राग दरबारी (उपन्यास) : श्रीलाल शुक्ल
Rag Darbari (Novel) : Shrilal Shukla
प्रस्तावना
'राग दरबारी' का लेखन 1964 के अन्त में शुरू हुआ और अपने अन्तिम रूप में 1967 में समाप्त हुआ। 1968 में इसका प्रकाशन हुआ और 1969 में इस पर मुझे साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। तब से अब तक इसके दर्जनों संस्करण और पुनर्मुद्रण हो चुके हैं। 1969 में ही एक सुविज्ञात समीक्षक ने अपनी बहुत लम्बी समीक्षा इस वाक्य पर समाप्त की : ‘अपठित रह जाना ही इसकी नियति है।’ दूसरी ओर इसकी अधिकांश समीक्षाएँ मेरे लिए अत्यन्त उत्साहवर्धक सिद्ध हो रही थीं। कुल मिलाकर, हिन्दी समीक्षा के बारे में यह तो स्पष्ट हो ही गया कि एक ही कृति पर कितने परस्पर-विपरीत विचार एक साथ फल-फूल सकते हैं। उपन्यास को एक जनतांत्रिक विधा माना जाता है। जितनी भिन्न-भिन्न मतोंवाली समीक्षाएँ-आलोचनाएँ इस उपन्यास पर आईं, उससे यह तो प्रकट हुआ ही कि यही बात आलोचना की विधा पर भी लागू की जा सकती है।
जो भी हो, यहाँ मेरा अभीष्ट अपनी आलोचनाओं का उत्तर देना या उनका विश्लेषण करना नहीं है। दरअसल, मैं उन लेखकों में नहीं हूँ जो अपने लेखन को सर्वथा दोषरहित मानकर सीधे स्वयं या किसी प्रायोजित आलोचक मित्र द्वारा बताए गए दोषों का जवाब देकर विवाद को कुछ दिन जिन्दा रखना चाहते हैं। मैं उनमें हूँ जो मानते हैं कि सर्वथा दोषरहित होकर भी कोई उबाऊ और स्तरहीन हो सकती है जबकि कोई कृति दोषयुक्त होने के बावजूद धीरे-धीरे क्लासिक का दर्जा ले सकती है। दूसरे, मैं प्रत्येक समीक्षा या आलोचना को जी भरकर पढ़ता हूँ और खोजता हूँ कि उससे अपने भावी लेखन के लिए कौन-सा सुधारात्मक अनुभव प्राप्त किया जा सकता है। 'राग दरबारी' की प्रासंगिकता पर समीक्षाकारों में मुझसे बार-बार पूछा गया है। यह सही है कि गाँवों की राजनीति का जो स्वरूप यहाँ चित्रित हुआ है, वह आज के राष्ट्रव्यापी और मुख्यतः मध्यम और उच्च वर्गों के भ्रष्टाचार और तिकड़म को देखते हुए बहुत अदना जान पड़ता है और लगता है कि लेखक अपनी शक्ति कुछ गाँवारों के ऊपर जाया कर रहा है। पर जैसे-जैसे उच्चस्तरीय वर्ग में ग़बन, धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार और वंशवाद अपनी जड़ें मज़बूत करता जाता है, वैसे-वैसे आज से चालीस वर्ष पहले का यह उपन्यास और ज़्यादा प्रासंगिक होता जा रहा है। कम-से-कम सामान्य पाठकों और अकादमीय संस्थानों में इसका जैसा पठन-पाठन बढ़ रहा है, उससे तो यही संकेत मिलता है।
इसके प्रकाशन के चालीसवें वर्ष में राजकमल प्रकाशन ने बिलकुल नए स्वरूप में इसका नया संस्करण निकालने का संकल्प किया है। इसके लिए मैं उक्त प्रकाशन के श्री अशोक महेश्वरी के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ और आशा करता हूं, उनका यह प्रयास पाठकों के लिए और विशेषतः नए पाठकों के लिए आकर्षक सिद्ध होगा।
श्रीलाल शुक्ल
अध्याय 1. जाना रंगनाथ का शिवपालगंज
शहर का किनारा। उसे छोड़ते ही भारतीय देहात का महासागर शुरू हो जाता था।
वहीं एक ट्रक खड़ा था। उसे देखते ही यकीन हो जाता था, इसका जन्म केवल सड़कों के साथ बलात्कार करने के लिए हुआ है। जैसे कि सत्य के होते हैं, इस ट्रक के भी कई पहलू थे। पुलिसवाले उसे एक ओर से देखकर कह सकते थे कि वह सड़क के बीच में खड़ा है, दूसरी ओर से देखकर ड्राइवर कह सकता था कि वह सड़क के किनारे पर है। चालू फैशन के हिसाब से ड्राइवर ने ट्रक का दाहिना दरवाज़ा खोलकर डैने की तरह फैला दिया था। इससे ट्रक की खूबसूरती बढ़ गई थी, साथ ही यह खतरा मिट गया था कि उसके वहाँ होते हुए कोई दूसरी सवारी भी सड़क के ऊपर से निकल सकती है।
सड़क के एक ओर पेट्रोल-स्टेशन था; दूसरी ओर छप्परों, लकड़ी और टीन के सड़े टुकड़े और स्थानीय क्षमता के अनुसार निकलनेवाले कबाड़ की मदद से खड़ी की हुई दुकाने थीं। पहली निगाह में ही मालूम हो जाता था कि दुकानों की गिनती नहीं हो सकती। प्रायः सभी में जनता का एक मनपसन्द पेय मिलता था जिसे वहाँ गर्द, चीकट, चाय की कई बार इस्तेमाल की हुई पत्ती और खौलते पानी आदि के सहारे बनाया जाता था। उनमें मिठाइयाँ भी थीं जो दिन-रात आँधी-पानी और मक्खी-मच्छरों के हमलों का बहादुरी से मुकाबला करती थीं। वे हमारे देसी कारीगरों के हस्त कौशल और उनकी वैज्ञानिक दक्षता का सबूत देती थीं। वे बताती थीं कि हमें एक अच्छा रेजर-ब्लेड बनाने का नुस्खा भले ही न मालूम हो, पर कूड़े को स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों में बदल देने की तरकीब सारी दुनिया में अकेले हमीं को आती है।
ट्रक के ड्राइवर और क्लीनर एक दुकान के सामने खड़े चाय पी रहे थे।
रंगनाथ ने दूर से इस ट्रक को देखा और देखते ही उसके पैर तेज़ी से चलने लगे।
आज रेलवे ने उसे धोखा दिया था। स्थानीय पैसेंजर्स ट्रेन को रोज की तरह दो घण्टा लेट समझकर वह घर से चला था, पर वह सिर्फ डेढ़ घण्टा लेट होकर चल दी थी। शिकायती किताब के कथा-साहित्य में अपना योगदान देकर और रेलवे अधिकारियों की निगाह में हास्यास्पद बनकर वह स्टेशन से बाहर निकल आया था। रास्ते में चलते हुए उसने ट्रक देखा और उसकी बाछें-वे जिस्म में जहाँ कहीं भी होतीं हों—खिल गईं।
जब वह ट्रक के पास पहुँचा, क्लीनर और ड्राइवर चाय की आखिरी चुस्कियाँ ले रहे थे। इधर-उधर ताकककर, अपनी खिली हुई बाछों को छिपाते हुए, उसने ड्राइवर से निर्विकार ढंग से पूछा, ‘‘क्यों ड्राइवर साहब, यह ट्रक क्या शिवपालगंज की ओर जाएगा ?’’
ड्राइवर के पीने को चाय थी और देखने की दुकानदारिन थी। उसने लापरवाही से जवाब दिया, ‘‘जायगा।’’
‘‘हमें भी ले चलिएगा अपने साथ ? पन्द्रहवें मील पर उतर पड़ेंगे। शिवपालगंज तक जाना है।’’
ड्राइवर ने दुकानदारिन की सारी संभावनाएँ एक साथ देख डालीं और अपनी निगाह रंगनाथ की ओर घुमायी। अहा ! क्या हुलिया था !
नवकंजलोचन कंजमुख करकंज पदकंजारुणम् ! पैर खद्दर के पैजामे में, सिर खद्दर की टोपी में, बदन खद्दर के कुर्ते में। कन्धें से लटकता हुआ भूदानी झोला। हाथ में चमड़े की अटैची। ड्राइवर ने उसे देखा और देखता ही रह गया। फिर कुछ सोचकर बोला, ‘‘बैठ जाइए शिरिमानजी, अभी चलते हैं।’’
घरघराकर ट्रक चला। शहर की टेढ़ी-मेढ़ी लपेट से फुरसत पाकर कुछ दूर आगे साफ़ और वीरान सड़क आ गई। यहाँ ड्राइवर ने पहली बार टॉप गियर का प्रयोग किया पर वह फिसल-फिसल कर न्यूटल में गिरने लगा। हर सौ गज़ के बाद गियर फिसल जाता और एक्सिलेटर दबे होने से ट्रक की घरघराहट बढ़ जाती, रफ्तार धीमी हो जाती रंगनाथ ने कहा, ‘‘ड्राइवर साहब, तुम्हारा गियर तो बिलकुल अपने देश की हुकूमत जैसा है।’’
ड्राइवर ने मुस्करा कर वह प्रशंसा-पत्र ग्रहण किया। रंगनाथ ने अपनी बात साफ़ करने की कोशिश की। कहा, ‘‘उसे चाहे जितनी बार टॉप गियर में डालो, दो गज़ चलते ही फिसल जाती है और लौटकर अपने खाँचे में आ जाती है।’’
ड्राइवर हँसा। बोला, ‘‘ऊँची बात कह दी शिरिमानजी ने।’’
इस बार उसने गियर को टॉप में डालकर अपनी टाँग लगभग नब्बे अंश के कोण पर उठायी और गियर को जाँघ के नीचे दबा लिया। रंगनाथ ने कहना चाहा कि हुकूमत को चलाने का भी यही नुस्खा है, पर यह सोचकर कि बात ज़रा और ऊँची हो जाएगी, वह चुप बैठा रहा।
उधर ड्राइवर ने अपनी जाँघ गियर से हटाकर यथास्थान वापस पहुँचा दी थी। गियर पर उसने एक लम्बी लकड़ी लगा दी और उसका एक सिरा पेनल के नीचे ठोंक दिया। ट्रक ते़ज़ी से चलता रहा। उसे देखते ही साइकिल-सावर, पैदल, इक्के-सभी सवारियाँ कई फर्लांग पहले ही से खौफ के मारे सड़क से उतरकर नीचे चली जातीं। जिस तेज़ी से वे भाग रही थीं, उससे लगता था कि उनकी निगाह में वह ट्रक नहीं है; वह आग की लहर है, बंगाल की खाड़ी से उठा हुआ तूफान है, जनता पर छोड़ा हुआ कोई बदकलाम अहलकार है, पिंडारियों का गिरोह है। रंगनाथ ने सोचा, उसे पहले ही ऐलान करा देना था कि अपने-अपने जानवर और बच्चे घरों में बन्द कर लो, शहर से अभी-अभी एक ट्रक छूटा है।
तब तक ड्राइव ने पूछा, ‘‘कहिए शिरिमानजी ! क्या हालचाल हैं ? बहुत दिन बाद देहात की ओर जा रहे हैं !’’
रंगनाथ ने शिष्टाचार की इस कोशिश को मुस्कराकर बढ़ावा दिया। ड्राइवर ने कहा, ‘‘शिरिमानजी, आजकल क्या कर रहे हैं ?’’
‘‘घास खोद रहा हूँ।’’
ड्राइवर हँसा। दुर्घटनावश एक दस साल का नंग-धड़ंग लड़का ट्रक से बिलकुल ही बच गया। बचकर वह एक पुलिया के सहारे छिपकली-सा गिर पड़ा। ड्राइवर इससे प्रभावित नहीं हुआ। एक्सिलेटर दबाकर हँसते-हँसते बोला, ‘‘क्या बात कही है ! ज़रा खुलासा समझाइए।’’
‘‘कहा तो, घास खोद रहा हूँ। इसी को अंग्रेजी में रिसर्च कहते हैं। परसाल एम.ए. किया था। इस साल से रिसर्च शुरू की है।’’ ड्राइवर जैसे अलिफ-लैला की कहानियाँ सुन रहा हो, मुस्कराता हुआ बोला, ‘‘और शिरिमानजी, शिवपालगंज क्या करने जा रहा हैं ?’’
‘‘वहाँ मेरे मामा रहते हैं। बीमार पड़ गया था। कुछ दिन देहात में जाकर तन्दुरस्ती बनाऊँगा।’’
इस बार ड्राइवर काफ़ी देर तक हँसता रहा। बोला, ‘‘क्या बात बनायी है शिरिमानजी ने !’’
रंगनाथ ने उसकी ओर सन्देह से देखते हुए पूछा, ‘‘जी ! इसमें बात बनाने की क्या बात ?’’
वह इस मासूमियत पर लोट-पोट हो गया। पहले ही की तरह हँसते हुए बोला, ‘‘क्या कहने हैं ! अच्छा जी, छोड़िए बात को।
बताइए, मित्तल साहब के क्या हाल हैं ? क्या हुआ उस हवालाती के खूनवाले मामले का ?’’
रंगनाथ का खून सूख गया। भर्राए गले से बोला, ‘‘अजी, मैं क्या जानूँ वह मित्तल कौन है।’’
ड्राइवर की हँसी में ब्रेक लग गया। ट्रक की रफ्तार भी कुछ कम पड़ गई। उसने रंगनाथ को एक बार गौर से देखकर पूछा, ‘‘आप मित्तल साहब को नहीं जानते ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘जैन साहब को ?’’
‘‘नहीं।’’
ड्राइवर ने खिड़की के बाहर थूक दिया और साफ़ आवाज़ में सवाल किया, ‘‘आप सी.आई.डी. में काम नहीं करते ?’’
रंगनाथ ने झुँझलाकर कहा, ‘‘सी.आई.डी. ? यह किस चिड़िया का नाम है ?’
ड्राइवर से जोर की सांस छोड़ी और सामने सड़क की दशा का निरीक्षण करने लगा।
जब कहीं और जहां भी कहीं मौका मिले, वहां टांगे फैला देनी चाहिये, इस लोकप्रिय सिद्धांत के अनुसार गाड़ीवान बैलगाड़ियों पर लेटे हुये थे और मुंह ढांपकर सो रहे थे। कूछ बैलगाड़ियां जा रही थीं। जब कहीं और जहां भी कहीं मौका मिले, वहां टांगे फैला देनी चाहिये, इस लोकप्रिय सिद्धांत के अनुसार गाड़ीवान बैलगाड़ियों पर लेटे हुये थे और मुंह ढांपकर सो रहे थे। बैल अपनी काबिलियत से नहीं, बल्कि अभ्यास के सहारे चुपचाप सड़क पर गाड़ी घसीटे लिये जा रहे थे। यह भी जनता और जनार्दन वाला मजनून था, पर रंगनाथ की हिम्मत कुछ कहने की नहीं हुयी। वह सी.आई.डी. वाली बात से उखड़ गया था। ड्राइवर ने पहले रबड़वाला हार्न बजाया, फिर एक ऐसा हार्न बजाया जो संगीत के आरोह-अवरोह के बावजूद बहुत डरावना था, पर गाड़ियां अपनी राह चलती रहीं। ड्राइवर काफ़ी रफ्तार से ट्रक चला रहा था, और बैलगाड़ियों के ऊपर से निकाल ले जाने वाला था; पर गाड़ियों के पास पहुंचते-पहुंचते उसे शायद अचानक मालूम हो गया कि वह ट्रक चला रहा है, हेलीकाप्टर नहीं। उसने एकदम से ब्रेक लगाया, पेनल से लगी हुई लकड़ी नीचे गिरा दी, गियर बदला और बैलगाड़ियों को लगभग छूता हुआ उनसे आगे निकल गया। आगे जाकर उसने घृणापूर्वक रंगनाथ से कहा,"सी.आई.डी. में नहीं हो तो तुमने यह खद्दर क्यों डांट रखी है जी?"
रंगनाथ इन हमलों से लड़खड़ा गया था। पर उसने इस बात को मामूली जांच-पड़ताल का सवाल मानकर सरलता से जवाब दिया,"खद्दर तो आजकल सभी पहनते हैं।"
"अजी कोई तुक का आदमी तो पहनता नहीं।" कहकर उसने दुबारा खिड़की के बाहर थूका और गियर को टाप में डाल दिया।
रंगनाथ का पर्सनालिटी कल्ट समाप्त हो गया। थोड़ी देर वह चुपचाप बैठा रहा। बाद में मुंह से सीटी बजाने लगा। ड्राइवर ने उसे कुहनी से हिलाकर कहा,"देखो जी, चुपचाप बैठो, यह कीर्तन की जगह नहीं है।"
रंगनाथ चुप हो गया। तभी ड्राइवर ने झुंझलाकर कहा,"यह गियर बार-बार फिसलकर न्यूट्रल ही में घुसता है। देख क्या रहे हो? ज़रा पकड़े रहो जी। थोड़ी देर में उसने दुबारा झुंझलाकर कहा,"ऐसे नहीं इस तरह! दबाकर ठीक से पकड़े रहो।
ट्रक के पीछे काफ़ी देर से हार्न बजता आ रहा था। रंगनाथ उसे सुनता रहा था और ड्राइवर उसे अनसुना करता रहा था और ड्राइवर उसे अनसुना करता रहा था। कुछ देर बाद पीछे से क्लीनर ने लटककर ड्राइवर की कनपटी के पास खिड़की पर खट-खट करना शुरू कर दिया। ट्रकवालों की भाषा में इस कार्रवाई का निश्चित ही कोई खौफ़नाक मतलब होगा, क्योंकि उसी वक्त ड्राइवर ने रफ़्तार कम कर दी और ट्रक को सड़क की बायीं पटरी पर कर लिया।
हार्न की आवाज़ एक ऐसे स्टेशन-वैगन से आ रही थी जो आजकल विदेशों के आशीर्वाद से सैकड़ों की संख्या में यहां देश की प्रगति के लिये इस्तेमाल होते हैं और हर सड़क पर हर वक्त देखे जा सकते हैं। स्टेशन-वैगन दायें से निकलकर आगे धीमा पड़ गया और उससे बाहर निकले हुये एक खाकी हाथ ने ट्रक को रुकने का इशारा दिया। दोनों गाड़ियां रुक गयीं।
स्टेशन-वैगन से एक अफसरनुमा चपरासी और एक चपरासीनुमा अफसर उतरे। स्टेशन-वैगन से एक अफसरनुमा चपरासी और एक चपरासीनुमा अफसर उतरे। खाकी कपड़े पहने हुये दो सिपाही भी उतरे। उनके उतरते ही पिंडारियों-जैसी लूट खसोट शुरू हो गयी। किसी ने ड्राइवर का ड्राइविंग लाइसेंस छीना, किसी ने रजिस्ट्रेशन-कार्ड; कोई बैक्व्यू मिरर खटखटाने लगा, कोई ट्रक का हार्न बजाने लगा। कोई ब्रेक देखने लगा। उन्होंने फुटबोर्ड हिलाकर देखा, बत्तियां जलायीं, पीछे बजनेवाली घंटी टुनटुनायी। उन्होंने जो कुछ भी देखा, वह खराब निकला; जिस चीज को भी छुआ, उसी में गड़बड़ी आ गयी। इस तरह उन चार आदमियों ने चार मिनट में लगभग चालिस दोष निकाले और फिर एक पेड़ के नीचे खड़े होकर इस प्रश्न पर बहस करनी शुरू कर दी कि दुश्मन के साथ कैसा सुलूक किया जाये।
उन्होंने जो कुछ भी देखा, वह खराब निकला; जिस चीज को भी छुआ, उसी में गड़बड़ी आ गयी। इस तरह उन चार आदमियों ने चार मिनट में लगभग चालिस दोष निकाले और फिर एक पेड़ के नीचे खड़े होकर इस प्रश्न पर बहस करनी शुरू कर दी कि दुश्मन के साथ कैसा सुलूक किया जाये। रंगनाथ की समझ में कुल यही आया कि दुनिया में कर्मवाद के सिद्धान्त,'पोयटिक जस्टिस' आदि की कहानियां सच्ची हैं; ट्रक की चेकिंग हो रही है और ड्राइवर से भगवान उसके अपमान का बदला ले रहा है। वह अपनी जगह बैठा रहा। पर इसी बीच ड्राइवर ने मौका निकालकर कहा," शिरिमानजी, ज़रा नीचे उतर आयें। वहां गियर पकड़कर बैठने की अब क्या जरूरत है?"
रंगनाथ एक दूसरे पेड़ के नीचे जाकर खड़ा हो गया। उधर ड्राइवर और चेकिंग जत्थे में ट्रक के एक-एक पुर्जे को लेकर बहस चल रही थी। देखते-देखते बहस पुर्जों से फिसलकर देश की सामान्य दशा और आर्थिक दुरवस्था पर आ गयी और थोड़ी ही देर में उपस्थित लोगों की छोटी-छोटी उपसमितियां बन गयीं। वे अलग-अलग पेड़ों के नीचे एक-एक विषय पर विशेषज्ञ की हैसियत से विचार करने लगीं। काफ़ी बहस हो जाने के बाद एक पेड़ के नीचे खुला अधिवेशन जैसा होने लगा और कुछ देर में जान पड़ा, गोष्ठी खत्म होने वाली है।
आखिर में रंगनाथ को अफ़सर की मिमियाती हुयी आवाज़ सुनायी पड़ी, "क्यों मियां अशफ़ाक, क्या राय है? माफ़ किया जाये?"
चपरासी ने कहा, "और कर ही क्या सकते हैं हुजूर? कहां तक चालान कीजियेगा। एकाध गड़बड़ी हो तो चालान भी करें। एक सिपाही ने कहा, " चार्जशीट भरते-भरते सुबह हो जायेगी।"
इधर-उधर की बातों के बाद अफ़सर ने कहा, " अच्छा जाओ जी बंटासिंह, तुम्हें माफ़ किया।"
ड्राइवर ने खुशामद के साथ कहा, "ऐसा काम शिरिमानजी ही कर सकते हैं।"
अफ़सर काफ़ी देर से दूसरे पेड़ के नीचे खड़े हुये रंगनाथ की ओर देख रहा था। सिगरेट सुलगाता हुआ वह वह उसकी ऒर आया । पास आकर पूछा, "आप भी इसी ट्रक पर जा रहे हैं?"
"जी हां।"
"आपसे इसने कुछ किराया तो नहीं लिया है?"
"जी, नहीं।"
अफ़सर बोला, "वह तो मैं आपकी पोशाक ही देखकर समझ गया था, पर जांच करना मेरा फ़र्ज था।"
रंगनाथ ने उसे चिढा़ने के लिये कहा, "यह असली खादी थोड़े ही है। यह मिल की खादी है।"
उसने इज्जत के साथ कहा, "अरे साहब, खादी तो खादी! उसमें असली-नकली का क्या फर्क?"
अफ़सर के चले जाने के बाद ड्राइवर और चपरासी रंगनाथ के पास आये। ड्राइवर ने कहा, "ज़रा दो रुपये तो निकालना जी।"
उसने मुंह फेरकर कड़ाई से कहा, "क्या मतलब है? मैं रुपया क्यों दूं?"
ड्रायवर ने चपरासी का हाथ पकड़कर कहा, "आइये शिरिमानजी, मेरे साथ आइये। जाते-जाते वह रंगनाथ से कहने लगा। तुम्हारी ही वजह से मेरी चेकिंग हुई। और तुम्ही मुसीबत में मुझमे इस तरह से बात करते हो? तुम्हारी यही तालीम है?"
वर्तमान शिक्षा-पद्धति रास्ते में पड़ी हुयी कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है।
वर्तमान शिक्षा-पद्धति रास्ते में पड़ी हुयी कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है। ड्राइवर भी उस पर रास्ता चलते-चलते एक जुम्ला मारकर चपरासी के साथ ट्रक की ऒर चल दिया। रंगनाथ ने देखा, शाम घिर रही है, उसका अटैची ट्रक में रखा है, शिवपालगंज अभी पांच मील दूर है और उसे लोगों की सद्भावना की जरूरत है। वह धीरे-धीरे ट्रक की ओर आया। उधर स्टेशन वैगन का ड्राइवर हार्न बजा-बजाकर चपरासी को वापस बुला रहा था। रंगनाथ ने दो रुपये ड्राइवर को देने चाहे। उसने कहा, " अब दे ही रहे हो तो अर्दली साहब को दो। मैं तुम्हारे रुपयों का क्या करूंगा?"
कहते-कहते उसकी आवाज में सन्यासियों की खनक आ गयी जो पैसा हाथ से नहीं छूते, सिर्फ दूसरों को यह बताते हैं कि तुम्हारा पैसा हाथ का मैल है। चपरासी रुपयों को जेब में रखकर, बीड़ी का आखिरी कश खींचकर, उसका अधजला टुकड़ा लगभग रंगनाथ के पैजामे पर फेंककर स्टेशन-वैगन की ओर चला गया। उसके रवाना होने पर ड्राइवर ने भी ट्रक चलाया और पहले की तरह गियर को'टाप' में लेकर रंगनाथ को पकड़ा दिया।फिर अचानक,बिना किसी वजह के, वह मुंह को गोल-गोल बनाकर सीटी पर सिनेमा की एक धुन निकालने लगा। रंगनाथ चुपचाप सुनता रहा।
थोड़ी देर में ही धुंधलके में सड़क की पटरी पर दोनों ओर कुछ गठरियां-सी रखी हुई नजर आयीं। ये औरतें थीं, जो कतार बांधकर बैठी हुयी थीं। वे इत्मीनान से बातचीत करती हुयी वायु सेवन कर रहीं थीं और लगे हाथ मल-मूत्र विसर्जन भी। सड़क के नीचे घूरे पटे पड़े थे और उनकी बदबू के बोझ से शाम की हवा किसी गर्भवती की तरह अलसायी हुयी-सी चल रही थी। कुछ दूरी पर कुत्तों के भौंकने की आवजें हुईं। आंखों के आगे धुएं के जाले उड़ते हुये नज़र आये। इससे इन्कार नहीं हो सकता था कि वे किसी गांव के पास आ गये थे। यही शिवपालगंज था।
अध्याय 2. वे पैदाइशी नेता थे
थाना शिवपालगंज में एक आदमी ने हाथ जोड़कर दरोगाजी से कहा, "आजकल होते-होते कई महीने बीत गये। अब हुजूर हमारा चालान करने में देर ना करें।"
मध्यकाल का कोई सिंहासन रहा होगा जो अब घिसकर आरामकुर्सी बन गया था। दरोगाजी उस पर बैठे भी थे, लेटे भी थे। यह निवेदन सुना तो सिर उठाकर बोले, "चालान भी हो जायेगा। जल्दी क्या है? कौन सी आफ़त आ रही है?"
वह आदमी आरामकुर्सी के पास पड़े हुए एक प्रागैतिहासिक मोढ़े पर बैठ गया और कहने लगा, "मेरे लिए तो आफ़त ही है। आप चालान कर दें तो झंझट मिटे।" दरोगाजी भुनभुनाते हुए किसी को गाली देने लगे। थोड़ी देर में उसका यह मतलब निकला कि काम के मारे नाक में दम है।
दरोगाजी भुनभुनाते हुए किसी को गाली देने लगे। थोड़ी देर में उसका यह मतलब निकला कि काम के मारे नाक में दम है। इतना काम है कि अपराधों की जाँच नहीं हो पाती, मुकदमों का चालान नहीं हो पाता, अदालतों में गवाही नहीं हो पाती। इतना काम है कि सारा काम ठप्प पड़ा है।
मोढ़ा आरामकुर्सी के पास खिसक आया। उसने कहा, "हुजूर, दुश्मनों ने कहना शुरू कर दिया है कि शिवपालगंज में दिन-दहाड़े जुआ होता है। कप्तान के पास एक गुमनाम शिकायत गयी है। वैसे भी समझौता साल में एक बार चालान करने का है। इस साल चालान होने में देर हो रही है। इसी वक्त हो जाये तो लोगों की शिकायत भी खत्म हो जायेगी।"
यहाँ बैठकर अगर कोई चारों ओर निगाह दौड़ाता तो उसे मालूम होता, वह इतिहास के किसी कोने में खड़ा है। अभी इस थाने के लिए फ़ाउंटेनपेन नहीं बना था, उस दिशा में कुल इतनी तरक्की हुई थी कि कलम सरकण्डे का नहीं था। यहाँ के लिए अभी टेलीफ़ोन की ईजाद नहीं हुई थी। हथियारों में कुछ प्राचीन राइफ़लें थीं जो, लगता था, गदर के दिनों में इस्तेमाल हुई होंगी। वैसे, सिपाहियों के साधारण प्रयोग के लिए बाँस की लाठी थी, जिसके बारे में एक कवि ने बताया है कि वह नदी-नाले पार करने में और झपटकर कुत्ते को मारने में उपयोगी साबित होती है। यहाँ के लिए अभी जीप का अस्तित्व नहीं था। उसका काम करने के लिए दो-तीन चौकीदारों के प्यार की छाँव में पलने वाली घोड़ा नाम की एक सवारी थी, जो शेरशाह के जमाने में भी हुआ करती थी। थाने के अंदर आते ही आदमी को लगता था कि उसे किसी ने उठाकर कई सौ साल पहले फ़ेंक दिया है।
थाने के अंदर आते ही आदमी को लगता था कि उसे किसी ने उठाकर कई सौ साल पहले फ़ेंक दिया है। अगर उसने अमरीकी जासूसी उपन्यास पढ़े हों, तो वह बिलबिलाकर देखना चाहता है कि उँगलियों के निशान देखने वाले शीशे, कैमरे, वायरलैस लगी हुई गाड़ियाँ- ये सब कहाँ हैं? बदले में उसे सिर्फ़ वह दिखता जिसका जिक्र ऊपर किया जा चुका है। साथ ही, एक नंग-धडंग लंगोटबंद आदमी दिखता जो सामने इमली के पेड़ के नीचे भंग घोंट रहा होता। बाद में पता चलता कि वह अकेला आदमी बीस गाँवों की सुरक्षा के लिए तैनात है और जिस हालत में जहाँ है, वहीं से उसी हालत में वह बीस गाँवों में अपराध रोक सकता है, अपराध हो गया हो तो उसका पता लगा सकता है और अपराध न हुआ हो, तो उसे करा सकता है। कैमरा, शीशा, कुत्ते, वायरलैस उसके लिए वर्जित हैं। इस तरह थाने का वातावरण बड़ा ही रमणीक और बीते दिनों के गौरव के अनुकूल था। जिन रोमांटिक कवियों को बीते दिनों की याद सताती है, उन्हें कुछ दिन रोके रखने के लिए ये आदर्श स्थान था। जनता को दरोगाजी और थाने के सिपहियों से बड़ी-बड़ी आशायें थीं। ढाई-तीन सौ गाँवों के उस थाने में अगर आठ मील दूर किसी गाँव में नकब लगे तो विश्वास किया जाता था कि इनमें से कोई-न-कोई उसे जरूर देख लेगा। बारह मील की दूरी पर अगर रात के वक्त डाका पड़े, तो इनसे उम्मीद थी कि ये वहाँ डाकुओं से पहले ही पहुँच जायेंगे। इसी विश्वास पर किसी भी गाँव में इक्का-दुक्का बंदूकों को छोड़कर हथियार नहीं दिये गये थे। हथियार देने से डर था कि गाँव में रहने वाले असभ्य और बर्बर आदमी बंदूकों का इस्तेमाल करना सीख जायेंगे, जिससे वे एक-दूसरे की हत्या करने लगेंगे, खून की नदियाँ बहने लगेंगी। जहाँ तक डाकुओं से उनकी सुरक्षा का सवाल था, वह दरोगाजी और उनके दस-बारह आदमियों की जादूगरी पर छोड़ दिया गया था।
उनकी जादूगरी का सबसे बड़ा प्रदर्शन खून के मामलों में होने की आशा की जाती थी, क्योंकि समझा जाता था कि इन तीन सौ गाँवों में रहने वालों के मन में किसके लिए घृणा है, किससे दुश्मनी है, किसको कच्चा चबा जाने का उत्साह है, इसक वे पूरा-पूरा ब्यौरा रखेंगे; और पहले से ही कुछ ऐसी तरकीब करेंगे कि कोई किसी को मार ना सके; और अगर कोई किसी को मार दे तो वे हवा की तरह मौके पर जाकर पकड़ लेंगे, उसके खून से तर मिट्टी को हाँड़ी में भर लेंगे और उसके मरने का दृश्य देखने वालों को दिव्य-दृष्टि देंगे ताकि वे किसी भी अदालत में, जो कुछ हुआ है, उसका महाभारत के संजय की तरह आँखों-देखा हाल बता सकें। संक्षेप में, दरोगाजी और उनके सिपाहियों को वहाँ पर मनुष्य नहीं, बल्कि अलादीन के चिराग से निकलने वाला दैत्य समझकर रखा गया था। उन्हें इस तरह रखकर १९४७ में अंग्रेज अपने देश चले गये थे और उसके बाद ही धीरे-धीरे लोगों पर यह राज खुलने लगा था कि ये लोग दैत्य नहीं हैं, बल्कि मनुष्य हैं; और ऐसे मनुष्य हैं जो खुद दैत्य निकालने की उम्मीद में दिन-रात अपना-अपना चिराग घिसते रहते हैं।
शिवपालगंज के जुआरी संघ के मैनेजिंग डायरेक्टर के चले जाने पर दरोगाजी ने एक बार सिर उठाकर चारों ओर देखा। सब तरफ़ अमन था। इमली के पेड़ के नाचे भंग घोंटने वाला लंगोटबंद सिपाही अब नजदीक रखे हुए शिवलिंग पर भंग चढ़ा रहा था, घोड़े के पुट्ठों पर एक चौकीदार खरहरा कर रहा था, हवालात में बैठा हुआ एक डकैत जोर-जोर से हनुमान-चालीसा पढ़ रहा था, बाहर फ़ाटक पर ड्यूटी देने वाला सिपाही- निश्चय ही रात को मुस्तैदी से जागने के लिए- एक खंबे के सहारे टिककर सो रहा था।
दरोगाजी ने ऊँघने के लिए पलक बंद करना चाहा, पर तभी उनको रुप्पन बाबू आते हुए दिखाई पड़े। वे भुनभुनाये कि पलक मारने की फ़ुर्सत नहीं है। रुप्पन बाबू के आते ही वे कुर्सी से खड़े हो गये और विनम्रता-सप्ताह बहुत पहले बीत जाने के बावजूद, उन्होंने विनम्रता से हाथ मिलाया।
दरोगाजी ने ऊँघने के लिए पलक बंद करना चाहा, पर तभी उनको रुप्पन बाबू आते हुए दिखाई पड़े। वे भुनभुनाये कि पलक मारने की फ़ुर्सत नहीं है। रुप्पन बाबू के आते ही वे कुर्सी से खड़े हो गये और विनम्रता-सप्ताह बहुत पहले बीत जाने के बावजूद, उन्होंने विनम्रता से हाथ मिलाया। रुप्पन बाबू ने बैठते ही कहा, "रामाधीन के यहाँ लाल स्याही से लिखी हुई चिट्ठी आयी है। डाकुओं ने पाँच हजार रुपया माँगा है। लिखा है अमावस की रात को दक्खिनवाले टीले पर.....।"
दरोगाजी मुस्कुराकर बोले, "यह तो साहब बड़ी ज्यादती है। कहाँ तो पहले डाकू नदी-पहाड़ लाँघकर घर पर रुपया लेने आते थे, अब वे चाहते हैं कोई उन्हीं के घर जाकर रुपया दे आवे।"
रुप्पन बाबू ने कहा, "जी हाँ वह तो देख रहा हूँ। डकैती न हुई, रिश्वत हो गयी।"
दरोगाजी ने भी उसी लहजे में कहा, "रिश्वत, चोरी, डकैती- अब तो सब एक हो गया है.....पूरा साम्यवाद है!"
रुप्पन बाबू बोले, "पिताजी भी यही कहते हैं।"
"वे क्या कहते हैं?" "रिश्वत, चोरी, डकैती- अब तो सब एक हो गया है.....पूरा साम्यवाद है!"
"......यही कि पूरा साम्यवाद है।"
दोनों हँसे। रुप्पन बाबू ने कहा, "नहीं। मैं मजाक नहीं करता। रामाधीन के यहाँ सचमुच ही ऐसी चिट्ठी आयी है। पिताजी ने मुझे इसीलिए भेजा है। वे कहते हैं कि रामाधीन हमारा विरोधी हुआ तो क्या हुआ, उसे इस तरह न सताया जाये।"
"बहुत अच्छी बात कहते हैं। जिससे बताईये उससे कह दूँ।"
रुप्पन बाबू ने अपनी गढ़े में धँसी हुई आँखों को सिकोड़कर दरोगाजी की ओर देखा। दरोगाजी ने भी उन्हें घूरकर देखा और मुस्कुरा दिये। बोले, "घबराईये नहीं, मेरे यहाँ होते हुए डाका नहीं पड़ेगा।"
रुप्पन बाबू धीरे से बोले, "सो तो मैं जानता हूँ। यह चिट्ठी जाली है। जरा अपने सिपाहियों से भी पुछवा लीजिए। शायद उन्हीं में से किसी ने लिख मारी हो।"
"ऐसा नहीं हो सकता। मेरे सिपाही लिखना नहीं जानते। एकाध हैं जो दस्तखत भर करते हैं।"
रुप्पन बाबू कुछ और कहना चाहते थे, तब तक दरोगाजी ने कहा, "जल्दी क्या है! अभी रामाधीन को रिपोर्ट लिखाने दीजिए....चिट्ठी तो सामने आये।"
थोड़ी देर दोनों चुप रहे। दरोगाजी ने फ़िर कुछ सोचकर कहा, "सच पूछिए तो बताऊँ। मुझे तो इसका संबंध शिक्षा-विभाग से जान पड़ता है।"
"कैसे?"
"और शिक्षा-विभाग से भी क्या आपके कॉलिज से जान पड़ता है।"
रुप्पन बाबू बुरा मान गये, "आप तो मेरे कॉलिज के पीछे पड़े हैं।"
"मुझे लगता है कि रामाधीन के घर यह चिट्ठी आपके कॉलिज के किसी लड़के ने भेजी है। आपका क्या ख्याल है?"
"आप लोगों की निगाह में सारे जुर्म स्कूली लड़के ही करते हैं।" रुप्पन बाबू ने फ़टकारते हुए कहा, "अगर आपके सामने कोई आदमी जहर खाकर मर जाये, तो आप लोग उसे भी आत्महत्या न मानेंगे। यही कहेंगे कि इसे किसी विद्यार्थी ने जहर दिया है।"
"आप ठीक कहते हैं रुप्पन बाबू, जरूरत पड़ेगी तो मैं ऐसा ही कहूँगा। मैं बख्तावरसिंह का चेला हूँ। शायद आप यह नहीं जानते।"
इसके बाद सरकारी नौकरों की बातचीत का वही अकेला मजमून खुल गया कि पहले के सरकारी नौकर कैसे होते थे और आज के कैसे हैं। बख्तावरसिंह की बात छिड़ गयी। दरोगा बख्तावरसिंह एक दिन शाम के वक्त अकेले लौट रहे थे। उन्हें झगरू और मँगरू नाम के दो बदमाशों ने बाग में घेरकर पीट दिया। बात फ़ैल गयी, इसलिए उन्होंने थाने पर अपने पीटे जाने की रिपोर्ट दर्ज करा दी।
दूसरे दिन दोनों बदमाशों ने जाकर उनके पैर पकड़ लिए। कहा, "हुजूर माई-बाप हैं। गुस्से में औलाद माँ-बाप से नालायकी कर बैठे तो माफ़ किया जाता है।"
बख्तावरसिंह ने माँ-बाप का कर्तव्य पूरा करके उन्हें माफ़ कर दिया। उन्होंने औलाद का कर्तव्य पूरा करके बख्तावरसिंह के बुढ़ापे के लिए अच्छा-खासा इंतजाम कर दिया। बात आयी-गयी हो गयी।
पर कप्तान ने इस पर एतराज किया कि, "टुम अपने ही मुकडमे की जाँच कामयाबी से नहीं करा सका टो दूसरे को कौन बचायेगा? अँढेरा ठा टो क्या हुआ? टुम किसी को पहचान नहीं पाया, टो टुमको किसी पर शक करने से कौन रोकने सकटा!"
तब बख्तावरसिंह ने तीन आदमियों पर शक किया। उन तीनों की झगरू और मँगरू से पुश्तैनी दुश्मनी थी। उन पर मुकदमा चला। झगरू और मँगरू ने बख्तावरसिंह की ओर से गवाही दी, क्योंकि मारपीट के वक्त वे दोनों बाग में एक बड़े ही स्वाभाविक करण से, यानी पाखाने की नीयत से, आ गये थे। तीनों को सजा हुई। झगरू-मँगरू के दुश्मनों का ये हाल देखकर इलाके की कई औलादें बख्तावरसिंह के पास आकर रोज प्रार्थना करने लगीं कि माई-बाप, इस बार हमें भी पीटने का मौका दिया जाये। पर बुढ़ापा निबाह करने के लिए झगरू और मँगरू काफ़ी थे। उन्होंने औलादें बढ़ाने से इंकार कर दिया।
रुप्पन बाबू काफ़ी देर हँसते रहे। दरोगाजी खुश होते रहे कि रुप्पन बाबू एक किस्से में ही खुश होकर हँसने लगे हैं, दूसरे की जरूरत नहीं पड़ी। दूसरा किस्सा किसी दूसरे लीडर को हँसाने के काम आयेगा। हँसना बंद करके रुप्पन बाबू ने कहा, "तो आप उन्हीं बख्तावरसिंह के चेले हैं!"
"था। आजादी मिलने के पहले था। पर अब तो हमें जनता की सेवा करनी है। गरीबों का दुख-दर्द बँटाना है। नागरिकों के लिए....."
रुप्पन बाबू उनकी बाँह छूकर बोले, "छोड़िए, यहाँ मुझे और आपको छोड़कर तीसरा कोई भी सुनने वाला नहीं है।" पर वे ठण्डे नहीं पड़े। कहने लगे, "मैं तो यही कहने जा रहा था कि मैं आजादी मिलने से पहले बख्तावरसिंह का चेला था, अब इस जमाने में आपके पिताजी का चेला हूँ।"
रुप्पन बाबू विनम्रता से बोले, "यह तो आपकी कृपा है, वरना मेरे पिताजी किस लायक हैं?"
वे उठ खड़े हुए। सड़क की ओर देखते हुए, उन्होंने कहा, "लगता है, रामाधीन आ रहा है। मैं जाता हूँ। इस डकैतीवाली चिट्ठी को जरा ठीक से देख लीजियेगा।" रुप्पन बाबू अठरह साल के थे। वे स्थानीय कालिज की दसवीं कक्षा में पढ़ते थे। पढ़ने से, और खासतौर से दसवीं कक्षा में पढ़ने से, उन्हें बहुत प्रेम था; इसलिए वे उसमें पिछले तीन साल से पढ़ रहे थे।
रुप्पन बाबू अठरह साल के थे। वे स्थानीय कालिज की दसवीं कक्षा में पढ़ते थे। पढ़ने से, और खासतौर से दसवीं कक्षा में पढ़ने से, उन्हें बहुत प्रेम था; इसलिए वे उसमें पिछले तीन साल से पढ़ रहे थे।
रुप्पन बाबू स्थानीय नेता थे। उनका व्यक्तित्व इस आरोप को काट देता था कि इण्डिया में नेता होने के लिए पहले धूप में बाल सफ़ेद करने पड़ते हैं। उनके नेता होने का सबसे बड़ा आधार ये था कि वे सबको एक ही निगाह से देखते थे। थाने में दरोगा और हवालात में बैठा हुआ चोर- दोनों उनकी निगाह में एक थे। उसी तरह इम्तहान में नकल करने वाला विद्यार्थी और कालिज के प्रिंसिपल उनकी निगाह में एक थे। वे सबको दयनीय समझते थे, सबका काम करते थे, सबसे काम लेते थे। उनकी इज्जत थी कि पूँजीवाद के प्रतीक दुकानदार उनके हाथ सामान बेचते नहीं, अर्पित करते थे और शोषण के प्रतीक इक्केवाले उन्हें शहर तक पहुँचाकर किराया नहीं, आशेर्वाद माँगते थे। उनकी नेतागिरी का प्रारंभिक और अंतिम क्षेत्र वहाँ का कालिज था, जहाँ उनका इशारा पाकर सैकड़ों विद्यार्थी तिल का ताड़ बना सकते थे और जरूरत पड़े तो उस पर चढ़ भी सकते थे। वे पैदायशी नेता थे क्योंकि उनके बाप भी नेता थे। उनके बाप का नाम वैद्यजी था।
वे दुबले-पतले थे, पर लोग उनके मुँह नहीं लगते थे। वे लम्बी गरदन, लंबे हाथ और लंबे पैर वाले आदमी थे। जननायकों के लिए ऊल-जलूल और नये ढंग की पोशाक अनिवार्य समझकर वे सफ़ेद धोती और रंगीन बुश्शर्ट पहनते थे और गले में रेशम का रूमाल लपेटते थे। धोती का कोंछ उनके कंधे पर पड़ा रहता था। वैसे देखने में उनकी शक्ल एक घबराये हुए मरियल बछड़े की-सी थी, पर उनका रौब पिछले पैरों पर खड़े हुए एक हिनहिनाते घोड़े का-सा जान पड़ता था।
वे पैदायशी नेता थे क्योंकि उनके बाप भी नेता थे। उनके बाप का नाम वैद्यजी था।
अध्याय 3. आपेक्षिक घनत्व माने रिलेटिव डेंसिटी
दो बड़े और छोटे कमरों का एक डाकबँगला था जिसे डिस्ट्रिक्ट बोर्ड ने छोड़ दिया था। उसके तीन ओर कच्ची दीवारों पर छ्प्पर डालकर कुछ अस्तबल बनाये गये थे। अस्तबलों से कुछ दूरी पर पक्की ईंटों की दीवार पर टिन डालकर एक दुकान-सी खोली गयी थी। एक ओर रेलवे-फाटक के पास पायी जाने वाली एक कमरे की गुमटी थी। दूसरी ओर एक बड़े बरगद के पेड़ के नीचे एक कब्र-जैसा चबूतरा था। अस्तबलों के पास एक नये ढंग की इमारत बनी थी जिस पर लिखा था, 'सामुदायिक मिलन-केन्द्र , शिवपालगंज।' इस सबके पिछवाडे़ तीन-चार एकड़ का ऊसर पड़ा था जिसे तोड़कर उसमें चरी बोयी गयी थी। चरी कहीं-कहीं सचमुच ही उग आयी थी। हम असली भारतीय विद्यार्थी हैं;हम नहीं जानते कि बिजली क्या है, नल का पानी क्या है; पक्का फ़र्श किसको कहते हैं ; सैनिटरी फिटिंग किस चिड़िया का नाम है।
इन्हीं सब इमारतों के मिले-जुले रुप को छंगामल विद्यालय इण्टरमीजिएट कालिज, शिवपालगंज कहा जाता था। यहाँ से इण्टरमीजिएट पास करने वाले लड़के सिर्फ़ इमारत के आधार पर कह सकते थे कि हम शांतिनिकेतन से भी आगे हैं; हम असली भारतीय विद्यार्थी हैं;हम नहीं जानते कि बिजली क्या है, नल का पानी क्या है; पक्का फ़र्श किसको कहते हैं ; सैनिटरी फिटिंग किस चिड़िया का नाम है। हमने विलायती तालीम तक देशी परम्परा में पायी है और इसीलिए हमें देखो, हम आज भी उतने ही प्राकृत हैं! हमारे इतना पढ़ लेने पर भी हमारा पेशाब पेड़ के तने पर ही उतरता है , बंद कमरे में ऊपर चढ़ जाता है।
छंगामल कभी ज़िला-बोर्ड के चेयरमैन थे। एक फर्जी प्रस्ताव लिखवाकर उन्होंने बोर्ड के डाकबँगले को कालेज इस कॉलिज़ की प्रबन्ध-समिति के नाम उस समय लिख दिया था जब कॉलिज के पास प्रबन्ध-समिति को छोड़कर कुछ नहीं था। लिखने की शर्त के अनुसार कॉलिज का नाम छंगामल विद्यालय पड़ गया था।
इस देश के निवासी परम्परा से कवि हैं। चीज़ को समझने के पहले वे उस पर मुग्ध होकर कविता कहते हैं। भाखड़ा-नंगल बाँध को देखकर वे कहते हैं, "अहा! अपना चमत्कार दिखाने के लिए, देखो, प्रभु ने फिर से भारत-भूमि को ही चुना।ऑपरेशन -टेबल पर पड़ी हुई युवती को देखकर वे मतिराम-बिहारी की कविताएँ दुहराने लग सकते हैं।
विद्यालय के एक-एक टुकड़े का अलग-अलग इतिहास था। सामुदायिक मिलन -केन्द्र गाँव-सभा के नाम पर लिये गये सरकारी पैसे से बनवाया गया था। पर उसमें प्रिंसिपल का दफ्तर था और कक्षा ग्यारह और बारह की पढ़ाई होती थी। अस्तबल -जैसी इमारतें श्रमदान से बनी थीं। टिन -शेड किसी फ़ौजी छावनी के भग्नावशेषों को रातोंरात हटाकर खड़ा किया गया था। जुता हुआ ऊसर कृषि-विज्ञान की पढ़ाई के काम आता था। उसमें जगह-जगह उगी हुई ज्वार प्रिंसिपल की भैंस के काम आती थी। देश में इंजीनियरों और डॉक्टरों की कमी है। कारण यह है कि इस देश के निवासी परम्परा से कवि हैं। चीज़ को समझने के पहले वे उस पर मुग्ध होकर कविता कहते हैं। भाखड़ा-नंगल बाँध को देखकर वे कहते हैं, "अहा! अपना चमत्कार दिखाने के लिए, देखो, प्रभु ने फिर से भारत-भूमि को ही चुना।" ऑपरेशन -टेबल पर पड़ी हुई युवती को देखकर वे मतिराम-बिहारी की कविताएँ दुहराने लग सकते हैं।
भावना के इस तूफ़ान के बावजूद, और इसी तरह की दूसरी अड़चनों के बावजूद, इस देश को इंजीनियर पैदा करने हैं, शाक्टर बनाने हैं। इंजीनियर और डाक्टर तो असल में वे तब होंगे जब वे अमरीका या इंगलैण्ड जायेंगे , पर कुछ शुरुआती काम-टेक-ऑफ़ स्टेजवाला -यहाँ भी होना है। वह काम भी छंगामल विद्यालय इण्टर कॉलिज कर रहा था।
साइंस का क्लास लगा था। नवाँ दर्जा। मास्टर मोतीराम, जो एक अरह बी.एस-सी . पास थे, लड़कों को आपेक्षिक घनत्व पढ़ा रहे थे। बाहर उस छोटे-से गाँव में छोटेपन की, बतौर अनुप्रास , छटा छायी थी। सड़क पर ईख से भरी बैलगाड़ियाँ शकर मिल की ओर जा रही थीं। कुछ मरियल लड़के पीछे से ईख खींच-खींचकर भाग रहे थे। आगे बैठा हुआ गाड़ीवान खींच-खींचकर गालियाँ दे रहा था। गालियों का मौलिक महत्व आवाज़ की ऊँचाई में है, इसीलिए गालियाँ और जवाबी गालियाँ एक- दूसरे को ऊँचाई पर काट रही थीं। लड़के नाटक का मज़ा ले रहे थे, साइंस पढ़ रहे थे।
गालियों का मौलिक महत्व आवाज़ की ऊँचाई में है
एक लड़के ने कहा , "मास्टर साहब, आपेक्षिक घनत्व किसे कहते हैं ?"
वे बोले, "आपेक्षिक घनत्व माने रिलेटिव डेंसिटी।"
एक दूसरे लड़के ने कहा, "अब आप, देखिए , साइंस नहीं अंग्रेजी पढ़ा रहे हैं।"
वे बोले, "साइंस साला अंग्रेजी के बिना कैसे आ सकता है?"
लड़कों ने जवाब में हँसना शुरु कर दिया। हँसी का कारण हिन्दी -अंग्रेजी की बहस नहीं , 'साला' का मुहावरेदार प्रयोग था।
वे बोले, "यह हँसी की बात नहीं है। "
लड़कों को यक़ीन न हुआ। वे और ज़ोर से हँसे। इस पर मास्टर मोतीराम खुद उन्हीं के साथ हँसने लगे। लड़के चुप हो गये।
उन्होंने लड़कों को माफ कर दिया। बोले, "रिलेटिव डेंसिटी नहीं समझते हो तो आपेक्षिक घनत्व को यों-दूसरी तरकीब से समझो। आपेक्षिक माने किसी के मुक़ाबले का। मान लो, तुमने एक आटाचक्की खोल रखी है और तुम्हारे पड़ोस में तुम्हारे पड़ोसी ने दूसरी आटाचक्की खोल रखी है। तुम महीने में उससे पाँच सौ रुपया पैदा करते हो और तुम्हारा पड़ोसी चार सौ। तो तुम्हें उसके मुक़ाबले ज़्यादा फायदा हुआ। इसे साइंस की भाषा में कह सकते हैं कि तुम्हारा आपेक्षिक लाभ ज़्यादा है। समझ गये?"
एक लड़का बोला, "समझ तो गया मास्टर साहब , पर पूरी बात शुरु से ही ग़लत है। आटाचक्की से इस गाँव में कोई भी पाँच सौ रुपया महीना नहीं पैदा कर सकता।"
मास्टर मोतीराम ने मेज़ पर हाथ पटककर कहा , "क्यों नहीं कर सकता ! करनेवाला क्या नहीं कर सकता!"
लड़का इस बात से और बात करने की कला से प्रभावित नहीं हुआ। बोला, "कुछ नहीं कर सकता। हमारे चाचा की चक्की धकापेल चलती है, पर मुश्किल से दो सौ रुपया महीना पैदा होता है।"
"कौन है तुम्हारा चाचा?" मास्टर मोतीराम की आवाज़ जैसे पसीने से तर हो गयी। उन्होंने उस लड़के को ध्यान से देखते हुए पूछा, "तुम उस बेईमान मुन्नू के भतीजे तो नहीं हो?"
लड़के ने अपने अभिमान को छिपाने की कोशिश नहीं की। लापरवाही से बोला, "और नहीं तो क्या?"
पूरा गाँव अब उन्हें बेईमान मुन्नू कहता था। वे इस नाम को उसी सरलता से स्वीकार कर चुके थे, जैसे हमने जे.बी.कृपलानी के लिए आचार्यजी, जे.एल .नेहरु के लिए पण्डितजी या एम.के. गांधी के लिए महात्माजी बतौर नाम स्वीकार कर लिया है।
बेईमान मुन्नू बड़े ही बाइज़्ज़त आदमी थे। अंग्रेज़ों में, जिनके गुलाबों में शायद ही कोई ख़ुशबू हो, एक कहावत है: गुलाब को किसी भी नाम से पुकारो , वह वैसा ही ख़ुशबूदार बना रहेगा। वैसे ही उन्हें भी किसी भी नाम से क्यों न पुकारा जाये, बेईमान मुन्नू उसी तरह इत्मीनान से आटा-चक्की चलाते थे, पैसा कमाते थे, बाइज़्जत आदमी थे। वैसे बेईमान मुन्नू ने यह नाम ख़ुद नहीं कमाया था। यह उन्हें विरासत में मिला था। बचपन से उनके बापू उन्हें प्यार के मारे बेईमान कहते थे, माँ उन्हें प्यार के मारे मुन्नू कहती थी। पूरा गाँव अब उन्हें बेईमान मुन्नू कहता था। वे इस नाम को उसी सरलता से स्वीकार कर चुके थे, जैसे हमने जे.बी.कृपलानी के लिए आचार्यजी, जे.एल .नेहरु के लिए पण्डितजी या एम.के. गांधी के लिए महात्माजी बतौर नाम स्वीकार कर लिया है।
मास्टर मोतीराम बेईमान मुन्नू के भतीजे को थोड़ी देर तक घूरते रहे। फिर उन्होंने साँस खींचकर कहा, "जाने दो!"
उन्होंने खुली हुई किताब पर निगाह गड़ा दी। जब उन्होंने निगाह उठायी तो देखा, लड़कों की निगाहें उनकी ओर पहले से ही उठी थीं। उन्होंने कहा, "क्या बात है?"
एक लड़का बोला,"तो यही तय रहा कि आटा-चक्की से महीने में पाँच सौ रुपया नहीं पैदा किया जा सकता?"
"कौन कहता है?" मास्टर साहब बोले, "मैंने ख़ुद आटा-चक्की से सात-सात सौ रुपया तक एक महीने में खींचा है। पर बेईमान मुन्नू की वजह से सब चौपट होता जा रहा है।"
बेईमान मुन्नू के भतीजे ने शालीनता से कहा , "इसका अफ़सोस ही क्या , मास्टर साहब! यह तो व्यापार है। कभी चित, कभी पट। कम्पटीशन में ऐसा ही होता है।"
जिसे देखो मुआइना करने को चला आ रहा है---पढ़ानेवाला अकेला, मुआइना करने वाले दस- दस!
"ईमानदार और बेईमान का क्या कम्पटीशन? क्या बकते हो?" मास्टर मोतीराम ने डपटकर कहा। तब तक कॉलिज का चपरासी उनके सामने एक नोटिस लेकर खड़ा हो गया। नोटिस पढ़ते-पढ़ते उन्होंने कहा, "जिसे देखो मुआइना करने को चला आ रहा है---पढ़ानेवाला अकेला, मुआइना करने वाले दस- दस!"
एक लड़के ने कहा , "बड़ी खराब बात है !"
वे चौंककर क्लास की ओर देखने लगे। बोले , "यह कौन बोला?"
एक लड़का अपनी जगह से हाथ उठाकर बोला , "मैं मास्टर साहब! मैं पूछ रहा था कि आपेक्षिक घनत्व निकालने का क्या तरीका है !"
मास्टर मोतीराम ने कहा , "आपेक्षिक घनत्व निकालने के लिए उस चीज़ का वजन और आयतन यानी वॉल्यूम जानना चाहिए -उसके बाद आपेक्षिक घनत्व निकालने का तरीका जानना चाहिए। जहाँ तक तरीके की बात है, हर चीज के दो तरीके होते हैं। एक सही तरीका, एक गलत तरीका। सही तरीके का सही नतीजा निकलता है, ग़लत तरीके का गलत नतीजा। इसे एक उदाहरण देकर समझाना जरुरी है। मान लो तुमने एक आटा -चक्की लगायी। आटा-चक्की की बढ़िया नयी मशीन है, खूब चमाचम रखी है, जमकर ग्रीज लगायी गयी है। इंजन नया है, पट्टा नया है। सब कुछ है , पर बिजली नहीं है , तो क्या नतीजा निकलेगा ?"
पहले बोलने वाले लड़के ने कहा, "तो डीजल इंजिन का इस्तेमाल करना पड़ेगा। मुन्नू चाचा ने किया था!"
मास्टर मोतीराम बोले, "यहाँ अकेले मुन्नू चाचा ही के पास अक्ल नहीं है। इस कस्बे में सबसे पहले डीजल इंजिन कौन लाया था ? जानता है कोई?"
लड़को ने हाथ उठाकर कोरस में कहा, "आप ! आप लाये थे!" मास्टर साहब ने सन्तोष के साथ मुन्नू के भतीजे की ओर देखा और हिकारत से बोले , "सुन लिया। बेईमान मुन्नू ने तो डीजल इंजिन मेरी देखा-देखी चलाया था। पर मेरी चक्की तो यह कॉलिज खुलने से पहले से चल रही थी। मेरी ही चक्की पर कॉलिज की इमारत के लिए हर आटा पिसवानेवाले से सेर-सेर भर आटे का दान लिया गया। मेरी ही चक्की में पिसकर वह आटा शहर में बिकने के लिए गया। मेरी ही चक्की पर कॉलिज की इमारत का नक्शा बना और मैनेजर काका ने कहा कि, 'मोती, कॉलिज में तुम रहोगे तो मास्टर ही, पर असली प्रिंसीपली तुम्हीं करोगे। ' सबकुछ तो मेरी चक्की पर हुआ और अब गाँव में चक्की है तो बेईमान मुन्नू की! मेरी चक्की कोई चीज ही न हुई !"
लड़के इत्मीनान से सुनते रहे। यह बात वे पहले भी सुन चुके थे और किसी भी समय सुनने के लिए तैयार रहते थे। उन पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ा। पर मुन्नू के भतीजे ने कहा , "चीज तो मास्टर साहब आपकी भी बढ़िया है और मुन्नू चाचा की भी। पर आपकी चक्की पर धान कूटनेवाली मशीन ओवरहालिंग माँगती है। धान उसमें ज्यादा टूटता है।"
मास्टर मोतीराम ने आपसी तरीके से कहा, "ऐसी बात नहीं है। मेरे-जैसी धान की मशीन तो पूरे इलाके में नहीं है। पर बेईमान मुन्नू कुटाई-पिसाई का रेट गिराता जा रहा है। इसीलिए लोग उधर ही मुँह मारता है।"
"यह तो सभी जगह होता है," लड़के ने तर्क किया।
"सभी जगह नहीं, हिन्दुस्तान ही में ऐसा होता है। हाँ--" उन्होंने कुछ सोचकर कहा,
"तो रेट गिराकर अपना घाटा दूसरे लोग तो दूसरे लोग तो दूसरी तरह से- ग्राहकों का आटा चुराकर-पूरा कर लेते हैं। अब मास्टर मोतीराम जिस शख़्स का नाम है, वह सब कुछ कर सकता है, यही नहीं कर सकता।"
एक लड़के ने कहा , "आपेक्षिक घनत्व निकालने का तरीका क्या निकला ?"
वे जल्दी से बोले , "वही तो बता रहा था।"
उनकी निगाह खिड़की के पास, सड़क पर ईख की गाड़ियों से तीन फीट ऊपर जाकर, उससे भी आगे क्षितिज पर अटक गयी। कुछ साल पहले के चिरन्तन भावाविष्ट पोजवाले कवियों की तरह वे कहते रहे , "मशीन तो पूरे इलाके में वह एक थी; लोहे की थी, पर शीशे-जैसी झलक दिखाती थी--?"
अचानक उन्होंने दर्जे की ओर सीधे देखकर कहा , "तुमने क्या पूछा था ?"
लड़के ने अपना सवाल दोहराया, पर उसके पहले ही उनका ध्यान दूसरी ओर चला गया था। लड़कों ने भी कान उठाकर सुना, बाहर ईख चुरानेवालों और ईख बचानेवालों की गालियों के ऊपर, चपरासी के ऊपर पड़नेवाली प्रिंसिपल की फटकार के ऊपर- म्यूजिक-क्लास से उठनेवाली हारमोनियम की म्याँव-म्याँव के ऊपर-अचानक ' भक-भक-भक' की आवाज होने लगी थी। मास्टर मोतीराम की चक्की चल रही थी।
यह उसी की आवाज थी। यही असली आवाज थी। अन्न-वस्त्र की कमी की चीख पुकार , दंगे-फसाद के चीत्कार , इन सबके तर्क के ऊपर सच्चा नेता जैसे सिर्फ़ आत्मा की आवाज सुनता है, और कुछ नहीं सुन पाता ; वही मास्टर मोतीराम के साथ हुआ। उन्होंने और कुछ नहीं सुना। सिर्फ़ 'भक-भक-भक ' सुना।
वे दर्जे से भागे।
लड़कों ने कहा, " क्या हुआ मास्टर साहब? अभी घण्टा नहीं बजा है।"
वे बोले, " लगता है , मशीन ठीक हो गयी। देखें, कैसी चलती है। "
वे दरवाजे तक गये , फिर अचानक वहीं से घूम पड़े। चेहरे पर दर्द-जैसा फैल गया था, जैसे किसी ने ज़ोर से चुटकी काटी हो। वे बोले, " किताब में पढ़ लेना। आपेक्षिक घनत्व का अध्याय जरुरी है।" उन्होंने लार घूँटी। रुककर कहा , "इम्पार्टेंट है।" कहते ही उनका चेहरा फिर खिल गया।
भक ! भक! भक! कर्तव्य बाहर के जटिल कर्मक्षेत्र में उनका आह्वान कर रहा था। लड़कों और किताबों का मोह उन्हें रोक न सका। वे चले गये।
दिन के चार बजे प्रिंसिपल साहब अपने कमरे से बाहर निकले। दुबला-पतला जिस्म, उसके कुछ अंश ख़ाकी हाफ़ पैंट और कमीज़ से ढके थे। पुलिस सार्जेंटोंवाला बेंत बगल में दबा था। पैर में सैंडिल। कुल मिलाकर काफी चुस्त और चालाक दिखते हुए; और जितने थे, उससे ज़्यादा अपने को चुस्त और चालाक समझते हुए।
उनके पीछे-पीछे हमेशा की तरह, कॉलिज का क्लर्क चल रहा था। प्रिंसिपल साहब की उससे गहरी दोस्ती थी।
वे दोनों मास्टर मोतीराम के दर्जे के पास से निकले। दर्जा अस्तबलनुमा इमारत में लगा था। दूर ही से दिख गया कि उसमें कोई मास्टर नहीं है। एक लड़का नीचे से जाँघ तक फटा हुआ पायजामा पहने मास्टर की मेज पर बैठा रो रहा था। प्रिंसिपल को पास से गुजरता देख और ज़ोर से रोने लगा। उन्होंने पूछा , " क्या बात है? मास्टर साहब कहाँ गये हैं?"
वह लड़का अब खड़ा होकर रोने लगा। एक दूसरे लड़के ने कहा , " यह मास्टर मोतीराम का क्लास है।"
फिर प्रिंसिपल को बताने की जरुरत नहीं पड़ी कि मास्टर साहब कहाँ गये। क्लर्क ने कहा , "सिकण्डहैण्ड मशीन चौबीस घण्टे निगरानी माँगती है। कितनी बार मास्टर मोतीराम से कहा कि बेच दो इस आटाचक्की को, पर कुछ समझते ही नहीं हैं। मैं खुद एक बार डेढ़ हजार रुपया देने को तैयार था।"
प्रिंसिपल साहब ने क्लर्क से कहा, "छोड़ो इस बात को! उधर के दर्जे से मालवीय को बुला लाओ।"
क्लर्क ने एक लड़के से कहा, " जाओ, उधर के दर्जे से मालवीय को बुला लाओ। "
थोड़ी देर में एक भला-सा दिखनेवाला नौजवान आता हुआ नजर आया। प्रिंसिपल साहब ने उसे दूर से देखते ही चिल्लाकर कहा, "भाई मालवीय, यह क्लास भी देख लेना।"
मालवीय नजदीक आकर छप्पर का एक बाँस पकड़कर खड़ा हो गया और बोला, " एक ही पीरियड में दो क्लास कैसे ले सकूँगा?"
रोनेवाला लड़का रो रहा था। क्लास के पीछे कुछ लड़के जोर-जोर से हँस रहे थे।
बाकी इन लोगों के पास कुछ इस तरह भीड़ की शक्ल में खड़े हो गये थे जैसे चौराहे पर ऐक्सिडेंट हो गया हो।
प्रिंसिपल साहब ने आवाज तेज करके कहा, " ज्यादा कानून न छाँटो। जब से तुम खन्ना के साथ उठने-बैठने लगे हो, तुम्हें हर काम में दिक्कत मालूम होती है।"
मालवीय प्रिंसिपल साहब का मुँह देखता रह गया। क्लर्क ने कहा, "सरकारी बसवाला हिसाब लगाओ मालवीय। एक बस बिगड़ जाती है तो सब सवारियाँ पीछे आनेवाली दूसरी बस में बैठा दी जाती हैं। इन लड़कों को भी वैसे ही अपने दर्जे में ले जाकर बैठा लो। "
उसने बहुत मीठी आवाज में कहा, "पर यह तो नवाँ दर्जा है। मैं वहाँ सातवें को पढ़ा रहा हूँ। "
हमका अब प्रिंसिपली करै न सिखाव भैया। जौनु हुकुम है, तौनु चुप्पे कैरी आउट करौ। समझ्यो कि नाहीं
प्रिंसिपल साहब की गरदन मुड़ गयी। समझनेवाले समझ गये कि अब उनके हाथ हाफ़ पैंट की जेबों में चले जायेंगे और वे चीखेंगे। वही हुआ। वे बोले, "मैं सब समझता हूँ। तुम भी खन्ना की तरह बहस करने लगे हो। मैं सातवें और नवें का फर्क समझता हूँ। हमका अब प्रिंसिपली करै न सिखाव भैया। जौनु हुकुम है, तौनु चुप्पे कैरी आउट करौ। समझ्यो कि नाहीं?"
प्रिंसिपल साहब पास के ही गाँव के रहने वाले थे। दूर-दूर के इलाकों में वे अपने दो गुणों के लिए विख्यात थे। एक तो खर्च का फर्जी नक्शा बनाकर कॉलिज के लिए ज्यादा-से- ज्यादा सरकारी पैसा खींचने के लिए, दूसरे गुस्से की चरम दशा में स्थानीय अवधी बोली का इस्तेमाल करने के लिए। जब वे फर्जी नक्शा बनाते थे तो बड़ा-से-बड़ा ऑडीटर भी उसमें कलम न लगा सकता था; जब वे अवधी बोलने लगते थे तो बड़ा-से -बड़ा तर्कशास्त्री भी उनकी बात का जवाब न दे सकता था।
जब वे फर्जी नक्शा बनाते थे तो बड़ा-से-बड़ा ऑडीटर भी उसमें कलम न लगा सकता था; जब वे अवधी बोलने लगते थे तो बड़ा-से -बड़ा तर्कशास्त्री भी उनकी बात का जवाब न दे सकता था।
मालवीय सिर झुकाकर वापस चला गया। प्रिंसिपल साहब ने फटे पायजामेवाले लड़के की पीठ पर एक बेंत झाड़कर कहा , "जाओ। उसी दर्जे में जाकर सब लोग चुपचाप बैठो। जरा भी साँस ली तो खाल खींच लूँगा।"
लड़कों के चले जाने पर क्लर्क ने मुस्कराकर कहा, "चलिए, अब खन्ना मास्टर का भी नज़ारा देख लें।"
खन्ना मास्टर का असली नाम खन्ना था। वैसे ही, जैसे तिलक, पटेल , गाँधी, नेहरु-आदि हमारे यहाँ जाति के नहीं, बल्कि व्यक्ति के नाम हैं। इस देश में जाति-प्रथा को खत्म करने की यही एक सीधी-सी तरकीब है। जाति से उसका नाम छीनकर उसे किसी आदमी का नाम बना देने से जाति के पास और कुछ नहीं रह जाता। वह अपने -आप ख़त्म हो जाती है।
इस देश में जाति-प्रथा को खत्म करने की यही एक सीधी-सी तरकीब है। जाति से उसका नाम छीनकर उसे किसी आदमी का नाम बना देने से जाति के पास और कुछ नहीं रह जाता। वह अपने -आप ख़त्म हो जाती है।
खन्ना मास्टर इतिहास के लेक्चरार थे, पर इस वक्त इण्टरमीजिएट के दर्जे में अंग्रेजी पड़ा रहे थे। वे दाँत पीसकर कह रहे थे , " हिन्दी में तो बड़ी -बड़ी प्रेम-कहानियाँ लिखा करते हो पर अंग्रेजी में कोई जवाब देते हुए मुँह घोडे़-जैसा लटक जाता है।"
एक लड़का दर्जे में सिर लटकाये खड़ा था। वैसे तो घी-दूध की कमी और खेल -कूद की तंगी से हर औसत विद्यार्थी मरियल घोड़े-जैसा दिखता है, पर इस लड़के के मुँह की बनावट कुछ ऐसी थी कि बात इसी पर चिपककर रह गयी थी। दर्जे के लड़के जोर से हँसे। खन्ना मास्टर ने अंग्रेजी में पूछा, "बोलो, 'मेटाफर' का क्या अर्थ है?"
लड़का वैसे ही खड़ा रहा। कुछ दिन पहले इस देश में शोर मचा था कि अपढ़ आदमी बिना सींग-पूँछ का जानवर होता है। उस हल्ले में अपढ़ आदमियों के बहुत से लड़कों ने देहात में हल और कुदालें छोड़ दीं और स्कूलों पर हमला बोल दिया। हज़ारों की तादाद में आये हुए ये लड़के स्कूलों, कॉलिजों, यूनिवर्सिटियों को बुरी तरह से घेरे हुए थे। शिक्षा के मैदान में भभ्भड़ मचा हुआ था। अब कोई यह प्रचार करता हुआ नहीं दीख पड़ता था कि अपढ़ आदमी जानवर की तरह है। बल्कि दबी जबान में यह कहा जाने लगा था कि ऊँची तालीम उन्हीं को लेना चाहिए जो उसके लायक हों, इसके लिए 'स्क्रीनिंग ' होना चाहिए। इस तरह घुमा-फिराकर इन देहाती लड़कों को फिर से हल की मूठ पकड़ाकर खेत में छोड़ देने की राय दी जा रही थी। पर हर साल फेल होकर , दर्जे में सब तरह की डाँट-फटकार झेलकर और खेती की महिमा पर नेताओं के निर्झरपंथी व्याख्यान सुनकर भी वे लड़के हल और कुदाल की दुनिया में वापस जाने को तैयार न थे। वे कनखजूरे की तरह स्कूल से चिपके हुए थे और किसी भी कीमत पर उससे चिपके रहना चाहते थे।
घोड़े के मुँहवाला यह लड़का भी इसी भीड़ का एक अंग था ; दर्जे में उसे घुमा -फिराकर रोज-रोज बताया जाता कि जाओ बेटा, जाकर अपनी भैंस दुहो और बैलों की पूँछ उमेठो; शेली और कीट्स तुम्हारे लिए नहीं हैं। पर बेटा अपने बाप से कई शताब्दी आगे निकल चुका था और इन इशारों को समझने के लिए तैयार नहीं था। उसका बाप आज भी अपने बैलों के लिए बारहवीं शताब्दी में प्रचलित गँडासे से चारा काटता था। उस वक्त लड़का एक मटमैली किताब में अपना घोड़े- सा मुँह छिपाकर बीसवीं शताब्दी के कलकत्ते की रंगीन रातों पर गौर करता रहता था। इस हालत में वह कोई परिवर्तन झेलने को तैयार न था। इसलिए वह मेटाफर का मतलब नहीं बता सकता था और न अपने मुँह की बनावट पर बहस करना चाहता था।
कॉलिज के हर औसत विद्यार्थी की तरह यह लड़का भी पोशाक के मामले में बेतकल्लुफ था। इस वक्त वह नंगे पाँव, एक ऐसे धारीदार कपड़े का मैला पायजामा पहने हुए खड़ा था जिसे शहरवाले प्रायः स्लीपिंग सूट के लिए इस्तेमाल करते हैं। वह गहरे कत्थई रंग की मोटी कमीज़ पहने था, जिसके बटन टूटे थे। सिर पर रुखे और कड़े बाल थे। चेहरा बिना धुला हुआ और आँखें गिचपिची थीं। देखते ही लगता था, वह किसी प्रोपेगैंडा के चक्कर में फँसकर कॉलिज की ओर भाग आया है।
लड़के ने पिछले साल किसी सस्ती पत्रिका से एक प्रेम-कथा नकल करके अपने नाम से कॉलिज की पत्रिका में छाप दी थी। खन्ना मास्टर उसकी इसी ख़्याति पर कीचड़ उछाल रहे थे। उन्होंने आवाज बदलकर कहा, " कहानीकार जी, कुछ बोलिए तो, मेटाफर क्या चीज होती है?"
लड़के ने अपनी जाँघें खुजलानी शुरु कर दीं। मुँह को कई बार टेढ़ा-मेढ़ा करके वह आखिर में बोला , "जैसे महादेवीजी की कविता में वेदना का मेटाफर आता है----। "
खन्ना मास्टर ने कड़ककर कहा, "शट-अप! यह अंग्रेजी का क्लास है।" लड़के ने जाँघें खुजलानी बन्द कर दीं। वे ख़ाकी पतलून और नीले रंग की बुश्शर्ट पहने थे और आँखों पर सिर्फ चुस्त दिखने के लिए काला चश्मा लगाये थे।
वे ख़ाकी पतलून और नीले रंग की बुश्शर्ट पहने थे और आँखों पर सिर्फ चुस्त दिखने के लिए काला चश्मा लगाये थे। कुर्सी के पास से निकलकर वे मेज के आगे आ गये। अपने कूल्हे का एक संक्षिप्त भाग उन्होंने मेज से टिका लिया। लड़के को वे कुछ और कहने जा रहे थे , तभी उन्होंने क्लास के पिछले दरवाजे पर प्रिंसिपल साहब को घूरते पाया। उन्हें बरामदे में खड़े हुए क्लर्क का कन्धा-भर दीख पड़ा।
वे मेज़ का सहारा छोड़कर सीधे खड़े हो गये और बोले, "जी , शेली की एक कविता पढ़ा रहा था। "
प्रिंसिपल ने एक शब्द पर दूसरा शब्द पर दूसरा शब्द लुढ़काते हुए तेज़ी से कहा, " पर आपकी बात सुन कौन रहा है? ये लोग तो तस्वीरें देख रहे हैं।"
वे कमरे के अन्दर आ गये। बारी-बारी से दो लड़कों की पीठ में उन्होंने अपना बेंत चुभोया। वे उठकर खड़े हो गये। एक गन्दे पायजामे, बुश्शर्ट और तेल बहाते हुए बालोंवाला चीकटदार लड़का था; दूसरा घुटे सिर , कमीज और अण्डरवियर पहने हुए पहलवानी धज का। प्रिंसिपल साहब ने उनसे कहा, "यही पढ़ाया जा रहा है?"
झुककर उन्होंने पहले लड़के की कुर्सी से एक पत्रिका उठा ली। यह सिनेमा का साहित्य था। एक पन्ना खोलकर उन्होंने हवा में घुमाया। लड़कों ने देखा, किसी विलायती औरत के उरोज तस्वीर में फड़फड़ा रहे हैं। उन्होंने पत्रिका जमीन पर फेंक दी और चीखकर अवधी में बोले, "यहै पढ़ि रहे हौ?"
कमरे में सन्नाटा छा गया। 'महादेवी की वेदना ' का प्रेमी मौका ताककर चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गया। प्रिंसिपल साहब ने क्लास के एक छोर से दूसरे छोर पर खड़े हुए खन्ना मास्टर को ललकारकर कहा, " आपके दर्जे में डिसिप्लिन की यह हालत है! लड़के सिनेमा की पत्रिकाएँ पढ़ते हैं! और आप इसी बूते पर जोर डलवा रहे हैं कि आपको वाइस प्रिंसिपल बना दिया जाये! इसी तमीज से वाइस प्रिंसिपली कीजियेगा! भइया, यहै हालु रही तौ वाइस प्रिंसिपली तो अपने घर रही, पारसाल की जुलाई माँ डगर-डगर घूम्यौ।"
कहते -कहते अवधी के महाकवि गोस्वामी तुलसीदास की आत्मा उनके शरीर में एक ओर से घुसकर दूसरी ओर से निकल गयी। वे फिर खड़ी बोली पर आ गये, "पढ़ाई-लिखाई में क्या रखा है! असली बात है डिसिप्लिन ! समझे, मास्टर साहब?"
यह कहकर प्रिंसिपल उमर खैयाम के हीरो की तरह, "मै पानी-जैसा आया था औ' आँधी-जैसा जाता हूँ " की अदा से चल दिये। पीठ-पीछे उन्हें खन्ना मास्टर की भुनभुनाहट सुनायी दी।
वे कॉलिज के फाटक से बाहर निकले। सड़क पर पतलून-कमीज पहने हुए एक आदमी आता हुआ दीख पड़ा। साइकिल पर था। पास से जाते-जाते उसने प्रिंसिपल साहब को और प्रिंसिपल साहब ने उसे सलाम किया। उसके निकल जाने पर क्लर्क ने पूछा, "यह कौन चिडीमार है?"
"मलेरिया-इंसपेक्टर है--नया आया है। बी.डी. ओ. का भांजा लगता है। बड़ा फितरती है। मैं कुछ बोलता नहीं। सोचता हूँ, कभी काम आयेगा। कभी काम आयेगा।"
आजकल ऐसे ही चिड़ीमारों से काम बनता है। कोई शरीफ आदमी तो कुछ करके देता ही नहीं।
क्लर्क ने कहा, "आजकल ऐसे ही चिड़ीमारों से काम बनता है। कोई शरीफ आदमी तो कुछ करके देता ही नहीं। "
थोड़ी देर तक दोनों चुपचाप सड़क पर चलते रहे। प्रिंसिपल ने अपनी बात फिर से शुरु की, "हर आदमी से मेल-जोल रखना ज़रुरी है। इस कॉलिज के पीछे गधे तक को बाप कहना पड़ता है।"
क्लर्क ने कहा, "सो तो देख रहा हूँ। दिन-भर आपको यही करते बीतता है।"
वे बोले, "बताइए, मुझसे पहले भी यहाँ पाँच प्रिंसिपल रह चुके हैं। कौनो बनवाय पावा इत्ती बड़ी पक्की इमारत ?" वे प्रकृतिस्थ हुए, " यहाँ सामुदायिक केन्द्र बनवाना मेरा ही बूता था। है कि नहीं?"
क्लर्क ने सर हिलाकर 'हाँ' कहा।
थोड़ी देर में वे चिन्तापूर्वक बोले, "मैं फिर इसी टिप्पस में हूँ कि कोई चण्डूल फँसे तो इमारत के एकाध ब्लाक और बनवा डाले जायें।"
क्लर्क चुपचाप साथ-साथ चलता रहा। अचानक ठिठककर खड़ा हो गया। प्रिंसिपल साहब भी रुक गये। क्लर्क बोला, "दो इमारतें बननेवाली हैं। "
प्रिंसिपल ने उत्साह से गर्दन उठाकर कहा, "कहाँ ?"
"एक तो अछूतों के लिए चमड़ा कमाने की इमारत बनेगी। घोड़ा- डॉक्टर बता रहा था। दूसरे, अस्पताल के लिए हैज़े का वार्ड बनेगा। वहाँ ज़मीन की कमी है। कॉलिज ही के आसपास टिप्पस से ये इमारतें बनवा लें--फिर धीरे- से हथिया लेंगे।"
प्रिंसिपल साहब निराशा से साँस छिड़कर आगे चल पड़े। कहने लगे, "मुझे पहले ही मालूम था। इनमें टिप्पस नहीं बैठेगा।"
कुछ देर दोनों चुपचाप चलते रहे।
सड़क के किनारे एक आदमी दो-चार मज़दूरों को इकट्ठा करके उन पर बिगड़ रहा था। प्रिंसिपल साहब उनके पास खड़े हो गये। दो-चार मिनट उन्होंने समझने की कोशिश की कि वह आदमी क्यों बिगड़ रहा है। मज़दूर गिड़गिड़ा रहे थे। प्रिंसिपल ने समझ लिया कि कोई ख़ास बात नहीं है, मजदूर और ठेकेदार सिर्फ अपने रोज -रोज के तरीकों का प्रदर्शन कर रहे हैं और बातचीत में ज़िच पैदा हो गयी है। उन्होंने आगे बढ़कर मजदूरों से कहा, " जाओ रे, अपना-अपना काम करो। ठेकेदार साहब से धोखाधड़ी की तो जूता पड़ेगा।"
मजदूरों ने प्रिंसिपल साहब की ओर कृतज्ञता से देखा। फुरसत पाकर वे अपने-अपने काम में लग गये। ठेकेदार ने प्रिंसिपल से आत्मीयता के साथ कहा, " सब बेईमान हैं। जरा-सी आँख लग जाये तो कान का मैल तक निकाल ले जायें। ड्योढ़ी मजदूरी माँगते हैं और काम का नाम सुनकर काँखने लगते हैं। "
प्रिंसिपल साहब ने कहा , " सब तरफ यही हाल है। हमारे यहाँ ही लीजिए--कोई मास्टर पढ़ाना थोड़े ही चाहता है? पीछे पड़ा रहता हूँ तब कहीं---!"
वह आदमी ठठाकर हँसा। बोला, "मुझे क्या बताते हैं? यही करता रहता हूँ। सब जानता हूँ।" रुककर उसने पूछा , "इधर कहाँ जा रहे थे?"
इसका जवाब क्लर्क ने दिया, " वैद्यजी के यहाँ। चेकों पर दस्तखत करना है।"
"करा लाइए।" उसने प्रिंसिपल को खिसकने का इशारा दिया। जब वे चल दिये तो उसने पूछा, "और क्या हाल-चाल है?"
प्रिंसिपल रुक गये। बोले , "ठीक ही है। वही खन्ना-वन्ना लिबिर- सिबिर कर रहे हैं , आप लोगों के और मेरे खिलाफ प्रोपेगैंडा करते घूम रहे हैं।"
उसने जोर से कहा , " आप फिक्र न कीजिए। ठाठ से प्रिंसिपली किये जाइए। उनको बता दीजिए कि प्रोपेगैंडा का जवाब है डण्डा। कह दीजिए कि यह शिवपालगंज है, ऊँचा-नीचा देखकर चलें।"
प्रिंसिपल साहब अब आगे बढ़ गये तो क्लर्क बोला, " ठेकेदार साहब को भी कॉलिज-कमेटी का मेम्बर बनवा लीजिए। काम आयेंगे।"
प्रिंसिपल साहब सोचते रहे। क्लर्क ने कहा, " चार साल पहले की तारीख में संरक्षकवाली रसीद काट देंगे। प्रबन्धक कमेटी में भी इनका होना जरुरी है। तब ठीक रहेगा।"
प्रिंसिपल साहब ने तत्काल कोई जवाब नहीं दिया। कुछ रुककर बोले, "वैद्यजी से बात की जायेगी। ये ऊँची पालिटिक्स की बातें हैं। हमारे -तुम्हारे कहने से क्या होगा?"
एक दूसरा आदमी साइकिल पर जाता हुआ दिखा। उसे उतरने का इशारा करके प्रिंसिपल साहब ने कहा, " नन्दापुर में चेचक फैल रही है और आप यहाँ झोला दबाये हुए शायरी कर रहे हैं?"
उसने हाथ जोड़कर पूछा , " कब से? मुझे तो कोई इत्तिला नहीं है।"
जिसकी दुम में अफसर जुड़ गया , समझ लो, अपने को अफलातून समझने लगा।
प्रिंसिपल साहब ने भौंहें टेढ़ी करके कहा, "तुम्हें शहर से फुरसत मिले तब तो इत्तिला हो। चुपचाप वहाँ जाकर टीके लगा आओ, नहीं तो शिकायत हो जायेगी। कान पकड़कर निकाल दिये जाओगे। यह टेरिलीन की बुश्शर्ट रखी रह जायेगी।"
वह आदमी घिघियाता हुआ आगे बढ़ गया। प्रिंसिपल साहब क्लर्क से बोले' "ये यहाँ पब्लिक हेल्थ के ए.डी .ओ. हैं। जिसकी दुम में अफसर जुड़ गया , समझ लो, अपने को अफलातून समझने लगा।"
"ये भी न जाने अपने को क्या लगाते हैं! राह से निकल जाते हैं, पहचानते तक नहीं।"
"मैंने भी सोचा, बेटा को झाड़ दिया दिया जाये।"
क्लर्क ने कहा, "मैं जानता हूँ। यह भी एक ही चिड़ीमार है। "