आधे पैसे पर कैसे गुज़ारा करें : हिंदी लोक-कथा

Aadhe Paise Par Kaise Guzara Karein : Folktale in Hindi

किसी बुढ़िया के शादी के लायक एक बेटी थी। कामकाज के लिहाज़ से भी वह कोई छोंटी नहीं थी, पर उसने कभी माँ का हाथ नहीं बँटाया। वह घोर आलसी थी। वह सुबह देर तक खाट तोड़ती रहती थी। बुढ़िया मुँह अँधेरे ही उठ जाती और चौका-बासन, झाड़ू-बुहारी सब अकेले करती। हर सुबह वह बेटी को आवाज़ देती, “भारो उठो! सूरज छप्पर तक चढ़ आया है।”

बेटी जवाब देती, “सूरज छप्पर तक चढ़ आया है तो चढ़ने दो। मैं तो डोरे-कंघे के बिना ही चोटी गूँथ लूँगी और एक दमड़ी से ही गुज़ारा कर लूँगी।” फिर वह बिस्तर छोड़ती, इधर-उधर मटरगश्ती करती, खाती-पीती, कपड़े बदलती और बाल सँवारती।

हर रोज़ सुबह यही होता था। एक दिन वहाँ का राजकुमार बुढ़िया की झोंपड़ी के पास से गुज़रा। उसने बुढ़िया को कहते सुना, “भारो उठो! सूरज छप्पर तक चढ़ आया है।” उसने भारो का जवाब भी सुना, “सूरज छप्पर तक चढ़ आया है तो चढ़ने दो। मैं तो डोरे-कंघे के बिना ही चोटी गूँथ लूँगी और एक दमड़ी से ही गुज़ारा कर लूँगी।”

उसकी आख़िरी बात का राजकुमार पर ऐसा असर हुआ कि उसने उससे शादी करने और उसकी परीक्षा करने का निश्चय कर लिया। देखें, यह तांबे की एक दमड़ी पर कैसे गुज़ारा करती है! वह जानता था कि ग़रीब लड़की से शादी करना आसान नहीं होगा, क्योंकि वह राजकुमार है। सो वह शाही अस्तबल के एक थान में जाकर लेट गया। राजकुमार कहीं नज़र नहीं आया तो हर जगह उसकी तलाश होने लगी। शाम को घोड़ों को खिलाने के लिए चने के बोरे लिए हुए कुछ दासियाँ अस्तबल में आईं। राजकुमार ने देखा कि सारा चना वे ख़ुद खा गईं। घोड़ों के हिस्से में छिलके ही आए। राजकुमार आपे से बाहर हो गया। वह छुपने की जगह से बाहर आया। बोला, “तो चना तुम खा जाती हो और घोड़ों को छिलके डालती हो! तभी तुम दिनों-दिन मुटिया रही हो और मेरे घोड़े दुबले होते जा रहे हैं।”

दासियों ने उसकी बात जैसे सुनी ही नहीं। वे एक साथ चिल्लाईं, तो आप यहाँ हैं! राजकुमार आप यहाँ क्या कर रहे हैं? आप के लिए उन्होंने रियासत का चप्पा-चप्पा छान मारा और आप यहाँ अस्तबल में छुपे बैठे हैं!” राजकुमार ने उनकी ख़ूब धुनाई की और धमकी दी कि अगर उन्होंने राजा को कुछ भी बताया तो वह उन्हें जान से मार देगा। पर शरारती लड़कियों ने उसकी धमकी पर बिलकुल ध्यान नहीं दिया। वे ही ही ठी-ठी करती हुईं भागी-भागी राजा के पास गई और कहा, “महाराज, आपको एक बात बताएँ या दो?”

राजकुमार का कहीं पता नहीं चलने से राजा बहुत चिंतित था। उसने उन्हें झिड़क दिया, “क्या फ़ुज़ूल की बात करती हो! मैं राजकुमार के बारे में सोच-सोच कर परेशान हो रहा हूँ और तुम्हें खाने और चिल्लाने के अलावा कोई काम ही नहीं!”

“अन्नदाता, सुनिए तो! हम बहुत अच्छी ख़बर लाई हैं।”

राजा ने कहा, “तुम एक बात कहो या दो, पर जो भी कहना है जल्दी कहो!”

दासियों ने बताया कि जब वे अस्तबल में घोड़ों को दाना-पानी देने गईं तो उन्होंने वहाँ राजकुमार को लेटे हुए देखा। राजा तुरंत अस्तबल में गया और राजकुमार से पूछा, “क्या बात है बेटे? क्या किसी ने तुम्हारा दिल दुखाया है? अगर किसी ने तुम्हारे ख़िलाफ़ हाथ उठाया है तो मैं उसका हाथ काट दूँगा। अगर किसी ने तुम्हारे ख़िलाफ़ पैर उठाया है तो मैं उसका पैर काट दूँगा। अगर किसी ने तुम्हारी ओर बुरी नज़र से देखा है तो मैं उसकी आँखें फोड़ दूँगा। मुझे बताओ बात क्या है। अगर तुम्हें कुछ चाहिए तो मैं तुम्हें लाकर दूँगा।”

राजकुमार ने कहा, “ऐसी कोई बात नहीं है। न तो किसी ने मेरे ख़िलाफ़ हाथ उठाया है, न पैर और न ही किसी ने मुझे बुरी नज़र से देखा है। मैं फलां बुढ़िया की बेटी से शादी करना चाहता हूँ।”

“बस, इतनी-सी बात! तुम्हारी इच्छा पूरी होगी। अब तो ख़ुश? चलो, चलकर खाना खा लो!”

राजकुमार अस्तबल छोड़कर राजा के साथ चला गया। वह फिर पहले की तरह सारे काम करने लगा। बुढ़िया को बुलाने से पहले राजा ने राजकुमार को समझाने का प्रयास किया कि वह इस बेमेल शादी से बाज आए। आख़िर वह राजकुमार है और एक दिन उसे देश का शासन संभालना है। भिखारन सरीखी लड़की से विवाह करना उसे शोभा नहीं देता। पर राजकुमार बहुत हठी था। उसने यहाँ तक कहा कि बुढ़िया की बेटी से उसकी शादी नहीं हुई तो वह जान दे देगा।

और कोई चारा न देखकर राजा ने आदमी भेजकर बुढ़िया को महल में बुलाया। बुढ़िया के होश उड़ गए। उससे ऐसी क्या ग़लती हो गई जो महाराज को उसे बुलवाना पड़ा? उसने बहुत सोचा, बहुत सोचा, पर ऐसा कुछ याद नहीं आया। महाराज का आदेश है तो जाना तो पड़ेगा ही। वह काँपती हुई राजमहल गई और सर झुकाकर खड़ी हो गई। राजा ने उसे पीढ़े पर बैठने के लिए कहा, पर उसने नम्रता से मना कर दिया। वह आज तक कभी पीढ़े पर नहीं बैठी थी। राजा ने ख़ुद उसे हाथ पकड़कर पीढ़े पर बिठाया और कहा, “हम तुम्हारे साथ रिश्ता जोड़ना चाहते हैं। तुम्हें अपनी बेटी का विवाह राजकुमार से करना होगा।”

बुढ़िया अवाक रह गई। कुछ देर बाद जब वह बोलने लायक हुई तो उसने कहा, “क्यों एक ग़रीब बुढ़िया से मज़ाक़ करते हैं अन्नदाता! कहाँ आप और कहाँ हम! यह कैसे हो सकता है!”

राजा ने उसे बताया कि यह मज़ाक नहीं है। राजकुमार ने कहा है कि वह उसकी बेटी भारो के अलावा दुनिया की किसी लड़की से शादी नहीं करेगा। बुढ़िया कुछ पल्ले नहीं पड़ा। महाराज एक कंगाल विधवा की बेटी का हाथ कैसे माँग सकते हैं? और वह भी आलसी भारो? उसमें कुछ भी तो गुण नहीं है। बुढ़िया से हाँ-ना कुछ कहते न बना। वह चुपचाप घर आई और रज़ाई ओढ़कर खाट पर पड़ गई। भारो का माथा ठनका। उसकी माँ आज तक कभी दिन को नहीं सोई। वह माँ के पास गई और पूछा कि उसकी तबीयत तो ठीक है? बुढ़िया ने उससे कहा कि वह उसका माथा न खाए, उसे अकेली छोड़ दे। पर भारो यह जानने के लिए पीछे ही पड़ गई कि बात क्या है? आख़िर बुढ़िया को बताना पड़ा कि उसे महाराज ने बुलवाया और भारो का हाथ माँगा। वह बहुत परेशान है। समझ नहीं पड़ता कि क्या करे और क्या न करे। यह जानकर भारो की ख़ुशी तमाम सीमाओं को पार कर गई कि ख़ुद राजकुमार उससे ब्याह करना चाहते हैं! उसने माँ को उठाया और उससे कहा कि वह अदेर महाराज के पास जाकर हाँ कर दे। घबराई हुई अप्रतिभ बुढ़िया वापस राजा के पास गई और जैसा भारो ने कहा उससे कहे दिया। राजा ने राजकुमार को ख़बर भिजवाई। राजकुमार की बाँछें खिल गईं।

राजा ने शादी की शानदार तैयारियाँ कीं। अपने ग़रीब नातेदारों और पड़ोसियों की ख़ातिरदारी के लिए जो बेचारी बुढ़िया से बन पड़ा उसने भी किया। गाजों-बाजों के साथ विवाह संपन्न हुआ।

दो एक महीने बाद राजकुमार को भारो का कहा याद आया, “मैं एक दमड़ी से गुज़ारा कर लूँगी।” उसने तुरंत उसकी परख करने का तय किया। उसने पिता से कहा कि उसे एक जहाज़ बनवा दें। वह परदेश में व्यापार करना चाहता है। राजा ने कहा कि उसे कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। वह बूढ़ा हो गया है और चाहता है कि राजकुमार जल्दी ही राजकाज संभाल ले। राजकुमार ने कहा कि कुछ महीनों के लिए तो उसे जाना ही होगा। राजा मान गया। जहाज़ बनाने का आदेश दे दिया गया। राजा के पास धन और आदमियों की क्या कमी! जिस जहाज़ के निर्माण में औरों को महीनों लगते हैं वह दिनों में बनकर तैयार हो गया। जहाज़ का मुखिया और मल्लाह भी चुन लिए गए।

सफ़र के लिए काफ़ी रसद की ज़रूरत थी, पर राजकुमार ने जहाज़ में थोड़ी ही रखवाई। उसने भारो से कहा कि समुद्रयात्रा में वह भी उसके साथ चले। भारो को बिलकुल आभास नहीं था कि पति के मन में क्या पक रहा है। पति के साथ कहीं भी जाने और भला-बुरा कुछ भी करने में ही उसकी ख़ुशी थी।

शुभ मुहूर्त में जहाज़ चल पड़ा। वे चलते रहे, चलते रहे, जब तक कि जहाज़ किसी दूर देश के तट पर नहीं पहुँच गया। लंगर डाल दिया गया। वे दो एक दिन वहाँ रुके। जब रसद बिलकुल ख़त्म हो गया तो राजकुमार ने भारो को जहाज़ पर अकेला छोड़ने की योजना बनाई। व्यापार के बहाने वह तट पर गया और मुखिया और मल्लाहों को भी अपने साथ ले गया। जहाज़ पर भारो अकेली रह गई। भारो की आँख बचाकर उसकी साड़ी के पल्लू में राजकुमार ने आधे पैसे का सिक्का बाँध दिया था। उसका मोल तीन दमड़ी से अधिक नहीं था।

राजकुमार, मुखिया और मल्लाह ज़मीन के रास्ते राजधानी लौट गए। उनके जाने के कुछ घड़ी बाद भारो को भूख लगी। वह जहाज़ के कुठार में गई। पर वहाँ उसे खाने को कुछ नहीं मिला। उसने पूरा जहाज़ छान मारा, पर कहीं कोई खाने की चीज़ नहीं मिली। पूरे दिन और पूरी रात उसे भूखा रहना पड़ा। अगले दिन वह सोच रही थी कि क्या करे और क्या न करे कि उसे लगा साड़ी के पल्ले में कुछ बंधा है। गाँठ खोलकर देखा तो उसे आधे पैसे का सिक्का मिला। वह सोचने लगी कि इसका वह क्या करे। तभी उसे एक बूढ़ा मछुआ दिखा जो मछलियाँ पकड़ते हुए जहाज़ के काफ़ी पास आ गया था। भारो ने उसे आवाज़ दी, “चाचा !” मछुए को अचंभा हुआ कि जहाज़ पर से उसे कोई ‘चाचा’ कहकर बुला रहा है। यह देखकर उसका आश्चर्य और भी बढ़ गया कि आवाज़ देने वाली औरत है। लगता है इतने बड़े जहाज़ पर वह अकेली है। वह जहाज़ के और क़रीब आ गया। भारो ने आधे पैसे का सिक्का उसकी तरफ़ उछाला और उससे आग्रह किया कि वह उसके लिए कुछ भुने हुए चने और चावल ले आए। बूढ़ा मछुआ उसे मना न कर सका। वह तट पर गया और आधे पैसे के भुने हुए चने और चावल लाकर उसे दे दिए। जैसे ही मछुआ गया भारो ने चने और चावल की पोटली खोली और मरभुक्खों की तरह सब खाने ही जा रही थी कि दुर्योग से पोटली उसके हाथ से छूट कर समुद्र में गिर गई। वह रोने-रोने को हो आई। तभी उसने देखा कि सैंकड़ो बड़ी-बड़ी मछलियाँ आईं और चावल और चने खाने लगीं। चावल और चने खाने के बाद वे तट पर गईं और मोहरें उगलने लगीं। देखते-देखते वहाँ मोहरों का ढेर लग गया। भारो के अचरज और ख़ुशी का पार न रहा। वह जहाज़ से उतरी और सारी मोहरें जहाज़ पर ले आईं। उसे एक दिन और भूखा रहना पड़ा। वह बूढ़े मछुए का इंतज़ार करने लगी। अगले दिन वह मछलियाँ पकड़ने के लिए आया तो भारो ने उसे एक मोहर दी और तरह-तरह की खाने की चीज़ें लाने को कहा। तकलीफ़ के लिए उसे एक मोहर अलग से दी। अब भारो के पास खाने की कोई कमी नहीं थी। वह दिन भर बैठी खाती रही। अगले दिन जब बूढ़ा मछुआ वापस आया तो वह उसके साथ तट पर गई और दो-चार बीघा ज़मीन ख़रीदी। उसके अगले दिन बल्लियाँ, शहतीरें, ईंटें, पत्थर और वह सब ख़रीदे जो महल बनाने के लिए चाहिए। बूढ़े मछुए ने उसके लिए एक झोंपड़ी बना दी। स्त्रियों का पहनावा छोड़कर उसने पुरुष भेष धारण कर लिया और झोंपड़ी में रहकर निर्माण कार्य की देख-रेख करने लगी।

कुछ महीने बाद राजकुमार ने सोचा कि देखें, आधे पैसे के साथ भारो की कैसी कट रही है। सो नया जहाज़ लेकर वह पत्नी को देखने आया। पर पुराने जहाज़ में न उसे भारो मिली और न कोई और। उसने सोचा कि बेचारी डूबकर मर गई होगी। वह वापस जाने को ही था कि उसकी नज़र तट पर खड़े आलीशान महल पर पड़ी। महल क़रीब-क़रीब पूरा बन गया था। उसकी उत्सुकता जागी। जहाज़ का लंगर डाल दिया गया। राजकुमार मज़दूर के भेष में वहाँ गया और काम माँगा। बूढ़ा मछुआ सपरिवार वहीं रहता था और निर्माण कार्य की देखरेख में भारो का हाथ बँटाता था। वह राजकुमार को भारो के पास ले गया। भारो मरदाने कपड़ों में थी, सो राजकुमार उसे पहचान नहीं पाया। पर भारो ने उसे देखते ही पहचान लिया। हालाँकि भारो ने यह ज़ाहिर नहीं होने दिया। उसने पति से अजान आदमी की तरह बरताव किया और काम पर रख लिया। राजकुमार को भारी काम देने के लिए उसका मन नहीं माना। सो उसने उसे इमारत की देखभाल का जिम्मा सौंपा। भारो ने उसे अपने घर पर ही रखा। शाम को भारो ने नौकरों को आदेश दिया कि वे राजकुमार को उसके साथ ही खाना परोसे। राजकुमार ने मालिक के साथ बैठकर खाने से मना कर दिया। भारो ने आग्रहपूर्वक उसे पहले खाने को कहा (प्रथा अनुसार जैसा कि पत्नी को करना चाहिए)। न चाहते हुए भी राजकुमार को पहले खाना पड़ा। दयालु स्वामी के विचित्र व्यवहार से वह उलझन में पड़ गया। कुछ ही दिनों में महल बनकर तैयार हो गया। महल की सजावट और ज़रूरी असबाब ख़रीदने का काम भारो ने बूढ़े मछुए और राजकुमार को सौंपा। राजकुमार की रुचि बहुत परिष्कृत थी। उसने सर्वोत्तम साज-सामान ख़रीदा। महल की ख़ूबसूरती को चार चाँद लग गए।

बाक़ी मज़दूरों और कारीगरों को भारो ने विदा कर दिया, पर राजकुमार को उसने कुछ दिन और रुकने को कहा। एक दिन भारो ने अपनी सबसे अच्छी साड़ी पहनी और बेशक़ीमती गहनों से अपना सिंगार किया। फिर उसने राजकुमार को अपने कक्ष में बुलाया। राजकुमार भीतर आया तो अपनी पत्नी को वहाँ देखकर स्तब्ध रह गया। “मैं सपना तो नहीं देख रहा? क्या यह भारो ही है?” कुछ पल बाद वह बोलने के लायक हुआ तो उसने उससे पूछा कि यह सब क्या है। तब भारो ने उसे बताया कि उसके जाने के बाद कैसे वह एक दिन भूखी रही, कैसे उसे पल्लू में बँधा आधे पैसे का सिक्का मिला, वह नहीं जानती वह किसने बांधा, कैसे वह नाकुछ सिक्का उसने भुने हुए चने और चावल लाने के लिए बूढ़े मछुए को दिया, कैसे वे पानी में गिर गए और उन्हें मछलियाँ उदरस्थ कर गईं, कैसे मछलियों ने तट पर मोहरें उगलीं और कैसे उसने यह महल बनवाया जिसमें वे अभी रह रहे हैं और जिसे राजकुमार ने इतनी ख़ूबसूरती से सजाया।

अब कुछ कहने की राजकुमार की बारी थी। उसने बताया कि उसने भारो से शादी क्यों की और कैसे वह उसका इम्तहान लेने के लिए उसे जहाज़ पर अकेली छोड़ गया था। वह ख़ुश था कि भारो जो कहती थी कि “डोरे-कंघी के बिना ही वह चोटी बना लेगी और एक दमड़ी पर ही गुज़ारा कर लेगी,” वह उसने कर दिखाया।

उन्होंने नया महल बेच दिया और ढेरों मोहरों के साथ अपने देश लौट गए और वहाँ जीवनपर्यंत सुख से रहे।

(साभार : भारत की लोक कथाएँ, संपादक : ए. के. रामानुजन)

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