आओ लतिका, घर चलें (कहानी) : प्रकाश मनु

Aao Latika, Ghar Chalein (Hindi Story) : Prakash Manu

1

सड़क थी—एक लंबी खिंची हुई, काली और बदसूरत सड़क। जैसे तेज गरमी के कारण वक्त की हाँफती हुई जीभ बाहर निकल पड़ी हो और बेतरतीब घुमावों के साथ पसर गई हो। बिलकुल बेमतलब, बेमानी।

और क्या? सड़क का भी कोई मतलब होता है। सड़क तो सड़क होती है, जिस पर से लोग, नहीं, लोग नहीं—पैर, सिर्फ पैर गुजरते हैं। आते हैं, जाते हैं और उन पैरों के नीचे दबी सिसकियाँ भरती सड़क। सड़क का भी कोई मानी होता है?

चलते-चलते अचानक सोचने लगी लतिका—लोगों से खचाखच भरे, समूचे शहर का बोझ अपनी छाती पर झेलती सड़क। और फिर भी कित्ती अजीब चीज है कि सड़क का कोई अपना अर्थ, कोई अपना वजूद, कोई अपना प्रयोजन नहीं। बस हमें, हमारे काम के लिए एक जगह से दूसरी जगह ले जाती है। नहीं, ले कहाँ जाती है, वह तो ठहरी रहती है। गुजरते तो पैर हैं।

तो क्या उन पैरों का ही कोई प्रयोजन है? और उन तमाम मोटरगाडिय़ों, कारों, बसों का, जो तैरती हुई आती हैं। खचाखच लोगों से भरी। कुछ लोगों को छोड़ती, कुछ को भरती हैं और फिर हड़बड़ी मैं वैसी ही हाँफती हुई गुजर जाती हैं।

क्यों, कहाँ! कहाँ जाते हैं इत्ते सारे लोग? इन्हें कहाँ पहुँचने की इतनी हड़बड़ी है? क्या इनकी जिंदगी में इतना ढेर सारा सुख है कि...? क्या इनकी जिंदगी का वाकई कोई प्रयोजन है!

और अगर है तो कितने भाग्यशाली हैं ये लोग। लेकिन...

2

लेकिन...असंख्य अनजाने चेहरों, असंख्य आँखों, असंख्य पैरों के हूजूम में, एक बेतरतीब भीड़ का हिस्सा बनी हुई, चलते-चलते अब वह थक गई थी।

सिर पर सूरज चिलक रहा था और उसकी तेज, नंगी धूप आँखों में चौंध पैदा कर रही थी। गरमियों में शाम के वक्त भी सूरज इस कदर तपता है कि जैसे वह मन की सारी आद्र्रता को जलाकर सोख लेना चाहता है।

उसने अपने सूखे होंठों को जीभ से तर करने की कोशिश की, लेकिन बेकार। भीतर कोई और भट्ठी तप रही है और भीतर और बाहर की दोनों धधकती हुई भट्ठियाँ जैसे उसकी भावनाओं के रस को सोख लेना चाहती हैं, पी जाना चाहती हैं।

क्या उसी को इतनी झुँझलाहट हो रही है? या सभी इस ताप में ऐसे ही तपते हैं, लेकिन कहते नहीं। उसका मन हुआ किसी से पूछे। लेकिन किससे?

पास ही पानी वाला दिखाई पड़ा तो वह हड़बड़ाहट में करीब-करीब दौड़ते हुए, उस तक गई और जल्दी-जल्दी पानी के दो-तीन गिलास पी डाले। बैग से निकालकर उसने पाँच रुपये का नोट दिया, बाकी पैसे लेकर चल दी।

पानी के ठेले वाला लड़का थोड़ी देर उजबक-सा, उसे अजीब-सी नजरों से देखता रहा। शायद उसकी प्यास या बेसब्री उसे अजीब लगी हो। फिर कॉलेज के कुछ लड़के-लड़कियाँ आ गए, तो वह झट उनकी सेवा में लग गया। उन लड़के-लड़कियों की चीं-चपर बातों और बेवजह हँसी के बीच उस पानी वाले लड़के भी उत्साहित ‘लीजिए...लीजिए’ की आवाजें दूर तक उसे सुनाई देती रहीं।

अचानक उसे लगा कि आधुनिकता का अर्थ पैसा है, सिर्फ पैसा। अपनी हर जरूरत, हर इच्छा की पूर्ति जो चाहे जहाँ से करे, सिर्फ जेब में पैसे होने चाहिए कीमत चुकाने के लिए। भावना और जज्बात की लाश पर कहकहे लगाती आज की जिंदगी पैसा है, सिर्फ पैसा। हर स्वार्थ, धोखा और चालाकी इसी पैसे को लेकर है। उसे लगा कि वही जैसे पिछड़ गई है। बार-बार धोखे और चोट खाती हुई भी इस हकीकत को मानने से इनकार करती रही है। और इसीलिए बिन्नू और मोना तक उसका मजाक उड़ाते हैं।

कल ही तो टीवी प्रोग्राम ‘ग्रेट लाफ्टर’ देखते-देखते मोना ने कहा था, “लतिका दीदी को तो आज से दो सौ साल पहले होना चाहिए था। बिलकुल अठारहवीं सदी जैसी सीधी और सेंटीमेंटल!” और यह सुनकर बिन्नू तालियाँ बजाकर हँस पड़ा था—“आइडिया, आइडिया! बिलकुल अठारहवीं शताब्दी का मॉडल। तुमने मेरे मन की बात छीन ली मोना!”

—अठारहवीं शताब्दी की मॉडल! सीधी-सादी मिट्टी की मूरत, भावुक... दकियानूस! और भी न जाने क्या-क्या? छोटे-छोटे बच्चे भी उसे चिढ़ाने लगे हैं। इसलिए कि उसे वह सब अच्छा नहीं लगा जो सबको अच्छा लगता है।...किसी एक को निशाना बनाकर ‘हा-हा’ करना, यह फूहड़ता है या मनोरंजन? उसके भीतर सवाल पर सवाल उठते हैं। पर उन सवालों की क्या इतनी बड़ी सजा होती है कि हर कोई उस पर फब्तियाँ कसे? बच्चे तक!

तो क्या अब यही उसकी जिंदगी रह गई है? इसमें कहाँ है कोई अर्थ! एक बेजान सा हड्डी का टुकड़ा जैसे जिंदगी के नाम पर उसके गले में लटका दिया गया है कि वह कल्पना से उसमें रंग भरे। झूठी गलतफहमियों के रंगों से उसे कोई इंद्रधनुष, कोई कलाकृति बना दे। और सबके बीच नकली मुस्कानें ओढक़र खड़ी हो जाए कि वह सुख से जी रही है, खुश है, बहुत खुश।

लेकिन वह जानती है कि सुख की सूरत देखने के लिए वह तरस गई है। जिंदगी को सिर्फ एक लंबे, घिनौने अपमान के चक्के के रूप में उसने जाना है। दफ्तर में क्लर्कों की लिजालिजाते कीड़ों जैसे रेंगती हुई निगाहें जैसे उसके कपड़ों को तार-तार करके नंगा कर देना चाहती हों। और दिनेश वर्मा जैसे लीचड़ अफसरों के हाथ “तुम बहुत अच्छी हो, प्यारी हो, लता...ऐं! हम तुम्हारी तरक्की करवा देंगे।” जैसे वाक्यों के साथ लिजलिजाते केंचुओं की तरह पहले कंधों और फिर कंधों के नीचे फिसलने लगते हैं, तब...तब उसे लगता है कि वह गुस्से में थूक दे उनके चेहरों पर! चिल्ला पड़े कि क्या सभी आदमी जंगली भेड़िए होते हैं जो औरत की इज्जत को नाखूनों से काट-काटकर स्वाद लेना चाहते हैं?

तो फिर इस जिंदगी का मकसद ही क्या बचा है? झूठ...मुखौटे...नकली मुस्कानें। लपलपाती जीभें। वासना के कीड़े। भेड़िए...! और इस सबको दिया हुआ एक खूबसूरत कलेवर, यानी प्यार, यानी सौंदर्य! क्या यही हैं सौंदर्य के माने कि हर बार उसे मर्द के नाखूनों पर तुलना है? क्या यही है जिंदगी?

उसका मुँह बुरी तरह कसैला हो आया। जैसा कि हर बार करीब-करीब हर दूसरे-चौथे दिन हो ही जाता है। जब वह ऐसा ही रूखा चेहरा, ऐसे ही अपमान के तमाचे खाकर लौटती है, घिसटते पैरों से। घिसटते पैरों पर लदा हुआ एक निर्जीव जिस्म बनकर। हर बार उसकी तबीयत होती है कि वह इस संसार से दूर कहीं और कहीं और चली जाए। और हर बार उसके थके-थके कमजोर कदम सड़कों पर बेशुमार पैरों की भीड़ से गुजरते हुए, उसे उसके घर लाकर पटक देते हैं। घर पर सौतेली माँ के तानों और बिन्नू और मोना के तीखे व्यंग्य-बाणों से बिंधी हुई, कातर और असहाय वह बिस्तर पर जा गिरती है।

और बिस्तर पर पड़ी हुई देर तक सोचती है, सोचती रहती है। क्या सोचती है वह? वह शायद खुद भी नहीं जानती। टूटे, खंडित और बदसूरत चित्रों और खौफनाक आवाजों का एक ऐसा सिलसिला, जिसके बीच उसका अस्तित्व तार-तार होता है। तेज धूलभरी आँधियों के बीच पैरों से रौंदे जाते किसी असहाय फूल की तरह छटपटाता है। और वह सोच नहीं पाती कि दर्द कहाँ ज्यादा है, नागफनी के काँटे कहाँ अधिक जहरीले हैं, घर में या दफ्तर में...?

घर...! कहाँ है उसका घर? क्या चार दीवारों और छत तथा रोज-रोज चेहरे पर तमाचों की तरह पड़ने वाले अपमान के धक्कों को ही कहते हैं घर? नहीं, उसका कहीं घर नहीं है। आज वह अभी से घर नहीं जाएगी। वह थोड़ी देर अलग बैठकर अपनी जिंदगी के बारे में सिलसिले से कुछ सोचना चाहती है। लेकिन कहाँ...कहाँ मिलेगा उसे सुकून?

3

अचानक उसने पाया कि उसके थके पाँव एक बस स्टॉप पर आकर रुक गए हैं। एक बस आई है, वह भीड़ के रेलेे के साथ उसमें चढ़ गई है। बस कनाट प्लेस की ओर जा रही है। हाँ, वहीं तो उसे जाना है! पर बस की यात्रा भी क्या लिस-लिस करते धक्कों और अपमान के बगैर पूरी नहीं होगी? यह पीछे खड़ा गंजा अधेड़ आदमी...! यह इतना चिपककर क्यों खड़ा है? उफ, उसे कै आने को हुई। शुक्र है कि रीगल आ गया। दोनों हाथों से भीड़ के धक्कों को बचाती हुई, झटके से वह उतरी है।

तेज दौड़ती कारों और कानों को फोड़ती हॉर्नों की आवाजों को नजरअंदाज करती वह सेंट्रल पार्क में आ जाती है। ठीक वहाँ, जहाँ वे दोनों बैठा करते थे। वह और अरुण... अरुणेश! अक्सर एक दीवानगी का परचम लिए कि करना है, करना है, कुछ कर गुजरना है जिंदगी में, और इसलिए एक-दूसरे का साथ...!

हाँ, यहीं तो वे बैठा करते थे, यहीं! दूर-दूर तक हरियाली थी। एक क्यारी में बहुत खूबसूरत लाल-पीले फूल हवा के साथ हौले-हौले झूम रहे थे, जैसे किसी गृहिणी ने कोई नई चटख साड़ी अभी-अभी धोकर सूखने डाली हो। साथ ही क्यारी में कुछ छितराए हुए-से उजले सफेद फूल थे, जैसे तारे छिटके हों। और सामने चमकती बड़ी-बड़ी आलीशान इमारतें! रोशनी की जगर-मगर!

तेज रोशनियों से जगमगाती वह सड़क, सड़क नहीं, रोशनी का समंदर लगती थी। तेज सर्राटा भरती, दौड़ती कारें। नहीं, कारें नहीं, तैरती हुई किश्तियाँ! और इन सबसे तटस्थ वे हैरान रह जाते थे कि इस सबके बावजूद सुख कैसे लोगों की मुट्ठियों से फिसल जाता है? सुख उनके आसपास उस हरियाली, उन फूलों में था। उसी सुख के चारों और एक छोटा-सा घर रचते वे दोनों।

अरुणेश के पास कितनी बातें थी। घर, दफ्तर, छोटे भाई-बहन, सबके बारे में वह बड़ी दिलचस्प बातें बताता था। उसके दफ्तर में कुछ अशांति चल रही थी। मैनेजमेंट का दमन-चक्र शुरू हो गया था और यूनियन प्रभावी ढंग से उससे टक्कर नहीं ले पा रही थी।

“ये सब मिल गए है मैनेजमेंट से...दोगले, दल्ले कही के!” गुस्से में कई बार अरुणेश उबल पड़ता है और तब उसका तमतमाया चेहरा बेशब्द नारे लगाते हुए दिखता था—हर जोर जुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है...!

वह केवल सुनती थी, सुनती थी, चुपचाप सुनती रहती थी। उसे अच्छा लगता था कि अरुणेश बोले और बोलता रहे! अरुणेश के बोलने का ढंग था भी इतना प्रभावी और आकर्षक।

और अरुणेश जब उसे अपने बारे में कुछ बताने, बोलने के लिए कहता, तो वह लज्जित होकर सिर झुका लेती या फिर सोचती कि कुछ कहे भी तो क्या? क्या वह बताए कि घर में सौतेली माँ, बिन्नू और मोना की जहरीली बातें के कैक्टस उसे कैसे छीलते हैं, और दफ्तर में कैसे...तीन-तीन बॉस और तीनों एक से बढक़र एक खुर्राट। और अब तो कुछ दिनों से बुड्ढा एकाउंटेट भी लार टपकाने लगा था। तनख्वाह देते हुए चुपके से हथेली दबा देता, ‘लो, लतिका रानी...!’

वह कुछ नहीं कहती थी, कुछ नहीं कह पाती थी। फिर भी शायद अरुणेश को पता था। उसकी चुप्पी, खोई-खोई और उदास आँखें देखकर अरुणेश जैसे सब समझ गया था। और वह अपने खास जोशीले लहजे में उसे धीरज बँधाता।

कई बार तो वह सब कुछ भूलकर बस अरुणेश के हिलते हुए होंठों और उसके चेहरे पर एक के बाद एक आते-जाते भावों को देखती रहती थी, और शब्द उसके ऊपर से बहते चले जाते थे। तब अरुणेश को ही उसे जगाना पड़ता कि “अरी ओ लतिका महारानी, कहाँ हो? धरती पर कि सपने की आकाश गंगाओं के बीच! तुम नहीं बोलोगी कुछ?”

वह उसे उदासी से बाहर निकालना चाहता था। वह उसे खुश और मुसकराता हुआ देखना चाहता था। “देखो तो कभी आइने में, हँसते हुए तुम कितनी अच्छी लगती हो। और उदास होती हो तो, हुँह...ज्यॉमेट्री का त्रिभुज हो, ऐसी रूखी और बेजान!” और फिर वह जान-बूझकर अजीब सा गोलगप्पा-नुमा मुँह बनाकर बैठ जाता था उसे छेड़ने के लिए। उसकी इस मुद्रा पर वह एकाएक खिलखिलाकर हँस पड़ती। और उसकी सारी उदासी की पर्त के परखचे उड़ जाते।

उसकी इस खिलखिलाहट पर वह कभी-कभी बहुत भावुक होकर कहने लगता, “सच्ची लती, जब तुम हँसती हो तो लगता है, हरसिंगार अचानक महक उठे हों। या रजनीगंधा के फूल टप-टप करने लगे हों। मैं वे फूल चुन-चुनकर, अपनी कविताओं में सजा दूँगा लतिका!’

“बस्स...! या कि फिर इन्हीं फूलों से घर भी बना लोगे? बिलकुल कल्पित—इंद्रधनुष जैसा, जो केवल कविताओं में होता है!” वह जान-बूझकर उसे छेड़ती।

“नहीं लती, नहीं, यह होगा। सचमुच होगा। बिलकुल फूलों जैसा घर। हम दोनों इसे रचेंगे, हम दोनों। तुम्हें यकीन नहीं होता?” कहते-कहते अरुणेश रोंआसा हो जाता।

पर फिर यही फूल देखते ही देखते मुर्झाए और बदरंग होकर जमीन पर...

और बड़ी-बड़ी बातें करने और बड़े सपने दिखाने वाला यही अरुणेश एक दिन चला गया। सामने असंख्य कारों, और मार तमाम लोगों के समुद्र में खो गया। उसे एक खूबसूरत बीवी मिली जो शायद कभी उदास नहीं होती थी। और एक स्कूटर, एक रंगीन टेलीविजन, एक फ्रिज और कुछ तोले सोना। इस सबसे उसकी बहन की शादी का बंदोबस्त भी हो गया।...लतिका से क्या मिलता उसे?

अब वह काफी निश्चिंत था। हालाँकि लतिका से मिलते समय एक गहरी उदासी उसकी आँखों में आ जाती थी। और लतिका जानती थी कि यह झूठी नहीं है। उससे झूठ नहीं बोल सकता था अरुणेश। अब वह सिर्फ यही चाहती थी कि वह जहाँ रहे, जैसा भी रहे, सुखी रहे। और उसके बारे में न सोचे—बस्स।

4

उसे याद आया, इस जगह जब वे दोनों आखिरी बार मिले थे, देर तक अरुणेश चुप रहा था। और कुछ-कुछ हक्की-बक्की-सी लतिका सोच नहीं पा रही थी कि उस अजीब-सी चुप्पी को कैसे तोड़े? क्योंकि वह तो अरुणेश का काम था। वही बातचीत शुरू करता था और लतिका को कभी अपनी सरल कभी शरारती बातों में खींच लेता था।

पर आज! क्या हो गया है अरुणेश को?

“क्यों...अरुण, दुखी हो? मुझे नहीं बताओगे?” वह कातर हो आई थी।

और अरुणेश ने भर्राए हुए गले से कहा था, “लती, सब टूट गया। वे रंग, फूल, ख्वाब...फूलों का घर! लती, सब कुछ। पापा नहीं माने। उन्होंने मेरी शादी तय कर दी है। मुझे बेच डाला है, ताकि वहाँ से जो पैसा, जो सामान मिले, उससे रजनी की शादी हो। वह अब बड़ी हो गई है। इधर मेरी नौकरी डावाँडोल है, पापा रिटायर हो चुके हैं। रोज सुबह सुना देते हैं, छोटी बहन की शादी तुम्हारे जिम्मे हैं! कहाँ से जुटाऊँगा रजनी के लिए दहेज? लती, मैं क्या करूँ? मैं कुछ भी तो नहीं!”

वह चुपचाप सुनती रही थी और अरुणेश का चेहरा अचानक आँसुओं में डूब गया, “मैं झूठा हूँ लती, झूठा और पाखंडी! मैंने तुम्हें क्यों ख्वाब दिखाया, जब मैं उसे पूरा नहीं कर सकता था? मैं कायर हूँ, बुजदिल...!” अरुणेश चीख पड़ा था।

पर वह जड़, निश्चेष्ट-सी सुनती रही थी, जैसे जो कुछ कहा जा रहा है, उससे उसका कोई संबंध नहीं है। न सुख, न दुख! दोनों से परे एक अजीब पथरायापन व्याप्त हो गया था उसमें। जैसे उसे पता हो कि आखिर यही होना था।

उसने कुछ नहीं कहा था, सिवाय इसके कि “चुप हो जाओ अरुण, चुप! चुप बैठे रहो ऐसे ही। मुझे बुरा नहीं लगा...पर कुछ कहो मत, कुछ नहीं। मुझे तुमसे जो मिला है, वह कम नहीं। वह किसी ने नहीं दिया जो तुमने इत्ता, भर-भर कर दिया है—प्यार! वह मेरी पूँजी है। जीवन भर की अकलंक पूँजी! हाँ, अरुण, उसे कम करके मत आँको।”

अपने आँसुओं को भरसक वह थामे रही थी। फिर उसने खुद प्रस्ताव रखा था मद्रास होटल चलकर कॉफी पीने का।

और कॉफी पीते हुए वह अकारण मुसकराने की कोशिश करती रही थी। अरुण को वह बार-बार सँभालती रही थी। जैसे पिछले सिर्फ एक घंटे में, वह अरुणेश से दस-बीस साल बड़ी हो गई हो और वह उसके सामने बच्चा हो—निरा शिशु!

फिर अरुण उसे हर बार की तरह उसके बस स्टॉप पर छोड़ने आया था। पर इस बार शायद...आखिरी बार। और उसके बैठ जाने के बाद वह सूनी आँखों से देखता रहा था। अभिवादन के लिए हाथ तक नहीं हिला सका था। तब उसी ने मुसकराकर हाथ हिलाकर संकेत किया था अरुण को...

पर बस के चलते ही वह अधीर हो आई थी। अब उसके लिए खुद को सँभालना मुश्किल हो रहा था। अपनी बड़ी-बड़ी आँखों को और अधिक फैलाकर वह अपने आँसुओं को भीतर ही भीतर पी जाने की असफल कोशिश करती रही थी। ताकि... ताकि...बस में आसपास बैठे यात्रियों के बीच तमाशा न बने।

तब से चार महीने चार जनमों के बराबर बन गए उसके लिए। रोज दफ्तर जाना, आना और रात में सबके सो जाने पर अपने बिस्तर में लेटे अँधेरे में चुपचाप रोना। यही उसका जीवन-क्रम बन गया था। इस बीच इतना रोई है वह कि शायद जितना बारह साल लगातार सौतेली माँ के भीतर तक बेधने वाले तीरों और दफ्तर के लोगों की चुभती बातों के कैक्टसों की पीड़ा से भी नहीं रोई।

अब जिंदगी का पहाड़ दिनोंदिन भारी हो रहा था और लड़ने की उसकी ताकत लगातार कम होती जा रही थी। जैसे वह भीतर ही भीतर खुद को खोद-खोदकर खा रही हो। तो क्या वह ऐसे ही रोती रहेगी जिंदगी भर, ऐसे ही दुख सहती रहेगी जिंदगी भर? क्या यही उसकी नियति है?

5

अँधेरा हो चला था। उसने देखा कि पार्क से लोग एक-एक करके उठते जा रहे हैं। वह करीब-करीब अकेली रह गई थी। अँधेरा और सन्नाटा तथा उसके बीच भयभीत, विवश अकेलापन।

क्या वह इस नियति के खिलाफ विद्रोह कर रहे दे? मगर कैसे, कैसे! अपने आपको समूचा झोंककर भी क्या वह अपने आपको बचा सकती है? अपनी कोई मुकम्मल तस्वीर बना सकती है अब—नामुमकिन!

तो...क्या वह अरुणेश की बात पर गौर करे, उसका प्रस्ताव मान ले? क्या यही रास्ता बचा है उसके लिए अब? उसकी चिट्ठी आए भी तो पूरा हफ्ता हो चुका था और वह दर्जनों बार उसे पढ़ चुकी थी। अरुणेश ने जवाब माँगा था, मगर जवाब अब उसके पास रह ही कहाँ गए थे? तीखे बेडौल और जलते हुए सवाल! सवालों का पूरा एक जंगल था और वह उसमें घिर गई थी। फिर जवाब भला क्या दे?

उसके हाथ अनजाने पर्स में खदर-बदर करते वह मैली, घिसी हुई चिट्ठी खोज लेते हैं, जिस पर स्याही, लिपस्टिक और पानी के ढेर-ढेर-से धब्बे हैं। लिफाफे में छोटा-सा कागज। उस पर चार-छह लाइनें। उसकी आँखें एक दफा फिर मशीनी ढंग से उस कागज पर जा चिपकती हैं :

‘लती, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम पहले की तरह दोस्त बने रहें जिंदगी भर! शादी-ब्याह तो औपचारिकताएँ हैं, बंधन हैं। हुई न हुई या किसी से भी कर ली। मगर हमारी दोस्ती तो औपचारिक नहीं थी न! इस बीच मैंने तुम्हें बहुत-बहुत मिस किया है। लिखना, अगर तुम भी चाहो कि हमारी शामें फिर से एक साथ मिलकर हँसें-गुनगुनाएँ!

तुम्हारा अपना—अरुणेश’

*

पढक़र फिर उसका मुँह कसैला हो गया। पलकों तक पर वह कसैलापन बुरी तरह छा गया था। और आँखें फिर सूनी और भारी-भारी लगने लगी थीं।

पार्क में अब एकदम सन्नाटा है। भयावह और सिहरन भरा सन्नाटा! और घास पर छूट गए कनेर, अमलतास और बोगनबेलिया के कुछ फूल जिन्हें वह अनजाने इकट्ठे करती रही थी। एक काली परत उन पर चढ़ती चली जा रही थी—और गहरी...और गहरी।

कभी ये पीले अमलतास कितने लिरिकल लगते थे। और कनेर, बोगनबेलिया कितने ही फुसफसाहट भरे कोमल संवादों के गुप्तचर, भेदिए...! मगर अब ये उमस उगल रहे थे—सिर्फ उमस। ढेर-ढेर-सी न बर्दाश्त होने वाली चिपचिपी उमस।

अचानक जाने क्या हुआ कि उसके हाथ बागी हो गए। पहले हाथ और फिर सर्वांग—और वह तेज लपटों से घिर गई।

उसने उस कागज की चिंदी-चिंदी कर दी। उन फूलों को मसला और उन पर मिट्टी की, घास की तहें ऐसे जमा दीं जैसे श्रद्धांजलि दे रही हो।

—नहीं, अब वह यहाँ नहीं आएगी सुकून खोजने, कभी नहीं! उसने तय किया। जो नहीं है वह नहीं ही है। हवा पर—गरम चीखती हवा पर कितनी सुनहरी परतें चढ़ाए कोई?

उसे जाने क्यों लगा, उसके हाथ अँधेरे और कीचड़ से बुरी तरह सने हैं, टाँगें काँप रही हैं। उन्हीं कीचड़ और अँधेरे से लिपटे हाथ-पैरों से वह बस स्टाप की ओर बढ़ने लगी, जैसे कोई अपने सबसे प्रिय व्यक्ति को दफनाकर लौट रहा हो!

मगर तभी अचानक किसी ने आगे बढक़र उसका हाथ थाम लिया, ‘सुनो...सुनो लतिका सुनो!’

‘कौन...कौन...?’ वह चुप, विभ्रांत, अवाक! और अब अपने भीतर गूँजते लफ्ज वह साफ सुन रही है, ‘जरूरी तो नहीं लतिका कि जीने के लिए इस या उसका सहारा लिया जाए। एक औरत का अपनी इच्छाओं का घर भी तो हो सकता है।...हाँ लतिका, हाँ, अब तुम्हें वही घर बनाना है!’

लतिका एक पल के लिए ठिठकी, अचकचाई फिर एक झीनी-सी मुसकान उसके चेहरे पर आई। और अब उसके कदम उसी घर की ओर बढ़ रहे हैं।

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