मौज-ए-दीन (कहानी) : सआदत हसन मंटो

Mauj-e-Deen (Hindi Story) : Saadat Hasan Manto

रात की तारीकी में सेंट्रल जेल के दो वार्डन बंदूक़ लिए चार क़ैदियों को दरिया की तरफ़ लिए जा रहे थे जिन के हाथ में कुदालें और बेलचे थे। पुल पर पहुंच कर उन्हों ने गारद के सिपाही से डिबिया ले कर लालटैन जलाई और तेज़ तेज़ क़दम बढ़ाते दरिया की तरफ़ चल दिए।
किनारे पर पहुंच कर उन्हों ने बारहदरी की बग़ल में कुदालें और बेलचे फेंके और लालटैन की मद्धम रौशनी में इस तरह तलाश शुरू की जैसे वो किसी मदफ़ून खज़ाने की खोज में आए हैं। एक क़ैदी ने लालटैन थामे वार्डन को दारोगा जी के नाम से मुख़ातब करते हुए कहा। “दारोगा जी! ये जगह मुझे बहुत पसंद है अगर हुक्म हो तो खुदाई शुरू कर दें।”
“देखना। ज़मीन नीचे से पथरीली न हो, वर्ना सारी रात खुदाई में गुज़र जाएगी। कम-बख़्त को मरना भी रात ही को था।” वार्डन ने तहक्कुमाना और बे-ज़ारी के लहजे में कहा।
क़ैदियों ने कुदालें और बेलचे उठाए और खोदना शुरू किया। वार्डन बे-ज़ारी के मूड में बैठे सिगरेट पी रहे थे। क़ैदी ज़मीन खोदने में हमातन मसरूफ़ थे। रफ़्ता रफ़्ता ज़मीन पर ख़ुदी हुई मिट्टी का ढेर लग गया और वार्डन ने क़रीब आ कर क़ब्र का मुआइना किया। ज़मीन चूँकि पथरीली नहीं थी। इस लिए वो बड़े इत्मिनान के साथ क़रीब ही एक पत्थर पर बैठा सिगरेट पीने लगा। जिसे लगाने के लिए इस ने लालटैन मंगाई।
खुदाई क़रीब क़रीब ख़त्म हो चुकी थी। वार्डन दो क़ैदियों को लिए जेल की जानिब चला गया और बीस मिनट के वक़्फ़े के बाद कम्बल में लिपटी हुई क़ैदी की लाश लेकर वापस आया।
दूसरा वार्डन जब तक सिलें जमा कर के लाया था।
एक क़ैदी ने जो क़त्ल के जुर्म की पादाश में सज़ा काट रहा था। कुदालें और बेलचे उठाए और क़ब्र के सिरहाने चंद क़दम हट कर खड़ा हो गया।
वार्डन ने बहुत ही ब्रहम लहजे में उस की तरफ़ देख कर कहा।
“ओ उल्लू के पट्ठे अपने अब्बा को लहद में उतारने में उन की मदद कर”
क़ैदी ने मुलतजयाना लहजे में कहा। “दारोगा जी! लालटैन पकड़ता हूँ........... मैं नहीं चाहता कि इस मासूम और बे-गुनाह को एक क़ातिल के हाथ छू जाएं।”
वार्डन ये सुन कर गर्जा “बे-गुनाह के बच्चे............ जासूस को मासूम कहता है।”
क़ातिल ने कहा। “दारोगा जी! में क़ातिल हूँ.............. यही एहसास मुझे इस क़ैदी की लाश छूने से रोकता है।”
“जासूस” दफ़नाया जा चुका था............. क़ैदी और वार्डन जा चुके थे। सुबह आठ बजे पुलिस की मईअत में डिप्टी कमिश्नर क़ब्र पर आया। जेल के हुक्काम के बयानात लिए गए और डिप्टी कमिश्नर साहब अदालत तशरीफ़ ले गए।
पेशी की पहली मिस्ल जो उठाई गई, उस पर सरकार ब-नाम मौज दीन लिखा था।
अर्दली ने तीन मर्तबा कमर-ए-अदालत से बाहर निकल कर बुलंद आवाज़ में तीन बार पुकारा। बल्कि यूं कहिए कि ललकारा। “सरकार ब-नाम मौज दीन.......... मौज देन........... मौज दीन है?” लेकिन ये आवाज़ बद-क़िस्मती से उस जासूस क़ैदी की क़ब्र तक न पहुंच सकी..... या अगर पहुंची भी हो तो वो तामील के लिए न आया। शायद ये समझ कर कि वो अब डिप्टी कमिश्नर के क़ानून की ज़द से बहुत दूर जा चुका है। उस जगह जहां कोई और क़ानून चलता है। जहां डिप्टी कमिश्नर के सम्मन की भी तामील नहीं हो सकती।
मुल्ज़िम चूँकि ग़ैर-हाज़िर था, इस लिए डिप्टी कमिशनर साहब बहादुर ने अदम-ए-हाज़िरी मुल्ज़िम कार्रवाई यक-तरफ़ा के लिए मिस्ल उठाई और रीडर से जुर्म की नौइय्यत दरयाफ़्त की।
“जासूसी” मुंशी ने नंबर ए की कार्रवाई लिखते हुए कहा।
“मुल्ज़िम रात को सेंट्रल जेल में फ़ौत हो चुका है। मिस्ल दाखिल-ए-दफ़्तर कर दी जाये।” डिप्टी कमिश्नर ने हुक्म दिया।
“जासूस” की सेंट्रल जेल में मौत की ख़बर शहर भर में इस लिए मशहूर हो गई कि ज़िला के डिप्टी कमिशनर और पुलिस के अफ़िसरों ने उस की नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ी। आज़ाद कश्मीर हुकूमत के नेक सीरत अफ़सरों की हर तरफ़ से दाद-ओ-तहसीन दी जा रही थी। मुझे जब इस वाक़िया का इल्म हुआ तो मुझे एक महीना पहले की एक शाम याद आई जब कि में दार-उल-हकूमत के एक होटल में बैठा डाकगाड़ी का इंतिज़ार कर रहा था। जिस के ज़रिये से मेरे मरम्मत शुदा जूते रावलपिंडी से आने वाले थे। गाड़ी आने में खिलाफ-ए-मामूल देर हुई। मैं क़रीब क़रीब उठने ही वाला था कि एक गहरे साँवले रंग के आदमी ने जिस की उम्र तीस बरस के लग भग थी। मुझे अपनी तरफ़ मुतवज्जा किया।
“आप बूत टेम से बैठा किसी का इंतिज़ार करता है?” उस ने मुसकुराते हुए इस्तिफ़सार किया।
“भई अजीब मुसीबत है। जूता फट जाये मुज़फ़्फ़र आबाद में, तो मरम्मत के लिए रावलपिंडी भेजना पड़ता है। या अगर कोई ड्राईवर मेहरबान हो तो उसी के हाथ भेज देते हैं। आज में अपने मरम्मत शूदा जूतों के इंतिज़ार में तीन घंटे से बैठा हूँ और कम-बख़्त डाकगाड़ी भी आज ही लेट हुई है। ख़ैर कल सही।”
मैं ये कह कर उठने लगा तो उस ने मुझे चंद मिनट मज़ीद इंतिज़ार करने के लिए कहा। मैं उस अजनबी सूरत को देखता रहा। जिस की आँखों में इज़्तिराब था। जिस के होंट कुछ कहने के लिए बे-ताब थे।
वो बीड़ी पर बीड़ी पीए जा रहा था। और मेरे सामने वाली कुर्सी पर बैठा बार-बार बाहर ख़ला में देखता था। मैं डाकगाड़ी के इंतिज़ार में हर एक हॉर्न पर कान धर्ता। वक़्त गुज़ारने के लिए मैं ने उस से पूछा। “आप यहां क्या कर रहे हैं?”
“हम बैठा है” उस ने इंतिहाई सादगी से जवाब दिया।
“नहीं, मेरा मतलब है यहां आप का क्या कार-ओ-बार है”
“कार-ओ-बार कुछ नहीं करता, कश्मीर देखने का शौक़ था, चला आया।”
आप कहाँ से आए हैं?”
“लाहौर से। लेकिन में मश्रिक़ी पाकिस्तान का हूँ, लाहौर में दीनियात की तालीम पढ़ता हूँ।”
मुझे गुफ़्तुगू के दौरान में उस ने बताया कि वो जिस इदारे में ज़ेर-ए-तालीम है, ख़ैराती इदारा है, जहां के अरबाब-ए-आला रसीद बुक छाप कर ज़ेर-ए-तालीम कम-उम्र बच्चों को चंदे की फ़राहमी के लिए दूसरे शहरों में भेज देते हैं। वो चूँकि कम-उम्र बच्चा न था। इस लिए उस को बड़ी मुश्किलों के बाद “सफ़ीर” बना कर आज़ाद कश्मीर में चंदा जमा करने की इजाज़त मिल गई। उस की बातों में सादगी थी। महज़ कश्मीर देखने के शौक़ में उस ने “सफ़ारत” हासिल की थी। उस ने ये भी बता दिया कि यतीम ख़ानों के नाम पर “भिक-मंगों” का नाम इदारों ने सफ़ीर रखा है। जमा शूदा चंदा उन की जेबों में जाता है और सफ़ीर का गुज़ारा चढ़ावे की देग़ों या मुहल्ले वाले की ख़ैरात पर होता है। दीनियात की तालीम मसाजिद में दी जाती है।
मुझे उस की बातें सुन कर बहुत दुख हुआ। वाक़ई वो हमदर्दी के काबिल था। उस ने मुझे बताया कि वो इस शहर में नया है और किसी मस्जिद का पता भी नहीं जानता जहां वो रात बसर कर सके। मैं ने मस्जिद का पता दिया और उस के लिए रोटी मंगवाई। वो चूँकि भूका था, उस ने बिला तकल्लुफ़ बजाय रोटी के सादा चावल के लिए बैरे से कहा।
“हम लाहौर की मस्जिद में भी लोगों का दिया खाते हैं। इस लिए इधर भी हम ने इनकार नहीं किया।” उस ने इंतिहाई सादगी से कहा।
वो खाना खा चुका था। मुझ से इजाज़त ले कर उस ने जेब से लिखने के लिए पैंसिल और काग़ज़ निकाला। और अपने घर वालों को बंगला ज़बान में ख़त लिखने लगा। मैं जब तक फ़र्माइशी गाने सुनता रहा। ख़त लिखने के बाद उस ने मुझ से माफ़ी मांगी और कहा कि “मैं ने घर वालों को लिखा कि मैं आज़ाद कश्मीर आया हूँ। अब यहीं रहूँगा। अगर पाकिस्तान ने हिंदूस्तान के ख़िलाफ़ जिहाद शुरू किया तो मैं भी इस में हिस्सा लूंगा और कश्मीर को आज़ाद कराऊंगा।”
मैं ने जवाब में हिन्दी मक़बूज़ा कश्मीर की ख़ूबसूरती का ज़िक्र किया। कश्मीरी मुस्लमानों पर भारती ज़ुल्म-ओ-इस्तिबदाद बयान किया, जिस से वो और ज़्यादा मुतअस्सिर हुआ।
“फिर हम लाहौर वापस नहीं जाएगा। कल उन को भी ख़त लिखेगा। जिहाद शुरू होने तक इधर ही पान बीड़ी की छाबड़ी लगाएगा।” उस ने फ़ैसलाकुन लहजे में कहा।
इतने देर में डाकगाड़ी आई और मैं वहां से उठ कर लारियों के अड्डे की तरफ़ गया। और वो मेरे बताए हुए रास्ते से मस्जिद की तरफ़ गया। अपने जूते ड्राईवर से ले कर जब मैं घर की तरफ़ जा रहा था तो रास्ते में सी आई डी के हैड-कांस्टेबल ने मुझे आवाज़ दी जो मेरा वाक़िफ़ कार था। मैं ने रस्मी तौर पर उस की ख़ैरियत पूछी। वो मशकूक नज़रों से मुझे देख रहा था।
रस्मी बातों के बाद उस ने मुझे उस “काले आदमी” के मुतअल्लिक़ पूछा कि वो कौन है जो आप के साथ होटल में बैठा था।
मैं ने मुख़्तसरन कहा। “भई बंगाली है, आज़ाद कश्मीर देखने का शौक़ था। चला आया। नाम मौज दीन है और आज रात जामा-मस्जिद में गुज़ारने के लिए गया है।”
“लेकिन वो तो होटल में बैठा कुछ अजीब-ओ-ग़रीब ज़बान में ख़त लिख रहा था। मुझे उस पर कुछ शुब्हा भी हुआ।” हेडकांस्टेबल ने राज़दाराना लहजा में कहा।
“वो अजीब-ओ-ग़रीब ज़बान नहीं। उस की मादरी ज़बान बंगला है। हाँ तुम्हारे लिए अजनबी है।”
इतने में मेरा मकान क़रीब आया और मैं ख़ुदा-हाफ़िज़ कह कर घर चला गया। मुझे ये मालूम न था कि सी आई डी वालों को दिन की कारगुज़ारी की रिपोर्ट दूसरे रोज़ सुबह सवेरे दफ़्तर में देनी पड़ती है और अगर रिपोर्ट न दी गई तो जवाब-तल्बी होती है।
हेड-कांस्टेबल साहब भी दिन की कारगुज़ारी में कुछ न कुछ दिखाना चाहते थे। इस लिए उन्हों ने घर जा कर हुकूमत के सदर मुक़ाम में एक ग़ैर-मुल्की जासूस की आमद की रिपोर्ट इस तरह दी कि दूसरे रोज़ मौज दीन, पान फ़रोशी के लिए चूना कथा ख़रीदता हुआ गिरफ़्तार किया गया। पान, चूना, कथा वग़ैरा भी उस की जासूसी की एक कड़ी बन गई। और सी आई डी वालों ने मज़ीद रिपोर्ट दे दी कि “जासूस” चूँकि पान खाने का आदी है, इस लिए ये स्टाक ख़रीद कर हमारी फ़ौजों की पकटों की पोज़ीशन देखने पहाड़ी इलाक़ों में जा रहा है।
मौज दीन का चालान हुआ। डिप्टी कमिश्नर साहब बहादुर ने इल्ज़ामात की संगीनी के तहत जासूस को पंद्रह दिन के रीमांड पर पुलिस के हवाले कर दिया। जहां से वो स्पैशल स्टाफ़ में मुंतक़िल हुआ। पंद्रह दिन की मीयाद गुज़र जाने पर डिप्टी कमिश्नर साहब ने मज़ीद एक हफ़्ते के रीमांड पर उस को जूडीशल (सेंट्रल जेल) भेज दिया। वो हफ़्ता भी गुज़र गया और जासूस हथकड़ियां पहने डिप्टी कमिश्नर साहब की अदालत में पेश किया गया। जहां वो ज़ार-ओ-क़तार रोया। गिड़गिड़ाया, मिन्नत समाजत की, लेकिन डिप्टी कमिशनर साहब ने मज़ीद एक हफ़्ते का रीमांड दे कर सेंट्रल जेल भेज दिया।
सेंट्रल जेल में उस की आख़िरी रात थी जब कि वो एक सुतून से बंधा रो रहा था, वही क़ातिल क़ैदी जिस ने उस को दफ़नाते वक़्त छूने से इंकार किया। उस के क़रीब आया और पूछा।
“जासूस! तुम हर रोज़ क्यों रोते हो। ये जगह बाहर वालों की बनिसबत बहुत अच्छी है। यहां झूट नहीं, मक्र नहीं, बे-ईमानी नहीं। रोटी मिलती है। इस के मुक़ाबले में बाहर देखो, कौन लोग हैं। जिन्हों ने तुम ऐसे बे-गुनाह को भी यहां भेजा, जो इक़्तिदार के लिए एक का नहीं, हज़ारों का ख़ून बहाते हैं जो दिन दहाड़े डाके डालते हैं जो अपनी ज़ात के लिए वो काम भी करते हैं जो शैतान भी करने से गुरेज़ करता है। मुझे देखो मैं ने क़त्ल किया है महज़ एक बे-बस औरत के नामूस के तहफ़्फ़ुज़ के लिए। बहरहाल मुझे तुम से हमदर्दी है। अगर तुम बाहर जा कर ख़ुश हो तो ख़ुदा तुम्हें आज़ाद कराएगा।”
मौज दीन ने क़ैदी की बातें सुनीं और बिलकुल ख़ामोश बैठा रहा।
“सुना है बंगाली जादू जानते हैं। तुम भी जादू के ज़ोर से बाहर जाओ” क़ैदी ने मौज दीन को बहलाने के लिए अज़राह-ए-मज़ाक़ कहा।
“हाँ, मैं इस क़ैद से रिहाई का जादू जानता हूँ। मैं आज ही यहां से भाग जाऊंगा, बहुत दूर, जहां से दुनिया की कोई ताक़त मुझे वापस नहीं ला सकती।”
इतने में खाने की घंटी बजी। क़ैदी अपनी थाली लिए दाल रोटी लेने गया। आध घंटे के बाद अचानक जेल की घंटी बजनी शुरू हुई और मुतवातिर बजती रही............. दारोगा जेल कई वार्डनों के साथ जेल के अहाता में दाख़िल था और जासूस के गले से रस्सी का फंदा खोला जो उस ने ख़ुदकुशी के लिए इस्तिमाल किया था। “जासूस” भाग चुका था, उस को रिहाई मिल गई थी.............. “बंगाल का जादू” काम आया था।
मौज दीन की लाश के इर्द गिर्द क़ैदियों का हुजूम था। दारोगा जेल ने चंद एक क़ैदियों को वहां ठहरने का हुक्म दे दिया और बाक़ी सारे क़ैदी बार्कों में चले गए। मौज दीन के चेहरे पर अब भी मुसकुराहट थी। वो इस क़ानून पर मुस्कुरा रहा था जिस ने उस को जासूस बना कर महबूस किया था।

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