शहज़ादा (कहानी) : कृष्ण चन्दर

Shehzada (Story in Hindi) : Krishen Chander

सुधा ख़ूबसूरत थी न बदसूरत, बस मामूली सी लड़की थी। साँवली रंगत, साफ़ सुथरे हाथ पांव, मिज़ाज की ठंडी मगर घरेलू, खाने पकाने में होशियार, सीने-पिरोने में ताक़, पढ़ने-लिखने की शौक़ीन, मगर न ख़ूबसूरत थी न अमीर, न चंचल, दिल को लुभाने वाली कोई बात इस में न थी। बस वो तो एक बेहद शर्मीली सी और ख़ामोश-तबीअत वाली लड़की थी... बचपन ही से अकेली खेला करती, मिट्टी की गुड़ियाँ बनाती और उनसे बातें करती। उन्हें तिनकों की रसोई में बिठा देती और ख़ुद अपने हाथ से खेला करती। जब कोई दूसरी लड़की उसके क़रीब आती तो गुड़ियों से बातें करते-करते चुप हो जाती। जब कोई शरीर बच्चा उस का घरौंदा बिगाड़ देता तो ख़ामोशी से रोने लगती। रो कर ख़ुद ही चुप हो जाती और थोड़ी देर के बाद दूसरा घरौंदा बनाने लगती।
कॉलेज में भी उसकी सहेलियाँ और दोस्त बहुत कम थे। वो शर्मीली तबीयत अभी तक उसके साथ चल रही थी, जैसे उसके माँ-बाप की ग़रीबी ने बढ़ावा दे दिया हो। उसका बाप जीवन राम नाथु मिल वाच मर्चैंट के यहां चाँदनी चौक की दूकान पर तीस साल से सेल्ज़ मैन चला आ रहा था। उसकी हैसियत ऐसी न थी कि वो अपनी बेटी को कॉलेज की तालीम दे सके। उस पर भी जो उसने अपनी बेटी को कॉलेज में भेजा था, महज़ इस ख़्याल से कि शायद इस तरीक़े से उसकी लड़की को कोई अच्छा ख़ाविंद मिल जाएगा। कभी कभी उसके दिल में ये ख़्याल भी आता था, मुम्किन है कॉलेज का कोई अच्छा लड़का ही उसपर आशिक़ हो जाये। मगर जब वो सुधा की सूरत देखता, झुकी हुई गर्दन, सिकुड़ा हुआ सीना, ख़ामोश निगाहें...और उसकी कम गोई का अंदाज़ा करता तो एक आह भर कर चुप हो जाता और अपना हुक़्क़ा गुड़ गुड़ाने लगता।
सुधा के लिए तो कोई बर घेर घार कर ही लाना होगा। मगर मुसीबत ये है कि इस तरह के बर बड़ा जहेज़ मांगते थे और उसकी हैसियत ऐसी न थी कि वो बड़ा तो क्या छोटा सा भी जहेज़ दे सके। ज़हन के बहाव में बहते बहते उसने ये भी सोचा कि आजकल मुहब्बत की शादी बड़ी सस्ती रहती है। अब मालिक राम की बेटी गोपी को ही देखो, बाप हेल्थ मिनिस्ट्री में तीसरे दर्जे का क्लर्क है मगर बेटी ने एक लखपती ठेकेदार से शादी कर ली है जो उसके साथ कॉलेज में पढ़ता था। बाप क्वार्टरों में रहता है। मगर लड़की एयर कंडीशंड मोटरकार में बैठ कर अपने मैके वालों से मिलने आती है। हाँ, मगर गोपी तो बहुत ख़ूबसूरत है और हमारी सुधा तो बस ऐसी है जैसे उस की माँ...
उसके लिए तो किसी बर को घेरना ही पड़ेगा जिस तरह सुधा की माँ और उसके रिश्ते वालों ने मुझे घेरा था।
दो तीन जगह सुधा की माँ ने बात चलाई थी। मगर वो बात आगे न बढ़ सकी, मगर एक-बार तो उसने बंद इतना मज़बूत बाँधा कि लड़का ख़ुद घर चल कर सुधा को देखने आ गया। मगर सुधा उसे पसंद न आई। लड़का ख़ुद भी कौन सा अच्छा था? मुआ चेचक मारा, ठिंगना सा, उस पर हकलाता था, जामुन का सा रंग, मगर गोरी लड़की चाहता था और जहेज़ में एक स्कूटर मांगता था। यहां सुधा का बाप एक साईकल तक न दे सकता था। इसलिए मुआमला आगे चलता भी तो कैसे चलता?
मगर ये सुधा के बाप को मालूम न था कि उस बदसूरत ठिंगने के इनकार पर ख़ुद सुधा कितनी ख़ुश हुई थी? वो और उसके भी दो बरसों में जो दो लड़के उसे देखने आए वो इनकार कर के चले गए। उन सब की सुधा किस क़दर दिल ही दिल में शुक्रगुज़ार थी। वो ऊपर से जितनी ठंडी थी, अंदर से उतनी ही लावा थी। ये कोई नहीं जानता था कि सुधा के तख़य्युल की उड़ान कितनी ऊंची और वसीअ है। अपनी तंगो तारीक सी दुनिया से बाहर निकल कर उसकी कल्पना कैसी कैसी सुंदर जगहों पर उसे ले जाती थी? इस बात को न तो उसका बाप जीवन राम जानता था न उसकी माँ मगही जानती थी कि सुधा कितनी अजीब लड़की है। वो बाहर से मामूली रंग-रूप की लड़की थी, मगर उसने अपने दिल के अंदर एक चमकती हुई ज़िंदगी छुपा रखी थी। जिस तरह लाल गुदड़ी में छुपा रहता है और ये तो हमारी रिवायत है क्योंकि अपने मैले-कुचैले बनिए को देख कर कभी ये एहसास नहीं होता कि उस आदमी के पास इतना सोना होगा। इसीलिए तो वो शर्मीली थी। वो अपना भेद किसी को क्यों बताए? शायद लोग उस पर हँसेंगे और जो कुछ वो सोचती थी वो सब कितना अजीब होता था। ये कॉलेज की सुंदर सजीली लड़कियां अगर उसके हुस्न की मोहिनी देख लें तो धक से रह जाएं और ये लंबी-लंबी कारों वाले देवताओं की तरह इठलाते हुए नौजवान अगर उसके दिल की राकेट जहाज़ देख लें तो क्या हैरत में न खो जाएं? वो मेरी तरफ़ देखते भी नहीं और ठीक भी है... घर की धुली हुई शलवार और सलवटों वाली स्याह क़मीस पहनने वाली ऐसी लड़की को वो भला क्यों देखेंगे... तो... मैं भी उन्हें क्यों बताऊंगी कि मैं क्या हूँ?
"तू ने कैसी लड़की जनी है?" जीवन राम कभी कभी मगही को सताने लगता, "हर वक़्त चुप रहती है। हर वक़्त निगाह नीची रखती है। हर वक़्त काम में जुटी रहती है। उसके मुँह पर कभी हंसी नहीं देखी। अब कपूर साहिब की लड़कियों को देखो, हर वक़्त फूलों की तरह महकती रहती हैं। हर वक़्त घर को गुलज़ार बनाए रखती हैं, और एक सुधा..." जीवन राम अख़बार पटक कर चुप हो जाता।
मगही बारह आने सेर वाला भात और चने की पतली दाल उसके सामने रखती हुई कहती: "उन बच्चीयों की बात मत करो। उन बच्चीयों का बाप सुपरिटेंडेंट है। चार सौ रुपये घर लाता है। मेरी बच्ची के पास सिर्फ़ दो क़मीस हैं और कपूर साहिब की लड़कियां ही दिन में दो सूट बदलती हैं। कभी ये भी सोचा है?"
जीवन राम दाँत पीस कर चुप हो जाता। उसके दिल में बहुत से सवाल उभरते। ये चावल इतने मोटे क्यों हैं?...ये दाल इतनी पतली क्यों है? इसकी बीवी हर वक़्त नुची-खसोटी सी क्यों नज़र आती है? उसकी बच्ची हर वक़्त चुप क्यों रहती है? लोग जहेज़ में स्कूटर मांगते हैं...? बहुत से सवाल पतली दाल के चनों की तरह उसके दिमाग़ में फुदकने लगते... मगर जब उन सवालों का कोई जवाब न मिले तो उन्हें पतली दाल की तरह ही पी जाना चाहिए।
एफ़.ए. पास करा के जीवन राम ने सुधा को कॉलेज से उठा लिया: "मैं अफोर्ड नहीं कर सकता।" उसने अपने साथी तोता राम से कहा जो सेवा मिल वूल क्लॉथ मर्चेंट के यहां नौकर था। वो बड़ी आसानी से ये भी कह सकता था कि कॉलेज में पढ़ाने की मेरी हैसियत नहीं। मगर हैसियत का लफ़्ज़ कितना साफ़ और खुला हुआ है, जैसे किसी ने सर पर सात जूते मार दिए हों और अफोर्ड में कितनी गुंजाइश है। वैसे अपनी ज़बान में कभी कभी बिदेसी और अजनबी अलफ़ाज़ भी इस्तिमाल कर लेने से कितनी पर्दापोशी हो जाती है। बिल्कुल ऐसे, जैसे घर में कोई अजनबी आ जाये तो घर के लड़ाई-झगड़े पर उसी वक़्त पर्दा पड़ जाता है...! "तुम्हारी बेला तो अभी कॉलेज में पढ़ती है ना?"
उसने तोता राम से पूछा, "हाँ!" तोता राम मन की ख़ुशी से चहकते हुए बोला: "अगली सर्दीयों में उसकी शादी होने वाली है।"
"लड़का ढूंढ लिया?" जीवन राम ने मरी हुई आवाज़ में पूछा।
"हाँ !" तोता राम कोयल की तरह कूकते हुए बोला: "उसने ख़ुद ही अपना बर पसंद कर लिया, कॉलेज में, लड़का बड़ा अमीर है।"
जब तोता राम चला गया तो जीवन राम ने बुरा सा मुँह बनाया और तोता राम की पतली आवाज़ की नक़ल करते हुए बोला: "उसने ख़ुद ही अपना बर पसंद कर लिया, चह?" फिर वो ज़ोर से फ़र्श पर थूकते हुए बोला: "हरामज़ादा..."
दो साल गुज़र गए। सुधा अब आसिफ़ अली रोड की एक फ़र्म में टाइपिस्ट थी। वो पहले से ज़्यादा ख़ामोश, बावक़ार और मेहनती हो गई थी। घर की हालत भी अच्छी हो गई। क्योंकि सुधा घर में सौ रुपये लाती थी। दफ़्तर के काम से फ़ारिग़ हो कर वो स्टेनो का काम सीखने जाती थी। बी.ए. करने का इरादा भी रखती थी।
घर की हालत ज़रा बेहतर होने पर जीवन राम और मगही ने सुधा के बर के लिए ज़्यादा एतिमाद से कोशिश शुरू कर दी थी। वो सुधा की तनख़्वाह में बहुत कम ख़र्च करते थे और स्कूटर के लिए पैसे जमा कर रहे थे।
बहुत दिनों के बाद जीवन राम एक लड़के के वालदैन को स्कूटर का लालच देकर घेरने में कामयाब हुआ। मंगनी की रक़म, ब्याह का जहेज़, जहेज़ की नक़दी, जहेज़ का सोना, सारी ही ज़रूरी बातें तय हो गईं तो मोती जो लड़के का नाम था और वाक़ई शक्ल-ओ-सूरत में मोती ही की तरह उजला और ख़ूबसूरत था, अपनी होने वाली बीवी को देखने आया।
मोती ने गहरे ब्राउन रंग का सूट पहना हुआ था। उसकी सुनहरी रंगत पर उसके स्याह घुंघरियाले बाल बेहद ख़ूबसूरत मालूम होते थे उसकी क़मीस से कफ़ के बाहर उसके हाथ बड़े मज़बूत और ख़ूबसूरत लगते थे और जब वो सजी सजाई सुधा की तरफ़ देखकर मुस्कुराया तो अंदर ही अंदर उस मासूम लड़की का दिल पिघल गया और चाय की प्याली उसके हाथों में बजने लगी और बड़ी मुश्किल से वो चाय की प्याली मोती को पेश कर सकी।
मोती चाय पी कर और शुक्रिया अदा कर के बड़ी सआदत मंदी से रुख़्सत हो गया, अपनी बहनों के साथ। दूसरे दिन उसकी बहनों ने कहला भेजा: "लड़की पसंद नहीं।" इस रात सुधा न सो सकी। रात-भर उसकी आँखों में मोती का ख़ूबसूरत चेहरा और उसका बावक़ार जिस्म डोलता रहा था और रात-भर मोती के हाथों का ख़फ़ीफ़ सा लम्स उसकी रूह को गुदगुदाता रहा।
"लड़की पसंद नहीं। उंह।" मगही ग़ुस्से से साग को कड़ाही में भूनते हुए बोली, "और ख़ुद तो बड़ा यूसुफ़ है। अपनी रंगत पर बड़ा इतराता है। मगर अपनी पकौड़ा ऐसी नाक नहीं देखता? और अपने हब्शियों ऐसे घुंघरियाले बाल नहीं देखता। अपनी बहनों को नहीं देखता? एक तो भेंगी थी, सफ़ा भेंगी, दूसरी पोडर सुर्ख़ी की मारी, सूरत की चूहिया लगती थी। तीसरी के बाल देखे थे तुमने? जैसे बनिए की बोई के फोसड़े, उंह लड़की पसंद नहीं।" ये कह कर उसने इतने ज़ोर से कड़ाही में करछी चलाई, जैसे वो साग के बजाय उस लड़के को भून रही हो।
सुधा ने महसूस किया कि उसके घर वालों बल्कि घर के बाहर मुहल्ले वालों और शायद दफ़्तर वालों का भी ख़्याल था कि सुधा कुछ महसूस ही नहीं करती बल्कि दफ़्तर के काम के लिए निहायत मुनासिब लड़की है। न किसी से इश्क़ करे, न किसी को इश्क़ की तरग़ीब दे। दिन ब दिन उसकी आँखें मैली, होंट सिकुड़े हुए और चेहरा धुआँ-धुआँ होता जा रहा था। उसकी सूरत ऐसी ठंडी और ठस निकल आई थी कि उसे देखकर किसी बर्फ़ख़ाने का इमकान होने लगा था। क्लर्क आपस में चेमिगोइयां करते हुए कहते: "जो आदमी सुधा से शादी करेगा उसे पहाड़ पर जाने की ज़रूरत न होगी।"
इसलिए कि मोती के इनकार करने पर सुधा के दिल पर किया बीती ये तो किसी को मालूम न हो सका। पहली बार उसने ज़िंदगी में किसी को दिल दिया था और ये किसी को मालूम न था। होता भी कैसे? और कहती भी क्या किसी से? कि जिसे मैंने चाहा वो मुझे देखने आया था और न पसंद कर के चला गया। लोग तो इश्क़ में रोते हैं। वो बेचारी कुछ कह भी न सकती थी।
उस दिन उसने दफ़्तर में ओवर टाइम किया और जब अंधेरा ख़ासा बढ़ गया तो वो दफ़्तर से बाहर निकली और भूरे रंग का पर्स झुलाती हुई सामने आसिफ़ अली पार्क में चली गई और एक बेंच पर तन्हा बैठ गई। ये पार्क दिल्ली गेट के सामने एक छोटा सा ख़ामोश गोशा था। चंद पेड़ थे, चंद बेंचें थीं। चंद क़ते थे घास के... उनके चारों तरफ़ ट्रैफ़िक का शोर था। मगर आज यहां निस्बतन ख़ामोशी थी। सुधा हर रोज़ यहां आती थी और आध-पौन घंटा अकेले बैठ कर ताज़ा दम होती थी। थोड़े अर्से के लिए अपने ख़यालों की लहरों पर दूर तक तैरती हुई निकल जाती... उसे तन्हाई से डर न लगता था। तन्हाई उसका वाहिद सहारा थी। अंधेरे से उसे डर न लगता था बल्कि अंधेरा उसका दोस्त था। ग़ुंडों से उसे डर न लगता था। जाने उसकी शख़्सियत में कौनसी ऐसी बात थी कि गुंडे भी उसे दूर ही से सूंघ कर चल देते थे, कतरा कर निकल जाते थे।
आज अंधेरा था और पेड़ के नीचे गहरी ख़ामोशी। पत्थर का बेंच भी ख़ूब ठंडा था। चंद मिनट तक सुधा ख़ामोशी से उस बेंच पर बैठी रही मगर जब उसकी तकान न गई तो वो उठकर पेड़ के नीचे चली गई और तने से टेक लगा कर बैठ गई और आँखें बंद कर लीं।
यकायक किसी ने उससे कहा, "तुम यहां क्यों बैठी हो? अकेली?"
सुधा ने आँखें खोलीं। सामने मोती मुस्कुरा रहा था। वही ख़ूबसूरत ब्राउन सूट पहने, वही सपेद दाँतों वाली जगमगाती हुई मुस्कुराहट... उसके हाथ उतने ही ख़ूबसूरत थे... सुधा के हलक़ में कोई चीज़ आ के रुकने लगी। वो बोल न सकी।
मोती उसके क़रीब आ के बैठ गया। इतना क़रीब कि उसकी पतलून उसकी सारी से मस हो रही थी। उसने आहिस्ते से पूछा,
"तुम्हें मेरे इनकार पर ग़ुस्सा आ रहा है ना?"
सुधा ने आहिस्ते से सर हिलाया। उसकी आँखों में आँसू आ गए।
"बहुत बुरा लग रहा है ना?"
सुधा ने फिर हाँ के अंदाज़ में आहिस्ते से सर हिला दिया और आँसू छलक कर उसके गालों पर आ गए और वो रोने लगी...
मोती ने अपने कोट की जेब से रूमाल निकाला और उसके आँसू पोंछते हुए बोला:
"मगर इस में रोने की क्या बात है? हर इन्सान को अपनी पसंद या नापसंद का हक़ है। बताओ हक़ है कि नहीं?"
"मगर तुमने क्या देखा था मेरा? जो तुमने मुझे नापसंद कर दिया। क्या तुमने मेरे हाथ का फुलका खाया था? मेरा मटर पुलाव चखा था? क्या तुमने मेरे दिल का दर्द देखा था? और वो बच्चा जो तुम्हें देखते ही मेरी कोख में हुमक कर आ गया था...? तुमने मेरे चेहरे का सिर्फ़ स्पाट पन देखा। मेरे बच्चे का हुस्न क्यों नहीं देखा...? तुमने वो बात क्यों नहीं देखी जो ज़िंदगी भर तुम्हारे पांव धोते। और वो बटन जो मैं तुम्हारी क़मीस पर काढ़ने वाली थी, तुम मेरे जिस्म की रंगत से डर गए। तुमने उस स्वेटर का उजला रंग न देखा जो मैं तुम्हारे लिए बुनना चाहती थी। मोती, तुमने मेरी हंसी नहीं सुनी। मेरे आँसू नहीं देखे। मेरी उंगलियों के लम्स को अपने ख़ूबसूरत बालों में महसूस नहीं किया। मेरे कँवारे जिस्म को अपने हाथों में लरज़ते हुए नहीं देखा तो फिर तुमने किस तरह मुझे नापसंद कर दिया था?"
अरे... इतनी लंबी तक़रीर वो कैसे कर गई? इतना सब कुछ वो कैसे कह गई? बस उसे इतना मालूम था कि वो रो रही थी और कहती जा रही थी और उसका सर मोती के कंधे पर था और मोती अपनी ग़लती पर नादिम उसके शानों को हौले-हौले थपक रहा था।
उस दिन वो बहुत देर से घर पहुंची और जब उसकी माँ मगही ने उससे पूछा तो उसने कमाल-ए-ला परवाई से कह दिया: "दफ़्तर में देर हो गई।" फिर पर्स को ज़ोर से झल्लाकर पलंग पर फेंक दिया और इस एतिमाद से खाना मांगने लगी कि उसकी माँ चौंक गई। उसका बाप चौंक गया। आज सुधा की रोई हुई आँखों की तह में ख़ुशी की एक हल्की से लकीर थी। जैसे गहरे बादलों में कभी-कभी बिजली कौंद जाती है।
मगही ने अपने होंट चबा कर चालाक निगाहों से अपने ख़ाविंद की तरफ़ इस तरह देखा, जैसे उसने बेटी का राज़ भाँप लिया हो... जीवन राम ने भी एक पल के लिए मसरूर निगाहों से अपनी बेटी की तरफ़ देखा। फिर अपनी थाली की तरफ़ मुतवज्जा हो गया।
ज़रूर कोई बात है... और सुधा चूँकि औरत है, इसलिए इस बात की तह में ज़रूर कोई मर्द है। ऐसा दोनों मियां-बीवी ने उसी लम्हा सोच लिया। आठ दस रोज़ के बाद इस शुबहा को और तक़वियत पहुंची। जब एक लड़का अपनी माँ के साथ सुधा को देखने के लिए आया, उस लड़के की माँ मगही की बचपन की सहेली थी और कैसे कैसे जतन और किस-किस तरह के वास्ते देकर मगही ने उसे शीशे में उतारा था। ये सिर्फ़ मगही ही जानती थी। इस लिए जब इस मौक़े पर लड़के की बजाय सुधा ने शादी से इनकार कर दिया तो पहले तो मगही अचंभे में रह गई। फिर उसके दिल में वो शुबहा तक़वियत पकड़ता चला गया... ज़रूर कोई है...!
वो चुपके-चुपके अपनी बेटी के लिए जहेज़ का सामान तैयार करने लगी और जीवन राम हुक़्क़ा पीते-पीते उस दिन का इंतिज़ार करने लगा, जब सुधा चुपके से आकर मगही से सब बात कह देगी और बूढ्ढा जीवन राम पहले तो लाल-पीली आँखें निकाल कर सुधा को घूरेगा, "तेरी ये हिम्मत! कि तू ने हमसे बाला-बाला ही अपने लिए बर पसंद कर लिया? निकाल दूँगा घर से और चुटिया काट कर फेंक दूँगा, हमारे ख़ानदान की नाक कटाने वाली..." फिर वो मगही के समझाने-बुझाने पर ख़ुद ही नरम पड़ जाएगा और आख़िर में हुक़्क़ा गुड़गुड़ाते हुए पूछेगा, "मगर कौन है वो...?"
और अब कोई भी हो, वो सुधा के बताते ही जल्द से जल्द उसके हाथ पीले कर देगा। पच्चीस बरस की जवान लड़की को घर में रखना ठीक नहीं।
मगर दिन गुज़र गए, महीने गुज़र गए, साल गुज़र गए। मगर सुधा ने कुछ न बताया। उसकी माँ इंतिज़ार करती रही, मगर वो जन्म जली कभी कुछ मुँह से न फूटी। थक-हार के उसकी माँ ने फिर दो तीन बर ढ़ूंढ़े। मगर सुधा ने साफ़ इनकार कर दिया। आख़िरी बर, जो उसके बाप ने ढ़ूंडा, वो एक रनडवे हलवाई का था, जिसकी उम्र चालीस से तजावुज़ कर चुकी थी।
इस रोज़ शफ़क़ के ढलते हुए सायों में गुलाबी उंगलियों वाली महकती हुई शाम में सुधा ने मोती को बताया, "वो लोग आज मेरे लिए एक बूढ्ढा हलवाई ढूंढ के लाए थे।"
"फिर?" मोती ने हंसकर पूछा।
"मैंने साफ़ इनकार कर दिया।"
"तू ने इनकार क्यूँकर दिया पगली। शादी कर लेती तो ज़िंदगी भर आराम से बैठी, मिठाई खाती।"
"और तुम्हें छोड़ देती?' सुधा ने प्यार भरे ग़ुस्से से मोती की तरफ़ देखकर कहा।
"मैंने भी तो तुमसे शादी नहीं की?" मोती ने उसकी कमर में हाथ डालते हुए कहा।
"तो क्या हुआ?" सुधा उसके गाल को अपने गाल से सहलाती हुई बोली: "तुम मेरे पास तो हो, शादी से भी ज़्यादा मेरे पास... हर वक़्त मेरी मुट्ठी में गोया..."
मोती हंसकर बोला: "हाँ ये तो सही है, मैं बिल्कुल तुम्हारी मुट्ठी में हूँ, जब चाहो बुला लो।"
"शुरू में तो तुम ऐसे न थे।" सुधा, मोती की तरफ़ चंचल निगाहों से देखकर बोली, "शुरू में तो तुम बड़ी मुश्किल से मेरे पास आया करते थे..."
"शुरू में ऐसा प्यार भी तो न था और किसी के दिल को समझते हुए देर भी तो लगती है..." मोती ने सुधा के कानों में सरगोशी की और सुधा की आँखें शिद्दत-ए-एहसास से बंद होने लगीं और थोड़ी देर के बाद उसने मोती की तेज़-तेज़ साँसों की आँच अपने चेहरे पर महसूस की और अपनी गर्दन और रुख़्सार पर उसके बरसते हुए महसूस किए...!
"कल कहाँ मिलोगे?"
"जहां तुम कहो...लवर्स लेन में?"
"उंहू !"
"कौटिल्य में घोड़ों की नुमाइश हो रहे है।"
"मैं क्या घोड़े ख़रीद कर पालूँगी?" सुधा हंसी।
"ओल्ड हाल में अदीबों की नुमाइश है।"
"ना बाबा!" सुधाने कानों पर हाथ रखे।
मोती ख़ामोश हो गया।
फिर सुधा ख़ुद ही बोली: "कल पिक्चर देखेंगे, बसंत सिनेमा में बहुत अच्छी पिक्चर लगी है, मैं दो टिकट ख़रीद रखूँगी। तुम ठीक पौने छः बजे वहां पहुंच जाना।"
"टिकट मैं ख़रीद लूँगा।"
"नहीं ये पिक्चर तो मैं दिखाऊँगी, तुम कोई दूसरी दिखा देना। मैं कब मना करती हूँ... मगर भूलना नहीं, कल शाम पौने छः बजे बसंत सिनेमा के बाहर!"
बसंत सिनेमा के बाहर बहुत भीड़ थी। सुधा ने दो टिकट ख़रीद लिये और अब वो मोती का इंतिज़ार कर रही थी। उसने एहतियातन आधा पाव चिलगोज़े और एक छटांक किशमिश भी ले ली। सिनेमा देखते-देखते खाने का उसे हौका सा था।
पौने छः हो गए, छः हो गए। पिछले शो के छूटने के बाद लोग चले गए। नए लोग शो देखने के लिए आने लगे। मोती नहीं आया। चारों तरफ़ रोशनियां थीं। लोगों की भीड़ थी। ख़्वांचे वालों की बुलंद आवाज़ें थी। ताँगे, मोटरों और रिक्शाओं का हुजूम था और मोती हुजूम को पसंद नहीं करता था। अब वो उसकी तबीयत समझ गई थी। उसे ख़ामोशी पसंद थी, अंधेरा पसंद था। तन्हाई पसंद थी... मोती बेहद हस्सास और नफ़ासत पसंद था।
सवा छः के क़रीब वो सिनेमा हाल में जा बैठी। उसने अपने साथ वाली सीट पर अपना रूमाल रख दिया। चिलग़ोज़ों और किशमिश के लिफ़ाफ़े भी। हौले-हौले हाल भर गया। मगर मोती नहीं आया। जब हाल की रोशनियां गुल हो गईं और पिक्चर शुरू हो गई तो सुधा ने मोती का हाथ अपने हाथ पर महसूस किया। वो अंधेरे में चुपके से आकर साथी वाली सीट पर बैठ गया था। सुधा ने उसके हाथ को दबाते हुए कहा,
"बड़ी राह दिखाते हो।"
"सॉरी!" मोती के लहजे में बेहद मलामत थी।
"मैं तुम्हारे लिए चिलगोज़े और किशमिश लाई हूँ, खाओ..."
मोती ने किशमिश के चंद दाने उठा कर अपने मुँह में डाल लिए और सुधा मसर्रत का गहरा सांस लेकर तस्वीर देखने में मसरूफ़ हो गई। अब बातें करने का लम्हा न था। वो महसूस कर सकती थी कि मोती का हाथ उसके हाथ में है। वो उसके साथ कुर्सी पर बैठा है। थोड़ी-थोड़ी देर के बाद वो अपना सर उसके शाने पर रख देती। मोती सरगोशी मैं कहता,
"मेरे कंधे पर सर रखकर देखने से तुम्हें क्या नज़र आता है? तस्वीर तो नज़र आती न होगी?"
"वो तस्वीर नज़र आती है जो इस हाल में बैठा हुआ कोई आदमी नहीं देख सकता।" सुधा ने बड़ी गहरी मसर्रत से कहा।
आहिस्ता-आहिस्ता हर शख़्स ने तबदीली महसूस की। सुधा की मैली-मैली आँखें उजली होती गईं। सीने का उभार वाज़िह होने लगा। कमर लचकने लगी और चाल में कूल्हों का मुदव्वर बहाव शामिल होता गया। वो दिन-ब-दिन हसीन-व-दिलकश होती गई। अब उसके कपड़े इंतिहाई साफ़ सुथरे होते थे। होते थे कम क़ीमत के मगर बेहद उम्दा सिले हुए होते थे। सुधा को ये तौफ़ीक़ न थी कि वो किसी अच्छे दर्ज़ी के पास जा सके मगर ख़ुद ही उसने दर्ज़ी का काम सीख लिया था और बहुत कम लड़कियां कटाई और नए लिबास की तराश और डिज़ाइन में उसका मुक़ाबला कर सकती थीं। मगर उसने कभी किसी को नहीं बताया कि वो ये कपड़े ख़ुद अपने हाथ से काट कर तैयार करती है। उसके दफ़्तर की जब कोई दूसरी लड़की उसके लिबास की तारीफ़ करती तो सुधा झट किसी महंगे दर्ज़ी का नाम बता देती। जहां सिर्फ़ अमीर तरीन फ़ैशन एबुल औरतों के कपड़े तैयार होते थे और उसके दफ़्तर की लड़कियां जल कर ख़ाक हो जातीं और सुधा से रश्क और हसद के मिले-जुले अंदाज़ में पूछतीं,
"कैसा है वो तेरा?"
"गोरा रंग है, बाल घुंघरियाले हैं। हँसता है तो मोती झड़ते हैं।" सुधा जवाब देती।
"क्या तनख़्वाह लेता है?"
"बारह सौ।"
"बारह सौ?" लड़कियां चीख़ कर पूछतीं, "बारह सौ तो हमारी फ़र्म के मैनेजर की तनख़्वाह है।"
"वो भी एक फ़र्म में मैनेजर है।" सुधा जवाब देती।
"अरी हमें दिखाएगी नहीं? बस एक-बार दिखा दे... हम देख तो लें कैसा है तुम्हारा वो!"
"दिखा भी दूँगी, कहो तो दफ़्तर में बुला के दिखा दूं?"
ये तो उसने यूंही कह दिया था। वर्ना सुधा कहाँ मोती को दिखाने वाली थी। वो मर जाती मगर अपने मोती को न दिखाती। इन लौंडियों का क्या भरोसा? मगर सुधा ने दफ़्तर में बुलाने की धमकी इस कामिल एतिमाद से दे दी थी कि इससे आगे पूछने की हिम्मत लड़कियों को न हुई और वो जल कर ख़ामोश रह गईं।
सुधा का बूढ़ा बाप कुढ़ कुढ़ कर मर गया क्योंकि सुधा शादी न करती थी और मुहल्ले वाले तरह तरह की चेमिगोइयां करते थे और सुधा का बाप अपनी बेटी को कुछ न कह सकता था। क्योंकि सुधा जवान और बालिग़ थी और ख़ुदमुख़्तार भी थी। अब वो घर में दो सौ रुपये लाती... सुधा का बाप मर गया और उसके मरने के बाद अगले चंद सालों में सुधा के भाईयों की शादियां हो गईं और वो लोग अपनी अपनी बीवीयां लेकर अपनी अपनी मुलाज़मतों के ठिकानों पर चले गए। फिर उसकी छोटी बहन दिजे की भी शादी हो गई। फिर उसकी माँ भी अपनी बड़ी बेटी के कँवारपने के ग़म में सुलग सुलग कर मर गई और सुधा इस ग़म में अकेली रह गई। चंद माह के बाद उसने वो घर भी छोड़ दिया और सिविल लाईन्ज़ में एक उम्दा मकान की दूसरी मंज़िल में दो कमरे लेकर पेइंग गेस्ट (Paying Guest) के तौर पर रहने लगी। उसके रहने के हिस्से का दरवाज़ा अलग से बाहर निकलता था और अब वो अपनी नक़ल-व-हरकत में मुकम्मल ख़ुदमुख़्तार थी। अब वो पैंतीस बरस की हो चुकी थी मगर मुश्किल से तीस बरस की मालूम होती थी। उसके होंटों पर हर वक़्त मुस्कुराहट खेलती रहती और आँखों में ख़ुशीयों के साये नाचते रहते। वो पहले से ज़्यादा संजीदा और बावक़ार हो गई थी। वो स्टेनो भी हो गई थी। उसने बी.ए. भी कर लिया था। उसकी तनख़्वाह भी बढ़ गई थी और किताबें पढ़ने का शौक़ भी...
अब वो ख़ुशहाल और आरामदेह और सुकून आमेज़ ज़िंदगी बसर कर रही थी। कई साल से वो अपनी मांग में सींदूर भर रही थी और माथे पर सुहाग की बिंदिया सजाती थी और लोगों को ये तो मालूम न था कि उसकी शादी कहाँ हुई है? और कौन उसका ख़ाविंद है? मगर लोग इतना जानते थे कि कोई उसका है, जिसके साथ वो अपनी शामें गुज़ारती है। बल्कि लोग तो यहां तक कहते सुने गए कि जो कोई भी वो है, उसकी अपनी कुछ वजूह हैं, जिनकी वजह से उन दोनों की शादी नहीं हुई। मगर वो दोनों हर शाम की तन्हाइयों में मिलते हैं और जब दुनिया सो जाती है और जब कोई किसी को नहीं देखता। जब चारों तरफ़ नींद ग़ालिब आ जाती है, उन ग़नूदगी से लबरेज़ लम्हों में कोई सुधा के यहां आता है, हौले से दरवाज़ा खटखटाता है और ख़ामोशी से अंदर आ जाता है... लोगों ने उसे देखा नहीं था। मगर लोगों का ख़्याल यही था। वो सुधा से कुछ कहते नहीं थे। क्योंकि सुधा अब एक संजीदा और बावक़ार औरत बन चुकी थी और जिसके माथे पर सींदूर का ये बड़ा टीका जगमगाता हो, उसे कोई क्या कह सकता है?
वो शाम सुधा की चालीसवीं सालगिरह की शाम थी और वो कई वजूह से सुधा को कभी नहीं भूलती। सुधा, मोती को मथुरा रोड के जापानी गार्डन में ले गई थी। जिस पर बाग़ की बजाय किसी ख़ूबसूरत मंज़र का शुबहा होता था। शफ़क़ ने चोट खाई हुई औरत की तरह अपना मुँह छुपा लिया था और रात की साँवली ज़ुल्फ़ें उफ़ुक़ पर बिखेर दी थीं। हौले-हौले तारे नमूदार होने लगे। आज सुधा बहुत ख़ामोश थी। मोती भी चुपचाप सा था...
वो अब भी उसी तरह ख़ूबसूरत था, जैसे जवानी में था। अब भी वो हर-रोज़ उसी ब्राउन सूट में आकर सुधा से मिलता था कि सुधा का हुक्म यही था। उसे देखकर ये गुमान होता था कि मोती पर ज़िंदगी के बहाव ने और वक़्त के घाव ने ज़्यादा निशान नहीं छोड़े। सिर्फ़ कनपटियों पर सफ़ेद बाल आ गए हैं जो इस सूरत को और भी बावक़ार और वजीह बनाते थे और वो एक छड़ी लेकर चलता था जो उसकी पचासवें सालगिरह पर ख़ुद सुधा ने उसे तोहफ़े में दी थी। वर्ना इसके इलावा उसकी सूरतशक्ल में, किरदार और गुफ़तार में किसी तरह का फ़र्क़ ना आया था। वो पहले ही की तरह इतना हसीन, दिलकश और दिलनवाज़ था कि उसे देखते ही सुधा के दिल में ख़तरे की घंटियाँ बजने लगती थीं। इतना वक़्त गुज़र जाने के बाद आज भी उसे देखकर सुधा का दिल इतने ज़ोर से धक-धक करने लगा था जितना कि पहले रोज़...
मोती ने आहिस्ते से पूछा: "तुमने मुझसे शादी क्यों नहीं की?"
"एक दफ़ा इनकार करने के बाद...?" सुधा ने हौले से कहा, "तुमसे शादी नहीं की जा सकती थी, सिर्फ़ मुहब्बत की जा सकती थी, अब तुम ये कैसे जान सकोगे कि जिस दिन तुमने इनकार किया था, उसी दिन से तुम मेरे हो गए थे... इतना जानने के लिए औरत का दिल चाहिए।"
मोती ख़ामोश रहा। बहुत देर के बाद बोला, "आज तो तुम चालीस साल की हो चुकी हो, क्या तुम्हें अफ़सोस नहीं होता कि तुमने मुझसे शादी नहीं की!"
ये सुनकर सुधा भी ख़ामोश हो गई। इतनी देर ख़ामोशी रही कि मोती को गुमान गुज़रा कि कहीं सुधा अंदर ही अंदर रो रही है।
"सुधा।" उसने आहिस्ते से उसका शाना हिलाया।
"मैं सोच रही थी," सुधा हौले से बोली, "तुमसे शादी न कर के मैंने क्या खोया है... क्या कोई शाम ऐसी थी? जो मैंने तुम्हारे साथ न गुज़ारी हो। सोचो तो कहाँ-कहाँ हम नहीं गए? जहां-जहां मैंने तुम्हें बुलाया, क्या तुम वहां नहीं पहुंचे? और जिस वक़्त भी बुलाया, क्या उसी वक़्त सब काम छोड़कर तुम नहीं आए? अगर शादी का नाम रिफ़ाक़त है तो वो मुझे हासिल है..."
"फिर ये भी सोचो कि इस तवील रिफ़ाक़त में मेरा तुम्हारा एक-बार भी झगड़ा नहीं हुआ, मैं ने तुम्हें हमेशा मेहरबान और मुस्कुराते हुए पाया। साल-हा-साल जब मेरे हाथों को तुम्हारे हाथों की ज़रूरत हुई, उनके लम्स की गर्मी, मैंने अपने जिस्म के रोएँ रोएँ में महसूस की... तुम्हारे फूल मेरी ज़ुल्फ़ों में रहे। तुम्हारे बोसे मेरे होंटों पर, तुम्हारी वफ़ा मेरे दिल में... क्या कोई औरत मुहब्बत में इससे ज़्यादा पा सकती है?"
सुधा ने एक गहरी मसर्रत से अपने आपको मोती के बाज़ुओं में ढीला छोड़ दिया और फिर उसे महसूस हुआ कि मोती के दो बाज़ू नहीं बल्कि चार बाज़ू हैं बल्कि शायद छः बाज़ू हैं, आठ बाज़ू हैं। और वो अपने जिस्म-ओ-जां के रग-ओ-रेशे में उसके बाज़ुओं को महसूस कर रही थी, जो उसे भींच कर अपने सीने से लगा रहे थे और सुधा ने अपने आपको उनके बाज़ुओं के सपुर्द कर दिया और अंदर ही अंदर इस तरह खुलती चली गई, जैसे चांदनी के लम्स से कली खिल कर फूल बन जाती है। मदमाते तारों के झुरमुट में, सब्ज़ झालरों वाले पेड़ों की ओट से चांद उभर आया था और अब चांद उस के बालों में था। उसकी आँखों में था, उसके होंटों में था। उसके दिल में था और लहर दर लहर उसकी जु-ए-ख़ूँ में रवां था। हाय मेरे मोतीचूर... मेरे मोतीचूर... मेरे मीठे लड्डू... मैं तो मर गई तेरे लिए...
थोड़ी देर के बाद जब सुधा ने आँखें खोलीं तो उसका पुर मसर्रत ग़नूदगी आमेज़ चेहरा बता रहा था कि उससे अभी अभी मुहब्बत की गई है!
वो शाम, वो रात सुधा को कभी नहीं भूलेगी क्योंकि वो रात मुकम्मल थी और उन दोनों की ज़िंदगियां मुकम्मल थीं। जैसे वक़्त और उम्र, चांद और आरज़ू सब एक साथ एक दायरे में मुकम्मल हो जाएं और जज़्बे की एक बूँद भी छलक कर बाहर जाने की ज़रूरत महसूस न करे। ऐसे लम्हे कब किसी की ज़िंदगी में आते हैं? और जब आते हैं तो इस शिद्दत से अपना तास्सुर छोड़ जाते हैं कि इन्सान महसूस करता है कि शायद मैं अब तक जिया ही इस लम्हे के लिए था। शायद कुछ इसी तरह सुधा ने इस लम्हे में महसूस किया और फिर कभी इस तरह महसूस न किया, क्योंकि इस वाक़िया के चंद दिन बाद, उसके दफ़्तर का मैनेजर तबदील हो गया और जो मैनेजर उसकी जगह आया, उसे सुधा सख़्त नापसंद करने लगी थी। एक तो वो बड़ा बदसूरत था। किसी ज़माने में उसका रंग गोरा ज़रूर रहा होगा। मगर अब तो पुराने ताँबे का सा था और मोटी नाक पर मुसलसल शराबनोशी से नीली वरीदों का जाल सा फैला था और सुधा को अपने नए मैनेजर की नाक देखकर हमेशा गुमान होता कि ये नाक नहीं एक इंजीर है जो अभी बातें करते करते उसके सामने फट जाएगा। उसके गाल जबड़ों पर लटक गए थे। आँखों के नीचे स्याह गढ़े पड़ गए थे। सर के बाल उड़ गए थे और जब वो बात करता था तो ऐसा मालूम होता था जैसे कोई मेंढ़क किसी काई भरे तालाब के अंदर से बोल रहा हो। अजीब सी घिन आती थी सुधा को उससे। लेकिन मुसीबत ये थी कि अब दफ़्तर में इतने साल से काम करते करते वो हेड स्टेनो बन चुकी थी और उसे दिनभर मैनेजर के कमरे में रहना पड़ता था और इससे उसे इंतिहाई कोफ़्त होती थी। लेकिन इससे ज़्यादा कोफ़्त उसे ये सोच कर होती थी कि उसने इस बदसूरत इन्सान को इससे पहले भी कहीं देखा है। जैसे ये सूरत जानी-पहचानी हो। मगर कहाँ? ज़ेह्न और हाफ़िज़े पर ज़ोर देने से भी उसकी याद न आती थी।
उंह देखा होगा, इस मर घल्ले को कनॉट पैलेस में चक्कर काटते हुए कहीं। सुधा अपने आपको समझाते हुए कहती, मगर फिर कभी वही मैनेजर किसी फाईल को ख़ुद उठा कर सुधा की मेज़ पर रखते हुए, अपने हाथों से ऐसी जुंबिश करता कि सुधा का ज़ेह्न बेचैन हो जाता और वो सोचने लगती। कौन था वो? किससे इसकी ये हरकत मिलती है। क्या मेरे मरहूम बाप से? मेरे किसी भाई से? जैसे ये हरकत मुझे कुछ... याद दिलाती हो? मगर क्या? ग़ौर करने पर भी वो किसी नतीजे पर न पहुंच सकती और फिर अपना काम करने लगती। मगर दिन भर उसके दिल में एक ख़लिश सी होती रहती!
पहली तारीख़ को जब तनख़्वाह बट चुकी और लोग अपने अपने घरों को चले गए तो नए मैनेजर ने सुधा को किसी काम से रोक लिया और उसे अपनी मेज़ के सामने कुर्सी पर बिठा लिया। फिर उसने एक कैबिनट खोल कर उसमें से एक गिलास निकाला और व्हिस्की की बोतल और सोडा... और पहला पैग वो गटागट चढ़ा गया। सुधा उसे हैरत से देखने लगी और ग़ुस्से से उठकर जाने लगी कि मैनेजर ने निहायत नर्मी से उसका हाथ पकड़ कर उसे जाने से बाज़ रखा और बोला,
"आज जब तुम्हारी तरक़्क़ी की फाईल मेरे सामने आई तो मुझे मालूम हुआ कि इस दफ़्तर में सबसे पुरानी मुलाज़िम तुम हो, ये बड़ी ख़ुशी की बात है।"
सुधा चुप रही।
"तुम्हारा नाम सुधा है ना?" मैनेजर बड़ी बेचैनी से बोला।
सुधा बड़ी हैरत से उसकी तरफ़ देखने लगी। इतने दिन से मेरे साथ काम कर रहा है, क्या ये मेरा नाम भी नहीं जानता? आख़िर उसे क्या हुआ है?
मेरा मतलब है... मैनेजर दूसरे पैग का एक बड़ा घूँट पी कर बोला, "तुम वही सुधा हो ना, जिसके बाप का नाम जीवन राम है?"
सुधा बड़ी तुर्शरोंई से बोली, "हाँ, मेरे बाप का नाम भी फाईल में लिखा गया है, फिर मुझसे पूछने की ज़रूरत क्या है?" वो तक़रीबन उठते उठते बोली।
"बैठो बैठो..." मैनेजर ने फिर उसकी मिन्नत करते हुए कहा।
"तुमने मुझे पहचाना नहीं?" वो उसकी तरफ़ ग़ौर से देखते हुए कहने लगा।
"नहीं..!" वो ग़ुस्से से बोली।
"तुम अपने बाप के साथ मुहल्ला जिनदां में रहती थीं ना?"
"हाँ !"
"मैं एक रोज़ तुम्हारे घर आया था। तुम्हें देखा भी था। तुमसे बातें भी की थीं।" बुड्ढे मैनेजर ने सुधा से कहा, "अब तुम एक ख़ूबसूरत औरत बन चुकी हो, मगर जब तुम ऐसी न थीं। जब तुम एक मामूली सी लड़की थीं और मैंने तुम्हें देखा था और तुमसे बातें भी की थीं।"
"कब? कब..?" सुधा बेचैनी से बोली।
बूढ्ढा मैनेजर देर तक सुधा को देखता रहा। आख़िर आहिस्ते से बोला,
"मैं मोती हूँ ..."
सुधा सन्नाटे में आ गई।
"मैं बड़ा... मैं बड़ा बदनसीब था जो तुमसे शादी न की... मैं तुम्हें अच्छी तरह से देख न सका, समझ न सका। इन चंद लम्हों में कोई क्या जान सकता है। क्योंकि एक सूरत जिल्द के अंदर भी तो पोशीदा रहती है... मैं नौजवान था। दौलत और गोरे रंग का लालची। जो बीवी मुझे मिली, वो दौलत भी लाई थी और सफ़ेद चमड़ा भी और इसके साथ एक मग़रूर, बदमिज़ाज ज़ालिम और बेवफ़ा तबीयत भी लाई थी। चंद सालों ही में मेरे पाँच बच्चे हो गए। उनमें से कितने मेरे थे? मैं कह नहीं सकता। मगर लोग तरह तरह की बातें बनाते थे और मैं सुनता था और पीता था और दूसरी औरतों के पास जाता था... फिर ज़हर... बीमारी का, और शराब का, और नाकामी का, और बेमहरी का, मेरी रग-रग में फैल गया और मैं वक़्त से पहले बूढ़ा हो गया और बुझ गया... अब वो मर चुकी है। इसलिए मैं उसे कुछ न कहूँगा और उसे कहूं भी क्या...? क़सूर तो मेरा है। मेरी इन आँखों का जो तुम्हें पहचान न सकीं .... मेरी आँखों ने एक हीरा देखा और पत्थर समझ कर फेंक दिया... क्या तुम मुझे किसी तरह माफ़ नहीं कर सकतीं? क्या तुम मुझसे शादी नहीं कर सकतीं? मेरी उम्र ज़्यादा नहीं है। मुझे तो मुहब्बत भी नहीं मिली.... जिसके लिए मैं सारी उम्र तरसता रहा।"
वो कहे जा रहा था और वो फटी फटी निगाहों से उसे देख रही थी और उसका जी चाहता था कि वो उससे कहे, "अब तुम आए हो? बूढ़े बदसूरत और गंजे हो कर, ख़ौफ़नाक बीमारियों का शिकार... अब तुम मुझसे शादी के लिए कह रहे हो? मगर मैंने तो अपनी सारी ज़िंदगी तुम्हें दे दी और तुम्हें मालूम तक न हुआ कि मैंने अपनी सारी जवानी तुम्हारे तसव्वुर में खो दी और ज़िंदगी की हर बहार तुम्हारे ख़्याल में गंवा दी और शबाब की हर मचलती हुई आरज़ू तुम्हारी एक निगाह के लिए लुटा दी। ज़िंदगी भर मैं सड़कों पर अकेली चलती रही, तुम्हारे साये के साथ। अंधेरे पार्कों में बैठी रही तुम्हारे तसव्वुर के साथ। मैंने ख़ुद अपने हाथ से ख़र्च कर के तुमसे साड़ियों के तोहफ़े लिए। तुम्हारा ज़ेवर पहना, अपनी मेहनत का ख़ून कर के सिनेमा देखा और अपने साथ की सीट ख़ाली रखकर। मेरा बाप मर गया। मेरी माँ मर गई और मेरी कोख के बच्चे मुझे दूर ही दूर से बुलाते रहे और मैं किसी के पास न गई। तुम्हारे ख़्याल को हिर्ज़-ए-जाँ बनाए हुए, अपने कंवारपन के चालीस साल, आँखें, कान और होंट बंद कर के तुम्हारी आरज़ू में बता दिए थे... मैं कितनी ख़ुश थी? कितनी मगन थी? मैंने तो तुमसे कभी कुछ न मांगा। न शादी का फेरा, न सुहाग की रात, न बच्चे का तबस्सुम! बस... सिर्फ़ एक तसव्वुर, एक झलक, एक अक्स-ए-रुख़-ए-यार ही तुमसे मुस्तआर लिया था और तुम आज उसे भी जहन्नुम की चिता में जलाने के लिए मेरे शहर में चले आए हो?
मगर सुधा, मोती से कुछ न कह सकी। वो मेज़ पर सर रखकर फूट-फूटकर रोने लगी और जब मोती ने उसका हाथ थामना चाहा तो वो ग़ुस्से से झुँझला गई और उसका हाथ झटक कर कमरे से बाहर चली गई। बाहर निकल कर सीढ़ीयों से नीचे उतर गई। मोती उसे बुलाता ही रहा। वो भाग कर सड़क पर जा पहुंची। सड़क पर अंधेरा था मगर फिर भी बिजली की बत्तीयों की इतनी रोशनी थी कि लोग उसके आँसू देख लेते मगर उसने किसी की परवाह न की और वो रोते हुए आगे बढ़ गई। आसिफ़ अली पार्क के क़रीब पहुंच कर वो ठिटकी। एक लम्हे के लिए उसे ख़्याल आया कि वो पार्क के अंदर जा कर, किसी पेड़ के तने से सर टेक कर बैठ जाये। मगर फिर उसने सोचा, "बेसूद है, सब बेसूद है। मेरे ख़यालों का शहज़ादा अब वहां न आएगा। अब वो कभी मेरे पास न आएगा।
जब वो ये कुछ सोच रही थी तो उसने अपनी मांग का सींदूर मिटा डाला और सुहाग बिंदिया खुरच ली और पार्क की रेलिंग पर अपनी सारी चूड़ियां तोड़ डालीं। इस यक़ीन के साथ कि अब वो सारी उम्र के लिए बेवा हो चुकी है।

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