धर्म-संकट (कहानी) : रांगेय राघव

Dharm-Sankat (Hindi Story) : Rangeya Raghav

एक छोटी-सी जगह के पीछे दिन-रात झगड़ा बना रहता। सामने एक बड़ा शीशा लगा था जिसमें शक्ल जब हिलती हुई दिखाई देती तो देखनेवालों को अपनी सूरत के बारे में जितने विचार होते, वे सब मुगालते में बदलते हुए नजर आते।
उसे वे लोग दुकान कहते, इसलिए एक बड़ा लाल पत्थर बिछा रहता जिस पर पान लगे हुए बीडे-रखे रहते और लकड़ी के खानों में खाली सिगरेट के पैकेट ऐसे जमे रहते, जैसे वे सब भरे हुए थे। इनके अतिरिक्त कुछ बीड़ियों के बंडल झलका करते।
एक जमाना था जब बड़ी दुकान बाजार में ठाठ से खुलती थी। उसके रहते जब मुहल्ले में भगत का रतजगा हुआ, हरदेव सदा चांदी की पाड़ के निकट बैठा करता।
पर अब सब कहां था? वह एक सपना था जो अचानक ही मिला था और अचानक ही खो गया। शराब के नशे ने जब अपने जहरीले पंजों का फैलाव समेट लिया और दिमाग को खाने लगा, तब आंख खुली। देखा, सब लुट चुका था।
बाप की दुनिया संकुचित थी। वह अब करीब पचास साल का था। दो-एक शायद ऊपर ही होगा। उसका मुख गंभीर था। जिसे देखकर भिखारी सहज ही उससे भीख मांगने की हिम्मत नहीं कर सकता था। वह अधिकांश चुप रहता। उसके गालों पर एक खुरदुरापन था और सिर के छोटे-छोटे बाल उसकी गंभीरता को अधिक बढ़ाते। कभी-कभी जब वह हंसता तो उसमें एक बड़प्पन होता। धोती और कुर्ता पहनकर जब वह खड़ा होता, उसके कंधे तनिक आगे को झुके हुए दिखाई देते। जब दुकान पर कोई चीज नहीं होती और ग्राहक उसकी मांग करता, वह ग्राहक की ओर देखे बिना
ऐसे मना करता कि ग्राहक फिर दूसरी बार उसके यहां कभी नहीं आता और लड़का दूसरी तबीयत का आदमी था- हंसमुख, मस्त-सा दिखनेवाला। शक्ल में बेटा बाप से मिलता-जुलता था। जैसे पहले मोम में बाप का सांचा लेकर फिर उसमें ढाल दिया गया हो। उसके दांत जरूर कुछ बड़े थे। सुती हुई देह थी। और जब वह शाम को थका-मांदा भांग पीकर बैठता और जोर-जोर से आवाजें लगाता हुआ हंसता, तब उसकी अधखुली नशीली आंखों में जिंदगी की रोशनी चमकती हुई दिखाई देती। उस समय वह बहुत प्यारा दिखाई देता। उसके कपड़े अजीब होते। नंगे बदन से लेकर कुर्ता, फतूही, मिर्जई, बास्कट, कोट, सब ही उसके ऊपर फबते दिखाई देते और ऐसे अदलते-बदलते रहते जैसे जमीन पर अलग-अलग ऋतु में अलग फल निकलते हैं।
लेकिन बेबात की बात में दोनों में झड़प हो जाती और वे दोनों नाखुश होकर एक दूसरे को गालियां देते।
इन दोनों के बीच का प्राणी एक स्त्री थी। वह एक की पत्नी थी, दूसरे की मां अर्थात हरदेव की स्त्री और भगवानदास की माता। वह दोनों के झगड़े में मध्यस्थ बनती। पिता और पुत्र में वही भेद था जो शराब और भांग में होता है। शराब में दिमाग घूमता है। उसका नशा शोर करवाता है। दंगा मचवाता है किंतु भंग में तरंग होती है। दिमाग ऊपर उठता है और आदमी बोंदा हो जाता है।
अक्सर वह इन दोनों के झगड़ों से तंग आकर कहती, "अब नहीं रहूगी मैं यहां! मैं तो अपनी बेटी को लेकर अपने भैया के घर चली जाऊंगी। एक दिन की हो तो कोई बात है। यह तो रोज-रोज की बजती ढोल है। कोई कहां तक संभाले! जब हिए में समुवाई नहीं रही तब क्या फायदा।"
किंतु कोई परिणाम न निकला। हरदेव बड़बड़ाता रहा, वह कभी उसे रोकती, कभी उसके अदब में चुप रहती और भगवानदास बगावत करता रहा, उसकी आवाज उठती रही। न उसने अपनी बहू की सुनी, न बहिन की, न मां ही बेटी को लेकर भैया के घर चली।
शाम होते ही दुकान पर दोनों में तनातनी शुरू हो जाती। दोनों अपने को ज्यादा परिश्रमी साबित करते। एक दूसरे पर अपनी थकान का प्रदर्शन करते। शिकवा होता कि एक दूसरे की यही कोशिश है कि बस दूसरा कोल्हू में बैल की तरह जुता करे, टूटा करे।
रात होते-होते दोनों आपस में जोर-जोर से बातें करने लगते। हरदेव शीघ्र ही गर्म हो उठता। उसे पड़ोस के मुंशीजी जिस दिन देशी अद्धा पिला देते, उस दिन वह शहंशाह हो जाता। बेटा भांग से आगे न बढ़ता। दोनों एक दूसरे को नशेबाज समझते।
और जब भगवानदास क्रुद्ध हो उठा, उसने चिल्लाकर एक दिन सुना-सुनाकर कहा, "शराब पिलाने को मेरे पास पैसे नहीं हैं, न ही कोई कमा-कमाके रख गया है मेरे पास।"
मां ने सुना और पूछा, "वह तेरा कौन है?"
भगवानदास चुप रहा। वह जानता है, पर आज उसकी आत्मा स्वीकार नहीं करना चाहती। मां उसकी दुविधा को समझ गई। उसने स्नेह से उसकी पीठ पर हाथ रखकर कहा, "क्यों ऐसे कुबोल कहता है बेटा! घर की शांति आपस में मिलकर रहने में मिलती है। यों नहीं होता कुछ। आखिर है तो तेरा बाप ही न!"
मां का तर्क कुछ ठोस था। आवेश पर धैर्य ने विजय पा ली थी। और तब भगवानदास ने पराजित स्वर में कहा, "होगा कोई। जब अपने की चिंता ही नहीं की तो कौन किसका है अम्मां!"
"ऐसे नहीं कहते, बेटा! जो भाग का है मिल बांटकर खा लो। झगड़ने से सब नीचे ही फैलता है….।"
"पड़ोसी की कौन रखवाली करता है अम्मां!" भगवानदास अचानक की कह उठा। उसके स्वर में कोई आत्मीयता नहीं थी। मानो भगवानदास बहुत आगे बढ़ आया था।
मां को दु:ख हुआ। वह यह सुनना न चाहती थी। जैसे आज उसका हृदय दो टूक हो जाएगा। यह वह क्या सुन रही है! घर की पुरानी दीवार आज उसके देखते-देखते चटक रही है। मन में संशय का विष सबसे बुरा है। रात को वह पड़ी-पड़ी सोचती रही।
एक ओर मरद है, दूसरी तरफ बेटा। वह किधर जाए! कब तक यह तनातनी बनी रहेगी। एक दिन तो लेज को टूटना ही पड़ेगा। अब भगवानदास और उसका बाप दोनों उसकी आंखों के सामने आने लगे। एक बालक, जिसे वह दूध पिला रही है, वह बच्चा जिस पर उसका पूरा अधिकार था, जिसे उसने आदमी बनाया है। एक वह सदैव ही पुरुष था, सशक्त था, उसे लगा, हरदेव के सामने भगवानदास एक बच्चा था, उसके सामने वह बहुत कमजोर था।
उस समय दुकान में भगवानदास जागकर उठ बैठा। उसने एक अंगड़ाई ली और दो बार अपनी झुंझलाहट मिटाने को बमभोले का नारा लगाया, जो नीम के पत्तों में जाकर लटका, फिर उड़ गया।
गांववाले हुशियार हो गए हैं। शहर के लोगों को देखकर हंसते हैं। पांच के माल की कीमत पच्चीस रुपए बताते हैं। सीधा देखा तो साफ बना दिया। ककड़ी लेने तभी भगवानदास अलस्सुबह, बल्कि दो बजे रात को रात ही कहना चाहिए, सिर पर खाली डलिया रखकर चल देता है। जब लौटता है तब आसमान में सफेदी फैलने लगती है। उसके शोर से दुकान में एक जगार सी आ गई।
हरदेव ने देखा। उस वक्त उसका सिर भारी था। अभी नशा उतरा नहीं था। खुमारी का कसैलापन उसके मन को अब एक बुरा-बुरा-सा खट्टापन दे रहा था। भगवानदास चला गया। क्या सो पाया! सो पाया! कुछ नहीं। नहीं। अब दिन-भर फल-ककड़ी बेचेगा, लू में, धूल में, पर हरदेव को इसकी एक भी बात याद नहीं आई। वह सोच रहा था- दिनभर के बाद अब जरा पलक लगी थी। उजडु ने हाहा-हूहू करके जगा दिया। आया बड़ा भगत का…
जब हरदेव उठा तो उसके पांव टूट रहे थे। धूप चढ़ने लगी थी। उसने दुकान खोल दी और अपने नित्य कर्म में लग गया। भगवानदास दस बजे के करीब डलिया लेकर घर आया, इसी मुहल्ले में ककड़ी बेच रहा था। सो, डलिया धरकर रोटी खाने बैठ गया। मां खिलाती रही।
हरदेव धूप की कड़ी गर्मी से अब कुछ खुश्की महसूस करने लगा था। दिन में जब उसने देखा कि अभी तक भगवानदास की अम्मां ने रोटी नहीं भेजी और वह वहां उपेक्षित भुलाया हुआ सा बैठा है, तब उसे एक कमी अनुभव हुई और आत्महीनता की तीव्रता पर वह झल्ला उठा। उसने सोचा क्यों मैं इनके हाथ पर निर्भर रहूं। क्यों न अलग यहीं दो रोटी थाप लूं!
किंतु यह विचार अधिक देर तक नहीं चला। उसकी पत्नी ने लाकर कटोरदान सामने रख दिया।
"ले जाओ," हरदेव ने गंभीरता से कहा, "मैं नहीं खाऊंगा, ले जाओ।" उसकी आवाज में एक हठ था। स्त्री मुस्कुराई। उसने परिस्थिति को समझा। कहने लगी, "तुम्हारा ही बेटा है। एक दिन तो झक्क दुपहरी में उसे आने का संयोग हुआ, उसी दिन तुम बैठे गुस्सा हो रहे हो। बाल बच्चों का पहला हक है कि हमारा तुम्हारा? भली कही। नहीं खाऊंगा। ले जाओ। खेल है सो? वह कोई खेलता है कि आवारागर्दी में घूमता है? न सोता है, न बैठता है, दिन भर तुम्हारी ही खातिर में लगा रहता है, आखिर उसकी तो बहन है…।"
हरदेव सुनता रहा, सुनता रहा। अब वह टूटा, "ले जा सब, मुझे तू याद मत दिलाया कर …।"
परंतु स्त्री उसे जानती थी। कटोरदान खोल दिया। पकी पकाई दिखाई देने लगी। स्त्री का यह पेट पर चलनेवाला हथियार उसके आंसू इत्यादि हथियारों से कहीं ज्यादा आसानी से कारगर होता है।
हरदेव पिघला। रोटी का कौर तोड़कर कहा, "मैं नहीं कहता कुछ। पर तू तो उसे ही शह देती है। मेरी बात सुनता है वह? इस कान से सुनी उससे उड़ा दी, जैसे बात नहीं हुई मक्खी हो गई। अंधेर है यह। यह तुम दोनों का अंधेर है। सब समझ रहा हूं
मैं, हां।"
वह परेशान सी देखती रही। यह समस्या अत्यंत जटिल थी।
"कौन? मैं? उसकी तरफ बोलती हूं?" उसने एक वाक्य को तीन प्रश्नों में जोड़कर कहा, जैसे समष्टि से व्यष्टि में होता हुआ अहंभाव अंत में अपनी नकारात्मकता में स्वयं सिद्ध हो गया। वह कहने लगी, "तुम इस घर से अलग हो? मैं पूछती हूं, तुम अपने को घर का मालिक क्यों नहीं समझते? बेटी का ब्याह तुम्हें नहीं करना है? वह सिर्फ मां बेटे की जिम्मेदारी है? बेटी तुम्हारी नहीं है? कह दो! मैं पूछती हूं, आज कह दो!"
हरदेव भुनभुनाया, "अब ले बेटा भी जिम्मेदार हो गया, ठीक है। जो जिम्मेदार है वही मालिक है। फिर मेरी क्या जरूरत है? इस लौंडे का ब्याह कराके ही मुझे क्या सुख मिल गया है।"
स्त्री मुस्कराई। उसने कहा, "क्या कहते हो। बेटा ब्याह करके नेग चुकाया जाता है कि सुख की आशा की जाती है?"
किंतु बात यहीं समाप्त नहीं हुई। वह जब चली गई, हरदेव दुकान पर बैठा-बैठा ऊबने लगा। मुंशीजी का लड़का दो बार बुलाकर चला गया। शाम को भगवानदास लौटा, हरदेव भुना बैठा था।
दिन में सख्त गर्मी थी। लूओं की चपट से देह झुलस-झुलस जाती थी। वह आड़ में लेटा रहा, आकाश से आग बरसती रही। इस समय वह वहां से उठना चाहता था।
भगवानदास समझ गया। उसे खीझ हुई। दिन भर यहां लूओं में चक्कर लगाते-लगाते शरीर फंक रहा है और राजा साहब है कि आड़ में भी दुकान पर नहीं बैठ सकते। इन्हें तो नींद चाहिए, नींद।
कुछ न कहकर चुपचाप वह मंदिर के नल पर नहाने चला गया। शरीर पर नल का पानी कुछ-कुछ सीटा-सीटा-सा लगा, और एक हल्की फुरफरी आई। वह शिथिल सा पानी की धार के नीचे बैठा रहा। मजा आ रहा था, जैसे इस ठंडक से धूल के साथ सारी हरारत, सारी थकान बह बहकर निकल रही हो। उसे काफी देर हो गई।
जब वह नहाकर लौटा तो सीधा रोटी खाने घर चला गया, क्योंकि भूख तेज हो गई थी।
हरदेव ने देखा। वह क्रोध से कांप उठा। नवाब का बच्चा, क्या कहते हैं, अब मुंशीजी क्या रात भर बैठे रहेंगे? एक तो बिचारे बुलाकर पिलाते हैं, तिस पर कल तक इंतजारी करेंगे? आया था। खैर, नहा ले भाई। अभी लड़का है, तेरा बखत है, पर यह क्या कि अब चल दिए बदन फटकारकर। हरदेव सोचता रहा। विचार एकरूप होकर घिरने लगे: बस इसे क्या? भांग पी ली और सो रहा। एक बार न सोचा होगा इसने बुङ्ढा क्या कर रहा है, क्या करना चाहता है। उसे दुकान से क्या मतलब? यह तो एक काम करेगा। बस, जैसे इसके बाप ने मुझे नौकर रख लिया है कि बैठ, सौदा बेच, जो गुल्लक में आए सो इधर दे इधर…
हरदेव को गुस्सा घेरने लगा जैसे शिकारी जानवर को घेरता है, जैसे चारों तरफ बाजे बजाती हुई भीड़ बढ़ी आ रही है और वह लाचार बाहर निकलता चला आ रहा है। उसे लगा, उसके विरुद्ध सारा घर मिलकर एक हो गया है। वह क्यों उन्हें अपना समझता है। वे सब उसे उल्लू बनाकर रखना चाहते हैं, जैसे वह उन सबका गुलाम है।
इस विचार-जुगुप्सा ने जैसे उसका एकदम दम घोंट दिया। उसे लगा, वह मंझधार में डूब रहा है।
अब वह फुफकारने लगा, जैसे मुहल्ले के सब कुतों ने मिलकर एक कुते को घेर लिया और उसकी निर्बल आत्मा पिछली टांगों में दुम दबाए, दांत निकालकर चिल्ला रही है, वह प्राणपण से अपने को मुक्त करने की चेष्टा कर रहा है: बुङ्ढा! वह बुङ्ढा हो चला है। वे चाहते हैं कि वह अपाहिज सा उनका हुक्म बजाता रहे। अब जैसे उसकी कोई मर्जी नहीं रही। कल तक वह जहां मालिक था, आज वह वहां गुलाम बनकर रहेगा?
उसने दुकान बढ़ा दी। असह्य दुख से उसकी आत्मा छटपटाने लगी। क्यों करे वह किसी की परवाह? ऐसे रहने में उसे क्या सुख मिलता है? घर पहुंचते ही वह चिल्लाने लगा, "कहां है तेरा सपूत कुलच्छनी? मैं कोई आदमी थोड़े ही हूं? जब देखो, जुता रहूं। क्यों खाता हूं क्यों पीता हूं? फूटी आंखों अब मैं नहीं सुहाता इस घर में। इस तरह रहने से तो मर जाना अच्छा है। चौबीसों घंटे मैं तो दुकान में मक्खियां मारूं…"
स्त्री ने देखा और शांत रही। हरदेव कहता रहा, "और नवाब के बच्चे हैं कि सड़कों पर टहल रहे हैं…।"
हरदेव गरज रहा था। उसका क्रोध भगवानदास के चुप रहने से बढ़ता जा रहा था। उसे लगा, वह जन्म जिंदगी से ऐसे ही उपेक्षित रहा है, मूर्ख समझा जाता रहा है। इस घर से उसे वह सम्मान नहीं मिल रहा जो उसके योग्य था।
भगवानदास ने कौर भरे मुंह से कहा, "सुहाए वह जो सुहाने लायक काम करे। अपना है तो क्या, सांप भी पास सुलाने को है? नहीं हम बैठे रहते हैं जो पांव मखमली हों। ठेक पड़ गई है चलते-चलते, दहूं ठेक पड़ गई है।"
बाखर में शायद लोग सुन रहे होंगे। क्या सोचते होंगे कि आज बाप-बेटे में तू-तू मैं-मैं हो रही है। यह विचार अधिक देर तक नहीं रहा। किसके घर के चूल्हे के पीछे राख का ढेर नहीं है, घर-घर वही मिट्टी के चूल्हे हैं। मां ने बेटे को डांटा "क्यों रे! बाप के मुंह लगता है? जानता है उसकी इज्जत से तेरी जीभ घिस जाएगी?"
"आहा", हरदेव ने सिर हिलाकर व्यंग्य से कहां, "एक यही सपूत तो मेरी इज्जत करने को रह गया है। मेरे पांव की जूती मेरे सिर की इज्जत करेगी? मुझे नहीं चाहिए ऐसी इज्जत।"
भगवानदास ने खाना छोड़ दिया। वह उठ बैठा और द्वार की ओर चलते हुए कहने लगा, "अब नहीं रहना है मुझे इस घर में। समझी अम्मां, तू रह, वह रहे, मैं नहीं एक मिनट रह सकता। कोई बात है। दिन क्लेश, रात क्लेश, चौबीसों घंटे की झिकझिक। इससे तो संखिया खाकर सो जाना भला हैं।" मां ने दौड़कर पकड़ लिया।
"क्या कह रहा है बेटा!" फिर पति से मुड़कर कहा, "आग लगे तुम्हारे फूटे बोलों को। थाली पर से मेरा बेटा उठा दिया।"
"अरे तू जाने दे इसे। ब्याह के मैं लाया था तुझे। तूने ही इसे इतना मुहचढ़ा बना दिया है। वह दिन भूल गया जब पिल्लों की तरह नाली में खेलता था। हम भी बच्चे थे, हमारा भी कोई बाप था, पर हमने कभी सामने खड़े होकर जवाब नहीं दिया। और तू है कि आ बेटा, ले बेटा। निकाल इसे! बेईमान! बदजात! मैं पहले ही कहता था, यह किसी भंगी की औलाद है, हरामजादा, छोड़ दे इसे…!"
"और वह दिन तुम भूल गए", भगवानदास ने चिल्लाकर कहा, "जब कुत्तों की तरह नाली में पड़े थे शराब पीकर, जब मैंने उठाया था तुम्हें, जब दुनिया का गंदा चाट रहे थे।"
उसकी चोट से हरदेव तड़प गया। उसने बढ़कर कहा, "अब तो कह हां, अबके कह तो देखूं। सूअर! हलक में हाथ डाल के जीभ खींच लूगा।"
वह चिल्ला उठी, "भगवानदास! कपूत! बाप से सामना करता है। उसकी तुझसे एक बात नहीं सुनी जाती?"
भगवानदास ने मां को पीछे धकेलकर कहा, "आज यह नहीं मानेगा। कहूंगा, कहूंगा, फिर कहूंगा! क्या कर लेगा, हां, ले मैं कहता हूं सारी बाखर सुने। आया बड़ा डरानेवाला, जैसे मैं कोई बच्चा होऊं, शराबी …!"
हरदेव का हाथ उठ गया। मां बीच में जूझ पड़ी किंतु दोनों क्रोध में मतवाले हो रहे थे। एक हाथ घूमा। वह छिटककर दूर जा पड़ी। दोनों लड़ रहे थे। आखिर बेटा जवान था। हरदेव के दो चार हाथ कसके पड़ गए। हरदेव क्रोध से कांपने लगा। उसका मुख भयानक हो उठा। दांतों की नोक दिखाई देने लगी। हरदेव ने फुत्कार किया, "आज तेरी मां न होती तो हरामजादे, छाती फाड़कर खून पी लेता, पर इसकी वजह से तुझ पर मेरा हाथ नहीं उठता।"
मां भगवानदास को कोसती हुई चिल्लाने लगी, "अरे तेरा नाश हो कपूत ! बाप पर हाथ उठाते तुझे लाज न आई! वह क्या इसी दिन के लिए बूढ़ा हुआ है? कमबख्त! हया का लेस भी नहीं रहा! इसका तो मैंने पैदा होते ही गला घोंट दिया होता भगवान!" स्त्री की ललकार सुनकर उसी समय हरदेव ने सारी ताकत लगाकर भगवानदास को कसके धक्का दिया। गुत्थमगुत्था फिर शुरू हो गई। मां चुपचाप खड़ी देख रही थी। उसे लग रहा था जैसे सारी दुनिया अब घूमने लगी है। लड़के के प्रति उसे अत्यंत विक्षोभ था, घृणा थी। वह देख रही है, उसका जाया आज घर में आग लगा रहा है। वह चिल्लाना भी भूल गई। हठात् हरदेव ने भगवानदास को फेंक दिया। वह कातर स्वर से चिल्ला उठी। दौड़कर अपने बेटे को संभाल लिया। उसने देखा, दीवार से टकरा जाने से भगवानदास के सिर से खून निकल रहा था। पास बैठ गई। सिर गोद में ले लिया। बेटे पर बेहोशी-सी छाई थी।
हरदेव हांफ रहा था, जैसे उसने एक बहुत बड़ा काम कर दिया है। अब भी वह इतना दम रखता है कि अपनी इज्जत अपने आप बचा ले। भगवानदास ने अधखुली आंखों से मां को देखा। उसके सिर से बहते हुए खून को देख रही थी। उसने क्रोध से जलती हुई आंखों से देखकर कहा, "तुम चले जाओ। अभी घर से निकल जाओ। तुम मेरी गोद में आग लगाना चाहते थे? जिसे मैंने इतने दिन तक अपनी कोख में रखा, उसे तुम मार डालना चाहते थे?"
हरदेव हतबुद्ध खड़ा रहा। स्त्री कहती रही, "जिनावर! जंगली! हाथ न टूट गया तुम्हारा जो इस फूल को मसलने चले थे।" और उसने पुचकारकर कहा, "उठो बेटा, अब हम इस घर में नहीं रहेंगे। वह दुकान इसी की रहे, देखें कैसे चला लेता है। हम तुम मेहनत करके पेट पाल लेंगे…।"

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