आक्षेप (कहानी) : मैत्रेयी पुष्पा
Aakshep (Hindi Story) : Maitreyi Pushpa
जब रुकमपुर के लिए मुझे तबादले, का आर्डर मिला तो मैं बौखला-सा गया था। उस गाँव का नाम सुनते ही बरसों से समेटा मन का साहस और उत्साह डोलने लगा था। धूल-धूसरित रास्ता और चार मील कच्चे की चलाई। कहाँ अभी जहाँ रहता था, ठीक सड़क के किनारे था मेरा बैठक, जीप सीधी आकर दरवाजे पर खड़ी हो जाती थी, बस…सो गज की दूरी पर ही रुकती थी। इस गाँव में मैंने बड़ा मन लगाकर काम किया था, शायद इसी का इनाम दे दिया मुझे।
‘‘मिस्टर विशालनाथ, यू आर ट्रांसफर्ड टू दैट लोनली विलेज। यू सी डेवलपमेंट इज मस्ट फॉर ऑल विलेजेज।’’ अंग्रेजी के इस वाक्य के समक्ष में कुछ भी नहीं बोल पाया था। हाथ में वह ट्रांसफर आर्डर पसीजता रहा था और यस सर कहकर बाहर निकल आया था। जैसे ही अपने बॉस मिस्टर बर्नाड के कमरे में घुसा था, मेरा चेहरा देखते ही ऊपर कहा वाक्य उन्होंने मेरी ओर यूँ उछाल दिया कि मेरी जुबान कुछ कहने को उठ ही नहीं पायी।
पिता जी की बात बार-बार याद आ रही थी–‘‘विशाल, अरे यार, यहीं कहीं नौकरी खोज लो, कहाँ-कहाँ भटकते फिरोगे!’’
लेकिन गाँवों की सेवा करने और वहाँ जीवन बिताने का जुनून मेरे सर पर इस कदर सवार था कि उनकी बातें मुझे बिलकुल थोथी लगी थीं। मैंने उन्हें यूँ ही हवा में उड़ा दिया। ग्रामीण मिट्टी के आकर्षण की अपेक्षा मुझे शहरी सुख-सुविधाएँ नगण्य लगी थीं, सो चल दिया गाँव की ओर।
मेरा युवा मन एक पल को निराश होकर फिर उत्साहित हो उठा था। एक चुनौती समझकर रुकमपुर जाने का इरादा कर लिया था–कुछ नहीं तो साइकिल तो कहीं गयी ही नहीं, वह तो कच्ची पगडंडी पर भी चली जाएगी।
वही हुआ। आफिस में ही खड़े ग्राम-प्रधान मिल गए थे। मेरे साथी ने मेरा परिचय उनसे करा दिया था। और उन्हीं के साथ साइकिल लेकर मैं उस ओर निकल पड़ा।
जलपान के पश्चात् वे ही मुझे अपने साथ गाँव की परिक्रमा-सी करा रहे थे और उसी बीच कई कमरे दिखाते जा रहे थे। वे बैठकनुमा कमरे थे अर्थात् हर घर के मेहमानखाने, जो कुछ ही घरों के बाहर बने थे–
‘‘कौनऊ कमरा चुन लो बाबूजी, जौन अच्छौ लगे उतई रहबे कौ परबन्ध हो जैहे और खावे-पीवे की कौनऊ चिन्ता न करियों आप।’’
‘‘ये आप लोगों के उठने-बैठने के कमरे हैं, मैं जिस किसी का भी कमरा लूँगा उसे असुविधा तो होगी।’’
‘‘कैसी बात करत हौ बाबूजी, आप अपनौ घर-बार छोड़ के हमारे भरोसे तो आये हौ। जे तो हमारौ फरज है।’’
भोले-भाले ग्रामीणों की ये ही बातें तो मुझे चुम्बकीय शक्ति से गाँवों की ओर खींचती रही हैं। शहरी सभ्यता के दासत्व में हम क्या अपना ड्राइंगरूम किसी को रहने के लिए दे सकते हैं? यदि दस मिनट भी कोई आगन्तुक अधिक बैठ जाए तो हम घड़ी देखकर अपना समय नष्ट होने का आभास उसे कराने में नहीं चूकते। कैसी असुविधा की दुविधा में पड़े हम उसके जाने की प्रतीक्षा करते हैं।
मैंने जिस कमरे को चुना था, वह घर रमिया का था। रमिया के घर की बैठक ही मेरे रहने का स्थान बनी।
‘‘ठीक है बाबूजी, खान-पियन की परेसानी नहीं हुइये। वा रमिया है न, आपको खाना बना देउ करहै।’’
‘‘मैं स्वयं खाना बना लूँगा, आप लोगों को परेशान थोड़े ही करने आया हूँ।’’
‘‘कैसी बात करत हौ बाबूजी, अरे परेसानी काये बात की?’’ कहकर प्रधान जी मुझे आश्वस्त करने लगे।
मैंने रमिया को अभी तक नहीं देखा था। बहुत थक चुका था। कपड़े के जूतों का रंग धूल के रंग का हो गया था। बीच में साइकिल से उतरकर पैदल भी चलना पड़ा था। खैर, फिर भी पहले सामान खोलकर मैंने करीने से लगा दिया–बैठक की दो किवाड़दार अलमारियों में। सोचा कि अब नहा लूँ। नहाने की इच्छा जाहिए की तो प्रधान जी ने दोनों साधन मेरे सामने रख दिए–
‘‘कुआँ ऊ घर के द्वार पे है बाबूजी, जगत पानी खेंच दैहे और घर के भीतर बर्मा हू लगौ है। सहर के मानस तौ भीतर घुस के ही नहात हैं।’’ कहकर प्रधान जी मुस्कुराने लगे।
मैं बाहर नहाने की सोच भी नहीं सकता था। अब तक जहाँ रहता था, वह सरकारी बिल्डिंग थी। मेरे कमरे में लगा ही गुसलखाना भी था। मैं घर के अन्दर ही नल पर चला गया। आँगन में नल था, उसके चारों ओर की जमीन पक्की थी–सीमेंट लगी–बिलकुल चिकनी। जगत ने दो बाल्टी पानी निकाला और बाहर हो लिया। धूल-पसीने से लथपथ मैं शरीर पर पानी डालकर साबुन लगा ही रहा था, आँखें साबुन के फेन के कारण बन्द कर रखी थीं–तभी कानों में हँसी की ध्वनि गूँजने लगी, जैसे किसी ने अनगिनत काँच की चूड़िया पक्की जमीन पर बिखेर दी हों। मैंने साबुन लगे मुँह से ही आँखें खोल दीं–देखा सामने एक अति रूपवती नारी खड़ी है। झट से आँखें बन्द कर लीं मैंने, क्योंकि साबुन चिनमिनाने लगा था।
‘‘जे बाबूजी तो घर में जनी की तरह नहा रये…अऽ…हऽ…ऽह…अऽ…’’ कहकर वह हँसे जा रही थी। मैं सकुचाकर आधा हो गया। ‘कैसे कपड़े बदलूँगा, जाने अभी तक गयी कि नहीं?’’ जल्दी से मैंने मुँह पर पानी डाला, लेकिन यह देखकर सकून मिला कि वह जा चुकी थी। बैठक में घुसा तो वह चाय लिए खड़ी थी, पीतल के पिचके गिलास में ऊपर तक भर के। शायद हाथ जल रहा होगा, इसीलिए कपड़े के चीकट काले टुकड़े से पकड़े हुए थी–
‘‘बाबूजी, चाय।’’ कपड़े समेत ही मुझे जल्दी से गिलास पकड़ा दिया।
इतने में प्रधान जी भी आ गए। शायद वे चबूतरे पर बैठे मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे कि मैं कब नहाकर निकलूँ।
‘‘जा रमिया है…बाबूजी, कौनऊ परेसानी नहीं हौन दैहें आप को, ऐन समझदार है।’’
मैंने इधर-उधर देखा, वह जा चुकी थी, लेकिन जितना भी मैं उसे देख सका, उसका रूप अवश्य मुझे चकित करके धर गया। इतनी रूपवती नारी–इस गाँव में!
‘‘काय बाबूजी, सादी भई कि नईं?’’ प्रधान जी पूछ रहे थे।
‘‘नहीं, अभी अकेला ही हूँ। घर में माँ-बाप हैं।’’ मैंने उनके अगले सम्भाविक प्रश्न का उत्तर भी दे दिया।
‘‘बाबूजी, एक बात बतायें देत हैं हम आपकों, जरा रमिया से नेंक सावधान रहियो।’’
‘‘ऐसा क्यों?’’ मैंने सोचा, खतरनाक औरत होगी।
‘‘बाबूजी, घबड़ावे की कौनऊ बात नइयाँ। वैसें तो सब तरह से भली है, पर निछुद्दर है ससुरी। अब सरम खोल के का कहें आपसे–इतै-उतै मुँह मारत फिरत है।’’
मैं उनका इशारा समझकर सकते में आ गया–कैसा गलत घर चुन लिया मैंने? कैसे रहूँगा?
शाम घिर आयी थी, मैं सोकर उठा तो कुछ ताजगी-सी महसूस कर रहा था। गाँव में सबसे परिचय करने चल दिया। इस गाँव का ग्राम-सेवक था मैं–खाद, बीज के विषय में बातें कीं लोगों से। साक्षरता-अभियान कैसे आरम्भ किया जाए, सलाह-मशवरा किया नवयुवकों से। बैंक से ऋण मिलने में क्या-क्या परेशानियाँ होती हैं, उन्हें हल करने का आश्वासन देकर अपने कमरे पर लौट आया। पौर में घुसते ही आँगन में बने चूल्हे के पास बैठी वह साफ दिखाई दे रही थी। लालटेन की मद्घिम रोशनी में उसके मुख की रंगत नारंगी हो उठी थी। वह मुँह नीचे झुकाए कटोरदान में रोटियाँ गिनने में तल्लीन थी। तब करीब सत्ताईस-अट्ठाईस साल की रही होगी वह, मेरे अन्दाज से।
मेरी आहट पाते ही खाना परोसकर कमरे में ले आयी। मैं जूते खोल रहा था। झुके-झुके ही कह दिया, ‘‘मेज पर रख दो।’’
वह खाना रखकर तुरन्त अन्दर चली गयी। मैं नल पर हाथ धोने गया तो वह नल चलाने आ गयी। उसका निश्छल, निष्कलंक मुख कैसी अपूर्ण गरिमा से दीप्त था! फिर क्यों ग्राम-प्रधान ने उसके लिए ऐसा कहा था? क्यों परिचय के समय, यह सुनकर कि मैं रमिया के घर जा रहा हूँ, कुछ लड़के आपस में अभद्र इशारे करके हँस पड़े थे? बड़ी उलझन में पड़ा खाना खाता रहा। सोचा कि जगह बदलने को कहता हूँ तो यह निर्दोष क्या सोचेगी, जो इतनी तन्मयता से मेरी सेवा में लगी है? थोड़ी देर में एक आठ-दस बरस की बच्ची दुबारा रोटी की पूछने आ गयी–पता चला कि रमिया की बहन थी, साथ ही रहती थी, नाम था–द्रौपदी। रमिया के यहाँ बच्चा तो कोई दिखा नहीं। उसके यहाँ कभी बच्चे का जन्म हुआ कि नहीं यह भी मैंने नहीं पूछा।
एक दिन जब मैं शहर से लौटा तौ रमिया घर में नहीं थी। द्रौपदी ने ही मुझे खाना परोसा। अपनी बहन की तरह ही बड़े जतन से एक-एक चीज के लिए पूछती जाती और लाती जाती। मैंने उसी से पूछा, ‘‘तुम्हारी दीदी कहाँ है?’’
‘‘आपकों नहीं मिली बाबूजी? सहर ही तो गयी है यसोधन मास्टर के संगै।’’
मेरा संशय अँकुआया-सा हो उठा–कहीं तो आग होगी ही, नहीं तो धुआँ कैसे उठेगा? खैर, मैंने सोच लिया–मुझे क्या पड़ी जो उसके बारे में सोचूँ? ज्यादा-से-ज्यादा डेरा बदल लूँगा। जब वह लौटकर आयी तो मैंने कुछ नहीं पूछा। वही बताती रही–
‘‘आज हम मास्टर के संगै चले गये थे सहर, का करते बिमार हते सो हमें संगै ले गये। हमाई जानकारी है न डाकधर से।’’
मैंने सोच लिया बहाना गढ़ लिया है तो गढ़े, मैंने कौन-सी सफाई माँगी थी इससे। मैं इस गाँव के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहा था–सारे-सारे दिन किसानों के साथ खेतों का निरीक्षण करता घूमता–कहीं फसल में कीड़ा तो नहीं लगा? खाद समय पर डाली है कि नहीं? एक-एक किसान से पूछता। ऋण दिलवाने के लिए भाग-दौड़ करता। उसकी परेशानियाँ सरकार तक पहुँचाने का भरसक प्रयत्न करता तथा नये तरीके से खेती करने के आयाम उनके सामने खोलकर रखता और उस पगडंडी पर अँगुली पकड़कर उन्हें चलाने की कोशिश करता। फिर भी अकसर उन्हीं में से कोई-न-कोई मुझे अपने ऊपर निन्दित, उच्छृंखल दृष्टि फेंकते दिख जाता तो अन्दर से मेरा मन कैसा कसैला हो जाता था। फिर सोचता, क्यों रहता हूँ मैं इस बदनाम औरत के घर? छोड़ क्यों नहीं देता यह जगह? पर रमिया की आकृति देखते ही वह सब भूल जाता कि पीछे कैसी विकट स्थिति झेली है मैंने। दूध धुला-सा निश्छल भाव समेटे उसका चेहरा मेरी राह रोककर खड़ा हो जाता, कैसे जाऊँ…कहीं और?
कुछ भी सुनकर यहीं रुकने का दृढ़ निश्चय कर चुका था, लेकिन उस रात की घटना ने मुझे फिर झकझोरकर रख दिया था। वह रात-भर नहीं आयी। मैं अपने कमरे का, उसके घर में खुलने वाला द्वार अकसर बन्द रखता था, लेकिन फिर भी किसी तरह की आहट होती तो मुझ तक आ ही जाती थी। रात-भर मुझे नींद नहीं आ सकी। रमिया सुबह लौटी, तब मुझे झपकी लग चुकी थी लेकिन–‘‘बाबूजी, चाय।’’ उसके शब्दों से ही मेरी आँख खुल गयी–देखा कि खिड़की से धूप मेरे कमरे में प्रवेश कर गयी है। मैं उससे बेहद नाराज था, फिर भी अनचाहे दृष्टि उसकी ओर उठ ही गयी। गहरी खरोंचों के अनगिनत निशान थे उसके मुख पर, बाँहों पर, पाँवों पर, जिधर नजर जाती उधर ही–देखकर मैं घबरा उठा।
‘‘यह क्या हुआ? चोट कैसे लगी है? इतनी कि…’’
‘‘का बतायें बाबूजी, जा गाँव के बदमास लरकन की करतूत है जा।’’ वह बहुत ही उदास थी।
‘‘क्या कह रही हो? रात-भर नहीं लौटीं तुम। तुम्हारी बहन भी द्वार का ताला लगाकर न जाने कहाँ चली गयी। मैं अकेला तुम्हारा घर रखाता रहा।’’ मैं बहुत क्रोधित था।
‘‘अरे जा घर में का धरौ बाबूजी, जो रखवारी करने परै।’’
‘‘सच-सच बताओ, रात में कहाँ थीं? अब मैं एक पल भी तुम्हारे यहाँ नहीं ठहरना चाहता। जाने किस बुरी घड़ी में यहाँ आ गया था।’’
‘‘ना…ऐसौ न करियो बाबूजी! आपसे बड़ौ सहारो है हमें, आपको देखकें हिम्मत बाँधे हैं हम।’’
‘‘बोलो, कहाँ थीं?’’ मैं चाबुक-सा प्रश्न बरसाता रहा, वह कुछ नहीं बोली, चुप ही रही। मेरा गुस्सा और बढ़ गया–
‘‘फिर गाँव वाले ठीक ही कहते हैं। रमिया, तुम्हारे लक्षण ही ऐसे हैं फिर बदनामी क्यों नहीं होगी।’’
‘‘आप तौ न बोलौ बाबूजी ऐसें, अबै बतायें देत–नम्बरदार के घर हते हम।’’
मैं समझ गया, यह इस तरह की गड़बड़ रोज करती होगी।
‘‘किसने बुलाया था तुम्हें वहाँ? क्या कर रही थीं उनके घर?’’
‘‘काऊ ने नईं, हम तौ खुद ई गये ते। कित्ते बिमार हैं वे। बिचारे अकेले हैं, कोऊ पानी दैवे बारौ नईंया। भट्टिन बुखार में तप रये ते। का करते बाबूजी हम? रात-भर पानी की पट्टी माथे पै धरत रहे, गोड़े दाबत रहे। काढ़ौ बनाकें पिवाउत रहे। पर का करें जा गाँव की गुण्डागर्दी को…छत्त पै चढ़ के पत्थर बरसाये हैं, सीटी मारी हैं बाबूजी। बा तौ नम्बरदार पै बरसत पत्थर हमहि झेलत रये नहिं तौ बड़ी चोट आऊती उन्हें। का-का गलीच नहिं बकौ बाबूजी हमाये लाने…।’’ कहकर वह हिचकी बाँधकर रोने लगी।
मैं पसीज उठा था, फिर भी उसकी मूर्खता पर खीझ थी मुझे–‘‘तुम्हें क्या पड़ी थी जो तुम दौड़ी गयीं उनके यहाँ?’’
‘‘का करते हम? वे अकेले हैं, मर जान देते उनें? अरे अपने जमाने के बड़े अच्छे-अच्छे काम करे हैं उनन्ने। हमाये ससुर बताउत हते कै नम्बरदार गरीबन को करेजा से लगा कें रक्खत हते। भीड़ लगी रहत हती उनके द्वारें। आज निबल हो गये तो कोऊ पास नहिं फटकत उनके।’’
‘‘घर में और कोई नहीं है क्या?’’
‘‘हैं काये नहिं, सब कोऊ है, चारि-चारि लरका हैं, पर का करें, सबके सब अपनी-अपनी दुल्हिन लैके नौकरी पै निकरि गये। इनहूँ को बहौत बुलाउत हैं, पर जे देहरी की मोह-मिमता तौ नहिं छोड़ि पाऊत। हमसे जितनी चाकरी बन जात है, कर देत हैं। कोऊ कछू कहै हमें नहि फरक परत बाबूजी।’’ वह एक पल में ही जी हल्का करके सब कुछ भूल गयी थी।
इस घटना के विषय में तो पूरी तरह समझा दिया मुझे। मैं भी उसकी हर बात से सहमत हो गया। नम्बरदार के यहाँ वह चाहे जब रुक जाती। वे वृद्ध तो थे, लेकिन कद-काठी लम्बी, सीधी चाल को देखकर ऐसे वृद्ध नहीं दिखते कि कोई गलत दिशा में सोच ही न पाये।
एक दिन फिर गाँव में कानाफूसी होने लगी। सुना कि आज शेरखाँ के साथ चली गयी–हाट-बजार करने। गाँव का नामी गुण्डा, छँटा बदमाश माना जाता था वह। लेकिन रमिया न जाने क्या सोचकर उसके साथ हो ली? मैं गली से जा रहा था कि तीर-सा वाक्य मेरी ओर किसी मसखरे ने उछाल दिया–
‘‘काय बाबूजी, सम्भार नहिं पाये सो फिर रही है घाट-घाट।’’ इस दोहरे प्रहार को सुनकर मैं तिलमिला उठा। वहीं से आगे जाने की बजाय घर की ओर उलटा लौट लिया और अपना सामान बाँध लिया। इससे अधिक सहने की शक्ति मुझमें नहीं थी। सोचा, आज आ जाए रमिया, फौरन प्रधान जी के कमरे में चला जाऊँगा। सारे झंझट खत्म हो जाएँगे।
वह रात गए लौटी। मैं तो उसकी प्रतीक्षा करके थक रहा था। घर में घुसी ही थी कि मैंने पुकार लिया–‘‘रमिया, पहले इधर आओ। मैं जा रहा हूँ।’’
‘‘कितै बाबूजी?’’
‘‘कहीं भी, जहाँ चाहूँगा व…ऽ…वहाँ। तुम तो इस गाँव में बदनाम हो ही, मुझे भी अपने साथ घसीट रही हो। रोज कहीं न कहीं गायब हो जाती हो। मैं देख नहीं रहा क्या? तुम अच्छी औरत नहीं हो रमिया! पर मुझे लेना-देना तुमसे।’’
‘‘बाबूजी, अपनी ही कहत जैहौ, कछु हमाई न सुनहौ?’’
‘‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं सुनूँगा, गढ़ दो कोई कहानी।’’ मैंने वितृष्णा से कहा।
‘‘बाबूजी, कौनऊ कहानी नइयाँ, सब सच्ची बात है, बिलकुल सच्ची। हम का मानत नइयाँ कै सेरखाँ गुण्डा-बदमास है, पर देखौ तौ बाबूजी, बाकी जोरू अबै एक महिला पहलें गुजर गयीं–दो छोटे बच्चा छोड़िके। एक तौ दूध पियत बच्ची है। बाबूजी, वा अकेलौ अपने बच्चा नहिं पाल पा रहो, मजूरी करै कै बच्चन लै कें बैठौ रहै, सो बाबूजी, सेरा दुखी हुइकैं मोंडी कों सहर के कंजरन देन जारओ हतो। बहुत रोरओ हतो बाबूजी। हम तौ बईऐ रोकत-रोकत रस्ता-भर समझाउत चले गये–कै हम पाल देहें तेरे बच्चा सेरा, आज से इनकी माँ हम है रे…हम हैं, मान तौ सही। बड़ी मुस्किल से लौटा ले आये बाय।’’
मैंने देखा, द्रौपदी की गोद में छोटी बच्ची थी और रमिया की उँगली पकड़े करीब तीन साल का बालक टुकुर-टुकुर कभी मुझे देख रहा था, कभी रमिया को। उसके बाद रमिया का आना-जाना शेरा के घर भी हो गया रात-बिरात। मैं नहीं कह सकता कि शेरा अपने बच्चों की धाय बनी इस स्त्री से कैसे पेश आता होगा? लेकिन शेरा के जीवन के वे कठि क्षण जरूर बाँट लिए थे रमिया ने।
एक दिन यों ही पूछ लिया मैंने–‘‘रमिया, तुम अपने पति के साथ चली क्यों नहीं जातीं? यहाँ सौ बवंडर खड़े करती रहती हो।’’
‘‘कैसी बातें करत हौ बाबूजी, ससुर की देहरी छोड़के चले जायँ? वे हमारे धरमपिता कित्ते प्यार से ब्याह कें ले आये ते हमें। उनईं कौ घर बीरान कर जायँ?’’
‘‘फिर तबादला भी तो हो सकता है रामेश्वर का। प्राइमरी स्कूल तो यहाँ भी है।’’ मैंने दूसरी युक्ति सुझाई।
‘‘कैसें करा लें तबादलौ, आप ही बताऔ। वौ है सीधौ-साधौ मिट्टी कौ माधौ। न जानें कैसें मास्टरी करत है! हमने ही प्रधान जी से बात करी थी, सो कहत हते–पाँच हजार लगि हैं। बाबूजी, इत्तौ ही होत्तौ तौ चम्पाराम और कुन्दनियाँ भूखे न मर रये होते।’’
एक और पहेली बिखेरकर बैठ गयी रमिया।
‘‘ये चम्पाराम-कुन्दनियाँ कौन हैं?’’ मैं पूछ रहा था।
‘‘चम्पाराम पंडित है बाबूजी। उनकौ ब्याह ई नहि भओ सो बाल-बच्चे नइयाँ। कुन्दनियाँ बुआ उनही की बाल-विधवा बहन हैं। विधवा भई तौ भाईं की रोटी बनाउन इहाँ चली आयीं, फिर आज तक सासरे ई नहीं गयीं। इनके भतीजन ने सब जमीन अपने नाँव करा लई बाबूजी। जब तक जमीन नाँव नई करी हती सो अपने संग रखत हते। जायदात लैबे पीछें को पूछत बुढ़ापे में? अब कोउ रोटी नहि दै सकत उन्हें। जो कछु हमसे बन परत है, कर देत हैं बाबूजी। आपसे पहले बेई तो सोऊत हते हमाये बैठका में–हम अकेले हते न बाबूजी…।’’
सुनकर मैंने सोचा, यह औरत दुनियादारी से कतई अनभिज्ञ है। सबका ठेका क्या इसी ने ले रखा है? आज के जमाने में हम इसे क्या कहेंगे–‘मूर्ख’–और क्या?
‘‘गाँव वाले तुम्हारे विषय में जो कहते हैं उसका पता तो है न तुम्हें?’’ मैंने गहरी निगाह उसके चेहरे पर गड़ा दी।
‘‘पतौ काहे नइयाँ। चरित्तर खराब समझत है, जई न?’’ वह निरीह भाव से बोल गई।
किन्हीं दिनों लछमीनरायन रमिया के सौन्दर्य के दास हुए उसकी गली के अनगिनत चक्कर लगाया करते थे, लेकिन यह अनुपम सुन्दरी उन्हें फटकार बैठी। खिसियाकर लछमीनरायन सबसे कहते फिरे थे–‘‘मरद तौ घर पै रहत नइयाँ, सो हमें बुलाउतीं, हमाऔ का कसूर? दुनियाँ के आगें आँखें दिखाऊत हैं।’’
लेकिन जब उनके छप्पर में आग लगी तो यह मूर्ख औरत सबसे पहले बाल्टी भर-भर आग बुझाने में लगी थी। आग की लपटों में अन्दर घिरे लक्ष्मीनारायन को बाहर निकालने की हिम्मत कोई नहीं कर पा रहा था। जान सबको प्यारी थी। रमिया ही आग में झुलसती उन तक पहुँच गयी और बाहर खींच लाई। सभी ने यही कहा था–‘‘पुराना याराना था, बचाती कैसे नहीं!’’
यह वाक्य अन्दर तक मेरा मन छीलता चला गया था। लगा, मैं यहाँ क्यों आया? ग्रामीण भोले भाव, जिन्हें मैं कलेजे से लगाये था, आहत हो-होकर गिरते जा रहे थे। सहर और गाँव में अब अन्तर रह ही कहाँ गया है। एक-सी मानसिकता व्याप्त है हर जगह। शहर में मोह-ममता खोजे नहीं मिलते और गाँव के इस मोह को क्या नाम दें, जो सीधे सोच ही नहीं सकता। बड़ी वितृष्णा भर गयी मेरे मन में। जगह की कड़वाहट कैसी होती है, मैंने अपने हलक के थूक से महसूस कर ली थी। हारकर उसी को फटकारने लगा–‘‘खबरदार, जो अब कहीं गयीं। सुनतीं ही नहीं तुम। अब एक पल भी नहीं ठहरूँगा तुम्हारे घर।’’
‘‘नहीं बाबूजी, आप न जइयो। धन भाग हमारे जो आप आए। हमारी रातें सुरच्छित हो गयीं बाबूजी–अब द्वार की साँकल रात गए कोऊ नहिं बजाउत, खुसर-पुसर कोऊ अबाज नहिं देत। बाबूजी, आपके पाँव पड़त हैं…।’’ कहकर मेरे पाँव पकड़ लिए। अन्दर की करुणा आँखों से बहने लगी। मेरी आँखें नम हो आयीं।
‘‘अब कितहूँ नहिं जैहे बाबूजी, हम बिलकुल कितहूँ नहिं।’’ उसने प्रतिज्ञा ली।
लेकिन देखता कि नम्बरदार के घर, शेरा के घर, चम्पाराम के पास, लक्ष्मीनारायण के जले जख्मों की खबर लेने वह किसी पल चली जाती और तुरन्त लौट आती। मैं मन मसोसकर रह जाता–‘यह नहीं मानेगी।’
एक दिन नम्बरदार के घर देर लग गयी। घर में घुसते ही मैंने प्रश्न किया–‘‘कहाँ गयी थीं? मानती नहीं हो तुम और मेरा पीछा भी नहीं छोड़तीं।’’
‘‘बाबू, जानें चाहो तो बेसक चले जाओ। हम तौ आपकों बदनामी ही दै सकत। पर बाबूजी, जामें हमाओ दोस नइयाँ, सब हमारी माँ कौ दोस है। बई ने हमाये मन में परमारथ कूट-कूट कें ऊर दऔ और बइ अपसरा-सी सुगढ़ माँ कौ रूप दै दऔ हमें राम जी नें। का करें जे दो खोट जुर गए बाबूजी, नहिं तौ का ऐसौ होतौ? अब नहिं जैहें काऊ के घरै चायें मरै।’’
मैं देखता रहता, अब वह कहीं नहीं जाती थी। अनमनी-सी अपने घर की झाड़ू-बुहारी में लगी रहती, खाना बनाती रहती और शेरा के बच्चों को अपने ही यहाँ पालती रहती। अफवाहें बन्द-सी हो गयी थीं। मैं भी शान्त मन अपना काम करता था।
घर से माँ की बीमारी का पत्र आया। मुझे तुरन्त ही जाना पड़ा। पिताजी काम से बाहर गए थे, इसलिए मैं जल्दी लौट भी नहीं सका। माँ की हालत दिन-पर-दिन खराब होती जा रही थी। मैं इलाज के लिए भाग-दौड़ कर रहा था और पिताजी के आने का एक-एक क्षण इन्तजार कर रहा था। लेकिन जो नहीं होना चाहिए था, वही हो गया। माँ चल बसीं, पिताजी नहीं आ पाए। मैं खूब रोया था। चाहे रहता कहीं था, माँ की परछाईं का आभास मुझे सदैव अपने साथ बना रहता। इस सदमे को बर्दाश्त करते हुए मुझे रमिया कई बार याद आयी थी। वह कैसे सारी विषम परिस्थितियों की मार सह लेती है!
पिताजी ने यह नौकरी छोड़ देने को कहा था। बहुत रोका था मुझे, लेकिन मैं फिर उसी गाँव के रास्ते पर चल दिया। रमिया के विषय में सोच रहा था कि वही मेरी टूटी हिम्मत बँधाएगी। घर मिलेगी तो कैसे आँसुओं का बाँध रोक पाऊँगा। गाँव का सीवान पास आता जा रहा था। रेतीले रास्ते पर साइकिल की चेन उतर गयी। उसी को चढ़ा रहा था कि मेरी निगाह कहीं दूर जाकर टिक गयी…देखा, कोई औरत चली आ रही है। साइकिल की चेन चढ़ा चुका तो आगे बढ़ा। मेरे और उसके बीच का फासला सिमटने लगा। स्त्री के कंधे पर एक बच्चा बैठा था। निगाह पैनी करके देखा तो लगा जैसे रमिया हो…पास आती गयी…हाँ, वही तो थी।
रमिया के कन्धे पर उन्हीं ठाकुर साहब का बेटा बैठा था जो उसकी बदनामी की कहानियाँ गढ़ने में महारत हासिल कर चुके थे। वह तेज चाल से चलते हुए मेरे करीब आ गयी।
‘‘अरे बाबूजीईऽऽ…!’’ सब ठीक तौ है…बौहत दिन लगा देय!’’ उसकी चहकती आवाज शिकायत में बदल गयी।
‘‘रमिया…बस…ऐसा ही कुछ हो गया था।’’ कहकर मेरा गला भर आया।
‘‘अरे, ऐसौ का भऔ…बाबूजी…?’’
कुछ रुककर बोली–‘‘बाबूजी, जे मुन्ना बिमार है–जाके इन्तान के परचा हैं। और जाके पिता बाहर गाँव गए हैं। बिचारी माँ हती अकेली…बौऊ बुखार में परी घबड़ाय रही। सो बाबूजी, हम जाय कन्धा पै लऐं चले आए। परचा छूट जातौ तौ साल बरबाद हुई जातौ…हम अबै आए लौटि कें…।’’ कहकर वह तेज कदमों से चली गयी।