आलसी सूरज (तमिल कहानी) : चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (राजाजी)

Aalsi Sooraj (Tamil Story in Hindi) : Chakravarti Rajagopalachari

‘‘अरे, बाप रे! बहुत हुआ ये धंधा।’’ मक्खी बोली।
‘‘तुमको क्या इतना कष्ट हुआ?’’ मंदवेली (एक जगह का नाम) की जमीन को नोचते हुए मुरगे ने पूछा।
‘‘बंदरगाह से मैलापुर तक बोरियों से लदी हुई गाड़ी को चलाकर आओ तो तुम्हें पता चले।’’ मक्खी ने जवाब दिया।
‘‘कौन सी बोरियाँ? कौन सी गाड़ी को तुमने खींचा? मेरी तो समझ में कुछ भी नहीं आ रहा है?’’ मुरगे ने कहा।

‘‘तुम्हें कैसे पता चलेगा? जमीन को खोदकर कीड़े-मकोड़े, गिरे हुए चावल आदि को खानेवाले जीव हो तुम। तुम्हें इसके बारे में क्या पता है? मैं आज एक आदमी की पीठ पर बैठी, फिर उसकी गाड़ी को खींच-खींचकर यहाँ लाकर छोड़ा। इस थकावट को तुमसे कहने का क्या फायदा?’’ मक्खी बोली।
‘‘तुममें इतनी शक्ति कहाँ से आई? गाड़ी तो बहुत भारी होती है न?’’ मुरगे ने पूछा।

‘‘ताकत तो अंदर से काम करने की इच्छा व जोश जिसमें हो, उसमें होती है। रास्ते में खाने के सामान की अनेक दुकानें थीं। दुकानों में टँगे केले खूब पककर खराब हो रहे थे। सोचा, उधर खड़ी हो जाऊँ। बार-बार मेरी इच्छा हुई, पर बेचारा आदमी! वह गाड़ी कैसे खींचेगा? सोचकर, दया करके मैं खानेवाली जगह की किसी दुकान पर नहीं रुकी।’’ मक्खी बोलती गई।

‘‘तुम्हारा जीवन धन्य है। मेरी भी इच्छा है कि अच्छा बनकर रहूँ, ऐसा सोचता तो हूँ, पर होता नहीं है। क्योंकि इन कीड़े-मकोड़ों के स्वाद को मैं भूल ही नहीं पाता।’’ मुरगा बोला।

‘‘यह अच्छे लोगों का जमाना है नहीं। मनुष्य लोग दवाई डाल-डाल कर हमें मार रहे हैं। हमने क्या किया? ये मनुष्य पता नहीं क्यों इतना गुस्सा होकर, आवेश में आकर हमारे नाम पर युद्ध कर रहे हैं।’’ मक्खी बोली।

‘‘कोई बीमारी के कीटाणु को देख-डरकर ऐसा कर रहे हैं वे, कीटाणु तुम्हारे पैरों में व तुम्हारे नाक पर चिपककर मनुष्य के शरीर में व खून में चला जाता है, ऐसा मनुष्य कह रहा है।’’ मुरगे ने जवाब दिया।

‘‘उसके लिए हम क्या करें, क्या हम तालाब में जाकर अच्छी तरह नहाकर फिर लोगों पर बैठें क्या? हम स्नान करने को बैठ सकते क्या? स्नान करते ही हम मर जाएँगे।’’ मक्खी बोली।

‘‘सच है।’’ बड़े दुख से बोला मुरगा। मक्खी बोलने लगी, ‘‘कचरे के बरतन को भी अब ढकना शुरू कर दिया। पर कुछ पुण्यात्मा औरतें कचरे के बरतन को खोल कचरा डालकर ढके बिना ही छोड़ देती हैं। हमारे ऊपर इन कुछ माताओं की तो कुछ दया है।’’
मुरगे को नींद आने लगी।

‘‘ठीक है! मुझे सोना है, नहीं तो सुबह जल्दी उठकर सूरज को जगा नहीं सकता। मैं चिल्लाकर बाँग न दूँ तो आलसी सूरज सोता ही रहेगा, जागेगा ही नहीं।’’ मुरगे ने कहा।

उस समय चंद्रमा धीरे से पूरब में निकला। मुरगे व मक्खी की बातों को सुनकर मन-ही-मन हँसा। उसने सोचा, ‘मेरे लिए तो कोई मुरगा नहीं बोला। मैं अपने आप उठ गया।’ परंतु आज उसे ग्रहण डस लेगा, उसे यह पता ही नहीं था।

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