आजादी की नींद : भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव
Aajadi Ki Neend : Bhuvneshwar Prasad Shrivastav
पात्र:
एक पेशेवर नेता
ईमानदार बातून
एक विशेषज्ञ
एक कमसखुन
एक कवि
एक नौकर
मिसेज ई० बातून
मिस कटारा
बूढ़ी दाई
(ईमानदार बातून के मकान का बाहरी कमरा : कमरा साधारण है और शायद कभी-कभी बीते हुए जमाने में सजाया भी गया था। लेकिन अब उसमें तरतीबवार और सलीके का विकृत और विद्रोही रूप नजर आता है। वैसे फरनीचर काफी है और कुर्सियाँ एकलीक तीनों तरफ की दीवारों से सटाकर रख दी गयी हैं। परदा उठने पर ईमानदार बातून जिसकी उम्र और तजुरबा ज्यादा नहीं है, लेकिन जिसे शायद ज्यादा बातूनीपन या जरूरत से ज्यादा ईमानदारी ने जगआलूदा बना दिया है, कुछ बेवजह और बेइरादा ढंग से कमरे की चीजें इधर-उधर कर रहा है। वह अचानक कोने की एक अलमारी की तरफ लपकता है, जैसे उसने कोई बड़ी बेकार और सारहीन चीज देख ली हो। अलमारी के पास पहुँचकर वह उस घर से कुछ किताबें उठाकर भीतर के दरवाजे में कुछ नाटकीय गुस्से से फेंक देता है ।)
ई० बातून : मैं पागल हो जाऊँगा, मैं जहर खा लूँगा, मैं दाँतों से अपना हाथ काट लूँगा अगर मैंने इस कमरे में फिर कोई किताब देख ली ... मैं कितनी बार और कितने तरीके से कह चुका हूँ।
(भीतर से मिसेज बातून घबरायी हुई आती हैं और हकबकी-सी कमरे में दाखिल होती हैं। मिसेज बातून की छवि कभी जरूर सुघड़ रही होगी, लेकिन यह सुघड़ता समय के हचकोलों से बचकर भी पति की ईमानदारी की स्वाभाविक नाहमवारी की शिकार हो गयी।)
मि० बातून : यहाँ अभी कोई चीज गिरी है ? और... और... (फिर हकबकी रह जाती हैं ।)
ई० बातून : जी हाँ यहाँ अभी जरा आसमान गिर गया है।
मि० बातून : ऐं ! आप यह किस-किस पर जोर-जोर से बिगड़ रहे थे ?
ई० बातून : हूँ मैं तुमसे एक बात पूछता हूँ। तुम क्या कभी ईमानदार न हो पाओगी और सितम तो यह है कि किसी दूसरे से नहीं, तुम खुद अपने से ईमानदार नहीं हो... अगर होती.... अगर होती तो-
मि० बातून : तो कभी जहर खा लेती... ?
ई० बातून : (सहसा उसके चेहरे पर गुस्सा बुझ जाता है।) तुमने शायद यह बात बिल्कुल बेइरादा कही है और चंद रटे हुए अलफाज से ज्यादा यह कुछ नहीं है, लेकिन यह ईमानदारी की बात है, शोपेनहार के बाद इतनी ईमानदारी की बात सिर्फ तुमने कही है। ईमानदारी पैदा करने की सबसे अच्छी क्या, अकेली तरकीब यही है कि हम मौत नहीं अपने अंदर मौत का एक ईमानदार लालच पैदा करें। यही और सिर्फ यही जिंदगी की भारहीन गुरुता, एक एब्स्ट्रैक्ट मास पैदा करता है।
(मिसेज बातून इस लम्बी स्पीच के बीच में ही अन्दर चली जाती हैं। भीतर से दाई की बूढ़ी और पकी हुई आवाज आती है।)
दाई : अरे ! ये किताबें किसने नाली में फेंक दीं च्: च् : कैसी नीली नीली दफ्तियों की किताबें यहाँ कीचड़ में डाल दीं ! (हाथ में एक पानी टपकाती हुई किताब लिये दाखिल होती है।) लल्लन बाबू, देखो, ये तुम्हारी किताबें हैं ?
ई० बातून : आह ! ईमानदारी-इस दुनिया में तुम्हारा यह भोंडा चीरहरण कब खत्म होगा ! तुम सोचती हो दाई कि मैं अब भी दो बरस का गुलाबी हाथों-पैरोंवाला बच्चा हूँ और मुझे उसी निकम्मे गुलगुले जैसे नाम से पुकारा करो-
दाई : (खुश होकर) रुई के गालों में रखकर तो मैंने पाला है। ले भला कहो....
ई० बातून : रुई के गालों में जैसे नन्हें खरगोस का बच्चा विबिसेक्शन के लिए पाला जाता है।
दाई : चुप रहो तुम! बात बहुत करते हो और काम-धन्धा तो तुम्हारे पास है नहीं अब, लो और किताबें फेंक दीं... (पकी हुई समझदार कड़ाई से ) कुछ काम-धन्धा करो - अब यह किताबें गात हो गई न ? भला यह कोई बात है! तुमने क्यों फेंकी ?
ई० बातून : फेंक दी, क्योंकि दुनिया की सब किताबें बेईमानी के तमगे हैं। झूठ का जुलूस हैं। अंधेरे के मील के पत्थर हैं। तुम क्या समझोगे, लेकिन जैसे अधमुए आदमी के मुँह में भी गंगाजल टपकाया जाता है, तुम्हें भी ईमानदारी की बात सुनानी पड़ेगी।
दाई : और मैंने मर-खपकर तुम्हें बित्ते-भर से इतना बड़ा किया।
ई० बातून : (हिकारत की हँसी हँसकर) और अब अगर तुममें दुर्वासा की तरह शाप देने की ताकत होती तो तुम मुझे फिर बित्तेभर का बामन बना लेती लेकिन तुम यह कहोगी थोड़े ही, खुद सोचोगी भी नहीं। इसकी अदना-सी वजह है कि तुम ईमानदार नहीं हो।
(बायें विंग के दरवाजे से पेशेवर नेता दाखिल होता है। चूँकि वह पेशेवर है, उसके चेहरे मोहरे में एक कमीना इत्मीनान है, लेकिन वह नेता है, इसलिए डरा हुआ और अनिश्चित है और इसीलिए किसी तरह की वर्दी में है, उसके आते ही दाई चली जाती है ।)
पे० नेता : (आते ही) आज हुजूर का मिजाज शाम से ही गर्म है। तभी तो मैं कहता हूँ कि हर संकट, हर क्राइसिस का असर आदमी पर एक अनजाने तरीके से पड़ता है, गैर जाने तरीके से । जैसे चाँद से समुद्र में ज्वार उठता है ......
ई० बातून : (क्वेस्चन) पेशेवर नेताजी, क्या मैं यह याद दिला सकता हूँ कि मैं यानी बजात खुद पब्लिक मीटिंग नहीं हूँ ?
पे० नेता : ज्वार हो या भाटा, लेकिन समुद्र तो समुद्र ही रहता है, लेकिन यदि चाँद ! दि क्राइसिस ! उसने तुम्हें क्या इन खाली कुर्सियों को भी पब्लिक मीटिंग बना दिया है।
ई० बातून : आह ! आह ! तुम शायद मेरी बुनियादी ईमानदारी की सजा हो। तुमने अपनी स्पीच शुरू कर दी...
(दाहिनी तरफ विशेषज्ञ दाखिल होता है, वह जवान और भौंचक्का है और सिवा उसके, जिसका वह विशेषज्ञ है, तमाम चीजों से डरता है और उन्हें तोड़ना चाहता है। वह कीमती कपड़े बड़ी ही बेपरवाही से पहने और आँखों पर रंगीन चश्मा चढ़ाये है ।)
विशेषज्ञ : आखाह ! यह बुनियादी चीजों का जिक्र कौन कर रहा। बुनियादी चीजें विशेषज्ञों की सम्पत्ति हैं। मसलन, दुनिया एक कार्ल मार्क्स से दूसरे कार्ल मार्क्स पर, जिस तरह लंगूर एक डाल से दूसरी और दूसरी से तीसरी पर कूदता है, कूद सकती है, लेकिन जॉन स्टुअर्ट मिल के बुनियादी सिद्धान्तों के खिलाफ नहीं जा सकती। यही तो मैं सोवियत रूस से कहता हूँ कि देखा भाई तुम....
ई० बातून : सोवियत रूस ! कब और कहाँ मिल गया तुम्हें ?
पे० नेता : बुनियादी बातें ठीक हैं, लेकिन अपूर्ण हैं। वे अपूर्ण हैं, कमजोर हैं- और एक सही और इंसानी मसरफ की मुहताज हैं। क्राईसिस, संकट (खाँसता है।)
(गवैयों की तरह गुनगुनाता कवि बाई तरफ से दाखिल होता है। कवि बेउम्र है। न बूढ़ा है न जवान और न जाने किस चीज में मगन है, ऐसी कोई चीज जिसे वह खुद नहीं जानता ।)
कवि : नमस्कार बंधुओं । यहाँ तो अच्छी खासी बहस छिड़ी हुई है। लेकिन मैं आप लोगों से एक पूछता हूँ जिसके पीछे सारे वेद हैं, सारा सार है। पूछता हूँ कि उद्गम कहाँ है ?
पे० नेता : तुम कवि, तुम सकून और विश्राम के कीड़े हो। तुम न गा सकते हो न चिल्ला सकते हो, इसलिए इनके बीच की चीज कविता करते हो। क्राइसिस तुम्हें न छूती है न चिढ़ाती है, वह तुम्हें मिटाने से इनकार कर ही देती है। वह तुम्हें एक हिजड़ा बनाकर अभयदान देती है।
(भीतर से दरवाजे के पास आकर दाई जरा तीखे स्वर से कहती है ।)
दाई : यह तुम लोग आपस में बातें करते हो कि गालीगलौज करते हो - यह भी कोई बात है। यहाँ यह सब मत किया करो कि ....
पे० नेता : क्या यह तुम्हारी खादिमा है ? (दाई की तरफ उँगली उठाकर दिखाते हुए।)
ई० बातून : उसने अपनी जिन्दगी में एक बार भी पब्लिक मीटिंग नहीं देखी है। वह तबला तक तो बजाना ती नहीं है। उसकी बात पर भरोसा मत करो। तुम कवि को खूब गालियाँ दो...
कवि : लेकिन क्यों गालियाँ दो। मैंने सीधी दो टूक बात पूछी-लेकिन शायद मैंने उद्गम की बात उठायी, नेता उससे चिढ़ गया। उसका सारा तर्करथ सरकण्डे की गाड़ी की तरह लौट गया ।
विशेषज्ञ : सरकण्डे की नहीं, कूड़े गाड़ी की तरह लौट पड़ा।
पे० नेता : ईश्वर के लिए तुम चुप रहो । ईमानदार बातूनजी, तुम्हारी खादिमा ने मेरा अपमान किया है। (पैर पटककर) तुम लोगों की दावत करके अपने नौकरों से तौहीन कराते हो । लानत है तुम्हारी ईमानदारी पर ! (और तेज होकर) ये मेयर सर्वेंट |
विशेषज्ञ : लेकिन वह बुनियादी उसूल जानती है। वह जानती है कि तुम कवि और नेता एक ही पे आदमी हो। एक पेशे के आदमियों का आपस में लड़ना - लथाड़ना रायज और जायज है । उसने तुम्हारी दाद दी । उसका अपना तरीका है, चलो, आगे बढ़ो....
(इस बीच में कमसखुन अन्दर आ जाता है। वह मोटा भद्दा और असुशील-सा एक अधेड़ है। वह कम बोलता है। यह शायद उसकी वजाकता से ही जाहिर होता है। कमरे में आकर वह दो सेकेण्ड अजनबियों की तरह खड़ा रहता है और फिर अचानक जानकारी से मुस्करा देता है।)
कमसखुन : लेकिन आप लोग सब खड़े क्यों हो ? बैठ क्यों नहीं जाते ? कुर्सियाँ बैठने के लिए ही बनायी जाती हैं।
(वे सब एकबारगी ऐं करते हैं और दरअसल अचम्भे में पड़ जाते हैं कि वाकई कुर्सियों के होते हुए भी वे अब तक क्यों खड़े रहे। अपनी इस जरा जाहिर अपदार्थता पर कुछ झेंप भी जाते हैं, ईमानदार बातून उसमें सबसे पहले सन्तुलित हो जाता है।)
ई० बातून : खूब कहा । दुनिया की तमाम बुनियादी बातों की नाक मोम कर दी। बुनियादी बात यह है : कुर्सियाँ बैठने के लिए होती हैं यह !
(सब बैठ जाते हैं। भीतर से बूढ़ी दाई फिर दरवाजे के पास जाकर कुछ तंबीह के साथ कहती है ।)
दाई : अब तो सब लोग आ गये - (झाँककर) अभी वह बिटिया नहीं आयी। लेकिन लल्लन बाबू, तुम्हारा नौकर शाम का गया अभी तरकारी लेकर नहीं लौटा है। अब अगर खाने में देर हो तो धरती न छेद डालना । भला कब तरकारी आयेगी तो कब बनेगी और कब खायी जायेगी ?
ई० बातून : तुमने फिर वही किया (उठकर खड़ा हो जाता है।), मैं हमेशा के लिए बैठने से इनकार करता हूँ। मैंने तुमसे गुस्से में, खुशी में, होश में, बेहोशी में, न जाने कितनी मरतबे कहा है कि तुम लल्लन बाबू मत कहो। लेकिन तुम... आह तुम !
(दाई हकबकी रह जाती है।)
कवि : माताजी, जाइए, आप भीतर बैठिए। यह तो अपना थोड़ा-सा मनोरंजन कर रहे हैं। खाना खाने की भी जल्दी नहीं हैं। सुनिए, तब तक मेरा एक छोटा-सा गीत सुनिए ।
(सब एकबारगी उठकर उसे रोकना चाहते हैं, लेकिन कवि शुरू कर देता है ।)
" हमको हर पशु से बैर न पंछी प्यारा।"
"मानव ने मानव देख ठहाका मारा। "
ई० बातून : तुम एक मिनट रुक जाओ, एक मिनट, एक मेरी बात सुन लो, सुनो, फिर चाहे हम सबको गीत ही सुनाना, फाँसी पर चढ़ा देना ।
(मिस कटारा दाखिल होती हैं। मिस कटारा आधुनिक और स्वदेशी हैं। इन दोनों की लगातार चाशनी ने उन्हें बुद्धिजीवी-अब इसका चाहे जो भी अर्थ हो-बनने पर मजबूर कर दिया है। इस मजबूरी को वह तन रहते हँस-बोलकर झेलेंगी, यह उनके रंगरेशे से टकता है।)
मि०क० : मुझे ज्यादा देर तो नहीं हुई ?
कवि : (गाता जाता है और स्वागत का अभिनय करता है।)
'क्यों तारों पर काई जमती, क्यों होता सागर खारा मानव ने मानव देख कटारा मारा-
माफ कीजिएगा मिस कटारा ठहाका मारा।
मि०क० : शीर्षक! शीर्षक ! कविता का शीर्षक क्या है आखिर ?
ई० बातून : (करीब-करीब रुआंसा-सा) शीर्षक बता दीजिए। बिना शीर्षक बताये कविता पढ़ना हमारी तौहीन है । कतई ईमानदारी की बात नहीं है ।
कवि : इस कविता का शीर्षक है 'उद्गम' ।
पे० नेता : डिस्अलाउड (और झपटकर कवि का मुँह हाथ से बंद कर देता है)
ई० बातून : ईमानदारी की बात है, जब हमने नेताजी की गाली-गलौज नहीं चलने दी तो अब कविता का क्या सवाल है ?
पे० नेता : मेरी गाली का मौजूं भी उद्गम था । आप हजरत को शायद याद होगा कि मैंने कवि से जो कहा, जिसे आप महानुभावों ने गाली-गलौज कहा, उसकी शुरुआत इसी उद्गम से हुई थी।
(कवि का मुँह वैसे ही बंद किये है। बाहर से नौकर घबराया हुआ आता है। वह एक साथ घबराया हुआ और खुश है और इसने उसके बुझे हुए चेहरे को विकृत कर दिया है ।)
नौकर : मालिक ! मालिक ! तनिक द्याखौ आय, बाहिर कुछ हुई गवा ।
ई० बातून : (दाँव-पेंच का अभिनय करते हुए) अबे शाम का गया हुआ अब लौटा है तो एक राग बनाकर - क्या हुई गवा?
बेईमानी के पण्डे । यह जिन्दगी हरगिज नहीं है। यह ईमानदारी की मोमियाई है - सच्चाई की तपेदिक है ।
नौकर : आप तो फैलसूफी माँ बतियात हैं ? बाहर साँचे कुछ हुई गवा। आज हमार देखत-देखत हुआँ कुछ हुई गवा ।
कमसखुन : दम ले लो पट्ठे । फिर बतलाना, बाहर क्या हुआ।
नौकर : दम तो सांचेन भूल गया। (जोर जोर से साँस लेता है) ।
ई० बातून : (बाल नोचते हुए) अब अगर तू यहाँ से बाहर न गया तो मैं घर छोड़कर चला जाऊँगा । अब तू ही रह ले इस घर में, मैं नहीं रहूँगा ।
(बाहर कुछ शोर-सा होता है। कवि कसम खाता है और अपना मुँह छुड़ाने की भरकर कोशिश करता है ।)
नौकर : सुनो ध्यान से। हम कहत हैं कि बाहर कुछ हुई गवा । हम पूछा को आपै की तरह एक बाबू कहिन तौन न जाने का भवा लेडियो उई जो गावत है, बोलत है न ?
कमसखुन : लेडियो यानी रेडियो ।
नौकर : वहे- वहे जो गावत है पतुरियन की तरह, सो आजाद हुई गवा ।
कवि : (वह एकबारगी अपना मुँह आजाद कर लेता है।) आजाद ! मेरी एक कविता है, आजादी । सिर्फ पैंतालिस लाइनें हैं उसमें, लेकिन वह अभी अधूरी है। कुछ सुनिए ।
ई० बातून : (फिर लपककर उसका मुँह बन्द कर लेता है।) मैं प्रशा के इतिहास की दुहाई देता हूँ, तुममें से कोई इस पाजी लुच्चे ईमानदारी के कज्जाक को....
(नौकर की तरफ इशारा करता है।) बाहर निकाल दो। तुम जानते नहीं, यह जो तरकारी के पैसे ले गया था, उसकी शराब पी आया है। इसे निकाल दो- इसे फौरन निकाल दो, कव्ल इसके कि इसकी मोहक और घातक बेईमानी बादल बनकर यहाँ बरस न पड़े।
नौकर : (अब उसका लहजा साफ शराबियों का सा है। हाथ जोड़कर) अब मालिक आजौ बोल | पिया जरूर है लेकिन अस नहिन पिया है कि रहीसन की तरह बोंग जाई ।
ई० बातून : (कवि के मुँह के साथ कशमकश करते हुए) देखा तुमने, यह हमारे ऊपर थूक रहा है। हमारी बुनियादें हिला रहा है। लानत है तुम्हारे ऊपर....
नौकर : मालिक की बात का बुरा न मान्यो ई आपन किताबें ब्वालत हैं। विदवानी कर्त आय ।
ई० बातून : (अब भी कवि से उलझा है।) इसे मार डालो, इसे अपनी ढालों के नीचे कुचल डालो कमसखुन-लेकिन यह पहले मालूम कर ले कि बाहर क्या हुआ है।
(बाहर से लाउडस्पीकर की गुजरती हुई आवाज आती है।)
लाउडस्पीकर : आज रात को 'जीरो ऑवर' यानी बारह बजकर एक या एक बजने में उनसठ मिनट पर हमारा देश आजाद हो जायेगा। बोलो गुलामी की जय, परतंत्रता की जय, जिसकी वजह से हमें यह आजादी की घड़ी नसीब हुई। (कमरे में एक भूचाल सा आ जाता है। कवि एकबारगी अपने आपको झट से छुड़ा लेता है। वह एकबारगी खड़ा होता है और फिर लड़खड़ाता हुआ विशेषज्ञ को पकड़ लेता है और दोनों फर्श पर ढेर हो जाते हैं। ईमानदार बातून भीतर की तरफ भागता है और बूढ़ी दाई से टकरा जाता है। पेशेवर नेता कोने की मेज पर एक मुस्कराते हुए स्टेच्यू की तरह अडिग खड़ा हो जाता है। कमसखुन कमरे में इधर-उधर चक्कर काटता है। नौकर एक अजीब अमानवी आवाज करता हुआ कमरे से बाहर भागता है। मिस कटारा बैग खोलकर उतावली से अपना मेकअप करती हैं, जैसे उन्हें किसी होनहार व्यक्ति का स्वागत करना है।)
कमसखुन : (वही सिर्फ अपनी जगह पर बैठा है।) यह खासी गद्दारी है। मैं पूछता हूँ, इसके क्या माने हैं ? क्या आजादी एक अनहोनी और अनजानी घड़ी के सिवा कुछ भी नहीं है ? यह क्या शोहदेबाजी ? (बाहर से नौकर घबराया हुआ आता है। अब की वह पहले से ज्यादा खुश है और उसका चेहरा और भी विकृत है ।)
नौकर : तनिक द्याखो आय के । आप मालिक लोग आय के तनिक द्याख लेओ, द्याख लेओ हम प्यादन के द्याखे का बराई है आजादी जानत अहो हुआँ का हुई गवा ?
ई० बातून : मैं पूछता हूँ क्या कोई भी यहाँ कुछ नहीं कर सकता कि इस पाजी मुद्दई को यहाँ से बाहर निकाल दे, नेता तुम ठीक कहते थे... लेकिन नहीं (सहसा उठकर नौकर की तरफ लपकता है और उसे दबोच लेता है।) मैं कहता हूँ इसे यहाँ बन्द कर दो ताकि यह दूसरी कोई खबर न ला सके।
(नौकर दमबखुद रह जाता है। ई० बातून बड़ी आसानी से दरवाजा बन्द कर लेता है और इत्मीनान की साँस लेता है। इस बीच में तमाम लोग उठकर अपनी कुर्सियों पर बैठ जाते हैं। सिर्फ नेता वैसे ही स्टेच्यू की तरह मेज पर खड़ा है।)
विशेषज्ञ : मुझे गम नहीं सिर्फ एक थकान है। आजादी विशेषज्ञों की चीज है, न जनता की, न देश की । कवियों की बनायी आजादी किस काम की है ?
ई० बातून : मैं, सिर्फ एक बात कहता हूँ कि हमें जल्द ही कोई राय नहीं कायम करनी चाहिए। हमें यह करना चाहिए... यह करना चाहिए... हमें आखिर क्या करना चाहिए...
कमसखुन : फैसला - हम क्यों फैसला करें ? हम कोई फैसला नहीं करना चाहते। आपने मेरी कविता नहीं सुनी तो फैसला करने की आवश्यकता ही नहीं होती। फैसले निस्सार हैं। कोई चीज कभी फैसला ही नहीं होती ।
पे० नेता : (मुरब्बियाना लहजे में) अब तुम्हें कोई फैसला करने की जरूरत नहीं है। तुम्हें अब तमाम फैसले करे- कराये हुए मिलेंगे।
विशेषज्ञ : अगर आप समझदार हैं और विशेषज्ञ की राय मानेंगे तो आजादी सिर्फ एक खबर है। सड़कों की भीड़ में घिसटती हुई एक खबर, इससे ज्यादा कुछ नहीं। (बाहर से नौकर फिर दौड़ता हुआ आता है। अब वह पहले से ज्यादा बदहवास और मगन है।)
नौकर : हम कहित हैं कि तुम हियाँ का कुल्हिया मा गुड़ पवाड़त हौ। बाहर निकर के द्याखो हुआँ आजादी मची आय ।
विशेषज्ञ : अयं, इस बन्दर को तो आपने भीतर बन्द कर दिया था। यह बाहर कैसे भाग गया ?
नौकर : (हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए) खता माफ होय हजूर । हम पीछे केर दीवार जो नीची आय फलाँग गयन । लेकिन तुमका जवानी की कसम ।
(ईमानदार बातून फिर लपककर उसे दबोच लेता है और उसे लिये हुए अन्दर चला जाता है।)
कमसखुन : हम क्यों न चुपचुपाते हुए यह मान लें कि हम आजाद हो गये !
कवि : नहीं, हरगिज और कदापि नहीं । 'मेरी आजादी' शीर्षक कविता अभी अधूरी है।
ई० बातून : (अन्दर से आता है) मैं उस हत्यारे को भीतर बाँध आया हूँ। मैंने उसे रस्सियों से जकड़ दिया है। मैं देखूँगा अब किस तरह बाहर जाता है। लेकिन हमें कुछ फैसला अभी और जरूर करना होगा ।
पे० नेता : (जो अब करीब-करीब एक स्टेच्यू बन गया है।) यह नहीं हो सकता। तुम्हारे सारे फैसले सूद होंगे, सिर्फ एक मखौल। यही नहीं, यह देश और समाज के साथ गद्दारी होगी। हम कहते हैं कि फैसले तुम्हारी संपत्ति रहे ही नहीं ।
विशेषज्ञ : हमें इस शख्स को बिल्कुल भूल जाना चाहिए। यह बुनियादी उसूलों के खिलाफ है। लेटूर्जे ने कहा है।
ई० बातून : आह, तुम मुझे न चैन से मरने दोगे, न आजाद होने। यहाँ न फैसलों का सवाल है, न बुनियादी उसूलों का सवाल ईमानदारी का है ....
कवि : सवाल सार का है तथा उद्गम का। तुम्हें यह सब कवि की आँखों से देखना पड़ेगा ।
मिस कटारा : सवाल आजादी का है।
(अन्दर से दाई आती है ।)
दाई : सवाल खाने का है। यह आज हो क्या रहा है लल्लन बाबू ! यह नौकर, क्यों बाँधकर डाल दिया है? अब कब खाना बनेगा, कब खाया जायेगा ।
ई० बातून : (भोंड़ा अभिनय करते हुए) तुम भीतर बैठो, हमें बड़े-बड़े फैसले करने हैं। हमें जीवन और मरन की सारी असंचित ईमानदारी को इस दम, इसी दम संचित करना है। तुम भीतर बैठो, ईश्वर के लिये ।
दाई : और नौकर कहता है कि आजादी हो गयी, आजादी किस तरह होती है ? आजादी होगी तो हम क्या करें ?
कमसखुन : यह बात है ! हम क्या करें (सब जैसे एक गहरे पसोपेश में पड़ जाते हैं। एकबारगी उठकर कमरे के बीचोबीच में आकर खड़े हो जाते हैं जैसे किसी अनजाने व्यापक खतरे ने उन्हें एक-दूसरे की पनाह लेने के लिए मजबूर कर दिया है। वह एक-दूसरे की तरफ एक अजीब बेबसी से देखते हैं। अचानक बाहर एक घना शोर उठता है जो अंधेरे की तरह बहकर पूरे कमरे पर छा जाता है। वे एक-दूसरे के और करीब आ जाते हैं। शोर जब मर जाता है तो वे फिर बोलने की हिम्मत करते हैं ।)
विशेषज्ञ : आजादी ! हम विशेषज्ञों को उसका सैकड़ों साल अध्ययन करना पड़ेगा। हम क्या कह सकते हैं और क्या कर सकते हैं!
ई० बातून : हमको अतिशय ईमानदारी चाहिए। इतनी कि वह आजादी और गुलामी का भेद मिटा दे । मैं पूछता हूँ, क्या यह मुमकिन है कि हम इस छन यहाँ, अभी वह ईमानदारी-हम क्या करें ?
कवि : नहीं, यह नामुमकिन है। मैं अपनी सारी अधूरी कविताएँ इसी दम कैसे पूरी कर सकता हूँ ? हम कुछ भी नहीं कर सकते। हम यह क्यों न मान लें कि हम कुछ नहीं कर सकते और गमहीन हो जायें । गम से अपनी चिर सूनी माँग भर लें और उसे पूरा-पूरा कबूल कर लें।
मिस कटारा : और मैं ! और मैं हँसू या रोऊँ या सस्ती कसबियों की तरह अपने बाल बिखराकर चौराहे पर खड़ी हो जाऊँ (रुआंसी-सी) यह जो विष युग-युग से मेरे अंदर जमा हो रहा है, अगर मैं कहूँ कि तुम सब मेरे लाल सूरजमुखी-से ओठों को एक बार चूमकर इस विष को काट लो तो क्या तुम यह करोगे ?
पे० नेता : (अपने पैडसटल से) मैं तुम्हें आगाह करता हूँ मिस कटारा, तुम फैसले कर रही हो। हम यह नहीं बरदाश्त कर सकते। मैं कहता हूँ कि यह बरदाश्त नहीं किया जायेगा ।
मिस कटारा : (विद्रोह स्वर में ) मैं यह कुछ नहीं जानती। इस एक पल में मुझे मालूम हुआ कि सदियों से एक घना सीला हुआ अंधेरा मेरे अंदर जमा हो रहा था। वाकई सदियों से। यह क्या उल्लुओं की तरह मुझे घूर रहे हो ! ( रुआंसी होकर) यह युग-युगांतर का उद्गम है। क्या तुम यह नहीं कर सकते कि तुम मेरे ओठों को चूमो और अंधेरा छंटे और ... तुम ईमानदार बातून ।
ई० बातून : नहीं, हरगिज नहीं ।
कमसखुन : हमारी समझ में ही नहीं आता कि तुम क्या कर रही हो। तुम घबड़ा गई हो ।
पे० नेता : क्राइसिस ! यह सब उस क्राइसिस का असर है। अगर आप लोग इजाजत दें तो मैं एक बार फिर चाँद और ज्वार की बात उठाकर गुलामी और आजादी का आंतरिक भेद और ऐक्य आप लोगों पर वाजे कर दूँ...
मिस कटारा : (रुआंसी होकर) तुम चुप रहो! फिर क्या करें ? क्या हम इस मुहूर्त के साथ गद्दारी करें ? हम क्या करें ? (यह सब जैसे प्रतिध्वनित करते हैं कि हम क्या करें। इसी बीच में नौकर दाहिनी तरफ के दरवाजे से आकर खड़ा हो गया है और एक कोरी लोलुपता से मिस कटारा की तरफ देख रहा है। )
ई० बातून : हे भगवान, यह सब यहाँ हो रहा है कि वहाँ, यह आज है कि कल । फिर छूट गया।
नौकर : (गिड़गिड़ाते हुए) मालिक, हम रस्सी काट डाला दाँतन से (अबकी वह काफी नशे में है) हुआँ मारे आजादी के मारे आजादी के ....
( ई० बातून फिर उसकी तरफ झपटता है। अबकी वह निडर अपनी जगह खड़ा रहता है। खाली बोतल, जो वह मजबूती से हाथ में थामे है, सामने कर लेता है।)
नौकर : अब ई सब न होई, अब कुछ और होई ( ई० बातून ठिठक जाता है)
पे० नेता : (दाँत किटकिटाते हुए) अब का होई ? इसका मुँह बन्द कर दो, सीसा पिलाकर इसकी हड्डियाँ भारी कर दो, कुछ करो, कुछ तुरन्त करो।
नौकर : (उचककर एक बोतल उसके सिर पर जमाता है। पेशेवर नेता वहीं ढेर हो जाता है।) अब तो कुछ और होई....
मिस कटारा : इसे कोई पकड़ लो। यह बेहद नशे में है। यह कुछ भी कर बैठेगा, यह कुछ कह बैठेगा ।
(नौकर उन सबको पकड़कर उनकी कुर्सियों पर बैठा देता है। सब एकबारगी जैसे लुंज हो गये हैं और पत्थरों के स्टेच्युओं की तरह आडियंस की तरफ घूरते हैं।)
नौकर : हुई गवा- अब तुम अपन आजादी से स्वाओं, अब कुछ और होई ।