लघु-कथाएँ : कमलेश्वर

Laghu-Kathayen : Kamleshwar

घूँघटवाली बहू

बात वृन्दावन की है। मैं मन्दिरों में नहीं जाता। देखना हो तो जाने से परहेज भी नहीं करता। कहा गया कि बिहारी जी का मन्दिर तो देख ही लीजिए। यानी दर्शन कर लीजिए। गया। पर रास्ते और आस-पास की गन्दगी से जी घबरा गया। लौट आया। मन्दिर न्यास के सदस्य, एक पत्रकार मित्र योगेश ने कहा-भाई साहब! प्रसाद तो ग्रहण करते जाइए। मैंने घर पर मँगवा लिया है। बच्चों से भी मिल लीजिए।

हम घर पहुँचे। देसी घी की बड़ी पूड़ियों सहित इतना अधिक और इतनी तरह का प्रसाद था कि उसे ग्रहण कर सकना असम्भव था। निश्चय ही वह गिरधारी बाँके बिहारी जी का भोग होगा। प्रसाद प्राप्त किया। बच्चों से मिले। तभी लम्बा घूँघट काढ़े घर की बहू आई। उसने हम दोनों के पाँव छुए। हमने भरपूर दुआएँ दी। बहू गायत्री के पास बैठ गई। लम्बा घूँघट बदस्तूर कढ़ा हुआ था।

चलने लगे तो बहू ने फिर पैर छुए। रास्ते में प्रदीप ने बताया-भाई साहब! योगेश की बहू (पत्नी) वृन्दावन की नगर पार्षद है।
मैं चौंका-बहू। नगर पार्षद! वो घूँघटवाली बहू! क्या बात कर रहे हो!
-मैं ठीक कह रहा हूँ भाई साहब...अभी दो-तीन हफ्ते पहले ही तो चुनाव हुए हैं। बहू बहुत वोटों से जीती है।

अभी हम बाजार से होते हुए मुख्य सड़क की ओर जा रहे थे। प्रदीप ने कहा-वो देखिए भाई साहब!
दीवार पर प्रचार-पोस्टर चिपका था। घूँघट वाली बहू तेजस्वी मुद्रा में भाषण दे रही थी!

ताजमहल किसका है ?

मामला ताजमहल का था। दौर बाजारवाद का था। तीन बाजारवादी सैलानी नौजवान, जो हर चीज को, यहाँ तक कि सभ्यता, संस्कृति और उसके अर्वाचीन स्मारकों तक को निजी सम्पत्ति बनाना चाहते थे, ताजमहल देखने के बाद अपने सात सितारा होटल लौट रहे थे।

एक ने कहा-ग्रीन रिवोल्यूशन के बाद भी देश में जगह-जगह अकाल पड़ता रहता है। मैं इसे ख़रीद कर अनाज का गोदाम बनाऊँगा ताकि देश में कोई आदमी भी भूखा न मरे!

दूसरे ने कहा-तू बहुत आदर्शवादी है। बकवास करता है...मैं तो ताजमहल को ख़रीद कर इसे सात सितारा होटल बनाऊँगा ताकि मैं और मेरे साथ-साथ अपना देश भी थोड़ा मालामाल हो जाए!

उन दोनों के साथ चलते हुए तीसरे दोस्त ने कहा-लेकिन यह सब तो तुम तब कर पाओगे, जब मैं ताजमहल को बेचूँगा! मैं उसे बेचूँगा ही नहीं।
जिन्होंने यह बातचीत सुनी थी, वे सोच रहे थे कि ताजमहल किसका है!

लक्ष्मी

दीवाली की रात से पहले वाला दिन। एक करोड़पति मित्र ने अपने लेखक मित्र से कहा-दोस्त! घर के दरवाजे खुले रखना....आज रात लक्ष्मी आएगी।

तो लेखक ने कहा-तो दोस्त! अपने घर के दरवाजे भी खोल देना, नहीं तो लक्ष्मी निकलेगी कैसे?

किसान

बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद कश्मीर में भी दंगे हो गए। कश्मीरी पण्डितों के मन्दिर भी गिराए जा रहे थे। एक मन्दिर पर हमले का ख़तरा देखकर पुजारी भाग गया।

एक किसान ने देखा। नाराज भीड़ उधर ही आ रही थी। वह मन्दिर में घुस कर बैठ गया और कुरान पढ़ने लगा। नाराज़ भीड़ लौट गई। उसने पुजारी को पुकारा-
-अरे ओ अजुध्यानाथ! अपने मन्दिर को सँभालो।

वैलकम

जेल में कालाबाज़ारी सेठ पहले से बन्द था।
एक नया कैदी लाया गया। उसे देखकर कुछ कैदियों को ताज्जुब हुआ। वह इनकम टैक्स कमिश्नर था।
कालाबाजारी सेठ ने उसे पहचाना। बोला-
-नमस्ते कमिश्नर साहब! आप वही हैं न, जिसने मुझ पर इनकम टैक्स रेड की थी...आप भी आ गए! वैलकम...

सच्ची घटना

एक पुश्तैनी मालदार लेखक ने अपना एक मकान फोकटी लेखक दोस्त को किराये पर दे दिया। वह फोकटी न किराया देता था न घर छोड़ता था। झगड़ा बढ़ गया तो फोकटी दोस्त ने कहा-जाओ, जाके कोर्ट से ख़ाली करवा लो।

पुश्तैनी लेखक को गुस्सा आ गया-मुझे कोर्ट जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी...मेरे पास और भी तरीके हैं!

पुश्तैनी लेखक ने मोहल्ले के दो गुण्डों को पैसा देकर मकान खाली करवा लिया। लेकिन गुण्डों ने उस पर अपना ताला डाल दिया।

जनाज़ा

हम लोगों की हमदमी दोस्ती और घरेलू घनिष्ठता के बावजूद नोंक-झोंक भी चलती ही रहती थी। हँसी-मजाक भी। एक दिन खासी गम्भीर मुद्रा में राजेन्द्र बोला-यार, तुझे नहीं लगता कि राकेश ने अपनी रचना के बल पर नहीं, सम्पर्कों, ठहाकों, ड्रिंक पार्टियों, पंजाबी लॉबी और डिनर राजनीति के सहारे अपने झण्डे गाड़ रखे हैं!
मैंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की।

-तू अगर मेरा साथ दे तो...राजेन्द्र ने फिर बड़ी गम्भीरता से कहा-तो देखते-देखते इसका जनाज़ा उठ जाएगा!

आख़िर मुझे कहना पड़ा-इसमें मेरे साथ देने की ज़रूरत ही कहाँ है। तू अगले छह महीनों में जो कुछ लिखे, राकेश के नाम से छपवा दे, वह अपने-आप ही मर जाएगा।

रिज़र्वेशन

बात मण्डल-कमण्डल से होती हुई दलितों-कमजोर वर्गों के रिज़र्वेशन पर आ गई। हिन्दी साहित्य के सवर्णवादी चरित्र पर भी छींटाकशी चल रही थी। कुछ उत्तेजित दलित लेखक आक्षेप लगा रहे थे कि हमने-यानी मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव ने नई कहानी की जमीन पर कब्जा कर लिया था और किसी को वहाँ घुसने नहीं दिया था। साथ ही यह आरोप भी था कि हमारी मानसिकता दलित विरोधी है। आरक्षण विरोधी है।

मैंने प्रतिवाद किया-आप यह कैसे कह सकते हैं? नई कहानी के दौर में तो मण्डल-कमण्डल का नाम नहीं था। आरक्षण आदि का सवाल नहीं था। आप तो अब 27 प्रतिशत आरक्षण माँग रहे हैं, हमने तो कहानी के क्षेत्र में उसी समय अपने त्रिगुट के सब से कमजोर वर्ग को 33.3 प्रतिशत रिज़र्वेशन दे रखा था।

तितली

ईडन गार्डन के खुले मंच पर नृत्य सम्राट उदयशंकर का नृत्य प्रदर्शन था। दर्शकों की भीड़। उदयशंकर ताण्डव नृत्य प्रदर्शित कर रहे थे। वे नृत्य की ताल और लय में तल्लीन थे। ताण्डव के प्रलय पक्ष का रौद्ररूप जब आया, तभी नृत्य सम्राट की टाँगों के बीच दो तितलियाँ आकर चक्कर काटने लगीं। कुछ पल तो वे उसी लय में नृत्य करते रहे पर तितलियों ने अपना नृत्य नहीं रोका तो उदयशंकर ने अपना नृत्य एकाएक रोक दिया। दर्शक अचम्भे में पड़ गए। वे समझ नहीं पाए कि ऐसा क्‍यों हुआ। तब उदयशंकर ने तितलियों की बात बताते हुए कहा-बड़ी से बड़ी कला स्थगित या खण्डित की जा सकती है यदि उससे जीवन विनष्ट या खण्डित होता हो!

जेबकतरा

मुकद्दमा बहुत मामूली था।

अदालत में कोई भीड़-भाड़ भी नहीं। दो-एक वकील, तीन-चार पुलिस वाले। अदालत के कारिंदे। एक चपरासी और जेबकतरा। जुर्म भी संगीन नहीं था।

मजिस्ट्रेट ने सजा सुनाई-एक साल की सजा या एक हजार रुपया जुर्माना! क्‍या मंजूर है तुम्हें?
जेबकतरा-हुज़ूर, जुर्माना!

मजिस्ट्रेट-ठीक है। जाके जुर्माना खजाने में जमा करो और रसीद लाकर अदालत में पेश करो।
जेबकतरा-हुज़ूर! एक घण्टे की मोहलत दे दी जाए।
मजिस्ट्रेट-क्यों ?
जेबकतरा-हुज़ूर! इतना वक्‍त तो लग ही जाएगा...
मजिस्ट्रेट-ठीक है....ठीक है...मुंशी जी, अगला केस।

जब तक दो-तीन मुकद्मों की पेशियाँ हुई तब तक जेबकतरे ने आकर खजाने की रसीद पेश कर दी। उसे रिहा कर दिया गया। वह अदालत को सलाम करके चल दिया। जाते-जाते बन्द मुट्ठी से उसने उस पुलिस वाले को कुछ थमाया जो उसे पेशी पर लाया था। एक मरियल से वकील ने भीड़ में गुम होते जेबकतरे की तरफ से नजरें घुमाकर मजिस्ट्रेट को देखा।

मजिस्ट्रेट ने वकील को बताया-ठीक है...जब पुलिस पकड़ के लाएगी, तो फिर सजा दे दूँगा!

पाँचों उँगलियाँ

घटना सच्ची है। किसानों के बेताज बादशाह चौधरी चरनसिंह के जमाने की। वे भारत के अकेले ऐसे अल्पजीवी प्रधान मन्त्री थे, जिन्होंने अपने कार्य काल में कभी सदन का सामना नहीं किया था। प्रधान मन्त्री तो वे नहीं रह गए थे पर किसानों के वे बड़े नेता तो थे ही। प्रधान मन्त्री रहते समय कुछ विरोधी छुट भइयों ने उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे।

एक किसान रैली में वे उन्हीं आरोपों का उत्तर दे रहे थे। अन्त में वे हाथ की हथेली दिखाते हुए बोले-ये कहावत भी है और दुनिया जानती है कि पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होतीं!
भीड़ में से एक किसान खड़ा हो गया। दोहर में से हाथ निकालकर “कौर बनाते हुए' वह बोला-पर चौधरी साब, खाते वक्‍त पाँचों उँगलियाँ बराबर हो जाती हैं।

आगरा का शोधार्थी

भयानक गर्मी पड़ रही थी। दिमाग तक पसीज रहा था। उन्हीं दिनों आगरा विश्वविद्यालय का एक शोधार्थी आया। उसने बताया कि वह मेरे कथा-साहित्य पर शोध करना चाहता है। निर्देशक महोदय ने उसे आदेश दिया था कि वह मुझसे मिले और कोई अछूता-सा विषय लेकर आए।

मुझे उस गर्मी में एक ही अछूता-सा विषय सुझा। मैंने कहा-देखो भइया! राजेन्द्र यादव आगरा के हैं। आगरा के शोधार्थियों पर उनका हक बनता है। एकदम अछूता विषय हो सकता है-“हिन्दी कथा साहित्य में 'हँस और कंस'...उसकी आँखें चमकीं। मैंने उसकी सुविधा के लिए और खुलासा कर दिया-आधुनिक कथा यथार्थ और पत्रकारिता के परिप्रेक्ष्य में आप हँस और कंस के सम्बन्धों का विवेचन कीजिए। कथा- साहित्य और जातिवाद के समीकरणों का विश्लेषण कीजिए। क्योंकि राजेन्द्र यादव तो यादव हैं ही, कंस भी यादव था। दोनों का भाषा क्षेत्र भी एक है। दोनों की मानसिक अपेक्षाएं भी एक हैं। और आगे बढ़कर आधुनिक काल में आते हुए हंस के स्त्रीवाद और कथा-लोचना के ठाकुरवाद का तुलनात्मक अध्ययन भी किया जा सकता है...

शोधार्थी की आँखों की चमक और बढ़ गई। वह बोला-सर! है तो यह एकदम अछूता विषय। हमारे निर्देशक-सर राजेन्द्र यादव जी के प्रशंसक भी हैं। सर! अगर राजेन्द्र यादव जी का पता और फोन नम्बर मिल जाता तो...

मैंने उसे फ़ौरन पता और फोन नम्बर थमा दिया। वह धन्यवाद देता हुआ प्रणाम करके चला गया।

वायरलैस

संसार के पुरातत्त्ववेत्ताओं की अन्तर्राष्ट्रीय कांफ्रेंस मिस्र की राजधानी काहिरा में चल रही थी। भारत में यह हिन्दुत्ववादी शक्तियों की सत्ता का दौर था। पुरातन गौरव के गुणगान और पुराणों को इतिहास सिद्ध करने का तूफानी अभियान चल रहा धा। उस कांफ्रेंस में भारतीय पुरातत्त्ववेत्ताओं की मण्डली भी भाग ले रही थी।

मिस्र की सभ्यता और उसकी प्राचीनता पर भाषण देते हुए वहीं के एक पुराविद्‌ ने कहा-लगभग दस वर्ष पहले नील नदी के दक्षिणी इलाके में हमारी टीम ने लगभग एक हजार फीट गहरी खुदाई की। कुछ प्राचीन अवशेष, मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े आदि बड़ी संख्या में वहाँ से बरामद हुए। सबसे महत्त्वपूर्ण एक साक्ष्य मिला, वह आज के बिजली जैसे तार की तरह था। वह गल गया था पर कई स्थानों पर उसके टुकड़े मिले... ।
-आप कहना क्‍या चाहते हैं? किसी ने उस पुराविद्‌ को टोका।

-यही कि अभी निश्चित तौर पर तो कुछ नहीं कहा जा सकता, पर अनुमान के आधार पर शायद यह कहना अनुचित नहीं होगा कि ढाई हजार वर्ष पहले हमारे यहाँ टेलीग्राफ जैसी कोई चीज रही होगी।

भारतीय पुराविद्‌ खामोश कैसे बैठ सकते थे! टीम के नेता ने अध्यक्ष से बोलने की इजाजत माँगी। इजाजत उन्हें मिल गई।

वे बोले-मैं भारत का प्रतिनिधि हूँ। आप जैसे संसार के विख्यात पुराविदों के समक्ष मैं पुरातन भारतीय सभ्यता का एक प्रामाणिक साक्ष्य रखना चाहूँगा। हमारे अन्वेषक पुराविदों ने विंध्याचल पर्वत के क्षेत्र में एक हजार फुट गहरी नहीं, बल्कि दो हजार फुट गहरी खुदाई की...हमने धरती की कई परतों की खुदाई और सर्वेक्षण किया. ..वहाँ कोई विशेष अवशेष हमें प्राप्त नहीं हुए...
-तो आप कहना क्या चाहते हैं? किसी ने टोका।

-यही कि कोई भी अवशेष न मिलने से यह प्रमाणित होता है कि तीन हजार वर्ष पहले हमारे यहाँ वायरलैस था!

(‘महफ़िल’ से)

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