आधार और प्रेरणा (कहानी) : धर्मवीर भारती
Aadhar Aur Prerna (Hindi Story) : Dharamvir Bharati
सुगन्धित धूम्र की रेखाएँ शून्य पट पर लहराकर अनन्त में मिलने लगीं। शमी की झूलती हुई कोमल शाखाओं में गूंज उठा ऋचागान। बालक के स्वर में स्वर मिलाकर बालिका भी ऋचाएँ गाने लगी। उसका स्वर इतना मीठा था कि डाल पर बैठी कोयल जाकर चुप हो गयी । हरिण शावक तृण चरना भूलकर यज्ञमण्डप में आ बैठे। पास के लताकुंज से सारिका उतरकर बालिका के कन्धे पर आ बैठी। उसके स्नेह से धृष्ट बनी सारिका ने उसके स्वरों का अनुकरण करना चाहा, पर असफल होकर उड़ गयी। सहसा उसके पंख शमी की कंटंकित टहनियों में उलझ गये और वह व्यथित स्वरों में क्रन्दन कर उठी ।
व्याकुल होकर बालिका ने गान बन्द कर दिया और पलकें खोल दीं। सामने की टहनियों में उलझ गयी थी उसकी भोली सारिका ।
“शिखर ! शिखर ?' वह चीख पड़ी - “देखो, शमी की टहनियों में फँसकर मेरी सारिका के पर टूट न जायँ ।”
" तुम्हें इसका भी ध्यान है, सरिता, कि तुम्हारी बातों में फँसकर मेरी ऋचाओं के स्वर टूट न जायँ - मुझे ऋचापाठ करने दो !”
बालक ने फिर शान्ति से ऋचाएँ पढ़नी प्रारम्भ कीं ।
“मैं उतनी दूर न पहुँचूँगी शिखर ! देखो, कैसी तड़फड़ा रही है असहाय सारिका ।”
“सारिका ! सारिका ?” शिखर झल्लाकर बोला- “तुम्हें और भी कोई कार्य रहता है ?" बालक ने सारिका के परों को टहनियों से छुड़ा दिया। वह पास की एक डाल पर बैठकर गाने लगी ।
सरिता हँस पड़ी -बालक और भी चिढ़ गया ।
“मैं कल गुरुजी से कह दूँगा कि तुम्हें यज्ञमण्डप में न आने दें। ” – शिखर बोला ।
“वह रहे पिताजी ?” सरिता ने झुरमुटों की ओर इंगित किया ।
“कौन ? गुरुजी ?” निमिष मात्र में दोनों अपने आसन पर आ बैठे और पूर्ववत् ऋचापाठ करने लगे ।
ऋषि ने दूर से यह देखा और मुसकरा दिया ।
सरिता सिसकियाँ भर रही थी और ऋषि उसे सान्त्वना दे रहे थे। शिखर कुछ न समझ कर मौन खड़ा था ।
" शिखर !" शान्त स्वरों में ऋषि बोले, “आज मेरी साधना का अन्त है, वत्स, और तुम्हारी साधना का आरम्भ । मैं अब सन्यास ग्रहण करूँगा और तुम मेरे आश्रम और सरिता की रक्षा करना।” शिखर ने सादर शीश झुका दिया।
" जीवन से विमुख न होना, वत्स, और न जीवन से हार मानना ! दुःख के प्रत्येक आघात में सुख की छाया ढूँढ़ना - निशीथ के तम में ऊषा की किरणें खोजना। शिखर, उस तम से हारकर पथरीले मार्ग पर ठोकरें न खाना ।
मन्द स्वर में सामगान करते हुए ऋषि चल पड़े। दूर पर लता-झुरमुटों के पार से आता हुआ उनका स्वर धीरे-धीरे मन्द होकर शून्य में मिल गया ।
सरिता अब भी सिसक रही थी। शिखर मौन था ।
“सरिता ! आ जाओ !
सरिता पर्णकुटी के पट खोलकर भीतर आ गयी ।
“आश्चर्य है शिखर ! मैंने तुम्हें पुकारा तो नहीं था फिर भी तुमने कैसे जान लिया कि मैं द्वार पर हूँ !"
“इसमें आश्चर्य क्या है ?" - शिखर हँसकर बोला। “तुमने आज शिरीष कलिकाओं का नूपुर पहना है न ।”
“पर मैं तो इन नूपुरों को मौन कराती चल रही थी कि कहीं पास के नीड़ों में प्रसुप्त विहग-शिशु चौंक कर जग न जायँ फिर शिरीष कलिकाओं के नूपुरों की झंकार भी मूक ही होती है शिखर ! - सरिता बोली ।
“कुछ वस्तुएँ ऐसी होती हैं सरिता ! जो मूक होकर भी बोल उठती हैं । तुम्हारे चरणस्पर्श से इन कलियों में जो स्पन्दन बोल उठा, जो उमंगें जग उठीं, उनकी हिलोरों ने पवन के संग उड़-उड़कर मेरी दीपशिखा को कँपा दिया और सिहरते प्रकाश में काँप उठनेवाले अक्षरों में मैंने पढ़ ली तुम्हारे आगमन की पूर्व सूचना ।”
सरिता खिलखिलाकर हँस पड़ी, “तो यह कहो कि अब ऋषिजी ध्यान छोड़कर कविता करने लगे !"
“हाँ सरिता, ध्यान और उपासना में तो ईश्वर की कल्पना ही कल्पना रहती है, पर कविता के स्पर्श से तो प्रस्तर भी देवता हो जाता है !'
सहसा पट पर किसी ने अंगुलि प्रहार किया ।
सरिता ने उठकर कपाट खोल दिये । - “ कौन ! स्वामीजी ?” उसने झुककर चरण स्पर्श किये और बाहर चली गयी। शिखर ने अपना आसन छोड़ दिया । स्वामीजी उस पर बैठ गये । बाहर जाती हुई सरिता की ओर उन्होंने ध्यान से देखा और बोले-
“शिखर ! मलयशिखरों पर चन्दन होता है न ?”
“हाँ, स्वामी ?”
“यदि वह चन्दन झोकों के साथ सुगन्धरूप में न बिखरकर उन्हीं मलय- उपत्यकाओं में भटकता रह जाय तो संसार में उसे कौन जान पायेगा । और यदि उस उमड़ते हुए सुबास को दो-चार कोमल पल्लव अपने बन्धन में बाँध रखना चाहें तो ?
“स्वामी, चन्दन का स्वभाव ही विस्तार है। वायु के प्रबल झकोरे उस सुगन्ध को उन पल्लवों की सीमा से छुड़ाकर बिखेर देंगे अनन्त आकाश में !"
"बहुत सुन्दर शिखर ! किन्तु मैं देखता हूँ तुम्हारे मन के अक्षत-चन्दन किसी 'विशेष व्यक्तित्व की ही पूजा में सीमित हो गये हैं वत्स ! क्या मैं आशा करूँ कि कोई 'पवन का झकोरा' उसे इन्द्र बन्धनों से छुड़ा पायेगा ?"
शिखर समझा और समझकर भी न समझा ।
स्वामीजी ने ध्यान से देखा उसके मुख की ओर और बोले - “शिखर ! यदि यह प्रेम, यह पूजा, यह अर्चना मनुष्य के स्थान पर तुम देवता के प्रति करते तो तुम्हें स्वर्ग मिल गया होता युवक ! स्त्री प्रभात की ओस होती है, जिसे सूर्योदय होते ही सूरज की किरणें हर ले जाती हैं और दूर्वादल प्यासी दृष्टि से देखते रहते हैं नीलाकाश की ओर । यदि वे दूर्वादल ओस के स्थान पर किरणों से प्रेम करते तो उन्हें अनन्त प्रकाश मिलता। आकाश से प्रेम करते तो उन्हें असीम आश्रय मिलता...।"
"पर स्वामीजी,” शिखर बात काटकर बोला- “उन्हें ओस की सजलता न मिल पाती, उन्हें किरणों का ताप ही मिलता, उन्हें आकाश की शून्यता ही प्राप्त होती, वे जीवन की हरियाली से अपरिचित ही रह जाते !"
“जीवन की हरियाली ! तुम्हारी भूल है शिखर ! उस हरियाली का क्या आश्रय ढूँढ़ना जो क्षणभंगुर है- नश्वर है । इस दुःख की रजनी से निकलकर उस दीपक की खोज करो शिखर ! जो तुम्हें अनन्त प्रकाश दे सके।”
स्वामीजी चले गये, पर उनके शब्द जैसे अब भी शिखर के मन में गूँज रहे थे !
“मैं मनुष्य के स्थान पर ईश्वर की पूजा करूंगा, मैं सीमित न रहकर असीम बनूँगा, मैं प्रेम के स्थान पर स्वर्ग की कामना करूँगा !" शिखर ने निश्चय किया ।
प्रभात में सरिता ने देखा - पर्णकुटी के कपाट खुले थे । सम्भवतः शिखर गया है स्नान के लिए। वह प्रतीक्षा करती रही...किन्तु... ।
“जाओ शिखर ! तुम देखना सरिता तुम्हारे मार्ग में बाधक न बनेगी। ओस नश्वर होती है, पर वह स्वयं गिरकर भी फूलों में मादक सौरभ भर जाती है। मैं मिदूंगी शिखर, पर तुम्हारा सौरभ पल्लवों में उलझकर न रह जायगा। जाओ, जाओ मेरे देवता ?' उसने रोकर हृदय थाम लिया और चुप हो रही ।
शिखर अब शिखर से आचार्य शिखर हो चुका था। चार ही वर्ष की साधना में वह योग की सिद्धि कर चुका था । भावनाओं के तुच्छ प्रवाह को उसने बुद्धिबल से जीत लिया था। बस एक यत्न और-और फिर स्वर्ग उसके चरणों पर लोटेगा ।
उसकी समाधि सहसा भंग हो गयी। पास के वृक्ष पर एक नीड़ था। युगल पक्षी उड़-उड़ कर आहुतियों से गिरे हुए यव बीन-बीन कर लाते थे और विहग- शिशु कलरव कर उनका स्वागत करते थे। योगी शिखर ने देखा । वह कलरव जैसे उसके मन के झुरमुट में गूँज उठा। उसने सोचा- कितना आनन्द, कितना उल्लास है इनमें । पर ये छोटी-छोटी भावनाएँ हैं- ये भ्रम हैं, माया हैं, मिथ्या हैं ।
पर यदि यह मिथ्या है तो सत्य क्या है ? सत्य है योग - तप साधना । संसार झूठा है । स्वर्ग की कामना ही मनुष्य के अन्तर्विकास की प्रेरणा है ।
किन्तु यह उल्लास ! यह आनन्द ! यह भी तो क्षणिक ही है।
किन्तु क्षणिक होते हुए भी इनमें कितना आनन्द है- कितना तेज है ! इस लम्बी साधना का एक क्षण भी इतना मधुर न हुआ होगा। इस संयम, इस साधना में उसने पाया क्या ? केवल श्वासों का नियन्त्रण मात्र - केवल शारीरिक शक्तियों का वशीकरण भर। पर मन का स्पन्दन - वह तो इन बन्धनों में ही घुटकर रह गया । इस निष्फल साधना के स्थान पर किसी के तप्त हृदय पर वह अमृत वर्षा करता, . किसी तृषित के ओठों पर लोचनों का नीर ढालता, किसी के हृदय के तम में जलाता प्रेम का दीपक, तो क्या वह क्षण भर का उल्लास स्पृहणीय न होता ! जीवन दुःख की रजनी है। इस रजनी से निकलकर उसने ढूँढ़ा था स्वर्ग का दीपक, पर देखा - इस दीपक के तले भी अँधेरा ही अँधेरा ।
और सुख ? प्रेम के उस स्वर्ग में क्या उसे सुख न था ? क्या सरिता को सुख न था ? क्या स्वर्ग की साधना में काँटों से बचने के लिए उसने सरिता का प्रेम पैरों तले नहीं बिछा दिया था ? क्या यह त्याग उसके मन की दुर्बलता नहीं थी ? उसे याद आये ऋषि के अन्तिम शब्द, “दुःख के प्रत्येक आघात में सुख का आभास खोजना - निशीथ के तम में ऊषा के किरणें खोजना, शिखर ठीक है, जीवन के उन दुःखों को, प्रेम की उस नश्वरता को ही वह अमर बना लेगा। सरिता को आधार बनाकर वह फैला देगा तृषित ब्रह्माण्ड में प्रेम का सौरभ ।
वह चल पड़ा अपने आश्रम की ओर-
साफ-सुथरी पगडण्डियों पर वन- गुल्म उग आये थे । लताकुंज सूने थे उनमें मृगशावक दृष्टिगोचर न होते थे। डालों पर विहग निराश मुद्रा में बैठे थे। विचित्र नीरवता ने जैसे उस समस्त हरियाली पर दुर्भेद्य तम का रहस्यमय आवरण डाल दिया था।
“क्या सरिता कहीं चली गयी ?" कुटी के द्वार पर जाकर उसने पुकारा- “सरिता !”
"कौन ?”
“मैं हूँ शिखर ।”
सरिता मौन थी । कोई प्रत्युत्तर न मिला ।
“क्या मुझे भूल गयीं सरिता ? मैं हूँ तुम्हारा शिखर ।”
सरिता बोली, जैसे मन के किसी भारी आवेग को शान्त करने का प्रयत्न कर रही हो-
" तुमने बहुत देर कर दी शिखर ! मैंने भी तप की दीक्षा ले ली है।"
शिखर पर जैसे वज्रपात हो गया - “सरिता ! तप व्यर्थ है, यह मेरा अनुभव है। व्यर्थ की मृग तृष्णा में अपने जीवन को न खोओ ! प्रेम की दो बूँदें तप की इस विशाल सैकतराशि से श्रेष्ठतर हैं सरिता ?"
“प्रेम !” सरिता जैसे जलकर बोली- “मै खूब समझती हूँ। अपनी कामना, अपनी वासना के आवेग की अपने प्रेमास्पद के द्वारा तृप्ति का ही नाम तो प्रेम है न ?”
“तुम भूल रही हो सरिता !"
“मैं भूल रही हूँ या तुम भूल रहे हो ! याद करो शिखर, जब तुम स्वर्ग के पीछे किसी को ठुकराकर चले गये थे तो क्या क्षण भर को भी सोचा था कि तुम किसी का स्वर्ग उजाड़कर जा रहे हो ! यही तुम्हारा प्रेम था शिखर ?”
“वह मेरा प्रेम न था सरिता ! वह मेरी भूल थी । पर क्या तुम उसके लिए क्षमा नहीं कर सकतीं ?"
“क्षमा का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। सरिता अब स्वर्ग की साधना करेगी। उसकी प्रेम की भूख मर चुकी है। उसने जी भर प्रेम का रहस्य समझ लिया है ?"
“प्रेम का रहस्य !” शिखर हँसा - उसकी हँसी सुनकर डालों पर झूलते हुए विषधर सहम गये - " तट के हलकोरों से घबड़ाकर बालू में फँस जाने वाली सीपी कहती है कि मैं सागर की थाह ले आयी ! अपने को डुबोकर ही इस सागर के तल तक पहुँचा जा सकता है सरिता ! प्रेम सरिता की नश्वर लहरों की तरह टूट नहीं जाता। वह शैलशिखरों पर खिंची हुई रेखाओं की तरह अमर रहता है नारी ! मैं तुम्हारे बिना भी प्रेम की साधना कर सकता हूँ सरिता !"
“ अवश्य शिखर, कोई दूसरी सरिता मिल जायगी !”
“उफ ! इतना तीखा व्यंग न करो स्वर्ग की देवी ! मुझे किसी की आवश्यकता नहीं है। प्रेम केवल नारी की प्रेरणा चाहता है, नारी का आधार नहीं । अनन्त आकाश के किसी कोने में दो-चार बदलियाँ मिलकर उभार देती हैं एक तूफान - पर फिर उस तूफान को बहने के लिए उन बदलियों का सहारा नहीं ढूँढ़ना पड़ता। वे बदलियाँ पतझड़ के पीले पत्तों की भाँति उड़ जाती हैं उस तूफान में आसमान के तारे काँप उठते हैं झंझा में। तुम स्वर्ग की साधना करो सरिता- मैं तुम्हारी स्मृति के सहारे अपने उजड़े संसार को ही स्वर्ग बना लूँगा... !"
पट बन्द के बन्द रहे। पथिक निराश चल दिया।
कुटी के अन्दर - सरिता ने सुनी - शिखर की क्षण-क्षण दूर होती जानेवाली पदध्वनि। उसके मन का दबा आवेग उभर आया। जल की जिस लहर को पकड़ने के लिए जन्म से वह बैठी थी, सागर तट पर वही लहर उसी के हृदय के पत्थरों से टकराकर चली जा रही है दूर, पर उसके हाथ हिलते ही नहीं । सिसककर वह बोली-
“जाओ देवता ! तुम कभी न समझोगे सरिता ने तुम्हें क्यों लौटा दिया। क्षण भर के उल्लास के लिए सरिता तुम्हारी साधना को तोड़ना नहीं चाहती थी । आकाश को अपने बाहुपाशों में कसकर वह उसकी अनन्तता को नष्ट नहीं करना चाहती थी। तुम जाओ, मेरी स्मृति के काँटे चुभ-चुभकर तुम्हारे मार्ग को प्रशस्त बनावेंगे।"
उसका क्षीण स्वर दीवारों से टकराकर खो गया ।
झाड़ियों को चीरता हुआ, काँटों को कुचलता हुआ शिखर चला जा रहा था न जाने किस ओर !
“शिखर ! शिखर ! पीछे से किसी ने पुकारा- वह न रुका।
“ठहरो शिखर !” शिखर ने मुड़कर देखा - दो देवदूत ।
“शिखर ! तुम्हें स्वर्ग ने स्मरण किया है।”
शिखर हँस पड़ा, “स्वर्ग भी व्यंग्य का अवसर नहीं चूकता - जब मैंने स्वर्ग की साधना की तो मुझे मिली अशान्ति, संघर्ष और शुष्कता; और आज जब मैं प्रेम की ओर बढ़ रहा हूँ तो मेरे सम्मुख आता है स्वर्ग ।”
"व्यंग्य की कोई भावना नहीं है स्वर्ग में शिखर ! एक देवदूत बोला- “जब तुम दुःखों से हार कर स्वर्ग की कामना करते थे तो स्वर्ग तुम्हारी दुर्बलता पर हँसता था, आज जब स्वर्ग को ठुकराकर तुम चल पड़े हो प्रेम के मार्ग पर तो स्वर्ग अपने भविष्य पर काँप उठा है। भय है कि स्वर्ग की नींव, यह संसार, कहीं तुम्हारे लोचनों के नीर से बह न जाय। स्वर्ग तुम्हें आश्रय नहीं दे रहा है, वह स्वयं तुमसे आश्रय की भीख माँगता है शिखर ?'
“शिखर भूल को बारम्बार नहीं दुहराता, तुम जा सकते हो देवदूत !” देवदूत निराश हो लौट चले । पास की कुटी में सरिता सिसक रही थी । भोले देवदूत- वे क्या जानें उसके मन की व्यथा करुण स्वर में एक बोला- “स्वर्ग के देवता को द्वार से लौटाकर न जाने किस स्वर्ग की कामना करती है पागल नारी ?"
बादल के पटों को चीरकर वे उड़ चले स्वर्ग की ओर, सन्ध्या के धुँधले प्रकाश में झाड़ियों के बीच से शिखर चला जा रहा था न जाने किस ओर। उसकी गति में गौरव था ।
एक देवदूत बोला-“काश ! हम भी मनुष्य होते साथी ।”
“तो हमारे ये झिलमिल पंख गल गये होते उस ज्वाला में ? प्रेम की इतनी भीषण प्रेरणा और जीवन की इस आधार शून्य यात्रा का भार मनुष्य ही वहन कर सकता है । " - दूसरे ने उत्तर दिया।