आत्मदर्शन (कहानी) : दंडपाणी जयकांतन

Aatm-Darshan (Tamil Story in Hindi) : Dandapani Jayakanthan

अपने को फलाँ साप्ताहिक पत्र का उपसम्पादक कहते हुए शिवरामन को गर्व महसूस होता; वहाँ उसे सौंपा गया काम था-प्रतिदिन आनेवाली ढेर सारी कहानियों के शीर्षक और भेजनेवाले के नाम-पता आदि को बाकायदा रजिस्टर में दर्ज करना...और प्रकाशन-योग्य न पाकर खारिज की गयी कहानियों की पाण्डुलिपियों पर 'सखेद लौटाई जाती है' की मुहर लगाकर लौटाना। आज स्वयं उसके नाम पर एक पत्र आया था। उस लम्बे लिफाफे पर 'श्री शिवरामन, उपसम्पादक' लिखा हुआ देखकर उसका दिल बल्लियों उछल गया।

उस लम्बे लिफ़ाफ़े के मुँह को दो उँगलियों से पकड़ते हुए शिवरामन ने उसे धीरे-धीरे खोला। उसके अन्दर से कागज का एक पुलिन्दा निकला, साथ ही उसके बीच में रखा एक कागज 'मैं खत हूँ' कहते हुए गिर पड़ा। उसे उठाकर शिवरामन ने पढ़ा :

'चिरंजीव शिवरामन को अनेक आशीष...ईश्वर की कृपा से तुम्हें सभी श्रेय और प्रेय प्राप्त हों।

'तुम सबसे मिलकर विदा लिये बिना मैं चला आया, इसका मुझे भी खेद है...मगर कोई बात नहीं। विचार करने पर यही समझ में आता है, यदि अन्तरंग में सच्चा एवं निष्कलंक स्नेह हो तो होंठों से बोले जानेवाले शब्द किसी काम के नहीं होते। इस तरह के किसी विचार या निर्णय ने मुझे तुम लोगों से विदा लेने से नहीं रोका। दरअसल बात यह है कि घर में कहकर निकलने का साहस मेरे अन्दर नहीं था। इसीलिए विदा लिये बिना चला आया...बस। फिर तुम्हें मालूम है कि किसी गम्भीर बात को अभिव्यक्त करने के लिए एक खास तरह का साहस होना आवश्यक है। अपने अनुभव में मैंने यही पाया है कि मेरे लिए करना फिर भी सरल है, कहना कठिन है...यह भी मेरी एक दिक्कत है। अच्छी तरह सोचकर देखो। तुम सोचने-विचारने वाले आदमी हो; कहानी लेखक हो...जिन्दगी में हम अच्छे-बुरे कितने ही काम कर डालते हैं, उन सबको पर्त-दर-पर्त खोलकर उनका विश्लेषण करने को कहा जाए तो वह सम्भव कहाँ होगा? यह भी हो सकता था कि मैं घर से चले जाने का इरादा करके, तुम लोगों से विदा लेने आया होता...अपनी बात कह दी होती...लेकिन अन्त में सम्भवतः मानसिक परिवर्तन होने से मैं वहीं बैठ जाता, यह कहते हुए कि मेरा दिल नहीं मान रहा है। मैं भलीभाँति जानता हूँ, यदि मैं चले जाने की बात कहता, तुम लोगों को तनिक भी रंज नहीं होता, मेरे पीछे वहाँ कोई नहीं रोता। लेकिन मुझे रोना आ जाता न! मैं जब घर में ही इधर-उधर बैठा होता, तुम्हारी घरवाली मेरे बारे में प्रसंग आने पर मुझे 'बुद्धू ब्राह्मण' कहा करती थी...दीवार के उस ओर बैठा मैं भी सुन लूँ, इस इरादे से कई बार इस संकेत-नाम का प्रयोग करती थी, यह सही है न? अच्छा, अब मैं घर से भाग आया हूँ, ऐसे में मैं जानता हूँ, तुम्हारे मन में यह जिज्ञासा अवश्य उठती होगी कि मैं कहाँ रहता हूँ और क्या करता हूँ। इस पत्र के साथ कागज का एक पुलिन्दा रखा है, उसमें मेरे मन में आयी बातें अंकित हैं। कभी समय मिलने पर-या कभी वक्त कट न रहा हो तबउसे पढ़कर देखो। इससे मुझे और मेरे अन्तरंग को तुम समझ पाओगे। मैं यही मानता हूँ कि तुम्हारी समझ में बात जरूर आ जाएगी।

'तुम इन बातों को समझो, चाहे न समझो, मुझे इसकी परवाह नहीं। मैं पिछले एक महीने से तुम्हें चिट्ठी लिखने की सोच रहा था। मन में यह बात खटक रही थी कि क्यों नहीं लिख रहा हूँ, इसलिए मन को खोलकर रख दिया है। सच पूछो तो इस पत्र के साथ जो ढेर सारा मैंने लिखकर भेजा है, वह तुम्हारे लिए नहीं, बल्कि अपनी तुष्टि के लिए लिखा है। मेरे दिमाग में जो भी आया, कागज पर लिखता गया-यह सोचे बिना कि किसलिए लिख रहा हूँ। कई दिनों से लिखता रहा हूँ, अब भी लिख रहा हूँ। यही कहूँगा कि इसके द्वारा मैं स्वयं को देखने-परखने की कोशिश करता हूँ। इसे आत्मालोचन या आत्मदर्शन की संज्ञा दी जा सकती है। अचानक मेरे मन में आया, इसलिए जितना कुछ लिखा गया था, कॉपी में से उतने पन्ने फाड़कर तुम्हें भेज रहा हूँ। मैं नहीं जानता, यह भी मेरा बुद्धूपन है या नहीं। लेकिन एक बात स्पष्ट करना चाहूँगा। इस बात को अपनी घरवाली से अवश्य कहना-'बुद्धू ब्राह्मण बनकर रहना ठीक नहीं है, बुद्ध हो तो वह ब्राह्मण नहीं होगा!' ब्राह्मण का अर्थ है, ज्ञान का कोष, हाँ...ज्ञान का खज़ाना...इस उत्तम कुल में जन्म लेकर माँ-बाप के दिये 'गणपति' नाम को गँवाकर उम्र के साठ साल तक मैं 'बुद्धू शास्त्री' की उपाधि को ढोता फिरा। जाने दो, जो बीत गयी, सो बात गयी।..अब मैं सन्तोष और गौरव के साथ रहता हूँ...साठ साल की उम्र बीतने के बाद अभी ऐसा सौभाग्य मिला है। भाग्य में पुनर्मिलन का योग बदा होगा तो कभी कहीं मिलेंगे ही। चाहे तुम लोग मुझे भूल गये हो, मैं कुछ भी भूल नहीं पा रहा हूँ।

तुम्हारा पिता

गणपति'

हस्ताक्षर की जगह पर गणपति शास्त्री लिखकर बाद में 'शास्त्री' शब्द को निर्ममता से काट-काटकर मिटा दिया गया था!

उपसम्पादक की गंभीरता के साथ शिव लिफाफे के अन्दर से कागज़ का पुलिन्दा निकाला और पन्नों की संख्या जानने के लिए आखिरी पन्ने पर नजर दौड़ायी। उसमें पृष्ठ संख्या कहीं नहीं लिखी थी। ये सारे कागज किसी कॉपी से फाड़े हुए थे। इसलिए फटे हुए स्थानों पर जहाँतहाँ एकाध अक्षर गायब भी थे। उस पुलिन्दे के कुछ पन्नों पर पेन्सिल से और कुछ पन्नों पर स्याही से लिखा गया था। गहरे चिन्तन के बाद हृदय के अन्तरतम से निकल रहे सुलझे हुए विचार होने के कारण काटछाँट के बिना लिखा गया था। इन पन्नों को शुरू से लेकर आखिर तक एक ही बैठक में पढ़ लेने का मन होने के बावजूद दफ्तर के कामों के बीच उसके लिए पर्याप्त समय के अभाव की वजह से उस पत्र को सावधानी से तह करके लिफाफे में डालकर उसने अपने बैग में रख लिया। बैग में रखते हुए फिर उठाकर लिफाफे को उलट-पलटकर देखा। भेजनेवाले का पता उस पर कहीं नहीं मिला। फिर भी डाकघर की मुहर से उस पत्र को नयी दिल्ली से आया जानकर शिवरामन क्षण भर के लिए आश्चर्यचकित रह गया।

पहले तो यही विचार आया-उसने कभी नहीं सोचा था कि बाबूजी इतने साहस का काम कर बैठेंगे; देखो, बिना कहे कितनी दूर चले गये; अगले क्षण यह सोचकर उसका मन दुःखी हुआ और आँखें सजल हो गयीं कि उस सीधे-सादे और निष्कपट व्यक्ति को जिन्दगी के कितने कड़वे अनुभव झेलने पड़े होंगे, इससे उनके हृदय में कितनी गहरी चोट पहुंची होगी।

उसी क्षण उसके मन में अपने पिता का, उस बुद्धू ब्राह्मण का चित्र उभरा; बढ़ी हुई दाढ़ी, सफेद बालों से भरा सिर, अगली पंक्ति का एक दाँत टूटा हुआ, बायीं आँख में भैंगापन, चेचक के दागों से भरा साँवला मुखमण्डल उसकी आँखों के सामने प्रत्यक्ष हो गया।

गणपति शास्त्री जी पिछले माह अमावस्या के अगले दिन अचानक गायब हो गये।

पहले दो दिन तक उनके परिवारवाले-परिवारवाले का खुलासा करें तो उनके दोनों पुत्र, शिवरामन और मणि-इस बात को लेकर ज्यादा चिन्तित नहीं हुए।

किसी से यह जानकारी मिलने पर कि वे अन्य चार-पाँच पुरोहितों के साथ कांचीपुरम गये हैं, उनकी बहू राजम जी भरकर उन्हें कोसती रही"देखो, ये कैसे आदमी हैं! कहीं जाना हो तो घर में आकर बता जाते। क्या उन्होंने घर को धर्मशाला समझ रखा है, जहाँ जी चाहे तो आएँ, जी चाहे तो न आएँ।" लेकिन कुछ दिनों के बाद कांचीपुरम से लौटे उन चार पुरोहितों ने बता दिया कि गणपति शास्त्री उनके साथ नहीं गये थे। यह सुनकर राजम क्षण भर के लिए सकपका गयी। उस दिन के बाद उसने ससुर को कोसना बन्द कर दिया।

राजम को अब चिन्ता ने घेर लिया। बार-बार अपने-आप बुदबुदाती-'कहाँ गये होंगे? हाय, क्या कर रहे होंगे?' प्यार से बुलाकर आदर करने के लिए बेटी या अन्य कोई रिश्तेदार न होने की उनकी शोचनीय स्थिति पर विचार करके बहू का मन कलप उठता। चिन्ता से घुलकर लम्बी साँस भरती। शिवरामन के मन में भी तरह-तरह की आशंकाएँ उठने लगीं।

रोज शाम को दफ्तर से लौटते हुए शिवरामन की आँखें मन्दिर के तालाब के मुँडेर पर पंक्तिबद्ध बैठकर उच्च स्वर में वाद-विवाद करने वाली शास्त्री-सभा में अपने पिता को ढूँढ-ढूँढकर थक जातीं।

उसे क्या मालूम था कि शहर में रहते समय भी उसके बाबूजी इस भीड़ से सदा अलग होकर अकेले बैठा करते थे।...आखिर उस बुद्धू ब्राह्मण को कौन अपने साथ बिठाना चाहता?

शिवरामन महसूस करने लगा कि बाबूजी के प्रति उसके मन में रहस्यमय शोक घर कर गया है और वह दिन-ब-दिन घनीभूत होता जा रहा है। मन में एक भारी बोझ का अनुभव-लेकिन इस विषय में जाहिरा तौर पर बात करने या पूछताछ करने से वह कतराता भी था। उसे डर था, कहीं उसकी पत्नी राजम जल-भुनकर ऐसा न कह बैठे, 'अजी, मान गयी कि वे दुनिया भर में अकेले-अनूठे पिता ठहरे। उनकी चिन्ता में इतना घुलते रहोगे कि तुम भी सूखकर काँटा हो जाओगे।' यह जिज्ञासा शिवरामन के मन को कुरेद रही थी कि क्या अपना छोटा भाई भी मन ही मन बाबूजी की याद में चिन्तित हो रहा है या यह सोचकर बेफिक्र बैठा हुआ है कि यह बुड्ढा बुद्धराम कहीं जा मरे, मेरी बला से। उसे लगा कि ऐसा सोचकर निश्चिन्त रहना महापाप माना जाएगा। बचपन की कितनी ही घटनाएँ उसे याद आने लगीं। अभी भी उन्हें अपना पिता कहने में स्वयं उसे और उसके भाई को शर्म क्यों आती थी।

यह बात सच है कि गणपति शास्त्री जैसा एक कुरुप, काला-कलूटा ब्राह्मण बुद्रूपन-भरी हँसी और भैंगी आँख लिये सामने आकर खड़ा हो जाए तो किसी के भी मन में उनके प्रति आदर का भाव पैदा नहीं होगा। उन्हें देखने पर कुछ लोगों को तरस आता, कुछ लोगों को उनकी खिल्ली उड़ाने की तबीयत होती। खुद वे भी अपना पोपला मुँह खोलकर 'ही ही' करते हुए कोई बात कहते। उनकी बात में छिपे सार या अर्थ पर कौन ध्यान देता? कइयों को उनकी बात 'बोर' ही लगती। गणपति शास्त्री भी यही मानते थे कि सामने वाले आदमी के तरस और परिहास के पात्र बने उन्हें 'पिता' कहलाने में यदि बेटे लज्जा अनुभव करें तो वह न्यायोचित है। कुल मिलाकर सार-संक्षेप यही है कि गणपति शास्त्री को शहर में आज तक किसी ने आदर नहीं दिया है। कई बार अपमानित जरूर किया है।

दूसरे शास्त्री अकसर कोई न कोई प्रकरण छेड़कर उनके मुँह से निकलती अनर्गल वाणी सुनकर आनन्द पाते। इस तरह उन लोगों के लिए गणपति शास्त्री मनोरंजन के एक साधन के रूप में काम आते। घर में उनके बेटों को उनकी वजह से लज्जा और अपमान का अनुभव होता था, उनकी बहू के मन में उनके प्रति घृणा का भाव था।

राजम को व्यक्तिगत रूप से उनके प्रति कोई दुश्मनी या नफ़रत नहीं थी। हमेशा चिड़चिड़ाते रहने की उसकी आदत थी। उस चिड़चिड़ेपन में स्वयं शास्त्री फँसते रहते तो इसके लिए राजम कहाँ तक जिम्मेवार थी?

इस तरह सब लोगों के लिए अवांछित रहे शास्त्री जी कहीं भाग गये तो किसका क्या हर्ज हो गया?

आज दस दिन हो गये...बीस दिन हो गये, इस तरह वे लोग क्यों दिन गिनते रहते?

"यों हमारे सिर पर दोष मढ़ने की ताक में थे। शहर के लोग मुझी पर तो इलजाम लगाएँगे! बताओ, कभी मैं उन पर बिगड़ी हूँ? कभी उन्हें बुरा-भला कहा है? वे जब यहाँ रहते थे तब भी मेरे प्राण खाते थे, अब यहाँ नहीं हैं तब भी मेरे प्राण खा रहे हैं" कहते हुए राजम रोज अपने ससुर के वियोग के लिए अपने स्वभाव वश दुःखी होती रहती थी।

राजम सचमुच ऐसा विश्वास करती थी कि उनके यहाँ रहते कभी उन्हें उसने बुरा-भला नहीं कहा था।

इस एक महीने के वियोग के फलस्वरूप अपने से दूर चले गये गणपति शास्त्री के प्रति उनके परिवारवालों के मन में एक तरह का स्नेह और व्याकुलता उत्पन्न हो गयी थी-उनके मन में यह जानने की तड़प बनी हुई थी कि वे जिन्दा हैं या नहीं। बिचारे यों अनाथों की भाँति कहीं चले गये-इस बात पर विचार करते-करते कई दुश्चिन्ताएँ उनके मन को खातीं; ऐसी बुरी कल्पना करके काँप उठते कि उनके पिता की लावारिस लाश कहीं पड़ी हुई है; राजम कभी-कभी एकान्त में चुपके से बैठकर आँसू बहाती, 'इस पाप के लिए जिम्मेदार मैं ही तो नहीं हूँ?' राजम की इस तड़प से न शिवरामन अवगत था न मणि।

दस दिन पहले शिवरामन दफ्तर से लौट रहा था। मन्दिर के तालाब के समीप खड़े शास्त्रियों के समूह में छोटे-से, नाटे-से, काले-से अपने पिता को उसकी निगाह रोज की तरह ढूँढ रही थी। उस दिन वेंकिट्टु अय्यर ने उसे देख लिया। उसका पीछा करते हुए वे बाजार तक चले आये। उसके बाद इधर-उधर नजर दौड़ाकर देख लिया कि कोई उनका पीछा तो नहीं कर रहा है। फिर आवाज दी-"ओ, शिवराम बेटे!"

शिवरामन ने मुड़कर देखा।

पास में आकर वेंकिट्टु अय्यर ने पूछा, "क्या तुम्हें अपने पिताजी के बारे में कोई खबर मिली?" वे गणपति शास्त्री के बचपन के मित्र थे, उनके हमउम्र।

शिवरामन को लगा कि उससे कोई भारी अपराध हो गया है। सिर झुकाकर डरते-डरते जवाब दिया-"कोई खबर नहीं है चाचाजी!...यह भी नहीं पता कि वे कहाँ गये हैं...यह भी मालूम नहीं कि क्यों चले गये?...घर में भी कोई मनमुटाव या कहासुनी नहीं हुई...आप स्वयं जानते हैं कि हम लोग किस तरह उन्हें आदर से रखते थे।" शिवरामन बोलता जाता था और बातों को निगलता भी जाता था। चोर की दाढ़ी में तिनका!

"अरे बुद्ध, उसके लिए तुम क्या करोगे? मान लो कि मनमुटाव रहा भी तो क्या हो गया...बाप-बेटे के बीच में हज़ार बातें होती हैं...लेकिन उसके लिए कोई घर से भाग जाएगा क्या?...सो तो ठीक है, क्या तुम्हें इस बारे में कुछ भी पता नहीं?..." पूछते हुए उन्होंने चारों ओर नज़र दौड़ायी। फिर धीमी आवाज में बोले, "इधर आ जाओ, बताता हूँ!" वे उसे बीच सड़क से भजन-मन्दिरवाली गली में ले आये।

गणपति शास्त्री के शहर से भाग जाने के पहले दिन मन्दिर वाले तालाब के किनारे जो घटना घटी थी, वेंकिट्टु? अय्यर को वह याद आ रही थी।

दोनों जब गली के छोर पर पहुँच गये तो वेंकि? अय्यर अण्टी से सुँघनी की एक चुटकी निकालकर उँगलियों के बीच में दबाते हुए बोले, "गणपति का मन खट्टा हो गया रे! उसे इस कदर अपमानित कर दिया। उन्होंने...वही सुन्दर घनपाठी..." इतना कहने के बाद सुट्टा से सूंघनी खींच ली। उसके बाद सुँघनी के तीखेपन के कारण ललाई-भरी आँखों से शिवरामन को देखा।

शिवरामन की समझ में कुछ नहीं आया। क्या कहा? सुन्दर घनपाठी ने गणपति शास्त्री को अपमानित कर दिया? किसलिए?

शिवरामन और उसके परिवार के लोग सुन्दर घनपाठी पर असीम भक्ति और श्रद्धा रखते थे। वे गणपति शास्त्री के गुरुनाथ विख्यात गणपति शास्त्री के पिता परमेश्वर घनपाठी के पट्ट शिष्य थे सुन्दर घनपाठी। यह गणपति शास्त्री के परिवार के लिए भी गौरव की बात थी। गणपति शास्त्री ने उन्हीं से वेद का अध्ययन किया। पचहत्तर साल से अधिक आयु के सुन्दर घनपाठी ज्ञानवृद्ध भी थे; उनके मुखमण्डल पर पाण्डित्य का तेज ऐसा चमकता था कि देखनेवाले के हाथ अपने आप प्रणाम में जुड़ जाते। ऐसे व्यक्तित्व के धनी सुन्दर घनपाठी जी ने जाने किस बात पर नाराज होकर बाबूजी का अपमान किया होगा। यह मान लिया जाए कि जरा तुनुकमिजाज होने के कारण उन्होंने कुछ ऊँचा-नीचा कहा हो तब भी किसी के उपहास या कटुवचन पर कभी बुरा न माननेवाले परब्रह्म-सदृश उसके पिता इसी बात पर शहर छोड़कर चले गये होंगे?-मन में इस तरह के तर्क-वितर्क करने के बाद शिवरामन ने जरा हिचकते हुए पूछा, "चाचाजी, आप यह क्या कह रहे हैं?" और उनका मुँह ताकने लगा।

"जो दृश्य मैंने देखा वही तो तुम्हें बता रहा हूँ शिवरामन! दूसरे शास्त्रियों ने मानों गुटबन्दी-सी कर ली है, इस अन्याय के विरुद्ध मुँह तक नहीं खोल रहे हैं...सुन्दर घनपाठी बहुत गण्यमान्य व्यक्ति हैं, उत्तम पण्डित हैं, मैं इनकार नहीं करता...फिर भी उन्हें इस उम्र में ऐसा क्रोध शोभा नहीं देता। क्या आदमी ऐसी भद्दी और गन्दी बातें बोल सकता है? इस तरह बोलना उनकी योग्यता के अनुरूप है?...धत्!" वेंकिट्टु अय्यर तैश में बोलते-बोलते थक-से गये। उसके बाद आगे की बात जानने की उत्सुकता इसके अन्दर है या नहीं, इसे ताड़ते हुए-से वे शिवरामन का मुँह ताकने लगे।

"उस दिन क्या हुआ, मुझे कुछ भी पता नहीं" शिवरामन ने कहा।

"अरे, मुझे भी ज्यादा मालूम नहीं है...मैं मन्दिर के अन्दर से आ रहा था। तालाब के घाट पर बड़ा शोरगुल...कहासुनी झड़प हो रही थी। देखा तो तुम्हारा बाप गणपति चुपचाप खड़ा था, घनपाठी हाथ उठाये उन्हें पीटने की मुद्रा में आवेश में उछल रहे थे। वे उसे पीटने का अधिकार रखते हैं, मैं मना नहीं करता...फिर भी इस तरह अण्ट-सण्ट बकते हुए...धत्, किसी ब्राह्मण के मुँह पर ऐसे अपशब्द शोभा नहीं देते थे...तुम्हारे बाप को गालियाँ दे रहे थे...गणपति का मुँह इत्ता छोटा हो गया और वह लज्जा से ज़मीन पर गड़ा जा रहा था...आखिर वह भी तो मनुष्य था। मेरे मन में भी आया, कि पूछू...गणपति ने वही बात पूछ ली। ऐसी कोई गलत बात नहीं पूछी तुम्हारे पिता ने...इतना ही पूछा...'अजी आप इस तरह भद्दी और गन्दी बातें मुंह से निकाल रहे हैं...क्या आप ब्राह्मण हैं?'...कोई कितनी देर तक झेलता रहता, दो टूक बात पूछ ली...बस! उस बुड्ढे का रूप तब देखना था...गणपति के कन्धे पर जो अंगोछा था उसे खींचकर उसे कसकर पकड़ लिया...जैसे 'भाव' आ गया हो उस तरह उछल-कूद करते हुए चिल्ला-चिल्लाकर गायत्री मन्त्र का उच्चारण करता रहा। फिर गणपति को डाँटते हुए पूछा-'अबे, इसका अर्थ बता रे! अगर तू ब्राह्मण का पुत्र है, तो बता इसका अर्थ क्या है?...क्या तू मुझसे पूछ रहा है कि आप ब्राह्मण हैं ?...अजी ओ यहाँ खड़े ब्राह्मणो, पूछो इससे कि क्या यह ब्राह्मण है?' इस तरह उसे भद्दे ढंग से डाँटा...वहाँ भारी भीड़ इकट्ठी हो गयी...मैंने जाकर बीच-बचाव करने की कोशिश की। पता नहीं, उस बुड्ढे में इतना बल कहाँ से आ गया? मुझे पकड़कर यों धकेल दिया...कि मैं तालाब के मुँडेर पर जा गिरा। धकेलने के बाद चिल्लाये...चेहरे पर उन्मत्तों जैसा आवेश! तुम्हारे पिता को धमकाने लगे, 'या तो मन्त्र का अर्थ बता...नहीं तो मान ले मैं ब्राह्मण नहीं हूँ...तूने किस साहस के साथ मुझसे यह बात पूछी?' वे गुर्रा रहे थे। उनकी गिरफ्त में आकर बेचारे गणपति का पूरा शरीर काँप रहा था। बुड्ढे से विवाद करने की ताकत हमारे अन्दर नहीं थी...बुड्ढे को नरसिंह का अवतार मानकर हमने गणपति से अनुरोध किया...'कह डालिए न! उस मन्त्र का अर्थ बताकर अपनी राह चले जाइए...क्यों आप भी जिद पर अड़े हुए हैं?' गणपति ने मुझे घूरकर देखा। फिर छोटे बच्चे की तरह जोर से रो पड़ा।

'मुझे तो केवल मन्त्र मालूम है, उसका अर्थ नहीं आता...' कहते हुए जब वह रोया, तो मुझे पचास साल पहले की बात याद आ गयी जब हम सहपाठी थे। मैं भी रोने लगा।

"झट से तुम्हारे बाप ने घनपाठी जी के हाथ को झटककर अपने को छुड़ा लिया। हम सब सहमकर खड़े थे कि अब क्या होनेवाला है। गणपति ने दाँत भींचते हुए अपने कन्धे से जनेऊ को एक ही झटके में तोड़कर उसे घनपाठी के मुँह पर दे मारा। फिर ऊँची आवाज़ में कहा, 'चलिए, कहता हूँ-मैं ब्राह्मण नहीं हूँ...मैं ब्राह्मण नहीं हूँ' नारे लगाने की तरह यही रट लगाते हुए उस क्षण जो गया सो गया। फिर कहाँ गया, उसका क्या हुआ...इस बात को जानने के लिए मैं तुम्हारे पास आने की सोच रहा था। लेकिन तुम कह रहे हो कि इस घटना के बारे में तुम्हें कुछ भी नहीं मालूम।"

वेंकिट्टु अय्यर ने गणपति शास्त्री प्रकरण को यों विस्तार देकर सुनाया मानों इसमें स्वयं उनका और आजकल के ब्राह्मणों के रूप में उन सभी का कोई सरोकार नहीं हो, मानों यह गणपति शास्त्री नामक अकेले व्यक्ति से सम्बन्धित कोई बात रही हो।

वेंकिट्टु अय्यर द्वारा वर्णित घटना में एक पूरे समूह की अवनति जो छिपी हुई थी, उसकी वेदना का अनुभव करते हुए शिवरामन मूक हो गया। उनसे विदा लिये बिना ही सिर झुकाये, सजल नेत्रों से घर की ओर चल पड़ा।

रास्ते भर यही सोचता रहा कि घर पहुँचते ही किसी कोने में औंधा लेटकर दहाड़ मार-मारकर रोएगा।

लेकिन घर पहुँचकर उसने ऐसा कुछ नहीं किया। उसे संकोच हो रहा था कि पिता के लिए मुझे रोते देखकर 'वह' नाराज हो जाएगी, इसी संकोच के मारे उसने अपनी 'इच्छा' की तिलांजलि दे दी...

निम्न वर्ग में पैदा होने की दुर्गति पर कोई रोये तो वह कुछ माने रखता है; उसके लिए हमदर्दी भी मिल सकती है। किन्तु उच्च वर्ग में उत्पन्न होने के बाद भी कलि की विडम्बना से हुई इस क्रूरता पर कोई रोये तो सहानुभूति मिलेगी?

शिवरामन उस दिन दफ्तर से लौट रहा था, उसकी निगाह मन्दिर के तालाब के पास खड़े शास्त्री-समूह में किसी को ढूँढ़ने के लिए नहीं रुकी। घर पहुँचते ही डाक में आये उस कागज़ की गड्ढी से पेंसिल और स्याही से लिखी बातों को पढ़ लेना चहिए। ज़माने के आघातों को अपने सीने पर झेल रहे एक वृद्ध हृदय से छिटककर गिरी रहस्यमय रक्त बूंदों के अर्थ को जान लेना चाहिए, इसी उत्सुकता और तड़प के साथ वह घर की ओर तेजी से कदम बढ़ा रहा था। इसलिए उसने आज उस भीड़ पर बिल्कुल गौर नहीं किया। शिवरामन जब घर पहुँचा, राजम रसोई में थी। मणि अभी घर नहीं लौटा था। वह माउण्ट रोड की एक नामी-गिरामी जूतों की दूकान में काम कर रहा था, इसलिए रात को आठ बजे दुकान बन्द होने के बाद ही घर आता था।

अपने कमरे में जाकर कपड़े बदलने के बाद उसने पहला काम यही किया कि बैग खोलकर उस लम्बे लिफ़ाफ़े के अन्दर से कागज़ की गड्ढी निकालकर उसे ध्यान से पढ़ने लगा।

उसने जो पहली पंक्ति पढ़ी, वही एक उत्कृष्ट साहित्य के पुरोवाक् के समान गाम्भीर्य से ओतप्रोत थी।

'...अहा, मैं देख रहा हूँ कि मेरे सामने हज़ारों मनुष्य चल रहे हैं। प्रत्येक व्यक्ति अलग ढंग का है। किसी एक व्यक्ति के समान दूसरा नहीं है। एक हजार आदमी हैं तो हजार किस्म भी हैं। इस मैदान से मेरे आगे और मेरे पीछे हजारों-हजार आदमी आते-जाते रहते हैं...बचपन में बृहदाकार ची पर पहली बार बैठकर चक्कर काटते हुए जिस तरह सिर चकराया था, उसी तरह अपने चारों ओर हजारों लोगों को घूमते देखकर उसी तरह विभ्रम का अनुभव कर रहा हूँ। मैं भी मेले में रास्ता भूले किसी शिशु की तरह टुकुर-टुकुर ताक रहा हूँ। इन हजारों आदमियों के चेहरों में एक भी चेहरा मेरा जाना-पहचाना नहीं है। ऐसा कोई चेहरा यहाँ नहीं जो मुझ पर गौर कर रहा हो। जब मैं इस बात पर विचार करता हूँ कि मुझे गौर करनेवाला एक भी चेहरा यहाँ नहीं है तब मैं अपने अन्दर परम सुख का अनुभव करता हूँ।

यह जो दिल्ली है, बहुत ही पुरातन नगर है। क्या अशोक और क्या सुलतान और बादशाह, क्या फिरंगी-गोरे-इस नगर पर कितने-कितने वर्षों से राज करते आये हैं-ऐसी महानगरी है दिल्ली। आज के दिन हम बैठकर नाना प्रकार के बन्धुत्व का बखान कर रहे हैं लेकिन यह संसार कितनी ही पीढ़ियों को देखता आ रहा है! इस क्षण जीवित मानव जाति का एक भी व्यक्ति दो सौ साल पहले जिन्दा नहीं था; दो सौ साल पहले जीवित मानव-जाति का एक भी जीव अब नहीं है। वह एक अलग किस्म का फिरका था, यह एक अलग किस्म का फिरका है; वह फिरका कब कैसे कहाँ गया और यह फिरका कब कैसे आया-इसे कौन बता सकता है? लेकिन एक बात सच है। वह समूह पूर्ण रूप से चला गया और यह समूह पूर्ण रूप से अस्तित्व में आया है। गहराई से सोचे बिना यदि दुनिया को उचटती नजरों से देखा जाए तो यहाँ का सब कुछ अजूबा जैसा लगेगा। यह बात भी इसी तरह का एक आश्चर्य है-दो सौ साल पहले की जनता का पूर्णतया चला जाना और आज की जनता का पूर्णतया अवतरण। वे लोग थोड़ा-थोड़ा करके चले गये और ये लोग थोड़ा-थोड़ा करके चले आये। आवागमन भी इसी प्रकार से चलता रहा है। ईश्वर के विधान के अनुसार यह कार्य अबाध गति से चल रहा है और मानव के विधान के अनुसार भी इसी तरह चलना चाहिए; और चलेगा...

प्रकृति में किसी प्रकार की उलझन नहीं है। उलझन ही नहीं हो तो वह कृत्रिमता कैसी? इसी तरह की कृत्रिमता भरी उलझन में मैं फँस गया था। इस तरह उलझ जाने का नाम ही जीवन है। यदि उलझन सुलझती नहीं तो उसके लिए जिम्मेदार हमी लोग हैं।'

कागज़ की इस गड्ढी पर यहाँ तक की बातें पेंसिल से लिखी हुई थीं। इसके बाद शुरू होनेवाले पन्ने स्याही से लिखे हुए थे। इस अन्तर को अध्याय-विभाजन की तरह मानकर शिवरामन अभी तक पढ़े गम्भीर विषयों पर चिन्तन करने लगा। इस चिन्तन-प्रक्रिया के बीच में वह यह सोचकर विस्मय से अभिभूत हुआ है कि क्या सचमुच हमारे बाबूजी इस तरह का उन्नत चिन्तन कर रहे थे?

इस क्षण पर फिर एक बार उस बुद्धू ब्राह्मण का दाढ़ीवाला सफेद बालों से भरा, अगली पंक्ति का एक दाँत टूटा हुआ, बाईं आँख में भैंगापन, चेचक के दागों से भरा साँवला मुखमण्डल उसकी आँखों के सामने आ गया।

लेखन को अपना धन्धा बनाने की इच्छा से एक पत्रिका-कार्यालय में कार्यरत रहने पर भी अपने दिमाग में चिन्तन की जो मणियाँ अभी तक नहीं उभरी थीं, और अपनी भावना को लेखन में उतारने की कला-दक्षता अभी तक हस्तगत नहीं हुई थी, ऐसे उन्नत विचार और ऐसी अभिव्यंजनाशक्ति जीवन-भर सभी के उपहास के पात्र बने इस बुद्धू ब्राह्मण को कैसे सिद्ध हो गयी-इस विभ्रम से जनित कम्पन्न के साथ वह आगे पढ़ने लगा।

'मेरे पिताजी का चेहरा तक मुझे याद नहीं है। जब उनका स्वर्गवास हुआ मैं नौ साल का बालक था। वैसे नौ साल की वय को देखते हुए पिताजी का चेहरा मुझे याद रहना चाहिए था। किन्तु मैं बुद्धू जो ठहरा, भूल गया। लेकिन बड़ा होते-होते उनके विषय में लोगों की बातें सुन-सुनकर मैंने उनके सम्बन्ध में बहुत कुछ जान लिया। वे महापण्डित थे। मैंने सुना है संस्कृत में उनका पाण्डित्य था ही। तमिल में भी वे अगाध ज्ञान रखते थे। सुन्दर घनपाठी जैसे बड़े व्यक्तियों को उनके चरणों में बैठकर अध्ययन करने का सौभाग्य मिला था...मैं ऐसे भाग्य से वंचित रहा। माँ कहा करती थी...मुझे भी पिताजी की तरह महापण्डित बनना चाहिए। कहती थीं पिताजी की इच्छा भी यही थी। तुम...यह सब उस जमाने के ब्राह्मण-दम्पतियों का लक्ष्य था। अपना बेटा ब्राह्मण-धर्म का सच्चा प्रतिनिधि बने, यह उस जमाने के लोगों का स्वप्न था। इस जमाने में ऐसा स्वप्न देखनेवाला कौन है? मैं और किसी को क्यों ढूँढ़ने चलूँ? ऐसे महान पुरुष की सन्तान होने पर भी क्या मैं उनकी तरह हो पाया?

'मैंने कितनी बार कहा था-जूतों की दुकान की नौकरी हमें नहीं करनी चाहिए। लेकिन मणि माना नहीं। कहने लगा, 'आपको कुछ नहीं मालूम है। जानते हैं यह नौकरी पाने के लिए मुझे कितने पापड़ बेलने बड़े?...ढाई सौ रुपये का मासिक वेतन और साल में तीन महीने का बोनस! कहिए इस नौकरी में क्या कमी है? शो-रूम में हमें गाय की चमड़ी काटकर जूते बनाने का काम नहीं दिया जाता। डिब्बों में बन्द जूतों को निकालकर बेचना हमारा काम है। आपको कुछ नहीं पता पिताजी! आप चुपचाप बैठे रहिए!' ऐसा कहकर उसने मेरा मुँह बन्द कर दिया और वह नौकरी स्वीकार कर ली।

'क्या वह गलत था? बिल्कुल नहीं। यदि हम विचार करें कि क्या वह गलत था? तो यही लगेगा कि इस कलियुग में सब कुछ सही है। क्योंकि मैंने भी तो नहीं चाहा था कि मेरे बेटे मेरी तरह चोटी रखें, बदन पर कमीज और पैरों में चप्पल तक पहनने के अधिकार खोएँ, जमाने भर की हँसी का पात्र बनें और हाशिये में पड़े आदमियों की तरह जिएँ। इसी विचार के चलते मैंने उन्हें अंग्रेजी स्कूलों में शिक्षा दिलवायी, चोटी की जगह बाल कटवाने की अनुमति दी। इससे क्या मतलब निकलता है? यही न, कि मैं स्वयं जिन्दगी जिस तरह जीना चाहता था, लेकिन वैसे जी नहीं पाया था। उन्हें उस तरह की जिन्दगी जीने देकर मैं सन्तुष्ट था। हाँ, दूसरों को 'हट जा', 'हट जा' कहते-कहते मैं स्वयं हट गया था, हाशिये पर चला गया था।..किसी जाति के नीची होने की बात जितनी बड़ी मिथ्या है, किसी जाति के ऊँची होने की बात भी उतनी ही बड़ी मिथ्या है। निम्न जाति कहकर दबाये गये वर्गों के समान ही उच्च जाति मानकर स्वयं हट गये वर्गों द्वारा अनुभूत कष्टों को देखने के बाद ही मुझे उपर्युक्त तथ्य का अनुभव हुआ था। यद्यपि मेरे बेटे नाम के वास्ते अपने को सवर्ण या उच्च वर्ग का मान लें, भले ही दुनिया को दिखाने के लिए जनेऊ पहनकर फिरें...यह अच्छा हुआ कि वे मेरी तरह हाशिये पर ढकेली या हट गयी जाति के नहीं रहे। मुझे अपना पिता कहलाने में, वे जिस जन-समूह के बीच जीते हुए व्यवहार कर रहे थे, उनके सामने मुझे अपने पिता के रूप में दिखाने में वे बार-बार लज्जित होते थे, कई बार इसे मैंने अपनी आँखों से देखा है।

'जिस पिता का चेहरा मैं भूल गया हूँ उनके बारे में मैं सोच-सोचकर गर्व का अनुभव कर रहा हूँ। आँखों के सामने रहने वाले बाप को देखकर मेरा बेटा लज्जित हो रहा है! मगर जाने दो...जब मैं खुद अपने ऊपर लज्जित हो रहा हूँ, उनका लज्जित होना क्या कोई गुनाह है?'

-फिर यहाँ से पेन्सिल की लिखावट शुरू हो रही है। शिवरामन की आँखों से बहती अश्रुधार में वे अक्षर भी ओझल हो जाते हैं। कुछ क्षणों तक वह अपने अंगोछे से मुँह ढाँप लेता है। क्या वह रो रहा है? फिर एक बार लम्बी साँस भरते हुआ लाल आँखों और फड़कते होठों के साथ आगे पढ़ना शुरू करता है।

'महाकवि भारती ने एक जगह निश्चय ही अत्यन्त क्रोध के साथ लिखा है-'अर्थ समझे बिना मन्त्र पढ़ने की अपेक्षा उस्तरा लेकर दाढ़ी बनाने का काम करना अच्छा है।' दस साल पहले मैंने भारती के इस विचार को कहीं पढ़ा था। मैंने सोचकर देखा कि मैं जिन मन्त्रों का उच्चारण करता हूँ, क्या मैं उनका अर्थ जानता हूँ? जिनका चेहरा मैं भूल चुका हूँ, ऐसे मेरे पिताश्री की उन महापण्डित की याद करते-करते मैं पूरे एक दिन रोता रहा। उन महापण्डित के चरणों में मेरे पिताश्री के चरणों में बैठकर अध्ययन करनेवाले सुन्दर घनपाठी भी महापण्डित हैं। मैं उनका शिष्य रहा हूँ। किन्तु उनके प्रति मेरे मन में 'वे मेरे गुरु हैं' इस भावना की अपेक्षा 'वे मुझे पीटेंगे' यही भय हमेशा हावी रहा। एक बार से ज्यादा पूछने पर वे कालाग्निरुद्र बन जाते थे। इस आतंक के चलते वे जिन बातों को एक बार पढ़ाते, उन्हें भी मैं सही ढंग से नहीं समझ पाया। मैंने तोते की तरह वेदों को रटा। उस वक्त मुझे वह काम गलत नहीं लगा।

'मैंने इसी आस्था और विश्वास के साथ मन्त्रों का मनन किया कि मन्त्र जो हैं पवित्र एवं आध्यात्मिक विषयों का प्रतिपादन करते हैं। किसी महान पुरुष ने लिखा है-'क्या कोई शिशु इस बोध के साथ माँ का दूध पीता है, कि माँ के दूध में फला-फलाँ विटामिन और पौष्टिक तत्व मौजूद हैं? फिर भी माँ का दूध उसके लिए आवश्यक है न! रोगी के लिए औषध अनिवार्य रूप से आवश्यक है। उसकी प्रत्येक गोली में कौन-कौन से रसायन मिले हैं, इसका ज्ञान जरूरी है क्या? मन्त्रों के विषय में भी यही बात लागू होती है।' उसे पढ़ने के बाद सान्त्वना मिली। किन्तु उस ज्ञानी का यह तर्क भी आड़े वक्त में मेरे काम नहीं आया।

'एक बार मैं वकील राघव अय्यर के यहाँ अमावस्या का तर्पण करवाने गया था। वे बहुश्रुत हैं, ज्ञानवान हैं। मेरे पिताश्री पर उनके मन में जो श्रद्धा थी वही श्रद्धा उनकी मुझ जैसे अयोग्य पुत्र पर भी थी। वे मुझे चालीस वर्ष से जानते हैं। पिछले साल एक अमावस्या के दिन जब मैं उनके घर गया था, उस समय उनके भानजे दिल्ली से आये हुए थे-नाम था वैद्यनाथ अय्यर। उस दिन उन्हें भी पितृ-तर्पण पढ़वाना था। वे गोरों जैसे दिख रहे थे। रेशमी धोती को उन्होंने जिस ढंग से लाँग बाँधकर पहना था, उसी से मैं जान गया कि वैदिक ढंग से धोती पहनने की उनकी आदत नहीं है। चार अंगुल तक जरीदार किनारेवाली धोती पहने सीढ़ियाँ उतरकर आते समय... अनाचार की हद हो गयी, उनके पैरों पर स्लिपर चमक रहे थे...क्या किया जाए? जमाना ऐसा आ गया!

'...मैंने उनसे रुखे स्वर में कहा, 'तर्पण करते समय उसे उतार देना चाहिए।' 'आइ एम सॉरी' कहते हुए वे अपनी भूल के लिए लज्जित भी हुए। मैंने भी कहा, 'इट इज ऑलराइट।'...मैं भी कभी-कभी जरूरत के माफिक अंग्रेजी के एकाध शब्द बोल लेता हूँ...! यद्यपि दुनिया ने मुझे हाशिये पर डाल रखा है, बार-बार अपने को दुनिया से जोड़ लेना मेरा स्वभाव है।

'मुझे उस दिन कई और जगह जाना था। इसलिए जल्दी-जल्दी अपना कर्त्तव्य पूरा करने के बाद उठते हुए मैंने देखा कि दक्षिणा कम थी। अरे इस आदमी को कुछ भी नहीं आता, ऐसे तिरस्कार-भाव के साथ मैंने कहा, 'दक्षिणा कुछ कम दिखती है।' वे मुझे देखकर हँसते हुए बोले, 'मन्त्र भी तो कम हो गया है।' जीवन में उस दिन की तरह कभी भी अपमान का अनुभव नहीं हुआ था। बाद में पता चला कि वे दिल्ली विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष थे।

उन्होंने मुझसे पूछा, 'आचार्य पीठ होने के नाते हम लोग आप पर जो श्रद्धा रखते हैं, क्या उस पीठ के गौरव की रक्षा करना आपका कर्तव्य नहीं है? स्वयं अर्थ जाने बिना मन्त्र सिखाना कहाँ तक उचित है?' मैंने कभी नहीं पढ़े हुए इस तर्क का प्रयोग किया : 'औषध का सेवन करना पर्याप्त है, फल मिल जाएगा। औषध में क्या है और क्या नहीं है यह सब जानने की आवश्यकता क्या है?' इस पर मुस्कराते हुए उन्होंने मुझसे कहा, 'औषध सेवन करनेवाले को औषध-मूल्यों का ज्ञान न हो तो कोई अन्तर नहीं पड़ता। लेकिन औषध देनेवाले वैद्य को इन सबका ज्ञान होना परम आवश्यक है।' मैंने थोड़ी देर सोचकर देखा। कोई उत्तर नहीं सूझा। आखिर मैंने हाथ जोड़कर कहा, 'क्षमा करें भगवन्!' और साइकिल पर सवार होकर घर भाग आया।'

घड़ी में आठ बज रहे थे। राजम रसोई से कमरे में आयी। पति की पीठ से सटकर खड़ी होकर उसके कन्धे के पार से उन कागजों को देखने लगी जिन्हें वह पढ़ रहा था। फिर उसे कोई दफ्तर का काम समझकर उपेक्षापूर्वक बोली, "अभी तुम्हारा काम पूरा नहीं हुआ? मैं खाना लगा दूँ?"

पत्नी की आवाज सुनकर शिवरामन का ध्यान-भंग हो गया।

"मणि को भी आ जाने दो!" मुस्कराकर दबी जबान से मैंने जवाब दिया।

"यह सारा कूड़ा आफिस में ही छोड़ आते!" बड़बड़ाते हुए राजम ने मेज पर से कोई पत्रिका उठा ली। उसे खोलकर दीवार से पीठ सटाकर बैठ गयी।

शिवरामन ने अगला पन्ना पलटा।

'निरर्थक बकवास करते हुए मैंने जीवन के साठ साल व्यर्थ कर दिये। मुझ जैसों के कारण ही ब्राह्मण-धर्म अपमानित हो गया है। प्रतिदिन तीनों बार सन्ध्या -वन्दन करते समय मन खटकता है कि मैं कोई अपराध कर रहा हूँ। अब तक झूठ के सहारे जीने का अपराध-बोध...मैं यह तो नहीं कहूँगा कि इस युग में वेद और शास्त्र आदि महत्वहीन हो गये हैं। हाँ, मुझे इस सत्य का बोध हो गया है कि मैं उनके महत्त्व को पहचान नहीं पाया। इस एक महीने में मैं जान गया हूँ कि मैं एक आदमी ही हूँ। इससे पहले, नाटक के पात्र की भाँति वेश धरकर संवाद बोलने की तरह मन्त्रों को समझे बिना होंठों पर नचाता फिर रहा था।

'मुझे पहले से जाननेवाला कोई भी अब मुझे देखने पर पहचान नहीं पाएगा। उससे कहा जाए, अरे, ये तुम्हारे जाने-पहचाने गणपति शास्त्री हैं। तब भी वह मानेगा नहीं। कभी आईने पर अपनी सूरत देखकर मुझे स्वयं विश्वास नहीं होता। हाँ, मेरे मन में अपना जो रूप है, उस गणपति शास्त्री की चोटी है, दस हाथ की धोती लाँग बाँधकर पहने है और उसके कन्धे पर छह हाथ लम्बा अंगवस्त्र है। साठ साल से दृढमूल जो कल्पना है, वह इतनी जल्दी मिट जाएगी क्या? आखिर यह भी मन की प्रतीति है...

'मैं अब न ब्राह्मण हूँ न शास्त्री। इस समय मैं एक ऐसा ईमानदार आदमी हूँ जो अपने अतमन को धोखा नहीं देता। जिस कुल में मेरा जन्म हुआ मैं उसका बड़ा आदर करता हूँ। महान व्यक्तियों द्वारा जो आचरण अनुष्ठित किये जाते हैं, ऐसे आचरणों को मिथ्यापूर्वक करते जाना कदापि उनके प्रति सम्मान की बात नहीं होगी। सब लोग मुझे बुद्धू ही कहते हैं। अब भी कहते होंगे। कहने दो...उस दिन तालाब के घाट से मैं जिस तरह चिल्लाता हुआ दौड़ा उसे देखकर लोगों ने मुझे पागल ही समझा होगा। सुन्दर घनपाठी जैसे लोगों के लिए पुरोहिताई गौरवपूर्ण धन्धा है, इसमें सन्देह नहीं है। भले ही उन्होंने मुझे कितनी ही गालियाँ दी हों, मैं आज उनका स्मरण करके प्रणाम करता हूँ। सचमुच वे मेरे गुरु हैं, जिन्होंने मेरी आँखें खोल दी हैं (चक्षुरुन्मीलितम् येन तस्मै श्री गुरवे नमः)। उस दिन यही प्रतीत हुआ कि सम्पूर्ण विश्व के रूप में आकर मेरे कन्धे को झकझोरते हुए पूछ रहे हैं, 'बता तू ब्राह्मण है? इस मन्त्र का अर्थ न जाननेवाला तू कैसा ब्राह्मण है, बता?' उन्होंने ही मुझे ब्रह्मोपदेश देकर जनेऊ पहनाया था। उन्होंने जो बातें सिखायी थीं, उन्हीं को रटते-रटाते हुए इतने दिन तक मैंने जीविका चलायी। अब उन्होंने ही कह दिया कि वह सब गलत है, ढकोसला है। जिस किसी दृष्टि से भी देखें, वे ही मेरे गुरु हैं। उन्हें मैं पुनः पुनः प्रणाम करता हूँ।

'अब मैंने बाल कटवा लिये हैं। कमीज़ पहन रहा हूँ, चप्पल पहन रखी है। यह सब मुझे अच्छा ही लगता है। जब सोचकर देखता हूँ तो मुझे हँसी आती है। कैसे-कैसे नियम बना रखे हैं-शास्त्री हो तो चप्पल नहीं पहनना चाहिए, लेकिन शास्त्री लोग साइकिल चला सकते हैं। मेरी जो साइकिल है...चालीस रुपये में शिवरामन ने खरीद दी थी, उसी समय वह बूढ़ी थी! अब उसे कौन चला रहा होगा? शिवरामन या मणि?...बुड्ढे-बुड्ढियाँ भी तो काम आएँगी...मरने तक।'

शिवरामन ने पढ़ते-पढ़ते सीधे बैठकर दालान की दीवार के पास खड़ी साइकिल को देखा। उसकी हरकत को देखकर फिर उसकी निगाह का अनुसरण करते हुए राजम ने भी उस तरफ मुँह मोड़कर दालान में खड़ी हुई गणपति शास्त्री की साइकिल को देखा। उस मौन अवस्था में पतिपत्नी दोनों ने उस खास विषय के बारे में वार्तालाप किये बिना ही अपने मन में खटकती बात को आपस में बाँट लिया। एकाएक सिसकते हुए राजम ने उस मौन को भंग किया :

"पता नहीं, ये निखट्ट ब्राह्मण कहाँ चले गये? अभी तक कोई खबर नहीं मिली है...दिन बीतते-बीतते मेरा मन मुझे बुरी तरह कोस रहा है। कोई अज्ञात वेदना मुझे साल रही है। आज आपको दिल की बात बता रही हूँ, उनके बिना मुझे यह घर खाने को दौड़ता है। घर सूना-सूना लग रहा है। क्या आपसे उनकी कोई लड़ाई हुई है? इत्ते बड़े दो-दो बेटों के रहते हुए भी उन्हें अनाथ की तरह घर छोड़कर जाने की नौबत, पता नहीं, क्यों आयी?" हाथ में रखी साप्ताहिक पत्रिका से मुँह ढाँपकर राजम सिसकने लगी।

कागज पर लिखी बातें पढ़कर पिता की संवेदनाओं को समझने के बाद उन्हें निपट बुद्ध मानने की उसकी धारणा जिस तरह ध्वस्त हो गयी उसी तरह आज राजम का पश्चात्ताप देखकर, उसके बारे में बनायी धारणाइसके मन में ससुर के प्रति घृणा छोड़कर स्नेह का लेश भी नहीं हैभी ध्वस्त हो गयी। शिवरामन को इस सत्य का बोध हो गया कि सभी तत्वों के अन्दर कोई न कोई महत्त्व छिपा रहता है, भले ही वह हमारे लिए अज्ञात हो। कागज की इस गड्ढी में से जिन पन्नों को वह पढ़ चुका था, उन्हें उसने राजम की ओर बढ़ा दिया।

इस समय उसकी आँखों से अब तक रोके गये आँसू बहने लगे थे।

"क्या है? पत्र है? क्या बाबूजी ने लिखा है?" पूछते हुए अत्यन्त आतुरता और उत्सुकता के साथ राजम ने उन कागज़ों को हाथ में ले लिया है-मन में एक सुखानुभूति छा गयी है कि वे कहीं भी हों, जीवित तो हैं। वह खुश होकर पत्र पढ़ने लगी।

उसी समय घर में घुस रहे मणि के कानों में उसकी बातें आधीअधूरी सुनाई पड़ीं-"क्या कहा? बाबूजी...? कहाँ हैं ?" पूछते हुए वह भाभी के पास आ बैठा और उसके साथ पत्र पढ़ने में संलग्न हो गया।

घड़ी में नौ बज रहे थे। उनमें से कोई भी खाने के लिए नहीं उठा। कागज़ की गड्डी अभी समाप्त नहीं हुई थी।

कहीं दूर बैठे बाबूजी के बारे में पूर्ण रूप से जानने की उत्सुकता में तीनों ही उन पन्नों में डूब गये थे।

उस गड्डी में से एक पन्ना पढ़ते हुए मणि सहसा जोर से चिल्ला उठा, 'वेल डन फादर!'

इन कागजों में उन्होंने पिताजी की जो कहानी पढ़ी, क्या वह कहानी अकेले उस परिवार से सम्बन्धित गणपति शास्त्री की कहानी थी, जिन्होंने अपनी संवेदनाओं के द्वारा अपने आन्तरिक व्यक्तित्व का दर्शन कराया था, आत्मदर्शन के माध्यम से विश्वदर्शन कराया था? क्या यह कहानी केवल गणपति शास्त्री नामक एक ब्राह्मण-मात्र की कहानी थी?