Aangan Ki Deewar (Hindi Story) : Ramgopal Bhavuk
आँगन की दीवार (कहानी) : रामगोपाल भावुक
मेरे मित्र कहते हैं,-‘यार शब्बीर खान, तुम उसका इतना ख्याल रखते हो तो भी मैहर तुम्हें घास ही नहीं डालती।’
सच तो यह है मेरी कौम में लोग लड़कियों को पढ़ाने में रुचि ही नहीं लेते। मेरी कौम की एक मात्र लड़की कॉलेज में पढ़ती है। वह बहुत ही रूपवान और जीनियस है। उसका ध्यान रखना मेरा फर्ज है । यह सोच के मैं साये की तरह उससे चिपका रहा। आज के वातावरण में कहीं कोई समस्या न हो जाये और उसका अध्ययन ही छूट जाये।
वैसे वह दब्बू किस्म की लड़की नहीं है। उस दिन ‘नारी मुक्ति’ विषय पर उसने अपने भाषण से सब को उत्साहित कर दिया। उसने मुस्लिम समाज में औरतों के हालात को खुले आम उजागर करने में संकोच नहीं किया। उसने अपने समाज में पर्दा प्रथा का जमकर विरोध किया था। कहा था-‘जब मैं बुर्के में होती हूँ तो लगता है किसी कैदखाने में कैद हूँ। इस तरह कैदखाने में रहकर हम पुरुषों की बराबरी कैसे कर पायेंगीं? रोशनी और हवा के लिये हमें अपनी खिड़कियाँ खुली रखनी पड़ेगीं कि नहीं! हमारे समाज ने तो इन पर पहरे बैठा रखे हैं। शरीयत के नाम पर हमें कैद रखा जा रहा है। हम दुनियाँ को झरोखे में से देख पा रहे हैं। इस तरह हमारी आधी आबादी फरमानों के दायरे में कैद करदी गई है। केवल मैं ही नहीं, हमारे समाज की हर औरत मुक्ति के लिये छटपटा रही है। इसका अर्थ यह न लें कि मैं मर्यादा का उलंघन करने का पक्ष ले रही हूँ। मैं चाहती हूँ ,हमारा समाज आज की दौड़ में कहीं पिछड़ न जाये।’
उस दिन से मैं यही सोचता रहा हूँ- कि हमारे परम्परावादी समाज में मैहर कैसे जी पायेगी। मेरी बात सुनकर मित्रों में बहस छिड़ गई थी कि उसने जो बातें अपने भाषण में कहीं हैं वह उसका पालन कर पायेगी कि नहीं!
मैंने तो उनसे कह दिया था, ‘आदमी यदि ठान ले तो क्या नहीं कर सकता? वह हमारे समाज में नारी को बदतर स्थिति से उबारने का प्रयास जरूर करेगी।’
किन्तु सोचने लगा था, मैं उसे कहाँ- कैसे सहयोग कर पाऊँगा! मैं जितना उसके पास जाना चाहता हूँ ,वह उतना ही मुझसे दूर होती जाती है।
वह कॉलेज की हर एक्टीविटी में भाग लेने में पीछे नहीं रही। चाहे खेल का प्रकरण हो चाहे साँस्कृतिक कार्यक्रमों का। नाटक में अभिनय करने में वह किसी श्रेष्ठ कलाकार से कम नहीं है। हू-ब-हू उस पात्र की भूमिका में खरी उतरी है।
वह दिखने में भी बोल्ड दिखती है। लम्बी-तगड़ी। गोरी-चिट्टी। एक शानदार व्यक्तित्व उभर कर सामने आता है। मैहर किसी के रोके रुकेगी नहीं।
निश्चय ही रोशनी के प्रसार में कोई व्यवधान पैदा करना चाहे तो वह अपनी ही छाया बन कर रह जायेगा।
कभी-कभी मैं अपनी तुलना उसके सोच से करता हूँ ,तो अपने आप को उससे बहुत पीछे खड़ा पाता हूँ
कितनी खूबसूरत हैं उसकी आँखें !, हिरणी की आँखों से उनकी तुलना करता हूँ ,तो वे भी मुझे थकी-थकी सी जान पड़ती हैं। जब हमारा अध्ययन पूर्ण हो गया तो भी उसकी वे कजरारी आँखें मेरा पीछा करती रही हैं।
मैं उनका ऐसा दीवाना बना कि सोते-जागते हरपल हरजगह वह किसी परी सी मौजूद दिखती। कभी-कभी मैं सोते से उठकर बैठ जाता, फिर नींद नहीं आती। कभी उनमें हिमालय पर फैली बर्फ की श्वेत चादर पर टिकुली जड़ी हुई महसूस होती और कभी सागर में हिलोरें लेते यान का मस्तूल दिखाई पड़ता। कभी उसकी आँखों की बरौनियाँ उसकी रक्षा में खड़ी दीवार की तरह मुझे उनमें झाँकने से रोकती। संसार के नक्शे पर झील सी आँखें पाने के लिये मैं बेताब हो उठा था।
बहुत सोच विचार के बाद, अपने मन की बेसब्री को मैं हजार प्रयास करने पर भी रोक नहीं पाया। मजबूर होकर मैंने उससे मिलने का प्रयास किया था।
एकबार हम उसी पार्क में पहुँच गया ,जहाँ वहं टहलने आती थी। अचानक सामने पाकर उसने मुझे संकोच बस सलाम किया था।
मैंने पूछा -‘‘मैहर जी कैसी हो?’ ’
वह बोली-‘‘ठीक हूँ’’ फिर कुछ रुक कर मेरे मन के भाव समझ कर बोली-‘‘मैं जिन्दगी अपनी तरह जीना चाहती हूँ। उसमें किसी की दखलन्दाजी पसन्द नहीं करती।’
मैंने कहा-‘ आप चिन्ता नहीं करैं, हम आपकी जिन्दगी में उतना ही दखल देगें जितना आप पसन्द करेंगीं।’
मैंने एक श्वास में अपनी बात उसके समक्ष रखी-‘मैं आपसे निकाह......।’
वह बात काटकर मुझे डाँटते हुये बोली-‘शब्बीर जी मैंने इस तरह कभी नहीं सोचा। हम आपको एक अच्छा दोस्त समझते थे किन्तु आपका इस तरह का सोच!’
उसकी यह बात सुनकर मैं मायूस हो गया। किन्तु अगले ही पल सोचा-मेरे प्रस्ताव पर बाद में यह जरूर विचार करेगी। बात अभी खत्म नहीं समझना चाहिए।
आज वह साफ मना कर देती तो मैं क्या कर लेता? मैं उसके साफ जवाब की प्रतीक्षा करने लगा, इसीलिये उस पार्क में घूमने जाना बन्द नहीं किया।
मैंने निर्णय लिया- कहीं और निकाह कर लिया तो मैं अपने को हलाक कर लूँगा।
...और मैं बाजार से जहर की एक शीशी खरीद लाया।
दो दिन बाद जब मैं पार्क में पहुँचा जहाँ उसके मिलने की सम्भावना थी। वह वहाँ नहीं दिखी। मेरी सारी चाह अन्दर ही अन्दर घुमड़कर रह गई। उसी समय उसकी एक सहेली पार्क में दिख गई। मैंने उसके पास जाकर पूछा-‘आज मैहर जी नहीं दिख रही हैं?’
उसने गम्भीर होकर उत्तर दिया-‘वो तो बीमार हैं। दो दिन से हॉस्पिटल में भर्ती हैं।’
मैंने व्यग्रता में उससे पूछा-‘ क्या हुआ उन्हें?’
वह गम्भीर होकर बोली-‘ समझ नहीं आता उसे क्या हुआ? कल मेरी एक सहेली कह रही थी कि उसे कोई ऐसी बीमारी है जिसे वह छिपा रही थी।’
यह सुनकर मैं चुपचाप घर चला आया था।
मेरा सोच जारी था-‘ उसे क्या बीमारी हो सकती हैं? क्या पता उसे कोई गुप्त बीमारी हो गई हो।
आजकल ऐसी-ऐसी बीमारी चलीं हैं कि किसी दूसरे मरीज की दूषित सुई लगने से भी हो जाती हैं। स्त्री- पुरुष की तरह घनिष्ट सम्पर्क में आने से भी लग जाती हैं।
सहसा मैं चौका- मैं कैसा आदमी हूँ जो मैहर जैसी दबंग लड़की के चरित्र पर सन्देह कर रहा हूँ।
किन्तु ऐसी बातों पर सन्देह न करुँ तो क्या करुँ? बीमारी भी कोई छिपाने की बात है। वह कोई नेता तो है नहीं, जो अपनी बीमारी को सार्वजनिक न करना चाहती हो।
बैसे पता भी लग जाये तो कोई क्या कर सकतास है? किसी की बीमारी उसकी निजी त्रासदी होती है। जिसे बीमारी है वही उसे झेलता है। उसके शुभ चिन्तक उससे सहानुभूति दर्शा सकते हैं। उसके लिये दुआ कर सकते हैं।
यही सब सोचते हुये मैं दूसरे दिन सुबह ही हॉस्पिटल पहुँच गया। मुझे उसे खोजने में देर नहीं लगी। मैंने उसे देखकर अनजान बनने का नाटक करते हुये कहा-‘ अरे आप यहाँ!’
वह बोली-‘और सुबह-सुबह आप इधर कैसे?.....आप यहाँ भी!’
मैंने झूठ बोला-‘इधर एक मित्र भरती हैं, उन्हें देखने चला आया। आपको क्या हुआ? हमें ही सूचना भेज देतीं।’
वह बोली-‘मुझे कई दिन से बुखार था तो बड़ा डर लग रहा था। कहीं टी0वी0 न हो गयी हो। लेकिन खोदा पहाड़ और निकली चुहिया। डॉक्टर ने सभी जाँचें करवा डालीं। सर्दी-झुकाम के साथ मलेरिया निकला है।’
इसी समय उसके अब्बूजान वहाँ आगये। मुझे बातें करते देख, पूछ बैठे-‘बेटी ये कौन हैं?
उसने सहज ढ़ंग से उत्तर दिया-‘ऐसे ही एक परिचित हैं। कॉलेज में साथ पढ़ते थे। अपने समाज से हैं।’
उसके अब्बूजान ने मुझ से ही पूछा-‘बरखुरदार ,आपकी वल्दियत और जनाब का नाम क्या है?’
मैंने संक्षेप में उत्तर दिया-‘ मेरे बालिद जनाब रमजान खान है। उन्होंने मुझे शब्बीर खान नाम से नवाजा है।’
वे झट से बोले-‘अरे! तुम रमजान खान के बेटे हो। वे तो आला दर्जे के इन्सान है। तुम तो घर के निकले। अब तो तुम घर आते रहा करो।’
मुझे उनकी बात अच्छी लगी, किन्तु सोचा- मैहर ने तो मेरा परिचय टालना चाहा। यह तो उनसे जबरदस्ती का परिचय हुआ। मैंने चलने से पहले व्यवहारिकता में पूछा-‘कोई काम हो तो कहें ?’
इस प्रश्न के उत्तर में मैहर चुप रह गई थी।
घर आकर सोच के चक्रव्यूह में फंस गया और मन ने निर्णय लिया यदि ये निकाह की मना करेगी तो मैं आत्महत्या कर लूँगा।
उसी समय अम्मीजान सालन-रोटी परोस कर ले आई और मुझे सामने बैठकर खिलाने लगीं। उनके आँखों में लहराते जज्बात को देखकर सहसा में सारी दुनियाँ भूल गया। माँ के जाते ही सोचा- मेरे जीवन पर पहला हक माँ- बाप का है। किसी नक चढ़ी और नखरैल लड़की का नहीं। मैंने यह गलत निर्णय ले लिया है। हमें उतावलेपन में कोई निर्णय नहीं लेना चाहिये। यह सोच कर तो मैंने वह जहर की शीशी नाली में उड़ेल दी। ...और बिस्तर पर आराम से लेट गया।
दूसरे दिन न चाहते हुये हॉस्पिटल पहुँच गया। संयोग से उस समय भी उसके पास कोई नहीं था।
मैंने पूछा-‘कैसी हो?’
-‘फाइन, आज छुट्टी हो जायेगी। ’
-‘आपने मेरी बात का उत्तर नहीं दिया?’
वह बोली-‘ मैं उस दिन उधेडबुन में हूं। मैं जिसे चाहती हूँ-वह भी मेरे इर्द-गिर्द चक्कर तो लगा रहा है ,किन्तु वह कह कुछ भी नहीं रहा है। समझ नहीं आता क्या करुँ?’
मैंने कहा-‘ आपका मन जिससे लग गया है, उसे आप हासिल करके ही मानेंगीं। किन्तु उसमें ऐसा क्या है कि आप जैसी लड़की उस पर फिदा है?’
उसी समय रुपेश वहाँ आ खड़ा हुआ। उसे आया हुआ देख मेरी बात जहाँ की तहाँ रुक गई।
उसे देखकर सोचने लगा- रुपेश आर्य, एक ऐसा व्यक्तित्व जिसका लोहा कॉलेज के प्रोफेसर भी मानते थे। जब वह बोलने खडा़ होता तो वह अपने तर्को से सभी का मुँह बन्द कर देता था। कहीं यह लड़की इसी के झाँसे मैं तो नहीं आ गई।
मुझे देखकर उसने अन्दाज लगा लिया होगा कि कॉलेज छूटे इतने दिनों बाद भी उसे देखने मैं हॉस्पिटल आया हूँ। उसने मुझसे कहा-‘आप लोग कैसे हैं कि अपनी कौम की ऐसी बहादुर लड़की का घ्यान ही नहीं रख पा रहे हैं।’
मेरे मुँह से व्यंग्य में निकल गया-‘ इनका घ्यान रखने वाले आप जैसे लोग तो हैं ना, इन्हें हमारी जरूरत ही नहीं हैं।’
रुपेश बोला-‘ यह तो मैहरजी का आपके साथ अन्याय है। हम ठहरे दूसरी कौम के लोग। हम आपके रीति-रिवाजों से अनजान हैं किन्तु हम जो जानते नहीं, उसमें टाँग भी नहीं अड़ाते । ...और जो सत्य लगता है, उसे स्वीकार करने में संकोच भी नहीं करते।’
उसकी बातें सुनकर मैं चुपचाप रह गया। मुझे लगा-अब मुझे यहाँ से चलना चाहिये। यह सोचकर मैंने कहा-‘अच्छा मैं चलता हूँ।’....और मैं वहाँ से चला आया था। मैहर ने भी मुझे रोकने की कोशिश ही नहीं की।
निश्चय ही, यह इसीसे फंस गई है। लगता है इसकी विद्वता पर लट्टू हो गई है वह। वह यह नहीं जानती रुपेश बहुत ही उस्ताद है।
मैं परेशान हो उठा। हाय! मैं अब क्या करु? इसे आगे बढ़ने से कैसे रोकूँ?’ इसके वालिदान से जाकर कह दूँ। यह तो हमारी कौम का अपमान हो रहा है।
किन्तु मेरा यह आचरण मैहर के प्रति सच्चे प्यार की निशानी नहीं है। हम हिन्दुस्तान में अल्पसंख्यक हैं। किन्तु यदि हिन्दुओं की लड़की हमारी कौम में आकर निकाह कर लेती है ,तो हम कितने खुश होते हैं। गर्व करते हैं और शान में इतराते हैं। हमारी पड़ोसन शीला ने गुलाम खान से जब निकाह करना चाहा, तो मैंने उनकी सब तरह से मदद की थी। मैहर रुपेश से ब्याह करना चाहती है तो हमारा क्या फर्ज है कि हम उसमें रोड़े अटकायें! यही कि हमारा अपमान हो रहा है। हिन्दू हमें दबा रहे हैं। ऐसे में मैं क्या करुँ? एक ओर कौम है, दूसरी ओर है उन दोनों का सच्चा प्यार।
रात भर सोच के सागर में गोते लगाता रहा। उस दिन की बात याद आती है, जब नारी विमर्श को लेकर रुपेश ने अपने भाषण में कहा था-‘विश्व की अधिकांश संस्कृतियों में पुरुष के इर्द-गिर्द विकसित संस्कृति है। इनमें मातृपक्ष के साथ न्याय नहीं किया गया है। नारी को फर्ज गिनाये जाते हैं। हमारे देश में तो उसे पर्दे में ढककर रखने की परम्परा विकसित की गई है। ’
मैहर ने उसके इस भाषण पर उसे बधाई दी थी। मेरा माथा तो उसी दिन ठनका था। मुझे क्या पता था कि बात इतनी बढ़ जायेगी! अब तो पानी सिर से निकल गया है। मैहर ने जो निश्चित कर लिया है, वह उसे करके मानेगी, चाहे उसे इसके बदले कितने ही यातना सहनी पड़ें।
दूसरे दिन दिनचढ़े मैं मैहर के घर की तरफ से निकला। मैहर के अब्बूजान दरवाजे के सामने चबूतरे पर कुर्सी डाले बैठे थे। मुझे देखते ही झट से बोले-‘अरे! शब्बीर बेटे ,बहुत दिनों से मैं तुम्हारी ही राह देख रहा था।’
मैं समझ गया वे मैहर के बारे में कोई बात करना चाहते होंगे। मैं उनके पीछे-पीछे चलकर उनकी बैठक में पहुँच गया। वे मुझे सोफे पर अपने पास बैठाते हुये मैहर को सुनाकर बोले-‘ मुझे पता है, तुम मैहर से निकाह करना चाहते हो।’
‘जी, किन्तु आप तो जानते ही होंगे कि मैहर तो....।’
‘वे सन्तुलित होते हुये मेरी बात काटकर बोले-‘ तुम इसे समझाने का प्रयास तो करो। यह सारे समाज के सामने मेरी नाक कटवाने पर तुली है। यदि यह नहीं मानी तो मैं इसका कत्ल कर दूँगा, या फिर रेल के नीचे जाकर अपने को हलाक कर लूंगा।’
मैहर तनकर खड़ी होते हुये बोली-‘रुपेश हमारे समाज का नहीं है इसलिये! अरे! हम भी वही इंसान हैं ,जो वह है। ’
उसकी यह बात सुनकर अब्बू दहाड़े-‘हम जहाँ हैं पूरे समर्पण से हैं। हमें अपने ईमान और मजहब पर पूरा यकीन है।’
मैंने उन्हें समझाने का प्रयास किया-‘मैंने शीला और गुलाम खान का निकाह कराया कि नहीं? उन दोनों का सच्चा प्यार देखा तो मैंने खुलकर उनका साथ दिया। देखो,अब्बूजान मैं मैहर का इरादा अच्छी तरह समझ गया हूँ। हमें इनकी शादी का विरोध नहीं करना चाहिये।’
यह सुनकर वे तुनक कर बोले-‘ तुम मैहर से निकाह करना चाहते हो। अब तुम्ही यह कह रहे हो!’
मैंने कहा-‘कॉलेज लाइफ से ही मैं मैहर के इरादों को समझ गया हूँ। वह समझौता करने वाली नहीं है। जब हमें किसी दूसरे समाज की लड़की लेने में हिचक नहीं है, तो उन्हें देने में क्यों। अब बेहतर तो यही है कि इन्हें शादी करने दें, अब्बूजान जरा ठन्डे दिमाग से सोचें।।’ यह कह कर मैं वहाँ से चला आया था।
कुछ दिनों बाद मैं सुबह के समय टहलने के बहाने रुपेश के घर की तरफ से निकला। मेरे कदम न चाहते हुये उसके दर की ओर मुड़ गये। मैंने उसका दरवाजा खटखटाया-‘खट...खट...खट...।
रुपेश दरवाजा खेालते हुये बोला- ‘अरे! शब्बीर खान आप इधर! मुझे इसी की सम्भावना थी। आइये, अन्दर चलकर बैठते हैं। इन दिनों घर में अकेला हूँ। घर के सभी लोग मामाजी के यहाँ उनके लड़के के ब्याह में गये हैं।’
हम दोनों उनकी बैठक में जाकर बैठ गये। बैठक में महर्षि दयानन्द सरस्वती की फोटो लगी थी। मुझे पहले से ही ज्ञात था कि रुपेश का परिवार आर्य समाजी है। आर्य समाजी लोग मुस्लिम लड़की को अपना तो लेते हैं, किन्तु शादी वैदिक पद्धति से करना चाहते हैं।
रुपेश ने अपनी बात रखी-‘आश्चर्य! आपको तो मैहर के अब्बू के घर जाना चाहिये था किन्तु आप इधर?’
मैंने उत्तर दिया-‘शीला का निकाह गुलाम खान से कराने को लेकर एवं उस दिन आपके भाषण का विरोघ करने खड़ा हो गया था ,शायद इसीलिये आपकी मेरे बारे में धारणा ठीक नहीं है। मैंने मैहर और आपको अच्छी तरह समझा है तभी आज आपके यहाँ आया हूँ।
वह बोला’- आदेश करें?’
मैंने पूछा-‘आप निकाह कब कर रहे हैं?’
उसने कहा-‘निकाह करने वालों को चार बार निकाह करने की छूट है। मैं एक पत्नी वृत को मानने वाला इन्सान हूँ। इसलिये हम दोनों कोर्ट मेरिज करेंगे। जिसमें धर्म परिवर्तन करने की भी आवश्यकता नहीं रहेगी।’
उसकी यह बात सुनकर मेरे मन में एक प्रश्न उभरा और पूछ बैठा-‘क्या आप दोनों अपने-अपने मजहब को मानते रहेंगे?’
रुपेश ने उत्तर दिया-‘जी हाँ ,मानते ही रहेंगे ।’
मैंने पूछा-‘फिर आपकी संताने किस मजहब को मानेंगीं।’
वह बोला-‘मैंने इस प्रश्न का उत्तर मैहर से पूछा था।’
मैंने उत्सुकता में पुनः प्रश्न किया-‘ उसने क्या उत्तर दिया?’
वह बोला -‘उसने कहा है- वे जो मानें किन्तु इंसानों के बीच भेद-भाव पैदा करने और आँगन में दीवार उठाने वाले न हो।
यह सुनकर तो मैं चलने के लिये खड़ा हो गया ।