आसान रास्ता (कहानी) : यशपाल जैन

Aasaan Rasta (Hindi Story) : Yashpal Jain

द्वितीय महायुद्ध के दिनों की घटना है। उन दिनों यातायात की बड़ी कठिनाइयां थीं। रेलें घण्टों देर से आती थीं और कभी-कभी रेल का टिकट मिलना बन्द हो जाता था। एक बार मैं अपनी पत्नी के साथ दिल्ली से टीकमगढ़ जा रहा था। आगरा में हमें अपने कुछ सम्बन्धियों से मिलना था। इसलिए किसी गाड़ी से वहां पहुँच गये । आगरा से मेल द्वारा ललितपुर जाने का निश्चय किया, जो टीकमगढ़ का रेलवे स्टेशन था । रेल में बैठने के लिए राजा की मण्डी पहुंचे । मेल के आने में थोड़ी ही देर थी। मैंने पत्नी से समान सम्हालने को कहा और स्वयं टिकट लेने चला गया। टिकट घर पर पहुंचा तो मालूम हुआ कि ललितपुर का टिकट बन्द है । इतने में गाड़ी आ गई। मैं उल्टे पैरों दौड़ा कि कहीं पत्नी रेल में सामान न रखवा लें। प्लेटफार्म पर आया तो मेरी आशंका ठीक निकली। पत्नी एक डिब्बे में अधिकांश सामान रखवा कर अन्दर जा चुकी थीं। मैंने कुली से सामान उतारने को कहा, पर विस्तर- पेटियां इतनी फंस गई थीं कि उन्हें निकालना आसान न था । गाड़ी वहां बहुत थोड़ी देर रुकती थी और भीड़ का ठिकाना न था ।

अब क्या हो ? हार कर बाकी चीजें भी अन्दर डलवाईं । मैंने भीतर जाकर सामान संभाला तो बच्ची की गद्दी और रबर आदि का बण्डल नहीं दिखाई दिया। मैंने कुली से तलाश करने को कहा । पत्नी ने भी इधर-उधर खोजा, पर कहीं न मिला । कुली ने बाहर देखा तो वहां भी नहीं था । उसी परेशानी में गाड़ी ने सीटी दे दी । टिकट के सम्बन्ध में गार्ड को सूचित करना रह गया । मजे की बात यह हुई कि जिस बण्डल के लिए इतनी हैरानी हुई थी, वह मेरी बगल में था ।

झांसी तक बराबर भीड़ रही। वहां पर जैसे ही कुछ लोग उतरे, मैं बाहर आया और सीधा गार्ड के पास गया । उसे सारी बात बता कर मैंने टिकट चेकर से टिकट बनवा देने को कहा । गार्ड बोला, "आप इस चक्कर में क्यों पड़ते हैं ! यहां गाड़ी बहुत देर रुकती है । जाइये, टिकट ले आइये ।"

"पर हम लोग तो आगरा से आ रहे हैं ?” मैंने कहा ।

वह बोला, “कोई बात नहीं है । जाइये, देर मत कीजिये । " मैं वहां से दौड़ा । ज्योंही फाटक पर पहुंचा कि थोड़ी दूर पर खड़े टिकट कलक्टर ने आवाज दी, “कहां जाते हैं ?"

"टिकट लेने । गार्ड ने कहा है।" मैंने जवाब दिया ।

"सुनिये ।" वह बोला ।

पर मेरे पास रुकने का समय कहां था ! मैं दौड़ा-दौड़ा बुकिंग आफिस पहुंचा । संयोग से टिकट मिल गये । लेकर लौटा। पर टिकट- कलक्टर फाटक पर खड़ा मेरी राह देख था । मेरे पास आते ही बोला, "टिकट दिखाइये ।"

मैंने टिकटें उसे दे दीं। टिकटों को देखते हुए उसने पूछा, "कहां से आ रहे हैं ?"

मैं समझ गया कि उसके मन में क्या है ? मैंने कहा, "आपको उससे क्या ?"

"जी, नहीं, मेरी बात का जवाब दीजिये ।" वह गंभीर होकर बोला ।

मैंने कहा, "मुझे हैरान न कीजिये । मेरी गाड़ी छूट जायगी । लाइये, टिकट दीजिये । आप समझ लीजिये कि मैं यहीं से जा रहा हूं।"

पर उसने टिकट नहीं दिये । बोला, "मेरे साथ आइये ।"

वह मुझे प्लेटफार्म पर ले गया और मेरे देखते-देखते उसने तीन- चार टिकट चेकर इकट्ठे कर लिये ।

उनसे बोला, "इन महाशय को देखिये । मैं पूछता हूं कि कहां से आ रहे हैं, तो यह ठीक जवाब ही नहीं देते !”

सबने मेरी ओर देखा। मुझे चुप देखकर टिकट-कलक्टर बोला, "अच्छा, आप इन सबके सामने कह दीजिये कि आप यहीं से जा रहे हैं।"

मैंने कहा, "आप लोग बेकार की बात कर रहे हैं । जब मेरे पास टिकट है तो आपका सवाल करना एकदम बेमानी है ।"

मैं अपनी बात पर अड़ा रहा। वह अपनी पर ।

झगड़ा उसी डिब्बे के सामने हो रहा था, जिसमें हम लोग बैठे थे । मेरी पत्नी ने मुझे रेल के बाबुओं से घिरा देखा तो वह उतर कर वहां आ गईं । टिकट- कलक्टर कह रहा था, "आपको बताना ही होगा कि कहां से आ रहे हैं।"

मैं कह रहा था, “आप बेकार का सवाल पूछ रहे हैं । मैं कहता हूं, हमारे पास टिकट है या नहीं ?"

गाड़ी छूटने का समय हो रहा था । मेरे पास टिकट थे, अतः टिकट-कलक्टर कुछ कर भी नहीं सकता था । उसने मेरी ओर इस तरह देखा, मानो वह कहता हो, "तुम झूठे हो, पर खैर, मैं तुम्हें छोड़े देता हूँ ।"

उसने टिकट मुझे लौटा दिये । टिकट लेकर जब हम डिब्बे की ओर बढ़े तो मैंने अनुभव किया, मेरे सिर पर जाने कितना बोझ रक्खा है । परिस्थिति से बचने के लिए मैंने जो आसान रास्ता अंगीकार किया था, वह गलत था । गाड़ी चलने पर सहसा एक विचार मन में आया और मैं कांप उठा । यदि वह टिकट-कलक्टर हमारे साथ डिब्बे में आ गया होता और उसने साथ के मुसाफिरों से पूछ-ताछ की होती तो हमारी क्या हालत हुई होती !

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