ हो रात फिर दुबारा गया था, लेकिन कुछ दिन बाद उसे फिर 'अटैक' हुआ और किसी प्रकार उसे बचाया न जा सका। सच में, अब वह हमारे बीच न रहा ।
'मरने के दो दिन पहले उसने मेरी कलाई अपने हाथों में लेकर मेरी आँसुओं से तर आँखों में आँखें डालकर कहा था-पगले, रोते हो, मैं ठीक हो जाऊँगा । और मान लो, मैं नहीं रहा तो राजीव और सुबोध को पत्र जरूर लिख देना कि वे भी न रोएँ । और लिख देना कि अमर नाम मरनेवालों का नहीं होता। और राजीव को यह जरूर लिखना कि अरुणा भाभी से वह एक बात पूछ ले, जो बात मैंने उसे भी न बताई थी। '
पत्र सक्सेना ने लिखा था, जो अमर और राजीव का एक समान मित्र था । पत्र के अंत में लिखा था-
'भाभी से उसने कौन सी बात कहीं थी, अगर हो सके तो मुझे भी बता देना।'
राजीव को लगा जैसे दुनिया घूम रही हो और वह वृत्त पर बैठा हो । पास खड़ी अरुणा को उसने पत्र थमाते हुए केवल इतना ही कहा, "अमर अब इस संसार में न रहा ।
"उसने तुमसे कुछ कहा था, जो मुझे भी मालूम नहीं। वह बात क्या थी ?"