मुक्ताबाई की पूरन पोली : मराठी लोक-कथा

Muktabai Ki Puran Poli : Marathi Lok-Katha

[यह महाराष्ट्र की बहुत पुराने समय की कहानी है। तब गाँवों में शहरों जैसे बाल कटवाने, दाढ़ी बनवाने के लिए अब जैसे सैलून या मेन्स ब्यूटी पार्लर नहीं हुआ करते थे। नाई लोग बाल-नाखून काटने, दाढ़ी बनाने, सिर में तेल मालिश इत्यादि करने का अपना उस्तरा, कैंची, मशीन आदि सारा सामान लेकर किसी भी व्यक्ति के बुलाने पर उसके घर जाकर हजामत करते या बाल काटते थे। गाँवों में विशेषत: उत्तर प्रदेश के गाँवों में इसका मेहनताना उन्हें प्रति व्यक्ति एक रोटी (जो काफी मोटी होती थी) मिला करता था ।]

एक बार क्या हुआ कि निकम नाई पंडित देशपांडेजी के घर | उनके बाल काटने, दाढ़ी बनाने गया। संयोग ऐसा था कि उस दिन देशपांडेजी के घर पूरन पोली (चने की दाल की मीठी पिट्ठी भरा पराँठा ) बनी थी। दोपहर का वक्त था । निकम को देशपांडेजी और उनके लड़कों के बाल काटने, दाढ़ी बनाने में काफी देर हो गई। खाने का वक्त था, देशपांडे बाई. ने निकम नाई को भी खाने को पूरन पोली दे दी।

निकम को पूरन पोली इतनी अच्छी लगी कि घर आकर उसने अपनी पत्नी से कहा, "एक दिन तू जा और देशपांडे बाई से पूरन पोली बनाना सीखकर आ ।"

अपने पति को खुश करने का यह तरीका हाथ लगने की खुशी में नाइन मुक्ता दूसरे ही दिन देशपांडेजी के घर पहुँची और देशपांडेजी की माँ से, जो पूरन पोली बनाने में निपुण थीं, पूरन पोली बनाने की सारी विधि सीखकर बड़ी खुशी-खुशी घर लौटी।

दूसरे दिन मुक्ता ने पंडितानी के बताए अनुसार पूरन तैयार किया, सारी विधि से आटा गूँधा और चूल्हे पर तवा चढ़ाया। पर यह क्या, पूरन पोली तो बनी ही नहीं, चकले से चिपककर रह गई।

नाइन ने सोचा, बाकी सब तो ठीक है, पर पंडितानी की साड़ी सफेद थी, मैं लाल साड़ी पहने हूँ, शायद इसीलिए नहीं बन रही है पोली। उसने साड़ी बदल ली, पर बेकार, पूरन पोली फिर भी नहीं बनी। नाइन ने सारी तैयारी पर एक बार फिर नजर डाली और फिर से सोचा, अरे! एक कमी रह गई, पंडितानी के माथे पर बिंदी नहीं थी, मैं बिंदी लगाए हूँ, शायद इसीलिए नहीं बन रही है पूरन पोली। मुक्ता ने माथे की बिंदी पोंछ डाली। पर पूरन पोली को न चकले से उठकर तवे तक जाना था, सो न वह गई । और नाइन की समझ में ही न आए कि कहाँ कमी रह गई है, क्यों नहीं बन रही पूरन पोली।

उधर घर भर में फैली पूरन की खुशबू और पूरन पोली के स्वाद से बेचैन नाई के मुँह में पानी आ रहा था। उसने कहा, " तू क्यों नहीं एक बार फिर से जाकर पंडितानी से पूछ आती?" इतना सब करके परेशान हुई। नाइन को भी यही ठीक लगा। वह सबकुछ वैसा ही छोड़ जल्दी से पंडितानी के घर दौड़ी।

दरवाजा पंडितानी आजी ने ही खोला । नाइन मुक्ता को विधवा के वेश में देख उन्होंने दुःखी स्वर में पूछा, "अरे, निकम नाईजी इस दुनिया से कब चले गए, हमें तो पता ही नहीं लगा।" पंडितानी की बात सुन नाइन पहले तो सकपका गई, फिर बोली, "नहीं-नहीं, वे 'तो ठीक हैं।"

"फिर तुम्हारी यह सफेद साड़ी और सूना माथा क्यों ?"

"यह सफेद साड़ी मैंने पूरन पोली बनाने के लिए पहनी है और माथे की बिंदी भी पोंछ दी है। पर मेरी पूरन पोली फिर भी नहीं बन रही, आजी।" मुक्ता ने रुआँसे स्वर में कहा। मुक्ता की बात सुन और पूरी स्थिति की कल्पना करके आजी को बड़ी जोर से हँसी आई, पर उन्हें गलती समझने क्षणभर भी नहीं लगा। वे बोलीं, “मुक्ता ! पूरन पोली का साड़ी-बिंदी से कुछ लेना-देना नहीं है। तुम घर जाकर अपनी लाल साड़ी ही पहनो, बिंदी लगाओ, बस पूरन पोली को उल्टी तरह से बनाओ, बन जाएगी।"

मुक्ता नाइन ने घर आकर आटे की लोई में पूरन भर के बेला तो तवे पर से खूब फूली फूली पूरन पोली उतरने लगी।

नाई ने खूब स्वाद से पूरन पोली खाई, फिर नाइन ने पूछा, "आखिर गड़बड़ कहाँ थी, क्यों नहीं बन रही थी ?"

नाइन ने शरमाते हुए बताया कि मैं पूरन में आटा भर रही थी।

नाई पहले तो खूब जोर से हँसा, फिर बोला, "अरी कमअक्ल ! सृष्टि के नियम से उलट पूरन पोली बनाने चली थी, वह बनती भी तो कैसे ?"

(साभार : मालती शर्मा)

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