पुँछ की क्लियोपैट्रा (कहानी) : कृष्ण चन्दर

Punchh Ki Cleopatra (Story in Hindi) : Krishen Chander

जैसे किसी छोटे-से कमरे में कोई हीरा पड़ा हो तो सारा कमरा जगमगाने लगता है, उसी तरह किसी छोटे-से शहर में कोई बहुत ही सुन्दर औरत पैदा हो जाए तो सारा शहर उसके सौन्दर्य से जगमगाने लगता है। गलियों, कूचों, बाज़ारों, दफ़्तरों में उसकी चर्चा होने लगती है। अगर वह अपने मुहल्ले से गुज़रकर किसी दूसरे मुहल्ले में जाती है तो सारे शहर में उसकी ख़बर फैल जाती है। अगर वह कभी किसी बाज़ार से गुज़रती है, तो फिर घण्टों उस छोटे-से शहर के बाज़ार में कोई काम नहीं हो सकता। किस तरह वह चल रही थी? कौन-से कपड़े उसने पहन रखे थे? कौन उसके साथ था? किस तरफ़ उसकी निगाह उठी थी? ये सब बातें कोई स्कैण्डल फैलाने की ग़र्ज़ से नहीं की जाती हैं, उन बातों में किसी क़िस्म की बदनीयती का कड़वापन भी नहीं होता है बल्कि छोटे-से शहर के लोगों में उस अत्यन्त सुन्दर स्त्री के लिए एक अजीब तरह का प्यार, एक अजीब तरह का अपनापन पैदा हो जाता है। अपनेपन के साथ यह गर्व भी होता है कि हमारे छोटे-से शहर ने इसे पैदा किया है। वह औरत अपने शहर का गौरव और आभूषण समझी जाने लगती है।

ज़रा-सी भूल पर क्रुद्ध हो जाने वाले बुज़ुर्ग और शुद्ध आचरण वाले दढ़ियल इस गर्व से उस स्त्री की मुहब्बतों और बेवफ़ाइयों का ज़िक्र करते हैं, जैसे वे कोई ऐतिहासिक कारनामे हों। मालूम नहीं ऐसा क्यों होता है, मगर होता ज़रूर है कि बहुधा ऐसी औरत सभ्यता की गरिमा से ऊँची समझी जाने लगती है। शायद वह ख़ुद एक सभ्य नियम बन जाती है, जिसके नियम प्रचलित सिद्धान्तों से भिन्न होते हैं; शायद ऐसी औरत अपने-आप में स्वयं एक मज़हब या धर्म होती है, एक छोटी-सी जीवन-व्यवस्था, अपने-आप में पूरी और स्वतन्त्र!

ऐसी औरत को हर तरह की छूट दे दी जाती है, मगर दूसरी औरत की मामूली से मामूली सामान्य भूल को भी मुआफ़ नहीं किया जाता, कुछ अजीब हिसाब है। ऐसी स्त्री को पुरुष, समाज, इतिहास सब क्षमा कर देते हैं। याद कीजिए, हेलन, क्लियोपैट्रा और वसुन्धरा!… हेलन और क्लियोपैट्रा को तो आप सब जानते हैं, मगर वसुन्धरा का नाम आपने नहीं सुना होगा।

वसुन्धरा पुँछ की रहने वाली थी। शायद बचपन में वह मेरे साथ खेली थी। मुझे कुछ ठीक तरह से वह ज़माना याद नहीं है। उसका घर नानबाइयों के बाज़ार के पीछे था। वहाँ पर एक शिवाला था। उसके सामने बहुत-सी ज़मीन खाली पड़ी थी। फिर हमारे दूर-पार के एक रिश्तेदार का घर था, जो शहर का सबसे अमीर आदमी था। कभी-कभी मैं उसके घर जाया करता था, कभी-कभी वसुन्धरा भी वहाँ खेलने के लिए आ जाती थी।

मुझे उसके बचपन की सूरत ठीक तरह से याद नहीं है, क्योंकि बचपन में वह एक साधारण हँसमुख लड़की रही होगी, जैसी दूसरी साधारण सुन्दर लड़कियाँ होती हैं। कौन याद रखता है, फिर यह भी बहुधा देखा गया है कि बचपन में जो लड़कियाँ अत्यन्त सुन्दर दिखायी देती हैं, जवानी की सीमा में आते ही उनका हुलिया अजीब तरीक़े से बदल जाता है और वे उतनी ख़ूबसूरत और हसीन मालूम नहीं होतीं। अक्सर यह भी देखा गया है कि बचपन में जिन लड़कियों की शक्ल व सूरत मामूली होती है, बड़े होकर भी वे मामूली शक्ल व सूरत की रहती हैं, मगर कभी-कभार इन्हीं मामूली शक्ल व सूरत की लड़कियों में कोई एक ऐसी लड़की पैदा हो जाती है, जिसकी सुन्दरता जवानी की हदों को छूते-छूते ही आँखों में चकाचौंध पैदा करने लगती है। वसुन्धरा एक ऐसी ही लड़की थी।

बचपन में मैंने कई बार देखा था, कई बार साथ खेला भी था, कभी ख़्याल ही नहीं किया। कई वर्ष गुज़र गए, वह चौदह वर्ष की हो गई, यह सुना कि वसुन्धरा बहुत ख़ूबसूरत निकल रही है, फिर भी कुछ ख़्याल नहीं किया। ख़ूबसूरत लड़कियों वाले शहर में एक और लड़की का ख़ूबसूरत निकल जाना कोई अचम्भे की बात नहीं। फिर जब उसके हुस्न के चर्चें बढ़ने लगे, तो उसके बाप मदन सिंह ने जो एक सुनार था, जल्दी से उसका ब्याह अपनी बिरादरी के एक लड़के गोपाल सिंह से कर दिया।

गोपाल सिंह भी एक सुनार था और पुँछ के बाज़ार में ही उसकी दुकान थी और वह ख़ुद भी शक्ल व सूरत का बहुत अच्छा था और घर का खाता-पीता था, मगर कोई ख़ास बात न थी, बस शादी हो गई। कहीं कोई हलचल पैदा नहीं हुई। लोग उस शादी को दूसरे दिन ही भूल गए।

शादी के बाद वसुन्धरा का रंग-रूप एकाएक ऐसा निखरा, ऐसा निखरा कि नगरी में चारों तरफ़ उसके चर्चें होने लगे। उसके सुनहरी बालों, बड़ी-बड़ी मस्त आँखों और पिघले हुए सोने की-सी सुनहरी रंगत का बार-बार ज़िक्र होने लगा। उसके क़द की, उसकी चाल की, उसके कपड़ों की तारीफ़ होने लगी, उसके मुहल्ले के सौ-सौ फेरे किए जाने लगे, लोग घण्टों वसुन्धरा की एक झलक देखने के लिए बेताब रहने लगे। जिधर से वह गुज़र जाती, जिस घर में वह जाती, जिधर से उसे गुज़रना होता, यार लोग घण्टों पहले उस जगह के चक्कर लगाने लगते थे। शादी के बाद छ: माह में उसके सौंदर्य का शोहरा बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर था।

होते-होते वसुन्धरा की सुन्दरता का शोहरा दरबार तक पहुँचा, राजमहलों तक पहुँचा। इत्तिफ़ाक से एक स्टेट सेक्रेटरी का घर वसुन्धरा के माँ-बाप के घर के बिल्कुल सामने स्थित था। वसुन्धरा के माँ-बाप का घर एक मंज़िला और मामूली-सा घर था। स्टेट सेक्रेटरी का घर वसुन्धरा के घर से बहुत बेहतर था, मगर था वह भी एक मंज़िला। इत्तिफ़ाक ऐसा हुआ कि जब भी वसुन्धरा अपने माँ-बाप के घर आती और चूँकि दोनों घर अर्थात् मैके के और ससुराल के एक ही शहर में थे, इसलिए वसुन्धरा दिन में दो-एक चक्कर तो अपने मैके के लगाती थी… तो उसके आगमन के कुछ देर बाद ही कुँवरजी शाही गारद के सवारों की अर्दल में घोड़ा दौड़ाते हुए स्टेट सेक्रेटरी से मिलने के लिए चले आते। केवल मुलाक़ात करने के लिए या कोई रियासती मशविरा करने के लिए, यह तो हमें मालूम नहीं कि क्या होता था, हाँ हौले-हौले उस स्टेट सेक्रेटरी का घर दो मंज़िला हो गया और वसुन्धरा के माँ-बाप का घर भी एक मंज़िला से दो मंज़िला हो गया।

स्टेट सेक्रेटरी के घर का सारा साज़ व सामान भी बदल गया। वसुन्धरा के घर की दूसरी मंज़िल पर टीन की छत पड़ गई जो पुँछ में ख़ुशहाली की आबरू समझी जाती है। वसुन्धरा की चाल-ढाल में शहज़ादियों की-सी शान-शौक़त आ गई। वसुन्धरा थी एक मामूली सुनार की लड़की, एक साधारण सुनार की स्त्री, मगर कहने वाले यह कहते हैं कि वह परियों की रानी मालूम होती थी।

एक बार हम लड़कों ने उसे भतिया के जंगल से वापस आते हुए देखा था, जहाँ वह कुँवरजी के साथ शिकार खेलने गई थी। उसके सुनहरे बाल उसके कन्धों से उठ-उठकर हवा में लहरा रहे थे। और उसका ख़ुशियों से गुलनार चेहरा डूबते हुए सूर्य की लाली से दमक रहा था। वह राजकुमार के साथ-साथ काले रंग के एक बैलर घोड़े पर सवार, केसरिया रंग की बिरजिस और खुले कालरों का रेशमी ब्लाउज़ पहने हुए कोई पाकिस्तानी शहज़ादी मालूम होती थी। यह तो वह वसुन्धरा ही न थी जो बचपन में मेरे साथ खेलती थी। उसकी निगाह आकाश पर थी और उसके घोड़े के सुम भी ज़मीन से लगते मालूम नहीं होते थे। अजब हुस्न व इश्क़ के दिन थे, जैसे सारा शहर इस इश्क़िया दास्तान में उलझा हो… दिन किसी उपन्यास के पृष्ठों की तरह दिलचस्प और रोमांटिक थे, कोई और बात ही न होती थी।

फिर सुना कि कुँवरजी को एकबारगी इंग्लैंड भेज दिया गया है, उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए। हर एक का दिल धक्-से रह गया, प्रत्येक व्यक्ति ने वसुन्धरा के दिल की पीड़ा और दु:ख को महसूस किया। इश्क़ की सहानुभूति और मजबूरी से हर शख़्स चूर-चूर था, हर शख़्स ने वसुन्धरा की आँखों में आँसू देखे। मुमकिन है वहाँ कोई आँसू न थे, मगर हम सबने उसकी आँखों में आँसू देखे। और एक सुन्दर औरत के विरह की आग को अपने दिल में महसूस किया।

चन्द माह बाद सुना कि वसुन्धरा एक बहुत बड़े अफ़सर की कोठी के आलीशान बाग़ में टहलती देखी गई। वज़ीर मानिकराय एक सुन्दर डोगरा राजपूत था और जम्मू के एक ऊँचे ख़ानदान का व्यक्ति था और हाकिमों के तबक़े से तअल्लुक़ रखता था। मन्त्री होने के नाते उसके हाथ में ताक़त भी थी क्योंकि राजा साहब कुछ महीनों से बीमार थे और कुँवरजी लंदन में थे, इसलिए रियासत की पूरी ताक़त खिंचकर मंत्री के हाथ में चली आयी थी।

चाँदनी रातों में फव्वारा बाग़ की रविशों पर लचकते हुए दो रोया फूलों की क्यारियों में टहलते हुए वसुन्धरा और मानिकराय को लोगों ने छुप-छुपकर देखा और फिर प्रधान मंत्री और वसुन्धरा की मुहब्बत की दास्तानें दुहरायी जाने लगीं, जैसे वसुन्धरा ने कोई बेवफ़ाई न की हो, बल्कि कोई दूसरा इलाक़ा फ़तह कर लिया हो। उसकी फ़तह के शादियाने हर दिल में थे। सारा शहर ख़ुशियाँ मना रहा था।

अब दरबार वसुन्धरा के मायके में लगता था, रियासत के कितने ही फ़ैसले जो उस आला अफ़सर को ख़ुद ही करने चाहिए थे वसुन्धरा ख़ुद करती थी। हाकिमों के तबादले और तरक्कियाँ और पदच्युति और इनाम व इक़राम और क्या कुछ… सारे शहर में वसुन्धरा का बोलबाला था।

मैं उन दिनों मैट्रिक पास करके आगे पढ़ने के लिए लाहौर चला गया था। और फ़ार्मन क्रिश्चियन कॉलेज लाहौर में फर्स्ट इयर क्लास में दाख़िल हो गया था। दो साल बाद जब पुँछ आया, तो नक़्शा ही बदला हुआ पाया। मंत्री मानिकराय की जगह नायब रेज़ीडेन्ट बहादुर ने ले ली थी। पुँछ में रेज़ीडेन्सी की एक शाखा थी, यहाँ पर एक नायब रेज़ीडेन्ट रहता था, तमाम महत्त्वपूर्ण विषयों में वह राजा साहब को मशवरे देता था और बहुधा उसके मशविरों पर अमल होता था। जब वसुन्धरा ने उस अँग्रेज़ रेज़ीडेन्ट का दिल जीत लिया और जब रेज़ीडेन्ट बहादुर साहब का घोड़ा वसुन्धरा के मायके के गिर्द, जो अब तीन-मंज़िला हो चुका था, देखा गया तो आश्चर्य की एक लहर सारे शहर में दौड़ गई। ऐसा लगा, जैसे पूरी बरतानवी सल्तनत का सिर एक हिन्दुस्तानी लड़की के क़दमों में झुक गया। इससे पहले ऐसी घटना बूढ़े-बुज़ुर्गों की स्मृति में न थी। यह तो पहली बार ऐसा हुआ था कि रेज़ीडेन्ट बहादुर ख़ुद चल के शहर के अन्दर किसी हिन्दुस्तानी के घर गए थे, वर्ना तो ख़ुद राजा साहब को जब कोई मशवरा लेना होता तो वे ख़ुद रेज़ीडेन्सी में जाते थे।

दो साल बाद जब मैं गर्मियों की छुट्टियों में पुँछ पहुँचा तो वसुन्धरा के हुस्न व जमाल का शोहरा उन्नति के शिखर पर था। अँग्रेज़ रेज़ीडेन्ट से इश्क़ करके वसुन्धरा ने गोया अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा की सीमाओं को छू लिया था। मैं उसे देखने के लिए बहुत बेताब था। इस दौर में मैंने ‘मादाम बोवारी’ पढ़ ली थी और बहुत-से फ़्राँसीसी उपन्यास। और मैं अब उन मशहूर फ़्राँसीसी सुन्दरियों के नामों से भी परिचित हो चुका था, जिनकी ड्‌योढ़ियों पर फ़्राँसीसी कैबिनेट के बड़े-बड़े वज़ीर सर झुकाते थे। हमारे शहर की भी एक औरत थी, ऐसी ही, मुझे उसे देखना ही चाहिए, क़रीब से… मगर कैसे देखूँ?…

मैंने अपने दोस्त अमरजीत सिंह से इसका ज़िक्र किया, जो खोड़ीनाड़ में रहता था, जिसके घर के चारों तरफ़ घने पेड़ों वाला एक बाग़ था और जिसके पिछवाड़े में एक पहाड़ी नाला शोर मचाता हुआ बहता था और जो दूर-पार से शायद वसुन्धरा का रिश्तेदार भी होता था। अमरजीत ने थोड़े टाल-मटोल के बाद मेरी बात मान ली और एक रोज़ किसी दावत में उसने वसुन्धरा को और उसके मायकेवालों को अपने घर खाने पर आमन्त्रित किया और उस दावत में मुझे भी खाने के लिए बुलाया। मुझे याद नहीं कि मैंने उस दावत में वसुन्धरा से कोई बात की हो। एक तो मैं उम्र में उससे चार-पाँच साल छोटा था, दूसरे अभी बिलकुल कच्चा और शर्मीला था, तीसरे शायद सुन्दरता के रौब ने ज़ुबान बन्द कर दी थी।

खाने के बाद हम अमरजीत के बाग़ में टहलने के लिए निकले। वे गर्मियों के दिन थे, बाग़ में सफ़ेद और पीली चमेली फूली हुई थी। पेड़ों पर ख़ूबानियाँ गदराई हुई थीं और अनार की कलियों से सारा चमन याक़ूतरंग था। टहलते-टहलते वसुन्धरा ने ख़ूबानी के चन्द पेड़ों के नीचे खड़े होकर ऊपर देखा और कहने लगी-

“ख़ूबानियाँ उम्दा मालूम होती हैं।”

दूसरे लम्हे एक पेड़ पर अमरजीत चढ़ गया, दूसरे पर मैं। चन्द मिनटों के बाद हम दोंनो ने बारी-बारी वसुन्धरा के सामने घास के एक तख़्ते पर सैकड़ों ख़ूबानियाँ ढेर कर दीं। थोड़ी देर में अमरजीत का एक चचा जो उसके घर में ही रहता था किसी और दरख़्त से नीचे उतरा और वसुन्धरा के सामने ख़ूबानियों का बहुतेरा ढेर लगाकर झेंपता हुआ वापस चला गया। वह लगभग साठ बरस का रहा होगा। उसके बाल सफ़ेद थे और जब वह चला गया तो वसुन्धरा नटखट लहजे में बड़े ज़ोर से हँसने लगी। फिर एकदम से उसने अपनी उँगली मेरे गाल पर रख दी और बोली-

“अरे किसने! बचपन में तेरे गाल पर यहाँ एक गड्ढा पड़ता था, वह क्या हुआ?”

मैं इस क़दर झेंपा कि चेहरा कानों तक सुर्ख़ हो गया। जल्दी से वहाँ से भाग लिया, मैं एक शब्द भी तो उससे नहीं कह सका, बस उठकर वहाँ से भाग गया। दूर तक उसकी हँसी के चमेली के फूल मेरे कानों पर गिरते रहे।

उसके बाद मैंने वसुन्धरा से मिलने की कभी कोशिश नहीं की। हाँ, उसकी वह उँगली मैंने अभी तक सम्भाल के रखी है, दिल के किसी गड्ढे में, क्योंकि अब तो मेरे गालों में गड्ढा नहीं पड़ता है, जो कभी बचपन में था और मैं बहुत बदल गया हूँ, मगर दिल में कई गड्ढे हैं। वह उँगली शहद की किसी क़लम की तरह अब भी रातों के अन्धेरे में मेरे गाल को छूती है और नटखट स्वर में मुझसे पूछती है, ‘किसने! तेरे गाल का वह गड्ढा कहाँ गया?’

वसुन्धरा से किसी को शिकायत नहीं थी, यह कि वह बेवफ़ा थी, यह कि उसने कई बार मुहब्बत की थी, यह कि उसने बहुत-सी मुहब्बतों को ठुकरा दिया था, यह कि उसने सिर्फ़ ऊँची जगहों पर इश्क़ किया था। किसी को उससे शिकायत नहीं थी, हम सब उसके शुक्रगुज़ार थे कि वह हममें पैदा हुई। ऐसा लगता था, जैसे हममें से हर एक को उससे अलग-अलग इश्क़ है।

कुछ तो उसके इश्क़ की दास्तानें सच्ची भी थीं, कुछ गढ़ ली जाती थीं। हौले-हौले चन्द सालों में वसुन्धरा हमारे शहर की एक लीजेन्ड बन गई। मगर उसके शौहर को उससे बहुत शिकायत थी। वह ख़ुद बेहद सजीला नौजवान था, इसलिए उसका गिला जायज़ था, कि वह सिर्फ़ उससे इश्क़ क्यों नहीं करती है, जबकि वह ख़ासा ख़ुशहाल भी है, वह बेवफ़ा और हरजाई क्यों है? लोग क्यों उसके हुस्न के गीत गाते हैं, उसके फ़िराक़ में आहें भरते हैं, उसे देखकर ठठ के ठठ बाँधकर खड़े हो जाते हैं।

हौले-हौले उसका अपना कोई व्यक्तित्व न रहा था, वह अब केवल वसुन्धरा का पति था, हर समय उसके दिल में एक अजीब व ग़रीब लड़ाई चलती रहती। वह वसुन्धरा से अत्यन्त प्रेम करता था और वसुन्धरा भी उससे करती थी। वह कहीं भी जाती, आख़िर को तो उसके पास आती थी। वही तो उसका पति था और कोई दूसरा न हो सकता था, मगर कभी-कभी उसको इतना ग़ुस्सा आता कि उसका दिल वसुन्धरा को पीटने के लिए चाहने लगता; मगर वसुन्धरा को देखते ही उसका दिल पिघल जाता और वह उसे मारने के बजाय उसके क़दमों में झुक जाता। मगर वसुन्धरा के क़दमों में झुकते हुए भी दुनियावालों के लिए उसका क्रोध बढ़ जाता, वह सारी ज़िम्मेदारी बाहर की दुनिया पर डाल देता, जो वसुन्धरा के विचित्र सौन्दर्य से प्रभावित होकर इस जोड़े के गृहस्थ जीवन को बिगाड़ती है, और इन दोनों को चैन से नहीं रहने देती।

जब इस तरह वसुन्धरा के तीन-चार क़िस्से हो गए और जब रेज़ीडेन्ट बहादुर वाला रोमान्स ज़ोर पकड़ने लगा, तो वसुन्धरा के पति ने शहर छोड़ने की ठान ली… वह पुँछ छोड़ देगा और हसीन बीवी को लेकर कहीं और चला जाएगा, किसी दूर-दराज़ के इलाक़े में जहाँ इस शहर के हुस्न व इश्क़ की चर्चा की छाया भी उन तक न फटके। उसने पुँछ छोड़कर जाने की ठान ली और हौले-हौले उसने वसुन्धरा को भी इस बात के लिए राज़ी कर लिया। पहले तो वसुन्धरा पुँछ छोड़ने के लिए कदापि तैयार न थी, लेकिन जब गोपाल ने उसे छोड़ देने की धमकी दी, तो आख़िर औरत थी, राज़ी हो गई और अपने शौहर के साथ राजौरी जाने को तैयार हो गई।

चुपके-चुपके वसुन्धरा के पति ने जाने की सारी तैयारी कर ली, उसने किसी को नहीं बताया कि वह पुँछ छोड़ रहा है, वसुन्धरा को उसने ख़बरदार कर दिया था कि इस बात से किसी को आगाह न करे। मगर न जाने किस तरह से यह ख़बर सारे शहर में फैल गई, जगह-जगह नाकों और नुक्कड़ों पर और बाज़ारों में और गली-कूचों में और दफ़्तरों में यह ज़िक्र होने लगा कि गोपाल वसुन्धरा को लेकर जा रहा है, हमेशा के लिए पुँछ छोड़ रहा है, और कौन उसे मना कर सकता है? गोपाल वसुन्धरा का पति है, वसुन्धरा अपने पति के साथ जा रही है। सारे शहर पर जैसे बिजली-सी गिर पड़ी, सब सन्न थे, मगर मुँह से कुछ कह नहीं सकते थे, एक-दूसरे से कानाफूसी में बातचीत करते थे। सबके चेहरे सहमे हुए थे, जैसे शहर पर कोई बहुत बड़ी आफ़त आने वाली हो। जाने का वक़्त आ गया।

वसुन्धरा के पति ने सुबह-सवेरे सारा सामान छ: खच्चरों पर लदवाकर उन्हें पहले से रवाना कर दिया, निगाली साहब की तरफ़… जाने से पहले वे दोनों निगाली साहब के गुरुद्वारे में हाज़िर होके अपने-अपने पापों से मुक्त होंगे और फिर एक नयी ज़िन्दगी शुरू करने के लिए राजौरी चले जाएँगे।

निगाली साहब का गुरुद्वारा शहर से चार मील बाहर एक रमणीक पहाड़ी मुक़ाम पर था। रास्ता कठिन था, एक जगह पर एक ख़तरनाक नाले पर लकड़ी का एक पुल आता था; उसे पार करने के बाद एक भयानक उतराई उतरकर पुँछ के दरिया के एक हिस्से को पैदल चलकर पार करना पड़ता था, क्योंकि यहाँ पर दरिया का पाट इतना चौड़ा था कि यहाँ पर कोई पुल न था, इसीलिए वसुन्धरा के पति ने सामानवाले खच्चरों को सुबह-सवेरे निगाली साहब की तरफ़ रवाना कर दिया, उनसे कह दिया कि वह शहर से दो मील बाहर कोठानी के पुल के पास उसका इन्तज़ार करें। दो घोड़े उसने अपने लिए और वसुन्धरा के लिए रख लिए और फिर वसुन्धरा को लेकर उसके मायकेवालों से विदा कराके शहर से बाहर जाने लगा।

वसुन्धरा और उसका पति दोनों अपने-अपने घोड़ों पर सवार, अपने ख़्यालों में गिरफ़्तार शहर की सीमा से बाहर निकल गए। डुँगस के चश्मे से आगे जाने वाले रास्ते पर निकल गए। अब शहर की इमारतें ख़त्म हो चुकी थीं, धान और मक्का के खेत शुरू हो गए थे, लेकिन कहीं-कहीं इक्का-दुक्का रास्ते में कच्चे मकान दिखायी देते और सफ़री चायख़ाने। रास्ते में सन्नाटा था और वसुन्धरा सिर झुकाए घोड़े की बाग ढीली रखे कुछ सोचती चली जा रही थी। उसे आज अपना शहर छोड़ते हुए कितना अजब मालूम हो रहा था। वह क्या कर सकती है, जाना तो होगा उसे। एक तरह से ठीक भी है।

शहर बहुत पीछे रह गया; खेत, दुकान, कच्चे मकान भी पीछे रह गए, अब पहाड़ी रास्ता था, एक कच्ची पगडण्डी-सी पहाड़ के सीने पर रेंगती हुई ऊपर जा रही थी। इस पहाड़ के दूसरी तरफ़ कोठानी का ख़तरनाक नाला था, जिसे पार करके वे निगाली साहब की तरफ़ बढ़ जाएँगे और फिर निगाली साहब में सीस नवाके वे नयी ज़िन्दगी की तरफ राजौरी की जानिब बढ़ जाएँगे।

अब दूर-दूर तक कोई आबादी नहीं है, सुनसान रास्ते, वीरान जंगल, कहीं-कहीं पेड़ों के नीचे पहाड़ी गड़रियों के ख़ामोश गल्ले ढलवानों पर चरते हुए। वसुन्धरा के दिल से एक आह निकली और वे दोनों पहाड़ी ऊँचाई का मोड़ काट के पहाड़ के दूसरी तरफ़ चले गए जहाँ कोठानी नाले पर लकड़ी का पुल था। पहाड़ के दूसरी तरफ़ जाकर एकाएक उन्हें लोगों की एक भीड़ दिखायी दी। बहुत लोग थे, पाँच सौ के क़रीब होंगे, नहीं हज़ार से ऊपर होंगे, नहीं दो हज़ार के क़रीब होंगे, नहीं तीन हज़ार से भी ऊपर होंगे। यह उसके अपने शहर के लोग थे और इतनी बड़ी तादाद में रास्ते में खड़े थे कि उनकी ओट में लकड़ी का पुल छिप गया था। वे दोनों जब उन लोगों के क़रीब पहुँचे तो किसी ने उनसे कुछ नहीं कहा, भीड़ ने छटकर उन्हें रास्ता दे दिया। एक ने वसुन्धरा के घोड़े की बाग थाम ली, किसी दूसरे ने दूसरे घोड़े की बाग अपने हाथ में ले ली और आहिस्ता-आहिस्ता कुछ कहे बग़ैर वे लोग उनके साथ-साथ चलने लगे। वसुन्धरा के पति ने आश्चर्य से पूछा: “आप लोग कहाँ जा रहे हैं?”

“निगाली साहब!” एक शहरी ने जवाब दिया और गोपाल के साथ-साथ चलने लगा।

वसुन्धरा का पति हैरत में था, यह क्या माजरा है, मगर कोई उससे पूछताछ न करता था, न कोई वसुन्धरा से बात करता था, वे सब लोग एक क़ाफ़िले की सूरत में ख़ामोशी से उनके साथ चल रहे थे। बहुत जल्द वे लोग कोठानी के लकड़ी के पुल के क़रीब पहुँच गए, जो एक भयानक गहरे नाले की खड्ड के ऊपर स्थित था। मगर यह देखकर वसुन्धरा के पति के मुँह से आश्चर्य की ऐसी चीख़ निकल गई कि नाले का पुल खड्ड के अन्दर गिरा हुआ था और पानी उसके ऊपर बह रहा था, “पुल टूट गया।”

एक साहब बड़ी गम्भीरता से बोले, “सचमुच!”

दूसरे साहब ने गोपाल को बताया, “देखिए, पुल टूट गया है।”

तीसरे साहब, जो वसुन्धरा के घोड़े की बाग थामे थे, अफ़सोस से सिर हिला के बोले, “अब हम लोग निगाली साहब कैसे जाएँगे? पुल तो टूट गया है।”

वसुन्धरा का पति दिल ही दिल में ग़ुस्से से पेच व ताव खा रहा था, इन कमबख़्तों ने ख़ुद ही पुल तोड़ डाला है, और मुझे किस भोलेपन से बता रहे हैं कि पुल टूट गया है, ये ख़ुद हमारा रास्ता रोक रहे हैं और अपनी बुद्धि से मुझे बता रहे हैं कि वह तो किसी तरह की दिलचस्पी हमारे जाने, न जाने से नहीं रखते। मगर ये सब लोग यहाँ आ कैसे गए? वह हैरान था। इन लोगों में सिर्फ़ नौजवान ही नहीं थे, बुड्‌ढे और अधेड़ उम्र के लोग भी थे, हिन्दू भी थे और मुसलमान भी, सिख भी और ईसाई भी, डोगरे भी और कश्मीरी पण्डित भी, रंगीन तबीयत भी और उदास तबीयत भी, ऐसे लोग भी जिनके चाल-चलन पर आज तक किसी ने उँगली न रखी थी। उनमें दुकानदार भी थे और छोटे-मोटे हाकिम भी, बाग़ों के माली और गड़रिये भी और वे लोग भी जिनकी सूरत तक से वह परिचित नहीं था। वे सब उसे रोकने के लिए आए थे… उसके दिल में एक अजब जंग-सी होने लगी, इतने लोगों के आने की उसे ख़ुशी भी थी, और ग़ुस्सा भी था, और दोनों भाव एक-दूसरे से गुँथे हुए थे।

“मगर मैं तो जाऊँगा।” उसने अन्त में दाँत पीसकर कहा।

“मगर जाओगे कैसे? पुल तो है नहीं… और खड्ड गहरी है और उस खड्ड पर पुल बनाने के लिए कम से कम दो माह दरकार होंगे।” एक ने कहा।

“हाँ, ठीक है, दो माह बाद चले जाना।” दूसरा बोला।

बुड्ढे क़ासिम जू ने कहा, “मेरी बेटी की शादी अगले माह में होगी, उसके ज़ेवर कौन तैयार करेगा?”

“और मेरी बहन कहती है, मैं तो गोपाल के हाथ की बनायी हँसली पहनूँगी अपनी शादी में! और तुम चले जा रहे हो।” चौथा बोला।

“यह सोलह तोले सोना है, मेरी बीवी के लिए दो गोखरू बना दो, जैसे तुमने ठाकुर दयाल सिंह की बच्ची के लिए तैयार किए हैं। बिलकुल उसी डिज़ाइन के बनने चाहिए, गोपाल! तुम हमारे शहर के सबसे अच्छे सुनार हो, यह काम तो तुम्हें अपनी भाभी की ख़ातिर करना ही होगा।” ठाकुर जगजीत सिंह कपड़े की एक छोटी-सी पोटली में बँधा हुआ सोना उसके हाथों में देने की कोशिश करने लगा।

एकाएक उसको चारों तरफ़ से लोगों ने घेर लिया। कोई सोना लाया था, कोई चाँदी, अमीर और ग़रीब सब मिलकर उसको काम दे रहे थे; वे उसे जाने से नहीं रोक रहे थे, वे उसे इतना काम दे रहे थे कि वह अगले मास तो क्या अगले दो साल में भी उस काम को पूरा नहीं कर सकता था। जो कुछ उन्होंने कहा था, वह इतना ज़रूरी नहीं था, जितना वह ज़रूरी था जो उन्होंने उससे नहीं कहा था, और जो कुछ उन्होंने उससे नहीं कहा था, उसने उसके दिल को पकड़ लिया था। उसे अपना गला बन्द होता मालूम हुआ, उसकी आँखों में आँसू आने लगे, वे उसे सोने-चाँदी की रिश्वत नहीं दे रहे थे, प्यार की रिश्वत दे रहे थे, हम तुम्हें जाने न देंगे, किसी तरह जाने न देंगे। वसुन्धरा के नेत्रों में जल छलक आया, उसने अपना मुँह दुपट्टे में छिपा लिया।

“अच्छा अब मैं कभी यह शहर छोड़कर न जाऊँगा।” वसुन्धरा का पति अपने आँसू पोंछते हुए कहने लगा।

एकाएक नौजवान उछलने लगे और ढोल बजाने लगे और सब मिलकर पहाड़ी गीत गाने लगे, घोड़ों की बागें वापस फेर दी गईं और यूँ तो मैंने अपनी ज़िन्दगी में बड़े-बड़े जुलूस और जश्न देखे हैं, मगर मुझे उस चमकीले रोज़ वाला वह छोटा-सा पहाड़ी क़ाफ़िला कभी नहीं भूलता, जब एक छोटे-से शहर के लोग अपने शहर की ख़ूबसूरती को वापस लेकर आए थे।

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