लघुकथाएँ (भाग-2) : ख़लील जिब्रान-अनुवाद: सुकेश साहनी

Laghukathayen (Part-2) : Khalil Gibran

दर्प–विसर्जन

राज्याभिषेक के बाद बाइब्लॅस का राजा अपने उस सोने के कमरे में चला गया जिसे तीन एकान्तवासी जादूगरों ने उसके लिए बनाया था। उसने अपना मुकुट और शाही परिधान उतार दिए और कमरे के बीच खड़ा होकर अपने विषय में सोचने लगा–अब मैं बाइब्लॅस का शक्तिशाली शासक बन गया हूँ।
एकाएक उसने देखा, माँ द्वारा दिए गए चांदी से चमकते शीशे से एक नंगा आदमी बाहर निकल रहा है।
राजा चौंक पड़ा, उसने उस आदमी से चिल्लाकर पूछा, ‘‘तुम क्या चाहते हो?’’
नंगे आदमी ने उत्तर दिया, ‘‘कुछ भी नहीं! पर उन लोगों ने तुम्हें मुकुट क्यों पहनाया है?’’
राजा ने कहा, ‘‘क्योंकि मैं पूरे देश में सबसे महान हूँ।’’
तब नंगे आदमी ने कहा, ‘‘अगर तुम इससे भी महान होते तो भी राजा बनने लायक नहीं थे।’’
तब राजा ने कहा, ‘‘मैं देश का सबसे बुद्धिमान आदमी हूँ इसलिए उन्होंने मुझे मुकुट पहनाया है।’’
नंगे आदमी ने कहा, ‘‘अगर तुम इससे भी अधिक बुद्धिमान होते तो भी राजा चुने जाने लायक नहीं थे।’’
तब राजा फर्श पर गिर पड़ा और फूट–फूटकर रोने लगा।
नंगे आदमी ने उस झुके हुए आदमी की ओर देखा।
फिर उसने मुकुट उठाया और उसे दोबारा राजा के झुके हुए सिर पर नर्मी से रख दिया और राजा को प्यार भरी नजरों से एकटक देखता हुआ वह दर्पण में समा गया।
राजा चौंककर उठा। उसने सीधे दर्पण की ओर देखा। वहाँ अब वह अपने आपको मुकुट पहने हुए देख रहा था।

निर्माता

एण्टीओक शहर के एक भाग को दूसरे से जोड़ने के लिए आसी नदी पर पुल बनाया गया था। इस काम के लिए प्रयोग में लाए बड़े–बड़े पत्थर पहाड़ों से खच्चरों की पीठ पर लादकर लाए गए थे।
पुल के तैयार होते ही एक स्तम्भ पर खोद कर लिख दिया गया था, ‘सम्राट एण्टीओक्स द्वितीय द्वारा निर्मित।’। सभी लोग इस पुल द्वारा आसी नदी को पार करते थे।
एक शाम एक युवक ने, जिसे लोग सनकी कहते थे, नीचे उतर कर स्तम्भ पर खुदे को चारकोल से पोत दिया और उस पर लिखा, ‘‘इस पुल के लिए पत्थर पहाड़ों से खच्चरों द्वारा लाया गया। यह पुल नहीं ,उन खच्चरों की पीठ है जो सही मायनों में इस पुल के निर्माता हैं।’’
जब लोगों ने इसे पढ़ा तो कुछ हँसने लगे, कुछ को आश्चर्य हुआ और कुछ ने कहा, ‘‘अच्छा….तो ये उस सनकी लड़के का काम है।’’
तभी एक खच्चर ने दूसरे से हँसते हुए कहा, ‘‘तुम्हें याद है कितनी कठिनाई से हमने इन भारी भरकम पत्थरों को ढोया था? लेकिन आज तक लोग यही कहते हैं कि इस पुल का निर्माण सम्राट एण्टीओक्स ने कराया था।

अस्तित्व

लम्बे समय से मैं मिस्र की धूल में जिंदगी से बेखबर निष्क्रिय पड़ा था।
तब, सूर्य ने अपने स्पर्श से मुझे जन्म दिया, मैं उठा और जिंदगी के गीत गाते हुए नील नदी के तट पर घूमने लगा।
और अब वही सूर्य झुलसा देने वाली किरणों से मुझे रौंदता है ।ताकि मैं फिर मिट्टी में मिल जाऊँ। पर ये कैसी आश्चर्य भरी बात है! जिस सूर्य ने मुझे जन्म दिया, वही मुझे मिटा पाने में असमर्थ है।
मैं आज भी दृढ़ कदमों से नील के तटों पर घूम रहा हूँ।

वज्रपात

तूफानी दिन था। एक औरत गिरजाघर में पादरी के सम्मुख आकर बोली, ‘‘मैं ईसाई नहीं हूँ, क्या मेरे लिए जीवन की नारकीय यातनाओं से मुक्ति का कोई मार्ग है?’’
पादरी ने उस औरत की ओर देखते हुए उत्तर दिया,‘‘नहीं, मुक्ति मार्ग के विषय में मैं उन्हीं को बता सकता हूँ, जिन्होंने विधिवत् ईसाई धर्म की दीक्षा ली हो।’’
पादरी के मुँह से यह शब्द निकले ही थे कि तेज गड़गड़ाहट के साथ बिजली वहाँ आ गिरी और पूरा क्षेत्र आग की लपटों से घिर गया।
नगरवासी दौड़े–दौड़े आए और उन्होंने उस औरत को तो बचा लिया, लेकिन तब तक पादरी अग्नि का ग्रास बन चुका था।

निद्राजीवी

मेरे गाँव में एक औरत और उसकी बेटी रहते थे, जिनको नींद में चलने की बीमारी थी। एक शांत रात में, जब बाग में घना कोहरा छाया हुआ था, नींद में चलते हुए माँ बेटी का आमना–सामना हो गया।
माँ उसकी ओर देखकर बोली, ‘‘तू? मेरी दुश्मन,मेरी जवानी तुझे पालने–पोसने में ही बर्बाद हो गई। तूने बेल बनकर मेरी उमंगों के वृक्ष को ही सुखा डाला। काश! मैंने तुझे जन्मते ही मार दिया होता।’’
इस पर बेटी ने कहा, ‘‘ऐ स्वार्थी बुढ़िया! तू मेरे सुखों के रास्ते के बीच दीवार की तरह खड़ी है! मेरे जीवन को भी अपने जैसा पतझड़ी बना देना चाहती है! काश तू मर गई होती!’’
तभी मुर्गे ने बांग दी और वे दोनों जाग पड़ीं।
माँ ने चकित होकर बेटी से कहा, “अरे, मेरी प्यारी बेटी, तुम!”
बेटी ने भी आदर से कहा, “हाँ, मेरी प्यारी माँ !”

राजदंड

राजा ने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘वास्तव में तुम रानी बनने लायक नहीं हो, तुम इस कदर अशिष्ट और भद्दी हो कि तुम्हें अपनी रानी कहते हुए शर्म आती है।’’
पत्नी ने कहा, ‘‘तुम राजा बने फिरते हो, लेकिन तुम बातें बनाने वाले घटिया आदमी के सिवा कुछ नहीं हो।’’
यह सुनकर राजा को गुस्सा आ गया और उसने अपना सोने का राजदंड रानी के माथे पर दे मारा। उसी क्षण न्यायमंत्री ने वहाँ प्रवेश किया और बोला, ‘‘बहुत खूब, महाराज! इस राजदंड को देश के सबसे बड़े कारीगर ने बनाया था। ये कटु सत्य है कि एक दिन रानी और आपको भी लोग भूल जाएँगे, पर ये राजदंड सौंन्दर्य के प्रतीक के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी सम्हाल कर रखा जाएगा। महाराज, अब तो यह राजदंड और भी महत्त्वपूर्ण एवं राज की अमूल्य निधि कहलाएगा; क्योंकि आपने रानी के मस्तक के खून से इसका तिलक जो कर दिया है।

महात्मा

जवानी के दिनों में मैं पहाडि़यों के पार शान्त वन में एक सन्त से मिलने गया था। हम सद्गुणों के स्वरूप पर बातचीत कर रहे थे कि एक डाकू लड़खड़ाता हुआ टीले पर आया। कुटिया पर पहुँचते ही वह संत के आगे घुटनों के बल झुक गया और बोला, ‘‘महाराज,मैं बहुत बड़ा पापी हूँ।’’
सन्त ने उत्तर दिया, ‘‘मैं भी बहुत बड़ा पापी हूँ।’’
डाकू ने कहा, ‘‘मैं चोर और लुटेरा हूँ।’’
सन्त ने कहा, ‘‘मैं भी चोर और लुटेरा हूँ ।’’
डाकू ने कहा, ‘‘मैंने बहुत से लोगों का कत्ल किया है, उनकी चीख–पुकार मेरे कानों में बजती रहती है।’’
सन्त ने भी उत्तर दिया, ‘‘मैं भी एक हत्यारा हूँ, जिनको मैंने मारा है, उन लोगों की चीख पुकार मेरे कानों में भी बजती रहती है।’’
फिर डाकू ने कहा, ‘‘मैंने असंख्य अपराध किए हैं।’’
सन्त ने उत्तर दिया, ‘‘मैंने भी अनगिनत अपराध किए हैं। ’’
डाकू उठ खड़ा हुआ ओर टकटकी लगाकर संत की ओर देखने लगा। उसकी आंखों में विचित्र भाव थे। लौटते समय वह उछलता–कूदता पहाड़ी से उतर रहा था।
मैंने सन्त से पूछा, ‘‘आपने झूठ–मूठ में खुद को अपराधी क्यों कहा? आपने देखा नहीं कि जाते समय उस आदमी की आस्था आप में नहीं रही थी।’’
सन्त ने उत्तर दिया, ‘‘यह ठीक है कि अब उसकी आस्था मुझमें नहीं थी पर वह यहाँ से बहुत निश्चिन्त होकर गया है।’’
तभी दूर से डाकू के गाने की आवाज हमारे कानों में पड़ी। उसके गीत की गूँज ने घाटी को खुशी से भर दिया।

गोल्डन बैल्ट

सालामिस शहर की ओर जाते हुए दो आदमियों का साथ हो गया। दोपहर तक वे एक नदी तक आ गए, जिस पर कोई पुल नहीं था। अब उनके पास दो विकल्प थे–तैरकर नदी पार कर लें या कोई दूसरी सड़क तलाश करें।
“तैरकर ही पार चलते हैं,” वे एक दूसरे से बोले, “नदी का पाट कोई बहुत चौड़ा तो नहीं है।”
उनमें से एक आदमी, जो अच्छा तैराक था, बीच धारा में खुद पर नियंत्रण खो बैठा और तेज बहाव की ओर खिंचने लगा। दूसरा आदमी, जिसे तैरने का अभ्यास नहीं था, आराम से तैरता हुआ दूसरे किनारे पर पहुंच गया। वहाँ पहुँचकर उसने अपने साथी को बचाव के लिए हाथ पैर मारते हुए देखा तो फिर नदी में कूद पड़ा और उसे भी सुरक्षित किनारे तक ले आया।
” तुम तो कहते थे कि तुम्हें तैरने का अभ्यास नहीं है, फिर तुम इतनी आसानी से नदी कैसे पार गए? ‘ पहले व्यक्ति ने पूछा।
“दोस्त,” दूसरा आदमी बोला, “मेरी कमर पर बँधी यह बैल्ट देखते हो, यह सोने के सिक्कों से भरी हुई है, जिसे मैंने साल भर मेहनत कर अपनी पत्नी और बच्चों के लिए कमाया है। इसी कारण मैं आसानी से नदी पार कर गया। तैरते समय मैं अपने पत्नी और बच्चों को अपने कन्धे पर महसूस कर रहा था।”

धोखा

पहाड़ की चोटी पर अच्छाई और बुराई की भेंट हुई। अच्छाई ने कहा, ‘‘भैया, आज का दिन तुम्हारे लिए शुभ हो।’’
बुराई ने कोई उत्तर नहीं दिया।
अच्छाई ने फिर कहा, ‘‘क्या बात है, बहुत उखड़ी–उखड़ी लगती हो!’’
बुराई बोली, ‘‘ठीक समझा तुमने, पिछले कई दिनों से लोग मुझे तुम पर भूलते हैं, तुम्हारे नाम से पुकारते हैं और इस तरह का व्यवहार करते हैं जैसे मैं ‘मैं’नहीं ‘तुम’ हूँ। मुझे बुरा लगता है।’’
अच्छाई ने कहा, ‘‘मुझमें भी लोगों को तुम्हारा धोखा हुआ है। वे मुझे तुम्हारे नाम से पुकारने लगते हैं।’’
यह सुनकर बुराई लोगों की मूर्खता को कोसती हुई वहाँ से चली गई।

लुका–छिपी

आओ, हम लुका–छिपी खेलते हैं।
यदि तुम मेरे दिल में छिप जाओगे, तो तुम्हें ढूँढना मुश्किल नहीं होगा ;किन्तु यदि तुम अपने ही मुखौटे के पीछे छुप जाओगे ,तो किसी भी तुम्हें खोजना निरर्थक होगा।

कविता

एथेन्स के राजमार्ग पर दो कवियों की भेंट हो गई। मिलकर दोनों को खुशी हुई।
एक कवि ने दूसरे से पूछा, ‘‘इधर नया क्या लिखा है?’’
दूसरे कवि ने गर्व से कहा, ‘‘मैंने अभी हाल ही में एक कविता लिखी है जो मेरी सभी रचनाओं में श्रेष्ठ है। मुझे लगता है यह ग्रीक में लिखी गई सभी कविताओं से भी श्रेष्ठ है। यह कविता मेरे गुरु की स्तुति में लिखी गई है।’’
तब उसने अपने कुरते से पाण्डुलिपि निकालते हुए कहा, ‘‘अरे देखो, यह तो मेरे पास ही है। इसे सुनकर मुझे प्रसन्नता होगी। चलो, उस पेड़ की छाया में बैठते हैं।’’ कवि ने अपनी रचना पढ़ी, जो काफी लम्बी थी।
दूसरे कवि ने नम्रतापूर्वक प्रतिक्रिया दी, ‘‘वह महान रचना है, कालजयी रचना है। इससे आपको बहुत प्रसिद्ध मिलेगी।’’
पहले कवि ने सपाट स्वर में पूछा, ‘‘तुम आजकल क्या लिख रहे हो?’’
दूसरे ने उत्तर दिया, ‘‘बहुत थोड़ा लिखा है मैंने। केवल आठ लाइनें–एक बाग में खेल रहे बच्चे की स्मृति में।’’ उसने अपनी रचना सुनाई।
पहले कवि ने कहा, ‘‘ठीक ही है, ज्यादा बुरी तो नहीं है।’’
आज दो हज़ार वर्ष बीत जाने पर भी उस कवि की आठ पंक्तियाँ प्रत्येक भाषा में बड़े प्रेम से पढ़ी जाती हैं।
दूसरे कवि की रचना शताब्दियों से पुस्तकालयों और विद्वानों की अलमारियों में सुरक्षित अवश्य रही है पर उसे कोई नहीं पढ़ता।

प्लूटोक्रेट

मैंने भ्रमण के दौरान एक द्वीप पर आदमी के चेहरे और लोहे के खुरों वाला भीमकाय प्राणी देखा, जो लगातार धरती को खाने और समुद्र को पीने में लगा हुआ था। मैं बड़ी देर तक उसे देखता, फिर नज़दीक जाकर पूछा, “क्या तुम्हारे लिए इतना काफी नहीं है? क्या तुम्हारी भूख- प्यास तो शान्त नहीं होती?”
उसने जवाब दिया, “मेरी भूख-प्यास तो शान्त है। मैं इस खाने पीने से भी ऊब चुका हूँ ;, पर डरता हूँ कि कहीं कल मेरे खाने के लिए धरती और पीने के लिए समुद्र नहीं बचा तो क्या होगा?”

खोज

मेरी आत्मा और मैं विशाल समुद्र में स्नान करने के लिए गए। किनारे पहुँचकर हम किसी छिपे स्थान के लिए नज़रें दौड़ाने लगे। हमने देखा एक आदमी चट्टान पर बैठा अपने झोले से चुटकी–चुटकी नमक निकालकर समुद्र में फेंक रहा था।
मेरी आत्मा ने कहा, ‘‘यह निराशावादी है, आगे चलते हैं। हम यहाँ नहीं नहा सकते।’’
हम चलते हुए खाड़ी के पास पहुँच गए। वहाँ एक आदमी सफेद चट्टान पर खड़ा होकर जड़ाऊ बाक्स से चीनी निकाल–निकालकर समुद्र में फेंक रहा था।
मेरी आत्मा ने कहा, ‘‘यह आशावादी है, इसे भी हमारे नग्न शरीर नहीं देखने चाहिए।’’
हम आगे बढ़े। किनारे पर एक आदमी मरी मछलियाँ उठाकर उन्हें वापस समुद्र में फेंक रहा था।
आत्मा ने कहा,‘‘हम इसके सामने नहीं नहा सकते, यह एक दयालु–प्रेमी है।’’
हम आगे बढ़ गए। यहाँ एक आदमी अपनी छाया को रेत पर अंकित कर रहा था। लहरों ने उसे मिटा दिया पर वह बार–बार इस क्रिया को दोहराए जा रहा था।
‘‘यह रहस्यवादी है,’’ मेरी आत्मा बोली,‘‘आगे चलें।’’
हम चलते गए, शान्त छोटी–सी खाड़ी में एक आदमी समुद्र के फेन को प्याले में एकत्र कर रहा था।
आत्मा ने मुझसे कहा,‘‘यह आदर्शवादी है, इसे तो हमारी नग्नता कदापि नहीं देखनी चाहिए।’’
चलते–चलते अचानक किसी के चिल्लाने की आवाज आई,‘‘यही है समुद्र… गहरा अतल समुद्र। यही है विशाल और शक्तिशाली समुद्र।’’ नज़दीक पहुँचने पर हमने देखा कि एक आदमी समुद्र की ओर पीठ किए खड़ा है और सीप को कान से लगाए उसकी आवाज़ सुन रहा है।
मेरी आत्मा बोली,‘‘आगे चलें। यह यथार्थवादी है,जो किसी बात को न समझने पर उससे मुँह मोड़ लेता है और किसी अंश पर ध्यान केंदित कर लेता है।’’
हम आगे बढ़ते गए। चट्टानों के बीच एक आदमी रेत में मुँह छिपाए दिखा।
मैंने अपनी आत्मा से कहा,‘‘हम यहाँ स्नान कर सकते हैं, यह हमें नहीं देख पाएगा।’’
आत्मा ने कहा,‘‘नहीं, यह तो उन सबसे खतरनाक है क्योंकि यह उपेक्षा करता है।’’
मेरी आत्मा के चेहरे पर गहरी उदासी छा गई और उसने दुखी आवाज में कहा,‘‘हमें यहाँ से चलना चाहिए क्योंकि यहाँ कहीं भी निर्जन और छिपा हुआ स्थान नहीं है जहाँ हम स्नान कर सकें। मैं यहाँ की हवा को अपनी जुल्फों से नहीं खेलने दूंगा न ही यहाँ की हवा में अपना वक्षस्थल खोलूंगा और न ही इस प्रकाश को अपनी पवित्र नग्नता की हवा लगने दूंगा।’’
फिर हम उस बड़े समुद्र को छोड़कर किसी दूसरे महासागर की खोज में निकल पड़े।

मेंढक

गर्मी के दिन थे। एक मेंढ़क ने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘जब हम रात में गाते हैं तो उस किनारे मकान में रहने वालों को जरूर तकलीफ होती होगी।’’
मेंढ़की ने कहा, ‘‘इससे क्या? वे लोग भी तो दिन में बातचीत करते हुए हमारी नींद खराब करते हैं।’’
मेंढक ने कहा, ‘‘हम यह मानें या न मानें पर सच यही है कि रात में हम कुछ ज्यादा ही मस्त होकर गाते हैं।’’
मेंढ़क की पत्नी बोली, ‘‘वे लोग भी दिन में कितनी ज़ोर–ज़ोर से गप्पें हाँकते हैं, चीखते–चिल्लाते हैं।’’
मेंढक ने कहा, ‘‘अपनी जात के उस मोटे मेंढक के बारे में तो सोचो जो टर्राते हुए अड़ोस–पड़ोस की नींद हराम किए रहता है।’’
मेंढकी बोली, ‘‘और ये राजनेता पुजारी और वैज्ञानिक! ये भी तो इस किनारे आकर अपनी चिल्ल–पों से जमीन आसमान एक किए रहते हैं।’’
मेंढक ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘हमें इन मनुष्यों से अधिक शिष्ट बनना चाहिए। क्यों न हम रात में चुप रहा करें, अपने गीत मन ही मन में गुनगुनाएँ। चाँद सितारे तो हमसे फरमाइश करते ही रहते हैं, कम से कम दो तीन रातें चुप रहकर देखते हैं।’’
मेंढकी ने कहा, ‘‘ठीक है, देखते हैं तुम्हारी उदारता से हमारे हाथ क्या आता है।’’
वे तीन रातों के लिए बिल्कुल चुप हो गए।
झील के किनारे रहने वाली बातूनी औरत तीसरे दिन नाश्ते के दौरान अपने पति से कटखने अंदाज़ में बोली, ‘‘तीन रातें बीत गईं, मुझे नींद नहीं आई। जब मेंढकों की आवाज़ मेरे कानों में आती रहती थी, मैं निश्चिन्त होकर सोती थी। कोई बात है…. ये मेंढ़क तीन दिनों से चुप क्यों हैं?…जरूर कुछ न कुछ हुआ है। अगर मैं सो नहीं पाई ,तो पागल हो जाऊँगी।’’
मेंढक ने जब यह सुना तो पत्नी को आँख मारते हुए बोला, ‘‘इन रातों के मौनव्रत ने हमें भी पागल–सा कर दिया है। है न?’’
मेंढक की पत्नी ने कहा, ‘‘ये रातों की चुप्पी तो जान ही ले लेगी। वैसे तो मुझे कोई कारण नहीं नजर आता कि हम उन लोगों के लिए चुप रहें जो अपने जीवन की रिक्तता को शोर से भरकर चैन से सोना चाहते हों।’’
और उस रात मेंढक–मेंढकी से चाँद-सितारों द्वारा की गई गीतों की फरमाइशें खाली नहीं गईं।

लड़ाई

उस रात महल में दावत थी। तभी एक आदमी वहाँ आया और राजा के सम्मुख दण्डवत् हो गया। दावत में उपस्थित सभी लोग उसकी ओर देखने लगे––उसकी एक आँख फूटी हुई थी और रिक्त स्थान से खून बह रहा था।
राजा ने पूछा, ‘‘यह सब कैसे हुआ?’’
उसने उत्तर दिया, ‘‘राजन मैं पेशेवर चोर हूँ। पिछली अँधेरी रात को मैं चोरी के इरादे से एक साहूकार की दुकान में गया था। खिड़की पर चढ़कर भीतर कूदते समय मुझसे भूल हो गई और मैं जुलाहे की दुकान में कूद पड़ा और लूम से टकराकर मेरी आंख निकल गई। राजन मैं आपसे न्याय की अपेक्षा रखता हूँ।’’
यह सुनकर राजा ने जुलाहे को पकड़ मँगवाया और उसकी एक आँख निकाल देने का आदेश दिया।
‘‘राजन!’’ जुलाहे ने कहा,‘‘आपका फैसला उचित है। मेरी एक आँख निकाल ली जानी चाहिए। लेकिन अफसोस! मुझे अपने हाथ से बुने कपड़े को दोनों ओर से देखने के लिए दोनों आँखों की जरुरत होती है। हुजूर, मेरे पड़ोस में एक मोची है, उसकी दो आँखें हैं उसे अपने काम के लिए दोनों आँखों की जरूरत नहीं पड़ती है।’’
सुनकर राजा ने मोची को तलब किया और उसके आते ही उसकी एक आँख निकालवा दी।

गुलामी

राजसिंहासन पर सो रही बूढ़ी रानी को चार दास खड़े पंखा झल रहे थे और वह मस्त खर्राटे ले रही थी। रानी की गोद में एक बिल्ली बैठी घुरघुरा रही थी और उनींदी आँखों से गुलामों की ओर टकटकी लगाए थी।
एक दास ने कहा, ‘‘यह बूढ़ी औरत नींद में कितनी बदसूरत लग रही है। इसका लटका हुआ मुँह तो देखो, ऐसे भद्दे ढंग से साँस ले रही है, मानों किसी ने गर्दन दबा रखी हो।’’
तभी बिल्ली घुरघुराई और अपनी भाषा में बोली, ‘‘सोते हुए रानी उतनी बदसूरत नहीं लग रही, जितना कि तुम जागते हुए अपनी गुलामी में लग रहे हो।’’
तभी दूसरा दास बोला, ‘‘सोते हुए इसकी झुर्रियाँ कितनी गहरी मालूम हो रही हैं, ज़रूर कोई बुरा सपना देख रही है।’’
बिल्ली फिर घुरघुराई, ‘‘तुम जागते हुए आजादी के सपने कब देखोगे?’’
तीसरे ने कहा, ‘‘शायद यह सपने में उन लोगों को जुलूस की शक्ल में देख रही है, जिनको इसने निर्ममता से कत्ल करवा दिया था।’’
बिल्ली अपनी जबान में बोली, ‘‘हाँ, वह तुम्हारे बाप दादाओं और बड़े हो रहे बच्चों के सपने देख रही है।’’
चौथे ने कहा, ‘‘इस तरह इसके बारे में बातें करने से अच्छा लगता है, फिर भी खड़े–खड़े पंखा करने से हो रही थकान में तो कोई फर्क नहीं पड़ रहा।’’
बिल्ली घुरघुराई,‘‘तुम्हें अनन्तकाल तक इसी तरह पंखे से हवा करते रहना चाहिए…’’
ठीक इसी समय रानी ने नींद में सिर हिलाया ,तो उसका मुकुट फर्श पर गिर गया।
उनमें से एक दास बोला, ‘‘यह तो अपशकुन है।’’
बिल्ली ने कहा, ‘‘किसी के लिए जो अपशकुन होता है, वही दूसरे के लिए शुभ संकेत होता है।’’
दूसरा दास बोला, ‘‘अगर अभी ये जाग जाए और अपना गिरा हुआ मुकुट देख ले तो? निश्चित रूप से हमें कत्ल करवा देगी।’’
बिल्ली घुरघुराई, ‘‘जब से तुम पैदा हुए हो , वह तुम्हें कत्ल करवाती आ रही है और तुम्हें पता ही नही।’’
तीसरे दास ने कहा, ‘‘हाँ, वह हमें कत्ल करवा देगी और फिर इसे ‘ईश्वर के लिए बलिदान’ का नाम देगी।’’
बिल्ली की घुरघुराहट, ‘‘केवल कमजोर लोगों की ही बलि चढ़ायी जाती है।’’
चौथे दास ने सबको चुप कराया और फिर सावधानी से मुकुट उठाकर वापस रानी के सिर पर रख दिया। उसने इस बात का ध्यान रखा कि कहीं रानी जाग न जाए।
बिल्ली ने घुरघुराहट में कहा, ‘‘एक गुलाम ही गिरा हुआ मुकुट वापस रखता है।’’
थोड़ी देर बाद रानी जाग गई। उसने जमुहाई लेते हुए चारों तरफ देखा, फिर बोली, ‘‘लगता है मैं सपना देख रही थी। एक अत्यधिक प्राचीन ओक का पेड़…उसके चारों और भागते चार कीड़े..उनका पीछा करता एक बिच्छू ! मुझे तो यह सपना अच्छा नहीं लगा।’’
यह कहकर उसने फिर आँखें बन्द कर लीं और खर्राटे लेने लगी। चारों दास फिर पंखों से हवा करने लगे।
बिल्ली घुरघुराई और बोली, ‘‘हवा करते रहो…पंखा झलते रहो! मूर्खो!! तुम आग को हवा देते रहो ,ताकि वह तुम्हें जलाकर राख कर दे।’’

भाई–भाई

ऊँचे पर्वत पर चकवा और गरुड़ की भेंट हुई. चकवा बोला, "शुभ प्रभात, श्रीमान!"
गरुड़ ने उसकी ओर देखा और रुखाई से कहा, "ठीक है–ठीक है।" चकवे ने फिर बात शुरू की, "आशा है, आप सानन्द हैं।"
गरुड़ ने कहा, "हाँ, हम मजे में हैं पर तुम्हें मालूम होना चाहिए कि तुम पक्षियों के राजा से बात कर रहे हो। जब तक हम बात शुरू न करें तुम्हें हमसे बात शुरू करने की गुस्ताखी नहीं करनी चाहिए."
चकवे ने कहा, "मेरे ख्याल से हम दोनों एक ही परिवार से हैं।"
गरुड़ ने आखें निकालकर घृणा से उसकी ओर देखा, "किस बेवकूफ़ ने कह दिया कि हम एक ही परिवार से हैं?"
तब चकवे ने कहा, "मैं आपको याद दिला दूँ कि मैं आपके समान ऊँचा उड़ सकता हूँ। इसके अलावा मैं अपने सुमद्दुर गीतों से दूसरों का मनोरंजन भी कर सकता हूँ। आप किसी को भी सुख और खुशी नहीं दे सकते।"
इस पर गरुड़ ने क्रोधित होते हुए कहा, "सुख और खुशी! अबे ढीठ, मैं अपनी चोंच की एक चोट से तेरा काम तमाम कर सकता हूँ। तू तो मेरे पैर जितना भी नहीं है।"
चकवा उड़कर गरुड़ की पीठ पर जा बैठा और उसके पंख नोचने लगा। गरुड़ भी गुस्से में था, उससे पिण्ड छुड़ाने के लिए वह तेजी से काफी ऊँचाई तक उड़ता चला गया; लेकिन उसका बस नहीं चला। हारकर वह फिर उसी चट्टान पर आ गया। चकवा अब भी उसकी पीठ पर सवार था। गरूड़ उस घड़ी को कोस रहा था, जब वह उस तुच्छ पक्षी से उलझ पड़ा था।
तभी एक कछुआ वहाँ आ निकला। गरुड़ और चकवे की हालत देखकर उसे हँसी आ गई. वह हँसते–हँसते लोट–पोट हो गया।
गरुड़ ने कछुए की ओर देखकर कहा, "पृथ्वी पर रेंगने वाले कीड़े, हँसता क्यों है?"
कछुए ने कहा, "क्या यह हँसने की बात नहीं है कि आपको घोड़ा बनाकर एक छोटा–सा पक्षी आपकी पीठ पर सवारी कर रहा है।"
गरुड़ ने कहा, "अबे जा, अपना काम कर। यह तो मेरे भाई चकवे का और मेरा घरेलू मामला है।"

हरेक में

एक बार मैंने धुंध को मुट्ठी में भर लिया।
जब मुट्ठी खोली तो देखा, धुंध एक कीड़े में तब्दील हो गई थी।
मैंने मुट्ठी को बंद कर फिर खोला, इस बार वहां एक चिड़िया थी।
मैंने फिर मुट्ठी को बंद किया और खोला, इस बार वहाँ उदास चेहरे से ऊपर ताकता आदमी खड़ा था।
मैंने यह क्रिया फिर दोहराई तो इस बार मुट्ठी में धुंध के सिवा कुछ नहीं था–पर अब मैं बहुत मीठा गीत सुनने लगा था। इससे पहले मैं खुद को इस धरती पर रेंगने वाला निरीह प्राणी समझता था। उस दिन मुझे पता चला कि पूरी पृथ्वी और उस पर का जीवन मेरे भीतर ही धड़कता है।

असंतुष्ट

एक समय शहर के प्रवेशद्वार पर दो देवदूत मिले। आपस में दुआ–सलाम के बाद वे बातचीत करने लगे।
पहले देवदूत ने कहा,‘‘आजकल क्या कर रहे हो? तुम्हें क्या काम मिला है?’’
दूसरे ने बताया, ‘‘मुझे घाटी में रहने वाले एक पापी आदमी पर नज़र रखने का काम दिया गया है, वह बहुत बड़ा अपराधी और चरित्रहीन है। तुम्हें क्या बताऊं…यह बहुत महत्त्वपूर्ण काम है। मुझे इसमें बहुत मेहनत करनी पड़ती है।’’
पहले देवदूत ने कहा, ‘‘मुझे न जाने कितनी बार पापियों पर नियुक्त किया गया है, यह बहुत साधारण–सा काम है। मैं आजकल एक संत की देखभाल कर रहा हूँ, जो उधर लताकुंज में रहता है। सच मानों यह काम बहुत कठिन है। इसके लिए कुशाग्र बुद्धि की जरूरत होती है।’’
दूसरा देवदूत बोला, ‘‘निरी बकवास! यह तुम्हारा अहंकार बोल रहा है। भला किसी पापी की तुलना में संत की देख–रेख करना कैसे कठिन हो सकता है?’’
पहले ने उत्तर दिया, ‘‘तुम ढीठ! मुझे अहंकारी कहते हो? मैंने सच कहा है। घमण्डी तो तुम हो!’’
दोनों झगड़ने लगे। बातचीत से हाथापाई पर उतर आए।
तभी वहाँ पर बड़ा देवदूत आ गया। उसने उन्हें रोकते हुए कहा, ‘‘क्यों लड़ते हो? नगर के प्रवेशद्वार पर देवदूतों का आपस में लड़ना कितनी शर्म की बात है। बताओ, आखिर बात क्या है?’’
दोनों एक साथ बोलने लगे। दोनों अपने काम को अधिक महत्त्वपूर्ण सिद्ध करने में लगे थे।
बड़े देवदूत ने सिर हिलाया और कुछ सोचते हुए बोला, ‘‘मित्रो! मेरे लिए यह कह पाना मुश्किल है कि कौन प्रशंसा और इनाम का अधिकारी है। चूंकि मुझे भी शान्ति व्यवस्था बनाए रखने का काम दिया गया है, अत: मैं जनहित में आदेश देता हूँ कि तुम लोग आपस में अपना काम बदल लो ;क्योंकि तुम दोनों ही एक दूसरे के काम को सरल कह रहे हो। जाओ खुशी से अपना काम करो।’’
आदेश मिलते ही दोनों देवदूत अपने–अपने रास्ते चल पड़े, पर दोनों ही मुड़–मुड़कर जलती हुई आँखों से बड़े देवदूत को देखे जा रहे थे और मन ही मन कह रहे थे, ‘‘ये बड़े देवदूत! दिन प्रतिदिन हमारा जीना दुश्वार करते जा रहे हैं।’’

ऊँचाई-1

अगर आप बादल पर बैठ सके तो एक देश से दूसरे देश को अलग करने वाली सीमा रेखा आपको कहीं दिखाई नहीं देगी और न ही एक खेत से दूसरे खेत को अलग करनेवाला पत्थर ही नजर आएगा।
च्च...च....च... आप बादल पर बैठना ही नहीं जानते।

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