Aadhunikta Aur Bharat-Dharma (Hindi Nibandh) : Ramdhari Singh Dinkar
आधुनिकता और भारत–धर्म : रामधारी सिंह 'दिनकर'
आजकल मेरा ध्यान इस सवाल की ओर बार-बार जाता है कि आज से सौ-पचास वर्ष बाद भारत का रूप क्या होने वाला है। क्या वह ऐसा भारत होगा, जिसे कंबन, कबीर, अकबर, तुलसीदास, विवेकानंद और गांधी पहचान सकेंगे अथवा बदलकर वह पूरा-का-पूरा अमरीका और यूरोप बन जाऐगा? पिछले सौ-डेढ़ सौ वर्षों से भारत आधुनिकता की ओर बढ़ता आ रहा है, लेकिन समझा यह जाता है कि भारत अब भी आधुनिक देश नहीं है, वह मध्यकालीनता से आच्छन्न है। स्वतंत्रता के बाद से आधुनिकता का प्रश्न अत्यंत प्रखर हो उठा है, क्योंकि चिंतक यह मानते हैं कि हमने अगर आधुनिकता का वरण शीघ्रता के साथ नहीं किया, तो हमारा भविष्य अंधकारपूर्ण हो जायेगा। अतएव यह प्रश्न विचारणीय है कि आधुनिक बनने पर भारत का कौन-सा रूप बचने वाला है और कौन बलिदान में जायेगा।
नैतिकता सौंदर्य-बोध और अध्यात्म के समान आधुनिकता कोई शाश्वत मूल्य नहीं है। सच पूछिये तो वह मूल्य है ही नहीं, वह केवल समय-सापेक्ष्य धर्म है। नवीन युग, समय-समय पर आते ही रहते है और जैसे आज के नये जमाने पर आज के लोगों को नाज है, उसी तरह हर जमाने के लोग अपने जमाने पर नाज करते है। संसार का कोई भी समाज किसी भी समय इतना स्वाभाविक नहीं रहा है कि वह हर आदमी को पसंद हो। और कोई समाज ऐसा भी नहीं बना है, जिसके बाद का काल उसका आलोचक नहीं हुआ हो। वैदिक युग भारत का प्राय: सबसे अधिक स्वाभाविक काल था। यही कारण है कि आज तक भारत का मन उस काल की ओर बार-बार लोभ से देखता है।
वैदिक आर्य अपने युग को स्वर्णकाल कहते थे या नहीं, यह हम नहीं जानते, किन्तु उनका समय हमें स्वर्णकाल के समान अवश्य दिखायी देता हैं। लेकिन जब बौद्ध युग का आरंभ हुआ। वैदिक समाज की पोल खुलने लगी और चिंतकों के बीच उसकी आलोचना आरंम्भ हो गयी। बौद्ध युग अनेक दृष्टियों से आज के आधुनिकता-आन्दोलन के समान था। ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के विरुद्ध बुद्ध ने विद्रोह का प्रचार किया था. जाति-प्रथा के बुद्ध विरोधी थे और मनुष्य को वे जन्मना नहीं कर्मणा श्रेष्ठ या अधम समझते थे। नारियों को भिक्षुणी होने का अधिकार देकर उन्होने यह बताया था कि मोक्ष केवल पुरूषों के ही निमित्त नहीं है, उसकी अधिकारणी नारियां भी हो सकती हैं। बुद्ध की ये सारी बातें भारत को याद रही हैं और बुद्ध के समय से बराबर इस देश में ऐसे लोग उत्पन्न होते रहे हैं, जो जातिप्रथा के विरोधी थे, जो मनुष्य को जन्मना नहीं कर्मणा श्रेष्ठ या अधम समझते थे। आज की आधुनिकता के प्रसंग में देखें, तो बुद्ध के युद्ध-विरोधी विचार भी आधुनिक थे। किंतु बुद्ध में आधुनिकता से बेमेल बात यह थी कि वे निवृतिवादी थे। गृहस्थी के कर्म से वे भिक्षु-धर्म को श्रेष्ठ समझते थे। उनकी प्रेरणा से देश के हजारों-लाखों युवक, जो हट्टे-कट्टे थे, हल जोतने और गाड़ी हांकने के योग्य थे. उत्पादन बढ़ाकर समाज का भरण-पोषण करने के लायक थे. संन्यासी हो गये और उनकी युवा पत्नियां जीवित वैधव्य की वेदना से कहारने लगीं।
संन्यास की संस्था समाज-विरोधिनी संस्था है। हंसी-हंसी में एक बार स्वामी विवेकानंद ने भी कहा था कि संन्यास का एक बड़ा दोष यह है कि वह अच्छे लोगों को समाज से अलग कर देता है। किंतु विवेकानंद फिर भी अधिक आधुनिक निकले, क्योंकि अपने संन्यासियों को उन्होंने समाजसेवी बना दिया। विवेकानंद के संन्यासी एक दरवाजे से संसार से निकल जाते हैं, किंतु दूसरे दरवाजे से वे संसार में ही वापस आ जाते है: अपनी गृहस्थी छोड़कर वे सबकी गृहस्थी में सहायता करते हैं। किंतु बुद्ध की दृष्टि ऐहिक थी ही नहीं। वे मनुष्य को यह उपदेश देते थे कि जीवन जलता हुआ मकान है और बुद्धिमानी की बात यह है कि हम इस आग से निकल भागें। जीवन दु:खपूर्ण है और सारे दु:खों की जड़ मनुष्य का जन्म है। अतएव हमें वह रास्ता पकड़ना चहिए, जिससे जन्म लेना ही असंभव हो जाय।
सृष्टि के विषय में बुद्ध की दृष्टि क्या थी, इसका स्पष्टीकरण बुद्ध ने कभी नहीं किया। इस पर बुद्ध को कई नास्तिक अथवा संदेहवादी मानते हैं। गरचे अधिक सच्चा मत यह मालूम होता है कि बुद्ध एगनास्टिक थे, क्योंकि उनका विचार था कि जो तत्व भौतिकोत्तर और इंद्रियों की पहुंच के पार हैं, उन्हें बुद्धि नहीं जान सकती है। और उनकी यही नास्तिकता और संदेहवादिता उन्हें आधुनिक युग के लिए आकर्षक बना देती है। नास्तिक तो चार्वाक और बृहस्पति भी थे, किंतु चार्वाक और बृहस्पति भारतीय विचारधारा अथवा उसके दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व नहीं करते। किंतु बुद्ध भारतीय विचारधारा के बहुत बड़े प्रतिनिधि है। उनका भारतीय चिंतन पर प्रभाव है और भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि होने के कारण ही वे विष्णु के नवम अवतार माने जाते हैं।
गौतम बुद्ध प्रचंड बुद्धिवादी थे। वे जनता की श्रद्वा का शोषण करके उस पर अपना मत लादना चाहते थे। अपने शिष्यों से भी उन्होने कहा था, 'आत्मदीपो भव'। तुम अपना दीपक आप बनो। तुम मेरी कोई भी बात इसलिए मत मानो कि वह मेरी कही हुई है। तुम्हें उन्हीं बातों में विश्वास करना चाहिए, जो तुम्हारी खुद की समझ में आती हों। जिन प्रश्नों का समाधान बुद्धि से नहीं हो सकता और जिनके उत्तर पाने या न पाने से आदमी का कुछ बनता- बिगड़ता नहीं, वैसे सभी प्रश्नों को तथागत ने अवयाकृत कोटि में डाल दिया था और उनके पूछे जाने की मनाही कर दी थी दीर्यनिकाय के पोट्ठपाद-सुत्त में बुद्ध करते है: पोद्वपाद! लोग नित्य है, और दूसरा मत यह कि लोक निरर्थक है, इसे मैंने अव्याकृत (कथन का अविषय) कहा है।'
पोट्ठपाद के यह पूछने पर कि किसलिए भंते, भगवान ने इसे अव्याकृत कहा है? तथागत ने बतलाया कि 'इसलिए कि ये प्रश्न न तो अर्थयुक्त हैं, न धर्मयुक्त, न आदि ब्रह्मचर्य के उपयुक्त, न निर्वेद (वैराग्य) के लिए, न निरोध के लिए, न उपशम के लिए।' अर्थात इन प्रश्नों के विवेचन में पड़ने से मनुष्य को कुछ भी प्राप्त होने वाला नहीं है।
किंतु, बुद्ध का अव्याकृत चारों ओर से निश्छिद्र नहीं है, क्योकि परलोक को वे मानते थे, देवताओं की योनि में उनका विश्वास था और, गरचे आत्मा को वे नाशवान समझते थे, किंतु आवागमन के सिद्वांत में उनका अटल विश्वास था और वे मानते थे कि जो आत्मा शरीर के साथ नष्ट होती है, उसी का पुनर्जन्म भी होता है। अतएव जन्मांतरवाद और कर्मफलवाद में उनका पूरा विश्वास था और इस मामले में उनका दर्शन वही था, जो वैदिक धर्म वालों का रहा है।
बुद्ध के पहले भारत में संस्कृति की एक ही धारा बहती थी, जिसे हम वैदिक संस्कृति के नाम से जानते है। किंतु बुद्ध के आविर्भाव के बाद से इस देश में संस्कृति की दो धाराएं बहने लगी है। पहली धारा संस्कृति की वह मात्-धारा है, जो वर्णाश्रम-धर्म का समर्थन करती है, जाति-प्रथा को कायम रखना चाहती है, शूद्रों को ऊपर उठने देना नहीं चाहती छुआछूत में विश्वास करती है। और अन्य धर्मों और संस्कृतियों के प्रभाव से बचकर जीना चाहती है। दूसरी धारा वह है, जो बुद्ध के कमंडलु से निकली है। यह धारा बृहत् मानवता की धारा है। अब तो इस धारा का भी ईश्वर में विश्वास है और वह जन्मांतरवाद और कर्मफलवाद को उसी दृढ़ता से मानती है, जिस दृढ़ता के साथ वैदिक धर्म उसमें विश्वास करता है, किन्तु यह धारा वर्णाश्रम-धर्म के विरुद्ध है, जात-पात को वह नहीं मानती है, छुआछूत को वह अधर्म समझती है, शूद्रो और दलितों के लिए उसके भीतर खास पक्षपात है तथा अन्य धर्मों और संस्कृतियों से वह द्वेष नहीं, प्रेम करती है, कम-से- कम उनके प्रति वह पूर्ण रूप से सहनशील है।
कोई आश्चर्य नहीं कि भारत का निर्यात-धर्म बौद्ध धर्म निकला। कोई आश्चर्य नहीं कि आज के युग में भारत का सार्वभौम सत्कार बुद्ध का कारण अधिक, किसी अन्य धर्म-नेता के कारण कम है। और कोई आश्चर्य नहीं कि इस देश में धर्म के जो शक्तिशाली ठेकेदार थे, उन्होने बौद्ध मत को खदेड़कर देश से बाहर निकाल दिया। किंतु बौद्ध केवल शरीर से ही हारा है। मन तो उसका संपूर्ण हिंदुत्व के भीतर आज भी जीवित और सचेत है। ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है हम मनु के पक्ष में कम, बुद्ध के पक्ष में अधिक होते जाते हैं, तुलसी की ओर कम, कबीर की ओर अधिक झुकते जाते हैं। लगता है बुद्ध ने जिन बातों के खिलाफ विद्रोह किया था, हमें भी उनके विरुद्ध आवाज उठानी चहिए, क्योंकि वैदिक धर्म की जो बातें बुद्ध को नापसंद थीं, वे धर्म के तत्व नहीं, उसके ऊपर जमी हुई रूढ़ियों की पपड़ियां है और उन्हें तोड़कर झाड़े बिना भारतधर्म नवीन नहीं होगा। जिसका अर्थ यह है कि वह अपने असली स्वरूप पर नहीं पहुंचेगा।
किंतु आधुनिकता के प्रसंग में स्वभावत: ही यह प्रश्न उठता है कि तब असली भारत कौन है? वह जिसके शास्त्रकार मनु और वशिष्ठ दार्शनिक शंकर रामानुज और वल्लभाचार्य तथा कवि वाल्मीकि, कंबन और तुलसीदास हैं? अथवा वह जिसके शास्त्रकार स्वयं बुद्ध, दार्शनिक नागार्जुन और वसुबंधु तथा कवि तिरूवल्लुवर, वेमन्ना और कबीर हैं? प्रश्न बड़ा ही बीहड़ है, लेकिन खैरियत यह है कि इतिहास ने उसे सुलझाकर हमारे लिए आसान कर दिया है। हिंदु-धर्म अब वहीं नहीं है, जो कंबन और तुलसी अथवा वेमन्ना और कबीर के समय था। यूरोपीय संपर्क का एक बहुत बड़ा शुभ परिणाम हम यह मानते हैं कि उसने हिंदुतत्व को हिलकोर कर उसके भीतर एक क्रान्ति उत्पन्न कर दी और उस क्रांति ने मनु और बुद्ध वाली दोनों धाराओं को मिलाकर एक कर दिया है। हिंदुत्व अब वही नहीं है, जो मनु की स्मृति तथा विद्यापति के निंबधों में लिखा मिलता है। उसका शाश्वत, चिर-नवीन और जाग्रत् रूप अब वह है, जिसका आख्यान परमहंस रामकृष्ण और स्वामी विवेकानंद ने किया है, अरविंद और महर्षि रमण ने किया है, गांधी और स्वामी दयानंद ने किया है। यह ठीक है कि विवेकानंद और गांधी के बताये हुए मार्ग पर सारी जनता अभी नहीं चल रही है। किंतु यह भी ठीक है ताकि समाज के अग्रणी लोग, जिनका आचरण देखकर समाज अपना आचरण बदलता है, पुराने हिंदुत्व को छोड़कर अभिनव हिंदुत्व पर आ गये हैं और जहाँ समाज के अग्रणी लोग आज पहुंचे है, वहाँ सारा समाज कल पहुंचकर रहेगा।
किंतु क्या अपने सामाजिक आचार बदल देने से हिंदू पूर्ण रूप से आधुनिक हो जोयेंगे? भारत के पूर्ण रूप से आधुनिक होने में बाधाएं कौन-कौन-सी है? आधुनिकता क्या है और भारत-धर्म के किन मूल तत्वों से उसका विरोध पड़ता है? क्या पूर्ण रूप से आधुनिक बनने के प्रयास में हम भारत-धर्म के इन मूल तत्वों का भी बलिदान करेंगें? अगर हां तो राममोहनराय, विवेकानंद और गांधी के इस स्वप्न का क्या बनने वाला है कि हमें भारतीय परंपरा के शिव-अंश को कायम रखना है, हमें अपनी परंपरा के सर्वश्रेष्ठ तत्वों को पाश्चात्य सभ्यता के उन तत्वों से एकाकार करना है, जो उस सभ्यता के सर्वश्रेष्ठ अंश है? और कहीं हमने अपनी परंपरा का पक्षपात करने के प्रयास में आधुनिकता का पूर्ण रूप, से वरण नहीं किया, तो इससे हमारा और संसार का कोई अकल्याण तो नहीं होने वाला है?
संसार में जब भी कोई नया युग आरंभ होता है, वह युद्ध के कारण आरंभ नहीं होता, पराजय या विजय के कारण आरंभ नहीं होता, क्रांति के कारण आरंभ नहीं होता, न देश का नक्शा बदलने से आरंभ होता है। नया युग बराबर नये प्रकार के लोगों के जन्म के साथ उदित होता है। वैसे जिसे हम आधुनिकता कहते है। वह कई बातों का एक सम्मिलित नाम है। औद्योगीकरण आधुनिकता की पहचान है। साक्षरता का सर्वव्यापी प्रसार आधुनिकता की सूचना देता है। नगर-सभ्यता का प्राधान्य आधुनिकता का गुण है। सीधी-सादी अर्थ-व्यवस्था मध्यकालीनता का लक्षण है। आधुनिक देश वह देश है, जिसकी अर्थ-व्यवस्था जटिल और स्वभावत: ही प्रसरणशील हो, जो 'टेक-आफ' की स्थिति को पार कर चुकी हो। बंद समाज वह है जो अन्य समाजों से प्रभाव ग्रहण नहीं करता: जो अपने सदस्यों को भी धन या संस्कृति कि दीर्घा में ऊपर उठने की खूली छूट नहीं देता, जो जाति-प्रथा और गोत्रवाद से पीड़ित है, जो अंधविश्वासी, गतानुगतिक और संकीर्ण है। बंद समाज मध्यकालीनता का समाज होता है। आधुनिक समाज में उन्मुक्ततता होती है, उस समाज के लोग अन्य समाजों से मिलने-जुलने में नहीं घबराते, न वे उन्नति का मार्ग खास जातियों और खास गौत्रों के लिए ही सीमित रखते हैं। आधुनिक समाज का एक लक्षण यह भी है कि उसकी हर आदमी के पीछे होने वाली आय अधिक होती है, हर आदमी के पास कोई धंधा या काम होता है, और अवकाश की शिकायत प्राय: हर एक को रहती है।
लेकिन ये आधुनिकता के बाहरी लक्षण हैं। यूरोप और अमरीका का समाज, सच्चे अर्थों में, आधुनिक समाज है और ऊपर के लक्षण मैंने यूरोपीय समाज को ही देख कर दिये हैं। किंतु उद्योग और रोजगार, साक्षरता और ऊंची आय, यद्यपि इस समाज के प्रमुख लक्षण है मगर यूरोपीय समाज के वे मौलिक गुण नहीं है। यूरोप और अमरीका में जो आधुनिकता फैली है, उसका असली कारण वैज्ञानिक दृष्टिकोण की प्राथमिकता और प्राबल्य है। यह दृष्टि उद्योग और टेक्नालॉजी से नहीं उत्पन्न हुई है, बल्कि टेक्नालॉजी और उद्योग ही इस दृष्टि के परिणाम हैं। यूरोप और अमरीका का सबसे बड़ा लक्षण वैज्ञानिक दृष्टि है, निष्ठुर होकर सत्य को खोजने की व्याकुलता है। और इस खोज के क्रम में श्रद्रा, विश्वास, परंपरा और धर्म, किसी भी बाधा को बुद्धि स्वीकार करने नहीं है। आधुनिक मुनष्य के बारे में सामान्य कल्पना यह है कि अपने चिंतन में वह निर्मम होता है, निष्ठुर और निर्भीक होता है। जो बात बुद्धि की पकड़ में नहीं आ सकती, उसे वह त्रिकाल में भी स्वीकार नहीं करेगा और जो बातें बुद्धि से सही दिखायी देती हैं, उनकी वह खुली घोषणा करेगा, चाहे वे धर्म के विरुद्ध पड़ती हों, नैतिकता के खिलाफ जाती हों अथवा उनसे मानवता का चिरपोषित विश्वास खंड-खंड हो जाता हो।
इसीलिए लोग अक्सर आधुनिकता को नास्तिकता का पर्याय समझ लेते हैं और यह सोचने लगते हैं कि आधुनिकता का एक लक्षण यह भी है कि वह नैतिक नियमों की अवहेलना करती है। यही नहीं, जिन्होंने आधुनिकता की रूह को पहचानने की कोशिश नहीं की हैं, वे 'जाज' संगीत और 'ट्रिवस्ट' नृत्य तथा माता-पिता के साथ लड़कों के दुर्व्यवहार को भी आधुनिकता का ही लक्षण मान लेते हैं। किंतु ये चीजें आधुनिकता की नहीं, उच्छृंखलता कि निशानी हैं और वे आधुनिक हों भी, तो मै तो उन्हें आधुनिकता की प्रकृति नहीं, विकृति ही कहूँगा।
ये कुरीतियां आधुनिकता की शोभा नहीं बढ़ातीं, पुराने देशों में उसे अग्राहय बना देती है। उन्नीसवीं सदी में आधुनिकता की लहर भारतवर्ष में बड़े जोर से उठी थी और जहाँ तक उसके मूलतत्त्व यानी बुद्धिवाद का संबंध है, हमारे महापुरुषों ने उसे स्वीकार भी किया था। किंतु दो कारणों से आधुनिकता भारत में बदनाम हो गयी। एक कारण तो यह था कि जितने लोगों ने आधुनिकता की रीढ़ यानी और वैज्ञानिक दृष्टि और बुद्धिवाद को पकड़ा तथा स्वस्थ स्वाधीन चिंतन के लिए उसकी महिमा स्वीकार की, उनसे कई गुना अधिक लोग स्वाधीन चिंतक होने का स्वांग भरने लगे। ऐसे युवक उस समय अपने को 'यंग बंगाल' कहते थे। और अपनी आधुनिकता की अभिव्यक्ति वे शराब पीकर, अपने धर्म की निंदा करके बल्कि मंदिरों में गोमांस फेंककर करते थे। इनसे से बहुत-से लोग ईसाई भी हो गये थे ओर कई मामलों में देखा गया था कि उनके धर्म-परिवर्तन की प्रेरणा आध्यात्मिक जिज्ञासा नहीं, कोई इहलौकिक लोभ अथवा प्रेम था। आधुनिकता की बदनामी का दूसरा कारण यह हुआ कि उसके प्रतीक हमारे अंग्रेज शासक थे, जिनमें हमें मोहब्बत नहीं, घृणा थीं।
आधुनिकता के विरुद्ध भारतीय समाज ने जो कठोर प्रतिक्रिया अभिव्यक्त की थी, उसका प्रमाण हम उन्नीसवीं सदी में देख चुके हैं। आधुनिकता के छिछलेपन को देखकर भारत इतना नाराज हुआ कि यूरोप को स्वीकार करने के बदले उसने एक दूसरी ही राह पकड़ ली। हिंदू कहने लगे कि हमारी संस्कृति बहुत पुरानी हैं, हमारा साहित्य सर्वश्रेष्ठ है और धर्म के बारे में हम जितना जानते हैं, उससे अधिक जानकारी का दावा यूरोप के लोग नहीं कर सकते, अतएव वे हमसे चाहे तो धर्म सीख लें, हम उनकी विचार-पद्धति को कबूल नहीं करेंगें। और मुसलमान कहने लगे कि जो शिक्षाएं हमें यूरोप के लोग देने आये हैं, वे हमारे धर्म ग्रंथों में पहले से ही मौजूद हैं। नयी दुनिया से हमें कुछ भी नहीं लेना हैं।
लेकिन भारत उस समय भ्रम में था। नयी दुनिया की हमने बहुत सारी बातें स्वीकार कर ली हैं और बहुत-सी बातों को स्वीकार करने की हमारी तैयारी जारी है। औद्योगीकरण यूरोप और अमरीका की देन हैँ। भारत में नगरों की जो संख्या और प्रधानता बढ़ने लगी हैं, वह आधुनिकता का परिणाम है। कॉलेजों और यूनिवर्सिटियों का आज का रूप बाहर से आया हैं, साक्षरता का विकास आधुनिकता के धक्के से हो रहा है। हमारे प्रजातंत्र की पद्धति यूरोप और अमरीका से ली गयी हैं। व्यक्तिवाद की प्रेरणा इस देश में यूरोप और अमरीका की देखा-देखी बढ़ रही है और सम्मिलित परिवार की परिपाटी पर जो खतरे मंडरा रहे हैं, वे भी आधुनिकता की ही देन है। नारियों की मर्यादा-वृद्धि आधुनिकता के कारण हो रही है और यदि आधुनिकता की प्रेरणा हमारे भीतर काम नहीं करती होती, तो हम हिंदू कोड को कानून का रूप नहीं दे सकते थे।
कुछ बातों में आधुनिकता ने हमारी सहायता परोक्ष रूप से भी की है। जिन प्रवृत्तियों को आज हम आधुनिक कहते हैं, वे बुद्ध में दिखायी पड़ी थीं, भक्त और संत कवियों में दिखायी पड़ी थी। उन्हें आधुनिकता ने कुछ तेज कर दिया और हम अस्पृश्यता को कानूनी अपराध घोषित करने में सफल हुए। इसी प्रकार हमारे संविधान में जो यह शर्त रखी गयी हैं कि नर-नारी के बीच कोई असमानता नहीं बरती जायगी तथा उन्नति के अवसर सभी जातियों के लोगों को, भेदभाव के बिना, उपलब्ध रहेंगे, वह शर्त, वैसे देखिये तो, मनुस्मृति के खिलाफ पड़ती है। लेकिन उस शर्त को जनता ने इसलिए कबूल कर लिया कि पिछले सौ-डेढ़ सौ वर्षों के भीतर उसके कट्टरता के बहुत-से भाव बदल गये हैं या ढीले पड़ गये हैं और उसका मन धीरे-धीरे नवीन हो रहा है।
जहाँ तक आधुनिकता के स्थूल पक्ष का सवाल है, मुझे इसमें कोई सन्देह नहीं कि भारत उसे स्वीकार करने को उद्यत हो गया है। कल–कारखाने इस देश में भी बेशुमार बढ़ने वाले हैं और नगर भी दिनोंदिन अधिक बड़े और संख्या में विशाल होते जाएँगे। और इनका जो स्वाभाविक परिणाम लोगों के आपसी सम्बन्धों पर, उनकी आदतों और रिवाजों पर, उनकी नैतिक भावना पर यूरोप और अमरीका में पड़ा है, वह यहाँ भी पड़ेगा। साक्षरता भी एक दिन काफी हो जाएगी और उन लोगों की संख्या में भी वृद्धि होगी, जो गम्भीर पुस्तकें न पढ़कर अखबार, सनसनीखेज उपन्यास और पैंफ्लेट ज्यादा पढ़ेंगे अथवा रेडियो और टेलीविजन से अपना मन बहलाएँगे। प्रत्येक नरमुंड के पीछे होनेवाली आय यहाँ भी बढ़ेगी और यह देश भी एक दिन बेरोजगारी का मसला हल कर लेगा।
किन्तु ये तो स्थूल बातें हैं, आधुनिकता की असली व्याप्तियाँ इनसे ज्यादा बारीक हैं। आधुनिकता और आधुनिकीकरण–मॉडर्निटी और मॉडर्नाइजेशन–में भेद है और यह भेद लगभग वैसा ही है, जैसा भेद हम संस्कृति और सभ्यता में मानते हैं। मोटर, महल, हवाई जहाज और कल–कारखाने–ये सभ्यता के उपकरण हैं। संस्कृति इनसे कहीं बारीक चीज का नाम है। सभ्यता वह चीज है जो हमारे पास है। संस्कृति वह चीज है जो हम खुद हैं। मॉडर्नाइजेशन सभ्यता है, मॉडर्निटी संस्कृति है। जहाँ तक मॉडर्नाइजेशन का प्रश्न है, भारत को आधुनिक बनना ही पड़ेगा और इस क्षेत्र में भारत के आधुनिक होने से भारतीयता नष्ट ही हो जाएगी, ऐसा मेरा विचार नहीं है। गरचे धोती, कुरता, अचकन और चादर को हम भारतीयता से सम्बद्ध मानते आए हैं, किन्तु भारत की जो आत्मा है, भारत का जो असली धर्म है, वह पोशाकों में नहीं बसता, उसका निवास भारतीयों के मन में है, चिन्तन की पद्धति में है, सृष्टि को देखनेवाली दृष्टि में है। अगर जीवन और सृष्टि को देखनेवाली भारतीय दृष्टि बच गई अथवा आधुनिकता से उसका तालमेल बैठ गया, तो वह स्वप्न पूरा हो जाएगा, जिसे राममोहन राय ने देखा था, विवेकानन्द, गांधी और अरविन्द ने देखा थाय अर्थात हम पाश्चात्य जगत् के सर्वश्रेष्ठ तत्त्वों को अपनी संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ तत्त्वों से एकाकार करने में समर्थ हो जाएँगे।
किन्तु संसार को देखनेवाली भारत की वह कौन–सी दृष्टि है, जो उसकी विशेषता है और जिसका आधुनिकता से विरोध पड़ता है? इस प्रश्न का उत्तर बहुत लम्बा हो सकता है, क्योंकि संसार के सभी आधुनिक चिन्तक अथवा वैज्ञानिक नास्तिक नहीं हैं, न उनमें से सब–के–सब धर्म के विरुद्ध हैं। धर्म के आनुष्ठानिक रूप सर्वत्र निन्दित हो चुके हैं और आज के जो महान चिन्तक धार्मिक हैं, वे मन्दिरों, मस्जिदों और गिरजाघरों में चलनेवाली रीतियों के प्रति उदासीन हैं। धार्मिक वे इस अर्थ में हैं कि उनके भीतर वे प्रश्न जीवित है, जो प्रश्न धर्म–संस्थापकों के भीतर उठा करते हैं। आदमी क्या चीज है? जन्म के पहले वह कहाँ रहता है? मृत्यु के उपरान्त वह कहाँ चला जाता है? यह संसार किसी योजना के अधीन है अथवा वह अकस्मात् उछलकर हमारे सामने आ गया है? ईश्वर हो सकता है या नहीं? अगर वह है, तो उसका सबूत क्या है? अगर वह नहीं है, तो इसका क्या प्रमाण है?
एक–एक कर वे ही सवाल, जिन्हें बुद्ध ने अव्याकृत कोटि में डाल दिया था। किन्तु वे अव्याकृत रहे नहीं। आज भी चिन्तकों के मन में वे ही सवाल उठते हैं। किन्तु श्रद्धा पहले पुरजोर थी और बुद्धि अपने को संबुद्धि (इनटुइशन) से हीन समझती थी। इसलिए पहले के चिन्तकों को उत्तर कुछ–न–कछ मिल जाता था और उस उत्तर से वे आनन्द और सन्तोष भी पाते थे, किन्तु अब श्रद्धा लगभग अनादृत और बुद्धि मनुष्य का सर्वस्व है। किन्तु बुद्धि की पहुँच एक सीमा तक ही है। उससे आगे वह नहीं जा सकती। बुद्धिवाद असल में इन्द्रियवाद है। जो सूँघा जा सकता है, छुआ जा सकता है, सुना और देखा जा सकता है, बुद्धि उसी का विश्वास करती है। किन्तु आदमी के भीतर ऐसी गहराइयाँ भी हैं, जहाँ इन्द्रियों की पहुँच नहीं है और मन भी जहाँ किसी बड़े मन की सहायता के बिना नहीं जा सकता। भाषा जितनी भी है, मन ने अपने उपयोग के लिए बनाई है। बड़े मन की भाषा कहीं है नहीं, जिसके आधार पर तर्क किसी निर्णय पर पहुँच सके। अतएव बुद्धि ने यह आग्रह पकड़ लिया है कि सत्य वही है, जिसे मैं समझ सकती हूँ। जो मेरी समझ में नहीं आता, वह या तो कुछ नहीं है अथवा असत्य है।
बुद्धिवाद भारत में भी था, लेकिन यूरोप में वह स्थूल हो गया। पश्चिम के चिकित्साशास्त्र ने सर्जरी में जितनी उन्नति की है, उतनी उन्नति वह काय–चिकित्सा में नहीं कर सका है। कारण यह है कि यूरोप शरीर का विशेषज्ञ है। शरीर के भीतर जो मन अथवा आत्मा बसती है, उसे भी वह उन्हीं औजारों से नापना चाहता है, जिनसे शरीर के नापने का रिवाज है। इसीलिए मन और आत्मा के धरातल पर सफलता उसे कम मिली है। इसीलिए यूरोप और अमरीका में सर्जरी के मुकाबले काय–चिकित्सा का विकास कुछ कम हुआ है। हैजा, कालाजार, टायफायड, चेचक, मलेरिया और राजयक्ष्मा–ये बीमारियाँ उन्मूलित या पराजित हो गईं, लेकिन अब उन्माद अधिक लोगों को होने लगा है तथा रक्तचाप, मधुमेह, हार्ट और उन्निद्रा की बीमारियाँ बड़े जोर से बढ़ रही हैं। विज्ञान को किसी विद्या की खोज करनी चाहिए, जो मन और आत्मा से जन्म लेनेवाली बीमारियों की रोकथाम करे, क्योंकि आदमी केवल शरीर नहीं है, वह मन भी है, आत्मा भी है और बीमारियाँ सभी जगहों पर उत्पन्न होती हैं।
जिस बात का प्रमाण मैंने सर्जरी और काय–चिकित्सा की चर्चा चलाकर दिया है, उसी का प्रमाण मैं एक और संकेत करके देना चाहता हूँ। जब से आणविक विस्फोट सम्भव बना है, वैज्ञानिक यह देखकर चकित और विषण्ण हैं कि जो नियम न्यूटनीय विज्ञान के आधार थे, वे अब इलेक्ट्रॉनों पर लागू नहीं होते हैं। एटम से उ़पर के धरातल तक न्यूटनीय विज्ञान अब भी सही है, किन्तु एटम के भीतरवाली दुनिया न्यूटन के नियमों की अवहेलना कर रही है। न्यूटनीय विज्ञान में हर कार्य किसी कारण के अनुसार चलता है। आणविक विज्ञान यह समझ ही नहीं पा रहा है कि इलेक्ट्रॉन कारण–कार्य–नियम की परवाह क्यों नहीं करते हैं। न्यूटनीय विज्ञान की कल्पना थी कि एटम भी कोई ठोस चीज है, किन्तु जब एटम तोड़ा गया, तब पता यह चला कि वह इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन का मिलान है और इलेक्ट्रॉन ठोस तत्त्व नहीं, केवल उ़र्जा या तरंग है। यानी हम जिसे ठोस जगत् समझते थे, वह ठोस नहीं हैय वह गैस है, तरंग है, उ़र्जा है। यह बात मुझे शंकर के मायावाद के समान लगती है। असल में यहाँ कुछ भी ठोस नहीं है। हम पोलेपन के भीतर किसी ठोस चीज का सपना देख रहे हैं। वास्तव में हमारा पाँव जिस चीज पर पड़ा है, वह रज्जु है। अपने मानसिक भ्रम के कारण हम उसे सर्प समझ रहे हैं।
बुद्धि मन की गहराइयों तक नहीं जा सकती। वह स्वभाव से ही स्थूल है। विज्ञान का विकास, आदि से अन्त तक, बुद्धिवाद के मार्गदर्शन में हुआ है। इसीलिए वह एटम से उ़पर तक जिस आत्मविश्वास के साथ बोलता था, उस आत्मविश्वास के साथ एटम से नीचे पहुँचने पर नहीं बोल सकता। इसीलिए सर्जरी आगे और काय–चिकित्सा पीछे चल रही है। इसीलिए विज्ञान निर्जीव जगत् में जितना सत्य साबित हुआ है, उतनी सफलता उसे सजीव जगत् में नहीं मिली है। इसीलिए वह आदमी के शरीर का जितना अच्छा ज्ञाता है, उतना ज्ञान उसे मनुष्य के मन का नहीं है, उसकी चेतना का नहीं है। और इसीलिए वह आत्मा के विषय में कोई भी बात कभी भी नहीं जान सकेगा।
जब विज्ञान नहीं था, बुद्धिवाद तब भी थाय लेकिन उस समय उसकी प्रबलता नहीं थी। उस समय चिन्तकों का मार्ग श्रद्धा का मार्ग था, धर्म का मार्ग था, रहस्यवाद का मार्ग था। लेकिन श्रद्धा, धर्म और रहस्यवाद भी पूर्वग्राही थे। उनके पूर्वग्रह का रूप यह था कि चिन्तन की जो धारा धर्म के विरुद्ध चलती दिखाई देती थी, उसे वे आगे बढ़ने नहीं देते थे। इसीलिए रहस्यवादियों ने आत्मा के बारे में जितनी जानकारी प्राप्त की, उतनी जानकारी उन्हें शरीर के बारे में नहीं मिल सकी।
मेरा खयाल है, बुद्धिवाद भी पूर्वग्रह से मुक्त नहीं है। चिन्तन की जो धारा अगम और अज्ञात की ओर चलने लगती है, उसे बुद्धिवाद प्रोत्साहन नहीं देता। इसीलिए वह शरीर का ज्ञान तो पूरा प्राप्त कर लेता है, किन्तु आत्मा की बातें तथा अगम और अज्ञात के रहस्य उसकी समझ में नहीं आते। किन्तु भौतिकी के भीतर अब जो नवीनतम चिन्तनधारा चलने लगी है, उससे यह आभास मिलता है कि वास्तविकता का असली स्वरूप केवल बुद्धि से जाना नहीं जा सकता। बुद्धिवाद से वास्तविकता के वे ही अंश प्रकाशित और सम्पुष्ट होते हैं, जो इन्द्रियानुभूति और तर्क के नियमों की अवहेलना नहीं करते। एक समय ऐसा भी आ सकता है, जब वास्तविकता इन्द्रियानुभूति और तर्क के नियमों से समझी नहीं जा सके और तब बुद्धिवाद भी पराजित हो जाए।
मनुष्य अनेक पूर्वग्रहों को फाड़कर आज की स्थिति तक पहुँचा है। बुद्धिवाद भी पूर्वग्रह का ही एक रूप है, लेकिन बुद्धिवाद सबसे अच्छा पूर्वग्रह है या सबसे खराब अथवा वह पूर्वग्रह बिलकुल नहीं है, इसका प्रमाण आगे चलकर मिलेगा।
अदृश्य के प्रति आस्था और परलोक के अस्तित्व में विश्वास, इसे मैं भारतीय सृष्टि–बोध की रीढ़ मानता हूँ। मूल में यही विश्वास भारत का अटल, मौलिक विश्वास रहा है और भारत में धर्म और नैतिकता का विकास इसी विश्वास के अधीन हुआ है। यह ध्यान देने की बात है कि भारत केवल आस्तिक दर्शन का गढ़ नहीं है। सांख्य सेश्वर भी है और निरीश्वर भी। जैन और बौद्ध मत ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं करते, न यही स्वीकार करते हैं कि सृष्टि की रचना किसी अदृश्य देवता ने की है। लेकिन इस एक बात में भारत के आस्तिक और नास्तिक, दोनों ही प्रकार के दर्शन एक समान विश्वास करते हैं कि परलोक सत्य है, अदृश्य योनियों का अस्तित्व है और मरने के बाद जीव का जन्म भी होता है। जन्मान्तरवाद का खंडन यहाँ केवल चार्वाक ने किया था, किन्तु उसके अनुयायी इस देश में थे या नहीं, यह रहस्य अज्ञात है।
और यह विश्वास केवल भारत का ही विश्वास नहीं है, वह समस्त प्राचीन संसार का विश्वास है, यद्यपि जन्मान्तरवाद में केवल हिन्दू और बौद्ध ही विश्वास करते हैं। इसलिए आधुनिकता के प्रसंग में भारत के समक्ष जो कठिनाई है, वह कठिनाई केवल भारत की ही नहीं, समस्त संसार की समझी जानी चाहिए। मुख्य प्रश्न यह नहीं है कि आधुनिकता की सम्पूर्ण विजय के बाद भारत, भारत रहेगा या नहीं। मुख्य प्रश्न यही हो सकता है कि आधुनिकता के आक्रमण से प्राचीन जगत् के इस विश्वास की रक्षा की जा सकती है या नहीं कि सब कुछ यहीं समाप्त नहीं हो जाता, कुछ चीजें मरने के बाद भी शेष रहती हैंय सब कुछ वहीं तक नहीं है, जहाँ तक विज्ञान का औजार पहुँचता है, कुछ चीजें ऐसी भी हैं, जो गोचर जगत्् के परे और इन्द्रियों की पहुँच के पार हैं।
भारत की विशेषता यह है कि वह समस्त संसार की लड़ाई अकेला लड़ रहा है। जब से विज्ञान की बढ़ती हुई, प्राय: सभी देशों में अतीत और वर्तमान के बीच संघर्ष छिड़ गया और प्राय: सभी देशों में अतीत वर्तमान से हार गया। केवल भारत में वह आज भी जोरों से युद्ध कर रहा है। और संसार जो भारत की ओर एक अस्पष्ट आशा से देख रहा है, उसका भी कारण भारत की अतीतप्रियता ही है। नये ज्ञान के प्रति भारत हमेशा ही उदार रहा है। नये धर्मों, नई संस्कृतियों और नई विचारधाराओं को अपनाकर भारत भी परिवर्तित होता रहा है, लेकिन विचित्रता की बात यह है कि वह जितना ही बदलता है, उतना ही अपने आत्मस्वरूप के अधिक समीप पहुँच जाता है। यही विलक्षणता भारत का अपना गुण है और इसी गुण के कारण भारत से लोग यह आशा लगाये बैठे हैं कि आधुनिकता को अपना लेने के बाद भी भारत, भारत रहेगा और संसार के सामने एक नया नमूना पेश करेगा।
सृष्टि–बोध की आधुनिक कल्पना उस कल्पना से भिन्न है, जो प्राचीन भारत में रही थी अथवा जो सारे प्राचीन विश्व में थी। आधुनिक कल्पना यह है कि सृष्टि अपने नियमों से आप चालित है और उन्हीं नियमों के परिणामस्वरूप धरती पर पेड़, पौधे, जीव, जन्तु और मनुष्य उत्पन्न हुए हैं। मनुष्य जब से उत्पन्न हुआ है, वह प्रकृति को अपने अनुकूल बनाने के लिए उससे संघर्ष कर रहा है। बाधाएँ तो उसके सामने बहुत आती हैं, मगर सफलता पाने से उसका आत्मविश्वास बढ़ता जाता है। आरम्भ में प्रकृति के रुद्र रूपों से घबराकर वह प्रार्थना करता था, अपनी रक्षा और कल्याण के लिए देवताओं की दया का आह्वान करता था। अब वह ऐसी प्रार्थनाओं में विश्वास नहीं करता। वह बीमार होने पर अपने को देवी–देवताओं के भरोसे नहीं छोड़ता, बल्कि दवाइयाँ खाता और अपना इलाज करवाता है।
इसी प्रकार उस पर जब मुसीबतें आती हैं, तब उनके लिए वह ईश्वर को दोष नहीं देता, बल्कि मुसीबतों से लड़ने की वह कोशिश करता है। बुद्धि को वह अपना सबसे बड़ा प्रकाश मानता है और वह जो भी काम करता है, बुद्धि के ही प्रकाश में करता है। इसमें अगर उससे कोई नैतिक पाप हो जाए तो यह उसकी अपनी जिम्मेदारी है। पुण्य का काम वह इसलिए नहीं करता कि इसके बदले उसे स्वर्ग या मोक्ष मिलेगा, बल्कि इस भाव से कि यह उसका कर्तव्य है और पाप से वह इसलिए नहीं बचता कि नरक का त्रास उसे सताता है, बल्कि इसलिए कि पाप सामाजिक दृष्टि से बुरी चीज है। साथ ही, पाप करने के बाद आदमी को पछताना भी पड़ता है। (पाप करके आदमी को क्यों पछताना पड़ता है, इसका कारण मनुष्य मनोविज्ञान में खोज रहा है, लेकिन बातें अभी ठीक से उसकी समझ में नहीं आई हैं।) नैतिकता को आधुनिक मनुष्य स्वर्ग या नरक का सोपान नहीं समझता, बल्कि उसे अपने वैयक्तिक स्पंदनों से सम्बद्ध मानता है, अपनी उत्तेजनाओं और प्रेरणाओं से उत्पन्न समझता है। वह किसी भी अदृश्य शक्ति में विश्वास नहीं करता–न ईश्वर में, न देवताओं में, न ज्योतिष अथवा भृगु या अरुण–संहिता के सिद्धान्त में। वह नहीं मानता कि जो आदमी सुख में है, वह पूर्वजन्म में पुण्यात्मा रहा होगाय न वह यही मानता है कि जो निर्धन, रोगी और कंगाल हैं, वे पूर्णजन्म में पापी रहे होंगे। नया मनुष्य अपने भाग्य में नहीं, बाहुबल और बुद्धि में विश्वास करता है और वह यह मनसूबा रखता है कि वह अपनी योग्यता के अनुसार ऊँची–से–ऊँची जगहों तक जा सकता है। नया आदमी यह भी नहीं मानता कि राजगद्दी मनुष्य ईश्वर की कृपा से प्राप्त करता है। वह समझता है कि देश में डिक्टेटर पैदा हो जाए, तो उसका तख्ता वह उलट सकता हैय समाज में शोषक बढ़ जाएँ, तो उनकी नींवें वह हिला सकता है, क्योंकि यहाँ जो कुछ भी है, मनुष्य के साहस, श्रम और बुद्धि के अधीन है और अदृश्य का हस्तक्षेप कहीं नहीं है।
नये मनुष्य की सृष्टि–सम्बन्धी जो कल्पना है, वह प्राचीन जगत् की कल्पना से भले ही भिन्न हो, किन्तु जहाँ तक आदमी के कर्तव्य और सदाचार की बात है, प्राचीन जगत् की कल्पना उसमें कोई खलल नहीं डालती। प्राचीन जगत् की कल्पना मनुष्य के कर्तव्य–भाव को कुंठित नहीं करती, उसके उल्लास को नहीं दबाती, न उसे यह सिखलाती है कि जो कुछ मिलनेवाला है, वह तुम्हें ईश्वर से नहीं मिलेगा, अतएव तुम हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहो। जो लोग हाथ पर हाथ धरकर बैठे हुए हैं, उनसे पूछिए कि क्या वे ईश्वर के भरोसे बैठे हुए हैं? उत्तर मिलेगा–नहीं, सिर्फ इसलिए कि हमारे पास साधन नहीं हैं, उद्यम की शक्ति नहीं है। अब उद्यम और साधन का नहीं होना भाग्य के भरोसे बैठे रहने का परिणाम है अथवा किन्हीं अन्य कारणों का, इसका निर्णय आसानी से नहीं किया जा सकता। प्राचीन विश्व निरुद्यमी लोगों का विश्व नहीं था। अगर वह निरुद्यमियों और भाग्यवादियों का संसार हुआ होता, तो जिन लोगों ने उस समय बड़े–बड़े काम किये उनका आविर्भाव ही नहीं होता। भाग्य के विरुद्ध पुरुषार्थ की महिमा आदमी को कुछ आज ही ज्ञात नहीं हुई है। कर्ण के मुख से एक प्राचीन कवि ने कहलाया था :
दैवायत्तं कुले जन्म मदायत्तं तु पौरुषम्।
आधुनिकता के जो औद्योगिक और सामाजिक पक्ष हैं, प्रवृत्तिमूलक और पुरुषार्थ–बोधक पक्ष हैं, उन्हें हम स्वीकार करेंगे और सर्वत्र स्वीकार करेंगे। जहाँ तक बुद्धिवाद और वैज्ञानिक दृष्टि का प्रश्न है, हम उनकी भी उपयोगिता स्वीकार करते हैं। किन्तु इन बातों को स्वीकार करते समय हमें इसका भी ध्यान रखना है कि हम जो नया विश्व बनाएँ, वह प्राचीन और मध्यकालीन विश्व से, सचमुच ही, श्रेष्ठ हो–केवल सुख, सुविधा, स्वतंत्रता और भोग की दृष्टि से ही श्रेष्ठ नहीं हो, बल्कि उसमें शान्ति और सन्तोष का भी प्राचुर्य हो।
मध्यकालीन जगत् में केवल दोष–ही–दोष नहीं थे। वह गहरे अंधकार के साथ उज्ज्वल प्रकाश का भी समय था। यह ठीक है कि उस समय मनुष्य अपने परिवेश को कम जानता था, मगर इसीलिए वह अपनी आलोचना भी थोड़ी ही करता था। जब दुनिया अँधेरी थी, आसमान साफ था। जब दुनिया रोशनी से भर गई, आसमान पर अँधियाली छा गई। पहले मनुष्य को सत्य वहाँ भी दिखाई देता था, जहाँ सचमुच उसका वास नहीं था। अब जो सत्य है, उस पर भी आदमी का विश्वास टिकता दिखाई नहीं देता है। मध्यकालीन युग तिमिरग्रस्तता का शिकार नहीं था, वह आनन्द और सन्तोष से प्रकाशित काल था, जब आदमी चीजों में विश्वास करता था और खुशी की रोशनी में जीता था। लन्दन के घंटाघर की आवाज उस समय संसार–भर के लोग भले ही न सुनते हों, लेकिन अपने पड़ोसियों के कराहने की आवाज उन्हें सुनाई देती थी। उस समय आँसू आज की अपेक्षा ज्यादा बहते थे और अधिक सहजता से बहते थे। आज काम तभी किये जाते हैं, जब वे पेट के लिए जरूरी हो जाएँ, मगर उस समय के कारीगर काम करते समय आमदनी की बात नहीं सोचते थे और यह कितनी अच्छी बात थी कि उस समय कारीगर के बनाये सामान ही बेचे जाते थे, खुद कारीगर नहीं बिकता था।
इतने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि मध्यकालीन समाज में अतृप्ति नहीं थी। अतृप्ति थी, मगर वह किसी और दिशा में थी। वह समय भी असन्तोष का समय था, आन्दोलन का काल था। संसार ईश्वरमय है, यह बात तो मध्यकालीन चिन्तक जानते थे, लेकिन ईश्वर को पाने की राह क्या है, इसे लेकर उनके भीतर एक मंथन चला करता था। उ़पर से नदी शान्त थी, नीचे विचार खौल रहे थे। मध्यकालीनता का युग साधना का युग है, सिद्धि का नहीं। वह अन्वेषण का समय है, प्राप्ति का नहीं। और तब आधुनिकता ने प्रवेश किया। नतीजा यह हुआ कि जो जगत् ईश्वर–प्रेरित समझा जाता था, उसकी शासिका बुद्धि बन गई। इसीलिए जो संसार पहले रहस्य था, अब वह समस्या बन गया। अदृश्य पर चिन्तन करने से दर्शन उत्पन्न हुआ था। दृश्य पर चिन्तन करते–करते विज्ञान का उदय हुआ। पुरानी सभ्यता कल्पना और विचार के संयोग से बनी थी। नई सभ्यता विज्ञान और टेक्नोलॉजी से तैयार हुई। टेक्नोलॉजी के अभाव से पुरानी सभ्यता में जो कमी थी, उस कमी की पूर्ति उसने आदर्शों से युक्त वातावरण की रचना करके की थी। उस समय के लोग सुखी कम, सन्तुष्ट अधिक थे। प्रकृति को जीतने से अधिक उन्हें अपने–आपको जीतने की चिन्ता थी। नई सभ्यता को भी मालूम है कि उसकी योजना पूरी नहीं है, मगर जो चीज उसने मनुष्य से छीन ली है, उसकी पूर्ति वह शारीरिक सुखों के अधिकाधिक विकास करके कर रही है, मानो वह मनुष्य से यह कहना चाहती हो कि आध्यात्मिक जिज्ञासा बिलकुल फालतू चीज है, सुख असल में वही है, जो किसी–न–किसी इन्द्रिय से प्राप्त किया जाता है। जब बाहर मैंने इतने सामान मुहैया कर रखे हैं, तब भीतर झाँकने की जरूरत क्या है?
जब संसार रहस्य था, मनुष्य में विनम्रता थी। जब से वह समस्या बन गया, आदमी उद्धत और अधीर हो गया है।
सबसे बड़ा ढिंढोरा आधुनिकता इस बात का पीटती है कि बुद्धिवाद के तीखे औजार से उसने मनुष्य की सभी जंजीरें काटकर उसे सभी दासताओं से मुक्त कर दिया है, जो दावा एक तरह से ठीक है। अफसोस की बात यह है कि मनुष्य को यही मालूम नहीं कि इस मुक्ति को लेकर वह क्या करे। बुद्धिवाद, टेक्नोलॉजी और विज्ञान द्वारा सिद्ध मुक्ति उस गरुड़ की मुक्ति नहीं है, जो डैने खोलकर आकाश में उड़ता है, बल्कि उस कुत्ते की मुक्ति है, जो जंजीरों से छूटकर सड़क पर आ गया है और ट्राफिक में कुचल जाने के भय से इधर–उधर भाग रहा है। खुला कुत्ता जो भी चाहे, कर सकता हैय जहाँ भी चाहे, जा सकता है, लेकिन उसे यह कौन बताए कि उसे कहाँ जाना चाहिए और चारों ओर के खतरों से अपनी रक्षा कैसे करनी चाहिए? विज्ञान शक्ति देता है, यह बात सत्य है, किन्तु इस शक्ति का उपयोग आदमी किस चीज के लिए करे, इस सवाल का जवाब विज्ञान को मालूम नहीं है। मालूम होता, तो आणविक शक्ति का उपयोग आदमी आदमी के संहार के लिए नहीं करता।
आधुनिकता का हम विरोध नहीं, स्वागत करते हैं। हमारा ध्येय केवल यह है कि विज्ञान और टेक्नोलॉजी से हमें जो शक्ति प्राप्त हुई है, उसका उपयोग हम एक ऐसी दुनिया बनाने के लिए करें, जो वैज्ञानिक और रहस्यवादी, दोनों के लिए अनुकूल हो। ऐसा नहीं है कि दुनिया में वैज्ञानिक कम और रहस्यवाद ज्यादा हुआ करते हैं। प्रत्येग युग में दोनों की संख्या बहुत थोड़ी रही है। आधुनिकता अगर मनुष्य को केवल शरीर मानती है, तो भारत का इस बात में उससे स्पष्ट विरोध है, क्योंकि हम आत्मा और शरीर, दोनों के अस्तित्व में विश्वास करते हैं। और इसलिए हमारा मनसूबा है कि हम, आधुनिक हो जाने पर भी, भारतीय यानी कुछ–कुछ प्राचीन रहेंगे और इसलिए प्राचीन बने रहेंगे कि आधुनिकता के साथ जहर की जो थोड़ी लपेट लगी है, उसे केवल प्राचीनता का कूपजल ही धो सकता है। आधुनिकता से मनुष्य का सुख तो बढ़ा है, लेकिन उसकी शान्ति घट गई हैय बल, बुद्धि और अहंकार तो बढ़ा है, मगर करुणा और विनम्रता घट गई है। यह अभाव, किसी–न–किसी रूप में, धर्म के वापस आने से दूर होगा। इसलिए हम चाहते हैं कि आधुनिकता ने भौतिकी और ज्योतिष का जो रूखा–सूखा और उ़जड़ विश्व बसा रखा है,उसमें हम जहाँ–तहाँ रहस्य के भी कुछ मन्दिर खड़े कर दें। अन्त में मैं आज उपाधियों से भूषित होनेवाले स्नातकों और स्नातिकाओं को अपना आशीर्वाद देता हूँ और यह कामना करता हूँ कि उनका जीवन और चरित्र ऐसा हो, जिसे देखकर जनता अपनी अध्यात्मप्रियता की रक्षा करते हुए आधुनिक होने का दृष्टांत पा सके।1
(बरेली कॉलेज, बरेली, के तेरहवें दीक्षांत–समारोह में दिया गया भाषण)