अपनी पहचान (कहानी) : श्रीलाल शुक्ल
Apni Pehchan (Hindi Story) : Shrilal Shukla
घर में आटा चुक गया था। दफ़्तर से लौटने पर मनोहर को पहला हुक्म गेहूँ पिसा लाने का मिला। दस सेर गेहूँ साफ़ करके एक गंदी-सी टोकरी में रख दिए गए थे। यह काम करना ही पड़ेगा–सोच मनोहर ने एक गहरी साँस खींची।
नया-नया बी.ए. किया था, यद्यपि शादी पहले हो चुकी थी। नई-नई नौकरी आरंभ की थी और गृहस्थी का हिसाब भी नया ही था। पुराने गृहस्थ क्लर्कों का रंग-ढंग मनोहर में अभी पूरी तरह उतर न पाया था। कभी तरकारी ख़रीदनी हो तो तीन आने के स्थान पर ग्यारह पैसे में सेर भर ख़रीदकर भगीरथ वाली सफलता का हर्ष नहीं होता था। सिनेमा का शौक़ एकदम से न गया था। खुलेआम सिगरेट पीने के बजाय बीड़ी पीने और चपरासी से भी ‘पहलवान छाप बंडल लाओ’ कहने की मुक्त अवस्था अभी न आई थी। ‘डैमफूल’, ‘डलर्ड’, ‘ईडियट’ आदि विशेषण सुनकर अब भी ख़ून खौल उठता था। इस प्रकार अपनी थोड़ी तनख़्वाह में किसी प्रकार मनोहर अपनी बीवी और दुधमुँहें बच्चे के साथ-साथ अपनी बाबूगिरी को भी पाल रहा था। गंदे कपड़े पहनने वाले, बंद गले के कोट और गोल टोपी में आने वाले पुरनिया बाबुओं को वह शासन के सर्वथा अयोग्य समझता था।
कहने की आवश्यकता नहीं कि इन दस सेर गेहुओं को देखकर उसे लगा मानो दसों दिशाएँ उसके ऊपर चारों ओर से चिंता की धारा बरसा रही हैं।
अन्नपूर्णा ने कह दिया था कि आटा बिल्कुल नहीं है, इसलिए गेहूँ पिसाना ज़रूरी था।
गेहूँ लेकर रास्ते से निकलना है। अगर रास्ते में मि. भारद्वाज मिल गए तो? कल इतवार है, सवेरे उन्होंने चाय पर बुलाया है। विश्वविद्यालय के पुराने साथी हैं। असिस्टेंट राशनिंग अफ़सर हो गए हैं, फिर भी मित्रता मानते हैं।…ये गेहूँ किसी मज़दूर को भेजकर पिसा लिए जाएँ।
पर विश्वास योग्य मज़दूर मिलें कहाँ? और आटा चक्की भी कोसों दूर है। कोई मिला भी तो आठ-दस आने से कम क्या लेगा? जितने की भगति नहीं उतने की खंजड़ी फूट जाएगी। फिर दस सेर गेहूँ के लिए मज़दूर–यह जानते ही अन्नपूर्णा का मितव्ययता पर भाषण कौन सुनेगा?
एक तरक़ीब सूझी। गेहूँ का वज़न इतना कर लिया जाए कि मज़दूर अनिवार्य हो जाए। बोला, ‘‘यह रोज़-रोज़ का झंझट मुझे ठीक नहीं लगता। सब गेहूँ निकाल लो, अभी पिसवा मँगाऊँगा।’’
अन्नपूर्णा ने सीधी निगाहों से देखकर कहा, ‘‘जाकर पिसा लाओ। आधे घंटे का काम है। और गेहूँ नहीं है।’’
मजबूरी थी। बोला, ‘‘बाँध दो।’’
अन्नपूर्णा ने एक मैले झोले में, जिसे पुरानी साड़ियों के किनारों को जोड़-जोड़कर बनाया गया था, गेहूँ भर दिए; कहा, ‘‘ले जाओ।’’
मनोहर ने झल्लाकर कहा, ‘‘ए, वह झोला मैं छुऊँगा भी नहीं। ओह! कितना गंदा है।’’
अन्नपूर्णा ने वे गेहूँ फिर टोकरी में डाल दिए।
यह झोला हाथ में लटकाया जाने वाला था। कुछ दिन पहले, जब लोग कुर्ता और मिर्ज़ई पहनते थे, कंधे पर लटकाए जाने वाले दो पेट के झोलों का चलन था। जब से कपड़ों में स्टार्च लगने लगा और क्रीज़ होने लगी, कोट-पतलून का राज्य हुआ, तब से कंधे या सर पर अपना सामान ले चलने की प्रक्रिया उठ गई। इन हाथ वाले झोलों का आदर बढ़ा। भाव यह था कि बोझा ढोते समय हम जितना ही बोझ को नगण्य मानें उसी अनुपात में हमें भद्र माना जाएगा। अतः बीस सेर का सूटकेस बैग के रूप में हाथ में लटकाकर और बार-बार पैर के घुटनों से उसे लड़ाकर लोग कृतकृत्य हो जाते हैं। परंतु तीन सेर की पोटली कंधों पर नहीं रख सकते।
ख़ैर, दुर्भाग्यवश यह एक झोला ही था जो इतना गंदा निकला कि मनोहर उसे छू तक नहीं सकता था।
उसने फिर कहा, ‘‘क्या गेहूँ पिसाने नहीं हैं जो लाट साहब की तरह रख लिए?’’ कहते ही उसे अपनी भूल का अनुभव हुआ कि लाट साहब को गेहूँ टोकरी में डालने के बजाय कुल और ही महत्त्वपूर्ण काम करने के लिए रखा जाता है।
धीरे से अन्नपूर्णा ने कहा, ‘‘ले काहे में जाओगे?’’
अपेक्षाकृत एक साफ़ धोती थी। उसे दोहरा कर उसमें गेहूँ बाधे गए। एक छोटी-सी पोटली बन गई। अब उसे बग़ल में दबाने पर जान पड़ा कि वह कमीज़ के सामने काफ़ी मैली पड़ती है। मनोहर ने घर पर पहनने वाली यानी मैली कमीज़ और उतनी ही मैली धोती पहन ली। चलते-चलते कहा, ‘‘मेरी सिल्क वाली कमीज़ के बटन टूट गए हैं, लगा देना। कल उसे ही पहनकर ए.आर.ओ. साहब के यहाँ चाय पर जाना है।’’
इतना कहकर बाहर आया। झुका-झुका सड़क पर चलने लगा। दस सेर गेहूँ क्या लिए जा रहा था, मानो इतने ही गेहूँ कहीं से चुराकर, लोगों की निगाह बचाकर, भागा जा रहा था।
जो डर था वही सामने आया। बाबू श्यामनाथ, भारद्वाज के भाई, सामने से टहलते हुए आ रहे थे। मनोहर की बार-बार इच्छा हुई कि ज़मीन फटे और वह उसमें समा जाए। शंका यह है कि यह इच्छा एक बार भी क्यों न हुई कि ज़मीन फटे और स्वयं बाबू श्यामनाथ उसमें समा जाएँ। समाधान यह है कि यदि ऐसा हो भी जाता तब भी मनोहर अपनी पोटली के साथ पृथ्वी की लज्जा का भार सहन करने के लिए रह ही जाता।
पर ज़मीन इतनी सस्ती नहीं है कि इच्छा करते ही टके की पतंग की तरह फट जाए। बाबू श्यामनाथ सामने आ गए।
वे शायद मनोहर को देखते भी नहीं, पर उसने सोचा कि यदि उन्होंने देख लिया तो समझेंगे कि वह इस हालत में मारे झेंप के चुपचाप निकला जा रहा है। इस कारण, यह सिद्ध करने के लिए कि अपना काम करने में वह जहाज़ पर कोयला झोंकने वाले प्रिंस ऑफ वेल्स ही-सा महान् और निर्लज्य है, उसने पहले ही कहा, ‘‘ओ हो, श्यामनाथ जी हैं? कहाँ?’’
उनकी स्वाभाविक मुस्कान भी उसे व्यंग्यभरी जान पड़ी। उन्होंने पूछा, ‘‘आप कहाँ?’’
‘‘अरे साहब, ये गेहूँ गले पड़ गए। अभी पिछले इतवार को वह लौंडा पच्चीस सेर के क़रीब पिसा ले गया था। सब न जाने कहाँ चला गया! सोचा, फ़िलहाल के लिए इतना पिसा लाऊँ।’’
‘‘भेज देना था किसी को। चलिए, ‘रतन’ देख आएँ। ऐसी पिक्चर आज तक नहीं बनी।’’
‘‘अरे जनाब, रतन देखने की फुरसत कहाँ है!’’ कहते ही उसे लगा कि उसने पुराने बाबुओं वाली कोई बात कह दी है। चलते-चलते श्यामनाथ जी कह गए, ‘‘कल आइएगा अवश्य। मिस आहूजा भी शायद आवें।’’
श्यामनाथ की आवाज़! उसे लगा कि उसमें कुछ रुखाई-सी है।
और, मिस आहूजा?
कहाँ दस सेर गेहूँ और कहाँ वे! केवल रंग की समता है।
बैसाख के सूरज की ढली रोशनी में चक्की के सामने रूखा दृश्य, आटे के कणों से भरी हुई हवा का स्पर्श, घर्र-घर्र का घोर शब्द, मुँह खोलते ही खाँसी लाने वाला रस, लोगों के पसीने की गंध। समस्त ज्ञानेंद्रियों को सुन्न करने वाला यह वातावरण उसे मिस आहूजा के बारे में रोमांटिक नहीं बना पाया। एक विचार मन में घुस गया था, वह कल सिल्क वाली कमीज़ पहनकर जाएगा ज़रूर, पर क्या श्यामनाथजी उसका आज का रूप भूल सकेंगे?
जब उसने बार-बार चक्कीवाले से आटा पीसने में जल्दी करने को कहा तो उसने अपने क्षेत्र में सुमान्य, युद्धोत्तर सभ्यता के नियम का पालन करते हुए कहा, ‘‘जल्दी हो तो कहीं और जाओ। वे रहे तुम्हारे गेहूँ।’’
झेंपकर मनोहर एक कोने में खड़ा हो गया। वहीं प्रायः पैंतालीस साल का एक मैला-सा आदमी खड़ा था। वह पाँवों तक कसा हुआ पाजामा पहने था। बदन पर कुर्ता था जो ज़रूरत से ज़्यादा लंबा और कंधों पर फटा हुआ था। कुछ दाढ़ी बढ़ गई थी। गाल के गढ्डों और कनपटियों के ऊपर बालों में सफ़ेदी आ गई थी। आँखें डरावनी और फूली हुई लग रही थीं। वह बीड़ी पी रहा था। उसने एक फूँक मनोहर की ओर फेंककर पूछा, ‘‘कहाँ काम करते हो?’’
मनोहर को उससे बात करने में अपमान-सा जान पड़ा। उसने उसकी बात अनसुनी कर दी। तब वह आगे बढ़ आया और मनोहर के मुँह में झाँककर अपना सवाल दोहराते हुए बोला, ‘‘कहाँ काम करते हो?’’
अनिच्छा के साथ मनोहर ने बताया, ‘‘सी.ओ.डी. में।’’
‘‘ठीक। मैं पहले ही जान गया था।’’
‘‘कैसे?’’ मनोहर ने घूरते हुए पूछा।
उसने अपना सर जोकरों की भाँति हिलाकर पास खड़े हुए अपने दो-तीन साथियों से कहा, ‘‘जो बहुत जल्दी मचाए तो जान लो कि वह दस घंटा सी.ओ.डी में मज़दूरी करके आया है।’’ पता नहीं इसमें क्या बात थी कि वे सब खिलखिलाकर हँस पड़े। मनोहर कुपित नेत्रों से उसे देखता रहा।
उसने पूछा, ‘‘क्या पाते हो?’’
मनोहर ने लापरवाही से कहा, ‘‘मिल जाता है खाने-भर को।’’
उसने फिर अपना भयंकर सिर जोकरों जैसा हिलाया और अपने साथियों से बोला, ‘‘अरे जान लो भाई लोगो, सी.ओ.डी. में भी एक आदमी खाने-भर को पा जाता है।’’ फिर उसने मनोहर से पूछा, ‘‘क्यों जी, खाने-भर को तो मिल जाता है, पहनने-भर को भी मिलता है कि नहीं?’’
मनोहर ने कुछ कहना चाहा, मुँह खोला। फिर चुप हो गया।
उसने फिर पूछा, ‘‘डेढ़ रुपया रोज़ मिलता है?’’
मनोहर ने कहा, ‘‘मैं तीन रुपया रोज़ पाता हूँ। पर तुमसे मतलब?’’
इस पर वह आदमी फिर अपने साथियों के साथ हँस पड़ा। मनोहर के मन में आया कि वह उनकी खोपड़ी तोड़ दे, पर परिस्थिति समझकर चुपचाप खड़ा रहा।
हँसी रुकने पर उस आदमी ने कहा, ‘‘मतलब तो मुझको कुछ नहीं है। तुम तो बाबू हो बाबू। तुम्हें तीन रुपया रोज़ मिलता है। मुझको तुमसे क्या मतलब?’’
अब मनोहर ने ज़रा कड़ाई से कहा, ‘‘देखो जी, मुझे तुम्हारा मज़ाक बिल्कुल पसंद नहीं।’’
वह अपने साथियों से बोला, ‘‘इन्हें भला क्यों पसंद आएगा हमारा मज़ाक। ये ठहरे बाबू, तीन रुपिया रोज़ वाले। हम लोग ठहरे लट्ठ गँवार! मज़दूर! हमारा मज़ाक इन्हें क्यों अच्छा लगेगा?’’
अपने एक साथी से उसने पूछा, ‘‘क्यों रे, तेरा लड़का भी तो इंट्रेस में पढ़ता है?’’
साथी ने कहा, ‘‘जानते तो हो।’’
यह आदमी कहने लगा, ‘‘देख बे, उस छोकरे को इंट्रेंस न पास करा। नहीं तो वह भी बाबू बनकर अपने लोगों से अलग हो जाएगा। तनख़्वाह मिलेगी साले को सत्तर रुपल्ली, पर समझेगा कि वह तुझसे हज़ार गुना ऊँचा है। वह तेरी नक़ल न करेगा। वह नक़ल करेगा अफ़सरों की, सेठ-साहूकारों की। इसी बाबू की तरह बात करने पर नाक-भौं चढ़ाएगा। वह भी भूल जाएगा कि उसकी जड़ कहाँ है।’’
वे सब हँसते रहे।
मनोहर ने पढ़े-लिखे आदमी की तरह समझ लिया कि संधि करने में ही कल्याण है। बोला, ‘‘क्या बात है जी? मैंने ऐसा क्या कह दिया जो तुम यह सब कहने लग गए?’’
मनोहर की आवाज़ ही संधिपत्र था। उस पर उस आदमी ने भी हस्ताक्षर करने चाहे। वह नर्मी से बोला, ‘‘बात कुछ नहीं है बाबू, सिर्फ़ समझ का फेर है। तभी मेरे पहले सवाल करने पर तुम उसे अनसुना कर देते हो। तभी जेब ख़ाली होने पर भी रेल में ऊँचे दर्जे का सफ़र करते हो ताकि कहीं हमारे जिस्म की हवा, हमारी तंबाकू की गंध तुम्हें छू न जाए। तभी तुम उन जगहों में पहुँचने की कोशिश करते हो जहाँ तुम्हारा कोई नहीं है।’’
इस बार लोग हँसे नहीं। चक्की की घर्राहट के बीच ड्राइवर की अशिष्ट आवाज़ सुन पड़ी, ‘‘लो जी, गेहूँ पिस गए, निकालो ढाई आने।’’
पैसे देकर, हाथ में आटा लटकाकर, वह बाहर आया। उस आदमी ने इस बार मनोहर की ओर नहीं देखा। वह बीड़ी सुलगाने में व्यस्त था। मनोहर को संदेह हुआ कि वह कुछ पढ़ा-लिखा आदमी है, जानने योग्य है। पर हिचक के मारे वह चुपचाप चला आया।
घर आकर, आटा एक किनारे रख, नहाने चल दिया। अन्नपूर्णा ने रोककर सिल्क की कमीज़ उसके हाथों में रख दी और पूछा, ‘‘कुछ और ठीक करना है?’’
एक पल वह अन्नपूर्णा के पीले और मुरझाए चेहरे की ओर देखता रहा। उसके बाद धुएँ से धूमिल आँगन पर उसने निगाह डाली। नीचे अँधेरा था, पर दुमंज़िले के ऊपर मुँडेरों पर, जहाँ अधिक किराया देने वालों ही की पहुँच थी, सूरज पूरी तरह अभी डूबा न था। उसकी लाल रोशनी अब भी छतों पर फैल रही थी।
उसने फिर अन्नपूर्णा के चेहरे की ओर देखा। ऐसा लगा कि वह चेहरा उसने बहुत दिन बाद देखा है। फीकी मुस्कान के साथ उसने एक उँगली अन्नपूर्णा की ठुड्डी पर आवेग के साथ फेरी और कहा, ‘‘और कुछ नहीं ठीक करना।’’
फिर तौलिया और साबुन ज़मीन पर रखकर, कपड़ों का पुराना संदूक़ खोल उस कमीज़ को उसमें सबसे नीचे रख दिया। उसके बाद नहाने गया।