पूरे चाँद की रात (कहानी) : कृष्ण चन्दर

Poore Chand Ki Raat (Story in Hindi) : Krishen Chander

अप्रैल का महीना था। बादाम की डालियां फूलों से लद गई थीं और हवा में बर्फ़ीली ख़ुनकी के बावजूद बिहार की लताफ़त आ गई थी। बुलंद-ओ-बाला तिनकों के नीचे मख़मलें दूब पर कहीं कहीं बर्फ़ के टुकड़े सपीद फूलों की तरह खुले हुए नज़र आरहे थे। अगले माह तक ये सपीद फूल इसी दूब में जज़ब हो जाऐंगे और दूब का रंग गहिरा सबज़ हो जाएगा और बादाम की शाख़ों पर हरे हरे बादाम पुखराज के नगीनों की तरह झिलमिलाएं गे और नीलगूं पहाड़ों के चेहरों से कोहरा दूर होता जाएगा और इस झील के पुल के पार पगडंडी की ख़ाक मुलाइम भेड़ों की जानी-पहचानी बा आ आ से झनझना उट्ठेगी और फिर इन बुलंद-ओ-बाला तंगों के नीचे चरवाहे भेड़ों के जिस्मों से सर्दीयों की पली हुई मोटी मोटी गफ़ ऊन गरमीयों में कुतरते जाऐंगे और गीत गाते जाऐंगे।
लेकिन अभी अप्रैल का महीना था। अभी तंगों पर पत्तियाँ ना फूटी थीं। अभी पहाड़ों पर बर्फ़ का कोहरा था। अभी पगडंडी का सीना भेड़ों की आवाज़ से गूँजा ना था। अभी सम्मल की झील पर कंवल के चराग़-ए-रौशन ना हुए थे। झील का गहिरा सबज़ पानी अपने सीने के अंदर उन लाखों रूपों को छुपाए बैठा था जो बिहार की आमद पर यकायक उस की सतह पर एक मासूम और बेलौस हंसी की तरह खुल जाऐंगे। पुल के किनारे किनारे बादाम के पेड़ों की शाख़ों पर शगूफ़े चमकने लगे थे। अप्रैल में ज़मिस्ताँ की आख़िरी शब में जब बादाम के फूल जागते हैं और बिहार के नक़ीब बन कर झील के पानी में अपनी कश्तियां तेराते हैं। फूलों के नन्हे नन्हे शिकारे सतह-ए-आब पर रक़्साँ-ओ-लर्ज़ां बिहार की आमद के मुंतज़िर हैं।
पुल के जंगले का सहारा लेकर में एक अरसा से इस का इंतिज़ार कर रहा था। सहि पहर ख़त्म हो गई। शाम आ गई, झील वूलर को जानेवाले हाऊस बोट, पुल की सिंगला ख़ी मेहराबों के बीच में से गुज़र गए और अब वो उफ़ुक़ की लकीर पर काग़ज़ की नाव की तरह कमज़ोर और बेबस नज़र आरहे थे। शाम का क़िरमज़ी रंग आसमान के इस किनारे से इस किनारे तक फैलता गया और क़िरमज़ी से सुरमई और सुरमई से स्याह होता गया। हत्ता कि बादाम के पेड़ों की क़तार की ओट में पगडंडी भी सो गई और फिर रात के सन्नाटे में पहला तारा किसी मुसाफ़िर के गीत की तरह चमक उठा। हुआ की ख़ुनकी तेज़-तर होती गई और नथुने उस के बर्फ़ीले लम्स से सन हो गए।
और फिर चांद निकल आया।
और फिर वो आ गई।
तेज़ तेज़ क़दमों से चलती हुई, बल्कि पगडंडी के ढलान पर दौड़ती हुई, वो बिलकुल मेरे क़रीब आ के रुक गई। उसने आहिस्ता से कहा।
हाय!
इस की सांस तेज़ी से चल रही थी, फिर रुक जाती, फिर तेज़ी से चलने लगती। उसने मेरे शाने को अपनी उंगलीयों से छुवा और फिर अपना सर वहां रख दिया और इस के गहरे स्याह बालों का परेशान घुन्ना जंगल दूर तक मेरी रूह के अंदर फैलता चला गया और मैंने इस से कहा:
सहि पहर से तुम्हारा इंतिज़ार कर रहा हूँ।
उसने हंसकर कहा। अब रात हो गई है, बड़ी अच्छी रात है। उसने अपना कमज़ोर नन्हा छोटा सा हाथ मेरे दूसरे शाने पर रख दिया और जैसे बादाम के फूलों से भरी शाख़ झुक कर मेरे कंधे पर सो गई।
देर तक वो ख़ामोश रही। देर तक मैं ख़ामोश रहा। फिर वो आप ही आप हंसी, बोली: अब्बा मेरे पगडंडी के मोड़ तक मेरे साथ आए थे, क्यों कि मैंने कहा, मुझे डर लगता है। आज मुझे अपनी सहेली रुजू के घर सोना है, सोना नहीं जागना है। क्योंकि बादाम के पहले शगूफ़ों की ख़ुशी में हम सब सहेलियाँ रात-भर जागेंगी और गीत गाएँगी और में तो सहि पहर से तैयारी कर रही थी, उधर आने की। लेकिन धान साफ़ करना था और कपड़ों का ये जोड़ा जो कल धोया था आज सूखा ना था। उसे आग पर सिखाया और अम्मां जंगल से लकड़ियाँ चुनने गई थीं वो अभी आई ना थीं और जब तक वो ना आतीं में मक्की के भुट्टे और ख़ुशक ख़ूबानीयाँ और जर वालो तुम्हारे लिए कैसे ला सकती हूँ। देखो ये सब कुछ लाई हूँ तुम्हारे लिए। हाय तुम सच-मुच ख़फ़ा खड़े हो। मेरी तरफ़ देखो में आ गई हूँ। आज पूरे चांद की रात है। आओ किनारे लगी हुई क्षति खोलें और झील की सैर करें।
उसने मेरी आँखों में देखा और मैंने उस की मुहब्बत और हैरत में गुम पुतलीयों को देखा, जिनमें उस वक़्त चांद चमक रहा था और ये चांद मुझसे कह रहा था, जाओ कशती खोल के झील के पानी पर सैर करो। आज बादाम के पीले शगूफ़ों का मुसर्रत भरा तयोहार है। आज उसने तुम्हारे लिए अपनी सहेलीयों अपने अब्बा, अपनी नन्ही बहन और अपने बड़े भाई सबको फ़रेब में रखा है, क्योंकि आज पूरे चांद की रात है और बादाम के सपीद ख़ुशक शगूफ़े बर्फ़ के गालों की तरह चारों तरफ़ फैले हुए हैं और कश्मीर के गीत उस की छातीयों में बच्चे के दूध की तरह उमड आए हैं। इस की गर्दन में तुमने मोतीयों की ये सत लड़ी देखी। ये सुर्ख़ सत लड़ी उस के गले में डाल दी और इस से कहा: तो आज रात-भर जागेगी। आज कश्मीर की बिहार की पहली रात है। आज तेरे गले में कश्मीर के गीत यूं खुलेंगे, जैसे चाँदनी-रात में ज़ाफ़रान के फूल खुलते हैं। ये सुर्ख़ सत लड़ी पहन ले।
चांद ने ये सब कुछ उस की हैरान पुतलीयों से झांक के देखा फिर यकायक कहीं किसी पेड़ पर एक बुलबुल नग़मासरा हो उठी और कश्तीयों में चिराग़ झिलमिलाने लगे और तंगों से परे बस्ती में गीतों की मद्धम सदा बुलंद हुई। गीत और बच्चों के क़हक़हे और मर्दों की भारी आवाज़ें और नन्हे बच्चों के रोने की मीठी सदाएँ और छतों से ज़िंदगी का आहिस्ता-आहिस्ता सुलगता हुआ धुआँ और शाम के खाने की महक, मछली और भात और कड़म के साग का नरम नमकीन और लतीफ़ ज़ायक़ा और पूरे चांद की रात का बिहार आफ़रीं जोबन। मेरा ग़ुस्सा धुल गया। मैंने उस का हाथ अपने हाथ में ले लिया और इस से कहा। आओ चलें झील पर।
पुल गुज़र गया। पगडंडी गुज़र गई, बादाम के दरख़्तों की क़तार ख़त्म हो गई। तुला गुज़र गया। अब हम झील के किनारे किनारे चल रहे थे। झाड़ीयों में मेंढ़क बोल रहे थे। मेंढ़क और झींगुर और बीनडे, उनकी बेहंगम सदाओं का शोर भी एक नग़मा बन गया था। एक ख़्वाब-नाक सिम्फनी और सोई हुई झील के बीच में चांद की क्षति खड़ी थी। साकिन चुप-चाप, मुहब्बत के इंतिज़ार मैं, हज़ारों साल से इसी तरह खड़ी थी। मेरी और इस की मुहब्बत की मुंतज़िर, तुम्हारी और तुम्हारे महबूब की मुस्कुराहट की मुंतज़िर, इन्सान के इन्सान को चाहने की आरज़ू की मुंतज़िर। ये पूरे चांद की हुसैन पाकीज़ा रात किसी कुँवारी के बे छूए जिस्म की तरह मुहब्बत के मुक़द्दस लम्स की मुंतज़िर है।
कश्ती ख़ूबानी के एक पेड़ से बंधी थी। जो बिलकुल झील के किनारे उगा था। यहां पर ज़मीन बहुत नरम थी और चांदनी पत्तों की ओट से छिन्ती हुई आ रही थी और मेंढ़क हौले हौलेगा रहे थे और झील का पानी बार-बार किनारे को चूमता जाता था और इस के चूमने की सदा बार-बार हमारे कानों में आ रही थी। मैंने दोनों हाथ, उस की कमर में डाल दिए और उसे ज़ोर ज़ोर से अपने सीने से लगा लिया। झील का पानी बार-बार किनारे को चूम रहा था। पहले मैंने उस की आँखें चूमीं और झील की सतह पर लाखों कंवल खुल गए। फिर मैंने उस के रुख़्सार चूमे और नरम हवाओं के लतीफ़ झोंके यकायक बुलंद होके सदहा गीत गाने लगे। फिर मैंने उस के होंट चूमे और लाखों मंदिरों, मस्जिदों और कलीसाओं में दुआओं का शोर बुलंद हुआ और ज़मीन के फूल और आसमान के तारे और हवाओं में उड़ने वाले बादल सब मिल के नाचने लगे। फिर मैंने उस की ठोढ़ी को चूमा और फिर उस की गर्दन के पेचो ख़म को, और कंवल खुलते खुलते सिमटते गए कलीयों की तरह और गीत बुलंद हो हो के मद्धम होते गए और नाच धीमा पड़ता पड़ता रुक गया। अब वही मेंढ़क की आवाज़ थी। वही झील के नरम नरम बोसे और कोई छाती से लगा सिसकियाँ ले रहा था।
मैंने आहिस्ता से क्षति खोली। वो कश्ती में बैठ गई। मैंने चप्पू अपने हाथ में ले लिया और क्षति को खे कर झील के मर्कज़ में ले गया। यहां किश्ती आप ही आप खड़ी हो गई। ना इधर बेहती थी ना उधर। मैंने चप्पू उठा कर कश्ती में रख लिया। उसने पोटली खोली।इस में से जर वालों निकाल कर मुझे दिए। ख़ुद भी खाने लगी।
जर वालो ख़ुशक थे और खट्टे मीठे।
वो बोली। ये पिछली बार के हैं।
मैं जर वालो खाता रहा और इस की तरफ़ देखता रहा।
वो आहिस्ता से बोली।
पिछली बिहार में तुम ना थे।
पिछली बिहार में, मैं ना था। और जर वालो के पेड़ फूलों से भर गए थे और ज़रा सी शाख़ हिलाने पर फूल टूट कर सतह ज़मीन पर मोतीयों की तरह बिखर जाते थे। पिछली बिहार में, मैं ना था और जर वालो के पेड़ फलों से लदे फंदे थे। सबज़ सबज़ जर वालो। सख़्त खट्टे जर वालो जो नमक मिर्च लगा के खाए जाते थे और ज़बान सी सी करती थी और नाक बहने लगती थी और फिर भी खट्टे जर वालो खाए जाते थे। पिछली बिहार में, मैं ना था। और ये सबज़ सबज़ जर वालो, पक के पीले और सुनहरे और सुर्ख़ होते गए और डाल डाल में मुसर्रत के सुर्ख़ शगूफ़े झूम रहे थे और मुसर्रत भरी आँखें, चमकती हुई मासूम आँखें उन्हें झूमता हुआ देखकर रक़्स सा करने लगतीं। पिछली बिहार में, मैं ना था और सुर्ख़ सुर्ख़ जर वालो ख़ूबसूरत हाथों ने इकट्ठे कर लिए। ख़ूबसूरत लबों ने उनका ताज़ा रस चूसा और उन्हें अपने घर की छत पर ले जाकर सूखने के लिए रख दिया कि जब ये जर वालो सूख जाऐंगे, जब एक बिहार गुज़र जाएगी और दूसरी बहार आने को होगी तो मैं आऊँगा और उनकी लज़्ज़त से लुतफ़ अंदोज़ हो सकूँगा।
जर वालो खा के हमने ख़ुशक ख़ूबानीयाँ खाईं। ख़ूबानी पहले तो बहुत मीठी मालूम ना होती मगर जब दहन के लुआब में घुल जाती तो शहद-ओ-शुक्र का मज़ा देने लगती।
नरम नरम बहुत मीठी हैं ये। मैंने कहा।
उसने एक गुठली को दाँतों से तोड़ा और ख़ूबानी का बीज निकाल के मुझे दिया। खाओ।
बीज बादाम की तरह मीठा था।
ऐसी ख़ूबानीयाँ मैंने कभी नहीं खाईं।
उसने कहा: ये हमारे आँगन का पेड़ है। हमारे हाँ ख़ूबानी का एक ही पेड़ है। मगर इतनी बड़ी और सुर्ख़ और मीठी ख़ूबानीयाँ होती हैं इस की कि मैं क्या कहूं। जब ख़ूबानीयाँ पक जाती हैं तो मेरी सारी सहेलियाँ इकट्ठी हो जाती हैं और ख़ूबानीयाँ खिलाने को कहती हैं। पिछली बिहार में।
और मैंने सोचा, पिछली बिहार में, मैं ना था। मगर ख़ूबानी का पेड़ आँगन में इसी तरह खड़ा था। पिछली बिहार में वो नाज़ुक नाज़ुक पत्तों से भर गया था। फिर उनमें कच्ची ख़ूबानियों के सबज़ और नोकीले फल लगे थे। अभी इन ख़ूबानियों में गुठली पैदा ना हुई थी और ये कच्चे खट्टे फल दोपहर के खाने के साथ चटनी का काम देते थे। पिछली बिहार में, मैं ना था और फिर इन ख़ूबानियों में गुठलियां पैदा हो गई थीं और ख़ूबानियों का रंग हल्का सुनहरा होने लगा था और गुठलियों के अंदर नरम नरम बीज अपने ज़ाइक़े में सबज़ बादामों को भी मात करते थे। पिछली बिहार में, मैं ना था। और ये सुर्ख़ सुर्ख़ ख़ूबानीयाँ जो अपनी रंगत में कश्मीरी दोशीज़ाओं की तरह सबीह थीं और ऐसी ही रसदार। सबज़ सबज़ पत्तों के झूमरों से झाँकती नज़र आती थीं। फिर अल्लहड़ लड़कीयां आँगन में नाचने लगतीं और छोटा भायं दरख़्त के ऊपर चढ़ गया और ख़ूबानीयाँ तोड़ तोड़ कर अपनी बहन की सहेलीयों के लिए फेंकता गया। कितनी मीठी थीं, वो पिछली बिहार की रस-भरी ख़ूबानीयाँ। जब मैं ना था।
ख़ूबानीयाँ खा के उसने मकई का भुट्टा निकाला। ऐसी सोंधी सोंधी ख़ुशबू थी। सुनहरा सेंका हुआ भुट्टा और करकरे दाने साफ़-शफ़्फ़ाफ़ मोतीयों की सी जिला लिए हुए और ज़ाइक़े में बेहद शीरीं।
वो बोली: ये मिस्री मकई के भुट्टे हैं।
बेहद मीठे। मैंने भुट्टा खाते हुए कहा।
वो बोली। पिछली फ़सल के रखे थे, घड़ों में छिपा के। अम्मां की आँख से ओझल।
मैंने भुट्टा एक जगह से खाया। दानों की चंद क़तारें रहने दें, फिर उसने उसी जगह से खाया और दानों की चंद क़तारें मेरे लिए रहने दें। जिन्हें में खाने लगा और इस तरह हम दोनों एक ही भुट्टे से खाते गए और मैंने सोचा, ये मिस्री मकई के भुट्टे कितने मीठे हैं। ये पिछली फ़सल के भुट्टे। जब तो थी लेकिन मैं ना था। जब तेरे बाप ने हल चलाया था खेतों में। गोडी की थी, बीज बूए थे, बादलों ने पानी दिया था। ज़मीन ने सबज़ सब्ज़-रंग के छोटे छोटे पौदे उगाए थे। जिनमें तू ने नलाई की थी। फिर पौदे बड़े हो गए थे और उनके सुरों पर सिरीयाँ निकल आई थीं और हवा में झूमने लगी थीं और तो मकई के पौदों पर हरे हरे भुट्टे देखने जाती थी। जब मैं ना था। लेकिन भट्टों के अंदर दाने पैदा हो रहे थे, दूध भरे दाने, जिनकी नाज़ुक जिल्द के ऊपर अगर ज़रा सा भी नाख़ुन लगा जाये तो दूध बाहर निकल आता है। ऐसे नरम-ओ-नाज़ुक भुट्टे इस धरती ने उगाए थे और मैं ना था। और फिर ये भुट्टे जवान और तवाना हो गए और उनका रस पुख़्ता हो गया। पुख़्ता और सख़्त। अब नाख़ुन लगाने से कुछ ना होता था। अपने नाख़ुन ही के टूटने का एहतिमाल था। भट्टों की मूँछें जो पहले पीली थीं, अब सुनहरी और आख़िर में स्याही माइल होती गईं। मकई के भट्टों का रंग ज़मीन की तरह भूरा होता गया। मैं जब भी ना आया था और फिर खेतों में खलियान लगे और खलियानों में बैल चले और भट्टों से दाने अलग हो गए और तो ने अपनी सहेलीयों के साथ मुहब्बत के गीत गाय और थोड़े से भुट्टे छुपा के और सैनिक के अलग रख दिए। जब मैं ना था, धरती थी, तख़लीक़ थी, मुहब्बत के गीत थे। आग पर सेंके हुए भुट्टे थे। लेकिन मैं ना था।
मैंने मुसर्रत से इस की तरफ़ देखा और कि: आज पूरे चांद की रात को जैसे हर बात पूरी हो गई है। कल तक पूरी ना थी, आज पूरी है।
उसने भुट्टा मेरे मुँह से लगा दिया। इस के होंटों का गर्मगर्म लम्स अभी तक इस भुट्टे पर था। मैंने कहा। मैं तुम्हें चूम लूं?
वो बोली। हष, कशती डूब जाएगी।
तो फिर क्या करें?मैंने पूछा।
वो बोली: डूब जाने दो।
वो पूरे चांद की रात मुझे अब तक नहीं भूलती। मेरी उम्र सत्तर बरस के क़रीब है, लेकिन वो पूरे चांद की रात मेरे ज़हन में इस तरह चमक रही है जैसे अभी वो कल आई थी। ऐसी पाकीज़ा मुहब्बत मैंने आज तक नहीं की होगी। उसने भी नहीं की होगी। वो जादू वो कुछ और था। जिसने पूरे चांद की रात को हम दोनों को एक दूसरे से यूं मिला दिया कि वो फिर घर नहीं गई। इसी रात मेरे साथ भाग आई और हम पाँच छः दिन मुहब्बत में खोए हुए बच्चों की तरह इधर उधर जंगलों के किनारे नदी नालों पर अखरोटों के साय तले घूमते रहे, दुनिया-ओ-माफ़ीहा से बे-ख़बर। फिर मैंने इसी झील के किनारे एक छोटा सा घर ख़रीद लिया और इस में हम दोनों रहने लगे। कोई एक महीना के बाद में श्रीनगर गया और इस से ये कह के गया कि तीसरे दिन लौट आऊँगा। तीसरे दिन में लौट आया तो क्या देखता हूँ कि वो एक नौजवान से घुल मिल के बातें कर रही है। वो दोनों एक ही रकाबी में खाना खा रहे थे। एक दूसरे के मुँह में लुक़्मे डालते जाते हैं और हंसते जाते हैं। मैंने उन्हें देख लिया। लेकिन उन्होंने मुझे नहीं देखा। वो अपनी मुसर्रत में इस क़दर महव थे कि उन्होंने मुझे नहीं देखा। और मैंने सोचा कि ये पिछली बिहार या इस से भी पिछली बिहार का महबूब है, जब मैं ना था और फिर शायद और आगे भी कितनी ही ऐसी बहारें आयेंगी , कितनी ही पूरे चांद की रातें, जब मुहब्बत एक फ़ाहिशा औरत की तरह बेक़ाबू हो जाएगी और उर्यां हो के रक़्स करने लगेगी। आज तेरे घर में ख़िज़ां आ गई है। जैसे हर बिहार के बाद आती है। अब तेरा यहां क्या काम। इस लिए में ये सोच कर उनसे मिले बग़ैर ही वापिस चला गया और फिर अपनी पहली बिहार से कभी नहीं मिला।
और अब मैं अड़तालीस बरस के बाद लूट के आया हूँ। मेरे बेटे मेरे साथ हैं। मेरी बीवी मर चुकी है लेकिन मेरे बेटों की बीवीयां और उनके बच्चे मेरे साथ हैं और हम लोग सैर करते करते सम्मल झील के किनारे आ निकले हैं और अप्रैल का महीना है और सहि पहर से शाम हो गई है और मैं देर तक पुल के किनारे खड़ा बादाम के पेड़ों की क़तारें देखता जाता हूँ और ख़ुनुक हवा में सफ़ैद शगूफ़ों के गुच्छे लहराते जाते हैं और पगडंडी की ख़ाक पर से किसी के जाने-पहचाने क़दमों की आवाज़ सुनाई नहीं देती। एक हुसैन दोशीज़ा लड़की हाथों में एक छोटी सी पोटली दबाए पुल पर से भागती हुई गुज़र जाती है और मेरा दिल धक से रह जाता है। दूर पार तंगों से परे बस्ती में कोई बीवी अपने ख़ावंद को आवाज़ दे रही है। वो उसे खाने पर बुला रही है। कहीं से एक दरवाज़ा बंद होने की सदा आती है और एक रोता हुआ बच्चा यकायक चुप हो जाता है। छतों से धुआँ निकल रहा है और परिंदे शोर मचाते हुए एक दम दरख़्तों की घुन्नी शाख़ों में अपने पर फड़फड़ाते हैं और फिर एक दम चुप हो जाते हैं। ज़रूर कोई हा निजी गा रहा है और इस की आवाज़ गूँजती गूँजती उफ़ुक़ के इस पार गुम होती जा रही है।
मैं पल को पार कर के आगे बढ़ता हूँ। मेरे बेटे और उनकी बीवीयां और बच्चे मेरे पीछे आरहे हैं। वो अलग अलग टोलियों में बट्टे हुए हैं। यहां पर बादाम के पेड़ों की क़तार ख़त्म हो गई। तुला भी ख़त्म हो गया। झील का किनारा है। ये ख़ूबानी का दरख़्त है, लेकिन कितना बड़ा हो गया है। मगर कशती, ये क्षति है। मगर क्या ये वही क्षति है। सामने वो घर है। मेरी पहली बिहार का घर। मेरी पूरे चांद की रात की मुहब्बत।
घर में रोशनी है। बच्चों की सदाएँ हैं। कोई भारी आवाज़ में गाने लगता है। कोई बढ़िया उसे चीख़ कर चुप करा देती है। मैं सोचता हूँ, आधी सदी हो गई। मैंने इस घर को नहीं देखा। देख लेने में क्या हर्ज है। आख़िर मैंने उसे ख़रीदा था। देखा जाये तो मैं अभी तक उस का मालिक हूँ। देख लेने में हर्ज ही किया है। मैं घर के अंदर चला जाता हूँ।
बड़े अच्छे प्यारे बच्चे हैं। एक जवान औरत अपने ख़ावंद के लिए रकाबी में खाना रख रही है। मुझे देखकर ठटक जाती है। दो बच्चे लड़ रहे थे। मुझे देखकर हैरत से चुप हो जाते हैं। बढ़िया जो अभी ग़ुस्सा में डाँट रही थी, थम के पास आ के खड़ी हो जाती है, कहती है: कौन हो तुम?
मैंने कहा: ये घर मेरा है।
वो बोली: तुम्हारे बाप का है।
मैंने कहा: मेरे बाप का नहीं है, मेरा है। कोई अड़तालीस साल हुए, मैंने उसे ख़रीदा था। बस उस वक़्त तो यूंही में उसे देखने के लिए चला आया। आप लोगों को निकालने के लिए नहीं आया हूँ। ये घर तो बस समझिए अब आप ही का है। मैं तो यूंही.. मैं ये कह कर लौटने लगा। बढ़िया की उंगलियां सख़्ती से थम पर जम गईं। उसने सांस ज़ोर से अंदर को खींची: तो तुम हो.. अब इतने बरस के बाद कोई कैसे पहचाने..
वो थम से लगी देर तक ख़ामोश खड़ी रही। मैं नीचे आँगन में चुप-चाप खड़ा उस की तरफ़ देखता रहा। फिर वो आप ही आप हंस दी। बोली: आओ मैं तुम्हें अपने घर के लोगों से मिलाओ.. देखो, ये मेरा बड़ा बेटा है। ये इस से छोटा है, ये बड़े बेटे की बीवी है। ये मेरा बड़ा पोता है, सलाम करो बेटा। ये पोती.. ये मेरा ख़ावंद है। शश, उसे जगाना नहीं। परसों से उसे बुख़ार आ रहा है। सोने दो उसे..
वो बोली: तुम्हारी क्या ख़ातिर करूँ।
मैंने दीवार पर खूँटी से टँगे हुए मकई के भट्टों को देखा। सेंके हुए भुट्टे। सुनहरे मोतीयों के से शफ़्फ़ाफ़ दाने।
हम दोनों मुस्कुरा दिए।
वो बोली: मेरे तो बहुत से दाँत झड़ चुके हैं, जो हैं भी वो काम नहीं करते।
मैंने कहा: यही हाल मेरा भी है, भुट्टा ना खा सकूँगा।
मुझे घर के अंदर घिसते देखकर मेरे घर के अफ़राद भी अंदर चले आए थे। अब ख़ूब गहमा गहमी थी। बच्चे एक दूसरे से बहुत जल्द मिल-जुल गए। हम दोनों आहिस्ता-आहिस्ता बाहर चले आए। आहिस्ता-आहिस्ता झील के किनारे चलते गए।
वो बोली: मैंने छः बरस तुम्हारा इंतिज़ार किया। तुम इस रोज़ क्यों नहीं आए?
मैंने कहा: मैं आया था। मगर तुम्हें किसी दूसरे नौजवान के साथ देखकर वापिस चला गया था।
क्या कहते हो?वो बोली।
हाँ तुम उस के साथ खाना खा रही थीं, एक ही रकाबी में और वो तुम्हारे मुँह में और तुम उस के मुँह में लुक़्मे डाल रही थीं।
वो एक दम चुप हो गई। फिर ज़ोर ज़ोर से हँसने लगी। ज़ोर ज़ोर से हँसने लगी।
क्या हवा में ने हैरान हो कर पूछा।
वो बोली: अरे वो तो मेरा सगा भाई था।
वो फिर ज़ोर ज़ोर से हँसने लगी। वो मुझसे मिलने के लिए आया था, उसी रोज़ तुम भी आने वाले थे। वो वापिस जा रहा था। मैंने उसे रोक लिया कि तुमसे मिल के जाये। तुम फिर आए ही नहीं।
वो एक दम संजीदा हो गई। छः बरस मैंने तुम्हारा इंतिज़ार किया। तुम्हारे जाने के बाद मुझे ख़ुदा ने बेटा दिया। तुम्हारा बेटा। मगर एक साल बाद वो भी मर गया। चार साल और मैंने तुम्हारी राह देखी मगर तुम नहीं आए। फिर मैंने शादी कर ली।
दो बच्चे बाहर निकल आए। खेलते खेलते एक बच्चा दूसरी बच्ची को मकई का भुट्टा खुला रहा था।
उसने कहा: वो मेरा पोता है।
मैंने कहा: वो मेरी पोती है।
वो दोनों भागते भागते झील के किनारे दूर तक चले गए। ज़िंदगी के दो ख़ूबसूरत मरके। हम देर तक उन्हें देखते रहे। वो मेरे क़रीब आ गई। बोली: आज तुम आए हुए हो तो मुझे अच्छा लग रहा है। मैंने अब अपनी ज़िंदगी बना ली है। इस की सारी ख़ुशीयां और ग़म देखे हैं। मेरा हरा-भरा घर है और आज तुम भी आए हो, मुझे ज़रा भी बुरा नहीं लग रहा है।
मैंने कहा: यही हाल मेरा है। सोचता था ज़िंदगी-भर तुम्हें नहीं मिलूँगा। इसी लिए इतने बरस इधर कभी नहीं आया। अब आया हूँ तो ज़रा रत्ती भर भी बुरा नहीं लग रहा।
हम दोनों चुप हो गए। बच्चे खेलते खेलते हमारे पास आ गए। उसने मेरी पोती को उठा लिया, मैंने उस के पोते को उसने मेरी पोती को चूमा, मैंने उस के पोते को, और हम दोनों ख़ुशी से एक दूसरे को देखने लगे। इस की पुतलीयों में चांद चमक रहा था और वो चांद हैरत और मुसर्रत से कह रहा था: इन्सान मर जाते हैं, लेकिन ज़िंदगी नहीं मरती। बिहार ख़त्म हो जाती है लेकिन फिर दूसरी बहार आ जाती है। छोटी छोटी मुहब्बतें भी ख़त्म हो जाती हैं लेकिन ज़िंदगी की बड़ी और अज़ीम सच्ची मुहब्बत हमेशा क़ायम रहती है। तुम दोनों पिछली बिहार में ना थे। ये बिहार तुमने देखी, इस से अगली बिहार में तुम ना होगे। लेकिन ज़िंदगी फिर भी होगी और जवानी भी होगी और ख़ूबसूरती और रानाई और मासूमियत भी।
बच्चे हमारी गोद से उतर पड़े क्योंकि वो अलग से खेलना चाहते थे। वो भागते हुए ख़ूबानी के दरख़्त के क़रीब चले गए। जहां कशती बंधी थी।
मैंने पूछा: ये वही दरख़्त है।
उसने मुस्कुरा कर कहा: नहीं ये दूसरा दरख़्त है।

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