सुभागी (कहानी) : सुभद्रा कुमारी चौहान

Subhagi (Hindi Story) : Subhadra Kumari Chauhan

अगर किसी को बेमौसम की बहुत-सी चीजें देखना हो तो वह कुछ दिन आकर जबलपुर में रहे । और फिर बेमौसम की बहार देखे । बेमौसम का पानी तो जबलपुर में बहुत ही ज्यादा बरसता है ।

माघ महीने की एक रात की बात है । सर्दी बहूत जोर की थी, और साथ-ही- साथ खूब तेज़ हवा, जो तीर की तरह हृदय को बेधती हुई जान पड़ती थी। बादल तो इधर कई दिनों से थे । किंतु, आज शाम को तेज़, तूफानी हवा के साथ जो पानी बरसा था, वह बरसात के दिनों की याद दिला रहा था। इस समय पानी तो बंद था परंतु बिजली का कड़कना, बादलों का गरजना और हवा का तूफान तेज़ी पर था जैसे शाम को था । इस समय वही मौसम था जिसमें मैं बहूत घबराती हूं । ऐसे आंधी पानी और तूफान में मुझे डर भी बहुत लगता है । कोई विश्वास न करेगा, पर मैं सच कहती हूं जब ऐसा अंधड़ उठता है, और मेरे बच्चे घर से बाहर रहते हैं तब मेरे मन में यही आशंका बनी रहती है कि कहीं ऐसा न हो कि इस आंधी में मेरा कोई बच्चा उड़ जाय -ऐसा हो नहीं सकता, यह मैं अच्छी तरह जानती हूं परंतु फिर भी मैं घबराती हूं, कोई काम नहीं कर सकती, कुछ लिख-पढ़ नहीं सकती, यहां तक कि एक जगह बैठी भी नहीं रह सकती । एक अजीब तरह की बेचैनी बनी रहती है और जब तक बच्चे लौट कर नहीं आते वह शांत नहीं होती।

हां, तो मैं माघ महीने की एक तूफानी रात की बात कर रही थी ।शाम से ही आँधी-पानी का ज़ोर था । मेरी आँखों की नींद और बच्चों की याद दोनों में होड़ तो रोज़ ही लगी रहती थी और पराय: यही होता भी था कि नींद के सामने बच्चों की याद ही विजयी हुआ करती थी । ऐसे मौसम में तो मुझे वैसे ही नींद कम आती है फिर जब बच्चों की याद आ रही हो तो नींद भला कैसे आ सकती है । जब बादल बहुत ज़ोर से गरजते और बिजली कड़कती है तो मेरी आंखों के सामने महीनों पहले का एक दृश्य आ जाता है-बरामदें में एक तरफ मेरा पलंग और उसी से स्टी हुई मेरे नन्हें की खाट । जहां बादल गरजे, बिजली चमकी और मेरे नन्हें ने पूकारा-अम्मां, बादल तो बहुत ज़ोर से गरजते हैं । मुझे डर लगता है । मां! तूम अपना हाथ मेरी खाट पर रख दो, तो मैं सो जाऊं ।

मेरा नन्हां आज इस समय भी वहीं कहीं सोया होगा । बादलों की तड़प से उसकी नींद आज भी खुल गयी होगी वह डरा भी होगा! उसे रात में शायद याद न रही हो और उसने मां ! कहकर पुकारा होगा । परंतु, एक ही शहर में रहकर उसमें और उसकी मां में कितना अधिक अंतर है । मेरे हृदय में प्रबल-वेग के साथ एक तूफान-सा उठा। मैं फिर बैठ न सकी । उठकर टहलने लगी । इसी समय मुझे बरामदे में किसी मनुष्य की छाया-सी दिखी । मैं कुछ घबरायी और डरी फिर तुरंत ही ध्यान में आया कि यह तो जेल है । यहां चोर कहां से आ सकेगा। सीकचों के पास जाकर पूछा- कौन है बाहर?
'मैं हूँ बहन जी ।' उत्तर मिला ।
मैंने देखा, बाहर बरामदे की जाली से सटी हुई सुभागी खड़ी है । मैं उसके बहूत पास तक चली गयी और मुझे ऐसा जान पड़ा कि सुभागी रो रही है । मैंने कहा-सुभागी ! इतनी रात को तुम सर्दी में क्यों अकेली खड़ी हो? कोई तकलीफ तो नहीं है ?
'तकलीफ क्या होगी बहिन जी !' सुभागी बोली । उसका स्वर कांप रहा था। ऐसा लगता था कि अपने अंतर से उठते हुए किसी प्रबल आवेग को वह दबा रही है ।
'नींद नहीं आती । आप भी तो नहीं सो रही हैं यही मैं देख रही थी।' सुभागी ने अपने वाक्य को पूरा किया।
मैंने कहा-मेरे न सोने का कारण है सुभागी । मैं छोटे बच्चों को छोड़, कर आयी हूँ । उनके पिता भी जेल में हैं और मैं भी हूँ । मुझे उनकी याद में रात-रात भर नींद नहीं आती । पर तुम क्यों नहीं सोयी, सुभागी?
'मेरा भी एक बच्चा है बहिन जी,' सुभागी ने कहा और एक गहरी सांस के साथ चुप हो गयी।
मैंने कहा-तुम्हारा भी बच्चा है ? पर कोई न कोई तो होगा न उसे देखने वाला ? मेरे बच्चे तो अकेले हैं इसलिए मुझे इतनी फिकर रहती है ।
'उसे देखने वाला भगवान को छोड़ कर और कोई नहीं है बहिन जी, कोई होता ही तो इतनी बेचैनी न रहती ।' सुभागी ने कहा और उसकी आँखें सजल हो उठीं ।
मैंने पूछा-बच्चे का पिता कहां है?
'जेल में,' सुभागी ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया और चुप हो गयी।
मुझे सुभागी पर कछ क्रोध-सा आ चला था । सोच रही थी कि जब उसका पति जेल में था तो आखिर यह क्यों बच्चे को बिलकुल अकेला छोड़ कर चली आयी । बच्चे के प्रति भी इसका कुछ कर्तव्य है। माना कि इस परवाह में बह गयी । पर तब क्या बच्चे को बिलकुल भूल गयी थी और अब रात खड़े-खड़े, बिताया करती है ।
मैंने रूखे स्वर में 'पूछा-जब तुम्हारा पति जेल में था और तुम्हारे बच्चे को देखने वाला कोई न था तब तुम्हें जेल आने की क्या पड़ी थी । तुम्हारे एक के न आने से क्या फरक पड़ जाता!
'मैं अपने मन से नहीं आयी । मुझे तो जबरन पकड़ लाये हैं।' सुभागी ने बतलाया।
मैंने उसकी ओर ध्यान से देख कर पूछा-तुम क्या बहुत दिनों से कांग्रेस का काम करती हो?
सुभागी बोली नहीं बहिन जी, मैंने कभी कांग्रेस का काम नहीं किया मैं इन बातों को समझती भी नहीं ।
मेरा आश्चर्य अब बढ़ चला । मैंने पूछा-फिर तुम्हें पकड़ा कैसे है?
सुभागी ने कहा-कैसे पकड़ा? क्या कहूँ बहिन जी! बात यह थी कि मेरे पति और थानेदार से एक बार किसी बात पर कहा-सुनी हो गयी थी । तब से अदावट मानता था और इसी से आन्दोलन के उठते ही उसने उन्हें पकड़वा दिया । अव घर में थी मैं अकेली और वही नौ साल का मेरा बच्चा । थानेदार आचरण का अच्छा नहीं है । उन्हें जेल भेज कर वह मेरे पास आया, कहने लगा- सुभागी तुम्हारे आदमी को पकड़ ले जाने का मुझे दु:ख है, पर हमको तो हुक़्म तामीली करनी ही पड़ती है । जैसे ऊपर से हुक़्म आया, किया। पर सुभागी, तुम किसी तरह तकलीफ न उठाना । रुप्ये पैसे से मैं तुम्हारी मदद करता रहूँगा । जब तुम्हें कुछ जरूरत हो तो घर पर आ जाना या कहलवा भेजना, मैं खुद़ चला आऊंगा।

'बहिन जी, उसकी इस बात का अर्थ मैं समझती थी। मैंने कहा, अब आबरू न बचेगी । यह किसी समय भी आकर मेरा पानी उतार सकता है । अपने पास-पड़ोस वालों से सलाह की । सब ने कहा कि मेरा कहना ठीक है परन्तु, सब-कुछ जानकर भी वह लोग थानेदार के विरुद्ध एक शब्द न कहेंगे और मेरी कुछ सहायता न करेंगे क्योंकि थानेदार किसी को भी संदेह पर ही पकड़ कर जेल भेज सकता है । उसे अधिकार है फिर बिना मतलब क्यों कोई जेल जाय । और सबकी राय हुई कि मैं गांव छोड़ कर दूसरी जगह चली जाऊं ।

'शाम को थानेदार का आदमी मुझे बुलाने आया । मैंने कहा-मैं नहीं जाऊंगी । मुझे कुछ नहीं, चाहिए ।' इस पर से वह बहुत चिढ़ गया । उसने मुझे धमकी दिलवायी कि यदि मैं उसकी बात न मानूँगी तो मुझे पछताना पड़ेगा । मैं सब बात के लिए तैयार थी। पर आबरू नहीं बेचना चाहती थी। उसी रात मैं बच्चे को लेकर गाँव छोड़ कर चली आयी। और बहिन जी, सबेरे यहाँ के स्टेशन पर उतरते ही पकड़ ली गयी। कुछ परचे न जाने कहाँ से मेरी पोटली में रख दिये गये थे । उनका कहना था कि मैं पर्चों को बाँटती फिरती थी मेरा रमम्‌ रोने लगा । मैंने कहा, 'इसे अकेला कहा छोड़ूँगी । इसे भी मेरे साथ ले चलो ।' पर वह मेरी कब सुनते थे । रोते हुए बच्चे को जबरदस्ती मुझसे अलग करके लारी पर बिठा के लाये और बंद कर दिया ।तब से दो महीने हो गये । बच्चे की कोई खबर नहीं है । जब पानी बरसता है, बादल गरजते हैं, तब जी और भी व्याकुल हो उठता है ।कहाँ सोया होगा, क्या खाया-पिया होगा उसने । मेरा कोई रिश्तेदार भी नहीं है और गाँव वाले तो थानेदार के डर के मारे उसे अपनी छाया भी न छूने देंगे ।

'उसके बाद बहिन जी, एक दिन दफ्तर में मजिस्ट्रेट ने बुलवाया। वहां वही थानेदार भी था । मुझ से कहा के तुम यह कह दो-आगे से कोई कांग्रेस का काम न करोगी और थानेदार साहब के कहने में रहोगी तो तूम्हें छोड़ देते है। मैंने कहा-मुझे नहीं छूटना है । बहिन जी, वैसे तो मैं कभी कांग्रेस का काम नहीं करती पर यह तो माफी माँगना हो जाता न और इससे कांग्रेस की बदनामी होती, फिर छूट कर भी तो उसी पिशाच थानेदार के चुंगल में फंस जाती। इसीलिए यह कह के कि मुझे नहीं छूटना है, चली आयी । पर बच्चे की ममता है । रात-दिन अंदर एक आग-सी लगी रहती है । उसका कहीं से कुछ पता मिल जाता -पर पता कहाँ से मिलेगा । यह तो जेल है । वह कहाँ गया होगा और सुभागी का भरा हुआ हृदय जैसे फूट पड़ने के लिए आतुर हो उठा! वह फिर रो पड़ी ।

मेरे पास सुभागी को सांत्वना देने के लिए शब्द न थे उसका दुःख कितना तीव्र है उसकी कहानी कितनी करुण है ।उसे क्या कह के समझाऊं ।बच्चों के लिए हृदय कितना व्याकुल होता रहता है यह मैं जानती हूँ । फिर भला सुभागी को जिसका बच्चा स्टेशन पर जबरदस्ती उससे अलग कर दिया जाता है, मैं क्या कह के समझाती ।यह सोच रही थी कि मेरी बच्ची ने जागकर मुझे पुकारा और बिना कहे ही मैं उठकर अंदर बच्ची क पास चली गयी ।

उसी प्रातः काल गयारह बजे मैं टाँके, पर नहाने गयी नहा कर कपड़े धो रही थी कि तभी सुभागी भी आयी । वही मुरझाया-सा चेहरा और बुझी-बुझी-सी आँखें । मेरा हृदय सुभागी के दु:ख से दबा-सा जा रहा था। मैं उसकी तरफ देख भी न सकी कि इतने ही में जमादारिन ने लाकर मुझे एक पत्र दिया । पत्र मेरे बच्चों का था । और कपड़े धोना भूल कर मैं पत्र पढ़ने लगी । पत्र समाप्त करते-करते एक बच्चे ने लिखा था- 'अम्माँ, हम लोग छोटे-छोटे हैं तो हमने एक छोटा-सा नौकर भी रखा है, और तुम्हें जान कर आश्चर्य होगा कि इस लडके के माता- पिता भी इस आन्दोलन में पड़कर जेल-जीवन बिता रहे हैं । इसका नाम रम्मू है । अच्छा सा लड़का है माँ । और हस लोग उससे नौकरों सरीखा व्यवहार भी नहीं करते । उसे पढ़ाते -लिखाते भी हैं । पिता की गिरफ्तारी के बाद माँ के, साथ शहर नौकरी करने आया था । स्टेशन पर ही उसकी माँ पकड़ ली गयी । तब से कई जगह नौकरी करने के बाद अब हमारे घर आया है । और उसे यहाँ अच्छा लगता है । कहता है कि अपने माता-पिता के छूटने तक वह हम लोगों के ही पास रहेगा । क्या कोई इस तरह के लड़के की माँ तुम्हारे जेल में है, माँ ?' पास ही नहाती हुई सुभागी से मैंने पूछा-तुम्हारे लड़के का नाम क्या है, सुभागी?
'नाम तो उसका रामलाल है, पर रम्मू-रम्मू कह के पुकारते हैं सब लोग, सुभागी ने बतलाया।
हर्षातिरेक से मेरी आंखें सजल हो हो गयीं । मैंने कहा-सुभागी! अपने बच्चे का समाचार सुन लो,' और बच्चों की चिट्ठी का वह अंश, जिसमें उन्होंने अपने छोटे से नौकर के विषय में लिखा था, पढ़ कर सुना दिया।
सुभागी को जैसे खोया हुआ खजाना । मिल गया हो; उसने मेरे पैर छू लिये!

  • मुख्य पृष्ठ : सम्पूर्ण हिन्दी कहानियाँ : सुभद्रा कुमारी चौहान
  • मुख्य पृष्ठ : काव्य रचनाएँ : सुभद्रा कुमारी चौहान
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां