मेंढ़क राजकुमार : तिब्बती लोक-कथा

Mendhak Rajkumar : Tibetan Folk Tale

बहुत दिन हुए किसी ऊँचे पर्वत की चोटी पर एक गरीब दम्पत्ति रहते थे। रोटी कमाने के लिए वे आलू, टमाटर आदि की खेती किया करते थे। पहाड़ी से उतरकर निचले मैदानों में उन्होंने अपनी खेती बना रखी थी। दोनों पति-पत्नी बड़े ही परिश्रमी थे।

धीरे-धीरे उनकी उमर ढलती जा रही थी और शक्ति कम होती जा रही थी। संतान के लिए उन दोनों की बड़ी इच्छा थी। एक दिन दोनों आपस में बातें कर रहे थे।
‘‘कितना अच्छा होता अगर हमारे भी एक बच्चा होता। जब हम बूढ़े हो जायेंगे तो वह हमारे खेतों की रखवाली किया करता और ज़मींदार के पास जाकर हमारा लगान चुका आया करता। बुढ़ापे में वह हमें हर तरह से आराम देता। हम भी अपनी झुकी हुई कमर को कुछ देर आंगन में चूल्हे के पास आराम से बैठकर सीधी कर लिया करते।’’

उन दोनों ने सच्चे दिल से नदी और पहाड़ों के देवता की प्रार्थना की। थोड़े दिनों बाद ही किसान की पत्नी गर्भवती हुई। नौ महीने बाद उसके बच्चा हुआ। लेकिन बच्चा आदमी का न होकर एक मेंढ़क था और उसकी लाल आँखें चमक रही थीं। बूढ़े ने कहा-‘‘कैसे आश्चर्य की बात है ! यह मेंढ़क है। इसकी लाल आँखें तो देखो, कैसी चमक रही हैं ! इसे घर में रखने से क्या फायदा ? चलो, इसे बाहर फेंक आएं।’’

लेकिन पत्नी का मन उसे फेंक देने को न हुआ। उसने कहा-‘‘भगवान हम पर कृपालू नहीं हैं। उसने हमें बच्चे की जगह एक मेंढ़क दिया है। लेकिन अब तो यही मेंढ़क हमारा बच्चा है इसलिए हमें इसको फेंकना नहीं चाहिए। मेंढ़क मिट्टी और तालाबों में रहते हैं। हमारे घर के पीछे जो जोहड़ है, उसमें इसे छोड़ आओ। वहीं रह जाया करेगा।’’

बूढ़े ने मेंढ़क को उठा लिया। जब वह उसे ले जाने लगा तो मेंढ़क बोला-‘‘माताजी, पिताजी, मुझे तालाब में मत डालिए। मैं आदमियों के घर में पैदा हुआ हूं, और मुझे आदमियों की तरह ही रहना चाहिए। जब मैं बड़ा हो जाऊंगा तो मेरी शक्ल बिलकुल आप जैसी हो जाएगी और मैं भी आदमी बन जाऊंगा।’’
बूढ़ा आश्चर्यचकित हो गया। उसने अपनी पत्नी से कहा-‘‘कैसी अद्भुत बात है ! यह तो बिलकुल हमारी तरह से बोलता है।’’

‘‘लेकिन जो कुछ भी उसने कहा है हमारे लिए तो वह अच्छा ही है।’’ उसकी पत्नी ने कहा, ‘‘भगवान ने ज्यों-त्यों करके तो हमें ये दिन दिखाए हैं। अगर यह बोलता है तो जरूर कोई अच्छा बच्चा होगा। हो सकता है कि इस समय किसी के शाप से मेंढ़क बन गया हो। नहीं, इसे आप घर में ही रहने दीजिए।’’ वे दोनों पति-पत्नी बड़े दयालू थे और उन्होंने मेंढ़क को अपने साथ ही रख लिया।

तीन वर्ष बीत गए। इस बीच मेंढ़क ने देखा कि उसके माता-पिता कितनी मेहनत करते थे। एक दिन उसने अपनी बूढ़ी माँ से कहा-‘माँ, मेरे लिए आटे की एक रोटी सेक दो। मैं कल जमींदार के पास जाऊंगा और उसके सुंदर महल में जाकर उससे मिलूँगा। उसके तीन सुंदर बेटियां हैं। उससे कहूंगा कि वह अपनी एक बेटी के शादी मुझसे कर दे। मैं उन तीनों में से उससे शादी करूंगा, जो सबसे अधिक दयावान हो और तुम्हारे काम में सबसे ज्यादा मदद कर सके।’’

‘‘बेटे, ऐसी मज़ाक की बात मत किया करो।’’ बूढ़ी ने कहा, ‘‘क्या तुम समझते हो कि तुम्हारे जैसे छोटे और भद्दे जानवर के साथ में कोई भला आदमी अपनी सुंदर-सी बेटी का हाथ पकड़ा देगा। तुम जैसे को तो कोई भी पैर से दबाकर कुचल देगा।’’
‘‘मां, तुम रोटी तो बनाओ।’’ मेंढ़क ने कहा, ‘‘तुम देखती रहना मैं तुम्हारे लिए एक बहू ज़रूर लाऊंगा।’’
बूढ़ी स्त्री अंत में राजी हो गई।

‘‘अच्छा, मैं तुम्हारे लिए एक रोटी तो सेक दूंगी।’’ उसने मेंढ़क से कहा, ‘‘लेकिन इस बात का ख्याल रखना कि उसके महल की कहारी या नौकरानी तुम्हें भूत-प्रेत समझकर तुम्हारे ऊपर राख न डाल दे।’’
‘‘मां, तुम बेफिक्र रहो।’’ मेंढ़क ने उत्तर में कहा, ‘‘उनके तो अच्छों की भी यह हिम्मत नहीं !’’

और अगले दिन बूढ़ी स्त्री ने एक बड़ी-सी रोटी बना दी और उसे एक थैली में रख दिया। मेंढ़क ने थैला अपने कंधे पर लटकाया और फुदकता हुआ घाटी के किनारे बसे हुए जमींदार के महल की ओर चल दिया। जब वह महल के दरवाज़े के पास पहुँचा तो उसने द्वार खटखटाया।
‘‘ज़मींदार साहब, ज़मींदार साहब, दरवाज़ा खोलो।’’

ज़मींदार ने किसी को दरवाज़ा खटखटाते सुना और अपने नौकर को बाहर देखने भेजा। नौकर आश्चर्यचकित-सा होकर लौटा। उसने कहा-‘‘मालिक, बड़ी अजीब-सी बात है। एक छोटा-सा मेंढ़क दरवाज़े पर खड़ा आपको पुकार रहा है।’’
ज़मींदार के मुंशी ने कहा-‘‘मालिक, यह ज़रूर कोई भूत-प्रेत है। इस पर राख डलवा दीजिए।’’

ज़मींदार राजी नहीं हुआ। उसने कहा-‘‘नहीं, नहीं, रुको। यह ज़रूरी नहीं कि वह कोई भूत-प्रेत ही हो। मेंढ़क पानी में रहते हैं। हो सकता है कि वह जल-देवता के महल से कोई संदेशा लेकर आया हो। जिस प्रकार देवताओं की आवभगत की जाती है, उसी प्रकार उसकी करो। पहले उस पर दूध छिड़क दो। इसके बाद मैं खुद देखूंगा कि वह कौन है और मेरे राज्य में किसलिए आया है।’’
उसके नौकरों ने ऐसा ही किया। मेंढ़क की उसी प्रकार इज्ज़त की गई जैसी देवताओं की की जाती है। उन्होंने उस पर दूध छिड़का और कुछ दूध उसके ऊपर हवा में भी उड़ाया।
उसके बाद ज़मींदार खुद दरवाजे पर आ गया और उसने पूछा-‘‘मेंढ़क देवता, क्या तुम जल-देवता के महल से आ रहे हो ? तुम्हारी हम क्या सेवा कर सकते हैं ?’’

‘‘मैं जल-देवता के महल से नहीं आ रहा।’’ मेंढ़क ने उत्तर दिया, ‘‘मैं तो अपनी ही इच्छा से आपके पास आया हूं। आपकी सब लड़कियां विवाह योग्य हैं। मैं उनमें से एक से शादी करना चाहता हूं। मैं आपका दामाद बनने आया हूं। आप मुझे उनमें से किसी एक का हाथ पकड़ा दीजिए।’’

ज़मींदार और उसके सब नौकर मेंढ़क की इस बात को सुनकर बड़े भयभीत हुए। ज़मींदार बोला-‘‘तुम कैसी बे-सिर-पैर की बातें कर रहे हो ? आइने में ज़रा अपनी सूरत तो देखो। कितने भद्दे और बदसूरत हो ! कितने ही बड़े-बड़े ज़मींदारों ने मेरी बेटियों से विवाह करना चाहा लेकिन मैंने सबको मना कर दिया। फिर मैं कैसे एक मेंढ़क को अपनी बेटी ब्याह दूं। जाओ, बेकार की बातें मत करो।’’
‘‘ओ हो !’’ मेंढ़क बोला, ‘‘इसका मतलब यह है कि आप मुझसे अपनी बेटी की शादी नहीं करेंगे। कोई बात नहीं। अगर आप मेरी बात इस तरह नहीं मानेंगे तो मैं हंसना शुरू कर दूंगा।’’
ज़मींदार मेंढ़क की बात सुनकर गुस्से में आगबबूला हो गया।
उसने पैर पटककर कहा-‘‘मेंढ़क के बच्चे ! तेरा दिमाग खराब हो गया है ! अगर हंसना ही है तो बाहर निकल जा और जी-भरकर हंस।’’

लेकिन तब तक मेंढ़क ने हँसना आरंभ कर दिया था। उसके हंसने से बड़े ज़ोर की आवाज़ हुई। धरती कांपने लगी। ज़मींदार के महल के ऊंचे-ऊंचे स्तम्भ हिलने लगे मानो महल गिरना ही चाहता हो। दीवारों में दरारें पड़ने लगीं। सारे आकाश में धूल-रेत, मिट्टी, कंकड़ और पत्थर उड़ने लगीं। सूरज और सारा आकाश अंधेरे से ढक गया। चारों ओर धूल-ही-धूल दिखाई देने लगी।

ज़मींदार के घर के सब लोग और नौकर-चाकर उछलते फिर रहे थे और अंधेरे में एक-दूसरे से टकरा रहे थे। किसी को नहीं मालूम था कि वे क्या कर रहे हैं और यह सब क्या हो रहा है।
अंत में दुःखी होकर ज़मींदार ने खिड़की से बाहर अपना सिर निकाला और बोला-‘‘मेंढ़क महाशय, अब कृपा कर अपना हंसना बंद कर दीजिए। मैं अपनी सबसे बड़ी बेटी का ब्याह आपके साथ कर दूंगा।
मेंढ़क ने हंसना बंद कर दिया। धीरे-धीरे पृथ्वी ने भी कंपना बंद कर दिया और महल, मकान आदि सब अपनी जगह स्थिर हो गए।
ज़मींदार ने केवल भयभीत होकर ही अपनी बेटी मेंढ़क के हाथों सौंपी थी। उसने दो घोड़े मंगाये—एक अपनी बेटी के लिए और दूसरा उसके दहेज के लिए।

ज़मींदार की बड़ी लड़की मेंढ़क से शादी करने के लिए बिलकुल भी राजी नहीं थी। उसने अपने पास छिपाकर दो पत्थर के टुकड़े रख लिए जो समय पर काम आएं।
मेंढ़क रास्ता दिखाने के लिए आगे-आगे फुदककर चलने लगा और ज़मींदार की सबसे बड़ी लड़की उसके पीछे-पीछे चलने लगी। सारे रास्ते वह यही कोशिश करती रही कि उसका घोड़ा कुछ और तेज चले और वह भागते हुए मेंढ़क को अपने पीछे की टापों के नीचे कुचल डाले। लेकिन मेंढ़क कभी इधर को फुदकता था और कभी उधर को। वह इस तरह चक्कर काटता जा रहा था कि उसे कुचलना राजकुमारी को असंभव दिखाई दे रहा था। अंत में वह इतनी नाराज हो गई कि एक बार जब मेढ़क उसके काफी पास चल रहा था, उसने छिपाया हुआ पत्थर का टुकड़ा मेंढ़क के ऊपर दे मारा। फिर वह मुड़कर घर की ओर चल दी। वह कुछ ही दूर लौटकर गई होगी कि मेंढ़क ने उसे पुकारा—
‘‘राजकुमारी, रुको। मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूं।’’
‘‘उसने पीछे घूमकर देखा कि मेंढ़क तो ज़िंदा खड़ा है।

वह समझ रही थी कि मेंढ़क उसके पत्थर के नीचे कुचल गया होगा। वह आश्चर्यचकित रह गई और उसने घोड़े की लगाम खींच ली। मेंढ़क उससे बोला—‘‘देखो, हमारे भाग्य में पति-पत्नी होना नहीं लिखा है। अब तुम घर लौट जाओ क्योंकि ऐसी ही तुम्हारी खुशी है।’’ और उसने घोड़े की लगाम पकड़ ली और राजकुमारी को घर वापस ले चला।

जब दोनों ज़मींदार के महल के पास पहुँचे तो मेंढ़क ने राजकुमारी को छोड़ दिया और आप ज़मींदार के पास जाकर बोला-‘‘ज़मींदार साहब, हम दोनों की आपस में जरा नहीं बनती। इसीलिए मैं उसे वापस छोड़ने आया हूँ। आप मुझे अपनी दूसरी बेटी दे दीजिए, जो मेरे साथ जाने को तैयार हो।’’
‘‘तुम कैसे बदतमीज़ हो, जी ! जरा अपनी हैसियत का तो ख्याल करो।’’

ज़मींदार ने गुस्से से चिल्लाकर कहा-‘‘तुम मेरी बेटी को वापस लाए हो इसलिए मैं तुम्हें अपनी दूसरी बेटी कभी नहीं दूंगा। जानते हो, मैं ज़मींदार हूं। क्या मज़ाक है ! तुम इस तरह मेरी बेटियों में से हरेक को देखना चाहते हो।’’ ज़मींदार यह कहते-कहते गुस्से से कांपने लगा।
‘‘इसका मतलब यह है कि आप राज़ी नहीं हैं !’’ मेंढ़क ने कहा, ‘‘अच्छी बात है, तो मैं चिल्लाता हूं।’’

ज़मींदार ने सोचा कि अगर वह चिल्लाता है तो कोई हर्ज नहीं। बस, उसका तो हंसना ही खतरनाक है। उसने चिढ़ाते हुए कहा-‘‘जी भरकर चिल्लाओ। तुम्हारी ज़रा-ज़रा-सी धमकियों से डर जाने वाले हम नहीं हैं।’’

और मेंढ़क ने चिल्लाना शुरू कर दिया। उसकी आवाज़ इतनी तेज़ थी मानो रात के समय बड़ी जोर से बिजली कड़क रही हो। चारों ओर बिजली की कड़कड़ाहट-ही-कड़कड़ाहट सुनाई दे रही थी और पहाड़ों से नदियों में इतना अधिक पानी आने लगा कि कुछ ही क्षणों में सब नदियों में बाढ़ आ गई। धीरे-धीरे सारी ज़मीन पानी के बहाव में घिरने लगी और पानी चढ़ता-चढ़ता ज़मींदार के महल तक आ पहुंचा और वहां से अपने गांव की तबाही देखने लगे।

पानी चढ़ता ही जा रहा था। ज़मींदार ने अपनी गर्दन खिड़की से बाहर निकाली और चिल्लाकर कहा-‘‘मेंढ़क महाशय, चिल्लाना बंद कीजिए, नहीं तो हम सब मर जायेंगे। मैं तुम्हारे साथ अपनी दूसरी बेटी की शादी कर दूंगा।’’
मेंढ़क ने फौरन ही चिल्लाना बंद कर दिया और धीरे-धीरे पानी नीचे बैठने लगा।

ज़मींदार ने फिर अपने नौकरों को आदेश दिया कि दो घोड़े अस्तबल से निकालकर लाओ—एक राजकुमारी के लिए और दूसरा उसके दहेज के सामान के लिए। इसके बाद उसने अपनी दूसरी बेटी को आज्ञा दी कि मेंढ़क से साथ चली जाए।

ज़मींदार की दूसरी बेटी मेंढ़क के साथ जाने को राजी नहीं थी। उसने भी घोड़े पर चढ़ते समय एक बड़ा-सा पत्थर अपने पास छिपाकर रख लिया। रास्ते में उसने भी अपने घोड़े के पैरों के नीचे मेंढ़क को कुचलने की कोशिश की और एक बार वह पत्थर उसके ऊपर फेंककर वह भी बड़ी राजकुमारी की तरह वापस लौटने लगी।
लेकिन उसे भी वापस बुलाकर मेंढ़क ने कहा-‘‘राजकुमारी, हम दोनों के भाग्य में एक साथ रहना नहीं बदा। तुम घर वापस जा सकती हो।’’ यह कहकर उसके घोड़े की लगाम हाथ में लेकर वह चल दिया।

मेंढ़क ने ज़मींदार के हाथ में उसकी मंझली बेटी का हाथ पकड़ा दिया और बोला कि अपनी सबसे छोटी बेटी की शादी मुझसे कर दो। इस बार तो ज़मींदार के क्रोध का ठिकाना ही न रहा। उसने कहा, ‘‘तुमने मेरी सबसे बड़ी लड़की को लौटा दिया और मैंने तुम पर दया करके अपनी मंझली बेटी दे दी। अब तुमने उसे भी लौटा दिया और मेरी सबसे छोटी लड़की के साथ शादी करना चाहते हो। तुम बहुत बेहूदे हो। कोई भी ज़मींदार तुम्हारी इस बदतमीजी को बरदाश्त नहीं कर सकता। तुम...तुम...तुम कानून के खिलाफ चलते हो।’’ उसके गले में आखिरी शब्द अटक गए। एक छोटे-से मेंढ़क ने उसे इस प्रकार नचा रखा था कि वह बहुत ज़्यादा परेशान हो रहा था।

मेंढ़क ने शांति से जवाब दिया-‘‘ज़मींदार साहब, आप इतना नाराज़ क्यों होते हैं ? आपकी दोनों बेटियां मेरे साथ शादी करने के लिए राजी नहीं थीं इसलिए मैं उन्हें वापस ले आया। लेकिन आपकी तीसरी बेटी मुझसे शादी करना चाहती है, फिर आप क्यों नहीं राजी होना चाहते ?’’

‘‘नहीं, कभी नहीं !’’ ज़मींदार घृणा से चिल्लाया, ‘‘कौन कहता है ! वह कभी राजी नहीं हो सकती। इस दुनिया में कोई भी लड़की एक मेंढ़क से शादी करने के लिए राजी नहीं हो सकती। मैं तुमसे आखिरी बार कह रहा हूं कि अब तुम अपनी राह देखो।’’
‘‘इसका मतलब यह है कि आप अपनी बेटी की शादी मुझसे नहीं करेंगे।’’ मेंढ़क ने कहा, ‘‘अच्छी बात है, तो मैं फुदकना शुरू कर दूँगा।’’
ज़मींदार वैसे मेंढ़क की बात से डर तो गया था लेकिन उसने गुस्से में ही उत्तर दिया-‘‘तुम उछलो, कूदो, फुदको। जो जी में आए सो करो। जी-भरकर करो। मैं तुम्हारी ज़रा-ज़रा-सी बातों से डरने लगा तो ज़मींदारी दो दिन की रह जाएगी।’’

और मेंढ़क ने फुदकना शुरू कर दिया। जब उसने फुदकना शुरू किया तो धरती डोलने लगी। ऐसा प्रतीत होता था मानो धरती एक पत्थर हो जो किसी तालाब में लहरों के बीच जा फंसा हो। पहाड़ इतनी ज़ोर-ज़ोर से हिलने लगे कि उनमें आपस में ही टक्कर होने लगी। पहाड़ों में से पत्थर टूट-टूटकर आकाश में उड़ने लगे। सारा आकाश पत्थरों और धूल-मिट्टी से ढक गया और सूरज दिखाई देना बंद हो गया। ज़मींदार के महल की दीवारें भी इतनी ज़ोर से हिलने लगीं कि लग रहा था कि महल अब गिरा, अब गिरा।

अब तो हारकर ज़रमींदार को खड़े होकर यह कहना पड़ा कि वह मेंढ़क के हाथ में अपनी तीसरी बेटी का हाथ दे देगा। मेंढ़क ने फुदकना बंद कर दिया। पहाड़ और पृथ्वी अपनी-अपनी जगह पर शांत होकर ठहर गए।

ज़र्मीदार की तीसरी बेटी अपनी अन्य बहनों की तरह नहीं थी। उसके हृदय में दया बहुत थी। उसने सोचा कि यह मेंढ़क कोई साधारण मेंढ़क नहीं है, बल्कि काफी चतुर जान पड़ता है। वह मेंढ़क के साथ जाने को राजी हो गई।

मेंढ़क उसे घर ले गया। जब मेंढ़क की मां दरवाज़े पर उन्हें लेने आयी तो उसे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसने सोचा कि मेरा भद्दा और छोटा-सा बेटा कितनी सुंदर बहू ले आया है।

लड़की बहुत काम करने वाली थी और रोज अपनी सास के साथ खेत पर काम करने जाती थी। उसे बूढ़ी इसलिए बड़ा प्रेम करती थी। लड़की भी अपनी सास की बहुत इज्ज़त किया करती थी। दोनों बहुत सुखी थीं।

पतझड़ का मौसम आया। उन गांवों में हर साल घोड़ों की एक बहुत बड़ी दौड़ हुआ करती थी। सैकड़ों गांवों से गरीब और अमीर लोग अपने-अपने तम्बू लेकर घुड़दौड़ में आया करते थे और अपने साथ खेतों से नया फूटा हुआ अनाज भी लाया करते थे। देवताओं को मनाने के लिए वे लोग उन छोटे-छोटे पौधों को आग में जलाया करते थे और नाचते, गाते, शराब पीते हुए घोड़ों की दौड़ किया करते थे। आमतौर पर वहां लड़के-लड़कियां अपने प्रेमी-प्रेमिकाएं ढूंढने आया करते थे। इस बार मेंढ़क की मां की भी इच्छा थी कि मेंढ़क भी साथ में जाए, लेकिन उसने अपनी मां से कहा-“मां रास्ते में बहुत-से पहाड़ और नदी-नाले पार करने पड़ते हैं। तुम ही चले जाओ। मैं कहां-कहां जाऊंगा!”
और मेंढ़क घर पर ही रह गया। घर के और सब लोग घुड़दौड़ में चले गए।

घुड़दौड़ का मेला सात दिन तक लगा रहता था। आखिरी तीन दिनों में घुड़दौड़ हुआ करती थी। रोज़ जो भी आदमी जीत जाता उसकी बड़ी इज्ज़त होती और लोग उसे अपने यहां बुलाकर दावत दिया करते।

घुड़दौड़ के तीसरे दिन, जब आखिरी दौड़ शुरू होने ही वाली थी, एक नवयुवक हरे रंग की पोशाक पहने हुए और हरे घोड़े पर सवार होकर वहां आया। उसका शरीर हृष्ट-पुष्ट था और वह बहुत सुंदर लगता था। उसके कपड़ों पर बहुत सुंदर जरी का काम हो रहा था और वे बहुत कीमती रेशम के बने हुए थे। उसके घोड़े की जीन पर लाल मोती लगे हुए थे और उसकी बंदूक भी सोने और चांदी की बनी हुई थी। जब उसने लोगों से आखिरी घुड़दौड़ में भाग लेने की अनुमति मांगी तो सब उसकी ओर देखने लगे। जब घुड़दौड़ शुरू हुई तो उसने दौड़ने की कोई जल्दी नहीं दिखाई। यहां तक कि जब और लोग भागना शुरू कर रहे थे, वह अपनी जीन ठीक कर रहा था। लेकिन शीघ्र ही वह उसके साथ हो गया।

घुड़दौड़ के बीच में भी, जिस समय अन्य सब दौड़ने वाले नवयुवक एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश कर रहे थे, वह आराम से चल रहा था और दौड़ के बीच में ही उसने अपने सिर के ऊपर उड़ते हुए तीन कबूतरों का अपनी बंदूक से शिकार किया। दौड़ के बीच में ही उसने अपने घोड़े की जीन में से कुछ सोने के सुंदर फूल निकाले और उन्हें अपने बायीं ओर वाले लोगों के ऊपर फेंक दिया। इसी प्रकार जीन की दायीं ओर से उसने कुछ चांदी के फूल निकाले और उन्हें अपनी दाहिनी ओर वाले लोगों पर फेंक दिया और आगे बढ़ गया। लेकिन शीघ्र ही लोगों ने देखा कि उसका घोड़ा आगे भागा जा रहा है; ऐसा प्रतीत होता था कि उसका घोड़ा मैदान में नहीं, बल्कि हवा में दौड़ रहा हो। लोग उसे देखने के लिए अपने-अपने स्थानों से उठकर खड़े हो गए और सबने देखा कि वह सबसे आगे था और उस दिन आखिरी घुड़दौड़ में जीत उसी की रही।

घुड़दौड़ के मैदान में जो भी उस समय उपस्थित था, वही उस नवयुवक पर मुग्ध हो गया। बड़े-बूढ़े और लड़कियां सभी उसकी ओर देख रहे थे। लोगों में फुसफुसाहट चलने लगी कि उसका क्या नाम है और वह कहां का रहने वाला है।

कुछ लोग कहने लगे-“'उसने बायीं ओर से सोने के फूल निकाले और उन्हें बायीं ओर उछाल दिया। फिर दायीं ओर से चांदी के फूल निकाले और उन्हें दाहिनी ओर फेंक दिया। ऐसा तो आजकल कभी देखा न सुना।”

“कितना सुंदर और तंदुरुस्त लड़का है! उसके कपड़े शरीर पर कितने फब रहे हैं! घोड़ा तो देखो, जैसे देवताओं का हो!”
“लेकिन ऐसे सुंदर और तंदुरुस्त लड़के लिए यह तो सोचो कि लड़की कहां मिलेगी।”

सब लड़कियां उसके चारों ओर एकत्रित होकर गाने और नाचने लगीं और उसे अपने-अपने तम्बू में ले जाने के लिए कहने लगीं। सब उसे अपने तम्बू में ले जाकर शराब पिलाने की इच्छुक थीं।

लेकिन जैसे ही शाम हुई, वह घुड़सवार बिना किसी से कुछ कहे चुपचाप अपने घोड़े पर चढ़कर उस गांव की ओर चल दिया जहां से मेंढ़क की मां और बहू आए थे।

सब लोग वहां खड़े-खड़े उसके हरे घोड़े को देखते रहे और उसके चले जाने के बाद उसके पैरों से उड़ती हुई धूल को देखने लगे।

मेंढ़क की पत्नी सोचती रही कि वह घुड़सवार कहां से आया था और कहां चला गया। वह स्वयं भी उसकी सुंदरता और उसके पुष्ट शरीर पर मुग्ध थी। वह स्वयं भी उसका नाम जानना चाहती थी कि दिन छिपते ही वह इतनी जल्दी क्यों चला गया। वह सोचने लगी कि शायद घुड़सवार बहुत दूर रहता हो। घर लौटते समय वह भी अन्य स्त्रियों की तरह उसी घुड़सवार के बारे में सोचती रही थी।

मेंढ़क उन लोगों को दरवाज़े पर खड़ा मिला। उन्होंने जैसे ही घुड़दौड़ की बातें सुनानी शुरू की वह आगे-आगे सब बताने लगा। उन लोगों को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि मेंढ़क सब बातें पहले से ही जानता है और उस सुंदर घुड़सवार की भी बातें जानता है, जिसने आज घुड़दौड़ जीती थी।

अगले साल फिर पतझड़ के दिनों में घुड़दौड़ हुई। मेंढ़क की पत्नी, मां और पिता फिर घुड़दौड़ में गए।

जब घुड़दौड़ शुरू हुई तो सब लोग उस हरे घुड़सवार की बाट देखने लगे और सोचने लगे कि इस बार ज़रूर उसका नाम-धाम पूछ लेंगे। वह कहां रहता है और किस ज़र्मीदार के गांव में रहता है, यह पूछे बिना उसे इस बार नहीं जाने देंगे।

घुड़दौड़ के आखिरी दिन, जब आखिरी दौड़ हो रही थी, हरा घुड़सवार फिर अपने हरे घोड़े पर बैठ वहां आया । वह एकदम ऐसे आया मानो आकाश से उतरा हो। लोग उसे देखकर आश्चर्यचकित रह गए। इस बार भी उसके पास अपनी वही सोने-चांदी वाली बंदूक थी लेकिन इस बार उसके शरीर पर पिछली बार से भी अधिक सुंदर और कीमती कपड़े थे। जब अन्य सब घुड़सवारों ने अपनी दौड़ शुरू कर दी तो उसने आराम से बैठकर चाय पी और पीकर तेज़ी से उठा और इस बार भी पिछले साल की भांति उसने तीन कबूतर अपनी बंदूक से दौड़ते-दौड़ते ही मार डाले। जिस समय वह लोगों के सामने से गुज़र रहा था, उसने अपने घोड़े की बायीं ओर वाली जीन में से सोने के कुछ फूल निकाले और उन्हें अपनी बायीं ओर वाले लोगों पर उछाल दिया। फिर उसने दायीं ओर से चांदी के कुछ फूल निकाले और उन्हें अपनी दाहिनी ओर वाले लोगों पर बिखेर दिया। इसके बाद वह बहुत तेजी से आगे की ओर भागा और लोगों को ऐसा प्रतीत हुआ मानो वह एक हरे बादल की सवारी कर रहा हो। बस, हरे-हरे मैदान में एक हरा बादल उड़ता हुआ नज़र आ रहा था। और इस बार लोगों ने फिर देखा कि वह घुड़दौड़ में जीत गया था।

लड़कियों ने इस बार फिर उसके सामने अपना नाच और गाना रखा और उसे अपने तम्बू में ले चलने के लिए कहने लगीं। लेकिन दिन छिपते ही उसने फिर बिना किसी से कहे अपने घोड़े को एड़ लगाई और मैदान से भाग लिया।
जब मेंढ़क की पत्नी और मां घर आयी तो उन्हें यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि इस बार फिर मेंढ़क को सब बातें मालूम थीं।

इस बार लड़की के दिमाग में उथल-पुथल हुई कि जब वह घुड़दौड़ में जाता नहीं है तो उसको सब बातें मालूम कैसे हो जाती हैं। उस घुड़सवार को दिन छिपने से पहले ही क्‍यों जाना पड़ता है? वह हमारे घर की तरफ ही क्यों जाता है? क्या इस दुनिया में सचमुच ही ऐसा कोई घुड़सवार हो सकता है? फिर मेंढ़क को उसके बारे में सब बातें कैसे मालूम चल जाती हैं? यही सब बातें उसके दिमाग में घूमती रहीं। अंत में उसमे निश्चय किया कि वह इन बातों का पता लगाकर ही रहेगी।

इस साल फिर घुड़दौड़ आयी। लड़की मेले में गई। उसने सब काम किए। लेकिन आखिरी दिन, जब आखिरी घुड़दौड़ होने वाली थी, वह अपनी सास से बोली-“'माताजी, मेरे सिर में बड़े ज़ोर से दर्द हो रहा है। मैं घर जाना चाहती हूँ। आप मुझे एक खच्चर दे दीजिए ।”

लड़की की सास और ससुर उसका बहुत ख्याल रखते थे। उन्होंने उसे खच्चर दे दिया और कहा कि वह घर चली जाए। जब वह अपने सास-ससुर की आंखों से ओझल हो गई तो उसने खच्चर को तेजी से घर की ओर दौड़ाया। जब वह घर पहुंची तो उसने सबसे पहला काम जो किया वह था मेंढ़क को ढूंढ़ने का। लेकिन उसे मेंढ़क कहीं भी दिखाई न दिया । तभी उसे एक कोने में मेंढ़क की खाल पड़ी दिखाई दी, जो उसके पति की ही थी। उसने उसे उठा लिया और उसकी आंखों से खुशी के आंसू बहने लगे।

उसने सोचा कि मैं कितनी सौभाग्यशाली हूं! मेरा पति कितना सुंदर है और कितनी अच्छी घुड़सवारी करता है! मैं तो उसके बिलकुल अयोग्य हूं। आह! आज मुझे कितनी खुशी है!

वह बार-बार अपने आंसू रोकने की कोशिश करती लेकिन आंसू थे कि रुक ही नहीं रहे थे। वह बार-बार मेंढ़क की खाल को देख रही थी और सोच रही थी कि उसके पति को इतनी गंदी खाल नहीं पहननी चाहिए। वह इतने भद्दे वेश में क्यों रहता है? क्या वह उसके योग्य नहीं है?

उसे उस खाल से इतनी अधिक घृणा हो गई कि उसने उसे जला देने का निश्चय किया। वह सोच रही थी कि जब मेंढ़क यहां आएगा तो इसी बदसूरत वेश में बदल जाएगा इसलिए उसने उसे जला दिया।

जब उसने खाल जलाई तो सूरज डूब रहा था। तभी अचानक वह नवयुवक अपने हरे घोड़े पर सवार बादलों की तरह उड़ता हुआ वहां आया। जब उसने अपनी पत्नी को खाल जलाते देखा तो उसका रंग डर के मारे पीला पड़ गया और उसने फौरन घोड़े से उतरकर खाल को आग में जलने से बचा लेना चाहा। लेकिन उसे बहुत देर हो गई थी। मेंढ़क की केवल एक टांग ही बची थी।
उसने एक ठंडी सांस ली और घर के सामने पड़े एक बड़े पत्थर पर जाकर गिर पड़ा।
लड़की यह देखकर बहुत डर गई और उसकी सहायता करने के लिए दीड़ी।

“तुम इतने अच्छे आदमी हो और इतनी बढ़िया घुड़सवारी करते हो। तुम फिर मेंढ़क क्‍यों बने रहना चाहते हो? और सब लड़कियों के पति तुम्हारी तरह के आदमी हैं, फिर मेरा ही भाग्य क्यों फूटा रहे? क्या तुम नहीं सोचते कि यह मुझे कितना बुरा लगता है?”

लड़के ने जवाब दिया-“तुम बहुत अधिक आतुर हो गई थीं। जो कुछ भी तुमने किया है, वह बहुत जल्दी कर डाला। अभी उसको करने के लिए हमें कुछ दिन रुकना था। अब मैं ज़िंदा नहीं रह सकता और लोग पृथ्वी पर खुश नहीं रह सकते ।”

“क्या मैंने कुछ गलत काम कर डाला है?” लड़की ने पूछा, “बोलो, अब मुझे क्या करना चाहिए?”

“इसमें तुम्हारी गलती नहीं है। मेरा ही दोष है। मैं बहुत ज्यादा लापरवाह हो गया था। यही वजह थी कि मैं घुड़दौड़ में जा पहुंचा। मैं लोगों को अपनी ताकत दिखाना चाहता था। लेकिन अब न तो हम लोग और न ही दुनिया के लोग सुखी रह सकते हैं। मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं, बल्कि पृथ्वी माता का बेटा हूं। अगर मैं और अधिक मज़बूत हो गया होता तो मैं लोगों की मदद करने के लिए खड़ा हो सकता था। मैं ऐसी दुनिया के स्वप्न देखा करता था जिसमें अमीर लोग गरीबों का खून चूसना बंद कर दें और जिसमें अफसर लोग अपने से नीचे के आदमियों को दबाया न करें। मैं चाहता हूं कि सब लोगों के पास राजधानी में जाने के लिए साधन हों और सब लोग आपस में मिल-जुलकर अपनी भेड़ और बकरियों का व्यापार कर सकें। लेकिन अभी मैं इतना बड़ा नहीं हुआ था और मेरी शक्तियां भी अभी बहुत सीमित थीं। अभी तक मुझमें इतनी शक्ति नहीं पैदा हुई कि मैं रात की ठंड को बिना अपनी मेंढ़क की खाल के सह सकूं। इसलिए दिन निकलते ही मैं मर जाऊंगा। जब मैं धीरे-धीरे इतना बड़ा हो जाता कि लोगों की इतनी सेवा कर सकता तो मेरे शरीर में इतनी शक्ति पैदा हो जाती कि मैं बिना मेंढ़क की खाल के रह सकता था। लेकिन अभी यह बहुत जल्दी है। तुमने यह क्या कर डाला? अब मैं यहां पृथ्वी पर नहीं रुक सकता। आज ही रात को मैं अपनी मां के पास लौट जाऊंगा।”

जब लड़की ने यह सुना तो उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। उसने नवयुवक के कमज़ोर शरीर को अपनी बांहों में संभाल लिया और बोली-“तुम नहीं मर सकते । मुझे विश्वास नहीं होता कि तुम मर जाओगे। नहीं, नहीं, मैं तुम्हें मरने नहीं दूंगी।”

लड़की शोक से कातर होकर इतनी बुरी तरह चिललाने लगी कि नवयुवक ने उसका हाथ अपने कमज़ोर हाथों में लेकर कहा-“प्रिय, तुम इतना दुःखी मत हो। अगर तुम वास्तव में यह चाहती हो कि मैं ज़िंदा रहूं तो अब भी तुम कुछ कर सकती हो।” उसने पश्चिम की ओर इशारा किया, “लेकिन यह सब केवल भगवान की इच्छा और उनकी अनुमति से ही किया जा सकता है। मेरा घोड़ा ले लो। अभी भी समय है क्योंकि मेरा घोड़ा हवा की तरह भागता है। वह तुम्हें पश्चिम दिशा की ओर ले जाएगा जहां लाल-लाल बादलों के बीच एक बहुत बड़ा महल है। वहां जाकर भगवान से प्रार्थना करना। कहना कि लोगों की भलाई के लिए वह इन तीन बातों को पूरा कर दें। उनसे कहना कि यह सब दिन निकलने से पहले ही कर दें। देखो, अच्छी तरह याद कर लो। पहली बात यह है कि लोग गरीब और अमीर न कहलायें, सबके पास बराबर धन हो। दूसरा यह कि अफसर लोग और सरकारी आदमी जैसे ज़मींदार आदि जनता को न दबायें। और तीसरे यह कि हमारे पास नगरों तक जाने के लिए सड़कें हों और हम वहां जाकर व्यापार कर सकें। अगर भगवान तुम्हारी इन बातों को मान जाते हैं तो हम सब सुख से रह सकेंगे और मुझमें इतनी शक्ति हो जाएगी कि मैं रात को भी बिना मेंढ़क की ख़ाल के रह सकूंगा।

लड़की फौरन घोड़े पर सवार होकर वहां से चल दी। घोड़ा उसे लेकर हवा में उड़ रहा था। हवा उसको छूकर भागी जा रही थी और वह बादलों के बीच में होती हुई पश्चिम दिशा की ओर उड़ रही थी। अंत में वह उस महल के सामने आयी जो सूर्य की भांति लाल-लाल चमक रहा था। वह अंदर गई और उसने भगवान से अपनी प्रार्थनाएं कहीं। भगवान उसकी बातों की सच्चाई और उसके दुःख को देखकर पिघल गए और उन्होंने उसकी बातें मान लीं।

भगवान उससे बोले-“तुम्हारी बातों में सच्चाई है इसलिए मैं तुम्हारी सब. बातें मान लूंगा। लेकिन दिन निकलने से पहले तुम्हें जाकर यह खबर सब घरों में पहुंचा देनी होगी। तुम्हारी प्रार्थनाएं तभी पूरी हो सकेंगी, यदि सब लोग इस बात को दिन निकलने से पहले सुन लें। तब यहां इतनी अधिक ठंड पड़नी बंद हो जाएगी और तुम्हारा पति रात को भी बिना मेंढ़क की खाल के रह सकेगा ।”

लड़की खुशी के मारे फूली नहीं समा रही थी। उसने भगवान को धन्यवाद दिया और अपने घोड़े पर चढ़कर घर की ओर चल दी जिससे दिन निकलने से पूर्व ही वह इस समाचार को घर-घर फैला सके।
लेकिन जब वह घाटी में घुसी तो उसका ज़मींदार पिता किले के दरवाज़े पर खड़ा हुआ था।
जब उसने अपनी बेटी को आते देखा तो वह बोला-'क्यों बेटी, तुम इतनी देर गए यहां क्‍यों आयी हो?”
उसने कहा, “पिताजी, भगवान ने मुझे एक बहुत ही आश्चर्यजनक वरदान दिया है। अब मैं उसे सबको बताने जा रही हूं।”
“जल्दी कहां की है!” ज़मींदार बोला, “ज़रा मुझे तो बताओ, भगवान ने तुम्हें क्या-क्या वरदान दिए हैं।'
'पिताजी, मैं एक मिनट के लिए भी नहीं रुक सकती मेरे पास इतना समय नहीं है। मैं आपको फिर बता दूंगी।” लड़की बोली।
“यह नहीं हो सकता। मैं ज़मींदार हूं और तुम्हें सबसे पहले मुझे ही बताना पड़ेगा।” और उसने आगे बढ़कर घोड़े की लगाम पकड़ ली।

लड़की जानती थी कि उसका पिता इस तरह नहीं मानेगा लेकिन वह उससे जल्दी-से-जल्दी छुटकारा पाना चाहती थी इसलिए उसने उसे सब कुछ सच-सच बता दिया। वह बोली-“भगवान ने मुझसे तीन वायदे किए हैं। पहला तो यह है कि गरीब और अमीर में कोई भेद नहीं रहेगा।"

ज़मींदार ने अपना सिर खुजलाया। वह बोला-“अगर गरीब और अमीर में कोई भेद नहीं रहेगा तो मेरी इज़्ज़त कौन करेगा और तुम्हारी बहनों के लिए दहेज का पैसा कहां से आएगा?”
यह कहकर उसने घोड़े की लगाम को और भी कसकर पकड़ लिया।
“दूसरी बात यह है कि सरकारी अफसर आम जनता को नहीं सतायेंगे ।”

“यह क्या मूर्खता है! फिर हमारा काम कौन करेगा? हमारी भेड़-बकरी कौन चराएगा? हमारे खेत कौन जोतेगा?” उसने बड़े ही बेमन से कहा और पूछा कि तीसरा वचन क्‍या है?

“और तीसरी बात यह है कि यहां से नगरों तक कोई रास्ता बन जाए और हम लोग वहां पर व्यापार कर सकें। अहा, पिताजी, जब यह सब बातें हो जायेंगी तो यहां की ठंड बिलकुल खत्म हो जाएगी और यहां काफी गर्मी पड़ने लगेगी। उसके बाद-”

लेकिन ज़मींदार ने बीच में ही टोककर कहा-“ये सब बेकार की बातें हैं। ऐसा कभी नहीं हो सकता। हमारा काम अब बिलकुल ठीक तरह से चल रहा है। हमें शहर जाने की क्या जरूरत है? यह कभी भी भगवान के हुक्म नहीं हो सकते। मुझे इनमें से किसी भी बात पर विश्वास नहीं है। मैं तुम्हें इनमें से एक भी शब्द लोगों को नहीं बताने दूंगा।”

“पिताजी, मैं अब यहां एक क्षण भी नहीं ठहर सकती।” लड़की ने चिल्लाकर कहा, “मुझे आप फौरन जाने दीजिए ।”

उसने भागने की कोशिश की लेकिन उसके पिता ने घोड़े की लगाम नहीं छोड़ी । बेचारी लड़की बहुत अधिक दुःखी हो रही थी और उधर उसका पिता उससे सवाल-जवाब करने पर तुला हुआ था।

तभी मुर्गा बोला। लड़की तेजी से कूदी और घोड़े को छुड़ाना चाहा। लेकिन ज़मींदार अभी भी उसे कसकर पकड़े हुए था। वह जोर से चिल्लाया-“क्या तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है? कया तुम चाहती हो कि तुम्हारी बहनों की शादी में मैं दहेज न दूं? क्या तुम अपने पिता की बेइज्ज़ती करना चाहती हो? क्या तुम चाहती हो कि मैं घर का सब काम अपने हाथ से किया करूं? हमारी भेड़-बकरियां कौन चरायेगा? हमारे खेत कौन जोतेगा? क्या तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है?”

लड़की की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। मुर्गा दूसरी बार फिर बोला और इधर उसका पिता उसे छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहा था।

अंत में निराश होकर उसने अपने घोड़े को बड़े जोर से कोड़ा लगाया। घोड़े ने ज़मींदार को एक ओर फेंक दिया और हवा से बातें करने लगा। लड़की अभी पहले मकान पर ही पहुंच पायी थी कि मुर्गा तीसरी बार फिर बोला। पौ फटने लगी थी और अब तक कुछ ही घरों में वह अपनी बात कह पायी थी।

लड़की का दिल बैठने लगा। पौ फट गई थी और उसका काम अभी आधा भी नहीं निपटा था। अब तो बहुत देर हो गई थी। अब केवल उसके लिए यही चारा रह गया था कि वह घर की ओर जल्दी से कदम बढ़ाए।

उसने देखा कि उसके ससुर उसके पति के पास खड़े हुए रो रहे हैं और उसकी सास मृतक की आत्मा को शांति देने के लिए भगवान से प्रार्थना कर रही है।

सब बेकार हो गया था। वह अपने पति के शव पर गिर पड़ी और अपने पिता को कोसती हुई जोर-जोर से रोने लगी।

इस घुड़सवार नवयुवक के शव को वहां से कुछ दूर पर ही एक चट्टान पर दफना दिया गया। रोज शाम को जाकर वह लड़की उसकी कब्र के पास रोती। अंत में एक दिन वह खुद भी पत्थर में बदल गई। उस दिन के बाद लोगों को उसका रोना सुनाई देना बंद हो गया।

आज भी उस कब्र के पास वह पत्थर की लड़की बनी हुई है। बहुत दूर से देखने पर ही तुम्हें मालूम चल जाएगा कि वह कोई लड़की है जिसके बाल बिखरे हुए हैं और वह भगवान से प्रार्थना कर रही है। वह अपने पति की कब्र के पास सदा से इसी प्रकार प्रार्थना करती रही है और सदा इसी प्रकार प्रार्थना करती रहेगी।

  • तिब्बत की कहानियां और लोक कथाएं
  • भारतीय भाषाओं तथा विदेशी भाषाओं की लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां