एक चीनी परी कथा : चीनी लोक-कथा
A Chinese Fairy Tale : Chinese Folktale
टिकीपू यों तो बहुत बड़ा बेवकूफ था परन्तु कला के लिये उसके दिल में बहुत प्रेम था। उसका मालिक जिसके यहाँ वह काम करता था वह एक बहुत बड़ा कलाकार था।
उसके पास कई विद्यार्थी आते थे जिनको वह कला सिखाता था। वे विद्यार्थी रोज वहाँ आते और उसका कमरा उसके विद्यार्थियों के नये नये चित्रों से जगमगाता रहता। उसके कमरे की दीवारों पर पुराने मरे हुए कलाकारों के चित्र भी टँगे रहते थे।
टिकीपू इसी चित्रशाला में काम करता था। वह रोज उसकी झाड़ पोंछ और सफाई करता और जो लोग उसमें काम करते थे वह उनके रंग पीसता था, ब्रश साफ करता था और उनके दूसरे छोटे मोटे काम करता था। उनको बाहर की दूकान से खाने का सामान ला कर देता।
वह खुद डबल रोटी के टुकड़े खा कर रहता जो उसके मालिक के विद्यार्थी चित्रशाला में ले कर आते और फिर फर्श पर फेंक देते थे और फिर रात को वहीं उसी फर्श पर सो जाता।
टिकीपू अन्धों की सहायता करता, खिड़की और टूटे हुए शीशे ठीक करता जो विद्यार्थी लोग उस पर ब्रश मार मार कर तोड़ देते।
वह उनके लिये चित्र बनाने के लिये कागज ले कर आता और किसी किसी आलसी विद्यार्थी के रंग भी मिलाता। उस समय उसको बड़ी खुशी होती और उसको भी लगता कि वह भी एक कलाकार है।
कभी पीला तो कभी हरा, तो कभी नीला और कभी जामुनी रंग जब वह बनाता तो वह खुद भी खुशी के मारे चिल्ला सा उठता। यह सब करते समय वह अपने मालिक का भाषण भी सुन रहा होता। उसे सभी पेन्टरों और उनके स्कूलों के नाम जबानी याद हो गये थे जो उसका मालिक अपने भाषण में बोलता था।
उनमें से सबसे बड़ा पेन्टर वियोवानी जो 300 साल पहले हुआ था वह उसको बहुत अच्छी तरह याद था। उसका एक चित्र भी उसके मालिक की चित्रशाला में टँगा हुआ था।
वह चित्र उसको इतना अच्छा लगता था कि उस चित्र पर वह दुनियाँ भर की दौलत वार सकता था। उस चित्र की वह कहानी भी वह जानता था जो उसके बारे में कही जाती थी। वह कहानी उसके लिये उतनी ही पवित्र थी जितनी कि उसके पुरखों की कब्र।
वियोवानी ने उस चित्र को अपने जीवन के आखिरी दिनों में बनाया था। उस चित्र में एक बागीचा था जिसमें पेड़ ही पेड़ थे और थी धूप, ऊँचे लगे फूल और हरे भरे रास्ते और इन सबके बीच में था एक महल। वियोवानी ने उस चित्र को पूरा करने के बाद कहा था — “यह वह महल है जहाँ मैं आराम करना चाहूँगा।”
वह चित्र इतना सुन्दर था कि चीन के बादशाह खुद उसको देखने आये थे और देर तक उस शान्त रास्ते को देखते रहे और फिर एक आह भर कर बोले — “काश, मैं भी किसी ऐसी ही जगह आराम कर सकता।” तब वियोवानी उस चित्र में घुसा और उस शान्त रास्ते पर दूर तक चलता चला गया।
दूर जा कर उसने महल का दरवाजा खोला और बादशाह को बुलाया मगर बादशाह नहीं गये तो वह खुद ही उसके अन्दर चला गया और इस दुनियाँ और अपने बीच का दरवाजा उसने हमेशा हमेशा के लिये बन्द कर लिया।
यह 300 साल पुरानी बात थी मगर टिकीपू को यह आज भी इतनी ताजा लगती थी जैसे कल की ही बात हो। जब वह अकेला चित्रशाला में होता था तो वह अक्सर उस चित्र को घूरता रहता जब तक कि बिल्कुल ही अँधेरा नहीं हो जाता।
फिर उसकी उँगलियाँ उस महल का दरवाजा खटखटातीं और टिकीपू पूछता — “वियोवानी, क्या तुम अन्दर हो?”
धीरे धीरे टिकीपू इस जीवन का आदी हो गया और वह सोचने लगा कि जो चित्रकला के सारे काम कर सकता था वह किसी दिन एक बड़ा चित्रकार जरूर बनेगा।
वह सुबह जल्दी ही उठ जाता और विद्यार्थियों के आने तक चित्र बनाने का अभ्यास करता। उसका अभ्यास दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा था यहाँ तक कि अब वह मोमबत्ती के टुकड़े चुराने लगा था जो विद्यार्थी वहाँ अँधेरे में काम करने के लिये लाया करते थे।
कोई विद्यार्थी कहता — “अरे, कल तो मैं अपनी जगह पर अपनी मोमबत्ती छोड़ कर गया था, कहाँ गयी वह? लगता है टिकीपू ने चुरा ली।”
इस पर वह जवाब देता — “हाँ हाँ मैंने ही उसे चुराया है। मुझे भूख लगी थी और मैंने उसे खा लिया।” उसकी बात का विश्वास कर लिया जाता पर कभी कभी उसे मार भी पड़ती।
अपने कोट के फटे अस्तर के अन्दर वह मोमबत्ती के छोटे छोटे टुकड़ों की खटपट सुनता रहता। कभी कभी वह डर जाता कि कहीं उसकी यह चोरी कि वह मोमबत्ती के टुकड़े इकठ्ठे करता है, पकड़ी न जाये। लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं।
रात को जब वह देखता कि सब सो गये होंगे तब वह एक मोमबत्ती लगाता और उसकी रोशनी में चित्रकारी करता रहता जब तक कि सुबह न हो जाती।
टिकीपू अपनी होने वाले अभ्यास से बहुत सन्तुष्ट था फिर भी उसकी यह इच्छा थी कि अगर वियोवानी उसको सिखाने आये तो वह एक अच्छा चित्रकार बन सकता था।
एक दिन वह वियोवानी के चित्र के सामने बैठ गया और वैसा ही चित्र बनाने की कोशिश करने लगा। उसने अपनी आँखों को काफी गड़ा गड़ा कर देखा परन्तु उसकी बारीकियाँ उसकी समझ से बाहर थीं।
किस प्रकार उस चित्र में पेड़ एक के पीछे एक खड़े थे जिनमें से धूप झाँक रही थी, कैसे वह रास्ता घूमता हुआ उस महल तक जाता था, आदि आदि देख कर उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे।
तभी महल का दरवाजा खुला और उसमें से एक छोटा बूढ़ा आदमी उसी रास्ते से उसकी ओर आने लगा। टिकीपू के दिमाग में बिजली सी दौड़ गयी — “अरे यह तो वियोवानी ही हो सकता है और कोई नहीं।”
उसने तुरन्त अपनी टोपी फेंक दी और आदर से फर्श पर लेट गया।
जब उसने दोबारा सिर उठाया तो वियोवानी उसके पास ही खड़ा था, वह बोला — “टिकीपू, आओ मेरे साथ आओ, मैं तुम्हें चित्रों में रंग भरना सिखाऊँगा। मैं अपनी खिड़की से तुम्हें चित्र बनाते देख रहा था।”
वियोवानी और टिकीपू दोनों उस चित्र में चल दिये। महल के पास पहुँच कर वियोवानी ने दरवाजा खोला। टिकीपू ने आश्चर्य से मुँह फाड़ते हुए कहा — “क्या मैं कुछ पूछ सकता हूँ?”
“हाँ हाँ पूछो, क्या बात है?”
“क्या वह बादशाह पागल नहीं था जो आपके पीछे पीछे नहीं आया?”
“यह तो मैं नहीं जानता, पर हाँ मैं इतना जरूर कह सकता हूँ कि वह कलाकार नहीं था।”
दोनों महल के अन्दर चले गये और बाहर मोमबत्ती अपने आप बुझ गयी।
जब तक टिकीपू बाहर आया सुबह हो चुकी थी। वह भागा भागा हरे भरे रास्ते से हो कर आ रहा था, चौखटे में से कूद कर। उसने जल्दी जल्दी फर्श साफ करना शुरू किया। मालिक और विद्यार्थियों के आने से पहले ही उसने अपना काम खत्म कर लिया।
सारा दिन वे लोग अपना बाँया कान खुजाते रहे। उनको तो कुछ मालूम नहीं था कि वे ऐसा क्यों कर रहे थे मगर टिकीपू जानता था कि वे ऐसा क्यों कर रहे थे।
क्योंकि वह अपने आपसे ही उनके और उनके कीमती चित्रों के बारे में बातें करता रहा था और जैसे ही उसने उनके रंग पीसे, ब्रश धोये और डबल रोटी के टुकड़े खाये तो सारे विद्यार्थी पहचान गये कि आज टिकीपू कुछ बदला बदला सा है।
टिकीपू के मालिक ने भी टिकीपू में यह बदलाव देखा परन्तु यह बदलाव डाँटने फटकारने वाला बदलाव नहीं था इसलिये उसने सोचा “लगता है रात में इसका दिमाग खराब हो जाता है।”
पर एक रात मालिक को पता चल ही गया कि रात को उसकी चित्रशाला में क्या क्या होता है। एक रात मालिक लैम्प ले कर यह देखने के लिये बाहर निकला कि शायद रात को टिकीपू कहीं जाता हो।
पर कुछ देर बाद ही उसने देखा कि चित्रशाला की खिड़की से धीमी धीमी रोशनी आ रही थी इसलिये उसने पास आ कर खिड़की का शीशा ज़रा सा उठाया और उसके छेद में से अन्दर झाँका। उसने देखा कि अन्दर एक मोमबत्ती जल रही थी और टिकीपू हाथ में रंग और ब्रश लिये वियोवानी के आखिरी चित्र के सामने खड़ा था।
मालिक सोचने लगा — “ओह मैंने अपनी आस्तीन में कितना बड़ा साँप पाल रखा है। लगता है यह तो बहुत बड़ा चित्रकार बनने की सोच रहा है। फिर तो यह मेरी इज़्ज़त रोजी रोटी सब खत्म कर देगा।”
अब वियोवानी अपने महल के दरवाजे में से रास्ते पर आ रहा था जैसा कि वह हर रात करता था। वह आया और उसने टिकीपू को बुलाया।
और यह देख कर टिकीपू के मालिक की तो चीख ही निकलते निकलते बची जब उसने देखा कि टिकीपू वियोवानी का हाथ पकड़ कर चित्र के चौखटे में कूद गया और उसके साथ साथ हरे हरे रास्तों पर जाता हुआ महल के दरवाजे में घुस गया।
कुछ देर के लिये तो टिकीपू का मालिक डर के मारे जम सा गया — “अरे ओ जहरीले साँप, क्या तुम यही सीखते हो स्कूल में? तुम उस चित्र के अन्दर जाने की हिम्मत ही कैसे कर सके जो मैंने अपनी खुशी और फायदे के लिये खरीदा था। तुम्हें जल्दी ही पता चल जायेगा कि यह किसका चित्र है।”
मालिक खिड़की से कूद कर अन्दर पहुँचा और जल्दी जल्दी वियोवानी के उस चित्र पर काम करने लगा। रंग और ब्रश से उस ने महल के दरवाजे की जगह एक दीवार रंग दी जिससे महल का दरवाजा बन्द हो गया।
दीवार को एक बार रंग कर उसे सन्तुष्टि नहीं हुई सो उसने उसे दोबारा रंग दिया। अब वह दीवार दोहरी हो गयी थी। अब वह सन्तुष्ट था और टिकीपू को विदा कर घर वापस आ गया।
अगले दिन सभी विद्यार्थियों को बड़ा आश्चर्य हुआ जब उन्होंने टिकीपू को नहीं देखा। क्या हुआ टिकीपू का? परन्तु क्योंकि मालिक चुप था और उसने एक और नया लड़का वहाँ के कामों के लिये रख लिया था इसलिये वे सभी उसे जल्दी ही भूल गये।
अब चित्रशाला में मालिक आराम से बैठता था और कभी कभी चित्र में बनी उस दीवार पर नजर डाल लिया करता था जो उसने खुद बनायी थी। दिन बीतते गये और फिर इस बात को पाँच साल भी बीत गये।
एक दिन मालिक अपने विद्यार्थियों को वियोवानी की चित्रकारी के बारे में बता रहा था। अपनी बातों को ज़्यादा अच्छी तरह समझाने के लिये वह वियोवानी के उस चित्र के पास जा कर हाथ हिलाने लगा और उसके चारों ओर उसके विद्यार्थी खड़े थे कि यकायक वह बीच में ही रुक गया।
उसने देखा कि एक हाथ उस दीवार की सबसे ऊपर की ईंट हटा रहा था जो उसने खुद बनायी थी। अगले ही पल ईंटों की वह दोहरी दीवार गिर पड़ी। मालिक के मुँह से डर के मारे एक शब्द भी नहीं निकल पा रहा था। वह और उसके विद्यार्थी सभी चुपचाप खड़े दीवार गिरने का तमाशा देख रहे थे।
मालिक वियोवानी को पहचान गया। उसके पीछे पीछे उसको टिकीपू दिखायी दिया। टिकीपू अब बड़ा और सुन्दर हो गया था मगर उसके मालिक ने उसे फिर भी पहचान लिया।
मालिक उसको ईर्ष्या की नजर से देख रहा था क्योंकि उसकी दोनों बगलों में उसके बहुत सारे चित्र थे। और यह तो साफ ही था कि टिकीपू अब एक बड़ा चित्रकार हो गया था और अब इस संसार में वापस आ रहा था।
वे दोनों हरे भरे रास्ते से चले आ रहे थे। बुढ़ापा और जवानी का अच्छा साथ दिखायी दे रहा था। वियोवानी के हाथ में एक ईंट थी जिसको वह दरवाजे से ही अपने साथ ला रहा था।
उसने चौखटे के पास आ कर मालिक से पूछा — “तुमने वैसा क्यों किया?”
“मैंने? मैंने? कुछ भी तो नहीं।” मालिक जवाब देने वाला ही था कि उसकी बनायी ईंट उसी के सिर पर आ पड़ी।
चौखटे के अन्दर टिकीपू वियोवानी से विदा ले रहा था जिसने पाँच साल में ही उसको सारी कला सिखा दी थी — “अब मैं तुम्हारे अन्दर जन्म ले कर इस संसार में आ रहा हूँ। तुम थक जाओ तो मेरे पास चले आना मैं तुम्हें अन्दर बुला लूँगा।”
टिकीपू रो रहा था। उसके आँसू उसके गालों से नीचे बहे जा रहे थे और एक बार फिर वह बगीचे से हो कर जमीन पर आ गया।
टिकीपू ने पलट कर देखा तो वह बूढ़ा वापस जा रहा था। दरवाजे पर पहुँच कर उसने टिकीपू से हाथ हिला कर विदा ली और दरवाजा बन्द हो गया। चित्र की पत्तियों ने उस दरवाजे को धीरे से ढक लिया था।
टिकीपू ने अपना भीगा चेहरा चित्र पर रगड़ा और उस दरवाजे को चूम लिया जिसने उसे आज यह दिन दिखाया था। वह ज़ोर से बोला — “वियोवानी, क्या तुम अन्दर हो?”
उसने कई बार वियोवानी को पुकारा पर उसे कोई जवाब नहीं मिला। वह वहाँ से रोता हुआ चला गया।
(साभार सुषमा गुप्ता जी, जिन्होंने लोक-कथाओं पर उल्लेखनीय काम किया है.)