पंच परमेश्वर (कहानी) : रांगेय राघव

Panch Parmeshwar (Hindi Story) : Rangeya Raghav

चंदा ने दालान में खड़े होकर आवाज देने के लिए मुंह खोला, पर एकाएक साहस नहीं हुआ कोठे के भीतर खांसने की आवाज आई। अभी अंधेरा ही था। कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। गधे भी भीतर की तरफ टाट बांधकर बनाई हुई छत के नीचे कान खड़े किए हुए बिल्कुल नीरव खड़े थे। खपरैल पर लाल-सी झलक थी, देखकर ही लगता था, जैसे सब कुछ बहुत ठंडा हो गया था, जैसे स्वयं बर्फ हो। गली की दूसरी तरफ मस्जिद में मुल्ला ने अजान की बांग दी। चंदा कुछ देर खड़ा रहा, फिर उसने धीरे से कहा -- भैया !
बिस्तर में कन्हाई कुलबुलाया, अपनी अच्छी वाली आंखों को मींड़ा। उसे क्या मालूम न था? फिर भी भारी गले से पड़ा-पड़ा बोला कौन है?-और कहते में वह स्वयं रुक गया। नहीं जानता तो क्या रात को दरवाजे खुले छोड़कर सोता। उसे खूब पता था कि कल सूरज-नारायन चढ़े न चढ़े मगर चंदा लगी भोर आकर बिसूरेगा।
दोनों भाई असमंजस में थे। इसी समय चौधरी मुरली की बूढ़ी खांसी सड़क पर सुनाई दी। चंदा की जान में जान आई। चौधरी को बहुत सुबह ही उठ जाने की टेव थी। वास्तव में देव-फेव कुछ नहीं। दिन में हुक्का गुड़गड़ाने से रात को ठसका सताता था और फिर उल्लू की तरह रात को जागकर वह सुबह ही बुलबुल की तरह जग जाते और लठिया ठनकाते सड़क से गली, गली से सड़क पर चक्कर मारते रहते।
इतनी भोर को जो कन्हाई का द्वार खुला देखा, और फिर एक आदमी भी, तो पुकारकर कहा -- को है रे ?
चंदा को डूबते में सहारा मिला। लपककर पैर पकड़ लिए।
‘क्यों? रोता क्यों है?’ चौधरी ने अचकचाकर पूछा, ‘रम्पी कैसी है?’
‘कहां है, चौधरी दादा,’ चन्दा ने रोते-रोते हिचकी लेकर कहा, ‘रात को ही चल बसी।’
‘और तूने किसी को बुलाया भी नहीं?’
चंदा ने जवाब नहीं दिया। सिसकता रहा। गधे अपनी बेफिक्री से मस्ती के आम में खड़े रहे। उनकी दृष्टि में आदमी ने ही अपना नाम उनपर, थोपकर, उनका असली नाम अपने पर लागू कर दिया था।
‘ओह! कहां है रे कन्हाई!’ चौधरी पंच ने अधिकार से कहा, ‘सुना तूने! अब काहे की दुसमनी! दुसमन तो चला गया। मट्टी से बैर कररा सुहाएगा?’
कन्हाई ने जल्दी-जल्दी धोती पर अपना रुई का पजामा चढ़ाकर, रुई का अंगरखा पहना और बिगड़ी आंख पर हाथ धरकर बाहर निकल आया। चौधरी ने फिर कहा-बिरादरी तो तब आएगी जब घर का अपना पहले लहास को छुएगा बावले। चली गई बेचारी। अब काहे को अलगाव है बेटा? देख और क्या चाहिए? तेरी मां थी न?
कन्हाई ने दो पग पीछे हटकर कहा-दादा! जे क्या कही एक ही? किसकी मां थी? मेरी महतारी सब कुछ थी, छिनाल नहीं थी, समझे? अब आया है? देखा? कैसा लाड़ला है? नहीं आऊंगा समझे? बीधों का छोरा हूं तो नहीं आऊंगा।
चौधरी ने शांति लाने के लिए कहा -- हां-हां रे कन्हाई, तू तो बिरादरी की नाक बन गया। पंच मैं हूं कि तू?
कन्हाई दबका। उसने कहा-तो मैंने कुछ अलग बात कही है दादा! उसने मेरे खिलाफ क्या नहीं किया! मैंने हड्डी-हड्डी करके उसके चंदा को ज्वान बना दिया। ताऊ मरे थे तब मेरे बाप की आंख फूट गई थी। जो धरेजा किया तो भाभी से ही और अपनी ब्याहता को छोड़ दिया। रिसा-रिसाके मारा है मेरी मां को। वह तो मैं कहूं, मैंने फिर भी उसे अपनी मां के बरोबर रखा। तुम तो सब अनजान बन गए ऐसे! घर छोड़ दिया। अपनी मेहनत के बल पै यह घर नया बनाया है। अपना गधा है। जब सपूती का सुलच्छना बड़ा हुआ तो कैसी आंखें फेर गई। वह दिन मैं भूल जाऊंगा?
चौधरी निरुतर हो गए। फिर भी कहा -- पर बेटा, तेरे बाप की बहू थी, यह तेरे बाप का ही बेटा है, तेरा भइया है, दस आदमी नाम धरेंगे। गधा लाद के बाजार से दुकान के लिए सब्जी लाता है। आज वह न सही; अनजाना करके लगा दे कंधा, तेरा जस तेरे हाथ में है। कोई नहीं छूटता, अपनी-अपनी करनी सब भोगते हैं...
कन्हाई निरुतर हो गया। चंदा ने उसके पैर पकड़कर पांवों पर सिर रख दिया, और रोने लगा।
‘मेरी लाज तो तुम्हारे साथ है भैया! पार लगाओ, डुबा दो। घर तोऽ तुम्हारा, मैं तोऽ तुम्हारा गधा। कान पकड़ा के चाहे इधर कर दो चाहे उधर, पर वह तो बेचारी मर गई...
और उसकी आंखों का पानी कन्हाई के पैरों पर गर्म-गर्म टपक गया। कन्हाई का हृदय एक बार भीतर ही भीतर घुमड़ आया।
दोनों ने बगल के घर में घुसकर देखा -- रम्पी निर्जीव पड़ी थी। हल्की चादर से उसका शरीर ढका हुआ था। न उसे ठंड लग रही थी, न भूख, न प्यास। कन्हाई का हृदय एक बार रो उठा। इससे क्या बदला लेना! एक दिन सबका यही हाल होना है, उस दिन न घर है, न बार, बस मिट्टी में मिट्टी है...
और वह उसके पैरों पर सिर रखकर रो उठा-अम्मां...
रम्पी फुंक गई। कन्हाई ने अपने हाथ से आग दी। उसके पेट का जाया न सही, बाप का बड़ा बेटा तो वही था। बिरादरी के लोगों के मुंह से वाह-वाह की आवाज निकल गई। कारज ऐसा किया कि कुम्हारों में काहे को होता होगा! स्वयं चंदा को भेजकर फूल गंगा में डलवा दिए। पाप कौन नहीं करता! मगर हम तो उसकी गत सुधार दें। बारह बामन हो गए। और कन्हाई लौटकर तेरहवें दिन अपने घर आया तो ऐसा लगा जैसे अब कुछ नहीं रहा। चंदा गधा लेकर मिट्टी डालने गया था। आमदनी थी आजकल। कुछ बढ़-चढ़कर ग्यारह आने रोज, सो मिट्टी के मोल पैसा आने पर मिट्टी के ही मोल चल जाता। गेहूं की जगह, बाजरा-चना सस्ता था। सब वही खाते थे और यही सबसे अधिक सुलभ था। चंदा के पास वास्तव में कुछ नहीं था। रम्पी ने अपना पति मरने पर देवर किया। देवर की पुरानी गिरस्ती तोड़ दी, क्योंकि वह चटोरी थी और जलन से सदा उसकी छाती फटती रहती। वह किसी के क्या काम आती! छोड़ा तो है चंदा, उसके पास बस दो साठ-साठ रुपयों के गधे ही तो हैं। पुराना अपना घर गिरवी रखा है और अब शायद छूट भी नहीं सकता। किराए का मकान लेके रह रही थी छल्लो!
कन्हाई का हृदय विक्षोभ से भर गया। भीतर कोठे में घुसकर एक आंख से ढूंढकर आंखों पर हरा चश्मा लगा लिया, ताकि आंखों की खोट बाजार वाले न परख लें। पूछने पर कन्हाई कहता-दुख रही हैं, दुख-और जवानों से कहता-स्कूल की लौंडियां देखने को पर्दा डाला है, पर्दा। -- सब सुनते और हंसते। उसके बारे में कई कहानियां थीं कि वह एक प्रोफेसर के यहां नौकर था। जिसकी बीवी जवान थी और काम से जी चुराती थी। उसने कन्हाई से खाना पकाने को कहा तो कन्हाई ने अपनी नीची जाति का फायदा उठाने को धर्म की दुहाई दी। बीवी अंग्रेजी पढ़ी-लिखी थी। उसने एक नहीं मानी। तब वह नौकरी छोड़ आया। उसके बाद भटक-भटकाकर सब्जी की दुकान की और वह चल निकली कि कन्हाई शौकिया ही एक-दो गधे रखने लगा, बस्ती में लादने के लिए किराए पर चलाने लगा।
कन्हाई ऊबकर दुकान पर जा बैठा। दिन-भर उसका जी नहीं लगा। आज उसे फिर से घर भरने की याद आने लगी। चंदा बाईस वर्ष का हो गया। अचानक कहीं उसे उस पर दया-भाव उत्पन्न होता हुआ दिखाई दिया। अब तो सचमुच बीच की फांस हट गई थी। कन्हाई ने अपने पैसे से कारज किया था। हृदय की उद्वेलित अवस्था भीतर के संतोष पर तैर उठी। कन्हाई दुकान बंद करके लौट आया।
चंदा के ब्याह के लिए कन्हाई ने आकाश-पाताल एक कर दिया। दिल बल्लियों उछलता था। चौधरी पंच मुरली के घर जाकर जब उसने किस्सा सुनाया तो पंच उछल-उछल पड़े, खांसी का ढेर लगा दिया, उनकी बहू ने बूढ़ी पलकें उठाकर देखा और गीत के लिए तैयारी करने का वचन दे दिया। आज जैसे घर-घर में हर एक वस्तु में आनंद ही आनंद था। चंदा का घर साफ हो गया। एक ओर मटके सजाकर रख दिए गए। अब चंदा के बच्चे होंगे, वे दिवाली पर दीए बेचेंगे, बड़े होंगे तो चंदा मिट्टी लादने का काम छोड़कर चाक संभालेगा और फिर हर फिरकन पर झटका खाकर कुल्हड़ पर कुल्हड़ उतर आएगा। चौधरी के पीछे जो बाड़ा है उसी में भट्ट लगा जाएगा...।
चंदा मस्त होकर गा रहा था। फागुन का सुलगता मास था। बरात बाहर गली में बैठकर जीम रही थी। भीतर औरतें गालियां गा रही थीं --

मेरौ गरमी कौ मार खसमौ देखिकै रह-रह पलट खाय...
नैकु लंहगा नीची करलै...
कन्हाई ने रंगीन फेंटा बांधा था। आज उसके पगों में स्फूर्ति थी; दौड़-दौड़कर इंतजाम कर रहा था। चारों ओर कोलाहल पर प्रकाश की धुंधली किरणें तैर रही थीं। बरातियों के खच्चर, जिन पर वे चढ़कर आए थे, एक ओर मूर्खों-से चुपचाप खड़े थे, जैसे उन्हें मनुष्य की इस उन्मदिष्णु तृष्णा से कुछ मतलब न था।
और इसी तरह एक दिन बहू ने आकर घूंघट की दो तहों में से देखते हुए कन्हाई के पैर छुए। चंदा की गिरस्ती बस गई। और कन्हाई बगल में अपने घर में लौट गया।
चंदा की गाड़ी जब चलने से इन्कार करने लगी तभी उसने घर से बाहर कदम रखा। पड़ोस की औरतें लुगाई के इस गुलाम को देखकर कानाफूसी करतीं, राह चलते इशारे करके हंसतीं और जब मिलती तो यही चर्चा चलती। चंदा फूलो के सामने पराजित हो गया था। फूलो को देख कुम्हरिया कोई कह दे तो उसे आंखों में काजर लगाने की जरूरत है। वह तो पुरी जाटनी है। ज्वानी का किला है, लचकती जीभ है, फौरन तर हो जाए। चंदा की क्या बिसात! ऐसा बस्ती में बहुत कम हुआ। दिन में चंदा और फूलो जोर-जोर से बोलते हैं, ठहाके और किलकारियों को सुनकर पड़ोस के लोग दांतों तले उंगली दबाते हैं। कुञ्जा जो प्रायः तीन ब्याहता ज्वान छोकरियों की मैया है (और तीनों लड़कियां गालियां गाने में उसका लोहा मानती हैं), वह तक चौंक जाती है कि सरम-हया का तो नामोनिशान ही उठ गया।
इधर चंदा सुबह जाता, सरे सांझ लौटता तो थका-मांदा और फूलो मुंह फुलाकर बैठ जाती। पति-पत्नी में अक्सर पैसों के पीछे झगड़ा हो जाता। चंदा कहता -- तो मैं कोई राजा नहीं हूं, समझी! जो तू पांय पसारकर बैठ और मैं दर-दर मारा फिरूं?
कहते-कहते बीड़ी सुलगा लेता। फूलो कभी-कभी रो देती। कहती -- तो तुम मुझे ब्याह कर ही क्यों लाए थे! जमाने की औरतों के तन पर बस्तर हैं, गहने हैं, यहां खाने के लाले हैं...
चंदा काटकर कहता -- ओह् हो। रानी बहू! बस्ती में सब ही ऐसे हैं। तू ही तो एक नहीं है। भैया की तरह सब ही तो नहीं। उनका पैसा-धेली का हिसाब तो मिट्टी में गड़ता है, यहां पेट में गचकती है मेरी कमाई, रांड़!
फूलो कह उठती-चलो रहने दो। भांजी भांग के परबीन गाहक तुम ही तो हो। जग के नाम धरे, अपना भी देखा? ब्याह तो मुफ्त हुआ था, नहीं तो तुम्हें कौन देता छोरी? सैत का चंदन, लाला तू लेगा ले, और घर बालों के लगा ले।
चंदा विक्षुब्ध होकर बोला -- तो जा बैठ भैया के घर ही। रोकता हूं? जमाने के मरद पड़े हैं। चली जा जहां जाना हो।
फूलो लजाकर कहती -- अरे धीरे बोलो, धीरे, तुम्हें तो हया-सरम कुछ भी नहीं। कोई सुनेगा तो क्या कहेगा?
चंदा हंस देता। और रोज-रोज की बात यह तो रोने में समाप्त होती या हंसने में और दोनों काफी देर तक एक-दूसरे से बात नहीं करते, लेकिन बारह बजे रात को अपने-आप फिर दोस्ती हो जाती। चंदा द्विविधा में पड़ा रहा। किंतु कन्हाई से एक भी बात नहीं कही। मन ही मन उसके वैभव को देखकर ईर्ष्या करता। कन्हाई ने एक और गधा खरीद लिया।
उस दिन जब वह सुबह चंदा को घर पर समझकर खबर देने आया, चंदा तो था नहीं, आंगन के कोने में पसीने से लथपथ, अस्त-व्यस्त कपड़ों में प्रायः खुली फूलो नाज पीस रही थी। कन्हाई ने देखा, और देखता रह गया। फूलो ने मुड़कर देखा, और अपना घूंघट काढ़ लिया। वक्षस्थल फिर भी जल्दी में अच्छी तरह नहीं ढक सकी।
कन्हाई पौरी में आ गया। और फिर पूछकर लौटा आया। चंदा ने गधा खरीदने की बात सुनी और अपनी परवशता के अवरोध में फूलो से फिर लड़ बैठा। फूलो देर तक रोती रही।
प्रायः एक सप्ताह बीत गया। चंदा का मकानदार उस दिन किराया वसूल करने आया था। चंदा ने उसे लाकर आंगन में खाट पर बिठाकर उसकी खुशामद में काफी समय लगा दिया। फूलो कुछ देर प्रतीक्षा करती रही। फिर ऊबकर बाहर सड़क के नल से डोल भरकर कन्हाई के घर में घुस गई। मालूम ही था कि कन्हाई उस समय दुकान पर रहता है, घर पर नहीं।
गरीबों के घर में गुसलखाने नहीं रहते। ऊपर छत पर नहाने से बाबू लोगों के लड़के छिपकर अपने ऊंचे-ऊंचे घरों से देख लेते थे, अतः वह आंगन के एक कोने में बैठकर नहाने लगी। जूंएं तो फिर भी बीन लेगी। जब तक जेठ बाहर हैं, तब तक जल्दी-जल्दी नहा लें। इसी समय न जाने कहां से कन्हाई आ घुसा।
देखा और आंखों में सामने से बिजली कौंध गई। फूलो घुटनों में सिर छिपाकर बैठ गई। जब वह कपड़े पहनकर निकली, कन्हाई बाहर पौरी में प्रतीक्षा कर रहा था। फूलो ने देखा और बरबस ही उसके होंठों पर एक तरल मुस्कराहट फैल गई। पौरी में उजाला अधिक न था, तिस पर कन्हाई की आंखों पर चश्मा चढ़ा हुआ था। वह थोड़ा ही देख सका, किंतु पुराना आदमी था। समझ काफी दूर ले गई। कहा-बहू! चंदा कहां है?
उसके स्वर में बड़प्पन था, अधिकार था; डरने का कोई कारण शेष नहीं रहा। उसने सिर झुकाकर घूंघट खींच लिया और पांव के अंगूठे से भूमि कुरेदते हुए कहा -- घर बैठे हैं।
कन्हाई ने फिर कहा-तो ले। लिए जा। बना लेना।
दो ककड़ी भीतर से लाकर दे दी हाथ में। फूलो ने घूंघट पकड़कर उठाने वाली उंगलियों के बीच से देखा और मुस्कराती हुई ककरियों को डोल में रखकर चली गई।
कन्हाई कुछ सोचता-सा खड़ा रहा। चंदा ने देखा और पूछा -- यह कहां से ले आई?
कन्हाई ने भी अपने आंगन से वह संदेह भरा स्वर सुना। वह सांस रोककर प्रतीक्षा में खड़ा रहा, देखें क्या कहती है? फूलो ने तिनककर कहा -- परसों दो आने दिए थे? तुम्हारी तरह मैं क्या चाट उड़ाती हूं? दारू पीती हूं? बच रहे थे सो कभी-कभार खाने को जी चाह ही आता है। सो ही ले आई।
‘कहां? भैया की दुकान से?’ -- चंदा ने फिर उपेक्षा से पूछा।
‘हां! नहीं तो?’ -- फूलो ने धीरे से उत्तर दिया।
‘राम-राम’, -- चंदा का स्वर सुनाई दिया, -- ‘भइया हैं ये? अकेले का खरच ही क्या है? इसलिए जोड़-जोड़कर रखते हैं? कौन है इनका? न आगे हंसने को, न पीछे रोने को। दो ककड़ी तक नहीं दे सके जो फूटी आंख से देखकर दाम ले लिए?’
फूलो ने उत्तर नहीं दिया। कुछ बुरबुराई अवश्य, जिसे कन्हाई नहीं सुन सका। उसके दांतों ने क्रोध से भीतर पड़ी जीभ को काट लिया। कैसी है यह दुनिया? मतलब के साथी हैं सब। इनका पेट तो नरक की आग है। बराबर डाले जाओ, कभी भी न बुझेगी। हाथ फैलाना सीखे हैं। कभी हाथ उल्टा करना नहीं आया।
फिर मन एक अजीब उलझन में पड़ गया। ब्याह हुए अभी तीन महीने भी नहीं हुए, बहू ने यह क्या रंग कर दिए! ठीक ही तो है। भूखा मारेगा तो क्यों मरेगी सो? उसके तन-बदन में जोस है, तो दस जगह खाएगी। ऐसी क्या बात है लाला में जो सती हो जाए। जैसे फैरा, वैसा धरेजना। बैयर तो राखे से रहेगी।
एक कुटिलता उसके होंठों पर झटका खा गई।
बरसात की ऊदी घटाओं ने आकाश घेर लिया। आंगन की कीच में पांव बचाता हुआ कन्हाई भीतर आकर बैठ गया। आज रोटी बनाने का मन नहीं कर रहा था। उठकर दीया जला दिया और फिर चुपचाप उसे देखता रहा। दीया भी अपनी एक आंख से ही चारों ओर के अंधकार को देखकर कांप रहा था, जैसे बार-बार उसकी पलकें झपक जाती हों। बाहर अंधेरा छा चुका था। दूर पर सड़क भी नीरव थी। कीचड़ के कारण बहुत कम लोग इधर से उधर आ-जा रहे थे।
एकाएक दालान में खड़-खड़ की आवाज हुई। कन्हाई ने शंका से पुकारकर कहा -- को है रे?
एक मरियल कुत्ता लकड़ियों के पीछे से निकलकर चला गया। कन्हाई झेंप गया। उठकर बाहर चला। निन्हू हलवाई की दुकान पर जाकर दूध पिया और लौट आया। अब कौन खाने के पीछे हाय-हाय करता? अपना क्या है? जो खा लिया, सो ठीक है। गिरस्ती के चक्कर हैं।
कन्हाई बिस्तर पर लेट गया। कुछ ही देर बाद उसकी औंध किसी के खिल-खिलाकर हंसने की आवाज से टूट गई। इस व्याघात से उसका मन असंतोष से भर गया। निश्चय ही फूलो की हंसी थी। और फिर उसने देखा, वह रात थी, घटाओं वाली रात, सनसनाती, आकाश से पृथ्वी तक फन फुफकारती, रह-रहकर लरजती। आंखों के सामने अप्रस्तुत का चित्र आया। चंदा! फूलो! रात! बिस्तर और...।
कन्हाई पशु की तरह एक बार आर्त स्वर से कराह उठा। बगल के घर की ध्वनियों ने उसे बेचैन कर दिया। अभी कुछ ही देर पहले पड़ोस की औरतों ने गाकर बंद किया था --

रंडुआ तो रौवे आधी राति-
सुपने में देखी कामिनी...
अपमान से कन्हाई का पुरुषत्व क्षण-भर को विषधर सांप की तरह बदला लेने की स्पर्धा से भर गया। क्यों है वह आज ऐसा कि बिरादरी में लोग उसके पास पैसा रहने पर भी उसकी इज्जत नहीं करते? सब उसे देखकर हंसते हैं। और यह चन्दा! जो कुल दस-बारह आने लाता है, उसी में गिरस्ती चलाता है, उसको न्यौता भी है, बुलावा भी है, उसके गीत भी हैं...
क्योंकि वह बिजार नहीं है। उसके घर है, उसकी बात है, एक गिरस्त की बात, जिसमें दुनियादरी की समझ है। उसका कोई था ही नहीं जो उसका ब्याह कराता। जैसे वह तो आदमी ही न था। तभी भी सब अपने-अपने में लगे थे, आज भी वही। कन्हाई व्याकुल-सा बिस्तर पर बैठ गया। आकाश में बादल गरज रहे थे। अभी उसकी आयु ही क्या थी? पैंतीसवां ही तो था। तब शहर में प्लेग फैला था, कन्हाई घुटनों चलता था। आज वह अकेला रह गया है। जैसे उसका कहीं कोई नहीं। उसके द्वार पर न सोना सरबन कुमार है न आंगन कोई लिपा-पुता ही। खुद ही जब ऊब जाता है, सोचता है घर साफ करे, किंतु वह औरत नहीं है। लुगाई का एक काम करते ही आंखें फूट चलीं। चूल्हा फूंकना। लोग का काम नहीं।
क्या नहीं किया उसने चन्दा के लिए? क्या था उसके घर? आज तो लाला छैला बन गए हैं? कैसी मांग-पट्टी काढ़के फेंटा बांधना आ गया है। बेटा के पास अधेली भी नहीं। बड़ा सतूना बांधा है।
उपेक्षा से उसके होठ टेढ़े हो गए। कन्हाई को याद आयाः उसके पास पैसा है। वह भी ब्याह करेगा। चंदा तो उसे लूटे जा रहा है। उसके गधों की लीद तक उसकी अपनी नहीं। क्या करे वह उसका? आती है वह हरम्पा फूलो और ले जाती है बटोरकर। लेकिन कौन धन जमा कर लेगी? उसके चन्दा की रोजी ही क्या है? वह तो इज्जतदार है। परसों उसने बिन्नू की जमानत दी है। दुकान है दुकान। कैसी लड़ती है चंदा से दिन-भर और रात को...
कन्हाई का ध्यान फूलो पर केंद्रित हो गया। कांसे के हैं सब। बोरला तो, कड़े तो खंगवारी तक। वह चांदी के मढ़वा सकता है। फिर उसे वह दृश्य याद आया कि कैसे वह भीतर बिना खांसे घुस रहा था चंदा के घर में, और फूलो बैठी चक्की पीस रही थी। यौवन का वह गदराया स्वरूप याद आते ही, कन्हाई हारकर लेट गया। किंतु वह क्यों अकेला रहे? चंदा को ऐसे सुख से रहने का ऐसा क्या हक है? जन्म हुआ तब से उसे कभी सुख-चैन न मिला। वह दूसरों के लिए कर-करके मरता गया और लोग-बाग अपना-अपना घर भरते गए। किसी ने यह भी नहीं पूछा कि भैया कन्हाई, तेरे भी कुछ सुख-दुख हैं? कोई नहीं। सब अपने-अपने मतलब के।
कन्हाई का चन्दा के प्रति विद्वेष मुखर हो गया। अनजाने की विरोध जाग उठा। कल उसके बच्चे होंगे, तो क्या मेरा नाम चलेगा? बूढ़ा हो जाऊंगा तो खाट की अदमान तक कसने कोई नहीं आएगा। अपने फिर भी अपने हैं, पराया तो पराया ही रहेगा...
बादल आपस में टकरा गए। घोर वर्षा होने लगी। कन्हाई तड़पता-सा करवटें बदलता रहा। सामने अंधकार में फूलो आकर खड़ी हो गई। पुरानी घृणा ने फिर आघात किया। वह स्वयं ऐसी है नागिन। जेठ से आंख मिलाके बात करना क्या खेल है? कैसी आती है बात-बात पर। है बड़ी रुठल्लो, बाप के घर में उसके कुछ हैं नहीं, नहीं तो पीहर भाग-भाग जाती। बहू रखना भी आसान काम नहीं है। कहीं गधे ढो के आराम नहीं किए जाते। मैं ऐसे कब तक समझौते कराता फिरूं। चंदा भी कोई आदमी में आदमी है?
फिर वह मुस्करा उठा।
कौन नहीं जानता चंदा लुगपिटा है। लुगाई की ठसक देखो, मालक तो गधा है। वह चमक-चैदिस वाली, डबल बचा नहीं कि फोरन खोम्चा वाला बुलाया और चाट उड़ा गई।
मुझे क्या मालूम नहीं कि वह चंदा से बचा-बचाके खाती है, चोरी करती है।
फिर वहीं चंचल आंखों अंधेरे में चमक उठीं। कन्हाई के सीने पर किसी ने कटारों की जोड़ी भोंक दी। आसमान में जोर से बिजली कड़क उठी। अरे काम तो कांकर-माटी के खाने वालों को सताता है, फिर दूध-मलाई वालों की तो बात ही और है। चन्दा बेटा का गरूर तो देखो! अरे तुझे ही देखूंगा। तेरी मैया ने मेरा घर तबाह किया था।
कहीं दूर बिजली बड़ी जोर से कड़ककर गिरी। कन्हाई जगता रहा।
भोर हो गई लेकिन आकाश में बादल छाए रहे। एक सन्नाटा समस्त बस्ती में समान रूप से घहर रहा था। कभी-कभी सड़क पर भूंकते कुत्तों के शोर से वह हल्की मगर घनी तह टूट जाती थी और जैसे-तैसे स्वर पीछे खिंचने लगते थे कि वही निस्तब्धता अपना दबाव डालने लगती थी। हवा ठंडी थी। हल्की-हल्की बूंदाबांदी हो रही थी। समय काफी हो गया था। दफ्तरों और नौकरियों पर जाने वाले सवेरे ही अंधेरे में से ही अपनी तकदीर को कोसते जा चुके थे। सड़क पर भी गांवों की-सी हल्दी तंद्रा छा रही थी। गली में चारों तरफ कीच ही कीच हो गई थी। कन्हाई की आंख खुल गई। उसने सुना, आंगन में कोई औरत चल रही थी। बिछिया ही हल्की आवाज उसके कानों में उतरकर दिल में समा गई। वह एकदम उठ बैठा। बाहर निकलकर देखा, फूलो चुपचाप उसके गधों की लीद जमा कर रही थी। उसको देखकर उसके शरीर में नशा-सा फैल गया। पास जाकर कहा-यह चोरी कर रही है बहू?
फूलो ने घूंघट नहीं खींचा। मुंह उठा दिया। गेहुंए रंग में दो मांसल आंखें थीं जिनमें से रात का खुमार अभी बिल्कुल मिटा नहीं था। देखा, और धीरे से बोली-चोरी काहे की जेठजी। वे तो अंधेरे ही लदाई लिए गधा लेकर चले गए। अब बरसात भी तो लग गई है। जो हाथ लगे उसी को बटोर लूं। कंडे बना लूंगी, कुछ तो काम निकलेगा ही।
कन्हाई प्रसन्न हुआ, किंतु प्रकट नहीं होने दी उसने वह चंचलता। निरातुर स्वर से कहा, ‘क्यों? चंदा गिरस्ती नहीं चला पाता?’
‘अपना-अपना भाग है जेठजी। इसमें कोई क्या करे! मरद जिसका जोग होगा, लुगाई उसकी पांय पै पांय धरके बैठेगी।’
‘तुझे बड़ा दुख है बहू?’ यह प्रश्न न होकर एक वक्तव्य के रूप में एक निश्चयात्मक ध्वनि में कन्हाई के मुख से निकला, जैसे उसे स्वयं इस पर पूरा विश्वास हो और वह अपनी बात को अब पीछे नहीं लेगा। फूलो की आंखों में पानी भर आया। उसने मुंह फेरकर आंखें पोंछ लीं। कन्हाई ने उससे कहा, ‘जो चाहे मांग लिया कर मुझसे। लाज न करियो। अपना ही घर समझ। चंदा तो निखट्टू है, निरा बुद्धू; समझी? तेरा ही है सब कुछ, खा, पी, मेरा और कौन है?’
‘ब्याह क्यों नहीं कर लेते?’ फूलो ने टोककर पूछा।
‘ब्याह?’ कन्हाई ने ऊपर देखकर कहा, ‘ब्याह करके क्या होगा? मेरे तो परमात्मा ने सब दिया। तू फिकर न कर। मेरे रहते कोई तेरा बाल भी बांका नहीं कर सकता। यहीं रह तो भी डर नहीं। कन्हाई का नाम बिरादरी में एक है। तेरे लिए उसका सब कुछ हाजिर है।’
फूलो ने आंख टेढ़ी करके कहा- बिरादरी क्या कहेगी? जात-भाई क्या कहेंगे? मेरा बाप क्या कहेगा? और तुम्हारे भैया की कौन सुनेगा?-जैसे फूलो ने सात पेड़ एक ही बार एक ही बाण में बेधने की कड़ी शर्त सामने उपस्थित कर दी थी।
कन्हाई ने निडर होकर कहा-बिरादरी कुछ नहीं कर सकती। हुक्का-पानी बंद करेंगे तो जात-भाई देखेंगे कि कन्हाई बीड़ी-सिगरेट पिएगा। तेरे बाप को क्या मतलब? वह तो एक बार पैर पूज चुका। और चंदा की हैसियत ही क्या कि मेरे सामने खड़ा हो? तुझमें हिम्मत होनी चाहिए।
फूलो ने अविश्वास से पूछा-दगा तो नहीं दोगे? मैं कहीं की भी नहीं रहूंगी?
कन्हाई ने हाथ पकड़कर कहा-सौगन्ध है गंगाजली की। परजापति का बेटा हूं तो धोखा नहीं दूंगा। आज से तू मेरी है। यह घर तेरा है। उस भिखारी से तेरा कोई नाता नहीं रहा। रह, हुकूमत कर। मैं चंदा नहीं हूं जो मिट्टी डालने में बात-बात पर बाबू लोगों के जूते खाऊं और हंसके चुप रह जाऊं।...लौटके तो नहीं भागेगी?
‘सौगंध है, मेरे एक बालक न हो जो तुम्हें छोड़कर जाऊं।’
कन्हाई ने आनंद के आवेश में उसका हाथ जोर से दबा दिया और कोठे में घुसकर द्वार बंद कर लिया। बूंदें फिर गिरने लगी थीं। आसमान साफ होने का नाम ही नहीं लेता था, जैसे पृथ्वी चारों ओर से घनी उसांसों पर उसांसें छोड़ रही थी।
बिजली की तरह बात बस्ती के वातावरण पर कौंध गई। चंदा ने जब लौटकर घर खाली देखा और देखा कि चूल्हा बिल्कुल ठंडा पड़ा है, तब उसका माथा ठनका। सोचा शायद पीहर चली गई है। बिना किसी से कहे अपनी ससुराल चल पड़ा। दो दिन बाद जब वहां से लौटा तो पग भारी थे, हृदय में घृणा और क्रोध की भीषण आग लग रही थी। इधर कुञ्जी ने आते ही खबर दी-लाला! कहां चले गए थे रूठकर? बहू बिचारी किसके जिम्मे छोड़ गए थे? लाचार कन्हाई ने दया की, और बिचारी के दो टूक खाने का तो सिलसिला लगा!
चंदा के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। सीधे जाकर कन्हाई के आंगन में जा बैठा। फूलो ने भीतर से देखकर कहा-क्यों आए हो?
‘क्यों आया हूं?’ चंदा ने तड़पकर कहा-हरामजादी! यहां आ गई और मैं तेरे पीछे जहान ढूंढता फिरा?
कन्हाई घर पर था नहीं। दुकान गया था, फूलो ने भीतर से ही कहा-फिर आना, जब वे आ जाएं, और नहीं, लोग कहेंगे दिन-दहाड़े पराए मरद घर में बैठे हैं।
चंदा के मुंह की आवाज मुंह में ही रह गई। क्षण-भर वह वज्राहत-सा किंकर्त्तव्यविमूढ़ कुछ भी नहीं समझ सका। फिर स्वस्थ होकर कहा-अब चल, यहां क्या कर रही है? रोटी सेंक दे।
फूलो निर्लज्जता से हंसी, कहा-अब मैं तुम्हारी नहीं हूं, समझे? जब तुम्हारे भैया लौट आएं तो उनसे बात करना।
चंदा नहीं उठा। कन्हाई के घुसते ही फिर लड़ाई शुरू हो गई। जब जूता पैजार तक हो गई, तब और कोई चारा न समझकर फूलो घूंघट काढ़के दोनों के बीच में आकर खड़ी हो गई। उस समय काफी शोरगुल सुनकर बस्ती के कितने ही बड़े-छोटे एकत्रित हो गए। बच्चों ने व्यर्थ की युद्ध का वातावरण लाने को खूब हल्ला किया। कन्हाई और चंदा दोनों छूट-छूटकर एक-दूसरे पर झपटते थे। चंदा जवान था, इसी से लोग भय से उसे पकड़ लेते थे, और स्वाभाविक ही था उसका अधिक क्रोधित होना। इसी बीच में कन्हाई दो-एक मार जाता था। इस बीच-बचाव की हरकत में चंदा काफी पिट गया, क्योंकि एक चोट भी दस के बीच में बीस चोटों के बराबर है। अपमान मे विह्वल होकर चंदा रोने लगा। आंसू देखकर यद्धपि लोगों के हृदय में दयाभाव उत्पन्न हुआ किंतु स्त्रियों ने ठिठोली कर दी। कैसे बालिक है जो जार-जार रो रहा है।
चंदा लौट आकर बड़ी देर तक घर पर रोता रहा। सब जानते थे। किसी ने कन्हाई से कुछ नहीं कहा। क्या सबकी आंखें फूट गई हैं? बिरादरी के कान फूट गए हैं? उठा और चौधरी पंच मुरली के घर की चौखट पर जा बैठा। चौधरी कहीं से सफेदी करके लौटे थे। हाथ-पैरों और गालों पर सफेद-सफेद छींटे दिखाई दे रहे थे। सुन तो चुके ही थे। फिर भी कहा -- कह, चन्दा, कैसे आया है?
चंदा का गला रुंध गया। लाज ने जैसे उंगलियां गड़ा दीं। कैसे कहे कि उसके जीते-जागते लुगाई दूसरे के घर जा बैठी? वह मरद ही क्या जिसमें इतना भी जोर नहीं कि औरत उसके कहने पर चले? मरद तो वह कि निगाहों पर बैयर के पांव उठें। पलकें थम जाएं तो उठा कदम थम जाए। किंतु अवरोध अधिक नहीं टिका। दौड़कर चैधरी के पांव पकड़ लिए। चौधरी ने संदिग्ध दृष्टि से देखकर गंभीरता से पीढ़े पर बैठते हुए हुक्का संभाला और पूछा-तो कुछ कहेगा भी कि रोए ही जाएगा? क्या आफत टूट पड़ी ऐसी?
चंदा ने कहा-दादा, नाक कट गई। इज्जत धूल में मिल गई।
चौधरी ने विस्मय से कहा -- अरे! सो कैसे?
‘बहू तो भैया के घर जा बैठी।’
चौधरी को झटका लगा। पूछा -- सच? यह कैसे?
‘क्या बताऊं? गरीब आदमी हूं। सुबह ही निकल जाता हूं। संझा को आता हूं। दिन-भर वह घर में रहती है, भैया रहते हैं, फुसला लिया बिचारी को। मिठाई-विठाई खिलाते रहे। अब दादा, गिरस्ती संभालने वाले का ही हाथ तंग होता है। अकेला बिजार तो सड़क पर ही खाने को पा जाते हैं। सो चटाने को पैसे की क्या कमी? गरीबी तो तब है जब रोज का बोझ है?’
चौधरी ने सुना। सिर हिलाया। कहा कुछ नहीं। चंदा ने फिर कहा -- दादा, पंच परमेसुरों के रहते परजापतियों में ये अधरम होगा?
‘पंचायत बुलाएगा?’ चौधरी ने शंका से पूछा -- ‘बड़ा खरचा होगा और हारने पर दंड भुगतान करनी पड़ेगी।’
‘हारूंगा कैसे चौधरी? मैं क्या गलत कह रहा हूं? मेरी लुगाई है, ब्याहता है, मैं तो उल्टे रुपए लूंगा। मेरे जीते जी दूसरे के पास जा बैठी है। और छोटे की बड़े भाई के घर बैठने की कोई रीत नहीं, बड़े की छोटी के यहां बैठने की तो रीत भी है। कोई दिल्लगी है?’-- चंदा ने सिर उठाकर कहा। चौधरी ने फिर भी उत्तर नहीं दिया। उसने गंभीरता से कहा -- तेरी मर्जी।
चंदा उठ चला। राह में याद आया। खरचे को पैसा कहां है? दो महीने को तो घर का ही किराया चढ़ा हुआ है। अब तक तो कैसे भी खुशामद से काम हो गया! खैर, तब ब्याह की बात थी, धेली-पैसे की बात, हाथ रहा न रहा, अब उसके पास तो कुछ था नहीं। वही मजूरी के दस-बारह आने आए जो, सो उन्हीं में चार आने खाएगा बाकी बचाएगा, लेकिन उससे भी कितने दिन काम चलेगा? ऐसा क्या बच जाएगा? फिर विचार आया, अभी रूपया ला दूंगा। एक गधा बेच दूं। पंचायत भी हो जाएगी। किराया भी चुक जाएगा और फिर तो कन्हाई को रुपए भरने ही पड़ेंगे। फिर फूलो भी नहीं रहेगी। अपने मस्ती का खरच चलेगा। और जो फूलो लौटी तो कन्हाई दंड भुगतान देगा और अबके तो हरामजादी को जूते की नोंक के नीचे रखूंगा, ऐसा कि याद करे। मैंने ही दुलार कर-करके बिगाड़ दिया उसे।
उधर कुञ्जो और अनेक स्त्रियों में ठिठोली हो रही थी। लजमंती ने कहा-ऐ भैना, एक आंख का कर बैठी। दो आंखों से ऐसी क्या दुसमनी निकली?
‘कलदार की ठसक है बेटी, कलदार की’, चम्पी ने कहा और हाथ मटकाए। कुञ्जो अपने ग्यारहवें बच्चे को बैठी दूध पिला रही थी जो अपने सबसे बड़े भाई से लगभग सत्ताईस बरस छोटा था। बैठे ही बैठे मुस्कराई और गा उठी-जैसे देवरिया मलूक तैसे होते बालमाउ...
शाम हो चुकी थी। अंधेरा गहरा हो गया था। बस्ती अंधेरे में डूब गई थी। किसी-किसी के ओसारे में दीया जल रहा था। औरत और मरद आंगनों में बैठे बात कर रहे थे, हुक्का पी रहे थे। औरतें रोटी बना चुकी थीं। मरद खा चुके थे। अब रात हो गई। दुनिया की रोशनी सूरज है। वही चला गया तो फिर रात से होड़ किसलिए? कैसे हुआ यह? रासन, फलाने का ब्याह, फलाने का दहेज आदि अनेक बातें हैं। जिन पर वे बहस करते हैं और कच्चे-मकानों में चुपचाप सो जाते हैं। उनके गधे चुप खड़े रहते हैं, कभी सोते हैं, कभी जागते हैं, उनके सोने-जागने का भेद भी अधिक स्पष्ट नहीं।
चौधरी पंच ने कन्हाई के घर में प्रवेश किया। उस समय कन्हाई कोठे से बाहर निकल रहा था। फौरन आगे बढ़कर कहा -- आओ दादा, आओ।
पीढ़ी डाल दिया। हुक्का भरकर फूलो पास में ही घूंघट काढ़कर धर गई। चौधरी ने टेढ़ी आंख से उसका वह गदरराया आकार देखा और हुक्के में कश मारते हुए वे सब समझ गए। कन्हाई ने इधर-उधर की बातें कीं। फिर उठाकर भीतर से एक चीज लाया। चौधरी ने देखा। हंसकर कहा-अरे, इसका क्या होगा?
किंतु कन्हाई ने कहा-- तो बात ही क्या है दादा? कौन पराए हो?
और खोल दी ठर्रे की बोतल। ‘अब तो’, चौधरी ने कुल्हड़ में मुंह लगाते हुए कहा -- महंगी हो गई है। हो गई है न?
‘दादा, लड़ाई है जे। कौन महंगा नहीं हो गया है? मैं नहीं हुआ, कि तुम नहीं हुए? अब तो मौत का इतना खरचा नहीं, जितना जिन्दगी का।’
दोनों हंसे। हल्का नशा चढ़ चुका था और अब खोपड़ी में घोड़े की-सी टाप लगने ही वाली थी। ठर्रे की महक में कन्हाई ने पूछा -- दादा, तुम्हारा ही भरोसा है!
चौधरी ने झूमते हुए कहा -- अरे, काहे की फिकर है तुझे? कन्हाई ने हर्ष से कुल्हड़ फिर भर लिया और चौधरी के ‘हां-हां’ करते भी उनके कुल्हड़ में आधी बोतल खाली कर दी। और उसके बाद चेतना के सत् पर वही अंधकार छा गया जो बाहर एकाग्रचित्त होकर तड़प रहा था।
पंचायत बड़े जोर-शोर से जुड़ी। चारों तरफ वही एक चर्चा थी। बस्ती के सारे मरद कुम्हार आकर इकट्ठे हो गए। चौधरी चौतरे पर आ बैठे। हुक्का हाथों-हाथ घूमने लगा। चौधरी ने पहले कश लगाए और हुक्का लगाए और हुक्का सरका दिया। एक ओर कन्हाई खड़ा हुआ था। उसके शरीर पर सफेद अंगरखा, साफ धेाती थी और सांझ होने पर भी आंखों का खोट छिपाने को हरा चश्मा लगा हुआ था। फूलो घूंघट काढ़े बैठी थी। दूसरी ओर चंदा था। मैली, धोती, मैली फितूरी और मैली ही हल्की-सी नखदार टोपी, मशीन से कटे बालों पर चिपक रही थी।
चौधरी ने गंभीरता से पूछा -- तुमने क्या किया?
चंदा ने कहा-पंच परमेसुर सुनें। चौधरी महाराज ने पूछा है, मैंने क्या किया? सो कहता हूं। बड़े भैया ने छोटे की बहू डाल ली है। वह उसकी बेटी के बराबर है।
चौधरी ने रोककर कहा -- सो हममें भेद नहीं है चंदा। बड़ी जातों में बड़े की बहू मां समान है, हमारे तो यह कायदा नहीं। यह बामन-छत्री जात की बात है। हम तो नीच कहे गए हैं। और सुना!
चंदा का पहला बाण पत्थर से टकराया, फलक टूट गया। शिकारी विह्वल हो गया। उसने फिर धनुष पर बाण निकालकर चढ़ाया। कहा -- मेरे जीते-जी दूसरी ठौर जा बैठी है, मुझे हरजाना मिल जाना चाहिए।
चंदा बैठ गया। पंचों के सिर हिले, कानाफूसी हुई कि कोलाहल से जगह भर गई। चौधरी ने फिर कहा -- कन्हाई, बोलो तुमने लड़की को घर कैसे डाल लिया?
कन्हाई ने नम्रता से कहा -- चौधरी महाराज न्याय करें। घर में भूखी नार आई। मालिक रोटी तक नहीं जुटा सका। तब मैंने देखा घर की बैयर डगर-डगर ठोकर खाएगी। सो कहा -- रह, तेरा घर है। मुझे कौन छाती पर बांधके ले जाना है?
चौधरी ने कहा -- पंच सुनें। फूलो कहे कि कन्हाई ने ठीक कहा। क्या चंदा के घर तुझे खाना नहीं मिलता था?
फूलो ने स्वीकार किया। चौधरी ने कहा -- पंच बताएं। लुगाई तब तक ही रहेगी जब तक मरद खाना देगा, भूखी मरने को तो नहीं?
‘नहीं’, पंचों ने एक स्वर उत्तर दिया।
कन्हाई ने फिर कहा -- चंदा के फूलो के बाप ने जब ठौर कर दी, तो चंदा ने वादे के जेवर नहीं दिए।
चंदा गरजकर बोला -- यह झूठ है। मैंने कोई वादाखिलाफी नहीं की।
चौधरी ने रोककर कहा -- फूलो, बता कि किसने ठीक कहा?
फूलो ने फिर इंगित से कन्हाई की बात को ठीक साबित किया।
चंदा घृणा से विक्षुब्ध हो गया। चौधरी ने कहा -- और तो बात साफ हो गई। जैसे बड़े की छोटे ने की तैसी छोटे की बड़े ने की। जेवर नहीं दिए, वादाखिलाफी की, रोटी नहीं दी सो वह क्यों रहती? पंच बताएं किसका कसूर है?
पंच फिर परामर्श करने लगे।
चंदा ने उठकर कहा -- पंच परमेश्वर की दुहाई। चौधरी भगवान के औतार हैं। मैं गरीब हूं; जैसी रूखी-सूखी मैंने खाई, तैसी उसे खिलाई। घर-गिरस्ती में मरद के पीछे लुगाई चलती है। बताएं मैंने क्या दोस किया?
फिर पंच विचार में पड़ गए। चौधरी ने सबके शान्त होने पर फिर कहा -- चंदा रुपए मांगता है कि उसे जीते-जी बहू ने दूसरी ठौर कर ली। अगर उसने दूसरा ब्याह करके फूलो को छोड़ा होता तो जब तक फूलो दूसरी ठौर नहीं कर लेती तब तक उसका महीना उसे बांधना पड़ता। सदा की रीत है कि चंदा को रुपया मिलना चाहिए। पंचों का न्याय हो। भूखी मारी या न मारी, वह खुद गरीब है। बेटी बाप ने देते बखत क्यों नहीं सोचा। जैसा खुद खाया तैसा उसे खिलाया। लेकिन ब्याहता है उसकी फूलो। फूलो रजामंद नहीं कि ब्याह करके जन्म भर भूखी मरे। वह ठौर छोड़ गई। जो खाने को दे, जो पालन करे, वही भरतार। पंच कहें। रुपया लेने का चंदा को हक है या नहीं?
फिर कोलाहल मच उठा। चौधरी ने तो जैसे हाथ धो लिए। उन्हें अब निर्णय को दुहराकर सुना देना था। फूलो अभी तक चुप खड़ी थी। बाजी कमजोर पड़ रही थी। उसे यह असह्य था। इससे तो वह कुलटा साबित हो जाएगी। बैठ गई सो बुरा नहीं, पर यह रुपया देना तो भुगतान है। उसने भरी पंचायत में आगे बढ़कर कहा -- चौधरी भगवान है। पंच परमेसुर हैं। लुगाई मरद की है, मगर जो मरद ही न हो, उसकी कोई लुगाई नहीं है।
सबने विस्मय से सुना। सच, ठीक कहा था। ब्याह हो जाने से ही क्या? पुरुषार्थहीन पुरुष को कोई अधिकार नहीं कि वह स्त्री को दास बनाकर रखे।
पंचायत उठ गई। चंदा पर पच्चीस रुपए दंड लगाए गए जो रोष से उसने वहीं फेंक दिए और हारकर लौट आया। आज उसे कहीं मुंह तक दिखाने की जगह न थी। अब उसका कहीं ब्याह नहीं हो सकता। भरी पंचायत में फूलों ने उसकी टोपी उछालकर पैरों तले कुचल दी थी। यह ऐसी बात थी जिसमें फूलो की बात अंतिम निर्णय थी।
कन्हाई फूलो को लेकर लौट आया और रात को कन्हाई और चौधरी ने फिर से ठर्रे की बोतल खोली और दोनों मस्त होकर पीने लगे। जब बहुत रात हो गई तब चौधरी लड़खड़ाते हुए चले गए। फूलो चुपचाप बैठी थी। वह न जाने क्या सोच रही थी। और कन्हाई नशे से आंगन में औंधा पड़ा था।
दूसरे दिन शाम को मकानदार ने चंदा का किवाड़ खटखटाया। चंदा ने चुपचाप उसके हाथ पर किराया रख दिया। वह झूम रहा था। उसके मुंह से दारू की बू आ रही थी। मकानदार चुपचाप लौट गया।
‘चंदा लौटकर पीने लगा और बकने लगा-बेटा कन्हाई, छिनाल तो छिनाल ही रहेगी। कुत्ते की पूंछ क्या सीधी हुई है? तेरी बहार भी कै दिन की है? बेटा अब गिरस्ती पड़ी है, अब दो दिन बाद तेरे भी खरचे देखूंगा। हाथ-पांव ढीले हो जाएंगे, पर मैं करूंगा मजे बेटा! चटाने को तेरे मेरे पास भी पैसे हो जाएंगे, समझा? भगवान समझेगा तुमसे, पापी!
और वह देर तक बकता रहा, जोर-जोर से सुनाकर बकता रहा। कन्हाई ने सुना और संदिग्ध दृष्टि से फूलो की ओर देखा। उसका हृदय भीतर ही भीतर कांप उठा। फूलो समझ गई। चूनर के कोने में बंधे बीस रुपए खोल लिए। पांच पंचायत में लग गए। बीसों रुपए आंगन में खड़े होकर चंदा के आंगन में बीच की जैर पर से फेंक दिए और कहा-भूखा मत मर। तेरे धन से सुरग नहीं जाऊंगी। समझा? ऐसे चटाने को बड़ी मक्खी का छत्ता लगा रखा है न?
कन्हाई ने सुना, रुपए चंदा के आंगन में खन्न करके गिरे और बिखर गए, किंतु चंदा उस समय नशे में बेहोश पड़ा था। उसे कुछ भी मालूम नहीं पड़ा।
फूलो आगे बढ़ आई, गर्व से कन्हाई की ओर देखा और एक चंचल हंसी बरबस ही अंग-अंग को गुदगुदाती उसके होंठों पर कांप गई। कन्हाई ने सिर झुका दिया। उसने मन ही मन अनुभव किया, फूलो बहुत जवान थी और वह भाटे पर था।

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