आनंद का स्वरूप (निबंध) : भूपेश प्रताप सिंह
Aanand Ka Swaroop (Nibandh) : Bhupesh Pratap Singh
हमारा मन-मस्तिष्क जहाँ तक जाता है एक ही बात समझ में आती है कि हर किसी को आनंद की खोज रहती है,परंतु यह अमूर्त आनंद सभी को प्राप्त नहीं होता या यों कहूँ कि अधिकतर लोग इससे वंचित रह जाते हैं तो अतिशयोक्ति न होगी। वास्तव में होता यह है कि हम जो भी कार्य करते हैं उसे अपनी खुशी के लिए करते हैं।एक कार्य के पूरा होते ही दूसरे कार्य को निपटाने की आवश्यकता जान पड़ती है। हम यह भी ज़रूरी नहीं समझते कि अभी जिस कार्य को पूरा किया है उसके भावी प्रभाव एवं परिणाम पर भी विचार कर लें। विचार करना इसलिए ज़रूरी होता है क्योंकि किसी कार्य को करते समय प्राय: हमारा मन वहाँ नहीं होता जहाँ उसे होना चाहिए। जिस कार्य के प्रति हमारे मन-चित्त को समर्पित होना चाहिए उसी को छोड़कर वह समस्त संसार का विचरण करता है। नियत कर्म के प्रति वह अकसर लापरवाह होता है। ऐसी लापरवाही कार्य सिद्धि की पूर्णता में बाधक है। कुछ लोग बहुत परिश्रमी होते हैं। वे चाहते हैं कि दुनिया में लोग उन्हें पहचानें और उनका आदर करें।इसके लिए वे भाँति -भाँति के तरकीब अपनाते हैं फिर भी असफल होते हैं। केवल इस असफलता के कारण ही उनकी योग्यता और क्षमता पर संदेह किया जाए,यह बिलकुल भी तर्कसंगत नहीं है। इतना ज़रूर माना जा सकता है कि उन्होंने अपने कार्य को पूर्ण मनोयोग से नहीं किया। इसके विपरीत कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो परिश्रम तो कम करते हैं परंतु कार्य करने के प्रति उनमें जो दत्तचित्तता होती है वह देखने और समझने लायक होती है। ऐसे लोगों को सफल माना जाता है।दोनों तरह के लोगों में अंतर उनके स्वयं और और दूसरों के प्रति जिम्मेदारी के बोध-अबोध को दर्शाता है।
किसी कार्य के प्रति लोगों में अलग-अलग भाव होता है।जो कार्य एक को विध्वंस का कारण जान पड़ता है वह दूसरे के लिए भविष्य में कुछ अच्छा होने की पूर्व सूचना का संकेत हो सकता है। कुछ लोग जब महाभारत के युद्ध की संभावना से भी डरते थे तो विदुर इसे नियति का विधान मानकर स्वीकार करते थे। ऐसा नहीं था कि उन्हें दुख नहीं होता था लेकिन वे उस उत्साह के आकांक्षी बिलकुल भी न थे जो किसी रणबाँकुरे में होता है जिससे प्रेरित हो कर वह मरने-मारने पर उतारू हो जाता है। इतना सब होने पर भी वे अपने लिए नहीं,हस्तिनापुर के लिए भी नहीं बल्कि धर्म और मानवता की रक्षा के लिए सोचते थे।उनके हृदय से आनंद का जो स्रोत फूटता था वह कौरव-पांडव दोनों को सराबोर करता था। हम जैसे साधारण सोच वाले वाले इन बातों की गहराई को समझकर व्यवहार नहीं करते। हम चाहते हैं कि किसी भी कार्य का परिणाम तुरंत प्राप्त हो जाए। धैर्य रखना तो जैसे हमने सीखा ही नहीं है, इसी अधीरता के कारण हमारा मन चंचल रहता है। किसी कार्य को करके हम सफल हो गए या सार्थक हो गए यह इस बात पर निर्भर करता है कि ऊद्देश्य प्राप्ति के लिए हमने किस स्तर का और कितना त्याग किया। त्याग का स्तर जितना उच्च होगा आनंद उतना ही अधिक होगा। यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि प्रसन्नता और आनंद में अंतर है। बच्चा खिलौना पा कर प्रसन्न हो जाता है परंतु आनंदित नहीं। ऐसी प्रसन्नता वर्षाकाल में रात के समय काले बादलों के बीच अचानक चमकने वाली उस बिजली की तरह क्षणभंगुर होती है जो अपना प्रभाव दिखाकर संसार को पुन: घोर तिमिर में छोड़ जाती है।संग्रह और त्याग की भावना पर आधारित होने के कारण आनंद और प्रसन्नता विपरीत ध्रुवों पर स्थित हैं। अपनी खुशी के लिए कार्य करने से हमें प्रसन्नता मिल सकती है परंतु आनंद तो तभी प्राप्त हो सकता है जब हम खुश होकर निर्लोभ और निर्विकार भाव से कार्य करें। खुश हो कर कार्य करते समय हमारा मन किसी योगी की लाभ- अलाभ की चिंता से मुक्त हो संसारसागर में गोता लगाता रहता है। आनंद की मुक्तामणियाँ उसके हृदय प्रदेश को सुशोभित करती रहती हैं लेकिन अब उसे इनसे कोई प्रयोजन नहीं होता। वह ऐसे विराट लक्ष्य का साधक हो जाता है जिसकी प्राप्ति की कल्पना मात्र से उसका रोम-रोम पुलकित होता रहता है। आनंद का यह स्वरूप प्रसन्नता से बिलकुल पृथक है।
प्रसन्न कोई भी हो सकता है। पशु-पक्षी और जलचर भी अपने स्वभाव और प्रवृत्ति के अनुसार किसी-न-किसी रूप में प्रफुल्लित होते देखे जा सकते हैं परंतु उनमें आनंद का भाव शायद ही कभी परिलक्षित होता हो।ऐसा इसलिए होता है क्योंकि भोजन की तलाश ही उनका मुख्य ध्येय है। उनका संग्रह-त्याग अपनी उच्चता को प्राप्त नहीं होता।आनंदित होने का वरदान केवल मानव को प्राप्त है परंतु यह तभी फलीभूत होता है जब वह स्वयं से पहले दूसरों के हितों की चिंता करे और सर्वजन सुखाय के लिए अपनी भागीदारी निभाए। ऐसा करने वाला ही आनंद का धारक होता है।