इन बिन (कुछ अंश) : पद्मा सचदेव

In Bin : Padma Sachdev

जब भी युग बदलता है वह अपने साथ नया बाँकपन, नयी सुबहें, नयी शामें, नये क़ानून, नये विधान, नये लोग, नयी मुहब्बतें लेकर आता है। हर चीज़ पुरानी होते हुए भी नये तेवर के साथ जैसे नया जन्म ले लेती है। अगर कहीं कुछ नहीं बदला तो वह है बच्चे की मुस्कान, माँ की ममता और मुहब्बतों का दीवानापन। हाँ, कभी-कभी रिश्ते भी जन्मों तक साथ देते हैं।

गुजरे हुए वक़्तों में हैसियत वाले लोगों के घरों में काम करनेवाले नौकर-चाकर, पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने मालिकों के साथ रहते हुए उस घर के सदस्य जैसे हो जाते थे। उनके बच्चे भी वहीं आँगनों में खेल-खेलकर बड़े हो जाते, वहीं मालिकों के बाग़ों से अमरूद, सेब, इमली या सन्तरे चुराते, उनके बच्चों की उतरन पहनते, उनके आँगनों में सर्दियों में ठिठुरते हुए कोई पुराना बूट, स्वेटर या घिसा कम्बल भी पा जाते थे। नौकरों का पूरा परिवार ही अपनी सेवाओं से मालिक-मालकिनों को खुश करने की कोशिश करता। रात को मालिक के पाँव दबाते-दबाते ऊँघने पर वहीं कहीं पलंग के नीचे ढेर हो जाता। जगने पर दयावान मालिक उसे नौकरी भी दे दिला देता।

बहुत से घरों में तो बुज़ुर्ग हो जाने पर ये नौकर घरेलू मामलों में सलाह भी दे सकते थे। घर की बेटी की विदाई पर इन्हीं नौकरों की पत्नियाँ घर की बिगड़ैल बेटी को ससुराल में जमाने की भरसक कोशिश करती थीं। मालिक और नौकर का यह रिश्ता निरन्तर मज़बूत होता जाता था। इन रिश्तों के और भी बहुत पहलू हैं, पर मैं तो सिर्फ यह जानती हूँ कि आज भी इनके बिना घर-गृहस्थी के संसार से पार होना बड़ा मुश्किल है। घर में इन लोगों को अपना समझते-समझते कई बार इनके जाने पर मैं उदास रही, पर जितने भी दिन जो भी घर में रहा, मैंने उसे घर का सदस्य ही समझा और उसके जाने पर खूब दुखी भी हुई। आज भी अगाहे-बगाहे कोई मिलने को आ जाता है तो मन में एक आन्तरिक खुशी सर उठा लेती है। आज भी इन बिन गृहस्थी ठीक से नहीं चल पाती। मैं उन सब लोगों पर लिखकर शायद हल्का होना चाहती हूँ और शायद एक कर्ज़ भी उतारना चाहती हूँ।

घरेलू कर्मचारियों में जिसका नम्बर घर में और ज़िन्दगी में पहला है उसका नाम लब्भू था। माँ बताती थीं, जब मैं पैदा हुई तब उसे आये कोई बरस-भर हुआ था। बचपन में उसने मुझे गोद में खिलाया, कन्धे पर बिठाकर सैरें करवायीं और घुटनों पर बिठाकर झूले झुलाये थे। घर में अक़्सर उसका ज़िक़्र होता था। कुछ बरस पहले उसने मुझे देखा तो मेरी माँ से पूछा, ‘‘चाची, क्या यही हमारी पद्दो है ?’’ माँ ने कहा, ‘‘क्या पहचान नहीं पा रहा ?’’ वह बोला, ‘‘पहचान लिया। इसका नाम तो रामबन के रेडियो पर भी आता है।’’ वह मेरी नक़ल लगाता हुआ कहने लगा—

‘‘हुन तुस डोगरी च ख़बराँ सुनो।’’
(अब आप डोगरी में खबरें सुनिए)

माँ मुझे कभी-कभी पद्दो भी कहती थी पर यह घटना तभी होती जब माँ को मुझ पर बहुत प्यार आता था, पर इसका मौक़ा मैं उन्हें बहुत कम देती थी। मेरी हरक़तों से अक्सर माँ गुस्सा रहतीं। घर में उनका हाथ बँटाने के लिए मैं कभी कुछ न करती थी। पर बाहर या बाज़ार में कोई भी काम करने को मैं हमेशा तैयार रहती थी। माँ बड़ी कर्मठ औरत थीं। उन्हें सब खुद करना अच्छा लगता था। लब्भू भैया जब भी मिलते कोई न कोई पुरानी बात ज़रूर सुनाते थे। मुझे सुनाते हुए कहते, ‘‘जब पद्दो पैदा हुई तो हमारी दादी ने खूब नाक-भौं सिकोड़ी थी। उनको सब बेबे कहते थे। बेबे का कहना था कि बहू ने आते ही मेरे बेटे पर बेटी लाद दी। उधर मेरे पिताजी बहुत प्रसन्न थे। पिताजी ने बेबे को कहा, ‘‘यह लक्ष्मी है मैं इसे सरस्वती बनाऊँगा। ये विदुषी होगी। पिताजी ने मेरे पोतड़े बनवाने के लिए उन दिनों खूब चलनेवाले चाबी के लट्ठे के तीन थान लाकर दिये। बेबे ने पोती के लिए अपनी पुरानी घिसी-पिटी मलमली चादरों के पोतड़े बनाकर देते हुए कहा, ‘‘इसकी माँ कौन महाराजा हरिसिंह की बेटी है जो इसके लिए चाबी के लट्ठे के पोतड़े बनवाऊँ। बाद में सुनने में आया था लट्ठे के तीनों थान बेबे ने अपनी तीनों बेटियों को दे दिये थे। बेबे के सामने कोई कुछ न कहता था।

लब्भू भैया जब मुझे यह बात सुनाते तो मैं अपनी दादी की सफाई में कहती, ‘‘बेव्बे ने सोचा होगा मेरी पोती को लट्ठे के कड़क थान क्यूँ चुभें।’’ लब्भू भैया कहते, ‘‘जा-जा पद्दो, तुझे बड़ा पता है। तुमने बेबे को कहाँ देखा, बेव्बे भी तुम्हें न देखती थी पर चाचाजी बहुत खुश थे इसलिए बेबे ज़्यादा कुछ न कहती थी। चाचाजी ने बड़े प्यार से तुम्हारा नाम पद्मा रखा।’’

माँ बताती थी—लब्भू भैया को गठिया हो गया था। पिताजी ने लाहौर के किसी अस्पताल में दाख़िल करवाकर अँग्रेज़ डॉक्टरों से लब्भू भैया का इलाज करवाया था। लब्भू भैया पिताजी का यह एहसान कभी न भूले। पिताजी ने बाद में उन्हें एक हलवाई की दुकान पर नौकर रखवा दिया था। उसके बाद उन्होंने रामबन में चिनाब नदी के किनारे दूध-दही की अपनी दुकान खोल ली थी। हमारे यहाँ जब भी आते कलाड़िया (दूध-दही से बना एक तरह का पनीर) ज़रूर लाते। इसके आलावा कई और पहाड़ी सौगातें लाना भी न भूलते। माँ को चाची-चाची कहकर अपना पसन्दीदा खाना बनवाते—‘‘चाची आपके हाथ का राजमा, अम्बल खाये एक ज़माना हो गया।’’ माँ प्रसन्न होकर लब्भू भैया की फरमाइशें पूरी करतीं। उनके ब्याह के कई चर्चे होते पर ब्याह कभी न हुआ इस बात का दुःख उन्हें हमेशा रहा।

असल में जो बात बताने से मैं बच रही हूँ वह यह है कि लब्भू भैया रिश्ते में हमारे भाई ही लगते थे। हमारे एक दूर के ताऊ अपनी ज़मीनों पर कई-कई दिन रहते तो वहीं की एक स्त्री से इन्होंने किसी क़िस्म की शादी कर ली थी। उनकी पत्नी—हमारी ताई—उनको घास न डालती थी। इसलिए ताऊ जी भी उनसे बचने के लिए ज़्यादा समय खेती-बाड़ी की देखभाल पर लगाने लगे। फसलें तो अच्छी हुईं ही लब्भू भैया भी दुनिया में आ गये। उस गाँव में सब जानते थे पर ताई को बताने की हिम्मत किसी में न थी। जब ताऊ भगवान को प्यारे हुए तो हमारी ताई ने लब्भू भैया की माँ को उनके अन्तिम दर्शन भी न करने दिये। लब्भू भैया को लेकर वह ज़मीनों पर ही किसी तरह गुज़र कर रही थी। उनकी मृत्यु के समय लब्भू भैया दस-बारह बरस की उम्र में ही जब यतीम हो गये तो मेरे पिताजी उन्हें घर ले आये। अन्त तक हमारे परिवार से लब्भू भैया जुड़े रहे।

बहुत साल पहले माँ ने एक जगह टिप्पस भिड़ायी भी थी। बड़े अच्छे घर की विधवा औरत थी। उसकी एक बेटी भी थी। उस औरत के ससुराल वाले उससे इसलिए नाराज़ थे कि अपने पति की पेंशन उसे मिल गयी थी और वह अकेली रहती थी। शहर में अपनी लड़की को स्कूल में डाला था उसने। लब्भू भैया मेरी माँ से पूछकर उसे ‘नल-दमयन्ती’ फिल्म दिखाने भी ले गये थे पर बात इससे आगे न बढ़ी। उस औरत ने एक दिन मेरी माँ को आकर कहा, ‘‘मेरी बेटी की सोचिए, कल जब इसकी शादी होगी तो बाप की जगह मैं लब्भू को तो खड़ा नहीं कर सकती, मुझे माफ़ करिए।’’ वह अपनी लाड़ली बेटी को लेकर चली गयी और माँ ने उसे माफ़ कर दिया।

लब्भू भैया ने पहाड़ की एक औरत कई बरस तक घर में रखी पर उससे शादी करना न चाहते थे। माँ कहती, ‘‘इस मुए को कहा था इसी पहाड़िन से शादी कर लो पर ब्राह्मण होने का इतना दम्भ मैंने किसी भी ब्राह्मण में नहीं देखा। पता नहीं इसे ब्राह्मणों ने क्या दिया। अपने बाप ने तो नाम तक दिया नहीं। रहा ब्राह्मण का ब्राह्मण ही। ब्राह्मणी ने कभी घर की देहरी न लाँघी। मुआ कुँआरा ही मरकर भूत बनकर इस दुनिया में रहेगा।’’

मरने से पहले ही लब्भू भैया ने पड़ोस के एक लड़के नाम अपनी दुकान करवा दी थी। उन्होंने कहा, ‘‘तुम साल-भर मुझे नेति (रोज़ एक वक्त का खाना किसी दरख़्त के नीचे रख देना) देना, मेरा दाह संस्कार करना और साल बाद मेरी बरसी कर देना। उस लड़के ने लब्भू भैया का क्रिया-करम एक पुत्र की तरह से ही किया और मेरा ख़्याल है हर बरस श्राद्ध भी करता ही होगा। लोग ज़िन्दा मनुष्यों से उतना नहीं डरते जितना मरे हुओं से डरते हैं। मेरी माँ कहती—‘‘जीने से ज़्यादा उसे मरने की चिन्ता थी, बस उसी का इन्तज़ाम सारी उम्र करता रहा। ब्राह्मण होने का बड़ा अभिमान था उसे !’’

पिछले दिनों घर में शादी थी तो भी लब्भू भैया आये थे और उन्होंने बताया था कि मैं तो हाथ में गठरी लिये रहता हूँ अब जब भी उसका बुलौआ आ जाय। चिनाब दरिया की लहरों को देखता रहता हूँ। दुकान का काम भी चलता ही रहता है। यह पहला घरेलू कर्मचारी था जिसके बारे में मैंने जाना। उनकी इज़्ज़त करना माँ ने ही सिखाया था। लब्भू भैया उम्र में बड़े होने पर भी माँ के पाँव छूते और इज़्ज़त करते। माँ जब तक हिम्मत थी अपने छोटे बेटे को लेकर रामबन चली जातीं और कई-कई दिन रहकर आतीं। आकर खूब खुशी से बतातीं :
‘‘इस मुए को अच्छा खाना कहाँ नसीब है। मैं उसकी पसन्द का सबकुछ खिलाकर आयी हूँ।’’
आज न माँ हैं, न भैया। पर उनका वह सम्बन्ध आज भी क़ायम है। माँ के कहने से हम उनका पूरा सम्मान करते रहे। मान्यता भले ही न मिली हो पर रिश्ते में तो भाई ही लगते थे।

जम्मू में मेरी सबसे बड़ी बुआ की इतिहास में ख्यात, उस वक्त के रियासत के प्रधानमन्त्री जल्ला पंडित के प्रपौत्र से शादी हुई थी। घर एकदम पास था। उनकी पौत्रियाँ बचपन से ही मुझे अपने घर से जाने न देती थीं। मैं आती-जाती रहती थी। उनके घर में एक नौकर था रामलाल। घर के सब काम तो करता ही था बाहर के चक्कर भी वही लगाता था। मशीन पर इतने सुन्दर कपड़े सिलता था कि बाज़ार के दर्जी भी हैरान रह जाएँ। जब वह मशीन चलाता तब मैं उसकी हत्थी घुमाती रहती। आज भी मैं मशीन चलाऊँ तो उसी झटके से शुरू करती हूँ। वह हमेशा याद आ जाता है। एक बार टायफायड होने से मेरे सारे बाल गिर गये थे तो बुआ जी के पुत्र पं. महेन्द्रनाथ शर्मा जी ने मेरा नाम गौरैया रख दिया था। डोगरी में ‘गटारी’ कहते हैं। सब मुझे गटारी कहने लगे। वह रामलाल भी गटारी ही कहता था। एक दिन उसने मुझे धीरे से कहा, ‘‘बुआ, मुझे एक कार्ड लिख दोगी ?’’ मैं बुआ सम्बोधन से प्रसन्न थी। कार्ड लिख दिया। उसने कहा, लिखो कि मैं पाँच-सात दिन के लिए आ रहा हूँ। फिर वह घर चला गया। जब वहाँ से लौटा तो आते ही पूछा, ‘‘कहाँ है गटारी ?’’ मैं माँ के पास थी। जब आयी तो उसने मुझे डाँटकर कहा, ‘‘ऐ गटारी, तुमने चिट्ठी में क्या लिखा था।’’ मैं हतप्रभ ! मैंने कहा, ‘‘तुमने जो बताया वही लिखा और क्या लिखती।’’ सब लोग मेरी तरफ देख रहे थे। कहानी तो वह पहले ही सबको सुना चुका था। उसने कमीज़ की जेब में से कार्ड निकाला और कहा, ‘‘ये कार्ड पढ़िए, इस गटारी ने मेरी सारी छुट्टियाँ बरबाद कर दीं। बदनाम हुआ तो अलग। पूछो, पूछो इसको, इसने कार्ड में क्या लिखा है। अब देखो जी, मैं गाँव में पहुँचता था तो बस अड्डे से ही सब मेरे साथ हो लेते थे। इस बार मेरे साथ किसी ने बात तक न की, जिसे देखूँ वह मुँह फेरकर आगे हो ले। अब जैसी ही मैं घर पहुँचा, मेरे पिता मुँह फेरकर बैठक में जाकर हुक्के की नली मुँह में लेकर बैठ गये। माँ ने देखा तो बुक्का फाड़ कर रोने लग गयी। किसी ने बैठने तक को न कहा। मैं ढीठ होकर चारपाई पर बैठ गया। मन में सोचा, पता नहीं घर में क्या अनहोनी हुई है, कहीं कोई मर तो नहीं गया। मैंने ध्यान लगाया तो मालूम पड़ा घर में न कोई बूढ़ा है, न बीमार। मैंने गुस्सा होकर जोर से माँ से पूछा, ‘बताओ !...कोई मर गया है क्या ?’ माँ ने रोते-रोते कहा, ‘और कौन मरेगा। ऐसा पूत करने के बाद मैं ही मर गयी हूँ। हे भगवान, मुझे उठा ले।’ मुझे गुस्सा आ गया, मैंने कहा, ‘साफ़-साफ़ क्यूँ नहीं बताती क्या हुआ है ?’ माँ ने चादर में लिपटा कार्ड लाकर मेरे आगे रख दिया। ‘ये कार्ड देखो क्या लिखा है तुमने।’ माँ ने मुँह बिचकाकर कहा।

‘‘मेरी प्यारी लाड़ी जी
(मेरी प्यारी पत्नी)

‘‘फिर माँ ने सिर पर दुहत्थड़ मारकर कहा, ‘अरे इतनी ही प्यारी थी तो साथ क्यूँ न ले गया। घर का काम मैं खुद कर सकती हूँ। मुझे इस रामलीला की ज़रूरत नहीं है। इन बूढ़ी हड्डियों में अभी भी इतनी ताक़त है कि हम दो जीव आराम से खाना खा सकें।’

‘‘तभी भीतर से आकर पिता ने और चिनगारी भड़का दी। कहने लगे--‘रामलाल की मां, ऐसा कपूत जना है तुमने कि क्या कहूँ। हमारे बुज़ुर्गों ने कभी दिन में पत्नी का मुँह भी न देखा था, कभी पत्नी से बात तक न की और ये लिख रहे हैं—मेरी प्यारी लाड़ी जी। बेशर्म औलाद। सारे गाँव में बदनामी हुई सो अलग।’

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