कपाल कुण्डला (बंगला उपन्यास) : बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय

Kapalkundala (Bangla Novel) : Bankim Chandra Chattopadhyay/Chatterjee

प्रथम खण्ड

: १ : सागर-संगम में

“Floating straight obedient to the stream,”
—Comedy of Errors

लगभग ढाई सौ वर्ष पूर्व माघ मासमें, एकदिन रात के अन्तिम प्रहरमें, यात्रियों की एक नाव गङ्गासागर से वापस हो रही थी। पुर्तगाली और अन्यान्य नौ-दस्युओं के कारण उस समय ऐसी प्रथा थी कि यात्री लोग गोल बाँधकर नाव-द्वारा यात्रा करते थे। किन्तु इस नौका के आरोही संगियों से रहित थे। उसका प्रधान कारण यह था कि पिछली रातको घोर बादलोंके साथ तूफान आया था; नाविक दिक्‌भ्रम होनेके कारण अपने दलसे दूर विपथ में आ पड़े थे। इस समय कौन कहाँ था, इसका कोई पता न था। नावके यात्रियों में बहुतेरे सो रहे थे। एक वृद्ध और एक युवक केवल जाग रहे थे। वृद्ध युवक के साथ बातें कर रहा था। थोड़ी देर तक बातें करने के बाद वृद्धने मल्लाहों से पूछा—“माझी! आज कितनी दूरतक राह तय कर सकोगे?” माझी ने इधर-उधर बहकावा देकर उत्तर दिया—“कह नहीं सकते।”

वृद्ध नाराज होकर नाविक का तिरस्कार करने लगा। इसपर युवकने कहा—“महाशय! जो भगवान्‌ के हाथ की बात है, उसे पण्डित-विद्वान् तो बता ही नहीं सकते, यह बेचारा मूर्ख कैसे बता सकता है, आप नाहक उद्विग्न न हों।”

वृद्धने उत्तेजित होकर जबाब दिया—“उद्विग्न न होऊँ! क्या कहते हो? पाजियों ने बीस-पचीस बीघे का धान काट लिया, बच्चोंको सालभर क्या खिलाऊँगा?”

यह खबर उन्होंने गङ्गासागर पहुँचने पर पीछे से आनेवाले यात्रियों के मुँह से सुनी थी। युवकने कहा—“मैंने तो पहले ही कहा था कि महाशय के घरपर दूसरा कोई देखभाल करनेवाला नहीं है....महाशय का आना अच्छा....उचित नहीं हुआ।”

वृद्ध ने पहले की तरह उत्तेजित स्वर में कहा—“न आना? अरे, तीनपन तो चले गये! आखिरी अवस्था आ गयी! अब यदि परकाल के लिए कुछ न करूँ, तो कब करूँगा?”

युवक ने कहा—“यदि शास्त्र का मर्म समझा जाय, तो तीर्थदर्शन से परकाल के लिए जो कर्म साधित होता है, घर बैठकर भी वह हो सकता है।”

वृद्ध ने कहा—“तो तुम आये क्यों?”

युवक ने उत्तर दिया—“मैं तो पहले ही बता चुका हूँ कि समुद्र देखने की साध थी। इसीलिये आया हूँ मैं।” इसके बाद ही अपेक्षाकृत मधुर भावुक स्वरमें कहने लगा—“अहा! कैसा दृश्य देखा है, जन्म-जन्मान्तर इस दृश्य को भूल नहीं सकता!”

दूरादयश्चक्रनिभस्य तन्वी
तमालतालीवनराजिनीला।
आभाति वेला लवणाम्बुराशे-
र्धारानिबद्धेव कलङ्करेखा॥

वृद्ध के कान कविता की तरफ न थे, बल्कि नाविक आपसमें जो कथोपकथन कर रहे थे, वह एकाग्र मनसे उसे ही सुन रहा था।

एक नाविक दूसरे नाविक से कह रहा था—“ऐ भाई! यह काम तो बड़ा ही खराब हुआ। अब कहाँ किस नदी में आ पड़े—कहाँ किस देशमें आ पड़े, यह समझ में नहीं आता!”

वक्ता का स्वर भयकातर था। वृद्धने भी समझा कि किसी विपद्‌ की आशंका का कोई कारण उपस्थित है। उन्होंने डरते हुए पूछा, “माझी! क्या हुआ है?” माझी ने कोई जवाब न दिया। किन्तु युवक उत्तर की प्रतीक्षा न कर बाहर आया। बाहर आकर देखा कि प्रायः सबेरा हो चला है। चारो तरफ घना कुहरा छाय हुआ है; आकाश, नक्षत्र, चन्द्र, किनारा किसी तरफ कुछ दिखाई नहीं पड़ता। समझ गये कि नाविकों को दिक्‌भ्रम हो गया है। इस समय वह सब किधर जा रहे हैं, इसका ठौर-ठिकाना नहीं है। कहीं खुले समुद्र में न पड़ जायें, यही उनकी आशंका है।

हिम निवारण के लिये नाव सामने से आवरण द्वारा ढँकी हुई थी; इसीलिये भीतर बैठे हुए आरोहियों को कुछ मालूम न हुआ। किन्तु युवक ने अच्छी तरह हालत समझकर वृद्ध को समझा दिया; इस पर नाव में महाकोलाहल उपस्थित हुआ। नाव में कई औरतें भी थीं। कोलाहल का शब्द सुनती हुई जो जागीं, तो लगीं चिल्लाने—“किनारे लगाओ, किनारे लगाओ, किनारे लगाओ!”

नवकुमार ने हँसते हुए कहा—“किनारा है कहाँ? उसके मालूम रहते इतनी विपद् काहे की होती?”

यह सुनकर नावके यात्रियों का कोलाहल और भी बढ़ गया। युवक यात्री ने किसी तरह उन लोगों को समझा-बुझाकर शान्त कर नाविकों से कहा—“डरकी कोई बात नहीं है, सबेरा हुआ— चार-पाँच दण्डों में अवश्य ही सूर्योदय हो जायगा और चार-पाँच दण्ड में इधर नाव भी डूबी नही जाती है। तुम लोग भी अपने डाँड़े बन्द कर दो। धारा में नाव जहाँ जाये, जाने दो। पीछे से सूर्योदय देखकर विचार किया जायगा।”
नाविकों ने इस परामर्श पर राजी होकर उसके अनुसार कार्य किया।

बहुत देरतक नाविक निश्चेष्ट होकर बैठे रहे। उधर मारे भयके यात्रियों का प्राण कण्ठागत था। वायु बिलकुल न थी। अतः उन्हें लहरों के थपेड़ों का अनुभव उस समय नहीं हो रहा था। फिर भी, सब यही सोच रहे थे कि मृत्यु सुनिश्चित है और निकट है। पुरुष निःशब्द होकर दुर्गानाम जपने लगे और औरतें स्वर मिलाकर रोने लगीं। एक औरत अपनी सन्तान को गङ्गासागर में विसर्जन करके आ रही थी। लड़के को जल में डालकर फिर उठा न सकी। केवल वही औरत रोती न थी।

प्रतीक्षा करते-करते प्रायः वेला-अनुभव से एक प्रहर बीत गया। ऐसे ही समय मल्लाहों ने दरिया के पाँचों पीरों का नाम लेकर एकाएक कोलाहल मचाना शुरू कर दिया। सब लोगों ने पूछा,—“क्या हुआ, क्या हुआ, माझी! क्या हुआ।” मल्लाह उसी तरह कोलाहल करते हुए कहने लगे,—“सूर्य निकले, सूर्य निकले, लगाओ डाँड़ा, लगाओ डाँड़ा।” नाव के सभी यात्री उत्सुकता-पूर्वक बाहर निकल देखने लगे कि क्या हालत है, हम कहाँ हैं? देखा, कि सूर्य का प्रकाश हो गया है। करीब एक प्रहर दिन बीत गया था। जहाँ इस समय नौका है, वह वास्तविक समुद्र नहीं है, नदीका मुहाना मात्र है, किन्तु नदीका वहाँ जैसा विस्तार है, वैसा विस्तार और कहीं भी नहीं है। नदीका एक किनारा तो नाव से बहुत ही समीप है—यहाँ तक कि कोई पचास हाथ दूर होगा, लेकिन नदीका दूसरा किनारा दिखाई नहीं देता; और दूसरी तरफ जिधर भी देखा जाता है, अनन्त जलराशि है। चञ्चल रवि रश्मिमाला प्रदीप्त होकर आकाशप्रान्त में ही विलीन हो गई है। समीप की जल सचराचर मटमैला नदी-जल की तरह है, किन्तु दूरका जल नील—नीलप्रभ है। आरोहियों ने निश्चित सिद्धान्त कर लिया है कि वे लोग महासमुद्र में आ पड़े हैं। फिर भी, सौभाग्य यही है कि किनारा निकट है और डर की कोई बात नहीं है। सूर्यकी तरफ देखकर दिशाका निरूपण किया। सामने जो किनारा वे देख रहे थे, वह सहज ही समुद्रका पश्चिमी तट निरूपित हुआ। किनारे तथा नावसे थोड़ी ही दूर पर एक नदी का मुँह मंदगामी जलके प्रवाह की तरह आकर पड़ रहा था। संगमस्थल के दाहिने बाजू बृहद् वालुका-राशि पर बक आदि पक्षी अगणित संख्या में क्रीड़ा कर रहे थे। इस नदी ने आजकल “रसूलपुर की नदी” नाम धारण कर लिया है।

:२: किनारे पर

“Ingratitude! Thou marble-hearted friend!”
—King Lear

आरोहियों की स्फूर्तिव्यंजक बातें समाप्त होने पर नाविकों ने प्रस्ताव किया कि ज्वार में अभी थोड़ा और विलम्ब है, अतः इस अवसर में यात्री लोग सामने की रेती पर अपने आहार आदि का आयोजन करें। इसके बाद ही ज्वार आते ही स्वदेश की तरफ यात्रा करनी होगी। आरोहियों ने यह सलाह मान ली, इसपर मल्लाहों के नाव को किनारे लगाने पर, आरोहीगण किनारे उतरकर स्नानादि प्रातः कृत्य पूरा करने लगे।

स्नानादि के बाद रसोई बनाना एक दूसरी विपत्ति साबित हुई। नावपर खाना बनाने के लिये आग बालने की लकड़ी न थी। बाघ आदि हिंस्र जन्तुओं के भयसे ऊपर जाकर लकड़ी काट लाने को कोई तैयार न हुआ। अन्त में सबका उपवास होने का उपक्रम होने का समय देखकर वृद्धने युवक से कहा—“बेटा, नवकुमार! अगर तुम इसका कोई उपाय न करोगे, तो हम सब भूखों मर जायेंगे।”

नवकुमार ने कुछ देर तक चिन्ता करने के बाद कहा—“अच्छा, जाता हूँ, कुदाल दे दो और दाव लेकर एक आदमी मेरे साथ चले।”
लेकिन कोई भी नवकुमार के साथ जाने को तैयार न हुआ।

“अच्छा, खानेके समय समझूँगा।” यह कहकर नवकुमार अकेले कमर कसकर कुठारहस्त होकर लकड़ी लाने को चल पड़े।

किनारे के करार पर चढ़कर नवकुमार ने देखा कि जितनी दूर दृष्टि जाती है, कहीं भी बस्ती का कोई भी लक्षण नहीं है, केवल जंगल ही जंगल है। लेकिन वह जंगल बड़े-बड़े वृक्षों से पटा घना जंगल नहीं है, बल्कि स्थान-स्थान पर गोलाकार पौधों के रूप में चटियल भूमिखण्ड मात्र है। नवकुमार ने उसमें जलानें लायक लकड़ी नहीं पायी। अतः उपयुक्त वृक्ष की खोज में उन्हें नदी तट से काफी दूर जाना पड़ा। अन्त में लकड़ी काटने लायक एक वृक्ष से उन्होंने लकड़ी काटना शुरू किया। लकड़ी काट चुकने पर उसे उठाकर ले आना, एक दूसरी समस्या आ खड़ी हुई। नवकुमार कोई दरिद्र की सन्तान न थे कि उन्हें इसका अभ्यास होता; आने के समय उन्हें इस समस्या का अनुभव ही न हुआ, अन्यथा जिस किसी को साथ ले ही आते। अब लकड़ी का ढोना उनके लिये एक विषम कार्य हो गया। जो भी हो, काम में प्रवृत्त हो जाने पर सहज ही उससे हताश हो जाना नवकुमार जानते न थे। इस कारण, किसी तरह कष्ट सहते हुए लकड़ी ढोकर नवकुमार लाने ही लगे। कुछ दूर बोझ लेकर चलनेपर थककर वह सुस्ताने लगते थे। फिर ढोते थे, फिर विश्राम करते थे; इसी तरह वे वापस होने लगे।

इस तरह नवकुमार के लौटने में काफी विलम्ब होने लगा। इधर उनके साथी उनके आने में विलम्ब होते देख उद्विग्न होने लगे। उन्हें यह आशंका होने लगी कि शायद नवकुमार को बाघ ने खा डाला। संभाव्य काल व्यतीत होने पर उन लोगोंके हृदय में यही सिद्धान्त जमने लगा। फिर भी, किसी में यह साहस न हुआ कि किनारे के ऊपर चढ़कर कुछ दूर जाकर पता लगाये।

नौका रोही यात्री इस तरह की कल्पना कर ही रहे थे कि भैरव रव से कल्लोल करता जल बढ़ने लगा। मल्लाह समझ गये कि ज्वार आ गया। मल्लाह यह भी जानते थे कि इस विशेष अवसर पर तटवर्ती नावें इस प्रकार जलके थपेड़ों से जमीन पर पटकनी खाकर चूर-चूर हो जाती हैं, इसलिये वह लोग बहुत शीघ्रता के साथ नाव खोलकर नदी की बीचधार में चले जाने का उपक्रम करने लगे। नाव के खुलते-न-खुलते सामने की रेतीली भूमि जलमग्न हो गई। यात्रीगण व्यस्त होकर केवल स्वयं नौका पर सवार ही हो सके। तटपर रखा हुआ आहार बनाने का सारा सामान उठाने का उन्हें मौका ही न मिला।

जल का वेग नाव को रसूलपुर की नदी के बीच खींचे ले जा रहा था, लौटने में विलम्ब और बहुत तकलीफ उठानी पड़ेगी, इस ख्याल से यात्री प्राणपण से उससे बाहर निकल आने की चेष्टा करने लगे। यहाँ तक कि उन मल्लाहों के माथेपर मेहनत के कारण पसीने की बूँदें झलकने लगी। इस मेहनत के फलस्वरूप नाव नदी के बाहर तो अवश्य आ गयी, किन्तु ज्वार के प्रबल वेग के कारण एक क्षणके लिये भी रुक न सकी और तीर की तरह उत्तर की तरफ आगे बढ़ी, यानी बहुत मिहनत करके भी वे नाव को रोक न सके, और नाव फिर वापस न आ सकी।

जब जल का वेग अपेक्षाकृत मन्द हुआ, तो उस समय नाव रसूलपुर के मुहाने से काफी दूर आगे बढ़ गई थी। अब इस मीमांसा की आवश्यकता हुई कि नवकुमार के लिये नाव फिर लौटाई जाय या नहीं? हां यहीं यह कह देना भी आवश्यक है कि नवकुमार के सहयात्री उनके पड़ोसीमात्र थे, कोई आत्मीय न था। उन लोगों ने विचारकर देखा कि अब लौटना फिर एक भाटे का काम है। इसके बाद ही फिर रात हो जायगी और रात को नाव चलाई जा नहीं सकती, अतः फिर दूसरे दिन के ज्वार के लिये रुकना पड़ेगा। तबतक लोगोंको अनाहार भी रहना पड़ता। दो दिनों के उपवाससे लोगोंके प्राण कण्ठगत हो जायँगे। विशेषतः यात्री किसी तरह भी लौटने के लिये तैयार नहीं हैं, वे किसी की आज्ञा के बाध्य भी नहीं। उन सबका कहना है कि नवकुमार की हत्या बाघ द्वारा हो गयी, यही सम्भव है। फिर इतना क्लेश क्यों उठाया जाय।

इस तरह विवेचन कर नवकुमार को छोड़कर देश लौट चलना ही उचित समझा गया। इस प्रकार उस भीषण जंगल में समुद्र के किनारे वनवास के लिये नवकुमार छोड़ दिये गये।

यह सुनकर यदि कोई प्रतिज्ञा करे कि किसी के भी उपवासनिवारण के लिये कभी लकड़ी एकत्रित करने न जायेंगे, तो वह पामर है—यात्रीगण की तरह ही पामर। आत्मोपकारी को वनवास में विसर्जन कर देने की जिनकी प्रकृति है, वे तो चिरकाल तक इसी प्रकार आत्मोपकारी को विसर्जन करते ही रहेंगे—किन्तु ये लोग कितनी ही बार वनवासी क्यों न बनाते रहें, दूसरे के लिये लकड़ी एकत्रित कर देने की जिसकी प्रकृति है, वह तो बारम्बार ही इसी तरह आत्मोपकार करता रहेगा। तुम अधम हो—केवल इसीलिये हम अधम हो नहीं सकते!

:३: विजन में

“Like a veil
Which, if withdrawn, would but disclose the frown
Of one who hates us, so the night was shown
And grimly darkled o’er their faces pale
And hopeless eyes.s shown,
And grimly darkend o'er the face pale.”
—Don Juan

जिस जगह नवकुमार को त्यागकर यात्री लोग लौट गये, आजकल उसके समीप ही दौलतपुर और दरिया पुर नामके दो छोटे-छोटे गाँव दिखाई पड़ते हैं। किन्तु जिस समयके वर्णनमें हम प्रवृत्त हुए हैं, उस समय वहाँ मनुष्यों की बस्ती के कोई भी चिन्ह नहीं थे। वहाँ केवल जंगल ही जंगल थे। किन्तु बंगाल के सूबे में हर जगह अधिकांश भूमि जैसी उपज से भरी रहती है, यहाँ वह बात नहीं है। रसूलपुर के मुहाने से लेकर स्वर्णरेखा तक विस्तृत कई योजन की राह बालू के बड़े-बड़े ढूहोंमें वर्तमान है। थोड़ा और ऊँचा होते ही अनायास बालुकामय ढूह पहाड़ी कही जा सकती थी। आजकल वहाँके लोग उसे 'बालियाड़ी' कहते हैं। इन बालियाड़ियों की उच्च धवल शिखरमालाएँ मध्यान्ह सूर्यकिरण में अपूर्व शोभा पाती हैं। उनपर ऊँचे पेड़ पैदा नहीं होते। ढूह के तल भाग में सामान्य वन जैसा दृश्य दिखाई पड़ता है, किन्तु मध्य भाग या शिखरपर प्रायः धवल शोभा ही व्याप्त रहती है। निम्न भाग में भी कंटीली झाड़ी, भाऊ और वन-पुष्प के ही छोटे-छोटे पेड़ दिखाई पड़ते हैं।

ऐसे ही नीरस जंगल में साथियों द्वारा नवकुमार अकेले परित्यक्त हुए। पहले लकड़ी का बोझ लेकर जब वे नदी किनारे आये तो उन्हें नाव दिखायी न दी। अवश्य ही उस समय उनके मन में डर पैदा हुआ किन्तु सहसा उन्होंने विश्वास न किया कि उनके साथी उन्हें इस प्रकार छोड़कर चले गये होंगे। उन्होंने विचार किया कि ज्वार का जल बढ़ जाने के कारण उन लोगों ने अपनी नाव कहीं किनारे दूसरी जगह लगा रखी होगी। शीघ्र ही वे लोग खोज लेंगें और नावपर चढ़ा लेंगे। आशा से वह बहुत देर तक किनारे खड़े रहे। लेकिन नाव न आई। नाव का कोई आरोही भी दिखाई न दिया। नवकुमार भूख से व्याकुल होने लगे। प्रतीक्षा न कर अब नवकुमार नदी के किनारे-किनारे नावकी खोज करने लगे, लेकिन कहीं भी नाव का कोई निशान भी दिखाई न दिया, अतः लौटकर फिर अपनी पहली जगह पर आ गये। फिर भी, नाव को वहाँ पहुँची न देखकर उन्होंने विचार किया कि ज्वार के वेग से मालूम होता है नाव आगे निकल गयी है, अतः अब प्रतिकूल धारा पर नाव पलटाने में जान पड़ता है, साथियों को विलम्ब लग रहा है। लेकिन धीरे-धीरे ज्वार का वेग भी शान्त हो गया। अतः उन्हें आशा हुई कि साथी लोग भाटे में अवश्य लौटेंगे, किन्तु धीरे-धीरे भाटे का वेग दोबारा बढ़ा, फिर घटने लगा और उसके साथ ही सूर्यास्त हो गया। यदि भाटे में नाव को वापस होना होता, तो अब तक वह कभी की आ गई होती?

अब नवकुमार को विश्वास हो गया कि या तो ज्वार-वेग में नाव उलटकर डूब गयी है, अथवा साथियों ने ही मुझे छोड़ दिया है।

पर्वत के नीचे से चलने वाले व्यक्ति के ऊपर जैसे शिखर आ पड़े और वह पिस जाय, वैसे ही इस सिद्धान्त के हृदय में पैदा होते ही नवकुमार का हृदय पिस गया।

इस समय नवकुमार के हृदय की जो अवस्था थी, उसका वर्णन करना बहुत कठिन है। साथी लोग भी प्राण से हाथ धो बैठे होंगे, इस सन्देह ने भी उन्हें चिन्तान्वित किया, किन्तु शीघ्र ही अपनी विषम अवस्था में उसकी समालोचना ने—उस शोक को भुला दिया। विशेषतः जब उनके मन में हुआ कि जान पड़ता है कि उनके साथियों ने उन्हें छोड़ दिया है, तो हृदय के क्रोध से और भी शीघ्र उनके हृदय की चिन्ता दूर हो गयी।

नवकुमार ने देखा कि आस-पास न तो कोई गाँव है, न आश्रय है, न लोग—और न बस्ती है, न भोजन की कोई वस्तु, न पीने को पानी ही क्योंकि नदी का पानी सागरजल की तरह खारा है; साथ ही भूख-प्यास से हृदय विदीर्ण हुआ जाता है। भीषण समय है और उसके निवारण का भी कोई उपाय नहीं है। कपड़े भी नहीं हैं। क्या इसी बर्फीली हवामें खुले आकाश के नीचे बिना किसी छाया के रहना पड़ेगा? हो सकता है, रात में शेर-भालू फाड़ खायें! आज बचे ही रह गये तो कल यही हो सकता है। प्राण नाश ही निश्चित है।

मन की भयानक चञ्चलता के कारण नवकुमार बहुत देर तक एक जगह पर रुक नहीं सके। वह नदी तट से ऊपर चढ़कर आये और इधर-उधर भटकने लगे। क्रमशः अन्धकार बढ़ने लगा। सिर पर आकाश में नक्षत्र ठीक उसी तरह लगने लगे, जैसे नवकुमार के अपने गाँव में उगा करते थे। उस अन्धकार में चारों तरफ सन्नाटा, भयानक, गहरा सन्नाटा? आकाश, वन, नदी, समुद्र सब तरफ भयावह सन्नाटा—केवल बीच-बीच में समुद्र-गर्जन और अन्य पशु-पक्षियों का भीषण रव सुनाई पड़ जाता था। फिर भी उसी भीषण अन्धकार और सन्नाटे में नवकुमार इधर-उधर घूम रहे थे। कभी नदी के चारों तरफ घूमते, कभी उपत्यका में, कभी अधित्यका में और कभी स्तूप के शिखर पर चले जाते थे। मन की चंचलता उन्हें एक जगह स्थिर नहीं रहने देती थी। इस तरह घूमते हुए हर पद पर हिंस्र पशु का भय था, लेकिन वही डर तो एक जगह खड़े रहने पर भी था।

इस तरह घूमते-घूमते नवकुमार थक गये। दिन भर के थके थे; अतः और भी शीघ्र अवसन्नता आयी। अन्त में एक जगह बालियाड़ी के सहारे पीठ पर ढासन लेकर बैठ गए। घर की सुख-शय्या याद आ गयी।

जब शारीरिक और मानसिक चिन्ताएँ एक साथ आ जाती हैं और अस्थिर कर देती हैं, तो उस समय कभी-कभी नींद भी आ जाती है। नवकुमार चिन्तामग्न अवस्था में निद्रित होने लगे। मालूम होता है, यदि प्रकृति ने ऐसा नियम न बनाया होता, तो मारे चिन्ता के आदमी की मौत हो जाती।

:४: स्तूप-शिखर

‘....सविस्मये देखिया अदूरे भीषण-दर्शन मूर्ति।’
—मेघनाद वध।

जब नवकुमार की नींद खुली, तो उस समय भयानक रात थी। उन्हें आश्वर्य हुआ कि अभी तक उन्हें शेर-बाघ ने क्यों नहीं फाड़ खाया! वह इधर-उधर देखने लगे कि कहीं बाघ तो नहीं आता है। अकस्मात् बहुत दूर सामने उन्हें एक रोशनी-सी जलती दिखाई दी। कहीं भ्रम तो नहीं होता, यह सोच के नवकुमार अतीव मनोनिवेशपूर्वक उस तरफ देखने लगे। रोशनी की परिधि क्रमशः बढ़के और उज्ज्वलतर होने लगी। मालूम हुआ कि कहीं आग जल रही है। इसे देखते ही नवकुमार के हृदय में आशा का सञ्चार हो आया। कारण, मनुष्य के बिना यह अग्नि-ज्वलन सम्भव नहीं। नवकुमार उठकर खड़े हो गये। जिधर से अग्नि की रोशनी आ रही थी, वह उसी तरफ बढ़े। एक बार मन में सोचा—यह रोशनी कहीं भौतिक तो नहीं है....हो भी सकता है। किन्तु केवल डरकर बैठ रहने से ही कौन जीवन बचा सकता है? यह विचार करते हुए नवकुमार निर्भीक चित्त हो उस तरफ बढ़े। वृक्ष लता, बालुका स्तूप, पग-पगपर उनकी गति को रोकने लगे। नवकुमार वृक्ष, लताओं को दलते हुए और स्तूपों का लंघन करते हुए उस तरफ बढ़ने लगे। आलोक के समीप पहुँचकर नवकुमार ने देखा कि एक अति उच्च शिखर पर अग्नि जल रही है। उस अग्नि के प्रकाश में शिखर पर बैठी हुई मनुष्य मूर्ति आकाश पर चित्र की तरह दिखाई पड़ रही थी। नवकुमार ने संकल्प किया कि इस मनुष्य मूर्ति के निकट पहुँचकर देखना चाहिये और इसी उद्देश्य से वह उधर बढ़े। अन्त में वह उस स्तूप पर चढ़ने लगे। मन में एक अज्ञात आशंका अवश्य हुई; फिर भी, उसकी परवाह न कर नवकुमार आगे बढ़ने लगे। उस आसीन व्यक्ति के सामने पहुँचकर उन्होंने जो जो दृश्य देखा, उससे उनके शरीर के रोंगटे खड़े हो गये। वह यह निश्चय न कर सके कि बैठना चाहिये या भागना चाहिये।

शिखरासीन मनुष्य आँखें मूँदे हुए ध्यानमग्न बैठा था। पहले वह नवकुमार को देख न सका। नवकुमार ने देखा कि उसकी उम्र कोई पचीस वर्ष के लगभग होगी। यह न जान पड़ा कि उसकी देह पर कोई वस्त्र है या नहीं; फिर कमर से नीचे तक बाघम्बर पहने हुए थे। गले में रुद्राक्ष की माला लटक रही थी। सारा चेहरा दाढ़ी, मूँछ और कपालकी जटासे प्रायः ढँकासा था। सामने लकड़ी से आग जल रही थी; उसी अग्नि की रोशनी को देखकर नवकुमार वहाँ तक पहुँचे थे। लेकिन नवकुमार को एक तरह की भयानक बदबू आ रही थी। उस स्थान को मजे में देखते हुए नवकुमार इसका कारण ढूंढ़ने लगे। नवकुमार ने उस व्यक्ति के आसनकी तरफ देखा कि एक छिन्नमुण्ड गलित शव पर वह मनुष्य बैठा हुआ ध्यान मग्न है। और भी भयभीत दृष्टि से इन्होंने देखा कि पास में ही नरमुण्ड भी रखा हुआ है। खून की कालिमा अभी भी उसपर लगी हुई है। इसके अतिरिक्त उस स्थान के चारों तरफ हड्डियाँ बिखरी पड़ी हैं। यहाँ तक कि उस रुद्राक्ष-माला में भी बीच-बीच में हड्डियाँ पिरोई हुई हैं। यह सब देखकर नवकुमार मंत्रमुग्ध की तरह खड़े देखते रह गये। वह आगे बढ़ें या पीछे पलटकर भागें; कुछ भी समझ न सके। उन्होंने कापालि कों की बात सुनी थी। समझ गये कि यह व्यक्ति भयानक कापालिक ही है।

जिस समय नवकुमार यहाँ पहुँचे, उस समय यह कापालिक जप या ध्यान में मग्न था। नवकुमार को देखकर उसने भ्रूक्षेप भी नहीं किया। बहुत देर के बाद उसने पूछा—“कस्त्वम्?”
नवकुमार ने उत्तर दिया—“ब्राह्मण।”
कापालिक ने फिर कहा,—“विष्ठ।”
यह कहकर वह उसी प्रकार अपनी क्रिया में संलग्न रहा। नवकुमार भी बैठे नहीं, बल्कि खड़े ही रहे।

इस तरह कोई आधा प्रहर बीत गया। जपके अन्त में कापालिक ने आसन से खड़े होकर उसी तरह संस्कृत भाषा में कहा—“मेरे पीछे-पीछे चले आओ।”

यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि और कोई समय होता तो नवकुमार कभी इसके साथ न जाते। किन्तु इस समय उनके प्राण भूख और प्यास से कण्ठ में आ लगे थे, अतः उन्होंने कहा—“प्रभु की जैसी आज्ञा। लेकिन मैं भूख और प्यास से बहुत कातर हूँ, बताइये वहाँ जाने से मुझे आहारार्थ वस्तु मिलेगी?”

कापालिक ने कहा—“तुम भैरवी प्रेरित हो, मेरे साथ आओ; खाने को भोजन पाओगे।”

नवकुमार कापालिक के अनुगामी हुये। दोनों बहुत दूर तक साथ गये। राह में बन में कोई बात न हुई। अन्त में एक पर्णकुटीर मिली। कापालिक ने उसमें प्रवेश कर पीछे नवकुमार को आने का आदेश दिया। इसके उपरान्त कापालिक ने नवकुमार से अबोधगम्य तरकीब से एक लकड़ी जलाई। नवकुमार ने उस रोशनी में देखा कि झोपड़ी में चारों तरफ चटाई विछी हुई है और जगह-जगह व्याघ्र चर्म बिछे हैं। एक कलश में पानी और कुछ फल-फूल भी रखे हुए हैं।

कापालिक ने आग बालकर कहा—“फल-मूल जो कुछ है, खा सकते हो। पत्तों का दोना बनाकर पात्र से जल पी सकते हो। व्याघ्रचर्म बिछा हुआ है, सो सकते हो। निडर होकर रहो यहाँ शेर आदि का डर नहीं। फिर दूसरे समय मुझ से मुलाकात होगी। जब तक मुलाकात न हो, यह झोपड़ी त्यागकर कहीं न जाना।”

यह कहकर कापालिक चला गया। नवकुमार ने थोड़े फल खाये और कुछ कसैले स्वाद के उस जल को पिया। इतना आहार मिलते ही नवकुमार को परम सन्तोष हुआ। इसके बाद ही वह उस चर्मपर लेट रहे। सारे दिन की मेहनत और जागरण के कारण वह शीघ्र ही निद्रा की गोद में सो गये।

:५: समुद्रतट पर

“...योगप्रभावो न च लक्ष्यते ते।
विभर्षि चाकारमनिर्वृतानां मृणालिनी हैममिवोपरागम्॥”
—रघुवंश।

सबेरे उठते ही नवकुमार सहज ही उस कुटी से बाहर निकलकर घर की राह खोजने के लिए व्यस्त होने लगे, विशेषतः इस कापालिक का साथ किसी प्रकार भी उन्हें उचित न जान पड़ा। फिर भी, इस पथहीन जङ्गल से निकल ही कैसे सकते हैं? कापालिक अवश्य ही राह जानता है। क्या पूछने से बता न देगा? विशेषतः अभी जहाँ तक देखा गया है, कापालिक ने उनके प्रति कोई शंकासूचक आचरण नहीं किया है। फिर, वह इतना क्यों डरते हैं? इधर कापालिक ने मना किया है, कि जब तक फिर हमसे मुलाकात न हो, इस कुटी से कहीं न जाना। हो सकता है उसकी आज्ञा न मानने से उसके क्रोध का भाजन बनना पड़े। नवकुमार ने सुन रखा है कि कापालिक असाध्य कार्य कर सकते हैं। अतः ऐसे पुरुष की अवज्ञा करना अनुचित है। इस तरह सोच-विचार कर अन्त में कापालिक की कुटी में ही रहने का निश्चय किया।

लेकिन धीरे-धीरे तीसरा प्रहर आ गया। फिर भी, कापालिक न लौटा। एक दिन पहले का उपवास और इस समय तकका अनशन नवकुमार की भूख फिर प्रबल हो उठी। कुटी में जो कुछ फलमूल था, वह पहले ही समाप्त हो चुका था। अब बिना आहारा थे फलमूल खोजे काम नहीं चल सकता। बिना फल की खोज किये काम नहीं चलता, कारण भूख भयानक रूप से उभड़ चली थी। शाम के होने में जब थोड़ा समय रह गया, तो अन्त में फल की खोज में नवकुमार को बाहर निकलना ही पड़ा।

नवकुमार ने फल की खोज में समीप के सारे स्तूपों का परिभ्रमण किया। जो एक-दो वृक्ष इस बालू पर उगे थे, उनसे एक तरह के बादाम के जैसा फल मिला। खाने में वह फल बहुत ही मीठा था, अतः नवकुमार ने भरपेट उसे ही खाया।

उस भाग में रचित बालुका स्तूप थोड़ी ही तादाद में थे, अतः थोड़ी देर के परिश्रम से ही नवकुमार उसे पार कर गये। इसके बाद ही वह बालुकाहीन निविड़ जंगल में जा पड़े। जिन लोगों ने इस तरह के जंगलका परिभ्रमण किया है, वे जानते हैं कि ऐसे जंगल में थोड़ा घुसते ही लोग राह भूल जाते हैं। वही हाल नव-कुमार का भी हुआ। थोड़ी दूर जाते ही उन्हें इस बात का ध्यान न रहा कि उस कुटी को वह किस दिशा में छोड़ गये हैं। गम्भीर समुद्र का गर्जन उन्हें सुनाई पड़ा। वह समझ गये कि निकट ही समुद्र है। इसके बाद ही वे उस जंगल से बाहर हुए और सामने ही विशाल समुद्र दिखाई दिया। अनन्त विस्तृत नीलाम्बुमण्डल सामने देखकर नवकुमार को अपार आनन्द प्राप्त हुआ। सिकता-मय तटपर जाकर वह बैठ गये। सामने फेनिल, नील अनन्त समुद्र था। दोनों पार्श्व में जितनी दूर दृष्टि जाती है, उतनी ही दूर तक तरंग, भङ्ग, प्रक्षिप्त फेन की रेखा, स्तूपीकृत विमल कुसुम-दामग्रथित माला की तरह बह धवल फेन-रेखा हेमकान्त सैकत पर न्यस्त हो रही है। काननकुण्डला धरणी के उपयुक्त अलकाभरण नील जलमण्डल के बीच सहस्रों स्थानों में भी फेन रहित तरङ्ग भङ्ग हो रहा था। यदि कभी इतना प्रचण्ड वायुवहन संभव हो कि उसके वेग से नक्षत्रमाला हजारों स्थानों से स्थानच्युत होकर नीलाम्बर में आन्दोलित होता रहे, तभी उस सागर तरङ्ग की विक्षिप्तता का स्वरूप दिखाई पड़ सकता है। इस समय अस्तगामी सूर्यकी मृदुल किरणों में नीले जल का एकांश द्रवीभूत सुवर्ण की तरह झलझला रहा था। बहुत दूर पर किसी यूरोपीय व्यापारी का जहाज सफेद डैने फैलाकर किसी बृहत् पक्षी की तरह सागर-वक्ष पर दौड़ा जा रहा था।

नवकुमार को उस समय इतना ज्ञान न था कि वह समुद्र के किनारे बैठकर कितनी देर तक सागर-सौन्दर्य निरखते रह गये। इसके बाद ही एकाएक प्रदोष काल का हलका अंधेरा सागरवक्ष पर आ पहुँचा। अब नवकुमारको चैतन्य हुआ कि आश्रयका स्थान खोज लेना होगा। यह ख्याल आते ही नवकुमार एक ठण्डी साँस लेकर उठ खड़े हुए। ठण्डी साँस उन्होंने क्यों ली, कहा नहीं जा सकता। उठकर वह समुद्र की तरफसे पलटे। ज्यों ही वह पलटे, वैसे ही उन्हें सामने एक अपूर्व मूर्ति दिखाई दी। उस गम्भीर नादकारी वारिधि के तटपर, विस्तृत बालुका भूमि पर संध्या की अस्पष्ट आभा में एक अपूर्व रमणीमूर्ति है। केशभार—अवेणी सम्बद्ध, संसर्पित, राशिकृत, आगुल्फलम्बित केशभार! उसके ऊपर देहरत्न, मानों चित्रपट के ऊपर चित्र सजा हो। अलकावली की प्रचुरता के कारण चेहरा पूरी तरहसे प्रकाश पा नहीं रहा था, फिर भी मेघाडम्बर के अन्दर से निकलने और झाँकने वाले चन्द्रमा की तरह वही चेहरा स्निग्ध उज्ज्वल प्रभा दिखा रहा था। विशाल लोचन, कटाक्ष अतीव स्थिर, अतीव स्निग्ध, गम्भीर और ज्योतिर्मय थे और वह कटाक्ष भी इस सागर जलपर स्निग्ध व चन्द्रबिम्ब की तरह खेल रहा था। रुक्ष केश राशि ने कन्धों और बाहुओं को एकदम छा लिया था। कन्धा तो बिल्कुल दिखाई ही नहीं पड़ता था। बाहुयुगल की विमल श्री कुछ-कुछ झलक रही थी। वर्ण अर्द्धचन्द्रनिःसृत कौमुदी वर्ण था; घने काले भौरे जैसे बाल थे। इन दोनों वर्णों के परस्पर शान्ति ध्येय से वह अपूर्व छटा दिखाई पड़ रही थी, जो उस सागरतट पर अर्द्धोज्ज्वल प्रभा में ही दिखाई पड़ सकती है, दूसरी जगह नहीं। रमणी देह, उसपर निरावरण थी। ऐसी ही वह मोहनी मूर्ति थी।

अकस्मात् ऐसे दुर्गम जङ्गल में ऐसी देवमूर्ति देखकर नवकुमार निस्पन्द और अवाक् हो रहे। उनके मुँह से वाणी न निकली—केवल एकटक देखते रह गये। वह रमणी भी स्पन्दनहीन, अनिमेषलोचन से एकटक नवकमार को देखती रह गयी।

अकस्मात् ऐसे दुर्गम जङ्गल में ऐसी देवमूर्ति देखकर नवकुमार निस्पन्द और अवाक् हो रहे। उनके मुँहसे वाणी न निकली—केवल एकटक देखते रह गये। वह रमणी भी स्पन्दनहीन, अनिमेषलोचनसे एकटक नवकमारको देखती रह गयी। दोनोंकी दृष्टिमें प्रभेद यह था कि नवकुमारकी दृष्टिमें आश्चर्य की भङ्गिमा थी और रमणीकी दृष्टिमें ऐसा कोई लक्षण न था, वरन उसकी दृष्टि स्थिर थी। फिर भी उस टष्टिमें उद्वेग था।

इस तरह उस अनन्त समुद्रके तटपर यह दोनों प्राणी बहुत देर तक ऐसी ही अवस्था में खड़े रहे। बहुत देर बाद रमणी कण्ठसे आवाज सुनाई पड़ी। बड़ी ही मीठी वाणी और सुरीले स्वरसे उसने पूछा—“पथिक? तुम राह भूल गये हो?”

इस कण्ठ-स्वरके साथ-साथ नवकुमारकी हृत्तन्त्री बज उठी। विचित्र हृदयका तन्त्रीयन्त्र समय-समयपर इस प्रकार लयहीन हो जाता है कि चाहें कितना भी यत्न किया जाये वापस मिलता नहीं—एक स्वर भी नहीं होता। किन्तु एक ही शब्दमें, रमणीकण्ठ सम्भूत स्वरसे वह संशोधित हो जाता है; सब तार लयविशिष्ट—समस्वर हो जाते हैं। मनुष्यजीवनमें उस क्षणमें ही सुखमय संगीत प्रवाहमय जान पड़ने लगता है। नवकुमारके कानोंमें भी ऐसे ही सुख-संगीतका प्रवाह बह गया।

“पथिक? तुम राह भूल गये हो?” यह ध्वनि नवकुमारके कानोंमें पहुँची। इसका क्या अर्थ है? क्या उत्तर देना होगा? नवकुमार कुछ भी समझ न सके। वह ध्वनि मानों हर्षविकम्पित होकर नाचने लगी। मानों पवनमें वह ध्वनि लहरियाँ लेने लगी। वृक्षोंके पत्तों तक में वह ध्वनि व्याप्त हो गयी। इसके सम्मुख मानों सागरनाद मन्द पड़ गया। सागर उन्मत्त; वसन्त काल; पृथ्वी सुन्दरी, रमणी सुन्दरी, ध्वनि भी सुन्दर, हृद्तन्त्रीमें सौन्दर्यकी लय उठने लगी।

रमणीने कोई उत्तर न पाकर कहा—‘मेरे साथ आओ।’ यह कहकर वह तरुणी चली। उसका पदक्षेप लक्ष्य न होता था। वसन्तकालकी मन्द वायुसे चालित शुभ्र मेघकी तरह वह धीरे-धीरे अलक्ष्य पादविक्षेपसे चली। नवकुमार मशीनकी पुतली की तरह साथ चले। राहमें एक छोटा-सा वन घूमकर जाना पड़ा। वनकी आड़में जानेपर फिर सुन्दरी दिखाई न दी। वन का चक्कर लगा लेनेपर नवकुमारने देखा कि सामने ही वह कुटी है।

:६: कापालिक के साथ

“कथं निगडसंयतासि द्रुतम् नयामि भवतीमितः”
—रत्नावली।

नवकुमार कुटीमें प्रवेश कर दरवाजा बन्द करते हुए अपनी हथेलीपर सर झुकाकर बैठ रहे। बहुत देर बैठे रहे; शीघ्र माथा न उठाया।

“यह कौन थी, देवी या मानुषी या कापालिककी मायामात्र?” नवकुमार निस्पन्द अवस्थामें हृदयमें ऐसे ही विचार करते बैठे रहे। वह कुछ भी समझ न सके।

वह अन्यमनस्क थे, इसलिये एक विशेष बात लक्ष्य कर न सके। उस कुटीमें उनके आनेसे पूर्व ही एक लकड़ी जल रही थी। इसके बाद काफी रात बीतनेपर उन्हें ख्याल हुआ कि अभी तक सायं-संध्या आदिसे वह निवृत्त नहीं हुए, और फिर जलकी असुविधाका ध्यानकर उस ख्यालसे निरस्त हुए, तो उन्हें दिखाई दिया कि कुटीमें केवल लकड़ी ही नहीं जल रही है, वरन् चावल आदि पाक द्रव्य भी एक जगह रखा हुआ है। इस सामानको देखकर नवकुमार चकित न हुए—मनमें सोचा अवश्य ही यह कापालिक द्वारा रखा गया है, इसमें आश्चर्यकी ही कौन-सी बात है?

“शस्यं च गृहमागतम्” बुरी बात तो है नहीं। “भोज्यं च उदरागतम्” कहनेसे और भी स्पष्ट समझमें आ सकता। नवकुमार भी इस चीजका माहात्म्य न जानते हों, ऐसी बात नहीं। संक्षेपमें सायंकृत्य समाप्त करनेके बाद चावलको कुटीमें रखी हुई एक हँडीमें पकाकर नवकुमारने डटकर भोजन कर लिया।

दूसरे दिन सबेरे चर्मशय्या परित्यागकर नवकुमार समुद्रतटकी तरफ चल पड़े। एक दिन पहले अनुभव हो जानेके कारण आज राह पहचान लेनेमें विशेष कष्ट नहीं हुआ। प्रातःकृत्य समाप्त कर प्रतीक्षा करने लगे। किसकी प्रतीक्षा कर रहे थे? पहले दिनवाली मायाविनी आज फिर आयेगी—यह आशा नवकुमारके हृदयमें कितनी प्रबल थी, यह तो नहीं कहा जा सकता—लेकिन इस आशाका त्याग वह न कर सके और उस जगहको भी छोड़ न सके। लेकिन काफी दिन चढ़ने पर भी वहाँ कोई न आया। अब नवकुमार उस स्थानपर चारों तरफ घूमकर टहलने लगे। उनका अन्वेषण व्यर्थ था। मनुष्य समागमका चिन्हमात्र भी वहाँ न था। इसके बाद फिर लौटकर उस स्थान पर आ बैठे। सूर्य क्रमशः अस्त हो गये, अन्धकार बढ़ने लगा; अन्तमें हताश होकर नवकुमार कुटीमें वापस आये। कुटीमें वापस आकर नवकुमार ने देखा कि कापालिक कुटीमें निःशब्द बैठा हुआ है। नवकुमारने पहले स्वागत जिज्ञासा की, लेकिन कापालिकने इसका कोई उत्तर न दिया।

नवकुमारने पूछा—“अबतक प्रभुके दर्शनसे मैं क्यों वञ्चित रहा?” कापालिकने उत्तर दिया—“अपने व्रतमें नियुक्त था।”

नवकुमारने घर लौटनेकी इच्छा प्रगट की। उन्होंने कहा—“न तो मैं राह ही पहचानता हूँ और न मेरे पास राह खर्च ही है। प्रभुके दर्शनसे यद्विहित-विधान हो सकेगा, इसी आशामें हूँ।”

कापालिकने इतना ही कहा—“मेरे साथ आओ।” यह कहकर वह उदास हृदयसे उठ खड़ा हुआ। घर लौटनेसे सुभीता हो सकेगा, आशासे नवकुमार भी साथ हो लिए।

उस समयतक भी संध्याका पूरा अन्धकार फैला न था, हलकी रोशनी थी एकाएक नवकुमारकी पीठपर किसी कोमल हाथका स्पर्श हुआ। उन्होंने पलटकर जो देखा, उससे वह अवाक् हो रहे। वही अगुल्फलम्बित निविड़ केशराशिधारिणी वन्यदेवीकी मूर्ति सामने थी। एकाएक कहाँसे यह मूर्ति उनके पीछे आ गयी? नवकुमारने देखा कि रमणी मुँहपर उँगली रखकर इशारा कर रही है। वह समझ गये कि रमणी बात करनेको मना कर रही है। निषेधका अधिक प्रयोजन भी न था। नवकुमार क्या कहते? वह आश्चर्यसे खड़े रह गये। कापालिक यह सब कुछ देख नह सका था। वह क्रमशः आगे बढ़ता ही गया। उसके श्रवणारीं परिधिके बाहर चले जानेपर रमणीने धीमे स्वरमें कुछ कहा। नवकुमारके कानोंमें उन शब्दोंने प्रवेश किया। यह शब्द थे—“कहाँ! जाते हो? न जाओ। लौटो–भागो।"

यह बात कहने के साथ-साथ रमणी धीरेसे खिसक गयी। प्रत्युत्तर सुननेके लिये वह खड़ी न रही। नवकुमार पहले तो कुछ विमूढ़से खड़े रहे, इसके बाद व्यग्र इसलिए हुए कि वह रमणी किधर खिसक गयी। मनमें सोचने लगे—“यह कैसी माया है? या मेरा भ्रम है? जो बात सुनाई दी, वह आशंकासूचक है, लेकिन वह आशंका किस बातकी है? तान्त्रिक सब कुछ कर सकता है। तो क्या भागना चाहिये? लेकिन भागनेकी जगह कहाँ है?”

नवकुमार ऐसी ही चिन्ता कर थे, ऐसे समय उन्होंने देखा कि कापालिक उन्हें अपने पीछे न पाकर लौट रहा है। कापालिक ने कहा—“विलम्ब क्यों करते हो?”

जब मनुष्य अपना कर्तव्य कुछ स्थिर नहीं किये रहता, तो वह जिस कायके लिए पहले आहूत होता है, उसे ही करता है। कापालिक द्वारा पुनः बुलाये जानेपर बिना कोई प्रतिवाद किये ही नवकुमार उसके पीछे चल पड़े।

कुछ दूर जानेके बाद सामने एक मिट्टीकी दीवारकी कुटी दिखाई दी। उसे कुटी भी कहा जा सकता है और छोटा घर भी कहा जा सकता है, किन्तु इससे हमारा कोई प्रयोजन नहीं। इसके पीछे ही सिकतामय समुद्रतट है। घरके बगलसे वह कापालिक नवकुमारको लेकर चला। ऐसे ही समय तीरकी तरह वही रमणी फिर एक बाजूसे दूसरे बाजू निकल गयी। जाते समय फिर कहा—“अब भी भागो। क्या तुम नहीं जानते कि बिना नरमांसके तान्त्रिककी पूजा नहीं होती?”

नवकुमारके माथेपर पसीना आ गया। दुर्भाग्यवश रमणी की यह बात कापालिक के कानोंमें पहुँच गयी, उसने कहा—“कपालकुण्डले!”

यह स्वर नवकुमारके कानोंमें मेघ गर्जनकी गरह गूँजने लगा, लेकिन कपालकुण्डलाने इसका कोई उत्तर न दिया।

अब कापालिक नवकुमारका हाथ पकड़कर ले जाने लगा। मनुष्यघाती हाथोंका स्पर्श होते ही नवकुमारकी देहकी धमनियों का रक्त दूने वेगसे प्रवाहित होने लगा। लुप्त साहस एक बार नवकुमारमें फिर आ गया। नवकुमार ने कहा—“हाथ छोड़िये।”

कापालिकने कोई उत्तर न दिया। नवकुमारने फिर पूछा—“मुझे कहाँ ले जाते हैं?”

कापालिकने कहा—“पूजाके स्थानमें।”

नवकुमारने कहा—“क्यों?”

कापालिकने कहा—“वधके लिए।”

यह सुनते ही बड़ी तेजीके साथ नवकुमारने अपना हाथ खींचा। जिस बलसे उन्होंने अपना हाथ खींचा था, उससे यदि कोई सामान्य जन होता, तो हाथ बचा लेना तो दूर रहा, वह गिर पड़ता, लेकिन कापालिकका शरीर भी न हिला; नवकुमारकी कलाई कापालिकके हाथमें ही रह गयी। नवकुमारके हाथकी हड्डी मानो टूटने लगी। मुमुर्षु की तरह नवकुमार कापालिकके साथ जाने लगे।

रेतीले मैदानके बीचोबीच पहुँचनेपर नवकुमारने देखा कि वहाँ भी लकड़ीका कुन्दा जल रहा था। उसके चारों तरफ तांत्रिक पूजाका सामान फैला हुआ है। उसमें नर-कपालपूर्ण आसव भी है लेकिन शव नहीं है! नवकुमारने अनुमान किया कि उन्हें ही शव बनना पड़ेगा।

कितनी ही लताकी सूखी हुई कठिन डालियाँ वहाँ लाकर पहलेसे रखी हुई थीं। कापालिकने उसके द्वारा नवकुमारको दृढ़तापूर्वक बाँधना शुरू किया। नवकुमारने शक्तिभर बलप्रकाश किया; लेकिन बल लगाना व्यर्थ हुआ। उन्हें विश्वास हो गया कि इस उम्रमें भी कापालिक मस्त हाथी जैसा बल रखता है। नवकुमारको जोर लगाते देखकर कापालिकने कहा—मूर्ख! किस लिए जोर लगाता है? तेरा जन्म आज सार्थक हुआ। भैरवी पूजा में तेरा मांसपिण्ड अर्पित होगा। इससे ज्यादा तेरा और क्या सौभाग्य हो सकता है?”

कापालिकने नवकुमारको खूब कसकर बाँधकर छोड़ रखा। इसके बाद वह वधके पहलेकी प्राथमिक पूजामें लग गया। तबतक नवकुमार बराबर अपने बन्धनको तोड़नेकी कोशिश करते रहे। लेकिन वह सूखी लताएँ गजबकी मजबूत थीं—बन्धन बहुत दृढ़ था। मृत्यु अवश्य होगी! नवकुमारने अन्तमें इष्टदेव के चरणोंमें ध्यान लगाया। एक बार जन्मभूमिकी याद आयी, अपना सुखमय आवास याद आया, एक बार बहुत दिनोंसे अन्तर्हित माता-पिताका स्नेहमय चेहरा याद आया और दो-एक बूंद आँसू ढुलककर रेतीपर गिर पड़े। कापालिक प्राथमिक पूजा समाप्त कर खड्ग लेनेके लिए अपने आसनसे उठ खड़ा हुआ, लेकिन जहाँ उसने खड्ग रखा था, वहाँ वह न मिला, आश्चर्य! कापालिक कुछ विस्मित हुआ। कारण, उसे पूरी तरह याद था, कि शामको उसने खड्गको यथास्थान रख दिया था। फिर स्थानांतरित भी नहीं किया, तब कहाँ गया? कापालिक ने इधर-उधर खोजा, लेकिन वह कहीं न मिला। तब उसने पूर्व कुटीकी तरफ पलटकर जोरसे कपालकुण्डलाको पुकारा, लेकिन बारम्बार बुलाये जानेपर भी कपालकुण्डलाने कोई उत्तर न दिया। कापालिककी आँखें लाल और भौंहें टेढ़ी पड़ गयीं। वह तेजीसे कदम बढ़ाता हुआ गृह की तरफ बढ़ा। इस अवकाशमें एक बार नवकुमारने फिर छुटकारेके लिए जोर लगाया, लेकिन व्यर्थ।

ऐसे ही समय बालूके ऊपर बहुत ही समीप पैरकी ध्वनि हुई। यह ध्वनि कापालिककी न थी। नवकुमार ने नजर घुमाकर देखा, वही मोहिनी—कपालकुण्डला थी। उसके हाथोंमें खड्ग झूल रहा था।

कपालकुण्डलाने कोई उत्तर न दिया। नवकुमारने फिर पूछा—

कपालकुण्डलाने कहा—“चुप? बात न करना—खड्ग मेरे ही पास है—चोरी कर रखा है।”

यह कहकर कपालकुण्डला शीघ्रतापूर्वक नवकुमारके बंधन काटने लगी। पलक झपकते उसने उन्हें मुक्त कर दिया और बोली—“भागो, मेरे पीछे आओ; राह दिखा देती हूँ।”

यह कहकर कपालकुण्डला तीरकी तरह राह दिखाती आगे दौड़ी, नबकुमारने भी उसका अनुसरण किया।

:७: खोज में !

And the great lord of Luna
Fell at that deadly stroke;
As falls on Mount Alvernus
A thunder-smitten oak.

Lays of Ancient Rome

इधर कपालिकने घरमें कोना-कोना खोजा, लेकिन न तो खड्ग मिला और न कपालकुण्डला ही दिखाई दी। अतः वह सन्देहमें भरा हुआ फिर वापस हुआ। वहाँ पहुँचकर उसने देखा कि वहाँ नवकुमार नहीं है। इससे उसे बड़ा अचरज हुआ। एक क्षण बाद ही निगाह कटी हुई लताओंपर गयी। अब स्वरूपका अनुभवकर कापालिक नवकुमारकी खोजमें लगा। लेकिन घोर अरण्य में भागनेवाला किस राहसे किधर गया है, यह जान लेना बहुत ही कठिन है। अन्धकार के कारण किसी को राह भी दिखाई दे नहीं सकती। अतः वह वाक्य शब्द लक्ष्यकर पहले इधर-उधर भटका, लेकिन हर समय कण्ठ-ध्वनि भी सुनाई पड़ती न थी। अतएव चारों तरफ देख सकनेके लिये वह पासके ही एक बालियाड़ीके शिखर पर चढ़ गया। कापालिक एक बाजूसे चढ़ा था, किन्तु उसे यह मालूम नहीं था कि वर्षा के कारण पानीने बहकर उसके दूसरे बाजूको प्रायः गला दिया है। शिखरपर आरोहण करनेके साथ वह गला हुआ ढूहा भार पाकर बड़े जोरके शब्दके साथ गिरा। गिरनेके समय उसके साथ ही पर्वत शिखर च्युत महिषकी तरह कापालिक भी गिरा।

:८: आश्रम में

“And that very night—
Shall Romeo bear thee hence to Mantua.”

Romeo and Juliet.

उस अमावस्याकी घोर अंधेरी रातमें दोनों ही जन एक साँससे दौड़ते हुए वनके अन्दरसे भागे। वन्यपथ नवकुमारका अजाना था, केवल सहचारिणी पोडशीके साथ-साथ उसके पीछे-पीछे जानेके अतिरिक्त दूसरा उपाय न था। लेकिन अंधेरी रातमें जङ्गलमें हर समय रमणीका पीछा करना कठिन है। कभी रमणी एक तरफ जाती थी, तो नवकुमार दूसरी तरफ। अन्तमें रमणीने कहा—“मेरा आँचल पकड़ लो।” अतः नवकुमार रमणीका आँचल पकड़ कर चले। बहुत दूर जानेपर वह लोग क्रमशः धीरे-धीरे चले। अंधेरेमें कुछ दिखाई न पड़ता था, केवल नक्षत्रलोकमें अस्पष्ट बालुका स्तूपका शिखर झलक जाता था और खद्योत-प्रकाशसे लक्ष्यका भास होता था।

कपालकुण्डला इस तरह पथिकको लिए हुए निभृत जंगलमें पहुँची। उस समय रातके दो पहर बीत चुके थे। जंगलके अन्दर अन्धकारमें एक देवालयका अस्पष्ट चूड़ा दिखाई पड़ रहा था। उसकी प्राचीर सामने थी। प्राचीरसे लगा हुआ एक गृह था। कपालकुण्डलाने प्राचीर द्वारके निकट होकर खटखटाया। बारम्बार कराघात करने पर भीतरसे एक व्यक्तिने कहा,—“कौन? कपालकुण्डला है, क्या?” कपालकुण्डला बोली,—“दरवाजा खोलो?”

उत्तरकारीने आकर दरवाजा खोला। जिस व्यक्तिने आकर दरवाजा खोला, वह देवालयकी पुजारिन या अधिष्ठात्री थी। उसकी उम्र कोई ५० वर्षके लगभग होगी। कपालकुण्डलाने अपने हाथों द्वारा उस वृद्धाकी गंजी खोपड़ी अपने पास खींचकर कानमें अपने साथीके बारेमें कुछ कह दिया।

वह पुजारिन बहुत देरतक हथेलीपर गाल रखे चिन्ता करती रही। अन्तमें उसने कहा—“बात सहज नहीं है। महापुरुष यदि चाहे तो सब कुछ कर सकता है। फिर भी, माताकी कृपासे तुम्हारा अमंगल न होगा। वह व्यक्ति कहाँ है?”

कपालकुण्डलाने ‘आओ’ कहकर नवकुमारको बुलाया। नवकुमार आड़में खड़े थे, बुलाये जानेपर घरके अन्दर आये। अधिकारीने उनसे कहा—“आज यहीं छिप रहो, कल सबेरे तुम्हें मेदिनीपुरकी राहपर छोड़ आऊँगी।”

क्रमशः बात-ही-बातमें मालूम हुआ कि अबतक नवकुमारने कुछ खाया नहीं है। अधिकारी द्वारा भोजनका आयोजन करनेपर नवकुमारने इनकार कर कहा कि केवल विश्राम की आवश्यकता है। अधिकारीने अपने रसोईघर में नवकुमारके सोनेका इन्तजाम कर दिया। नवकुमारके सोनेका उद्योग करनेपर कपालकुण्डला समुद्रतटपर पुनः लौट जानेका उपक्रम करने लगी। इसपर अधिकारीने कपालकुण्डलाके प्रति स्नेह दृष्टिपातकर कहा—“न जाओ, थोड़ा ठहरो, एक भिक्षा है।”

कपालकुण्डला—“क्या?”

अधिकारी—“जबसे तुम्हें देखा है, बेटी कहकर समझा और पुकारा है। माताके पैरकी शपथ खाकर कह सकती हूँ कि मातासे बढ़कर मैंने तुम्हें स्नेह दिया है। मेरी याचनाकी अवहेलना तो न करोगी?”

कपाल०—“न करूँगी।”

अधि०—“मेरी भिक्षा है कि अब तुम वहाँ लौटकर न जाओ।”

कपाल०—“कयों?”

अधि०—“जानेसे तुम्हारी रक्षा न होगी।”

कपाल०—“यह तो मैं भी जानती हूँ।”

अधि०—“तो फिर आज पूछती क्यों हो?”

कपाल०—“न जाऊँगी तो कहाँ रहूँगी?”

अधि०—इसी पथिकके साथ देशान्तर चली जाओ।”

कपालकुण्डला चुप रह गयी। अधिकारीने पूछा—“बेटी! क्या सोचती हो?”

कपाल०—“जब तुम्हारा शिष्य आया था, तो तुमने कहा था, कि युवतीका इस प्रकार युवा पुरुषके साथ जाना उचित नहीं। अब जानेको क्यों कहती हो?”

अधि०—“उस समय तुम्हारी मृत्युकी आशंका नहीं थी; विशेषतः जिस सदुपयोगकी सम्भावना थी, वह अब हो सकेगा। आओ, माताकी अनुमति ले आयें।

यह कहकर अधिकारीने दीपक हाथमें लिया तथा जाकर माताके मन्दिरका दरवाजा खोला। कपालकुण्डला भी उनके साथ-साथ गयी। मन्दिरमें आदमकद कराल काली मूर्ति स्थापित थी। दोनोंने भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। अधिकारीने आचमन कर पुष्पपात्रसे एक अछिन्न बिल्वपत्र लेकर मन्त्र पूरा किया और उसे प्रतिमा के पैरों पर संस्थापित कर उसकी तरफ देखती रही। थोड़ी देर बाद अधिकारीने कपालकुण्डलाकी तरफ देखकर कहा—“बेटी! देखो, माताने अर्घ्य ग्रहण कर लिया। बिल्वपत्र गिरा नहीं। जिस मनौतीसे मैंने अर्घ्य चढ़ाया था, उसमें अवश्य मंगल है। तुम इस पथिकके साथ निःसंकोच यात्रा करो। लेकिन मैं विषयी लोगोंका चरित्र जानती हूँ। तुम यदि इसकी गलग्रह होकर जाओगी, तो यह व्यक्ति अपरिचित युवतीको साथ लेकर लोकालयमें जानेमें लज्जित होगा; तुमसे भी लोग घृणा करेंगे। तुम कहती हो कि यह व्यक्ति ब्राह्मण सन्तान है। इसके गलेमें यज्ञोपवीत भी दिखाई पड़ता है। यह यदि तुम्हें विवाह करके ले जाये तो मंगल है। अन्यथा मैं भी तुम्हें इसके साथ जाने देनेको कह नहीं सकती।”

“वि....वा....ह!” यह शब्द बड़े ही धीमे स्वरमें कपालकुण्डलाने कहा। कहने लगी,—“विवाहका नाम तो तुम लोगोंके मुँहसे सुना करती हूँ; किन्तु विवाह किसे कहते हैं, मैं नहीं जानती। क्या करना होगा।”

अधिकारीने मुस्कराकर कहा—“विवाह ही स्त्रियोंके लिये धर्मका एकमात्र सोपान है; इसीलिए स्त्रीको सहधर्मिणी कहते हैं। जगन्माता भी भगवान् शिवकी विवाहिता हैं।”

अधिकारीने सोचा कि सब समझा दिया; कपालकुण्डलाने मनमें समझा कि सब समझ लिया। बोली—“तो ऐसा ही हो। किन्तु उन्हें त्यागकर जानेका मेरा मन नहीं करता है। उन्होंने (कापालिक) इतने दिनों तक मेरा प्रतिपालन किया है।”

अधि०—“किस लिए इतने दिनोंतक प्रतिपालन किया, यह तुम नहीं जानती। तुम नहीं जानती कि बिना स्त्रीका सतीत्व नाश किये तांत्रिक क्रिया सिद्ध नहीं होती। मैंने तन्त्रशास्त्र पढ़ा है। माता जगदम्बा जगतकी माता हैं ये ही सतीका सतीत्व—सतियों प्रधान हैं। ये सतीत्व नाशवाली पूजा कभी ग्रहण नहीं करतीं, इसीलिये में महापुरुषका अनाभिमत साधन कर रही हूँ। तुम यदि भागोगी, तो कभी कृतघ्न न कहाओगी। अबतक सिद्धिका समय उपस्थित नहीं हुआ है, केवल इसीलिये तुम्हारी रक्षा हुई है। आज तुमने जो कार्य किया है, उसमं प्राणोंकी भी आशंका है। इसीलिये कहती हूँ कि मातेश्वरी भगवानीजीकी भी ऐसी आज्ञा है, अतएव जाओ। मैं अपने यहाँ यदि रख सकती, तो अवश्य रख लेती। लेकिन तुम तो जानती हो, इसका कोई भरोसा नहीं है।

कपाल०—“तो विवाह ही हो जाये।”

यह कहकर दोनों मन्दिरसे बाहर निकलीं। एक कमरेमें कपालकुण्डलाको बैठाकर अधिकारी पुजारिन नवकुमारकी शय्याके पास जाकर सिरहाने बैठ गयी। उन्होंने पूछा—“महाशय! सो रहे हैं क्या?”

नवकुमारको नींद आ नहीं रही थी, अपनी दशाका ध्यान आ रहा था। बोले—“जी नहीं।”

अधिकारीने कहा—“महाशय! परिचय लेने के लिए एक बार आयी हूँ। आप ब्राह्मण हैं!”

नव०—“जी हाँ!”

अधि०—“किस श्रेणीके हैं?”

नव०—“राढ़ीय।”

अधि०—“हमलोग भी राढ़ देशीय हैं—उत्कल ब्राह्मणका ख्याल न कीजियेगा। वंशमें कुलाचार्य, फिर भी इस समय माताके पदाश्रममें हूँ। महाशयका नाम?”

नव०—“नवकुमार शर्मा।”

अधि०–“निवास।”

नव०—“सप्तग्राम।”

अधि०—“आपका गोत्र?”

नव०—“बन्ध्यघटी।”

अधि०—“कितनी शादियाँ की हैं?”

नव०—“केवल एक।”

नवकुमारने सारी बातें खोलकर नहीं कहीं। वास्तवमें एक भी स्त्री न थी। उन्होंने रामगोविन्द घोषकी कन्याके साथ शादीकी थी। शादीके बाद कुछ दिनों तक पद्मावती पिताके घर रही, बीच-बीचमें ससुराल भी आती थी। जब उसकी उम्र तेरह वर्षकी हुई, तो उसी समय उसके पिता सपरिवार पुरुषोत्तम दर्शनके लिए गये। उस समय पठान लोग अकबर बादशाह द्वारा बंगालसे विताड़ित होकर सदलबल उड़ीसा में थे। उनके दमनके लिए अकबर द्वारा यथोचित यत्न हो रहा था। जब रामगोविन्द घोष उड़ीसासे वापस होने लगे, तो उस समय दोनों दलोंमें युद्ध शुरू हो गया। अतः घर लौटते समय वह सपरिवार पठानोंके हाथ पड़ गये। पठान उस समय विवेकशून्य असभ्य हो रहे थे वह लोग निरपराधी पथिकोंके प्रति अर्थके लिए बल प्रकाश करने लगे। रामगोविन्द जरा कड़वे मिजाजके थे, पठानोंको गाली आदि दे बैठे। इसका फल यह हुआ, कि वह लोग गिरफ्तार कर लिए गय। अन्तमें घोष महाशयको जब अपना धर्म परित्याग करना पड़ा, तो कैदसे छुटकारा मिला।

इस तरह रामगोविन्द सपरिवार प्राण लेकर घर तो अवश्य आये, किन्तु विधर्मी मुसलमान होने के कारण आत्मीयजन द्वारा बहिष्कृत हो गये। उस समय नवकुमारके पिता जीवित थे; अतः उन्हें भी जातिच्युत होनेके डरसे जातिभ्रष्ट पुत्रवधूका त्याग करना पड़ा। इसके बाद नवकुमारकी अपनी पत्नीके साथ मुलाकात हो न सकी।

कुटुम्बियों द्वारा त्यक्त तथा जातिच्युत होकर रामगोविन्द घोष अधिक दिनों तक बंगालमें टिक न सके। कुछ तो इस कारणवश और कुछ राजदरबारमें उच्चपदस्थ होनेके लोभसे वह दिल्लीके महलमें जाकर रहने लगे। धर्मान्तर ग्रहण करनेपर उन्होंने सपरिवार मुस्लिम नाम धारण कर लिया था। राजमहल चले जानेके बादसे श्वसुर या पत्नीकी कोई भी खबर नवकुमारको न लगी। जानेका कोई साधन और आवश्यकता भी न थी। इसके बाद विरागवश नवकुमारने फिर अपनी शादी न की। इसीलिए कहता हूँ कि नवकुमारकी एक भी शादी नहीं हुई।

पुजारिन यह सब बात जानती न थी। उन्होंने मनमें सोचा कि—“कुलीनकी दो शादियोंमें हज ही क्या है?” उन्होंने प्रकट रूपमें कहा—“आपसे एक बात पूछनेके लिए आई थी और वह बात यह है कि जिस कन्याने आपकी प्राण-रक्षा की है, उसने परहितार्थ आत्मप्राण नष्ट किया है। जिस महापुरुषके पास अबतक यह प्रतिपालित हुई है, वह बड़े भयङ्कर स्वभावका है। उसके पास फिर लौटकर जानेमें जो दशा आपकी हुई थी, वही दशा इसकी होगी। इसके प्रतिकारका कोई उपाय क्या आप निकाल सकते हैं?”

नवकुमार उठकर बैठ गये। बोले—“मैं भी ऐसी ही आशङ्का कर रहा था। आप सब कुछ जानती हैं, इसका कोई उपाय कीजिये। मेरे प्राण देनेसे भी यदि कोई उपकार हो सके—तो उसपर भी राजी हूँ। मैं तो यह विचार करता हूँ कि मैं उस नरहन्ताके पास स्वयं चला जाउँ, तो शायद उसके प्राण बच जायेंगे।” पुजारिनने हँसकर कहा—“तुम पागल हो रहे हो। इससे क्या फायदा होगा? तुम्हारा प्राण-नाश तो होगा ही, साथ ही इस बेचारीपर भी उसका क्रोध प्रशमित न होगा। इसका केवल एक ही उपाय है।”

नव०—“कैसा उपाय?”

अधि०—“आपके साथ इसका पलायन। लेकिन यह कठिन है। हमारे यहाँ रहने पर दो-एक दिनमें ही तुम लोग फिर पकड़ लिए जाओगे। इस देवालयमें उस महापुरुष का आना-जाना प्रायः हुआ करता है। अतः कपालकुण्डलाके भाग्यमें अशुभ ही दिखाई पड़ता है।”

नवकुमारने आग्रहके साथ पूछा—“मेरे साथ भागनेमें कठिनाई क्या है?”

अधि०—“यह किसकी कन्या है—किस कुलमें इसका जन्म है, यह आप कुछ भी नहीं जानते। किसकी पत्नी है—किस चरित्रकी हैं, यह भी नहीं जानते। फिर क्या आप इसे संगिनी बनायेंगे? संगिनी बनाकर ले जाने पर भी क्या आप इसे अपने घरमें स्थान देंगे? और यदि आपने स्थान न दिया तो यह अनाथा कहाँ जायेगी?”

नवकुमारने थोड़ा विचार करने के बाद कहा—“अपनी प्राणरक्षिकाके लिए ऐसा कोई कार्य नहीं, जिसे मैं न कर सकूँ। यह मेरी परिवारभुक्ता होकर रह सकेंगी।”

अधि०—ठीक है। लेकिन जब आपके आत्मीय स्वजन पूछंगे कि यह किसकी स्त्री है तो आप क्या उत्तर देंगे?

नवकुमारने चिन्ता करके कहा—“आप ही इसका परिचय मुझे बता दें। आप जो कहेंगी मैं वही कहूँगा।”

अधि०—“अच्छा। लेकिन इस लम्बी राहमें कोई पन्द्रह दिनों तक एक दूसरेकी बिना सहायताके कैसे रह सकोगे? लोग देख-सुनकर क्या कहेंगे? फिर, सम्बन्धियोंसे क्या कहोगे? इधर मैं भी इस कन्याको पुत्री कह चुकी हूँ; मैं भी एक अज्ञात युवकके साथ परदेश कैसे जाने दे सकती हूँ?”

बीचकी दलाल, दलालीमें कम नहीं हैं।

नवकुमार ने कहा—“आप भी साथ चलिए।”

अधि०—“मैं साथ जाऊँगी तो भवानीकी पूजा कौन करेगा?”

नवकुमारने क्षुब्ध होकर कहा—“तो क्या आप कोई उपाय कर नहीं सकतीं?”

अधि०—“उपाय केवल एक है, लेकिन वह भी आप की उदारता पर निर्भर करता है।”

नव०—“वह क्या है? में किस बातमें अस्वीकृत हूँ? क्या उपाय है, बताइये?”

अधि०—“सुनिये। यह ब्राह्मण कन्या है। इसका हाल में अच्छी तरह जानती हूं। यह कन्या बाल्यकालमें ख्रष्टानोंद्वारा अपहृत होकर ले जायी जा रही थी, और जहाज टूट जानेके कारण इसी समुद्रतटपर छोड़ दी गयी। वह सब हाल बादमें आपको उस कन्यासे ही मालूम हो जायगा। इसके बाद कापालिकने इसे अपनी सिद्धिका उपकरण बनाकर इसका प्रतिपालन किया। शीघ्र ही वह अपना प्रयोजन सिद्ध करता। यह अभी तक अविवाहित है और साथ ही चरित्रमें पवित्र है। आप इसके साथ शादी कर लें। कोई कुछ भी इस प्रकार कह न सकेगा। मैं यथाशास्त्र विवाह कार्य पूरा करा दूँगी।”

नवकुमार शय्यासे उठ खड़े हुए। वह तेजीसे उस कमरे में इधर-उधर घूमने लगे। उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। पुजारिनने थोड़ी देर बाद फिर कहा—“आप इस समय सोयें। मैं कल बड़े तड़के जगा दूँगी। यदि इच्छा होगी, अकेले चले जाइयेगा। में आपको मेदिनीपुरकी राहपर छोड़ आऊँगी।”

:९: देव-मन्दिर में

“कण्व! अलं रुदितेन, स्थिरा भव, इतः पन्थानमालोक्य।”
—शकुन्तला।

सवेरे बड़े तड़के ही अधिकारी पुजारिन नवकुमारके पास आयीं। उन्होंने देखा कि अभीतक नवकुमार सोये न थे। पूछा—“अब बताइये, क्या करना चाहिये?”

नवकुमारने कहा—“आजसे कपालकुण्डला मेरी धर्मपत्नी हुई। इसके लिए यदि मुझे संसारका त्याग भी करना पड़ेगा तो करूँगा। कन्यादान कौन करेगा?”

पुजारिनका चेहरा हर्षसे खिल उठा। मन-ही-मन सोचा—“इतने दिनों बाद जगदम्बाकी कृपासे, जान पड़ता है, मेरी कपालिनीका ठिकाना लगा।” प्रकट कहा—“मैं कन्यादान करूँगी।” यह कहकर वह अपने कमरे में गयीं और एक पुरानी थैलीमें से एक पत्रा निकाल लायीं। पत्रा पुराना ताड़पत्रका था। उसे मजेमें देखकर उन्होंने कहा—“यद्यपि आज लग्न नहीं है, लेकिन शादीमें कोई हर्ज नहीं। गोधूलि-कालमें कन्यादान करूँगी। तुम्हें आज केवल व्रत रहना होगा, शेष लौकिक कार्य घर जाकर पूरा कर लेना। एक दिनके लिए तुम लोगों को छिपाकर रख सकूँगी। ऐसा स्थान मेरे पास है। आज यदि कापालिक आयेगा तो तुम्हें खोज न पायेगा। इसके बाद शादी हो जानेपर कल सबेरे सपत्नीक घर चले जाना।”

नवकुमार इसपर राजी हो गये। इस अवस्थामें जहाँतक सम्भव हो सका, वहाँतक यथाशास्त्र कार्य हुआ। गोधूलिलग्नमें नवकुमारके साथ कापालिक पालित संन्यासिनीका विवाह हो गया।

कापालिकको कोई खबर नहीं लगी। दूसरे दिन सबेरे तीनों जन यात्राका उद्योग करनेमें लगे। अधिकारी उन्हें मेदिनीपुरकी राह पर छोड़ आयेंगी।

यात्राके समय कपालकुण्डला कालिका देवीकी प्रणामके लिये गयी। भक्तिभावसे प्रणाम कर पुष्पपात्रसे एक अभिन्न विल्वपत्र उठाकर कपालकुण्डलाने देवीके चरणोंपर चढ़ा दिया और ध्यानपूर्वक उसे देखती रही। लेकिन वह बिल्वपत्र गिर गया।

कपालकुण्डला बड़ी ही भक्तिपरायण है। बिल्वपत्रको दैवप्रतिमा चरणसे च्युत होते देखकर बहुत डरी। उसने यह हाल अधिकारीसे भी कहा। अधिकारी भी दुखी हुई। बोली—“अब दूसरा कोई चारा नहीं है। अब पति ही तुम्हारा धर्म है। पति यदि श्मशानमें भी जाये, तो तुम्हें साथ ही जाना होगा। अतएव निःशब्द होकर चलो

सब लोग चुपचाप चले। बहुत दिन चढ़े, वह लोग मेदिनीपुरकी राहमें पहुँचे। वहाँतक पहुँचाकर अधिकारी बिदा हुई। कपालकुण्डला रोने लगी। पृथ्वीमें जो कपालकुण्डलाको सबसे ज्यादा प्रिय था, वह विदा हो रहा था, उससे अब मुलाकात नहीं होनेकी थी।

अधिकारी भी रोने लगीं। आखोंका आँसू पोछकर कपालकुंडलासे धीरेसे कहा—“बेटी, तू तो जानती है, भगवतीकी कृपासे मुझे पैसोंकी कमी नहीं है। हिलजीका प्रत्येक व्यक्ति पूजा करता है। तेरी धोतीके किनारे मैंने जो बाँध दिया है, उसे स्वीकार कर अपने पतिको देकर कहना पालकी आदि का प्रबन्ध कर लेंगे। बेटी! अपने को सन्तान समझ कर मेरी याद भुला न देना।”

अधिकारी यह देखते हुए रोकर विदा हुई। कपालकुण्डला भी रोती हुई आगे बढ़ी।

  • द्वितीय खण्ड : कपाल कुण्डला
  • बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास हिन्दी में
  • बांग्ला कहानियां और लोक कथाएं
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