लालची आदमी और चावल का बड़ा दाना : चीनी लोक-कथा
A Greedy Man and a Large Grain of Rice : Chinese Folktale
एक बार की बात है कि चीन में किसी जगह एक ऐसा गाँव था जहाँ के लोग कभी भूखे नहीं रहते थे। वे छोटे छोटे सुन्दर मकानों में रहते थे। उनके रहने के मकानों के साथ साथ एक एक झोंपड़ी भी हुआ करती थी जिसमें वे अपना चावल रखते थे।
उनकी उस झोंपड़ी में कभी भी चावल के एक दाने से ज़्यादा नहीं रहता था मगर फिर भी लोग खुश थे क्योंकि उस समय में चावल का एक दाना एक आदमी के साइज़ से भी बड़ा होता था।
जब कभी किसी को भूख लगती थी तो वह झोंपड़ी में जाता और उस चावल के दाने में से उसका कुछ हिस्सा खुरचता, उसके छोटे छोटे टुकड़े करता, पकाता और खा लेता।
लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि यह कोई नहीं जानता था कि वह चावल का दाना आता कहाँ से था।
हर साल जब गाँव वालों की झोंपड़ियाँ चावल से खाली हो जाती थीं और उनके पास कुछ भी खाने को नहीं होता था तब वहाँ के लोग धड़म धड़म की आवाज सुनते थे जैसी कि पहियों के चलने से आती है और गाँव में चावल लुढ़कता हुआ चला आता था।
उस समय सभी गाँव वाले खुशी से तालियाँ बजाते और चिल्लाते — “देखो चावल लुढ़कता हुआ आ रहा है अपने अपने दरवाजे खोल दो और उसको अन्दर आने दो।”
एक के बाद एक दरवाजा खुलता और हर झोंपड़ी में चावल का एक दाना अन्दर चला आता था।
एक बार ऐसा हुआ कि किसी दूसरे गाँव से एक बूढ़ा और उसकी पत्नी उस गाँव में आये। वे कुछ थके थके से चल रहे थे क्योंकि वे बहुत दूर से आ रहे थे और भूखे भी थे। उन्होंने मकानों और झोंपड़ियों को देखा और देखा वहाँ के खुशहाल लोगों को भी।
पत्नी ने पति का कन्धा थपथपाया और बोली — “यह जगह अच्छी लगती है क्योंकि न तो कोई यहाँ भूखा दिखायी दे रहा है और न ही कोई थका हुआ। हम इन लोगों से पूछते हैं अगर ये हमको भी यहाँ रहने को मकान और खाना रखने को एक झोंपड़ी दे दें।”
इस पर आदमी ने अपनी पत्नी को घूर कर देखा और फिर अपने कन्धे से उसका हाथ हटाते हुए बोला — “ओह, मैंने ऐसी स्त्री से शादी क्यों की जिसे अक्ल ही नहीं है। एक खाली मकान और एक खाली झोंपड़ी, बस? पर हमारे पास खाना कहाँ है?”
उसी समय कहीं दूर से धड़म धड़म की आवाज सुनायी दी। पत्नी आश्चर्य से बोली — “यह आवाज किसकी हो सकती है। ऐसी आवाज तो मैंने पहले कभी नहीं सुनी।”
वह बूढ़ा भी उस आवाज को सुन कर कुछ परेशान सा दिखायी दिया और बोला — “यह आवाज तो ऐसी है जैसे सैकड़ों पहिये जमीन पर लुढ़कते चले आ रहे हों।”
तभी उन्होंने देखा कि वहाँ के लोग अपने अपने मकानों से बाहर आ गये और ताली बजा बजा कर नाचने लगे और गाने लगे “चावल आ रहा है, चावल आ रहा है, सब अपने अपने दरवाजे खोल दो और उसको अन्दर आने दो।”
और जब तक वह बूढ़ा और उसकी पत्नी सँभलते तब तक एक एक चावल का दाना एक एक झोंपड़ी में आ कर खड़ा हो गया और एक दाना बच गया जो लम्बाई में उस बूढ़े के बराबर ही लम्बा था और उसका सिर बूढे, की पत्नी से भी लम्बा था।
जैसे ही वह चावल का दाना बूढ़े के सामने आ कर खड़ा हुआ तो बूढ़ा उसे आश्चर्य से देखने लगा। उसके मुँह से आवाज तक नहीं निकल रही थी,। वह बहुत डर गया था। इतने में वह चावल बड़ी शान्ति से उसके पैरों पर झुक गया।
इतने में ही गाँव वाले भी दौड़े दौड़े वहाँ आ गये और बोले — “ओ अजनबी आओ, तुम्हारा स्वागत है। तुम भी हमारे साथ आ कर रहो। चावल ने भी तुम्हारा स्वागत किया है।”
उस आदमी को यह सब बड़ा अचम्भा सा लग रहा था। उसके मुँह से तो बोल भी न फूटा। वह तो केवल फटी फटी आँखों से कभी चावल को, कभी अपनी पत्नी को और कभी गाँव वालों को देखता ही रह गया।
परन्तु उसकी पत्नी ने सहमते हुए चावल को छुआ और गाँव वालों से बोली — “क्या हम लोग यहाँ रह सकते हैं? क्या हम अपने रहने के लिये एक मकान और अपने चावल के लिये एक झोंपड़ी बना लें?”
इस सवाल के जवाब में गाँव वाले उनको उनका हाथ पकड़ कर गाँव के दूसरे कोने की ओर ले गये जहाँ एक खाली मकान पहले से ही बना हुआ था।
वहीं पास में बाँस का एक पेड़ लगा था जिससे चावल के लिये एक झोंपड़ी बनायी जा सकती थी। चावल भी उन लोगों के पीछे पीछे आ रहा था। वह भी उसी जगह आ कर रुक गया जहाँ वे लोग झोंपड़ी बनाने वाले थे।
उस बूढ़े ने बड़ी मेहनत से झोंपड़ी बनायी। जैसे ही वह झोंपड़ी बन कर तैयार हो गयी चावल के दाने ने एक कूद लगायी और वह झोंपड़ी के अन्दर।
बूढ़े की पत्नी को बहुत खुशी हुई। वह पति से बोली — “बस, अब हम यहीं शान्ति से रह सकते हैं क्योंकि अब हमें खाने के लिये दर दर नहीं भटकना पड़ेगा। हम इसमें से चावल खुरच लेंगे और पका कर बढ़िया खाना खायेंगे।
लेकिन उस बूढ़े ने अपने कन्धे उचकाये और बोला — “ओह, मैंने ऐसी स्त्री से शादी क्यों की जिसमें अक्ल का नाम ही नहीं है। अरे जब तक वह चावल चलेगा तब तक तो सब ठीक है पर अगले साल हम क्या करेंगे?”
“लेकिन अगला साल किसने देखा है? अभी तो हम आराम से रहें। जब अगला साल आयेगा तब की तब देखी जायेगी। यह भी तो हो सकता है कि यह चावल हर साल ऐसे ही लुढ़कता चला आता हो।” पत्नी ने पति को समझाते हुए कहा।
पति को यह बात कुछ जँच गयी। वह बोला — “शायद ऐसा ही हो। पर अगर चावल अगले साल नहीं आया तो हमें पहले की तरह भूखे रहना पड़ेगा।”
पर अगले साल उसी समय फिर धड़म धड़म की आवाज सुनायी दी जैसी कि सैंकड़ों पहियों के लुढ़कने से होती है और सबने देखा कि चावल फिर से लुढ़कता चला आ रहा है।
उस स्त्री के आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उसने देखा कि चावल का पहला दाना सारा गाँव पार कर के उसकी नये बाँस की झोंपड़ी में अपने आप आ कर लुढ़क गया।
कुछ पल के लिये तो वह चकित सी रह गयी पर फिर हँसते हुए उसने चावल को थपथपाया और बोली — “तुम बहुत सुन्दर हो बिल्कुल बड़े आदमी जैसे, अच्छाइयों से भरे हुए, यहाँ के भूखे लागों का पेट भरने के लिये अपने आप ही चले आते हो। मैं तुम्हें आशीर्वाद देती हूँ और तुम्हारे लिये शुभकामना करती हूँ कि तुम इसी तरह लोगों की भलाई करते रहो।”
फिर उसने अपने पति को भी बुला कर उसको चावल को धन्यवाद देने को कहा परन्तु वह बूढ़ा अपनी जगह से टस से मस नहीं हुआ।
वह झोंपड़ी के दरवाजे के पास खड़ा था वहीं से बोला — “मुझे तंग मत करो, मैं कुछ सोच रहा हूँ।”
“क्या तुम किसी इतने गम्भीर मामले पर सोच रहे हो कि तुम चावल को धन्यवाद भी नहीं दे सकते?”
“हाँ मैं चावल के बारे में ही सोच रहा हूँ। यहाँ झोंपड़ी में केवल एक ही चावल आता है।”
“हाँ यहाँ के लोगों ने मुझे बताया कि जब नये शादी शुदा लोग अपना घर बसाते है तो उनके लिये एक चावल आता है।”
“मैं इससे कुछ आगे की ही सोच रहा हूँ, मुझे जाने दो।” कह कर बूढ़ा अपने मकान के अन्दर चला गया।
उसकी पत्नी उसके इस बर्ताव से बहुत परेशान हुई पर क्योंकि वह अपने पति के स्वभाव को अच्छी तरह जानती थी इसलिये वह पड़ोस में बात करने चली गयी और फिर रात को ही लौटी।
जब वह वापस लौटी तो सोच रही थी कि उसका पति भूखा होगा और गर्म गर्म चावल खाने का इन्तजार कर रहा होगा परन्तु ऐसा तो वहाँ कुछ भी नहीं था। मकान खाली पड़ा था और उसका बूढ़ा पति झोंपड़ी की दीवारें गज से नाप रहा था।
पत्नी को देखते ही वह चिल्लाया — “तुम्हें पुकारते पुकारते मेरा गला थक गया। कहाँ थीं तुम? आओ ज़रा मेरी मदद करो।”
“पर तुम यह कर क्या रहे हो?”
“मैं यह झोंपड़ी नाप रहा हूँ और मैं ऐसी ही एक झोंपड़ी और बनाऊँगा।”
“मगर हमारी यह झोंपड़ी तो अभी नयी ही है अभी हमें दूसरी झोंपड़ी की क्या जरूरत पड़ गयी?”
बूढ़े ने सिर पर हाथ मार कर कहा — “ओह, मैंने ऐसी स्त्री से से शादी ही क्यों की जिसमें अक्ल ही नहीं है। क्या तुम्हीं ने मुझसे नहीं कहा था कि हर झोंपड़ी के लिये एक चावल का दाना हमेशा रहता है।”
“हाँ कहा तो था। ऐसा मैंने अपने पड़ोसियों से सुना था।”
“तब कुछ अक्ल से काम लो। अगर हमारे पास दो झोंपड़ियाँ होंगी तो हमारे पास दो चावल के दाने होंगे। और अगर तीन झोंपड़ियाँ होंगी तो तीन चावल के दाने होंगे।”
यह दलील सुन कर तो वह स्त्री सकते मे आ गयी। तब बूढ़े ने उसके कन्धे पर हाथ रख कर कहा — “ओह, मैंने ऐसी स्त्री से शादी ही क्यों की जो अपनी थोड़ी सी भी अक्ल का इस्तेमाल नहीं करती।
जो चावल हम नहीं खा पायेंगे उसे हम पास वाले उस गाँव में बेच देंगे जहाँ यह चावल नहीं आता। हमारे पास जितनी ज़्यादा झोंपड़ियाँ होंगी हम उतने ही ज़्यादा चावल के दाने रख सकेंगे।”
यह विचार बूढ़े की पत्नी को बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा। वह इतनी लालची नहीं थी जितना कि उसका पति। परन्तु पत्नी की बात सुनी अनसुनी कर के पति और झोंपड़ी बनाने के लिये नये बाँस काटने में लग गया।
कई दिनों की कड़ी मेहनत के बाद उसने आखिरकार चावल आने के दिन तक किसी तरह से एक नयी झोंपड़ी बनाने का सामान अपने घर में इकठ्ठा कर लिया। यह सब काम उसने छिप कर किया ताकि पड़ोसी न देख लें।
चावल आने से पहली रात को बूढ़ा और उसकी पत्नी सोये ही नहीं। वे चाँदनी में ही झोंपड़ी बनाते रहे। सुबह हुई तो एक झोंपड़ी तो उनकी तैयार हो गयी थी मगर दूसरी झोंपड़ी की केवल तीन दीवारें थीं, तब तक न तो उस झोंपड़ी पर कोई छत थी और न ही उसमें कोई दरवाजा।
बूढ़ा अपनी पत्नी से बोला — “आओ, जल्दी करो। हमको जल्दी ही यह झोंपड़ी तैयार कर लेनी चाहिये। चावल आता ही होगा।”
पत्नी ने थकान भरी आवाज में कहा — “इतना ज़्यादा लालची होना भी ठीक नहीं। इसके अलावा काम करते करते मेरी उँगलियाँ भी अब अकड़ी जा रहीं हैं और मेरी पीठ भी दर्द कर रही है।”
पति ने जवाब दिया — “कोई बात नहीं, उँगलियाँ और पीठ बाद में देख लेना पहले मेरी झोंपड़ी तैयार करा दो।”
उसके इस काम से बेचारी पत्नी तो पहले से ही खुश नहीं थी फिर भी वह अपने पति की सहायता करने में लगी रही। पर दर्द के मारे उसकी आँखों से आँसू बहने लगे।
उसी समय धड़म धड़म की आवाज सुनायी देने लगी। पल भर में ही सारा गाँव गूँज उठा — “चावल आ रहा है, चावल आ रहा है, अपने अपने घर के दरवाजे खोल दो, और उसे अन्दर आने दो।”
चावल गाँव में आने लगा और उसको देख कर हर झोंपड़ी का दरवाजा खुलने लगा।
बूढ़ा और उसकी पत्नी अपनी तीसरी झोंपड़ी तैयार करने में लगे थे लेकिन चावल उनके सामने झोंपड़ी पूरी होने से पहले ही आ खड़ा हुआ था। पर वह बीच में ही रुक गया क्योंकि वह बूढ़ा रास्ते में आ गया।
बूढ़े की आँखें गुस्से से लाल थीं और मुठ्ठियाँ भिंची हुईं थीं।
उसने गुस्से में भर कर कहा — “तुमने बिना बुलाये यहाँ आने की हिम्मत कैसे की? तुम हमारी झोंपड़ी तैयार होने तक इन्तजार क्यों नहीं कर सके? सुना नहीं तुमने? क्यों इन्तजार नहीं कर सके तुम?” उसके इतना बोलते ही वह चावल का दाना पीछे की ओर लुढ़कना शुरू हो गया।
आदमी चिल्लाया — “हाँ, अब ठीक है। जाओ और बाहर जा कर तब तक इन्तजार करो जब तक हम तुम्हें न बुलायें।”
इतना कह कर वह अपने चावल के दाने के पीछे भागा और उसे एक लात मारी। जैसे ही उसने उस चावल में लात मारी पल भर में ही वह चावल उसके पैरों में टुकड़े टुकड़े हो कर बिखर गया। उसी दिन से चावल हमेशा के लिये उतना ही छोटा हो कर रह गया। आज भी हम चावल को उसी रूप में देखते हैं।
क्योंकि चावल का बहुत बड़ा अपमान हुआ था इसलिये वह फिर कभी भी अपने आप झोंपड़ियों में लुढ़कता हुआ भी नहीं आया।
अब उसके बाद से आदमियों को उसे लाने के लिये खेतों में जाना पड़ता था, उसे बोना होता था, उसकी देखभाल करनी होती थी, उसे काटना होता था।
और यह सब उस बूढ़े आदमी के लालच की वजह से हुआ जो अपने हिस्से से अधिक चाहता था।
(साभार सुषमा गुप्ता जी, जिन्होंने लोक-कथाओं पर उल्लेखनीय काम किया है.)