आधे घण्टे का ख़ुदा (कहानी) : कृष्ण चन्दर
Aadhe Ghante Ka Khuda (Story in Hindi) : Krishen Chander
वो आदमी उसका पीछा कर रहे थे। इतनी बुलंदी से वो दोनों नीचे सपाट खेतों में चलते हुए दो छोटे से खिलौनों की तरह नज़र आ रहे थे। दोनों के कंधों पर तीलियों की तरह बारीक राइफ़लें रखी नज़र आ रही थीं। यक़ीनन उनका इरादा उसे जान से मार देने का था। मगर वो लोग अभी इससे बहुत दूर थे। निगाह की सीध से उसने नीचे की तरफ़ देखते हुए दिल ही दिल में अंदाज़ा किया। जहां पर मैं हूँ वहां तक इन दोनों को पहुंचे में चार घंटे लगेंगे। तब तक उसने पुर उम्मीद निगाह से घूम कर अपने ऊपर पहाड़ की चोटी को देखा। सारदो पहाड़ की बारह हज़ार फुट ऊँची चोटी इससे अब सिर्फ़ एक घंटे की मुसाफ़त पर थी। एक दफ़ा वो चोटी पर पहुंच जाये फिर दोनों के हाथ न आ सकेगा। सारदो पहाड़ की दूसरी तरफ़ गडियाली का घना जंगल था जो उसका देखा-भाला था। जिसके चप्पे चप्पे से वो उतनी ही आगाही रखता था जितना उस जंगल का कोई जंगली जानवर रख सकता है। उस जंगल के खु़फ़ीया रास्ते, जानवरों के भट्ट, पानी पीने के मुक़ाम सब उसे मालूम थे। अगर एक दफ़ा वो सारदो पहाड़ की चोटी पर पहुंच गया तो फिर अपना पीछा करने वालों के हाथ न आ सकेगा। जब वो चोटी पर पहुंच जाएगा तो उसे दूसरी तरफ़ की सरसब्ज़ ढलवानों पर गडियाली का जंगल दिखाई देगा और जंगल से परे सरहद का पुल जिसे डायनामेट लगा कर उड़ा दिया गया था।
गिरे हुए पुल के उस पार उसका अपना देस था। एक-बार वो चोटी पर पहुंच जाये। फिर उसे नीचे ढलवान के घने जंगल को तय करने में देर नहीं लगेगी। अगर पुल नहीं है तो क्या हुआ, वो बहुत उम्दा तैराक है। वो गडियाली नदी उबूर करके अपने देस पहुंच जाएगा और चोटी तक पहुंचने में उसे सिर्फ़ एक घंटा लगेगा और वो दोनों उसके दुश्मन अभी उससे चार घंटे की मुसाफ़त के फ़ासले पर थे...नहीं वो उसे नहीं पकड़ सकते। वो जवान है, मज़बूत है और चार घंटे उनसे पहले चला है। वो उसे नहीं पकड़ सकते। वो अभी इस चट्टान पर पंद्रह बीस मिनट बैठ कर दम ले सकता है और दूर नीचे खेतों से गुज़रते हुए घाटियों की तरफ़ आने वाले उन दोनों आदमियों को बड़े इत्मिनान से देख सकता है जो उसकी जान लेने के लिए आ रहे हैं। वो मुस्कुरा भी सकता है, क्योंकि वो उनसे बहुत दूर है। यक़ीनन उन्होंने उसे देख लिया है क्योंकि नीचे के खेतों से चोटी तक इस तरफ़ पहाड़ जिसके ऊपर वो चल रहा है, बिल्कुल नंगा है। बस छोटी-छोटी झाड़ियाँ हैं। सिनहते की और लालटीना की जिनमें आदमी छुप भी नहीं सकता और ज़मीन से लगी हुई पतली छदरी घास है और नीची-नीची स्याह चट्टानें। रात की बारिश से भीगी हुई और पुरानी काली फिसलवां। उस पुरानी काली से बंद पानी की बंद पानी की बू आती है और भुर-भुरी मिट्टी पर क़दम फिसलते हैं।
उसे बहुत होशयारी से आगे का फ़ासिला तय करना होगा। जभी तो उसने फ़ासले को तय करने के लिए जो आधे घंटे में बा आसानी तय हो सकता है। एक घंटा रखा है, बस उसे सिर्फ़ इस बात का अफ़सोस है कि वो नीचे के गांव से भागते वक़्त क्यों अपनी राइफ़ल साथ न ला सका... भागते वक़्त उसने राइफ़ल वहीं छोड़ दी। ये एक नाक़ाबिल-ए-माफ़ी हादिसा था मगर अब क्या किया जा सकता था? अगर उसके पास इस वक़्त अपनी राइफ़ल होती तो वो दोनों नीचे से आने वाले इस क़दर बेख़ौफ़ी से उसका पीछा नहीं कर सकते थे। वो आसानी से किसी चट्टान की ओट में दुबक कर किसी मुनासिब जगह पर उनका इंतिज़ार कर सकता था और अपनी राइफ़ल की रेंज में आते देखकर उन लोगों को गोली का निशाना बना सकता था।
मगर वो क्या करे, उस वक़्त वो बिल्कुल निहत्ता है और अब हर लहज़ा उसकी ये कोशिश होगी कि वो उनकी बंदूक़ की मार से आगे चलता रहे..! उसने तआक़ुब करने वालों के पीछे भी दूर तक खेतों को देखा और खेतों से परे से अलूचे और ख़ूबानियों के दरख़्तों से गढ़े मोगरी के गांव को देखा। एक लम्हा के लिए उसके दल के अंदर उदासी की एक गहरी सुर्ख़ लकीर खींचती चली गई। उस ख़ंजर की बारीक और तेज़ धार की तरह जिसका फल उस वक़्त मोगरी के दिल में पैवस्त था। मोगरी जो सिया के फूलों की तरह ख़ूबसूरत थी। काशिर के लिए ये ज़रूरी हो गया था कि वो मोगरी की जान ले-ले चमकती हुई गहरी स्याह आँखों वाली मोगरी। अंगारों की तरह दहकते हुए होंटों वाली, उन्नीस बरस की मोगरी वो जब हँसती थी तो ऐसा लगता था गोया सिया की डालियों से फूल झड़ रहे हैं। ऐसी महकती हुई सपेद हंसी, उसने किसी दूसरी लड़की के पास न देखी थी, हंसी जो सिया के फूलों की याद दिलाए या अचानक पर खोल कर हवा में कबूतरी की तरह उड़ जाये और वो ज़रा से खुले, ज़रा इसे बंद अंगारों की तरह दहकते हुए शरीर होंट। उन होंटों पर जब वो अपने होंट रख देता था तो उसे ऐसा महसूस होता था जैसे उसके ख़ून के बहाव में चिनगारियां सी उड़ती चली जा रही हैं। जैसे जज़्बा पिघल कर ख़ून और ख़ून पिघल कर शोला और शोला पिघल कर बोसा बन गया हो। और वो पूरी तरह मोगरी के चेहरे पर झुक जाता था। इतने ज़ोर से कि मोगरी की सांस उसके सीने में रुकने लगती और वो अपने छोटे छोटे हाथों से उसके मुँह पर तमांचे मारकर ही अपना चेहरा उसके चेहरे से अलग कर सकती थी।
"तुम पागल जानवर हो क्या काशिर!" वो हाँपते हुए कहती।
"और तुम आग हो!" वो ख़ुद अपने जज़्बे की शिद्दत से डर कर ज़रा पीछे हटता हुआ कहता।
"मेरे गांव में कोई नहीं जानता कि मैं एक दुश्मन के बेटे से प्यार करती हूँ।"
"मेरे सिपाहियों में से भी कोई नहीं जानता कि मैं गडियाली के जंगल में रोज़ किसी से मिलने जाता हूँ।"
वो दोनों गडियाली के जंगल में जीप के किसी कच्चे रास्ते पर बैठ जाते। देवदार के एक टूटे हुए तने पर। पीछे जीप खड़ी होती। सामने एक छोटी सी ढलवान की गहरी और दबीज़ घास। कोई चशमा तक़रीबन बेआवाज़ हो कर बहता था। जंगली फलों पर पानी के क़तरे गिर कर सो जाते और चारों तरफ़ बड़े बड़े सतूनों की तरह ऊँचे ऊँचे दीवार और उनके घने छतनारों में से सब्ज़ी माइल रोशनी दूर ऊँचे लटके हुए फानूसों की तरह छन-छन कर आती होती...काशिर को ऐसा महसूस होता गोया वो किसी मुग़ल बादशाह के दीवान-ए-ख़ास में बे इजाज़त आ निकला है। यहां आकर वो दोनों कई मिनट तक जंगल के गहरे सन्नाटे में खो जाते और आहिस्ता-आहिस्ता सरगोशियों में बातें करने लगते। कभी ऐसा लगता जैसे सारा जंगल चुप है। कभी ऐसा लगता जैसे सारा जंगल उनके इर्द-गिर्द सरगोशियों में बातें कर रहा है।
मोगरी, इलाक़ा ग़ैर के गांव से एक टोकरी में फल उठाए हुए गडियाली के पुल तक आती थी जो काशिर और उसके सिपाहियों की अमलदारी में था। सिया, नाशपाती, केले, आलू या बही के मब, ऊदे अंगूरों के गुच्छे या सिर्फ़ अखरोट और मकई के भुट्टे और वो छोटी छोटी ख़ुश-रंग ख़ूबानीयाँ जिन्हें देखकर सुनहरी अशर्फ़ियों का धोका होता है और मोगरी इतनी ख़ूबसूरत थी कि पुल की हिफ़ाज़त करने वाले सिपाही चंद मिनटों में उसकी टोकरी ख़ाली कर देते थे। सबसे आख़िर में काशिर आता और जब काशिर मोगरी के नज़दीक आता तो सब सिपाही हट जाते थे, क्योंकि वो जानते थे...!
लेकिन जिस दिन मोगरी की मुख़्बिरी पर इलाक़ा ग़ैर के गांव वालों ने गडियाली का पुल जो उसकी तहवील में था, डायनामेट से उड़ा दिया, उसी दिन उसे शदीद धचका सा लगा। जैसे उसके दिल के अंदर भी कोई पुल था जो डायनामेट से पुरज़े पुरज़े हो गया था और वो बाहर का पुल तो कभी न कभी फिर बन जाएगा। लेकिन अंदर का पुल कौन बना सकेगा फिर से? इसलिए वो वहशतज़दा सा हो कर पुल के टुकड़ों को इन गहरे पानियों में जाता हुआ देखता रहा। जहां लतीफ़ से लतीफ़ जज़्बे भी भारी पत्थर बन कर ऐसे डूब जाते हैं कि फिर कभी नहीं उभर सकते। वो रोना चाहता था मगर उसकी आँखों में आँसू न आ सके और वो मोगरी को गाली देना चाहता था। मगर उसकी ज़बान पर अल्फ़ाज़ न आ सके वो जानता था कि हर सिपाही की निगाह उस पर है। वो निगाह बज़ाहिर कुछ नहीं कहती। लेकिन ख़ामोश लहजे में शिकायत करती हुई मालूम होती है। जब वो उन निगाहों की ताब न ला सका तो अपनी राइफ़ल लेकर गडियाली नदी में कूद पड़ा। वो उसके सिपाही भौंचक्के हो कर उसकी तरफ़ देखते रह गए। वो नदी पार कर के गडियाली के जंगल में घुस गए।
कई दिन तक वो अकेला भूका-प्यासा उस जंगल में घूमता रहा और वो उन तमाम जगहों पर गया जहां पर वो मोगरी के साथ गया था और उन जगहों पर जा कर उसने उन तमाम जज़्बों को भुलाना चाहा जिन्होंने मोगरी की मौजूदगी में इसके लिए धुँदले-धुँदले शफ़क़ ज़ार तामीर किए थे। कई बार वो मोगरी की अदम मौजूदगी में भी यहां आया था तो भी उसे हर जगह मोगरी की अदम मौजूदगी में भी उसकी मौजूदगी का एहसास हुआ था। वो पेड़ का तना जहां मोगरी बैठी थी, उसके गिर्द इक हाला सा खिंचा मालूम होता था। मोगरी न थी। फिर भी गोया झरने के पानियों में उसकी आवाज़ की रवानी घुल गई थी। हर फूल में उसके बालों की महक थी और वो ज़मीन जहां पर वो बैठते थे, वहां से मोगरी के जिस्म की सोंधी-सोंधी महक आती थी...मगर आज वहां कुछ न था। जज़्बों के शफ़क़ ज़ार छट गए थे। पेड़ का तना महज़ पेड़ का तना था और पानी का झड़ना, पानी के झरने की तरह बह रहा था। हर चीज़ अंजानी और अजनबी और उससे अलग अलग खड़ी थी। वो चीख़ मार कर सारे जंगल को जगा देना चाहता था। मगर उसका हलक़ बार-बार घट रहा था। उसके सारे एहसासात पर इक धुंद सी छाई हुई थी, जंगल में बे-सम्त घूमते घूमते कई बार उसे ख़्याल आया कि अगर वो इस धुंद को अपने नाख़ुनों से चीर दे तो शायद अंदर से मोगरी का ज़िंदा और असली चेहरा सही-ओ-सलामत निकल आएगा। वो मोगरी जिसे वो अपने दिल से पहचानता था। मगर धुंद किसी तरह न छटी और गहरी होती गई।
जंगल में उसका दम घुटने लगा। पेड़ों का घेरा उसके लिए तंग होने लगा। उसे ऐसा महसूस होने लगा, जैसे चारों तरफ़ से जंगल के पेड़ झुक कर उस पर गिरने वाले हैं। फिर वो घबरा कर जंगल से बाहर भाग निकला और गडियाली का जंगल तय कर के वो सारदो पहाड़ की बर्फ़ीली चोटी के दूसरी तरफ़ उतर गया। जहां मोगरी का गांव था। कई दिनों तक वो भेस बदले हुए टोह लेता रहा। किसी को इस पर शुबहा न हुआ क्योंकि उसकी शक्ल-ओ-सूरत ऐसी थी जैसे इलाक़े के लोगों की होती है। उसके कपड़े भी फटे हुए थे और वो उनकी ज़बान बख़ूबी बोल सकता था इसलिए किसी को उस पर शुबहा न हुआ और वो एक दिन मौक़ा देखकर आधी रात को मोगरी के घर के उस कमरे में घुस गया जहां मोगरी सो रही थी। मोगरी कमरे में अकेली सो रही थी। उसने आहट किए बग़ैर कुंडी अंदर से चढ़ा दी। राइफ़ल कंधे से उतार कर एक कोने में रख दी और आहिस्ता-आहिस्ता दुबक कर वो मोगरी के बिस्तर के क़रीब चला गया। क़रीब जा कर उसने अपना ख़ंजर निकाल लिया। वो ख़ंजर हाथ में लिए देर तक खड़ा रहा और मोगरी की साँसों की पर सुकून आवाज़ सुनता रहा। चारों तरफ़ घुप अंधेरा था। वो मोगरी के चेहरे को नहीं देख सकता था। उसके दिल में शदीद ख़ाहिश पैदा हुई कि वो एक-बार माचिस जला कर मोगरी का चेहरा देख ले। मगर बड़ी जांकाह काविश से उसने एक अज़ियतनाक ख़ाहिश को अपने दिल में रोक दिया। देर तक वो ख़ंजर लिए जूंही खड़ा रहा और मोगरी के साँसों के इस बेआवाज़ झरने को सुनता रहा जो अब उसके दिल की तरफ़ बह रहा था। वो हौले हौले मोगरी के चेहरे पर झुक गया। बस एक अलविदाई बोसा और फिर ख़ंजर! मगर झुकते-झुकते उसके सांस की रफ़्तार तेज़ होती गई। उसके दिमाग़ में सनसनाती हुई गूँजें सी चारों तरफ़ फैलने लगीं और उसने अपने जलते हुए काँपते हुए होंट मोगरी के होंटों पर रख दिए...मोगरी के सारे जिस्म में इर्तिआश सा पैदा हुआ। उसे महसूस हुआ, जैसे मोगरी चीख़ मारने को है मगर उसने ऐसी मज़बूती से अपने होंटों को मोगरी के होंटों से मिला रखा था कि चीख़ मारने का सवाल ही न पैदा होता था। पहले तो मोगरी का सारा जिस्म बर्फ़ की तरह सर्द होने लगा और हमेशा यूंही होता था। उसे इस से पेशतर के बहुत से रंगीन और ख़ूबसूरत लम्हे याद आए। जब मोगरी प्यार करते करते यकलख़्त उसके बाज़ुओं में सर्द पड़ जाती थी और कई लम्हों तक उसकी यही कैफ़ियत रहती थी जैसे वो दिल-ओ-जान से उसकी मुज़ाहमत कर रही हो। फिर हौले-हौले उसके बोसों की आँच से उसका सारा जिस्म गर्म होने लगता हौले-हौले गोया बर्फ़ पिघलने लगती और बदन में अंगड़ाइयाँ और फिर फुरेरियां जागने लगतीं और गर्म-गर्म सांस आँच की तरह पिघलने लगता और वो बेइख़्तियार हो कर काशिर से लिपट जाती और अपने बाज़ू उसकी गर्दन में हमायल कर देती। मोगरी के दिल के अंदर ग़ालिबन मुहब्बत और नफ़रत का हर-आन बदलता हुआ मीज़ानिया सा चलता रहता था। अपना दुश्मन समझ कर वो उस से नफ़रत करती थी। अपना महबूब समझ कर उससे मुहब्बत करती थी और कभी किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी थी। इस वक़्त भी यही हुआ। मोगरी का सर्द पड़ता हुआ ख़ौफ़ज़दा और अपने आप में अकेला जिस्म धीरे-धीरे लौ देने लगा। जैसे अंग-अंग से रोशनी फूट निकले। ऐसी रोशनी जिसे आँखें नहीं देख सकतीं सिर्फ़ हाथ महसूस कर सकते हैं।
मोगरी ने यक़ीनन उस बोसे को पहचान लिया था। ख़ूबसूरत और पुर ख़तर ज़िंदगी बसर करने वाली औरत की ज़िंदगी में बहुत से बोसे आते हैं। दीमक की तरह चाट जानेवाले बोसे और जोंक की तरह चिमट जानेवाले बोसे। रूखे-सूखे पापड़ नुमा बोसे और ऐसे लिजलिजे और गंदे बोसे गोया होंटों पर कीड़े चल रहे हों। शरमाए हुए सहमे हुए बोसे और ख़ौफ़ज़दा कमज़ोर और बीमार बोसे और सेहत मंद और शरीर बोसे। मोगरी ऐसी ख़ूबसूरत औरतों को हर क़िस्म के बोसों से वास्ता पड़ता था। मगर वो ये भी जानती हैं कि उनमें से कौनसा बोसा ऐसा होता है जो दिल पर दस्तक देता है। सिर्फ़ उसी दस्तक के जवाब में वो बोसे को जवाब में बोसा देती हैं। वर्ना सिर्फ होंट पेश करती हैं। मगर इस बार मोगरी सिर्फ़ चंद लम्हों के लिए बर्फ़ की तरह ठिठुरी रही। फिर उसने अपने ऊपर झुके हुए होंटों के लम्स को पहचान लिया और पहचान कर भी गो वो चंद लम्हों के लिए वहशतज़दा और ठिठुरी सी रही मगर हौले हौले उसकी मुग़ाइरत दूर होती गई। आधी रात के नीम गर्म अंधेरे में किसी ग़ैर मुतवक़्क़े ख़ुशी से उसकी सारी रूह काँप उठी और वो ख़ुद से काशिर की बाँहों में आ गई और इस तरह आई जैसे अब तक कभी न आई थी। काशिर ने महसूस किया जैसे आसमान ज़मीन पर उतर आया हो और ज़मीन लंबे-लंबे सांस लेकर हांपने लगी। एक शोला सा था जो बर्फ़ की पहनाई में डूब रहा था। बर्फ़ की टूटती हुई टुकड़ियां गुलाब की बिखरी हुई पत्तियाँ। सिसक-सिसक कर सुलगता हुआ संगीत...जिस्म के हिसार को तोड़ने की काविश में उफ़्तां-ओ-ख़ीज़ां। यकायक हिसार टूट गया...मछलियाँ तूफ़ान में बह गईं। बहुत सारे चिराग़ इक-दम गुल हो गए। फिर सारे एहसास नीम ग़नूदगी की सब्ज़ झील में खो गए... जब वो जागा तो इसी तरह घुप अंधेरा छाया हुआ था और मोगरी उसकी बाँहों में बेख़बर सो रही थी। जाने उस बेख़बरी में कब काशिर ने ख़ुद अपने हाथ का ख़ंजर अपने पहलू में रख लिया था...
उसने पहलू बदल कर आहिस्ते से ख़ंजर निकाला। आहिस्ते से मोगरी नींद में कसमसाई। झुके हुए काशिर को मोगरी का हाथ अपनी पीठ पर महसूस हुआ। थपकता हुआ। नींद की तर्ग़ीब देता हुआ। पेशतर इसके कि वो फिर अपने जज़्बात के धारे में बह जाये, उसने एक ही झटके से पूरा ख़ंजर हत्थी तक मोगरी के दिल में उतार दिया। मोगरी चीख़ भी न सकी। हौले-हौले उसका काँपता हुआ जिस्म ठंडा होता गया। मगर काशिर ने मोगरी को बहुत देर तक अपने जिस्म से अलग नहीं किया। हौले-हौले काशिर के जिस्म ने मोगरी के मरते हुए जिस्म के हर इर्तिआश को अपने अंदर जज़्ब कर लिया और जब मोगरी का जिस्म बिल्कुल ठंडा हो गया तो उसने मोगरी के जिस्म को अपने जिस्म से अलग कर दिया। इस ठंडे होंटों को फिर इस तरह बोसा दिया जैसे वो किसी क़ब्र को बोसा दे रहा हो। फिर कुंडी खोल कर बाहर आँगन में आया और तेज़ तेज़ क़दमों से चलते हुए वो आँगन की दीवार फलाँग कर एक अहमक़ की तरह सरपट भागने लगा क्योंकि अब उसके दिमाग़ की हर रग और नस ताँबे के तारों की तरह झनझना रही थी और जिस्म के रोएँ-रोएँ में ख़तरे की घंटियाँ बज रही थीं।
ये उसकी ख़ुशक़िस्मती थी कि सारा गांव नींद में डूबा हुआ सो रहा था। किसी ने उसके जिस्म में बजती हुई ख़तरे की घंटियों की पुर-शोर सदा को नहीं सुना और वो खेतों से निकल कर सारदो पहाड़ की चढ़ाई चढ़ने लगा। सुबह जब मोगरी के भाईयों ने मोगरी की लाश देखी और दीवार से लगी हुई राइफ़ल को पहचाना तो उसका तआक़ुब किया। मगर अब तक उसे चार घंटे का स्टार्ट मिल चुका था।