आनन्द की खोज (गद्य गीत) : राय कृष्णदास
Aanand Ki Khoj : Rai Krishna Das
आनन्द की खोज में मैं कहाँ-कहाँ न फिरा ? सब जगह से मुझे उसी भाँति कलपते हुए निराश लौटना पड़ा जैसे चन्द्र की ओर से चकोर लड़खड़ाता हुआ फिरता है।
मेरे सिर पर कोई हाथ रखनेवाला न था और मैं रह-रहकर यही बिलखता कि जगन्नाथ के रहते भी मैं अनाथ कैसे रहता हूँ, क्या मैं जगत् के बाहर हूँ?
मुझे यह सोचकर अचरज होता कि आनन्द कन्द-मूलक इस विश्व-वल्लरी में मुझे आनन्द का अणुमात्र भी न मिला । हा! आनन्द के बदले में रुदन और शोच परिपोषित कर रहा था।
अन्त को मुझसे न रहा गया। मैं चिल्ला उठा - आनन्द, आनन्द, कहाँ है आनन्द ! हाय! तेरी खोज में मैंने व्यर्थ जीवन गँवाया। बाह्य प्रकृति ने मेरे शब्दों को दुहराया, किन्तु मेरी आन्तरिक प्रकृति स्तब्ध थी । अतएव मुझे अतीव आश्चर्य हुआ । पर इसी समय ब्रह्माण्ड का प्रत्येक कण सजीव होकर मुझसे पूछ उठा – क्या कभी अपने-आप में भी देखा था ? मैं अवाक् था।
सच तो यह है । जब मैंने उसी विश्व के एक अंश - अपने आप तक में न खोजा था तब मैंने यह कैसे कहा कि समस्त सृष्टि छान डाली ? जो वस्तु मैं ही अपने-आपको न दे सका वह भला दूसरे मुझे क्यों देने लगे ?
परन्तु, यहाँ तो जो वस्तु मैं अपने-आपको न दे सका था वह मुझे अखिल ब्रह्माण्ड से मिली, जो मुझे अखिल ब्रह्माण्ड से न मिली थी वह अपने-आप में मिली !