Sacche Saude Ka Vyapari

सच्चे सौदे का व्यापारी

सभी माता-पिता यह चाहते हैं कि उनका पुत्र संसार के कामों में बहुत चतुर हो, वह बहुत-सा पैसा कमाए और अपने परिवार के लोगों को सुख दे। गुरु नानक जी के पिता, मेहता कालू भी यही चाहते थे।
परन्तु गुरु नानक का मन तो बचपन से ही ऐसे कामों में अधिक लगता था जो मनुष्य को परमात्मा की ओर ले जाते हैं, जिनसे समाज के दुःखी लोगों को सुख मिलता है । ऐसे लोग साधारण सांसारिक लोगों जैसे नहीं होते। ऐसे संत और महात्मा भूले-भटके संसार को सही रास्ता दिखाने वाले महापुरुष होते हैं।
गुरु नानक जी भी ऐसे ही महापुरुष थे।

सांसारिक कार्यों में उनका ध्यान न लगता देखकर उनके पिता ने सोचा कि उन्हें व्यापार में लगाना चाहिए । व्यापार में जब वे धन कमाएंगे तो, उनके मन में धन के प्रति और लोभ पैदा होगा । इस तरह वे संसार के साधारण लोगों की तरह ही जीना शुरू कर देंगे।

एक दिन उन्होंने गुरु नानक जी को बीस रुपये दिये । आज से पांच सौ वर्ष पहले बीस रुपये का मूल्य बहुत होता था। उन्होंने कहा--"बेटा नानक, लो ये रुपये । पास में ही चूहड़काने की मंडी है । वहां चले जाओ और कुछ अच्छा-सा सौदा खरीद लाओ।"
नानक जी ने पूछा-"पिताजी कैसा सौदा खरीदकर लाऊं ?"
"खरा सौदा होना चाहिए।" पिता ने कहा-"जिससे तुम्हें खूब लाभ मिले।"
"अच्छी बात है पिताजी।" नानक जी ने सोचते हुए कहा-"मैं ऐसा सौदा ही खरीदूंगा।"
पिता कालू मेहता उनकी बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने नानक जी के साथ उनके बाल मित्र बाला को भी भेज दिया।
गुरुजी और भाई बाला चूहड़काने की मंडी की ओर चल दिये ।

रास्ते में एक जंगल पड़ता था। वे उसमें से निकल रहे थे कि उन्हें साधुओं की एक मंडली मिल गयी । साधुओं ने गुरुजी की ओर देखा। उनके चेहरे पर बड़ा तेज चमक रहा था। उन्होंने सोचा, यह अवश्य किसी धनी व्यक्ति का बेटा है । वे बोले- "बच्चा, हम कई दिन से भूखे हैं। हमें भोजन करा दो । भूखों को भोजन कराने से बहुत लाभ होता है।"
"बहुत लाभ होता है।" नानक जी ने मन ही मन सोचा-"पिताजी ने कहा था कि ऐसा सौदा करना जिससे बहुत लाभ हो। यह भी तो बड़े लाभ का सौदा है।"
"महात्माजी।" उन्होंने साधुओं से कहा--"आप मेरे साथ चलिए। मैं आपको भोजन कराऊंगा और बहुत-सा लाभ कमाऊंगा।"
उनके साथी बाला ने मना किया--"नानकजी, आप यह क्या कर रहे हैं? आपके पिताजी ने खरा सौदा लाने के लिए कहा था।"
"भला इससे ज्यादा खरा सौदा और क्या होगा?" नानकजी ने बड़े आश्चर्य से पूछा।
उनके पास जितने भी रुपये थे, उन सभी रुपयों से उन्होंने भूखे साधुओं को भरपेट भोजन कराया और उनकी जरूरत की दूसरी चीजें उन्हें खरीद दीं। वे घर की ओर वापिस मुड़ चले।
भाई बाला ने कहा-"आपने सारे रुपये साधु-संतों पर खर्च दिये हैं, आपके पिताजी बहुत नाराज होंगे।"
अपने गांव लौटकर नानकजी घर नहीं गये । वे एक पेड़ के नीचे बैठकर सोचने लगे।
बाला ने घर जाकर सारी बात पिता कालू मेहता, माता तृप्ता और बहन नानकी को बताई। तीनों ही उस स्थान पर पहुंचे जहां नानकजी बैठे थे।
पिता ने गुस्से से पूछा-'तुम कौन-सा सौदा खरीदकर लाए हो ?'
नानकजी ने कहा-"आपने कहा था, ऐसा सौदा खरीदना जो बहुत लाभ दे। मैंने अपनी समझ से बड़े लाभ वाला सौदा खरीदा है । मैंने आपके दिये रुपयों से भूखे साधुओं को भोजन करा दिया है । पिताजी, भुखों को भोजन कराने से बहुत लाभ होता है ना?"
उनकी बात सुनकर पिता को बहुत गुस्सा आया । उन्होंने नानकजी को बहुत डांटा।
नानकजी को डांट पड़ती देखकर उनकी माता और बहन को बहुत दुःख हुआ।
माता ने समझाते हुए कहा-"बेटा, तुम अपने पिता का कहना माना करो। तुम तो अपने आप में ही डूबे रहते हो। लोग समझते हैं कि तुम अपनी सुध-बुध गंवा बैठे हो।"
"मां, तुम लोगों की चिन्ता क्यों करती हो?" नानकजी ने कहा-"ये सभी लोग अज्ञान के अंधेरे में डूबे हुए हैं।"
माता ने कहा-"बेटा, तुम दुनिया को चिन्ता छोड़कर अपने घर की चिन्ता करो।"

नानकजी ने कहा- "मेरी अच्छी मां ! सारा संसार लोभ और अहंकार की आग में जल रहा है । तुम चाहती हो कि मैं उनकी चिन्ता छोड़कर अपने परिवार की चिन्ता करूं । मां, क्या मैं परमेश्वर की इस सारी सृष्टि को ऐसे ही जलने दूं।"
भोली-भाली मां अपने इस अनोखे बालक की आंखों में झांककर उसे समझाने की कोशिश करती रही।

(डॉ. महीप सिंह)