प्रजावादी समाजवादी (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई

Prajawadi Samajwadi (Hindi Satire) : Harishankar Parsai

साथी तेजराम 'आग' प्रजा समाजवादी दल के पुराने और प्रतिष्ठित नेता हैं। वे पहले प्राय: टोपी भी लगाते थे, पर एक दिन डॉ। लोहिया ने कह मारा कि यह बड़ी बेवकूफी की बात है। 'आग' ने उसी दिन से प्राय: टोपी उतार दी। अब वह नंगे सिर ही रह रहे हैं।

मैं उनके कमरे में चुपके से चला गया। वे बाबू जयप्रकाश नारायण के एक बड़े चित्र के सामने खड़े-खड़े रो रहे थे और कहते जाते थे- ''साथी, अब लौट आओ। बहुत साल हो गए। संन्यास तो तुमने लिया, पर बनवास हमें हो गया। साथी, पन्द्रह साल हो गए, जब तुमने हमसे कहा था कि 1952 में अपनी सरकार बनेगी। मगर यह ‘63 पूरा होने को आया। इन सालों में मैंने संसद से लेकर नगरपालिका तक का हर चुनाव और उपचुनाव लड़ा, पर आज तक कहीं का मेम्बर नहीं हुआ। हम तो सन् ‘47 में तुम्हारे ही भरोसे कांग्रेस से निकल आए थे। साथी! हम हजारों युवक पूरे देश में निकल-निकलकर तुम्हारे पीछे हो गए थे। आज उनमें से अधिकांश की राजनीतिक मृत्यु हो चुकी है। तुमने ऐसा क्यों किया? हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था? हम तो तुम्हारे भरोसे नाव में बैठ गए और तुम मँझदार में हमें छोड़ पतवार लेकर डुबकी लगा गए। साथी, अब हम बूढ़े हो गए हैं, मगर बुढ़ापा भी हमारे किसी काम नहीं आया। कांग्रेस में ही रहते तो हम आज भी 'वयोवृद्ध कांग्रेसी’ कहलाते और कहीं सरकार में होते। मगर इस पार्टी में होने के कारण हमारी कोई इज्जत नहीं है। एक मामूली पुलिस इन्स्पेक्टर तक हमारे कहने से किसी को नहीं छोड़ता।

''साथी, अभी भी आ जाओ, अब तो 'नेहरू के बाद कौन?’ प्रश्न पर दो-तीन कांग्रेसी नेताओं की ही चर्चा होती है, तुम्हारे बार-बार कहने पर भी जब नेहरू पद नहीं छोड़ता तो कोई और उपाय करो, साथी। अब तो लौट ही आओ। तुम तो हजारीबाग जेल की दीवार फाँदकर भाग आए थे। क्या तुमसे सर्वोदय आश्रम से भागते नहीं बनता। जरा हमारी तरफ भी तो देखो। तुमने हमारा क्या हाल कर दिया है, साथी!’’
वे फूट-फूटकर रोने लगे। मुझसे भी वह दुख देखा नहीं गया। मेरी भी आँखें गीली हो गईं।
मैंने धीरे से पुकारा, ''आगजी!’’
वे डूबे थे। बिना मुड़े ही बोले, ''यहाँ कोई आगजी नहीं है। कई साल पहले थे। अब तो यहाँ राखजी रहते हैं।’’
उन्हें मेरी उपस्थिति का अभी तक कोई आभास नहीं था। मैं जोर से खाँसा। वे अचकचाकर मुड़े। झट आँसू पोंछ डाले। बोले, ''आप यहाँ कब से खड़े हैं?’’
मुझसे झूठ नहीं बोला गया, ''काफी देर हो गई।’’
वे परेशान हो गए। पूछा, ''तो क्या आपने रोना देख लिया?’’
''रोना नहीं, विलाप!’’ मैंने कहा।
''हाँ, विलाप ही सही। पर क्या आपने देख लिया?’’
''जी हाँ, और सुन भी लिया।’’
वे चिन्ता में पड़ गए। कहा, ''देखिए, आप किसी से कहिए नहीं।’’
मैंने कहा, ''मगर आगजी, कल शाम को तो आप सभा में सरकार से इस्तीफा माँग रहे थे, संघर्ष की धमकी दे रहे थे। और इधर आप।।।’’
आगजी ने कहा, ''वह सार्वजनिक मामला था, यह प्राइवेट है। बाहर वीर-रस होता है, भीतर करुण-रस!’’
मैंने पूछा, ''यह कार्यक्रम क्या रोज चलता है?’’
उन्होंने कहा, ''हाँ, लेकिन आधार बदलता रहता है।’’
''क्या मतलब?’’ मैंने कहा।
उन्होंने समझाया, ''यही कि कभी-कभी मैं राजाजी के सामने और गुरु गोलवलकर के सामने भी रो लेता हूँ कि तुम्हीं कुछ करो हमारे लिए।’’
उनके कमरे में लगभग सब देशों के नेताओं की तस्वीरें टँगी थीं। पंडित नेहरू की भी एक बड़ी तस्वीर थी।
मैंने पूछा, ''आगजी, कभी नेहरू भी आपके विलाप के आधार होते हैं?’’

वे बोले, ''हाँ, उन्होंने और जयप्रकाश ने मिलकर ही हमारा यह हाल किया है। दोनों ने हमारे साथ धोखा किया। जयप्रकाश ने जो किया, सो तो आपने अभी सुन ही लिया। नेहरू ने 1956 में अवाड़ी कांग्रेस में हमारे साथ महान धोखा किया। उन्होंने हमारा 'समाजवाद’ का नारा ही छीन लिया। अरे, ऐसा 1947 में ही कह देते, तो हम क्यों और समाजवाद के चक्कर में पड़ते? हम कोई और पार्टी देखते। जनसंघ में ही चले जाते।’’

उनके अन्तिम वाक्य से मैं चौंका। मैंने कहा, ''आगजी, जनसंघ और समाजवादी पार्टियों में कोई अन्तर आप नहीं मानते? इसमें नहीं तो उसमें आना-जाना सहज ही हो जाता है?’’

आगजी के चेहरे पर अब राजनीतिक ज्ञान की चमक आ गई, बोले, ''कोई अन्तर नहीं है। वे भी विरोधी हैं, हम भी विरोधी हैं। विरोधी-विरोधी सब एक होते हैं।’’ उनका आत्मविश्वास लौट आया था। वे सपने में डूबते हुए कहने लगे, ''सब विरोधी मिलकर इस सरकार को निकाल देंगे। तब हमारी सरकार बनेगी। यही हमारी योजना है।’’

मैंने कहा, ''मगर आगजी, आप समाजवादी हैं, स्वतंत्रपार्टी, पूँजीवादी, जनसंघ सम्प्रदायवादी, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम पृथकतावादी। यदि सबके मेल से यह सरकार निकल भी गई, तो आप लोग, जिनके परस्पर-विरोधी सिद्धान्त हैं, काम कैसे करेंगे? समाजवादी का स्वतंत्री कट्टर दुश्मन होगा। अखंड भारत वाले जनसंघ की दुश्मनी डी।एम।के। से होगी। तो जब भारत आपके कब्जे में आ जाएगा, तब आपस में कशमकश नहीं मचेगी?’’

मेरी शंकाओं पर उन्हें हँसी आई। जैसे शिक्षक बच्चे को समझाता है, वैसे मुझे समझाने लगे, ''देखो, साथ काम करने के लिए हर एक को कुछ छोड़ना पड़ता है। हमने हिसाब लगा लिया है। हम दक्षिण भारत तो डी।एम।के। को दे देंगे कि लो भाई, तुम अपना हिस्सा सँभालो। स्वतंत्र पार्टी के सन्तोष के लिए हम राजा-रानियों को उनके रजवाड़े वापस कर देंगे और भिलाई जैसे सार्वजनिक उद्योग प्राइवेट कम्पनियों को दे देंगे। जनसंघ के सन्तोष के लिए हम कहेंगे कि भाई तुम दक्षिण अफ्रीका जैसे कानून बना लो और हिन्दू को वही दर्जा दे दो, जो दक्षिण अफ्रीका में गोरे को दिया है। पंजाब हम मास्टर तारासिंह को सौंप देंगे। अब जितना हिस्सा देश का बचेगा, उसमें सब ठीक चलेगा।’’
मैंने पूछा, ''आगजी, योजना तो अच्छी है। मगर इसमें आपका समाजवाद कहाँ रहेगा?’’
आगजी ने जवाब दिया, ''समाजवाद को गोली मारो। वे शब्द पुराने पड़ गए। पार्टी का कोई नाम तो होना चाहिए, इसलिए हमने 'समाजवादी’ नाम रख लिया। मूल मन्तव्य है, सत्ता हासिल करना।’’
मैंने कहा, ''विरोधी दलों के इस अभियान में कम्युनिस्ट पार्टी भी शामिल होगी?’’
सुनकर आगजी उठ खड़े हुए और ऊदबत्ती जला दी। कहने लगे, ''कमरा गन्दा हो गया। उसे शुद्ध हो जाने दो। क्या नाम ले दिया आपने? कम्युनिस्ट! कम्युनिस्ट हमारे साथ क्यों होंगे?’’
''वह भी विरोधी दल है न!’’ मैंने कहा।
वे बोले, ''कम्युनिस्ट विरोधी दल नहीं है। वह विरोधी नहीं होता। वह कम्युनिस्ट होता है। हर हालत में वह कम्युनिस्ट होता है। वह भिलाई किसी प्राइवेट कम्पनी को देने देगा?’’
आगजी ने भारत के राजनीतिक भविष्य का नक्शा मेरे सामने खोलकर रख दिया था। मुझे उनके और उनकी पार्टी के बारे में थोड़ी जानकारी और चाहिए थी। मैंने पूछा, ''आगजी, आपने कांग्रेस क्यों छोड़ी?’’
वे बोले, ''सैद्धान्तिक मतभेद के कारण। मैं सिद्धान्त का पक्का आदमी हूँ। सिद्धान्त को त्यागकर मैं किसी दल में नहीं रह सकता।’’
मैंने कहा, ''सैद्धान्तिक मतभेद को जरा और स्पष्ट करके समझाइए।’’

उन्होंने बताया, ''सन् 1952 की बात है। पहला आम चुनाव होनेवाला था। उस समय कांग्रेस का टिकट मुझे न देकर मेरे प्रतिस्पर्धी मोहनलाल को दे दिया गया। बस, मेरा सैद्धान्तिक मतभेद हो गया और मैंने कांग्रेस छोड़ दी। सिद्धान्त का पक्का हूँ मैं। तभी समाजवाद के नेताओं ने कहा कि हम 1952 में सरकार बनाएँगे, जिसे आना हो आ जाओ। मैं उनकी पार्टी में चला गया। भई, जो सरकार बनानेवाला हो, उसके साथ रहना चाहिए। इसके बाद का दुर्भाग्य आपको मालूम ही है।’’ मैंने अब कार्य और नीति पर चर्चा शुरू की। कहा, ''आगजी, आपका कोई कार्यक्रम है? किन नीतियों पर आप चलते हैं?’’

आगजी ने फरमाया, ''हम विरोधी दल हैं। हमारी नीति है- स्वस्थ विरोध करना। आप जानते ही हैं कि प्रजातंत्र में स्वस्थ विरोध की बड़ी आवश्यकता है।’’ मैंने पूछा, ''स्वस्थ विरोध का क्या अर्थ है? और अस्वस्थ विरोध कैसा होता है?’’

आगजी ने समझाया, ''इसका भी नियम है। जिस पार्टी के नेता कमजोर और बीमार रहते हैं, उस पार्टी का विरोध स्वस्थ विरोध कहलाता है। हमारे नेता थे दादा कृपलानी, जो कमजोर हैं। अशोक भाई का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता इसलिए हमारी पार्टी का विरोध स्वस्थ है। उधर देखिए।।।जनसंघ में सब संडे-मुस्टंडे भरे हैं, लोहिया भी गबरू जवान है, इसलिए इन पार्टियों का विरोध अस्वस्थ विरोध है। स्वस्थ विरोध का एक और लक्षण यह है कि वह हर मुद्दे पर और हर स्थिति में होता है।’’
''जैसे?’’ मैंने उकसाया।

वे बोलते गए, ''जैसे यही कि कांग्रेस ने समाजवाद अपना लिया, तब भी हम खुद समाजवादी होकर उसके समाजवाद का विरोध करेंगे। हम स्वस्थ विरोधी दल हैं न? चीनी हमले के पहले हमने बजट में सैनिक खर्च का विरोध किया। फिर इस बात पर विरोध किया कि तैयारी क्यों नहीं की। और अब सरकार तैयारी के लिए पैसा वसूल करती है, तो हम उसका भी विरोध करते हैं। सरकार मैकमोहन रेखा को भारत की सीमा मानती है, तो हम आगे बढ़कर तिब्बत तक मानते हैं। कल अगर सरकार तिब्बत तक सीमा मानने लगे, तो हम मैकमोहन रेखा तक आ जाएँगे।’’ मैंने कहा, ''यह स्वस्थ विरोध कब तक होगा?’’

वे तपाक से बोले, ''आज ही खत्म हो सकता है। कांग्रेस सन् ‘67 के चुनाव के लिए मोहनलाल के बदले हमें टिकट दे दे। हम विरोध समाप्त कर देंगे। हमें पागल कुत्ते ने थोड़े काटा है! आप जरा उन लोगों से हमारे बारे में बात कीजिए न।’’
मैंने आखिरी प्रश्न किया, ''लोहिया समाजवादी पार्टी और आपकी पार्टी में किस बात पर मतभेद है? दोनों पाटियाँ एक क्यों नहीं हो रही हैं?’’

आगजी ने कहा, ''भैया, सो तो लोहिया और अशोक भाई जानें! हमने तो यही सुना है कि डॉक्टर साहब को दाढ़ी पसन्द नहीं है और अशोक भाई को नाटापन पसन्द नहीं है, सो एक ने कहा- दाढ़ी मुड़ाओ, तो दूसरे ने कहा- कद बढ़ाओ। न ये दाढ़ी मुड़ाने को तैयार, न वे ऊँचे होने को। बस, मतभेद हो गया। हमारा कहना यह है कि कद बढ़ाना तो बहुत मुश्किल है, मगर दाढ़ी तो मुड़ाई जा सकती है। अशोक भाई को बात मान लेनी थी।’’

मैं अब उठने को हुआ। मैंने कहा, ''आगजी, आपके विचार जानकर बहुत खुशी हुई। मुझे विश्वास है कि संयुक्त विरोध को लेकर आप जल्दी ही भारत पर कब्जा कर लेंगे।’’

आगजी ने कहा, ''यार, कर तो लें हम कब्जा आज। पर हमारे पास नेता नहीं है। कोई अच्छा-सा तुम्हारी नजर में हो तो बताना। जयप्रकाश बाबू तो धोखा दे गए भैया।’’ उन्होंने जयप्रकाश नारायण की तस्वीर की तरफ देखा और कहा, ''साथी, हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था?’’
आगजी रुआँसे हो गए। कहने लगे, ''बन्धु, मेरा विलाप करने का जी हो रहा है। अगर तुम बाहर बात न फैलाओ, तो कर लूँ।’’

मेरा हृदय फटा जा रहा था। मैं उस दुख को दुबारा नहीं देख सकता था। मैंने कहा, ''आगजी, मुझे कोई एतराज नहीं है। मैं अब चलता हूँ। आप बेखटके विलाप करें।’’
और मैं बाहर आ गया।

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