दंपति : फ़्रेंज़ काफ़्का

Dampti : Franz Kafka

व्यापार है ही बुरी चीज। मुझे ही लीजिए। दफ्तर के काम से जब थोड़ी देर के लिए भी मुझे छुट्टी मिलती है तो मैं अपने नमूनों की पेटी उठाकर खुद ही अपने ग्राहकों से मिलने चल देता हूँ। बहुत दिनों से मेरी इच्छा एन. के पास जाने की थी।
कभी एन. के साथ मेरा काफी अच्छा कारोबार चल रहा था, लेकिन पिछले कुछ सालों से यह ठप्प पड़ गया था। क्यों? यह तो मुझे भी नहीं पता। ऐसी बात तो कभी बिना सचमुच के किसी कारण के भी घट सकती है। आजकल समय ही ऐसा है कि किसी का महज एक शब्द भी सारे मामले को उलट-पलट कर रख सकता है जबकि एक ही शब्द सब कुछ ठीक-ठाक भी कर सकता है। दरअसल एन. के साथ कारोबार करना बड़ा नाजुक मामला है। वह एक बूढ़ा आदमी है और बुढ़ापे के कारण काफी अशक्त भी हो गया है, फिर भी वह अपने कारोबारी मामलों को अपने ही हाथ में रखना पसंद करता है। अपने ऑफिस में तो वह आपको शायद ही कभी मिले और उससे मिलने के लिए उसके घर जाना एक ऐसा काम है जिसे कोई भी भला आदमी टालना ही पसंद करेगा।
फिर भी कल शाम छह बजे मैं उसके घर के लिए निकल ही पड़ा। यह किसी से मिलने के लिए जाने का समय तो नहीं था पर मेरा वहाँ जाना कारोबारी कारण से था, कोई सामाजिक सद्भाव नहीं। सौभाग्य से एन. घर पर ही था। अभी वह अपनी पत्नी के साथ सैर करके लौटा था। नौकर ने बताया कि साहब इस समय अपने बेटे के सोने के कमरे में हैं। बेटा बीमार था। नौकर ने मुझसे वहीं जाने का आग्रह किया। पहले तो मैं थोड़ा हिचका। फिर सोचा कि क्यों न इस अप्रिय मुलाकात को जल्दी निपटा दिया जाए। इसलिए मैं उसी हालत में, यानी ओवरकोट और टोपी पहने, हाथ में नमूनों की पेटी लिए एक अँधेरे कमरे को पार करके एक नीम अँधेरे कमरे में दाखिल हुआ, जहाँ तीन-चार लोग पहले से ही मौजूद थे।
मेरी पहली नजर जिस व्यक्ति पर पड़ी वह एक एजेंट था, जिसे मैं अच्छी तरह जानता था। एक तरह से वह मेरा कारोबारी प्रतिद्वंद्वी था। मुझे लगा, वह मुझसे पहले ही बाजी मार ले गया। वह आराम से बीमार के बिस्तर के पास ही बैठा था, जैसे वह कोई डॉक्टर हो। अपने ओवरकोट के बटन खोले बैठा वह निर्लज्ज-सा लग रहा था। बीमार आदमी भी शायद अपने विचारों में खोया हुआ लग रहा था। उसके गाल बुखार से तप रहे प्रतीत हो रहे थे। वह बीच-बीच में उस आगंतुक की ओर भी देख लेता था। एन. का बेटा छोटी उम्र का नहीं था। वह लगभग मेरी ही उम्र का होगा। उसकी छोटी-सी दाढ़ी बीमारी के कारण छितराई हुई थी।
बूढ़ा एन. लंबा-तगड़ा आदमी था। उसके कंधे काफी चौड़े थे। पर यह देखकर मुझे हैरानी हुई कि वह अब दुबला हो गया था। उसकी कमर भी झुक गई थी। वह अशक्त हो गया था। उसने अभी तक अपना कोट नहीं उतारा था। वह अपने बेटे के कान में कुछ फुसफुसा रहा था। उसकी पत्नी छोटे कद की दुबली और फुर्तीली महिला थी। ऊँचाई में काफी फर्क होने के बावजूद वह अपने पति के कोट को उतारने में उसकी मदद करने लगी। हालाँकि शुरू में उसे दिक्कत हो रही थी, किंतु आखिरकार वह इसमें सफल हो गई। लेकिन असल दिक्कत तो एन. के अधैर्य के कारण थी। कोट अभी पूरा उतरा भी नहीं था कि वह अपने हाथों से आरामकुर्सी के हत्थे टटोलने लगा था। उसकी पत्नी ने कोट उतारते ही आरामकुर्सी जल्दी से उसके पास सरका दी और खुद उसका कोट उठा कर रखने चली गई। कोट उठाए हुए वह खुद उसके बीच में लगभग ढँक-सी गई थी।

आखिरकार मुझे लगा कि वह समय आ गया है या यूँ कहूँ कि अपने-आप तो वह समय आता नहीं। मैंने सोचा कि जो कुछ करना है, मुझे जल्दी ही कर लेना चाहिए। मुझे लग रहा था कि कारोबारी बातचीत के लिए समय धीरे-धीरे प्रतिकूल होता जा रहा है। उस एजेंट के लक्षण तो मुझे ऐसे दिख रहे थे जैसे वह वहीं जमा रहना चाहता हो। यह मेरे हित में नहीं था, हालाँकि मैं वहाँ उसकी उपस्थिति को जरा भी अहमियत नहीं देना चाहता था। इसलिए मैंने बिना किसी भूमिका के झटपट अपने धंधे की बात शुरू कर दी, बावजूद इसके कि इस समय एन. अपने बीमार बेटे से बात करना चाह रहा था। दुर्भाग्य से यह मेरी आदत हो गई थी कि जब मैं अपनी असली बात पर आता हूँ - जो कि आम तौर पर जल्दी ही होता है और इस मामले में तो समय और भी कम लगा - तो मैं बात करते-करते खड़ा हो जाता हूँ और चहलकदमी करने लगता हूँ। किसी दफ्तर में तो यह हरकत बड़े ही स्वाभाविक तरह से हो सकती है, पर यहाँ बड़ा अटपटा लग रहा था। फिर भी मैं खुद को रोक नहीं पाया। इसका एक कारण और भी था। सिगरेट की बड़ी तलब लग रही थी। ठीक है, हर आदमी की कुछ बुरी आदतें होती ही हैं। दूसरी ओर, उस एजेंट की हालत देखकर मुझे बहुत राहत मिल रही थी। वह उद्विग्न लग रहा था। वह अचानक घुटने पर रखी अपनी टोपी उठा कर झटके से अपने सिर पर रख लेता था और फिर वहाँ उसे ऊपर-नीचे करता रहता। फिर अचानक उसे लगता कि उससे कोई गलती हो गई है। तब वह उस टोपी को अपने सिर से उतार कर वापस अपने घुटने पर रख देता। हर एक-आध मिनट में वह इन्हीं हरकतों को दोहराता जा रहा था। मुझे तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, क्योंकि मैं तो चहलकदमी करता हुआ अपने प्रस्तावों में पूरी तरह से खोया हुआ था और उसे अनदेखा कर रहा था, लेकिन उसकी ये हरकतें अन्य लोगों को जरूर आपे से बाहर कर रही होंगी।
दरअसल मैं जब अपनी बात में पूरा रम जाता हूँ तो ऐसी हरकतों की ही क्या, किसी भी बात की परवाह नहीं करता। जो कुछ हो रहा होता है, उसे मैं देखता तो हूँ पर उस ओर तब तक कोई ध्यान नहीं देता, जब तक कि मैं अपनी बात पूरी न कर लूँ, या जब तक कोई दूसरा व्यक्ति किसी तरह की आपत्ति प्रकट न करे। इसलिए मैं सब कुछ देख रहा था। मसलन एन. मेरी बात की ओर जरा भी ध्यान नहीं दे रहा था। कुर्सी के हत्थे को पकड़े वह बिना मेरी ओर देखे बेचैनी से कसमसाया। वह कहीं शून्य में टकटकी लगाए देख रहा था, जैसे कुछ ढूँढ़ रहा हो। उसके चेहरे को देखकर कोई भी समझ सकता था कि मेरे कहे हुए शब्दों से या सही कहें तो मेरी उपस्थिति से भी वह पूरी तरह अनभिज्ञ लग रहा था। उसकी और उसके बीमार बेटे की हालत मेरे लिए शुभ लक्षण नहीं थे, फिर भी मैंने स्थिति को काबू में रख कर अपनी बात कहनी जारी रखी, जैसे मुझे विश्वास हो कि अपनी बात कह कर मैं सारा मामला फिर से ठीक कर लूँगा।
मैंने एन. के सामने एक लाभकारी प्रस्ताव रखा, हालाँकि बिना माँगे ही जिस तरह की रियायतें देने की बात मैंने कह दी थी, उसने खुद मुझे ही चौंका दिया। इस बात से मुझे बड़ा संतोष मिला कि मेरे प्रस्ताव ने उस एजेंट को चक्कर में डाल दिया था। उस पर एक सरसरी निगाह डालते हुए मैंने देखा कि अपनी टोपी को जहाँ-का-तहाँ छोड़कर अब उसने अपने दोनों हाथ अपनी छाती पर बाँध लिए थे। मुझे यह स्वीकार करने में हिचक हो रही है कि मेरे इस कृत्य का उद्देश्य उसे धक्का पहुँचाना भी था। अपनी इस जीत के उत्साह में मैं काफी देर तक अपनी बात कहता रहा, लेकिन तभी उसके बेटे ने, जिसे मैं अपनी इस योजना में फालतू चीज समझे बैठा था, बिस्तर से उठ कर काँपते हाथों से मुझे धक्का दे दिया। हो सकता है वह कुछ कहना चाहता हो या किसी बात की ओर संकेत करना चाहता हो, लेकिन उसमें इसकी ताकत न हो। पहले तो मुझे लगा जैसे उसका दिमाग घूम गया हो, पर जब मैंने बूढ़े एन. पर एक उबाऊ नजर डाली तो सारी बात मेरी समझ में आ गई।
एन. की खुली हुई आँखें भावशून्य और सूजी हुई थीं। लग रहा था जैसे उसे बहुत कमजोरी महसूस हो रही हो। वह काँप रहा था और उसका शरीर आगे की ओर झुका जा रहा था, जैसे कोई उसके कंधों को ठोक रहा हो। उसका निचला होठ या यूँ कहें कि निचला जबड़ा लटक गया था और वहाँ से झाग-सा बाहर आ रहा था। वह बड़ी मुश्किल से साँस ले पा रहा था। फिर अचानक जैसे उसे सारे कष्ट से मुक्ति मिल गई हो, उसने कुर्सी पर पीठ टिका कर आँखें बंद कर लीं। दर्द का एक गहरा अहसास उसके चेहरे पर से गुजरा और लगा जैसे सब कुछ खत्म हो गया हो।
मैं झटके से उसकी ओर गया और उसकी बेजान कलाई थाम ली। वह इतना ठंडा था कि एक बार तो ठंड की एक लहर मेरे पूरे शरीर में दौड़ गई। नब्ज थम गई थी यानी सब खत्म हो गया था। कुछ भी हो, वह बहुत बूढ़ा हो गया था। काश हम सबको भी ऐसी मौत नसीब होती। लेकिन अब मैं क्या करूँ? मैंने मदद के लिए आसपास देखा। उसके बेटे ने चादर सिर तक ओढ़ ली थी और उसकी सिसकियों की आवाज मैं साफ सुन रहा था। वह एजेंट तो किसी मछली की तरह ठंडा लग रहा था। वह एन. से दो कदम दूर अपनी कुर्सी पर अचल बैठा था और लग रहा था कि वह कुछ नहीं कर पाएगा। इसलिए मैं ही वह एकमात्र व्यक्ति था, जो कुछ कर सकता था। बड़ा कठिन काम था उसकी पत्नी को उसकी मौत की खबर देना, और वह भी इस तरह कि वह उसे सहन कर सके। बगल के कमरे से मुझे उसकी पदचाप सुनाई देने लगी थी।

वह अभी तक बाहर वाले कपड़ों में ही थी। उन्हें बदलने का उसे अभी तक समय ही नहीं मिला था। वह अपने पति को पहनाने के लिए आग के सामने गरम करके घर के कपड़े लाई थी। हमें स्थिर बैठे देख उसने मुस्कराते और अपनी गर्दन हिलाते हुए कहा, "वे सो गए हैं।" अपने अपरिमित निर्दोष विश्वास के साथ उसने अपने पति की वही कलाई पकड़ी जो कुछ देर पहले मैंने पकड़ी थी और बड़े प्रमुदित मन से उस पर एक चुंबन अंकित कर दिया। हम तीनों आश्चर्य से देखते ही रह गए कि एन. हिला और उसने जम्हाई ली। पत्नी ने उसे घर की कमीज पहनाई और इतनी लंबी सैर के लिए, जिसने उसे थका दिया था, उलाहना देने लगी। वह उस उलाहने को खीझ और व्यंग्य के भाव से सुनता रहा और जवाब में उसने कहा कि वह उकताने लगा था और उसी वजह से उसे नींद आ गई थी। और फिर कुछ देर आराम करने के लिए उसे बीमार के बिस्तर पर ही लेटा दिया गया। सिर के नीचे रखने के सिए उसकी पत्नी जल्दी से दो तकिये ले आई और बीमार के पायताने की ओर रख दिए। अपने कमरे में उसे इसलिए जाने नहीं दिया गया, क्योंकि वहाँ जाने के लिए एक खाली कमरे से गुजरना पड़ता था और उसमें उसे ठंड लग सकती थी।
जो कुछ पहले घटा था, अब उसमें मुझे कोई विचित्रता नहीं लग रही थी। फिर एन. ने शाम का अखबार माँगा और बिना अपने मेहमानों की ओर जरा भी ध्यान दिए अखबार खोल लिया। वह ध्यान से अखबार नहीं पढ़ रहा था। यूँ ही सरसरी तौर पर इधर-उधर निगाह डाल रहा था। उसने हमारे प्रस्तावों पर कुछ अप्रिय टिप्पणियाँ भी कीं। दरअसल उसने अपने हाथ को बड़े तिरस्कारपूर्ण ढंग से हिलाते हुए जिस तरह की तीखी टिप्पणियाँ की थीं उसमें इस बात की ओर स्पष्ट संकेत था कि कारोबार करने के हमारे तरीकों ने उसके मुँह का स्वाद खराब कर दिया है। यह सब सुनकर उस एजेंट ने भी एक-दो अप्रिय टिप्पणियाँ कर ही दीं। बेशक, जो कुछ घटा था, उसकी क्षतिपूर्ति का यह सबसे घटिया तरीका था। जल्दी ही मैंने उनसे विदा ले ली। मैं उस एजेंट का आभारी था, क्योंकि यदि वह न होता तो मुझे वहाँ से खिसकने का इतना अच्छा मौका न मिल पाता।

बाहर निकलते हुए बरामदे में मुझे श्रीमती एन. मिल गईं। उनकी करुण मूर्ति को देखकर मैंने कहा कि उन्हें देखकर मुझे अपनी माँ की याद आ गई। उन्हें चुप देखकर मैंने आगे कहा, "लोग जो भी कहें, पर वह चमत्कार कर सकती थीं। जिन चीजों को हम तोड़-फोड़ देते, वह उन्हें फिर से ठीक कर देतीं। जब मैं बच्चा था, तभी उनकी मृत्यु हो गई थी।" मैंने यह बात बड़े धीरे-धीरे और सुस्पष्ट ढंग से कही। मेरा ख्याल था कि वह वृद्धा जरा ऊँचा सुनती है, पर वह तो बिल्कुल भी नहीं सुन पाती थी, क्योंकि मेरी बात को बिना समझे उसने पूछा था, "मेरे पति आपके प्रस्ताव पर क्या कह रहे हैं?" विदाई के दो चार शब्दों के बीच मुझे यह भी लगा कि वह मुझे एजेंट समझ रही है, अन्यथा वह अधिक विनयी होती।
फिर मैं सीढ़ियाँ उतर गया। उतरना चढ़ने से ज्यादा थका देने वाला साबित हुआ, हालाँकि चढ़ना भी कोई आसान काम नहीं था। ओह, कितनी ही कारोबारी मुलाकातें ऐसी होती हैं जिनका कोई परिणाम नहीं निकलता है, पर इसके लिए हाथ पर हाथ धरे भी तो नहीं बैठा जा सकता और मुलाकातें करते रहना पड़ता है।

(अनुवाद - सुशांत-सुप्रिय)
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