प्यार के बदले प्यार : जापानी लोक-कथा

Pyar Ke Badle Pyar : Japanese Folktale

एक गांव के किनारे बनी कुटिया में एक साधु रहता था । वह दिन भर ईश्वर का भजन-कीर्तन करके समय बिताता था । उसे न तो अपने भोजन की चिंता रहती थी और न ही धन कमाने की । गांव के लोग स्वयं ही उसे भोजन दे जाते थे ।

साधू उसी भोजन से पेट भर लिया करता था । उसे न तो किसी चीज की ख्वाहिश थी और न ही लालच । वह बहुत उदार और कोमल हृदय व्यक्ति था । यदि कोई दुष्ट व्यक्ति उसे कभी कटु शब्द भी बोल देता, तो साधु उसका बुरा नहीं मानता था ।

सभी लोग साधु के व्यवहार की प्रशंसा किया करते थे । इसी कारण वे उसकी हर प्रकार से सहायता किया करते थे ।

एक बार कड़ाके की सर्दियों के दिन थे । साधु अपनी कुटिया में आग जलाकर गर्मी पाने का प्रयास कर रहा था । तभी उसे अपने दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी । साधु सोचने लगा कि सर्दी की रात में इस वक्त कौन आ सकता है ?

साधु ने दरवाजा खोला तो देखा की एक लोमड़ी बाहर खड़ी थी, जो सर्दी से कांप रही थी । लोमड़ी बोली - "मैं सामने के पहाड़ों में रहती हूं । वहां आजकल बर्फ गिर रही है, इस कारण मेरा जीना मुश्किल हो गया है । आप कृपा करके मुझे रात्रि में थोड़ी-सी जगह दे दीजिए । मैं सुबह होते ही चली जाउंगी ।"

साधु ने नम्रतापूर्वक उसे भीतर बुला लिया और कहा - "परेशान होने की कोई बात नहीं है । तुम जब तक चाहो यहां रह सकती हो ।"

कुटिया में जली आग के कारण लोमड़ी को राहत महसूस होने लगी । तब साधु ने लोमड़ी को दूध और रोटी खाने को दी । लोमड़ी ने पेट भर कर भोजन किया और एक कोने में सो गई ।

सुबह होते ही लोमड़ी ने साधु से बाहर जाने की आज्ञा मांगी । साधु ने उससे कहा कि वह इसे अपना ही घर समझकर जब चाहे आ सकती है ।

रात्रि होने पर लोमड़ी फिर आ गई । साधु ने उससे दिन भर की बातें कीं, थोड़ा भोजन दिया । फिर लोमड़ी एक कोने में सो गई ।

इसी तरह दिन बीतने लगे । लोमड़ी प्रतिदिन रात्रि होने पर आ जाती और सुबह होते ही जगंल की ओर चली जाती । साधु को लोमड़ी से एक बालक के समान प्यार हो गया ।

अब जब कभी लोमड़ी को आने में थोड़ी देर हो जाती तो साधु दरवाजे पर खड़े होकर उसकी प्रतीक्षा करता, और उससे देर से आने का कारण पूछता । लोमड़ी भी साधु से हिल-मिल गई थी और उसे बहुत प्यार करने लगी थी ।

कुछ महीने बीत जाने पर मौसम बदलने लगा । एक दिन लोमड़ी बोली - "आपने मेरी इतनी देखभाल और सेवा की है, मैं इसके बदले आपके लिए कोई कार्य करना चाहती हूं ।"

साधु ने कहा - "मैंने तुम्हारी देखभाल करके तुम पर कोई उपकार नहीं किया है । यह तो मेरा कर्तव्य था । इस तरह की बातें करके तुम मुझे शर्मिन्दा मत करो ।"

लोमड़ी बोली - "मैं किसी उपकार का बदला नहीं चुकाना चाहती । मुझे आपके साथ रहते-रहते आपसे प्यार हो गया है । इस कारण मैं आपकी सेवा करके स्वयं को गर्वान्वित महसूस करना चाहती हूं । मेरी हार्दिक इच्छा है कि मैं आपके काम आऊं ।"

साधु को लोमड़ी की प्यार भरी बातें सुनकर हार्दिक प्रसन्नता हुई । वह खुशी से गद्गद हो उठा और लोमड़ी के सिर पर हाथ फेरते हुए बोला - "मुझे न तो किसी चीज की आवश्यकता है और न ही कोई विशेष इच्छा । गांव के लोग कुटिया में ही मेरा भोजन पहुंचा जाते हैं, मेरी बीमारी में वे मेरा ध्यान रखते हैं, मुझे और क्या चाहिए ?"

लोमड़ी बोली - "यह सब तो मैं जानती हूं । इतने महीनों तक आपके साथ रहकर आपकी आत्मसंतोष की प्रवृत्ति को मैंने अच्छी तरह देखा व सीखा है । फिर भी कोई ऐसी इच्छा हो जो पूरी न हो सकती हो तो बताइए । मैं उसे पूरा करने की कोशिश करूंगी ।"

साधु कुछ देर सोचता रहा, फिर सकुचाते हुए बोला - "यूं तो जीते जी मुझे किसी चीज की आवश्यकता नहीं है । फिर भी कभी-कभी सोचता हूं कि मेरे पास एक सोने का टुकड़ा होता जिसमें से कुछ मैं भगवान को चढ़ा देता और कुछ मेरे मरने पर मेरे क्रिया-कर्म के काम आ जाता । मैं गांव वालों की कृपा का बदला अपनी मृत्यु के बोझ से नहीं देना चाहता ।"

लोमड़ी साधु की बात सुनकर बोली - "बस इतनी सी बात है बाबा, इसमें आप इतना सकुचा रहे थे । मैं कल ही आपके लिए सोने का टुकड़ा ला देती हूं ।"

साधु ने कहा - "मुझे कोई भी ऐसा सोने का टुकड़ा नहीं चाहिए जो चोरी किया हुआ हो या किसी से दान में प्राप्त किया हो ।"

लोमड़ी साधु की बात सुनकर सोच में पड़ गई, फिर बोली - "बाबा, मैं आपके लिए ऐसा ही सोना लाकर दूंगी ।"

इसके बाद लोमड़ी बाबा की कुटिया से हर दिन की भांति चली गई । शाम होने पर साधु लोमड़ी का इंतजार करने लगा । परंतु घंटों बीत गए, लोमड़ी वापस नहीं आई ।

साधु को लोमड़ी की फिक्र में ठीक प्रकार नींद नहीं आई । इस प्रकार कई दिन बीत गए । परंतु लोमड़ी नहीं लौटी । साधु के मन में पश्चाताप होने लगा कि उसने बेकार ही ऐसी वस्तु मांग ली जो उसके लिए लाना संभव न था ।

कभी साधु के मन में यह ख्याल आता कि हो सकता है कि लोमड़ी कहीं से सोना चुराने गई हो और पकड़ी गई हो । फिर लोगों के हाथों मारी गई हो या लोमड़ी किसी दुर्घटना का शिकार हो गई हो ।

साधु को लोमड़ी की बहुत याद आती थी । जैसे ही वह रात्रि का भोजन करने बैठता, उसे लोमड़ी की मीठी बातें व साथ में भोजन खाना याद आ जाता था ।

कुछ महीने बीत गए और साधु को लोमड़ी की याद कम सताने लगी । साधु अपने भजन-कीर्तन में मस्त रहने लगा ।

अब लोमड़ी को गए छह महीने बीत चुके थे और सर्दी पड़ने लगी थी । एक दिन अचानक कुटिया के द्वार पर किसी ने दस्तक दी । साधु ने द्वार खोला तो यह देख कर हैरान रह गया कि द्वार पर पतली-दुबली लोमड़ी खड़ी थी ।
साधु ने कहा - "अंदर आओ । तुम इतनी दुबली कैस्से हो गई ?"
लोमड़ी ने खुशी के आंसू बहाते हुए सोने का टुकड़ा साधु के आगे रख दिया और अपना सिर साधु के चरणों में टिका कर बैठ गई ।

साधु लोमड़ी के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोला - "तुम्हें इसके लिए इतना परेशान होने की क्या आवश्यकता थी, तुम नहीं जानती कि मैं तुम्हारे लिए कितना परेशान रहता था । तुम मेरे बालक के समान हो ।"

लोमड़ी बोली - "मैं इसके लिए बिल्कुल भी परेशान नहीं थी । मुझे तो अपना कर्तव्य पूरा करना था । आपके प्यार की मैं सदैव ऋणी रहूंगी । यह मेरी छोटी-सी भेंट आप स्वीकार कर लीजिए ।"

साधु का मन भी लोमड़ी का प्यार देखकर विचलित हो उठा । उसकी अश्रुधारा बह निकली । वह बोला - "लेकिन यह तो बताओ कि तुम इतने दिन कहां थीं, यह सोने का टुकड़ा कहां से लाईं ?"

लोमड़ी बोली - "जिन पहाड़ों पर मैं रहती हूं उसी के दूसरी तरफ सोने की खानें हैं । वहां पर खुदाई के वक्त सोने के कण गिरते जाते हैं । मैं उन्हीं कणों को इतने दिन तक इकट्ठा करती रही ।"

यह कह कर लोमड़ी साधु के पैरों में लोट लगाने लगी । साधु लोमड़ी को प्यार करते हुए बोला - "तुमने मेरे लिए इतनी मेहनत की है, इसके बारे में मैं सबको बताऊंगा ।"

लोमड़ी बोली - "मैं नहीं चाहती कि मेरी छोटी-सी सेवा के बारे में लोगों को पता चले । मैंने प्रसिद्धि के लालच में यह कार्य नहीं किया है । यह प्रेरणा मुझे आपके प्यार से ही मिली है । कल मैं जब यहां से चली जाऊं उसके बाद आपका जो जी चाहे कीजिएगा ।"

साधु बोला - "यह कैसे हो सकता है कि तुम्हारी इतनी मेहनत और सेवा को लोग न जानें ? लेकिन तुम यह नहीं चाहती तो यही सही । लेकिन अब मैं तुम्हें यहां से हरगिज जाने नहीं दूंगा । तुम्हें सदैव यहीं मेरे पास रहना होगा ।"

लोमड़ी मान गई और पहले की भांति साधु के साथ रहने लगी । अब वह हर रोज सुबह को चली जाती और शाम क आते वक्त जंगल से थोड़ी लकड़ियां बटोर लाती ताकि बाबा की ईंधन की आवश्यकता पूरी होती रहे । लोमड़ी साधु बाबा के साथ वर्षों तक बालक की भांति सुख से रही ।

(रुचि मिश्रा मिन्की)

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