आदम यूँ ही बदनाम नहीं (कश्मीरी कहानी) : चमनलाल हक्खू
Aadam Yun Hi Badnam Nahin (Kashmiri Story) : Chaman Lal Hakhoo
वसंत ऋतु । हिमाचल की पहाड़ियों में आँख-मिचोली खेलते मेघ। कभी चमचमाती धूप तो कभी तेज वर्षा । ढंग से काम करने का अवसर ही न मिला। यह हमारा तीसरा दिन था।
फिल्म-शूटिंग के उद्देश्य से हम यहाँ बंबई से आए थे। दल के सभी सदस्य प्रसन्नचित्त थे। कैमरा-चालक तथा उसके सहयोगियों द्वारा यंत्रों की जाँच हो रही थी। रूप-सज्जा करनेवाले, प्रसाधन-सामग्री स्थानीय कलाकारों पर आजमा रहे थे। पटकया एवं संवाद-लेखक दृश्य को नए सिरे से लिखने के बहाने सुरापान में मग्न थे। मुख्य कलाकार तथा हीरो-हीरोइन जैसे कई दिनों की थकान उतार रहे हों। नाश्ते के बाद विधाम, भोजनोपरांत विश्राम तथा गोधूलि में सैर-सपाटा। रात्रि-भोज के बाद भी आराम ही आराम।
हमारे आने से इस पहाड़ी क्षेत्र में रौनक और भी बढ़ गई थी। हमारे दल में कुल मिलाकर पचास व्यक्ति थे। यहाँ के सरकारी रेस्ट हाउस में बहुत दिनों बाद चहल-पहल हुई थी-कमरों में प्रकाश, बरामदे में गुल-गपाड़ा तथा रसोईघर में बरतनों का खनकना।
यूनिट के सदस्य जितने प्रसन्न थे, उतना ही में चिन्तित था। वे परिहास करते, मैं लंबी साँसें भरता। वे मसखरी करते और में खीझ उठता। कारण? मैं इस दल का एक जिम्मेदार व्यक्ति, प्रोड्यूसर का प्रतिनिधि, रोकड़िया तथा फिल्म का निर्देशक था।
मैंने निर्धारित किया था कि यहाँ एक सप्ताह रहेंगे। पर आज तीसरा दिन था-बेकार और बेमतलब। चैत्र की वर्षा ने सुंदर क्षेत्र में हर तरफ कीचड़ ही कीचड़ कर दी थी। नदी-नाले गरज रहे थे। दर-दीवार नम।
हम कई तरह के प्रबंध कर चुके थे। शूटिंग-स्थल का चुनाव, बिजली-विभाग, पुलिस, अस्पताल तथा तहसीलदार आदि सभी से बात हो चुकी थी। स्थानीय भजन-मंडली और रामलीला-दल को भी सूचित किया गया था कि वे छुट-पुट अभिनय के लिए तैयार रहें।
रामलीला-दल के अभिनय हेतु कलाकारों को चुनना काफी मनोरंजक रहा था। दर्जनों किशोर साफ-सुथरे वस्त्रों में, तिल्लेदार हिमाचली टोपी तथा कश्मीरी फिरन जैसे ऊनी चोगों पर कमरकस बाँधे हुए आ गए थे-कुछ मुच्छड़ तो कुछ सफाचट, दुबले-पतले, हष्ट-पुष्ट, मंगोलों के वंशज, कुछ चालाक, कुछ शर्मीले और कुछ ठग जैसे।
किशोरियाँ चोटियाँ उछालती प्रायः चुन्नी में अपना मुँह छिपातीं और आँखों-आँखों में एक-दूसरी से बात करतीं। कभी लजातीं तो कभी शहरी लड़कियों की तरह फुर्ती दिखातीं। अधेड़ उम्र की महिलाएँ हँसतीं और मुस्कुरातीं।
वातावरण आनंददायक था, पर आकाश रुष्ट। सुबह का समय। मैं विश्राम-गृह के बरामदे में आया हूँ। बरामदे के एक तरफ रामलीला-दल के कुछ कलाकार बैठे हैं। एक युवक हनुमान की वेश-भूषा धारण किए, चेहरे पर लाल रंग पोत कर, चिल्ला-चिल्लाकर संवाद कह रहा था। दूसरा युवक ढोलक पर थाप दे रहा था। हमारी फिल्म के हीरो तथा हीरोइन एवं कुछ तकनीशियन कुर्सियों पर बैठे यह सब देख रहे थे। पीछे, इन सब से अलग दो महिलाएं खड़ी थीं। मैंने ध्यान से देखा। उनमें से एक लंबे कद की थी-छरहरा बदन, छोटी-छोटी आँखें, दबी हुई नाक। नायलोन की मामूली-सी चुन्नी, बारिश में भीगा ब्लाउज और पुरानी-सी ऐनक पहने वह तमाशा देख रही थी और अपनी दरिद्रता का प्रदर्शन भी। दूसरी थी उम्र से कम, हष्ट-पुष्ट, कद में छोटी, चेहरा लाल, दबी हुई नाक किन्तु मोटी, आकर्षक आँखें, पीठ से नीचे तक खुले बाल, चेहरे पर आभा, सुडौल, सच में ही सुंदर, छिप-छिप के हँसती और लजाती हुई। प्रोडक्शन मैनेजर तुकाराम सतवे भागा-भागा मेरे पास आया और कहने लगा, “सर, पुलिस चौकी पर सूचना है कि आज से मौसम साफ रहेगा। हम आज से शूटिंग कर सकते हैं।"
पुलकित हो मैंने आदेश दिया, “यूनिट को सावधान करो-रिपोर्ट ऑन लोकेशन। सारा साज-सामान और सभी कलाकार एकदम से पहुँच जाएँ। आज दुल्हन की विदाई का दृश्य होगा। नाश्ता शूटिंग-स्थल पर होगा। समझे?" जैसे मन का कोई बोझ हल्का हुआ हो।
देखते-ही-देखते खली धूप निकल आई। सारा शूटिंग-स्थल चाँदी-सा चमकने लगा। किसी प्राचीन जाति-वर्ग का ग्राम। चार-पाँच बड़े दुमंजिले मकान, स्लेट और लकड़ी की बनी छतें। भीतर दीवारें चूने से पुती हुई। खिड़कियाँ और दरवाजे गेरू से रंगे हुए। पशुधर एवं अनाज के कोठार सटे हुए। पाँच-छह घरों के बीच एक विशाल साफ-सुथरा आँगन जिसमें पत्थर बिछे हैं। पहाड़ों के मध्य यह गाँव एक समतल जगह पर है, चारों ओर से कीकर, बबूल, नीम तथा शीशम के पेड़ों से घिरा हुआ। लता-कुंजों से परिपूर्ण यह वन वसंती हवाओं में झूम रहा था। नीले आकाश में श्वेत बादल जैसे नीचे का नजारा देखने थम गए हों। दृश्य को फिल्माने की तैयारी हो रही थी।
मैं सरपंच पंडित ब्रज नारायण शर्मा से मंत्रणा करने लगा। उसके साथ चार-पाँच लोग और भी थे-गाँव के बड़े-बूढ़े। ये लोग हमें पूरा सहयोग देने को तैयार थे। उनके घरों के बरामदे, निचले कमरे, चारपाइयाँ, चटाइयाँ आदि सब उपलब्ध होता रहेगा-यह उन्होंने आश्वासन दिया था। बदले में हमें पूरे गाँव के लिए फिल्म की शूटिंग होते समय खाने-पीने की व्यवस्था करनी थी
और काम पूरा होने पर गाँव के लिए एक टेलीविजन सेट देना था। बच्चों को खुश करने के लिए एक-एक सौ रुपया भी।
मैंने कहा, “मुझे यह सौदा मंजूर है। काम शुरू करें? सीन शुरू करें?"
"जी हाँ।
सतवे तथा शर्मा जी नेतृत्व करने लगे। पूरा का पूरा गाँव सज गया। चारों तरफ शामियाने-कनातें लग गई। दूल्हा-दुल्हन को भी सजाया जा रहा या। रामलीला-मंडली के कलाकार कुछ ज्यादा ही उत्साहित थे। प्रकाश को प्रतिबिम्बित करनेवाले बड़े-बड़े रिफ्लेक्टरों को ठीक करते हुए वे आकाश की ओर देखते और धूप के ठहर जाने की प्रार्थना करते। कुछ ही देर में लाउडस्पीकर पर फिल्मी गीत शुरू हुआ-'बाबुल का घर छोड़ के दिल तोड़ के, तू कहाँ चली, पिया का संग ले, मन रंग ले तू कहाँ चली। संसार से अलग-थलग पड़े इस गाँव में ये स्वर गूंजने लगे। चारों दिशाएँ उल्लसित थीं।
मैं संतुष्ट था कि सारा कार्य मेरे आदेशानुसार हो रहा है। शुरूआत अच्छी थी। यदि मौसम साफ रहे तो दिनभर बाहरी स्थल पर शूटिंग करते रहेंगे और अँधेरा होते ही भीतरी स्थल पर।-मैं यही सब सोच रहा था कि तभी कुछ शोर सुनाई दिया। जिन कमरों में मेकअप हो रहा था, उनमें भगदड़ मच गई। लाउडस्पीकर की आवाज में सुनाई नहीं पड़ रहा था कि कौन क्या बोल रहा था। सतवे भागा-भागा मेरे पास आया।
“सर! प्रॉब्लम!"
"क्या हुआ?"
"सर! रामलीला-दल की लड़कियों काम करने से मना कर रही हैं।" "कारण?"
"डॉक्टर तोमर। वह यहाँ के अस्पताल का डॉक्टर है और लड़कियों को अभिनय करने से रोक रहा है। पुरुष कलाकारों ने विरोध किया था, पर उन की एक न चली।"
“आपने तो रामलीला कमेटी के सचिव से अनुबंध पर हस्ताक्षर कराए हैं, फिर ये..."
"सर! रामलीला मंडली का सचिव डॉक्टर तोमर से डरता है। बहुत देर तक बहस होती रही, पर वह टस से मस नहीं हुआ। वह अपनी बात पर अड़ा हुआ है..."
मैं भड़क उठा और जोर से पुकारा, "कौन है यह डॉक्टर, कहाँ है? सरपंच शर्मा जी कहाँ हैं? पुलिस कहाँ है?"
लाउडस्पीकर बंद हुआ। मैंने अपने सहायक को पुकारा, "मूर्ख! कहाँ है यह डॉक्टर, मेरे सामने खड़ा करो!"
पाँच लोग मेरे सामने आए। सरपंच भी था। मैं शर्माजी से बोला, 'क्या कारण है शर्मा जी, आपके यहाँ रहते भी यह हंगामा?"
“गुस्ताखी माफ हुजूर,' शर्मा जी कहने लगे, "हमारे कबीले के सामने एक मुश्किल है। परंपरा की बेड़ियाँ हमारे पैरों में पड़ी हैं। धर्म और श्रद्धा का गहना हमें यहाँ ज्यादा प्रिय है। सच तो यह है कि फिल्मों में काम करना एक गिरा हुआ काम है...नैतिक पतन।...हाँ, यह मामला कानूनी तौर पर सुलझाया जा सकता है।...गुस्ताखी माफ हुजूर यह मामला सिर्फ...मेरा मतलब...मैं बड़ी मुश्किल में हूँ।'
मैंने सतबे से कहा, "आखिर कौन है यह डॉक्टर?"
कार्टून-सा लगने वाला एक व्यक्ति मेरे सामने खड़ा हो गया, "मी" डॉक्टर तोमर। इफ यू मे प्लीज!"
डॉक्टर की सूरत देखकर मुझे अपना बचपन याद आ गया। स्कूल का बैण्ड-मास्टर, सलामदीन, जो बैण्ड बजाते-बजाते भाँडई दिखाता था। उसे देखना मुझे कितना अच्छा लगता था! सींक जैसी पतली-पतली टाँगें। खाकी पोशाक। चमड़े का कमरबंद। गोल-बेडौल सिर। तुर्रेदार खाकी साफा। बैण्ड की ध्वनि के साथ घूमती उसकी बटनदार नीली आँखें। अंग्रेजी फिल्म के कार्टून जैसा। डॉक्टर तोमर मुझे सलामदीन का प्रत्यक्ष अवतार लगा।
"हैलो डॉक्टर, हाउ डू यू डू?'
डॉक्टर की बटनदार आँखें पथरा गई।
"हाउ डू यू डू डॉक्टर! व्हट केन आई डू फॉर यू प्लीज?"
डॉक्टर की साँसें तेज हुई। चेहरा लाल। पारसी रंगमंच के किसी खलनायक की तरह अपने दोनों हाथ ऊपर उठा के गला फाड़-फाड़कर कहने लगा, “जब तक मैं जीवित हूँ, जब तक मुझमें डॉक्टरी शक्ति है, जब तक मेरे होशो-हवास कायम हैं, तब तक मैं कबीले की इन सीधी-साधी लड़कियों को गंदी और बेहूदा फिल्मों में काम करने की आज्ञा नहीं दूंगा।"
मुझे लगा कि डॉक्टर पगला गया है। उसकी नकल उतारते हुए मैं बोला,
"ऐ! गंदे और बेहूदा डॉक्टर, कौन हो तुम? हमने रामलीला की कमेटी के सचिव से अनुबंध पर हस्ताक्षर करवाए हैं। तुम हस्तक्षेप करनेवाले कौन होते हो? तुम्हारी यह हरकत ब्रीच ऑफ पब्लिक पीस है।"
मेरा यह कहना था कि डॉक्टर तोमर की शक्ल भयानक होने लगी। नसें सिकुड़ने लगीं। वह तुनक गया। गुस्से से लाल-पीला होने लगा। फिर वह सलामदीन की तरह, किसी भाँड की तरह हाथ-पैर हिलाने लगा। चिल्ला-चिल्लाकर काफी देर तक बहुत-कुछ कहता रहा-
"ऐ मूर्ख फिल्म-निर्देशक! तुम यहाँ पैसे के बूते पर युवा, अल्हड़, कमसिन और शरीफ पहाड़ी लड़कियों को भटकाने, उनकी नेकनामी मिट्टी में मिलाने आए हो। पापी बंबइया सौदागर! तुम बकरे की खाल में भेड़िए हो और तुम्हारे ये चमचे हमारे पहाड़ी कुत्तों से भी गए-गुजरे हैं। ऐ दुरात्मा! यह भी नहीं जानते कि मैं यहाँ का चिकित्सा अधिकारी हूँ। डॉक्टरी के साथ-साथ मेरा यह कर्त्तव्य बनता है कि मैं यहाँ के लोगों का नैतिक पतन न होने दूं। देखता हूँ मेरी आज्ञा के बिना कौन तुम्हारी गंदी बेहूदा फिल्म में काम करता है? आज तो फैसला हो के रहेगा। या मैं रहूँगा या रहेगा बंबई का पापी, दुराचारी, बदनजर फिल्मूिर्देशक। मैं भी देखूँगा। मैं भी देख सकता हूँ। जो देख सकते हैं वे भी देखें। जो अंधे हैं वे क्या देखें...और...और जो आँखें खुली रखकर भी न देख पाते हों वे क्या देखें जो ऊपर बैठा सब-कुछ देखता है, वह भी देखो...देखो...देखो देखते जाओ।"
उसका रंग पीला पड़ गया। मुंह से झाग निकलने लगा। चेहरे की नसें उभर आई। मुझे लगा कि जैसे कोई गहन वेदना उसे अंदर ही अंदर भस्म किए जा रही थी। मुझे उस पर दया आई।
उसने मुझ पर एक तीखी दृष्टि डाली जो कहना चाहती थी-नाकों चने चबवाऊँगा! आखिर वह चला गया, एक हारे हुए खिलाड़ी की तरह, एक मरीज की तरह।
सभी हक्के-बक्के रह गए। चारों ओर सन्नाटा-सा छा गया। हर कोई खड़ा था, मगर चिन्तित।
शर्मा जी कहने लगे, "हुजूर गुस्ताखी माफ।" यह कहकर एकदम चुप हो गए। डॉक्टर ने जो ओले बरसाए थे, वे सारा कुछ नष्ट कर गए थे।
मैं सँभला। मैंने पुकारा, "पुलिसमैन ऑन ड्यूटी...क्या कर रहे हैं आप?"
पुलिस का नाम सुनते ही फ्रीज शॉट रिलीज हो गया।
डॉक्टर गाँव से बाहर जा रहा था। गाँव की भोली-भाली किशोरियों का रेवड़ उसके पीछे-पीछे जा रहा था। कभी कभी वह अपने हाथ यूं उछालता मानो गा रहा हो-वतन की राह में वतन के नौजवाँ शहीद हो। मुझे लगा कि मैं किसी थके-हारे एक असफल फिल्मी हीरो की तरह हो गया हूँ। कोई कुर्सी ले आया, कोई सिगरेट ले आया और कोई दूसरा व्हिस्की का गिलास ले के आया। सिगरेट सुलगाई, व्हिस्की गटक ली और तभी दो सिपाही और एक हवलदार सामने आ के खड़े हो गए।
"कितने अफसोस की बात है कि एक पागल-सा व्यक्ति सारी शूटिंग बर्बाद कर रहा है और आप हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं! आखिर क्या तमाशा है यह?"
हवलदार बोला, “सर, आज जो कुछ भी हुआ, अच्छा हुआ।"
"खाक अच्छा हुआ...?"
“सर! जो काम पिछले छह महीनों से नहीं हो रहा था, वह शुभ कार्य आज हो गया।"
"मेरे द्वारा शूटिंग स्थगित करना आपको शुभ कार्य लगता है?"
"हरगिज नहीं सर! जरा सोचिए अब डॉक्टर शाम तक गिरफ्तार हो सकेगा।"
"डॉक्टर...गिरफ्तार...मगर क्यों?"
"सर! अवांछनीय हस्तक्षेप। राष्ट्रीय संपदा की क्षति। शूटिंग में रुकावट। अतिथियों के साथ दुर्व्यवहार। कुछ बदमाश लोग भी साथ थे जैसे दयाराम, सुखराम, रामदीन, रामविलास आदि।"
“पर यह तो सरासर झूठ है!"
“यह सरासर सही है यही न्याय है। सत्य तो यह है कि डॉक्टर एक मुजरिम है और अपराध करनेवाला हर कोई व्यक्ति अपने जाल में खुद ही फँस जाता है। डॉक्टर तोमर इस क्षेत्र में करीब एक बरस से है। आदतों से अच्छा, पर राजनीति में कमजोर। पिछले चुनावों में विरोधी दल के कार्यकर्ताओं के साथ इसने संपर्क स्थापित किया था। उन्हीं दिनों एक राजनैतिक कार्यकर्ता की पत्नी की अस्पताल में मृत्यु हुई। यह खबर आग की तरह फैल गई कि डॉक्टर तोमर ने वी.आई.पी. की पत्नी को जान-बूझकर गलत इंजेक्शन दिया था। पुलिस में रपट हुई कि दिल्ली में खबर हुई। जूनियर डॉक्टर ने डॉक्टर तोमर के विरुद्ध गवाही दी और आज एक और हंगामा। गाँव के सीधे-साधे लोगों को अपने साथ मिलाने की कोशिश। जो हुआ अच्छा हुआ। एक और आरोप। मामला उलझेगा और हमारा काम आसान।"
मेरे पैरों के नीचे की धरती खिसक गई। बैण्ड मास्टर सलामदीन मस्त मौला था, परंतु डॉक्टर तोमर हालात का शिकार। बेचारा! मैंने सतवे को पुकारा।
“यस सर!"
"लंच ब्रेक।"
मैं सतवे को निर्देश दे ही रहा था कि दूर से महिलाओं को आते देखा। गाँव की ये दोनों महिलाएँ फिल्मी प्रकरण में थीं। मेकअप भी हुआ था। पास आई। देखा तो ये वही स्त्रियाँ थीं जिनको मैंने सुबह रेस्ट-हाउस के बरामदे में देखा था। एक ने नमस्कार किया। दूसरी कहने लगी, “मैं मिसेज पठानिया हूँ और यह मेरी बेटी सुतली पठानिया।" सुतली पठानिया हल्के से मुस्कराई और सिर झुकाकर खड़ी रही। ध्यान से देखा। सचमुच कितनी सुंदर! रंग साफ, आँखों में चमक, रौप्यमय मुख। माँ पठानिया समझ गई कि मैं खो गया। वह हँसी और कहने लगी, “आप कोई चिन्ता न करें। मैं सारी व्यवस्था किए देती हूँ। अभिनय करने के लिए मैं तैयार हूँ, सुतली तैयार है और यदि आप कहें तो गाँव की बाकी लड़कियों को भी हम तैयार करा सकते हैं। डॉक्टर तोमर की क्या बिसात! आपकी शूटिंग रुकेगी नहीं। बस आप मेरे साथ चलें, हम अच्छी-अच्छी कलाकार लड़कियाँ चुन लेते हैं।"
हमारा यूनिट लंच ले रहा था और मैं तथा सतवे, पठानिया माँ-बेटियों के संग गाँव से बाहर आ गए। बहुत-से घरों में गए। कुछ ने अभिवादन किया तो कुछ केवल हांगुल की तरह देखते ही रहे। पूरा एक घंटा इन घरों में भटकने के पश्चात् हमारे सामने अब महिलाओं का एक बड़ा-सा दल था जो शूटिंग में सहायता करने को तैयार था। हम वापस आ रहे थे और मिसेज पठानिया इन स्त्रियों को समझा रही थी कि क्या करें और क्या न करें। साथ ही कह रही थी- ये बहुत बड़े फिल्म निर्देशक हैं। पृथ्वीराज कपूर के जमाने के...बहुत लोकप्रिय...अच्छे व्यक्ति आदि-आदि।"
मैं थक चुका था। भूख भी सता रही थी। पठानिया की बातों से लगा कि वह फिल्मों के बारे में थोड़ा-कुछ जानती थी। मैंने पूछा, “पहले भी किसी फिल्म में काम किया है।"
यह सुनते ही वह फूली न समाई। कुछ लजाई और कहने लगी, “मेरे पिताजी पारसी थियेटर में मुलाजिम थे। बड़े गायक थे। दार्जिलिंग में एक म्यूजिक-स्कूल भी चलाते थे। उनके पास सीखने बहुत-से बच्चे आते थे। असल में हम नेपाल के निवासी हैं। वहाँ मेरा ननिहाल है। मेरा एक भाई भी था जो कलकत्ता में किसी अंग्रेज अफसर का खानसामा था। बड़े युद्ध में वह विलायत गया और वापस नहीं आया।"
“सुतली के पिता?"
"सुतली के पिता भी नेपाली हैं। दिल्ली के किसी कारखाने में गार्ड हैं। साल में एक-दो बार आते हैं। यहाँ, हिमाचल में रहते हमें अब पूरे दस बरस हो गए हैं। यहाँ हम 'कालीन बुनाई केन्द्र' में काम करती हैं।"
“अपना वतन छोड़कर यहाँ हिमाचल में कारण?"
मिसेज पठानिया उद्विग्न हुई। कुछ रुकी और फिर कहने लगी, 'मेरे पिता का परिवार दार्जिलिंग के चाय-बागानों में पीढ़ियों से काम करता था। चाय के बाग ही हमारे माता-पिता और देवी-देवता थे। हमारे बच्चे चाय-बागों की संतान माने जाते थे। मगर फिर ऐसी हवा चली कि वहाँ बेगाने आने लगे। पराए मुल्कों से आए भूखे-नंगे शरीर। पराए पुरुषों की एक भीड़। सुतली छोटी थी तो सखियों के संग लोकगीत गाते चाय की पत्तियाँ बटोरती। पर जब यह सयानी हो गई, हमने दार्जिलिंग त्याग दिया। अपनी भूमि में लगी जड़ों को काट दिया। हिमाचल को अपना वतन बनाया। यहाँ बड़ी शांति है।"
“यहाँ किधर रहते हो?"
"रहते...हाँ...किधर...हाँ...वह!' उसने दर एक मकान की ओर संकेत किया।
मैंने कहा कि हम उसी के मकान पर चलेंगे। क्या पता वह शूटिंग के लिए एक अच्छा स्थल बन सकता हो!
माँ पठानिया को उस तरफ जाना अच्छा नहीं लगा था और सुतली हीं-हीं करके हँस रही थी। पर दोनों ही इस कोशिश में थीं कि वह वहाँ न जाएँ। कहने लगी कि रास्ता ठीक नहीं, कल जाएँगे। लेकिन जितनी वह मनाही कर रही थी, उतना ही में जिद पकड़ता जाता था।
वनराजी से कीचड़, घास और जंगली फूलों को रौंदते हुए हम एक कच्चे मकान के पास आ गए। आँगन के बाहर मिट्टी की दीवार, मध्य में दरवाजा, पर बिना पलड़ों के। मकान क्या, मिट्टी का बना हुआ एक कोठर था। बारिश में भीगी हुई दीवारें जैसे गिरने को तैयार हों। खाली-खाली दो कमरे। न चारपाई, न बिछौना और न ही कहीं कोई कपड़ा-लत्ता। पानी जो छत से चू रहा था, गहों में भर रहा था। रसोई के नाम पर एक छोटा-सा कमरा। केवल दो-एक कनस्तर। मिट्टी और अलुमिनियम के कुछ बर्तन। एक लालटेन और आले में रखा हुआ बिस्तर जो दो-तीन दिनों की बारिश में पूरी तरह से गीला हो गया था। सारा घर अपनी गरीबी और लाचारी पर आँसू बहा रहा था।
मैं उल्टे पाँव बाहर आया। मिसेज पठानिया का पानी उतर गया था। सुतली सफेद पड़ने लगी थी। दोनों शर्मिन्दा थीं। मैं अपने इस कृत्य पर कुपित था। क्यों मैंने उनकी गरीबी का पर्दा उठाया? अशिष्ट! उजहु!! मेरी शहरियत और बेवकूफी का भी पर्दा उठ चुका था। अपनी गलती का मुझे अहसास था, पर तभी में एक और भूल कर बैठा। सामने के पक्के मकानों की ओर संकेत करते हुए मैंने कहा, "ये किनके मकान हैं?...अच्छी शूटिंग हो सकती है।"
मिसेज पठानिया का चेहरा लाल हुआ। कहने लगी, "ये ठाकुर, साहुकार और जमींदारों के घर हैं। हम लोग वहाँ नहीं जाते।" यह कहते समय उसकी व्याकुलता और बढ़ गई।
सुतली पीली पड़ने लगी। मुझे अपनी दूसरी गलती का अहसास हुआ। खाली मकान और खाली बर्तनों को देख मेरी सारी भूख मिट गई।
हम शूटिंग-स्थल की ओर चल पड़े। वहाँ दृश्य तैयार हो रहा था। दुल्हन को पीहर का घर छोड़ ससुराल जाना है। पूर्वाभ्यास हो रहा है। दुल्हन को डोली में बैठाया जाता है। कहार डोली उठा लेते हैं और सखियाँ गाने लगती हैं। प्रकाश प्रतिबिम्बित करनेवाले रिफ्लेक्टर कलाकारों के साथ-साथ घूम रहे हैं। पहले से रिकॉर्ड किया हुआ गाना बार-बार चलाया जाता है। सभी कलाकार अपने होंठ संगीत की लय के साथ चलाने के प्रयास में हैं। यूनिट के सभी कर्मी अपने-अपने कार्य में व्यस्त हैं। छायाकार सूर्य की दिशा देख रहा है। 'ट्रैक-ट्रॉली' का भी पूर्वाभ्यास हो रहा है। रूप-सज्जावाले हीरो तथा हीरोइन को 'लास्ट टच' देने में व्यस्त हैं। इस प्रकार सारा यूनिट और सभी कर्मी मेरी एक आवाज पर कठपुतली का नाच नाच रहे थे।
इसी बीच देखा कि मिसेज पठानिया कुछ ज्यादा ही व्यस्त थी। वह कहीं किसी के वस्त्र ठीक कर रही है तो कहीं किसी के सिर पर दुपट्टा रख रही है। वह बड़ी निष्ठा से काम कर रही थी और मुझे लगा कि वह ग्रामीण महिलाओं को अभिनय के लिए तैयार कराने की कला में बहुत हद तक समर्थ थी। कभी-कभी वह शादी में सम्मिलित महिलाओं की भीड़-भाड़ वाले दृश्य में सुतली को आगे रखने का प्रयास करती जो बार-बार पीछे धकेल दी जाती।
शॉट तैयार था। मैंने अंतिम घोषणा की, “साइलेन्स प्लीज! कृपया शांत रहें...खामोश। 'स्टैण्ड-बाइ कैमरा', 'स्टैण्ट-बाइ साउंड...गोईंग फॉर टेक' । 'रोल कैमरा...कैमरा रोलिंग'। 'रोल साउंड...साउंड रोलिंग'। 'फोल्ड-बैक' । 'क्लैप...शॉट थर्टीफोर, टेक वन...ऐक्शन..."
सारा गाँव समझ गया कि मेरी आवाज आखिरी आवाज है। मेरे निर्देश सही हैं। और, मुझे भी लगा कि मैं किसी शिखर पर बैठा हूँ। मेरी इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता। मुझे लगा, कल की हिस्की का नशा अब हो रहा है। शॉट सही था। सखियाँ और संबंधी ध्वनि के अनुसार होंठ हिला रहे थे-'बाबुल का घर छोड़ के-दिल तोड़ केतू कहाँ चली।' दुल्हन-नायिका, मुख्य अभिनेत्री कुछ ज्यादा उदास दिख रही है। वह रो रही है और उसके पिता का अभिनय करनेवाला कलाकार भी स्त्रियों की भाँति आँसू बहा रहा है। स्थानीय कलाकार कनखियों से कैमरे की ओर भी देख रहे हैं। मैंने इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। देखा कि सुतली, दुल्हन का मुँह बार-बार ताक रही थी। आँसू पोंछ रही थी। उदास, फिर भी प्रसन्न। कभी-कभी दाएं-बाएँ भी देखती। स्थिर, अकृत्रिम, संतुलित अभिनय। सुंदर, अति सुंदर, हर प्रकार से अच्छा, सब से सुंदर...सुतली...।
शूटिंग का सिलसिला चलता रहा। इंद्रदेव की कृपा बनी रही। मौसम अच्छा रहा। बिजली भी मिलती रही। विश्रामगृह के कर्मचारियों से भी पूरा सहयोग मिलता रहा। यूनिट के सभी कर्मी जी-जान से परिश्रम कर रहे थे। कर्म-संकुलता में मेरे भी दिन-रात एक हो गए थे। अनुभव के साथ ही मेरे काम करने का जुनून मेरे सिर पर सवार था। उठते-बैठते मेरे मस्तिष्क में केबल दृश्य, संवाद, कैमरा, तथा कभी-कभी सुतली रहते। परंतु फिर भी में आस-पास से बेखबर था। फुरसत के क्षणों में मैंने अपने दल को गौर से देखा। यूनिट तन्मयता से कार्यरत था। कलाकार देर रात तक संवाद-लेखक के साथ पूर्वाभ्यास करते। कुछ कर्मी शूटिंग के पश्चात् कमरों में पड़े रहते। इसी सब में, मैंने सुतली और उसकी माँ को एक कमरे से निकलते और दूसरे कमरे में जाते देखा। ये दोनों अधिकतर हीरोइन के साथ ही रहतीं। मुझे मालूम हुआ कि पहले दिन की शूटिंग के बाद ये दोनों अपने घर ही नहीं गई थीं। हीरोइन के कमरे में ही रहतीं। उसे दो सेविकाएँ मिल गई थीं और पठानिया माँ-बेटी को बंबई की सुप्रसिद्ध अभिनेत्री के कपड़े करीने से रखने, नाश्ता कराने और रातभर उसकी चौकसी करने का गौरव प्राप्त हुआ था।
विश्रामगृह के कर्मचारियों को भी पठानिया माँ-बेटी का वहाँ रहना लाभदायक लगने लगा था। मुख्य रसोईदार सुतली पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान था। उसने सुतली के मन में यह बात बिठाई थी कि वह मेरे पास उसकी सिफारिश करेगा और उसे अच्छा-सा चाँस दिलवाएगा। बहुत ही चालाक व्यक्ति। सुतली सुबह की चाय लेकर जब भी मेरे पास आना चाहती तो वह उसे यह कहकर रोकता कि यह रेस्ट हाउस के नियमों के विरुद्ध था।
चंबा का एक छबीला वेटर सुतली को उसकी माँ की अनुपस्थिति में छुरी-काँटा प्रयोग में लाने का प्रशिक्षण देता रहता। आमलेट काटते समय वह प्रायः उससे कहता कि यदि निर्देशक उन दोनों को फिल्म में हास्य अभिनेता व अभिनेत्री का पार्ट दे तो उन्हें क्या करना होगा। कंधों पर हाथ धरे, चेहरे से चेहरा सटाते, बालों से खेलते हुए, कानों में कुछ कहते हुए वह 'ऐक्शन-पॉइन्ट' तक आ जाता, तभी सुतली की माँ आ जाती। कैसा दुर्भाग्य! दृश्य एक 'टेक टू'...
सुतली की माँ ने दुनिया देखी थी। वह अपनी बेटी की डोर ढीली छोड़ती तो बेटी के हाथ-पैर अंगड़ाने लगते, उसके पंख फड़फड़ाते, वह उड़ने लगती। परंतु इससे पहले कि वह ऊँचाइयाँ छू जाए। माँ डोरी खींच लेती। सुतली के पैर खिंच जाते और वह अपने पंख समेट लेती।
यूनिट-कर्मी माँ-बेटी का यह तमाशा देख अट्टहास करते, लेकिन फिर भी वे इन दोनों से हमदर्दी रखते, क्योंकि प्रथम दृश्य को फिल्माने में इन्होंने काफी सहयोग दिया था।
माँ-बेटी दोनों सातवें आसमान पर थीं। इन्हें पाँच सौ रुपये की अग्रिम राशि मिली थी। आगा देखा न पीछा, दोनों बाजार गई और सस्ते किस्म की रूपसज्जा-सामग्री उठा लाई-चूड़ियाँ, बुंदे, झुमके, चंद्रहार, लौंग, अंगूठियाँ, बिन्दी; साटन का रंगदार सलवार-कमीज़ और चाँदी की पायलें भी!
मिसेज पठानिया ने कोई ज़ेवर नहीं पहना और सुतली को दुल्हन की भाँति सजाया। रंगदार पोशाक और आभूषण पहने सुतली चंपकवर्णा रूपसी-सी लगती।
सुतली का रंग-रूप बदल रहा था और यूनिट में काम करनेवालों के तौर-तरीके भी बदल रहे थे। चिरकाल से कंपनी में काम कर रहे लोगों ने घाट-घाट का पानी पी रखा था। वे देखी को अनदेखा कर रहे थे। जो अभी-अभी आए थे, वे बस आहें भरते रह जाते और मौका लगते ही कहते, "हाय! तुम तो छा गई तुम तो 'बॉरन एक्ट्रेस' हो। तुम्हारा चेहरा...तुम्हारी मुस्कान...तुम्हारी चाल ...तुम्हारा यह...तुम्हारा वह...हाय! सब-कुछ कितना अच्छा है!"
सुतली अनसुना कर देती। एक तो इसलिए कि वह खुद को ही कुछ समझने लगी थी और दूसरा इसलिए भी कि उसके पैरों से उसकी माँ की डोर बँधी थी। परंतु जब बिजली-तकनीशियन मराठे ऐसी बातें करता तो सुतली के दिल की धड़कन और तेज़ हो जाती। कपोल लाल हो उठते और काली गोल-गोल आँखें तेजी से घूमने लगतीं। सुतली को लगता कि मराठे न केवल एक कुशल तकनीशियन है बल्कि एक सज्जन पुरुष भी। निष्ठापूर्ण प्रेमी। बंबई का यह बिजलीवाला सुतली के प्रेम में रात-रातभर जागता। सुतली को लगने लगा था कि उसका और मराठे का प्रेम अमर है।
सुतली को आभास हुआ कि उसमें अवश्य कोई बात है जो उसे देखते ही किसी भी युवक के खून में गर्मी आ जाती है। उसे लगता कि वह सीता है और मराठे राम। कभी लगता कि वह राधा है और मराठे कृष्ण। अब हिमाचल के इस वन में सुतली-मराठे की प्रेम-लीला होगी। उनके गीत वर्षों बाद भी गाए जाएंगे। कबीले की औरतें सुतली-मराठे प्रेम-गाथा गाया करेंगी। यह कहानी नानी-दादियाँ अपने नाती-पोतियों को सुनाया करेंगी। चरवाहे कभी पहाड़ों की ऊँचाइयों पर तो कभी इनकी गहराइयों में सुतली के नाम का गुंजन करते रहेंगे।
'तेरा विरह सहूँ कैसे जो मृत्यु के समान कष्टदायक है। दोनों तरफ आग बराबर थी। बरामदे में चलते-चलते सुतली की पायलों की झंकार मराठे के कमरे के पास सहसा रुक जाती। यूनिट-कर्मियों को किसी घटना का आभास होता। हंगामा...शोर। गाँव में हलचल। डॉक्टर तोमर आगबबूला होंगे। एक आग लगेगी, धुआँ बंबई तक उठेगा।...लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
मराठे अविवाहित था। माता-पिता की इकलौती संतान । नासिक के एक टैक्सी-चालक का बेटा। कुछ पढ़ा-लिखा। थोड़े-से अनुभव के पश्चात् काम समझने में सक्षम। वह न किसी की चापलूसी करता और न ही किसी कलाकार की झूठी प्रशंसा। फिर सुतली को वश में करने का प्रयास क्यों?
गाँव की लड़कियों सब-कुछ समझ गई थीं। सुतली ने स्वीकार भी किया था कि...। मिसेज पठानिया, बेटी के साथ साए की तरह रहती। उसे याद आता कि ठाकुरों के घर जाने में सुतली हिचकिचाती थी। कोई घर आता तो उसे रसोईघर में दुबकना पड़ता। इस नरक से तो यही अच्छा है कि सुतली मराठे का हाथ थामकर एक पवित्र जीवन का शुभारंभ करे। वह भी चिन्तामुक्त होगी।
डिनर से पहले मैं घूमने जाता तो सतवे भी मेरे साथ रहता। उस दिन हमारी फिल्म का नायक भी हमारे साथ ही था। उसका साथ मुझे कतई पसंद नहीं था, क्योंकि वह खुद को मुझसे भी बड़ा समझने लगा था। सतवे मुझे दिनभर के काम का विवरण दे रहा था। मौसम में ताजगी थी। थोड़ी ठंड। सारा बन चुप्पी साधे था। कहीं-कहीं पक्षियों की ची-चाँ सुनाई पड़ती थी।
सड़क के दोनों ओर बड़े-बड़े पत्थर। पत्थरों के साथ प्राड़ियाँ। उनके पीछे आदमकद पेड़ और उनके पीछे ऊँचे-ऊँचे वृक्ष। वन में लंगूर या बंदर विचरते रहते जो आते-जाते व्यक्तियों को देखते ही बन में अदृश्य हो जाते। सामने देखा तो लगा दो लंगूर हैं। नहीं! दो व्यक्ति हैं शायद। में ठीक ही समझ रहा था-मराठे और सुतली-मद्धिम रोशनी में कुनकुनाती दो कायाएँ। झकोरा आए तो साँसें रुक जातीं। पायल की हल्की-सी झनझनाहट नींगुर की झीं-श्रीं में विलुप्त होती।
हम वापस मुड़ गए। रेस्ट हाउस पहुँचकर मैंने घोषणा की कि अगले दिन अंतिम शूटिंग होगी और शूटिंग-स्थल पर जाने से पूर्व ब्रेकफास्ट-मीटिंग भी होगी।
दूसरे दिन रेस्ट हाउस के ड्राइंगरूम में पहुंचा तो सारा यूनिट नाश्ता कर रहा था। बेटर बड़ी फुर्ती से सामान ला और ले जा रहे थे। प्रबंधक के साथ-साथ मुख्य रसोईदार भी निर्देश दे रहा था। मेज पर सुतली और उसकी माँ भी हैं। नायिका के एक तरफ एक, तो दूसरी तरफ दूसरी। मिसेज पठानिया छुरी-काँटे से आमलेट और टोस्ट खाने का असफल प्रयास कर रही है : सुतली इस प्रकार नाश्ता करना बखूबी समझ गई है। माँ को इशारों ही इशारों में समझा रही है। दूर चंबा का वेटर अपने ही आप में खुश है। सुतली भी किसी फिल्म अभिनेत्री से कम नहीं लग रही है। साफ चमकीली भड़कीली पोशाक, विश्वस्त, खुदी का अहसास लिये प्रसन्नचित्त। अपना भूत भुलाकर वर्तमान का आनंद लेती। बारिश से जर्जर हो रहे घर को भूलकर रेस्ट हाउस का सुख भोग रही थी। कहाँ पड़ोस के ठाकुरों की भेड़िया-नजरें और कहाँ मराठे की आँखों की प्रेम-गंगा। वह इस फिल्म-कंपनी और रामलीला-मंडली के विशाल तीर्थ में बहते हुए पवित्र होने का पुण्य कमा रही थी। वह गोरखा गार्ड का मनीऑर्डर भूल गई थी और सतवे की उदारता की दुआएँ देती थी। कभी मेरी ओर देखती, मुस्कराती, सिर झुकाती और फिर देखती। सारे देवी-देवताओं को भुलाकर मुझमें किसी शक्ति का अवतार मानकर वह अपने नयनों के दीपों से मेरी आरती उतार रही थी।
मैंने छुटका-सा भाषण दिया और आखिरी दिन का काम समझाया। सतवे से बात करने लगा तो तभी सुतली और उसकी माँ मेरे सामने आए। एक ने नमस्कार कहा, दूसरी ने गुड मानिंग-"सर! हमारा काम कैसा रहा?"
इससे पहले कि में कुछ कहता, पीछे से मराठे बोला, "वेरी गुड...फाइन!"
मैंने भी कहा, “अच्छा रहा।"
“सर! आज शूटिंग का अंतिम दिन है?"
"हाँ! आज शूटिंग समाप्त होगी।"
"क्या आप आज ही जाएंगे?"
"नहीं, हम लोग कल प्रातः चल पड़ेंगे।"
"सर! क्या आप हिमाचल में और कहीं भी शूटिंग कर रहे हैं?"
"नहीं, हम चंडीगढ़ से सीधा बंबई रवाना होंगे।"
“सर! क्या है...क्या है...मतलब क्या आपको बंबई में सुतली की जरूरत रहेगी?"
मेरे कुछ कहने से पहले ही मराठे फिर बोला, "नहीं, बंबई में नहीं। पर जब-जब हम यहाँ हिमाचल आया करेंगे, आप लोगों से मिलते जाएँगे। है न सर?"
सुतली ने सर झुका लिया। मुझसे कुछ न कहते बना।
मैं भी बहुत पहले बंबई गया था, ढेर सारे अरमानों के साथ। मुझसे भी पहले कई गए थे और मेरे बाद भी जाते रहेंगे। परन्तु जब में गया उस बाजार में तो मेरा कोई खरीदार नहीं था। होटलों और सरायों में रहने के बाद फुटपाथों पर अखबार बिछाकर रातें गुजारना में देख चुका था। खुद को नग्न करते हुए जहाँ-तहाँ भटकना में भोग चुका था। अपना विवेक बेचकर लुच्चे-लफंगों की चापलूसी करने की पीड़ा भी मैंने सही थी और अमीर बदचलन औरतों की चाकरी करने की वेदना भी मैंने सही थी। महान फिल्मकारों की जी-हजूरी करके दो जून रोटी कमाने के बाद अब ढलती अवस्था में मुझे निर्देशक बनने का अवसर मिला था। मैं जीवन के उस पड़ाव पर था जहाँ एक डग बढ़ाने पर या तो व्यक्ति ऊँचाइयाँ छू जाता है या फिर शून्य में अदृश्य हो जाता है। सफलता मेरे जीवन का अंतिम स्वप्न थी। नाम कमाने का सुख मेरी आखिरी मंजिल थी। सुतली भी सुख भोगना चाहती थी-अपरवशता का, प्रतिष्ठा का, धन और यौवन का। मगर सुख है कहाँ? सलामदीन बैण्डमास्टर का तमाशा देखने का सुख मेरे बचपन में था। माँ के हाथों साग-भात खाने का सुख मेरे बचपन में था। स्कूल में लड़कियों को चिढ़ाना और मसखरी का सुख मेरे बचपन में था। संध्या-समय पहाड़ी के ऊपर से डल का मनोरम दृश्य देखने का सुख मेरे बचपन में था। वह बचपन और यह आज का दिन। सुख किसी शब्द का रूप लेकर पुस्तकों में बंद हो गया।
सुतली मेरे उत्तर की प्रतीक्षा में खड़ी थी। क्या कहूँ? क्या यह कहूँ कि इस पहाड़ी क्षेत्र में बिना किसी सहारे के, माँ का आँचल पकड़े, कालीन के कारखाने में काम करते रहना अच्छा है? ठाकुरों और साहूकारों के सामने एक सेर आटे के लिए गिड़गिड़ाना अच्छा है? दुकानदार की नजरों को अपने शरीर में गड़ते हुए देखना अच्छा है?
यह भी कैसे कहूँ कि बंबई में फूलों की सेज नहीं सजी है। कौन जाने किस-किस की बाहों में जाएगी। कहीं भी चोर-उचक्कों को रोकने के लिए कोई कानून नहीं।
बिना कोई उत्तर दिए किसी बहाने से मैं वहाँ से चल पड़ा। वे दोनों मेरे उत्तर की प्रतीक्षा करती ही रहीं।
आज का लोकेशन एक प्राचीन मंदिर है जो बन के बीचों-बीच स्थित है। मंदिर तक जाने के लिए कई पायदान हैं। मंदिर एक शिला को काटकर बनाया गया है। भीतर रत्न-जड़ित एक मूर्ति है। दृश्य में दूल्हा-दुल्हन मंदिर में देवी के दर्शनों हेतु आते हैं और पुजारी का आशीर्वाद प्राप्त करके लौट जाते हैं। सारा गाँव उमड़ पड़ा है। आज वैसा ही हो-हल्ला है जैसा कि पहले दिन था। सरपंच शर्मा जी और मंदिर के पुजारी मेरे पास आकर पूछते हैं कि क्या कुछ करना है? अधेड़ और वृद्ध अवस्था को प्राप्त महिलाएँ और पुरुष एक ओर बैठे सारा कुछ देख रहे थे। पठानिया माँ-बेटी को आज अभिनय नहीं करना था, फिर भी वे हर दिन की तरह चिन्तित और व्यस्त थीं। शूटिंग के अंतिम क्षणों तक वे यूनिट का एक हिस्सा थीं।
शूटिंग हो रही है। मैं डॉक्टर तोमर के बारे में सोच रहा हूँ। वह क्यों नहीं आया? इतने दिनों वह कहाँ रहा? इतने दिनों उसने कहाँ-कहाँ क्या-क्या भाषण दिए होंगे?
संध्या होने लगी। हवा में नमी थी। पक्षी वनों से गाँव की ओर उड़ने लगे थे। सारा यूनिट मेरी एक आवाज की प्रतीक्षा में बैठा था। 'पक-अप फॉर बॉम्बे'-इस एक आवाज से शूटिंग समाप्त होती और सभी को बंबई की याद सताने लगती। सारा सामान बंद होता और फिर दोबारा खलता नहीं। यह भी संभव है कि कई वर्षों तक यूनिट इस प्रकार न मिल पाए। 'पैक-आप फॉर बॉम्बे' कहने से 'फिल्म इंडस्ट्री के इस समुदाय के जीवन का अंत हो जाता, यूनिट के सभी सदस्य मर जाते। सुतली और उसकी माँ भी। जिन्दा रहेगी एक याद। फिल्माया गया एक कचकड़ा। हिलते चित्र। बाकी सब, समय के अंधेरे में लुप्त हो जाएगा। लेखक, निर्देशक, अभिनेता-अभिनेत्री, प्रोड्यूसर और वे जिन्होंने इस चलचित्र को बनाने में सहयोग दिया था, भुला दिए जाएंगे। एक स्वप्न की तरह। माया! असार संसार!
मैंने जोर से कहा, "पैक-अप फॉर बॉम्बे!"
यह सुनते ही सारे यूनिट में फुर्ती आ गई। सामान बंद होना आरंभ हो गया। यह देखकर मैं अचंभे में पड़ गया कि सुतली और उसकी माँ भी सामान बाँध रहे थे।
आखिरी रस्म भी पूरी हुई। गाँव के बच्चों और अन्य कलाकारों को पारिश्रमिक दे दिया गया। मैंने शर्मा जी को 'ब्लैक एंड हाइट' टी.वी. सेट भेंट किया-“गाँव के लिए मेरी ओर से एक मामूली तोहफा..."
"हुजूर गुस्ताखी माफ़ शुक्रिया...शुक्रिया!"
"इसमें शुक्रिया की क्या बात है। यह तो हमारा फर्ज था। यदि आप सहयोग न देते तो हम अपनी शूटिंग कैसे पूरी कर पाते? मैं अपनी यूनिट की ओर से, अपने प्रोड्यूसर की ओर से, कंपनी की ओर से तथा अपनी ओर से आपके गांव में रहनेवाले सभी छोटे-बड़ों को धन्यवाद देता हूँ। हम यहाँ बिताए ये दिन कभी नहीं भूलेंगे। फ़िल्म में कलाकारों व अन्य कर्मियों के नामों के साथ हम इस गाँव का नाम भी देंगे। पंचायत का विशेष आभार भी। आप लोग यह फिल्म देखिएगा। फ़िल्म रिलीज होने से पूर्व में तार द्वारा सूचित करूँगा...ठीक?"
“हुजूर, गुस्ताखी माफ आपकी कृपा इससे हमारे गाँव का नाम अमर हो जाएगा। हुजूर, मेरा नाम भी होगा क्या?"
"क्यों नहीं। साथ ही मैंने पूछा, "डॉक्टर तोमर की कोई खबर?"
“हुजूर, गुस्ताखी माफ डॉक्टर तोमर कुछ ही दिनों में मुअत्तल हो जाएगा। हुजूर, शूटिंग में हंगामा खड़ा करना कोई मामूली बात तो है नहीं।"
मुझे न तो हर्ष ही हुआ और न ही विषाद।
यूनिट विश्रामगृह की ओर जा रहा था। पठानिया माँ-बेटी बड़े उत्साह के साथ यूनिट के संग-संग जा रही थीं। सुतली ने मराठे की ऊनी बनियान गले में लपेटी थी और मराठे कोई लोकगीत गाते हुए दोनों के बीच झूमते हुए जा रहा था।
शाम को कैम्प फायर आयोजित हुआ। सभी मस्ती में थे-गाते मुस्कराते, चुटकुलेबाजी करते, हिस्की पीते और पिलाते। वेटर प्रसन्न था। चंबा का छबीला वेटर भी खुश था। मराठे सुतली को खिला रहा था और वह उसे। पंजाबी, तमिल, हिन्दी, मराठी कई भाषाओं के गीत गाए जा रहे थे। इसी बीच मराठे एक हिन्दी गीत गाने लगा-'सुतली ओ सुतली-जब से तुम्हें देखा खाना पीना...।' वहाँ बैठे बाकी सभी सुर में सुर मिलाते हुए ताल देने लगे। सुतली की माँ भी ताली बजाने लगी। सुतली लजाने लगी। मराठे ऊटपटींग अपने हाथ-पाँव हिला रहा था। सुतली पत्थर हो गई। कुछ ही क्षणों बाद संभली। धीरे से मराठे का हाथ छोड़ा। हल्के कदमों और स्वर से लय-ताल में गाने लगी, नाचने लगी-'चिड़ियाँ दा चंबा...। वह सब-कुछ भूल गई। मधुर आवाज, सुंदर चेहरा, भरपूर यौवन, पहाड़ों में रात की निस्तब्धता। सभी देखते रह गए। वह इंद्र के दरबार की अप्सरा-सी लग रही थी।
दूसरा दिन। हिमाचल में आखिरी सुबह प्रस्थान का समय। कुछ चहलकदमी कर रहे हैं तो कुछ बस में चल पड़ने को तैयार। रेस्ट हाउस का स्टाफ उदास है। सुतली तथा उसकी माँ हीरोइन के पास हैं। मराठे मुख्य रसोइए को कुछ समझा रहा था। चंबा का प्रेमी खिन्न है। मैंने सतवे को बुलाकर पूछा, “सारी पैकिंग हो गई?"
"जी, हो गई। एक्सपोज्ड रा स्टॉक, आपके सामान के साथ रखवाया है।"
"सारी पेमेंट्स हो गई?"
"सारे बिल चुका दिए गए।
धीमे से पूछा, "सुतली और उसकी माँ को कितना दिया?"
"सर! एक हजार।"
"बस? सिर्फ़ एक हज़ार?"
मैंने सतवे से नोटों का बैग लिया और पठानिया माँ-बेटी को बुलवाया। दोनों आई, नमस्ते किया और फिर हँसते हुए खड़ी रहीं। मैंने और पाँच सौ रुपए दिए। पहले तो ना-ना करती रहीं, मगर फिर ले लिये। सुतली ने ये रुपए नन्ही-सी थैली में रखे और मेरी तरफ देखती रही-“शुक्रिया!" यह कह कर वह मुस्कराई। मुझे उसका मुस्कराना अच्छा लगा। मैंने और पांच सौ रुपए दिए। उसने ना-ना किया, पर रख लिये। चेहरा लाल हुआ। मुझे उसका लाल होता चेहरा अच्छा लगा। और पाँच सौ रुपए दिए। सुतली लजाई। मुझे उसका लजाना अच्छा लगा। और पाँच सौ रुपए दे दिए। बस चलता तो सारी संपत्ति उस पर लुटाता।
मुझे लगा कि सारा यूनिट मेरी वह बचकाना हरकत देख रहा था। अभिवादन करने आए गाँव के लोग भी मेरा यह नाटक देख रहे थे। सुतली फूली न समा रही थी। उसकी माँ कनखियों से इधर-उधर देख रही थी। मुझे दुर्बलता का अहसास हुआ।
मैं चिल्लाया, “कम-ऑन। ऐवरी बॉडी। लेट अस लीव। हरी-अप!"
दोनों बसें भर गई और देखते ही देखते चल पड़ीं। सुतली की आँखों में आँसू थे। वह अपने दोनों हाथ ऊपर किए हुए बस की तरफ हिला रही थी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि बस में कौन मराठे है और कौन नहीं। आँसुओं के समुद्र में सुतली का चेहरा डूब गया। पावस में बसंती फूल नष्ट हो गए। हाथ हवा में हिल रहा था। एक नन्हा-सा पक्षी उड़ता हुआ शून्य में कहीं खो गया।
मैंने शर्मा जी से आज्ञा ली। अब की बार वह चुप था। हाथ जोड़े खड़ा था। नायक-नायिका की टैक्सी चल पड़ी। मिसेज पठानिया को लगा कि कुछ छूट रहा है। एक धक्का -सा लगा। उसे लगा कि वह बहुत थक गई है।
मैंने सुतली की ओर देखा। एक परास्त महारानी की तरह, जिसकी पराकाष्ठा, पराक्रम सब-कुछ नष्ट हो गया था। मैं किसी अपराधी की तरह मानो किसी देवता के समक्ष खड़ा हूँ। न चाहते हुए भी उसने अपना सिर उठाया। मेरी ओर देखा। हल्की-सी मुस्कान। मोती जैसे दाँत। यह अपराध भी मैंने स्वीकार किया।
मेरी टैक्सी चल पड़ी। में पीछे सब-कुछ छोड़ता हुआ, परलोक-यात्रा पर जाता हुआ, सब-कुछ भूल जाने को विवश, त्यागने को विवश उस व्यक्ति की तरह था, जो सभी बंधनों से मुक्त हो जाता है। आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाएगी, परंतु जीवात्मा सुतली के आस-पास रहेगी।
बाईं ओर देखा तो नदी के उस पार पर्वत की तलहटी में सुतली का गाँव और उसका घर, एक कच्चा कोठर दिखा। अकेला। अलग-थलग। अपनी हालत पर खुद आँसू बहाता हुआ। पठानिया माँ-बेटी इसी घर में वापस जाएंगी। रेस्ट हाउस के बेडरूम वे भूल जाएँगी। लौट जाएँगी उसी जीवन में-कलुषित वस्त्र, मैले चेहरे, भूख-दर-भूख, एक सेर आटे को लाचार।
मैंने दाईं ओर देखा। अस्पताल के द्वार पर काफी लोग एकत्र थे। कुछ सिपाही भी। उन्हीं में डॉक्टर तोमर भी था। आज मुझे डॉक्टर तोमर, सलामदीन बैण्डमास्टर नहीं लगा। बेबस! मायूस!! बेचारा!!!
मैं इस गाँव में कुछ और दिन नहीं रुक सकता था। मैं डॉक्टर तोमर की वकालत भी पुलिस के पास नहीं कर सकता था, क्योंकि मैं कमजोर हूँ। मैं सुतली को अपने साथ बंबई नहीं ले जा सकता क्योंकि मुझे खुद पर विश्वास नहीं। मैं राजनैतिक साजिशों को बेनकाब नहीं कर सकता, क्योंकि मैंने दुनिया देखी है। मैं कुछ नहीं कर सकता। मैं वापस बंबई नहीं जा सकता। मैं फिल्म नहीं बना सकता। मैं ख्याति नहीं अर्जित कर सकता। मैं धन नहीं कमा सकता। मैं जिन्दा नहीं रह सकता और न ही मर सकता।
मैंने चलती टैक्सी से सिर बाहर निकाला। मैं आकाश में उड़ रहा था। हम काफ़ी ऊपर आ गए थे। सारा संसार मेरी आँखों के सामने बिखरा पड़ा था। मेरे कानों में डॉक्टर तोमर के शब्द गूंज रहे थे-
'ऐ मूर्ख फिल्म निर्देशक! तुम यहाँ धन के बूते पर चले आए हो।" भोली-भाली लड़कियों की नेकनामी मिट्टी में मिलाने। ऐ पापी! बंबई के सौदागर! तुम भेड़िए हो! तुम्हारे ये चमचे हमारे पहाड़ी कुत्तों से भी गए-गुजरे हैं। पापी कलाकार...ऐ दुरात्मा...'
ये शब्द बहुत देर तक मेरे कानों में गूंजते रहे। पर अब मेरी आँखें किसी और तलाश में थीं, कुछ और ही खोज रही थीं। पर्वत-शिखरों पर सुतली का गाँव नहीं था। चारों ओर धुंध ही धंध केवल। खो गया था सुतली का उल्लास। व्यर्थ हो गए थे सुतली के वे चार दिन। कौन विश्वास करे। पर-आदम यूँ ही बदनाम नहीं।
मैं हवा में उड़ रहा था। ऊपर और ऊपर जा रहा था। दुनिया मुझसे दूर खिसक रही थी। सिमटती जा रही थी। मैं स्वतंत्र पंछी की तरह पंख हिला रहा था, उड़ रहा था। तभी एक घटना घटी। मैं एक पुस्तक बना-अपने जीवन की लिखी हुई एक लंबी कहानी। पुस्तक खुल गई। पन्ने बिखर गए। हवा में हजारों पन्ने तैरने लगे। मैं घबराया। तभी देखा कि कुछ पन्ने पुस्तक में बचे रह गए हैं। कोरे। श्वेत। बिना किसी लिखावट के। इन्हीं कोरे कागजों पर मेरे जीवन की नई दास्तां लिखी जाएगी।
अनुवाद : गौरीशंकर रैणा