हमखुर्मा व हमसवाब (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद

Hamkhurma va Hamsawab (Novel) : Munshi Premchand

पहला बाब-सच्ची क़ुर्बानी

शाम का वक्त है। गुरुब होनेवाले आफताब की सुनहरी किरने रंगीन शीशे की आड़ से एक अग्रेजी वज़ा पर सजे हुए कमरे में झांक रही हैं जिससे तमाम कमरा बूकलूमूँ हो रहा है। अग्रेजी वजा की खूबसूरत तसवीरे जो दीवारों से लटक रही है, इस वक्त रंगीन लिबास पहनकर और खूबसूरत मालूम होती है। ऐन वस्ते कमरा में एक खूबसूरत मेज है जिसके इधर-उधर नर्म मखमली गद्दों की रंगीन कुर्सीयाँ बिछी हुई है। इनमें से एक पर एक नौजवान शख्स सर नीचा किये हुए बैठा कुछ सोच रहा है। निहायत वजीह-ओ शकील आदमी है जिस पर अंग्रेजी तराश के कपड़ों ने गज़ब का फबन पैदा कर दिया है। उसके सामने मेज पर एक कागज है जिस पर वो बार-बार निगाह डालता हैं। उसके बुशरे से जाहिर हो रहा है कि इस वक्त उसके ख्यालाता उसे बेचैन कर रहे है। एकाएक वो उठा और कमरे से बाहर निकलकर बरामदे में टहलने लगा जिसमें खूबसूरत फूलों और पत्तियों के गमले सजाकर धरे हुए थे। बरामदे से फिर कमरे में आया कागज का टुकड़ा उठा लिया और एक बदहवासी के आलम में बँगले के अहाते में टहलने लगा। शाम का वक्त था। माली फूलों की क्यारियों में पानी दे रह था। एक तरफ साईस घोड़े को टहला रहा था। ठंडी-ठंडी और सुहानी हवा चल रही थी। आसमान पर शफक फूली हुई थी मगर वो अपने खयालात में ऐसा गर्क था कि उसको इन दिलस्पियों की मुतलक़ ख़बर न थी। हाँ, उसकी गर्दन खुद-ब-खुद हिलाती थी और हाथ कुछ इशारे कर रहे थे। गोया वो किसी से बातें कर रहा है। इसी असान में एक बाइसिकिल फाटक के अन्दर दाखिल हुई और एक नौजवान कोट-पतलून पहने, चश्मा लगाये, सिगार पीता, जूता चर-मर करता उतर पड़ा और बोला—गुड ईवर्निग मिस्टर अमृतराय!
अमृतराय ने चौंककर सर उठाया और बोले—ओह, आप है मिस्टर दाननाथ आइए तशरीफ लाइए। आप आज जलसे में नजर न आये?
दाननाथ—कैसा जलसा मुझे तो इसकी खबर भी नहीं।
अमृतराय-(हैरत में) ऐ आपको खबर ही नहीं? आज आगरे के लाला धनुखधारीलाल साहब ने बड़े मार्के की तक़रीर की। मुख़लिफ़ीन के दॉँत खट्टे कर दिये।
दाननाथ—बखुदा मुझे जरा भी खबर न थी वर्ना मैं ज़रुर जलस में शरीक होता। मैं तो लाल साहब की तरीरों के सुनने के सुनने का मुश्ताक हूँ। मेरी बदकिस्मती थी कि ऐसा नादिर मौक़ा हाथ से निकल गया। मज़मून क्या था?
अमृतराय—मजमून सिवाय इसलाहे मुआशरत के और क्या होता। लाला साहब ने अपनी जिन्दगी इसी काम पर वक्फ़ कर दी हैं। आज ऐसा पुरजोश ख़दिमे कौम और बाअसर शख्स़ इस सूबे में नहीं। ये और बात है कि लोगों को उनके उसूलों से इख्तलाफ हो मगर उनकी तक़रीरों में ऐसा जादू होता है कि लोग खुद-ब-खुद खिंचते चले आते हैं। मुझे लाला साहब की तकरीरों के सुनने का बारह फैख हासिल हुआ है मगर आज की स्पीच में कुछ और ही बात थी। इस शख्स की ज़बान में जादू है, जादू अलफ़ाज वही होते हैं जिनको हम रोजमर्रा की गुफ्तगू में इस्तेमाल करते है, खयालाता वही होते है जिन पर हम लोग यक जा बैठकर अक्सर बहस किया करते है। मगर तर्जे में कुछ इस ग़ज़ब का असर है, कि दिनों का लुभा लेता है।
दाननाथ को ऐसी नादिर तकरीर के न सुनने का सख्त अफसोस हुआ। बोल—यार, मैं बड़ा बदकिस्मत हूँ। अफ़सोस, अब ऐसा मौक़ा हाथ न आयेगा। क्या अब कोई स्पीच न होगी?
अमृतराय—उम्मीद तो नहीं क्योंकि लाला साहब आज ही लखनऊ तशरीफ़ ले जा रहे हैं।
दाननाथ—कमाल अफ़सोस हुआ। अगर आपने उसे तक़रीर का कोई खुलासा किया हो तो मुझे दे दीजिए, जरा देखकर तस्कीन कर लूँ।
अमृतराय ने वही काग़ज़ का टुकड़ा जिसको बार-बार पढ़ रहे थे, दाननाथ के हाथों में दे दिया और बोले—असनाये तक़रीर में जो हिस्से मुझे निहायत अच्छे मालूम हुए उनको नक़ल कर लिया। ऐसी रवानी में लिखा है कि शायद बजुज मेरे और कोई पढ़ भी न सके। देखिए हमारे रऊसा व मुक्तिदाया ने क़ौम की ग़फ़लत व बेपरवाई को क्या बयान किया है—
हजरत ! सब खराबियों की जड़ हमारी लापरवाई है। हमारी हालत बिलकुल नीमजान मरीज की-सी है जो दवा हाथ में लेकर देखता है मगर मुँह तक नहीं ले जाता। हाँ साहबों, हम आँखों रखते हैं मगर अन्धे है, हम कान रखते हैं मगर बहरे हैं, हम ज़बान रखते हैं मगर गूँगे हैं। अब वो जमाना नहीं हैं कि हमको अपनी मुआशरत के नक़ाइस नज़र न आते हों। हम तमाम अच्छी बातों को जानते हैं और मानते हैं मगर जिस तरह मसाइले इखलाकी पर ईमान रखकर भी हम गुमराह होते हैं, खुदा के बजूद के कायल होकर भी मुन्किर बनते हैं, उसी तरह इसलाहे तमद्दुन के मसाइल से इत्तफाक रखते हैं मगर उन पर अमल नहीं करते।
अमृतराय ने बड़े पुरजोश में इबारत पढ़ी। जब वो ख़ामोश हुए तो दाननाथ ने कहा—बेशक खूब फ़रमाया है, बिलकुल हमारे हस्बे हाल।
अमृतराय—जनाबमन, मुझको सख्त अफसोस है कि मैंन सारी तक़रीर क्यों न नक़ल कर ली। उर्दू जबान पर ऐसे ही वक्त गुस्सा आता है। काश अग्रेजी तक़रीर होती तो सुबह होते ही तमाम रोज़ाना अख़बारों में शाया हो जाती। नहीं तो शायद कहीं खुलासा रिपोर्ट छपे तो छपे। (एक लमहे की खामोशी के बाद) कैसे गर्म अलफाज में तहरीक की है कि जब से जलसे से आया हूँ, वही सदाएँ बराबर कान में गूँज रही हैं। माई डियर दाननाथ, आप मेरे ख्य़ालात से वाक़िफ़ हैं। आज की स्पीच ने उन ख़यालात को अमली सूरत अख्तियार करने की जुरअत की है। मैं अपने को क़ौम पर कुर्बानी कर दूँगा। अब तक मेरे ख़यालात मुझ ही तक थे, अब वह जाहिर होंगे। अब तक मेरे हाथ सुस्त थे मगर मैंने उनसे काम लेने उनसे काम लेने क़सदे मुसम्म किया है। मैं बहुत बाअख्तियार शख्स नहीं हूँ, मेरी जायदाद भी नहीं, मगर मैं अपने को और अपनी सारी जथा को कौम पर कुर्बान कर दूँगा। (आप ही आप) हाँ, मैं तो ज़रुर निसार कर दूँगा (जोश से) ऐ थककर बैठी हुई क़ौम ले तेरी हालत पर रोने वालों में एक और इज़ाफ़ा हुआ। आया इससे तुझे कुछ फायदा होगा या नहीं, इसका फ़ैसला वक्ता करेगा।
यह कहकर अमृतराय ज़मीन की तरफ देखने लगे। दाननाथ, जो उनके बचपन के साथी थे, उनके मिजाज से खूब वाकिफ थे कि जब उनको किसी बात की धुन सवार हो जाती है, तो उसको बिला पूरा किये नहीं छोड़ते। चुनाचे उन्होंन ने ऊँच-नीच सुझाना शुरु किया—मेहरबाने मन, यह ख्याल तो कीजिए कि आप कैसा खतरनाक काम अपने जिम्मे ले रहे है। आपको अभी नहीं मालूम कि जो रास्ता साफ़ नजर आ रहा है वह काँटो से भरा हुआ है।
अमृतराय—अब तो हर चे बाद। मैं ख़ूब जानता हूँ कि मुझे बड़ी-बड़ी दिक्कतों का सामना करना होगा। मगर नहीं मालूम कुछ अर्से से मेरे दिल में कहाँ से कूवत आ गयी है। मुझे ऐसा मालूम होता है कि मैं बड़े से बड़ा काम कर सकता हूँ। और उसके अंजाम तक पहुँचाकर सुर्खरुई हासिल कर सकता हूँ।
दाननाथ—जी हाँ, फौरी का हमेशा यही हाल होता है। अब जरा ख़यालात से हटकर वाक़यात पर आइए। आप जानते हैं कि ये शहर बितालत और उसतख्वाँपरस्ती का मरकज़ हैं। नये ख़यालात यहाँ हरगिज़ नश्वानुमा नहीं पा सकते। अलावा बरी आप बिलकुल तनहा हैं। जो जवाबदेहियाँ आप अपने सर लेते हैं, उनसे जहाँ तक मेरा ख्य़ाल है, आपके दुश्मन ज्य़ादा हो जाएँगे और शायद अहबबा भी किनाराकशी करें। आप अकेले क्या बना लेंगे।
अमृतराय ने दोस्त की बातों को सुनकर सर उठाया और बड़ी संजीदगी से बोले-दाननाथ, ये तुमको क्या हो गया है? मर्दे ख़ुदा, तुम कहते हो अकेले क्या बना लोग अकेले आदमियों ने सल्तनतें फ़तह की बुनियादें डाली हैं। अकेले आदमियों ने तारीख़ के सफहे पलट दिये हैं। गौतम बुद्ध क्या था। महज़ एक बादियागर्द फ़क़ीर जिसका सारे ज़माने में कोई यारो-मददगार न था। मगर उसकी जिन्दगी ही में आधा हिन्दोस्तान उसका मुरीद हो चुका था। आपको कितना मिसाले दूँ। क़ौमों के नाम तनहा आदमियों से रौशन हैं। आप जानते है कि अफ़लातून एक बड़ा आदमी था मगर आपमें कितने ऐसे है जो जानते हों कि वह किस मुल्क का बाशिन्दा है?
दाननाथ ज़ीफ़हम आदमी थे, समझ गये कि इस वक्त़ जोश ताजा है, नशेब-ओ-फ़राज सुझाना फ़िजूल है। पस उन्होंने फ़हमाइश का नया ढंग अख्तियार किया बोले—अच्छा मैंने मान लिया कि अकेले लोगों ने बड़े-बड़े काम किये हैं और आप भी कौम की भलाई कुछ न कुछ कर लेगे, मगर इसका तो ख़याल कीजिए कि आप उन लोगों को कितना बड़ा सदमा पहूँचायेगें जिनको आपसे कोई ताल्लुक हैं। प्रेमा से बहुत जल्द आपकी शादी होनेवाली है आप जानते है कि उसके वाल्दैन परले सिरे के कट्टर हिन्दू हैं। जब उनको आपके अग्रेजी वज़ा-ओ-कता पर एतराज है तो फरमाइए जब आप कौमी इसलाह पर बॉँधेगे तो उनका क्या हाल होगा। ग़लिबन आपको प्रेमा से हाथ धोना पड़ेगा।
यह तीर कारी लगा। दो-तीन मिनट तक अमृतराय जमीन की तरफ ताकते रहे। बाद इसके उन्होंने सर उठाया—आँखें सुर्ख थी, आँसू नमूदार थे, मगर क़ौमी फलाह ने नफसर पर काबू पा लिया था। बोले—हजरत, क़ौम की भलाई करना आसान नहीं। गो मैंने इन दिक्कतों का ख़याल पहले नहीं किया था ताहम मेरा दिल इस वक्त ऐसा मज़बूत है कि क़ौम के लिए हर एक मुसीबत सहने को तैयार हूँ। प्रेमा से बेशक मुझको गायबाना मुहब्बत थी, उसका शैदाई था और अगर काई वो ज़मानत आत कि मुझको उसका शौहर बनने का फख हासिल होता तो मैं साबित करता कि मुहब्बत इसको कहते है। मगर अब प्रेमा की सूरत मेरी निगाहों से ग़ायब होती जाती है। यह देखिए वह फोटो है जिसकी मैं अब तक परस्तिश किया करता था। आज इससे भी किनाराकश होता हूँ। यह कहते-कहते उन्होंने तसवीर जेब से निकाल ली और उसके पुर्जे-पुर्जे कर डाले, ‘प्रेमा को जब मालूम होगा कि अमृतराय अब क़ौम का आशिक हो गया और ख़ल्क का फ़िदाई, उसके दिल में अब किसी ना जनीन की जगह बाकी नहीं रही तो मेरी इस हरकत मुआफ़ कर देगी ?
दाननाथ—अमृतराय, मुझको सख्त अफ़सोस है कि तुमने उस नाज़नीन की तसवीर की यह गत की जिसको तुम, खूब जानते हो कि तुम्हारी दिलदाद हैं। प्रेमा ने अहद कर लिया है कि बजुज़ तुम्हारे किसी और से शादी न करेगी। और अगर तुम्हारा हाफिज़ा काम देता हो तो सोचा तुमने भी इस क्रिस्म कोई वादा किया था या नहीं। क्या तुमको नहीं मालूम कि अब शादी का जमाना बहुत क़रीब आ गया है? इस वक्त़ तुम्हारी ये हरकत उस मासूम लड़की की क्या हालत कर देगी
इन बातों को सुनकर अमृतराय वाकई कुछ पज़मुर्दा हो गये। हाँ, बराबर यही कहते रहे कि प्रेमा इस ख़ता को ज़रुर मुआफ़ कर देगी। इन्हीं बातों में आफ़ताब गुरुब हो गया। दाननाथ ने अपनी बाइसिकिल सम्हाली और चलते वक्त़ बोले—मिस्टर राय, खूब सोच लो, अभी से बेहतर है इन परागंदा ख़यालात को छोड़ो। आओ आज तुमको दरिया की सैर करा लायें। मैंने एक बजरा ले रखा है। चाँदनी रात में बहुत लुत्फ़ आयेगा।
अमृतराय—इस वक्त़ आप मुझे मुआफ़ कीजिए। कल मैं आपसे फिर मिलूँगा। इस गुफ्त़गू के बाद तो अपने मकान की तरफ़ राही हुए और अमृतराय उसी अँधेरे में बेहिस-ओ हरकत खड़े रहे। वो नहीं मालूम क्या सोच रहे थे। जब अंधेरा ज्यादा हुआतो दफ़अतन वह ज़मीन पर बैठ गये ओर उसतसवीर के परीशान पुर्जे इकट्ठा कर लिये, उनको अपने सीने से लगा लिया और कुछ सोचते हुए अपने कमरे में चले गये।
बाबू अमृतराय शहर के मुआज़िज रऊसा में समझे जाते थे। आबाई पेशा वकालत था। खुद भी वकालम पास कर चुके थे और गो अभी वकालत जोरो पर न थी मगर खानदानी इक्तिदार ऐसा जमा था कि शहर के बड़े से बड़े रऊसा भी उनके सामने सरे नियाज़ ख़म करते थे। बचपन ही से अग्रेंज़ी कालिजों में तालीम पायी और अग्रेंजी तहजीब और तर्ज़े मुआशरत के दिलदाद थे। जब तक वलिद बुजुर्गवार जिन्दा थे, पासे अदब से अग्रेंज़ियत से मुहतारिज़ रहते थे। मगर उनके इन्तक़ाल के बाद खुल खेले। सर्फे कसीर से ऐन दरिया के किनारे पर एक नफ़ीस बँगला तामीर कराया था और उसमें रहते थे। इमारत के सब सामान मौजूद थे। किसी चीज़ की कमी न थी। बचपने इसे इल्म के दिलदादा थे और मिज़ाज भी कुछ इस क़िस्म का वाक़े हुआ था कि जिस चीज़ की धुन सवार हो जाती बस उसी के हो रहते थे। जिस जमाने में बँगले की धुन सवार थी, आबाई मकानता कौड़ियों के मोल फ़रोख्त कर दिये थे। इलाक़े पर भी हाथ साफ़ करने का इरादा था, मगर क़िस्मत अच्छी थी, बाप का जामा किया हुआ कुछ रुपया बैंक मे निकल आया।
मिस्टर अमृतराय को किताबों से उल्फ़त थी। मुमकिन न था कि कोई नयी तसनीफ शाया हो और उनके कुतुबखाने में न पायी जाये। अलावा इसके फुनूने लतीफा से भी बेबहरा न थे। गाने से तबीयत को खास रगबत थी। वह वकालत पास कर चुके थे मगर अब तक शादी नहीं हुई थी। उन्होंने ठान लिया था कि तावक्ते कि वकालत ज़ोरों पर न हो जाए, शादी न करेंगे। इसी शहर के रईसे आज़म लाला बदरीप्रसाद साहब उनको कई बरस से अपनी इकलौती लड़की प्रेमा के वास्ते चुने बैठे थे। इसी खयाल से कि अमृतराय को इस शादी के करने में कोई एतराज न हो प्रेमा की तालीमा पर बहुत लिहाजा रखा गया था। मुंशी साहब की मर्जी के खिलाफ़ प्रेमा की तसवीर भी अमृतराय के पास भिजवा दी गयी थी और वक्त़न्-फवक्त़न दोनों में ख़तो-किताब भी हुआ करती थी क्योंकि प्रेमा अंग्रेजी तालीमा पाने से जरा आज़ाद-मिज़ाज हो गयी थी। बाबू दाननाथ बचपन ही से अमृतराय के साथ पढ़ा करते थे, और दोनों में सच्ची मुहब्बत हो गयी थी। कोई ऐसी बात न थी, जो एक-दूसरे के लिए उठा रखे। दाननाथ अर्से से प्रेमा के दिल में परस्तिश करते थे। मगर चूंकि उसको मालूम था कि बातचीत अमृतराय से हो गयी है और दानों एक-दूसरें को प्यार करते है। इसलिए खुद कभी अपने ख़यालात को जाहिर नहीं किया था। उस माशुक के फिराक में जिसके मिलने की मरकर भी उम्मीद न हो उसने अपने इत्मीनान की घड़ियाँ तल्ख कर रखी थीं। सैकड़ों ही बार-उसकी नफ्स़ानियत ने उभारा था कि तू कोई चाल चलकर मुंशी बदरीप्रसाद को अमृतराय से बदज़न कर दे मगर हर बार उसने इस नफ्सानियत को दबाने में कामयाबी हासिल की थी। वह आला दर्जे का बाइख़लाक आदमी था। वह मर जाना पसन्द करता बजाय इसके कि अमृतराय की निस्बत कोई ग़लतबयानी करके अपना मतलब निकाले। यह भी न था कि वह अमृतराय से सच्ची हमदर्दी व दमसाज़ी का बर्ताव न करता हो। नहीं बरबवस इसके वो हर मौके पर अमृतराय का तशफ्फी व दिलासा दिया करता था। अवसर उसी की मार्फ़त दोनों शैदाइयों में तोहफा भेजे गये थे। खतो-किताबो उसकी मार्फ़त हुआ करती है। यह मौके ऐसे थे कि अगर दाननाथ चाहता तो बहुत जल्द चाहनेवालों मे निफ़ाक पैदा कर देता। मगर ये उसकी फितरत से बईद था।
आज भी जब अमृतराय ने अपने इरादे ज़ाहिर किये तो दाननाथ ने बिला कम-ओ-कास्त दिक्कते बयान कर दी। उका दिल कैसा उछलता था जब वो ये ख़याल करता कि अब अमृतराय मेरे लिए जगह खाली कर रहा है। मगर ये उसकी शराफत थी कि उसने अमृतराय का उनके इरादे से बाजु रखना चाहा था। उसने कहा था कि अगर तुम रिफ़ार्मरो के जुमरे मे शामिल होगे तो प्रेमा रो-राकर जान दे देगी मगर अमृतराय ने एक न सुनी। उनका इरादा मुस्तक़िल था जिसको कोई तरग़ीब डिगा नहीं सकती थी। दाननाथ उनके मिज़ाज और धुन से खूब वाकिफ़ थे। समझ गये कि अब ये उड़ते है और उड़कर रहेगे। चुना चे अब उनको कोई वजह न मालूम हुई कि मैं असल वाकया बयान करके क्यों न प्यारी प्रेमा का शौहर बनने की कोशिश करुँ। यहाँ से रवाना होते ही वा अपने घर पर आये और कोट-पतलून उतार सीधा-सादे कपड़े पहना, लाला बदरीप्रसाद साहब के दौलतखाने की तरफ़ रवाना हुए। इस वक्त़ उनके दिल का जो कैफियत हो रही थी उसका बयान करना मुशकिल है। कभी तो खयाल आता कि कहीं मेरी यह हरकत गलतफ़हमी का बाइस न हो जाए लोग मुझको हासिद व बदख्वाह समझेने लगे। फिर ख्याल आता कहीं अमृतराय अपना इरादार पलट दें और क्या ताज्जुब है कि ऐसा हो जाये तो फिर मेरे लिए डूब मरने की जा होगी। मगर इन खयालात के मुकाबिले में जब प्रेमा की प्यारी-प्यारी सुरत नज़रो के सामने आ गयी तो ये तमाम औहाम रफ़ा हो गये और दम-के-दम में वह लाल बदरीप्रसाद के मकान पर बैठे बातें करते दिखायी दिये।

दूसरा बाब-हसद बुरी बला है

लाल बदरीप्रसाद साहब अमृतराय के वालिद मरहूम के दोस्तों में थे और खान्दी इक्तिदार, तमव्वुल और एजाज के लिहाज से अगर उन पर फ़ौकियत न रखते थे तो हेठ भी न थे। उन्होंने अपने दोस्त मरहूम की जिन्दगी ही में अमृतराय को अपनी बेटी के लिए मुन्तख़ब कर लिया था अगर वो दो बरस भी जिन्दा रहते तो बेटे का सेहरा देख लेते। मगर जिन्दगी ने वफा न की, चल बसे। हाँ, दमे मर्ग उनकी आखिरी नसीहत ये थी कि बेटा, मैंने तुम्हारे वास्ते बीवी तजवीज़ की है, उससे ज़रुर शादी करना। अमृतराय ने भी इसका पक्का वादा किया था मगर इस वाकये को आज पाँच बरस बीत चुके थे। इस बीच में उन्होंने वकालत भी पास कर ली थी और अच्छे खासे अंग्रेज बन बैठे थे। इसी तबदीले तर्जे मुआशरत ने पब्लिक की नज़रों में उनका विकार कम कर दिया था। बर अक्स इसके लाला बदरीप्रसाद पक्के हिन्दू थे, साल भर बारहों मास उनके यहाँ भागवत की कथा हुआ करती थी, कोई दिन ऐसा न जाता कि भंडारे मे सौ-पचास साधुओं का जेवनार न बनता हो। इन फ़य्याजियों ने उनको सारे शहर में हरदिल-अज़ीज बना दिया था। हर रोज अलस्सबाह वो पैदल गंगा जी के स्नाना को जाया करते और रास्ते में जितने आदमी उनकी बुजुर्गाना सूरत देखते, सरे नियाज़ ख़म करते और आपस में कानाफुस्की करते वक्त़ दुआ करते कि यह गरीबों का दस्तगीर यूँ ही सरसब्ज़ रहे।
गो मुंशी बदरीप्रसाद अमृतराय की अंग्रेजियत को जिल्लत व हिकारत की निगाहों से देखते थे और बार उनको समझाकर हार भी चुके थे मगर चूँकि उनकी अपनी जान से अज़ीज बेटी प्रेमा के लिए मुन्तख़ब कर चुके थे इसलिए मजबूर थे, क्योंकि उनको उस शहर में ऐसा होनहार, खुशरु, बाख़बर और अहले-सर्वत दामाद नहीं मिल सकता था और दूसरे शहर में वो अपनी लड़की की शादी किया नहीं चाहते थे। इसी ख़याल से कि लड़की अमृतराय की मर्जी के मुआफ़िक हो उसको अँग्रेंज़ी व फ़ारसी और हिन्दी की थोड़ी-थोड़ी तालीम दी गयी थी और उन इक्तसाबी कमालात पर फ़िरती अतियात सोने में सुहागा थे। सारे शहर की जहाँदीदा और नुक्तारस मुत्तफ़िकुल बयान थी कि ऐसी हसीन व खुशरु लड़की आज तक देखने में नही आयी। और जब कभी वो सिगांर करके किसी तक़रीब में जाती थी तो हसीन औरतें बावजूद हसद के उके पैरों तले आँखें बिछाती थी। दूल्हा-दूल्हन दोनों एक-दूसरे के आशिके जार थे। इधर एक साल से दोनों मे खतो-किताब भी होने लगी थी। गो मुंशी बदरीप्रसाद साहब इस चिठियाव क सख्त बरखिलाफ थे मगर अपने बड़े बेटे की सिफारिश से मजबूर रहते जो नौजवान होने के बाइस इन चाहनेवालों के ख़यालात का कुछ अंदाज कर सकता था।
इस शादी का चर्चा अर्से से सारे में था। जब चन्द भलोमानस इकट्ठा बैठते तो बातचीत होने लगती की क्या लाला साहब अपनी बेटी की शादी उस ईसाई से करेगे? क्या दूसरा घर नहीं है। मगर जब उनके बराबरवालो घरानों को गिनते तो मायूस हो जाते। अब शादी के दिन बहुत करब आ गये थे। लाल साहब ने अमृतराय को मजबूर किया था अब मैं कुछ दम का और मेहमान हूँ, मेरे जीते-जी तुम इस जवाहर को अपने कब्जें में कर लो। अमृतराय ने भी मुस्तैदी जाहिर की थी, गो ये वादा करा लिया था। कि मैं बेमानी रस्मियात में से एक भी न अदा करुँग। लाला साहब ने तूअन व करहन इस बात को भी मुजूर कर लिया था। तैयारियाँ हो रही थीं। दफ़अतन आज लाला साहब को मोनबर खबर मिली कि अमृतराय ईसाई हो गया है और किसी मेम से शादी यिका चाहता हैं।
जैसा किसी हरे-भरे दरख्त पर बिजली गिर पड़ी, यही हाल लाला साहब का हुआ। पीरानासाली की वजह से आज़ा मुज़महिल हो रहे थे ये ख़बर मिली तो उनके दिल पर ऐसी चोट लगी। कि सदमे को बर्दाश्त न कर सके और पछाड़ा खाकर गिर पड़े। उनका बेहोश होना था कि सारा भीतर-बाहर एक हो गया। तमाम नौकर-चाकर, खेश-ओ-अकरिब इधर-उधर से आकर इकट्ठे हो गये। क्या हुआ। क्या हुआ? अब हर शख्स कहता फिरता है कि अमृतराय ईसाई हो है, उसी सदमे से लाला साहब की ये हालत हो गयी है। बाहर से दम के दम में अन्दर ख़बर हो गयी। लाला बदरीप्रसाद की बीवी बेचारी अरसे से बीमार थीं और उन्हीं का इसरार था कि बेटी की शादी जहाँ तक जल्द हा जाए अच्छा है। गो पुराने ख़यालात की औरत थीं और शादी-ब्याह के तमाम मरासिम और बेटी की हया व शर्म के पुराने ख़यालात उनके दिल में भरे हुए थे, मगर जब से उन्होंने अमृतराय को एक बार सहन में देख लिया था उसी वक्त़ से उनकी ये धुन सवार थी कि मेरी बेटी की शादी हो तो उन्हीं से हो। बेचारी बैठी हुई अपना प्यारी बेटी से बातें कर रही थी कि दफ़अतन बाहर से यह खबर पहुँची। सुनते ही तो माँ के तो होश उड़ गये। वो बेचारी अमृतराय को अपना दमाद समझने लगी थी। और कुछ तो न हो सका अपनी बेटी को गले लगाकर ज़ार-ज़ार रोने लगी और प्रेमा भी बावजूद हज़ार के जब्द न कर सकी। हाय, उसके बरसों के अरमान इकबारगी ख़ाक में मिल गये उसको रोने की ताब न थी। एक हौलदिल-सा हो गया। अपनी मुँह से सिर्फ इतना निकाला-नारायण, कैसे जिऊँगी यह कहते—कहते उसके भी होश जाते रहे। तमाम घर की लौंडियाँ इकट्ठी हो गयीं। पंखा झला जाने लगा। अमृतराय की फ़र्जी हिमाक़त पर भीतर—बाहर अफ़सोस किया जा राह था। प्रेमा के भाई साहब को इस बात का इकबारगी यक़ीन न हुआ, मगर चूँकि ये बात बाबू दाननाथ की ज़बानी सुनी थी और दाननाथ की बातों को हमेशा से सच मानते आये थे, शक का कोई मौका न रह गया। हाँ इतना अलबत्ता हुआ कि जरा से वाकये ने हज़ारों ज़बानों पर जारी होकर और ही सूरत अख्तियार कर ली थी। दाननाथ ने सिर्फ इतना कहा था कि बाबू अमृतराय की नियत कुछ डॉँवाडोल मालूम होती है। वो रिफार्म की तरफ झुके हुए हैं। इसकी एक सादी-सी बात को लाला बदरीप्रसाद ने ईसाइत समझ लिया था और घर-भर में इसी पर कोहराम मचा हुआ था।
जब इस हादसे की खबर मुहल्ले में पहुँची तो हमदर्दी के लिहाज़से बहुत सी औरतें इकट्ठी हो गयीं मगर किसी से कोई इलाज न बन पड़ा। दफ़अतन एक नौजवान औरत आती हुई दिखायी दी। उसको देखते ही सारी औरतों ने गुल मचाया—लो, पूर्णा आ गयी। अब बच्ची बहुत जल्द होश मे आयी जाती है।
पूर्णा एक ब्रह्मणी थी। बरस बीस एक का सिन था। उसकी शादी बंतकुमार से हुई थी जो किसी अंग्रेजी दफ्तर में क्लर्क थे। दोनों मियाँ-बीवी पड़ोसी ही में रहते थे और दस बजे दिन को जब पंडित जी दफ्तर चले जाते तो पूर्णा तनहाई से घरबराकर प्रेमा के पास चली आती और दोनों में राज़ों-नियाज़ की बातें शाम तक हुआ करतीं। चुनांचे दोनों सखियों में हद दर्जें की मुहब्बत हो गयी थी। पूर्णा गो एक ग़रीब घराने की लड़की थी और शादी भी एक मामूली जगह में हुई थी मगर फ़ितरतन निहायत सलीक़ामन्द, जूद-संजीदा-मिज़ाज और हरदिल अज़ीज औरत थी। उसने आते ही तमाम औरतों से कहा—हट जाओ, अभी दम के दम में उनको होश आया जाता है। मजमा हटाकर उसने फ़ौरन प्रेमा को अतरियात सुँघायें, केवड़े और गुलाब का छींटा मुँह पर दिलाया, आहिस्ता-आहिस्ता उसके तलवे सहलाये। सारी खिड़कियाँ खुलवा दीं। जब दिमाग पर सर्दी पहुँची तो प्रेमा ने आँखें खोल दीं और इशारे से कहा—तुम लोग हट जाओ.मैं अचछी हूँ।
औरतों के जानमें जान आयी। सब अमृतराज कोकोसती और प्रेमा के सोहाग बढने की दुआ करती अपने-अपने घरकोसिधारीं। सिर्फ पूर्णा रह गयी। दोनों सहेलियों में बातें होने लगी ।
पूर्णा –प्यारी प्रेमा, आँखें खोलो ये क्या गत बना रक्खी है ?
प्रेमानेनिहायत गिरी हुई आबाज में जवाब दिया-हाय सखी.मेरें तो सब अरमान खाक में मिल गये ।
पूर्णा –प्यारी ऐसी बातें न करो, तुम जरा उठ तो बैठो। ये अब बताओ तुमको ये खबर कैसी मिली ।
प्रेमा- कछ न पूछो सखी, मैं बड़ी बदकिस्मत हूँ (रोकर) हाय, दिल भर आता है, मैं कैसे जिऊँगी ?
पूर्णा –प्यारी, जरा दिलको ढाढ़स दो । मैं अभी सब पता लगाये देती हूँ। बाबु अमृतरय के निस्बत सजो कुछ कहा गया है वोसब झूठ है, किसी अनदेख ने यह पाखण्ड़ फैलाया है।
प्रेमा-सखी तुम्हारें मुँह में घी शक्कर ? तुम्हारी बातें सब सच हों, मगर हाय, कोई मुझें उस जालिम से एक दम के लिये मिला दे । हाँ सखी, एक दम के लिए उस कठकलेजे को पा जाऊँ तों मेरी जिन्दिगी सुफल हो जाए फिर मुझे मरने का अफसोस न रहे।
पूर्णा-प्यारी, ये क्या बहकी –बहकी बातें करती हो। बाबू अमृतराय ने हरगिज ऐसा न किया होगा। मुमकिन नहीं कि वो तुम्हारी मुहब्बत न करें। मैं उनको खूब जानती हूँ । मैने अपने घरके लोगों को बार-2कहते हुए सुनाहै कि अम्रतराय को अगर दुनिया में किसी से मुहब्बत है तो प्रेमा से ।
प्रेमा- प्यारी, अब इन बातों पर विश्वास नहीं आता । मैं कैसे जानूँ कि सउनको मुझसे मुहब्बत है। आज चार बरस हो गये, हाय मुझे तो एक एक दिन काटना दूभर हो जाता है और वहाँ खबर ही नहीं होती । अगरमें खुद मुख्यतार होती तो अब तक हमारा रच गया होता । बर्ना उनको देखो कि सालों से टालते चले आते हैं । प्यारी पूर्णा, मुझे बाज बक्त उनके इस टालमटोल पर ऐसा गुस्सा आता है कि तुमसे क्या कहँ मगर अफसोस, दिल कम्बख्त बेहया है।
यहाँ अभी यही बातें हो रही थीं कि बाबू कमलाप्रसाद (प्रेमा के भाई) कमरे में दाखिल हुए। उनको देखते ही पूर्णा ने भी घूँघट निकाल ली और प्रेमा ने भी झट आँखों से आँसू पोंछ लिये। कमलाप्रसाद ने आते ही –प्रेमा तुमेभी कैसी नादान हो सय। ऐसी बातों पर तुमको यकायक यकीन क्योंकर आ गया?
इतना सुनना था कि प्रेमा का चेहरा बश्शाश हो गया। फर्ते खुशी से आँखे चमकने लगीं और पूर्णा ने भी अहिस्ता से उसकी एक ऊँगली दबायी। अब दोनों मुन्तजिर हो गयीं कि ताजी खबर क्या मिलेगी।
कमलाप्रसाद –बात सिर्फ इतनी थी कि अभी कोई दो घण्टे हुए, बाबू दाननाथ तशरीफ लाये थे। मुझसे और उनसे बातें हो रही थी। असनाए तकरीर में शादी ब्याह का जिक्र छिड़गया तो उन्होने कहा कि मुझे तो बाबू अम्रतराय इरादे इस साल भी मुस्तकिल नहीं मालूम होते हैं। वो शायद रिफार्म पाट्री में दाखिल होनेबाले हैं। बस इतनी सी बात का लोगों ने सबतगड़ बना दिया। लाला जी उधर बेहोश होगर गिर पड़े।अब तक उनके सम्हालूँ कि ससारे घर में ईसाई हो गये, ईसाई हो गये कागुल मच गया। ईसाईहोना क्या कोई दिल्लगी है? औरफिर उनको जरुरत ही क्या है ईसाई होने की? पूजा-पाठ वो करतेही नहीं, शराबव कवाब से उनको कतई नफरत है नहीं हौ तो कुछ यूँही सी रगबत है। बँगले में रहते ही हैं, बावर्ची का पकाया खाते ही है, छूत –विचार मानते ही नहीं तो अब उनको कुत्ते ने काटा है कि खामखाई ईसाई होकर नक्कूक बनें। ऐसी बेसिर –पैर की बातों पर यकीन नहीं करना चाहिये। लो, अब रंज-कुलफत को धो डालों। हँसी-खुशी बात चीत करो। मुझे तम्हारें इसरोने –धोने से सख्त अफसोस हुआ। येकहकर बाबू कमला प्रसाद बाहर चले गये और पूर्णा ने हँस कर कहा –सुना कुछ?कहती थी कि ये सब लोगों ने पाखंड फैलाया है, लो अब मुँह मीठा कराओ। प्रेमा ने फर्ते –मसर्रत से पूर्णा को सीने से लगाकर खूब दबाया, उसके रुखसारों के बोसे लिये और बोली –मुँह मीठा हुआ या और लोगीं ?
पूर्णा – इन मिठाईयों से बाबू अमृतराय का मुँह मीठा होगा। मगर सखी, इस मनहूस खबर ने तूम्हारे थोड़ी देर तक परेशान किया तो क्या, तुम्हारी कलई खुल गयी। सारे मुहल्ले में तुम्हारे बेहोश हो जाने की खबरें उड रहीं हैं और नहीं मालूम सउस में क्या क्या काट-छॉँट की गयी है । क्यूँ अब तो न लोगीं दून की । अब आज ही मैं अम्रतराय को सब बातें लिख भेजती हूँ । देखो केसा मजा आता है।
प्रेमा- (शर्माकर) अच्छा रहने दीलिए ये सब दिल्लगी। ईश्वर जाने अगर तुमने आज की कोई बात कही तोफिर तुमसे कभी न बोलूँगी ।
पूर्णा –बला से न बोलोगी, कुछ मैं तुम्हारी आशिक तो नही बस इतना ही लिख दूँगी कि प्रेमा..
प्रेमा-(बात काटकर) अच्छा लिखियेगा तो देखूँगी । पण्डिकत जी से कहकर वह दुर्गत कराऊँगी कि सारी शराशरत भूल जाओ। पण्डित जी ने तुमको शोख बनार रक्खा है बर्ना तुम मेरी बीहन होतीं तो खूब ठीक बनाती।
अभी दोनों सखियाँ जी भरकर खुश न होने पायी थीं कि आसमान ने फिर बेवफाई की। बाबू कमलाप्रसाद की बीवी अपनी ननद से खुदा बास्ते को जला करती है। अपने सास ससुर का हत्ता कि शोहर से भी नाराज रहतीं कि प्रेमा में कौन से चाँद लगे हैं कि सारा कुनबा उन पर फिदा होनेको तैयार है। मुझ्में और उनमें फर्क ही क्या है? यहीं न कि वह वहुत गोरी है और मैं उतनी गोरी नहीं हूँ । शक्ल –ओ सूरत मेरी उनसे खराब नहीं। हाँ मैं पढी –लिखी नहीं हूँ क्या मुझे नौकरी-चाकरी करना है । और न मुझमें कस्बियों के से कपड़ पहनने की आदत है, ऐसी बेगैरत लड़की, अभी शादी नहीं हुई मगर आपस में चिटठी –पत्तर होता है, तस्वीरें जाती हैं तोहफे आते हैं, हरजाइयों में भी ऐसी बेशर्मी न होगीं और ऐसी ही कुलवन्ती को सारा कुनबा प्यार करता है, सब अंधे हो गये हैं ।
इन्हीं असबाब से वो गरीब प्रेम से जला करती थीं। बोलती थीं तो रंजन ।मगर प्रेमा अपनी खुशमिजाजी से उनकीबातों का ध्यान में नहीं लाती थी । हत्तुलवसा उनको खुश रख्नने की कोशिश करती थी। आज जब उसने सुना कि अमृतराय ईसाई हो गये हैं तो जामे में फूली न समयी। बाबू कमलाप्रसाद ज्यूँ ही घर में आये उसने उनसे सच्ची हमदर्दी जाहिर की। बाबू साहब बेचारे बीवी पर शैदा थे। रोज ताने सुनते थे, मगर सब बर्दाश्त करते थे। बीवी की जबान से हमदर्दाना बातचीत सुनी तो खुल गये। तमाम वकाया जो कुछ दाननाथ से सुना था, बेकम – ओ कास्त बयान कर दिया। उस बेचारे को मालूम न था, कि मैं इस वक्त बड़ी गलती कर रहा हूँ। चुनांचे वह अपनी बहन की तसफकी करके बाहर आये तो सबसेपहला काम जो उन्होंने किया वो ये था किबाबू अमृतराय से मुलाकात करके उनका इंदिया लें। वो तो उधर रवाना हुऐ इधर उनकी बीवी साहबा खरामा –खरामा मुस्कराती हुई प्रेमा के कमरे में आयीं और मुस्कराकर बोलीं –क्यों प्रेमा, आज तो बात फूट गयी।
प्रेमा ने यह सुनकर शर्माकर सर झुका लिया, मगर पूर्णा बोली-सारा भांडा फूट गया । ऐसी भी कि क्या कोई लड़की, मर्दो पर फिसले
प्रेमा ने लजाते हुए जबाब दिया-जाओ तुम लोगों की बला से ? मुझसे मत उलझो।
भावज –(जरा संजीदगी से) नहीं –नहीं दिल्लगी की बात नहीं है। मर्दुए हमेशा से कठ कलेजे होते हैं, उनके दिल में मुहब्बत होती ही नही।खनका जरासा सर धमके तो हम बेचारियाँ खाना-पीना त्याग देती हैं । मगर हम मर ही क्यूँ न जायें उनकों जरा भी परवाह नहीं होती । सच है मर्द का कलेजा काठ का?
पूर्णा ने जवाब दिया – भाभी तुम बहुत ठीक कहती हो। मर्द सचमुच कठकलेजे होते हैं। मेरे ही यहाँ देखो, महीने में कम दस –बारह दिन उसमुए साहब के साथ दौरे पर रहते हैं। मैं तो अकेले सुनसान घरमें पड़े-2 कुढ़ा करती हूँ वहाँ कुछ खबर ही नहीं होती । पूँछती हूँ तो कहते हैं रोना-गाना औरतों का काम ही हैं हम रोयें – गायें तो दुनिया का काम कैसे चले।
भाभी – और क्या। गोया दुनिया अकेले मर्दो ही के थामे तो थमी है, मेरा बस चले तो इन मर्दो की तरफ आँख उठाकर भी न देखूँ । अब आज ही देखो, बाबू अमृतराय की निस्बत जरा सी बात फैल गयी तो रानी ने अपनी क्या गत बना डाली। (मुस्कराकर)इनकी मुहब्बत कातो ये हाल है और वहाँ चार वरस से शादी के लिए हीला-हवाला करते चले जाते हैं। रानी खफा न होना, तुम्हारे खत जातेहैं, मगर सुनती हूँ वहाँ से शायद ही किसी खत का जबाव आता है ।ऐसे आदमी से कोई क्या मुहब्बतस करे। मेरा तो उनसे जी जलता है । क्या किसी को अपनी लडकी भारी पड़ी है कि कुएँ में फेंक दें । बला से कोई बड़ा मालदार है बड़ा खुबसूरत है, बड़ा इल्मवाला है जब हमसे मुहब्बत ही न करे, तो क्या हम उसके धन दौलत को लकर चाटें। दुनियामें एक सेस एक लाल पड़े हैं और प्रेमा जैसी दुल्हन के वास्ते दूल्हों का काल प्रेम को भाभी की यह बातें निहायत सनागवार गुजरीं। मगर पासे अदब से कुछ न वोल सकी। हाँ पूर्णा ने जवाब दिया– नहीं भाभी, तुम बाबू अमृतराय पर बडा जुल्म कर रही हो। मुझे खूब मालूम है कि उनको प्रेम से सच्ची मुहब्बत है । उनमें और दूसरे मर्दो में बड़ा फर्क्र है।
भाभी –पूर्णा, अब मुँह न खुलवाओ ? मुहब्बत नहीं सब करते है: माना कि बड़े अंग्रेजीदाँ है, कमसिनी में शादी, करनी पसंद नहीं करते । मगर अब तो दोनों मेंसे कोई कमसिन नहीं हैं। अब क्या बूढ़े होकर ब्याह करेंगे । असल बात ये है कि शादी करने की नियत ही नहीं है। टालमटोल से काम निकालना चाहते है। । यही ब्याह के लच्छन हैं कि प्रेम ने जो तस्वीरें भेजी थी वो कल पुर्जे करके पैरों तले कुचल डाली मैं तो ऐसे आदमी का मुँह न देखूँ ।
प्रेमा ने अपनी भावज के मुस्कराकर बात करते ही समझ लिया था कि खैरियत नहीं है। जब यह मुस्कराती है तो जरुर कोई न कोई आग लगाती हैं। वोउनकी गुफ्तगू का अंदाज देखकर सहमी जाती थी कि नारायण खैर की जो । भाभी की बात तीर की तरह सीने में चुभ गयी। हक्का–बक्का होकर उसकी तरफ ताकने लगी। मगर पूर्णा को बिलकुल यकीन न आया, बोली-ये क्या कहती हो भाभी भाइया अभी आये थे, उन्हौने इसका कुछ भी जिक्र-मजबूर नहीं किया। पहली बात की तरह ये भी झूठी होगी ।मुझे तो यकीन नहीं आता कि उन्हौंने अपनी प्रेमा की तस्वीर के साथ ऐसा सलुक किया होगा।
भाभी– तुम्हें यकीन ही न आये तो इसका क्या इलाज सय।ये बात तुम्हारे भइया खुद मुझसे कह रहे थे। और भी शक रफा करने के लिए वो बाबू अमृतराय के यहाँ गये हुए हैं। अगर तूमको अब सभी यकीन न आये तो अपनी तस्वीर मॉंग भेजो, देखों क्या जवाब देते हैं। अगर ये खबर झूठी होगी तो वो जरुर तसवीरें भेज देंगे, या कम-अज-कम इतना तो कहेंगे कि ये बात झूठी है।
पूर्णा खामोश हो गयी और प्रेमा के मुँह से आहिस्ता से एक आह निकली और उसकी आँखों से आँसुओं की झड़िया बहने लगीं। भाभी साहबा के चेहरे पर ननद की यह हालत देखकर शगुफ्तगी नमूदार हुई। वो वहाँ से उठी और पूर्णा से कहकर’जरा तुम यहीं रहना, मैं अभी आयी ‘अपने कमरे में चली आयीं। आइनें में अपना चेहरा देखा—‘लोग कहते हैं प्रेमा खूबसूरत है। देखूँ एक हफ्ते में वो खूबसूरती कहाँ जाती है. जब यह जख्म भरे कोई दूसरा तीर तेज रक्खूँ।

तीसरा बाब-नाकामी

बाबू अमृतराय रात-भर करवटें बदलते रहे । ज्यूँ-2 वह अपने इरादों और नये होसलों पर गौर करते त्यूँ-2 उनका दिल और मजबूत होता जाता। रौशन पहलुओं पर गौर करने के बाद जब उन्हौंने तरीक पहलूओं को सोचना शुरु किया तो तबीयत जरा हिचकी प्रेमा से ताल्लुक टूट जाने का अंदेशा हुआ मगर जब उन्हौंने सोचा कि मैं अपनी कौम के लिये अपने अरमानों का खूँन नहीं कर सकता तो ये अंदेशा भी रफा हो गया । रात तो किसी तरह काटी, सुबह होते ही हाजरी खा, कपड़े पहन और बाइसिकिलपरसवार हो अपने दोस्तों की तरफ रुख किया। पहले पहल मिस्टर हजारीलाल बी.ए.एल.एल.बी.के यहाँ दाखिल हुए। वकील साहब निहायत आला ख्यालात केआदमी थे और रिफार्म की को शिशों से बड़ी हमदर्दी रखते थे। उन्हौंने जब अमृतराय के इरादे और उन पर कारबन्द होनेकी तजवीजें सुनीं तों बड़े खुश हुए और फरमाया-आप मेरी जानिब से मुतमइन रहिए और मुझे अपना सच्चा हमदर्द समझिये। मुझे निहायत मसर्रत हुई कि हमारे शहरमें आप जैसे काबिल शख्स ने इस बारे गरॉँ को अपने जिम्मे लिया। आप जो खिदमद मेरे सपुर्द करें। मुझे उसके बजा लाने में मुतलक पसोपेश न होगा बल्कि मैं उसको बाइसे फख समझूँगा। अमृतराय बकीलसाहब की बातों पर लटट हो गये, तहे दिल से उनका शुक्रिया अदा किया और खुश होकर कहा कि अच्छा शुगून हुआ। इस शहर में एक इसलाही अंजुम न कायम करने की ख्वाहिश जाहिर की, वकील साहब ने इसको पंसद किया और मुआविनत का सच्चा बादा फरमाया और अमृतराय खुश –खुश दाननाथ के दौलतखाने पर जा धमके। दाननाथ जैसा हम पहले कह चुके हैं, अमृतराय सच्चे दोस्तों में थे। उनको देखते ही बड़ी गर्मजोशी से मुसाफा किया और पूछा-क्यों जनाब क्या इरादें हैं ?
अमृतराय ने संजीदगी से जवाब दिया –इरादे में आप पर सब जाहिर कर चुका हूँ। और आप जानते हैं कि में ढुलमुलयकीन आदमी नहीं हूँ। इस वक्त में आपकी खिदमतमें ये पूछने आया हूँ कि इस कारे खैर में आप मेरी मदद कर सकते हैं या नहीं।
दाननाथ की उम्मीदबरारियों के लिए जरुरी था कि वो इस तहरीक में शरीकन हों वर्ना लाला बदरीप्रसाद फौरन उससे बदगुमान हो जायेंगे क्योंकि उसके पास न वो खानदानी अजमत थी न वो जाह –ओ- नमव्वुल जिस अमृतराय को फर्क था । इसलिये उसने सोचकर जवाब दिया –अमृतरय, तुम जानते हो कि तुम्हारे हर काम से मुझाको हमदर्दी है, मगर बात ये है कि अभी मेरा शरीक होना मेरे लिए सख्त मुजिर होगा। मैं रुपये और पैसे से मदद करने के लिये तैयार हूँ मगर पोशीदा तौर पर। अभी इस तहरीक में एलानिया शरीक होकर नुकसान उठाना मुनसिब नहीं समझता, खूबसूरत इस वजह से कि मेरी शिरकत से इस अंजुमन को जरा भी तकवियत पहूँचने की उम्मींद नहीं है।
बाबू अमृतराय ने उनकी सलाह पसन्द की और उनसे इमदाद का बादा लेकर अपनी कामयाबियों पर खुश होते हुऐ मिस्टर आर.बी.शर्मा के दौलतखाने पर पहुँचे। साहिबे मौसूफबिरहमन थे और रुतबए आलाओ अजमत के एकबार से शहर के मुअज्तिजीन में समझे जाते थे। उनके मजहबी और इखलाकी ख्यालात से अभी तक अमृतराय को जरा भी वाकफियत न थी मगर जब उन्हौंने इस अंजुमन की तजवीज पेश की तो पंडितजी उछल पड़े और फरमाया –मिस्टर अमृतराय मुझे तुमहारे खयालात से निहायत मसर्रत हुई। मैं खुद इसी तरह की एक तजवीज बहुत जल्द पेश करने था। आपने मुझे फुर्सत दे दी और मुझे कामिल उम्मीद है कि आप इस कारे अंजीम को मेरी निस्बत में बेहतर तरीके पर अंजाम देंगे। मुझे इस अंजुन का मेम्बर तसब्बुर किजियें।
बाबू अमृतराय को पंडितजी के यहाँ ऐसी बारोनक कामयाबी की उम्मीद न थी। उन्हौंने सोचा था कि पंडित जी अगर उसूलन इख्तलाफ न करेंगे तो दीमुलफुर्सती बगैरह का जरुर उज्ज करेंगे मगर पंडितजी की गर्म हमदर्दी वदिलचस्पी ने उनका हौसला और भी बढाया। अमृतराय यहाँ से निकले तो वह अपनी ही नजरों में दो इंच ऊँचे मालूम होते थे। यहाँ से सीधे कामयाबी के जोम में ऐंडते हुए एन.बी. अगरवाला साहब की खिदमत में हाजिर हुए। मिस्टर अगरवाला अलावा अच्छी अँग्रेजी इस्तेबाद रखने के जबाने संस्कृत के भी जैयद आलाम थे और खास –ओ-आम में उनकी बड़ी इज्जत थी। उन्हौंने भी अमृमराय का नवावाप्ज्ञ से सच्ची दिलसोजी जाहिर की। अजगरज नौ बजते बजते अमृतराय सारे शहर के सरबर आर्वुदा व नयी रोशनीबाले असहाब से मुलाकात कर आये और कोई ऐसा न था जिसने उनके अगराज से दिलचस्पी न जतायी हो या मदद देने का वादा न किया हो।
तीन बजे के वक्त मिस्टर अमृतराय के बँगले पर एक ऐसे जलसे के इनएकाद की तैयारियाँ होने लगी जो अजुमंन को बाकायदा तौर पर मुन्जबित करे।उसके इन्सराम केलिए दस्तूर –उल-अलम तैयार करे औरउसके अगराज ओ मकासिद पबलिक के रुबरु पेश करे ।कामयाबी केजोश में खूब तैयारियाँ हुई फर्श –फुरुश लगाये गये, झाड़ –फानूस, मेजें व कुर्सियाँ सजाकर धरी गयीं। हाजिरीन के खुर्द -ओ –नोश का भी इंतजाम किया गया और इन तरददुदात से फुर्सत पाकर अमृतराय उनके मुंतजिर हो बैठे । दो बज गये मगर कोई सा हब के पास तसरीफ न लाये। चार बजे मगर किसी की सवारी नहीं आयी हाँ इंजीनियर साहब के पास एक नौकर यह संदेसा लेकर आया –इस बक्त मैं हाजिरी से कासिर हूँ। अब तो अममृतराय का इन्तिशार बढ़ने लगा। ज्यूँ –ज्यूँ देर होती थी उनका दिल बैठा जाता था कि कहीं कोई साहब न आये तो मेरी सख्त तजहीक होगी और चारों तरफ नादिम होना पड़ेगा । आखिर इंतजाम करते करते पाँच बज गये और अभी तक कोई साहब नजर नहीं आये । तब तो अमृतराय कोयह कामिल यकीनहो गया कि हजरात ने मुझे धोका दिया । मुंशी गुलजारी लाल से उनको बड़ी उम्मीद थी । चुनांचे अपना आदमी उनके पास दौड़ाया । एक लम्हे के बाद मालूम हुआ कि वह नहीं हैं पोलो खेलने सतशरीफ ले गये। इससवक्त तक छै बजे और जब इसवक्कत तक भी कोई साहब नआयेतो अमृतराय निहायत दिलशिकस्ता हो गये । कुछ गुस्सा, कुछ नाकामी कुछ अपनी तौहीन और कुछहमदर्दो कीसर्दमेही ने उनको ऐसा पारीशान किया कि सरे –शाम चारपाई पर लैट रहे और लगे सोचने –कहीं मुझको नादिम तो न होना पड़ेगा । अफसोस मुझे इन हजरात सेऐसी उम्मीदें न थी । अगर नआना था मुझसे साफ साफ कह सदिया होता। अब कल तमाम शहर में ये बात समशहूर हो जायेगी कि अमृतराय तमाम रईसों केघर दौड़ते फिरे मगर कोई उनके दरवाजे पर बातपूछने को भी न गया । मैं जलसे की तजवीजें न करता, मुफ्त की नदामता तो न उठानी पड़ती । सबेचारे इन्ही तफक्कुरात में गोते खाते थै । अभी नौजवान आदमी थे और गो बात के धनी और धुन के पूरे थे मगर अभी तक पब्लिक की सर्दमही और मुआविनीन की नाहमदर्दी का तर्जुवा न हूआ था और यह तजुर्वे कारी जो खुदा जाने कितने पूरजोश दिलों को सर्द कर देती है उनके इरादों को भी डेगमगाने लगी । मगर ये बुजदिली के खयालात महज एक दम के लिए आ गये थे । जब जरा आज की नाकामी का अफसोस कम हुआ तो इरादों ने और भी मुस्तकिल सूरत पकड़ी । अपने दिल को समझाया –अमृतराय, तू इन जरा –जरा सी बातों से मायूस या दिलशिकस्ता मत हो । जब तूने सलीब उठायी तो नहीं मालूम तुझको क्या –क्या कुर्बानिया करनी पडेगीं । अगर तेरी हिम्मत यही रही तो कोमी काम तुझसे हो चुके । दिल को मजबूत कर और कमरे –हिम्मतको चुस्त बॉँध।
यह मुसम्मम इरादा करके अमृतराय अपने कमरे से निकले, सिगार लिया और बाग की रविशों में टहलने लगे । चाँदनी ठिटकी हुई थी. हवाके धीरे धीरे झोंके आ रहे थे, सब्जे की मलमली फर्श पर बैठ गये और अपने इरादो के पूरा होने की तरकीबें सोचने लगे । मगर वक्त ऐसा सुहाना था और मंजूर ऐसा तअश्शुकखेज कि बेअख्तियार खयाल प्रेमाकी तरफ जा पहुँचा। अपनी जेब ससे तसवीर के पूर्जे निकाल लिये और चाँदनी रात में उसे बड़ी देर तक गौर से देखते रहे। हाय-हाय ओ नाकाम अमृतराय, तूक्योंकर जब्त करेगा। हॉ जिसके फिराक में तूले से चार बरस रो रोकर काटें हैं, उसी के फिराक में सारी जिन्दगी क्योंकर काटेगा। हाय –हाय वह गरीबजबतेरे इरादों का हाल सुनेगी तो क्या कहेगी। उसको तुझसे मुहब्बत है । कंम्बख्त वहतुझ् परजान देती है, देखता नहीं कि उसके उसके खुतूत जोश मुहब्बत से कैसे भरे होते हैं । तब क्या वह तुझे बेवफा जालिम मक्का न बनायेगी । तू चाहता है कि अमृतराय सब से भी भला बने अभी कुछ नहीं बिगड़ा । इन सब फिजूल खयालात को छोड़ो, अपने अरमानों को खाक में न मिलाओ। दुनिया में तुम्हारे जैसे बहुत से पुरजोश नौजवान मौजूद हैं और तुम्हाराहोना नहोना दोनों बराबर है । लाला बदरीप्रसाद मुँह खोले बैठे हैं शादी करलो प्यारी प्रेमा के साथ जिन्दगी के मजे लूटो ।(बेकरार होकर)मैं भी कैसा नादान हूँ । इस तसवीर ने क्या बिगडा था जो खामखाह इसको फाड़ ड़ाला। ईश्वर करे अभी प्रेम यह बात न जानती हो । घबराकर पूछा –किसका खतसहै? नौकर ने जवाब दिया- लाला बदरीप्रसाद का आदमी लाया है।
अमृतराय ने काँपते हुऐ हाथों से खत लिया तो यह तहरीर थी –
बमुलाहिजाए जनाब मुंशी अमृतराय साहब, जाद नवाजिशोहू-
हमको मोतबार जरायेसेखबर मिली है कि अब आप सनातन धर्म से मुनहरिफ होकर उस ईसाई जमात में दाखिल हो गये हैं जिसको गलती से इसलाहे तमदुदुन से मंससूब करते हैं । हमको हमेशा से यकीन है कि हमारा तर्जे मुआशरत बेद मुकददस के अहकाम पर मबनी हैऔर उसमें रददोबदल तगैयुर ओ तबददुल करने वाले अहसाब हमसे
कोई ताल्लुक पैदा नहीं कर सकते ।
बदरीप्रसाद

इस मुख्तसर शुक्के को अमृतराय ने दो बार पढ़ा और उनके दिले अब एक जंग शुरु हो गयी । नफ्सानियत कहती थी कि ऐसी नाजनीन को हाथ से न जाने दो अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। और जोशे कौमी कहता था कि जो इरादा किया है उस पर कायम रहो। जिंदगी चंदरोज है । उसकों दूसरों पर कर देने से बेहतर कोई तरीका उसका गुजारने का नहीं है । कभी एक फरीक गालिबआता था कभी दूसरा फरीक। लड़ाई का फैसला भी दो हुरुफ लिखने पर था । आखिर बहुत रददो कद के बाद अमृतराय ने बाक्स से कागज निकाला और उस पर जवाब यों लिखा हुब्बे कोमी नेफ्स पर गलबा पालिया था।
किबला ओ काबा, जनाब मुंशी बदरीप्रसाद साहब,
दाम इगबालहू
इफ्तखारनामे ने सादिर होकर मुम्ताज किया । मुझको सख्त अफसोस है कि आपने उस उम्मीद को जो मुददत से बँधी हुई थी यकायक मुन्कता कर दिया । मगर चूँकि मुझको यकीनद है कि हमारा तर्जे मुआशरत अहकामे बेद से मुतनाकिस है और जिसकी गलती से सनातन धर्म कहते हैं वो पुराने और बोसीदा खयाल के लोगों की जमात है जो मजहब के पर्दे मे जाती फलाह ढूँढ़ते हैं । इसलिय हमको मजबूरन उससे किनाराकाश होना पड़ा । अगर इस हैसियत में आप मुझ्को फर्जन्दी में कुबूल फरमाया तो खैर बर्ना मुझे अपनी बदकिस्मती पर अफसोस भी न हो।
नियाजमन्द
अमृतराय
कौमी जज्बात के जोश में ये खत लिख डाला और मुलाजिम को देकर रवाना किया। मगर लब चाँदनी में देर तक बैठे और उसकी कशिश ने दिल में जज्बए मुहब्बत बढाया तो उस नुकसाने अजीम का अन्दाजा हुआ जो उन्हौंने अभी अभी उठाया था । हाय, मैने अपनी जिन्दगी, अपने सारे अरमान और दूनियाकी सबसे प्यारी चीज को खैरबाद कह दिया।

चौथा बाब-जवानामर्ग

वक्त हवा की तरह उड़ता चला जाता है । एक महीना गुजर गया। जाड़े ने रुखसती सलाम किया और गर्मी का पेशखीमा होली सआ मौजूद हुई । इस असना में अमृतराय नेदो-तीन जलसे किये औरगो हाजरीन की तादाद किसी बार दो –तीन से ज्यादा न थी मगर अब उन्हौंने अहद कर लिया था कि ख्वाह कोई आये या न आये मैं हफ्तेवार जलसे वक्ते मुअययना पर जरुर किया करुँगा।
जलसों के अलावा उन्होंने देहातों मेंजा-बा-जा सलीस हिन्दी में तक़रीर करना शुरु की और अख़बारों में भी इसलाहे-तमद्दुन पर मज़ामीन रवाना किय। उनका तो यह मशगला था, बेचारी प्रेमा का हाल निहायत अबतर था। जिस दिन से उनकी आख़िरी चिट्ठी उसके पास पहुँची थी उसी दिन से वह कैदिए बिस्तर हो रही थी। हर-हर घड़ी रोने से काम था। बेचारी पूर्णा सिरहाने बैठी समझाया करती मगर प्रेमा को मुतलक चैन न आता। व अमृतराय की तस्वीर को घंटों ख़ामोश देखा करती। कभी-कभी उसके जी में आता कि अमृतराय ने जो गत मेरी तसवीर की वही गत मैं उनकी तसवीर की करुँ। मगर फिर यह ख्याल पलटा खा जाता। वह तसवीर को आँखों से लगा लेती, उसका बोसा लेती और उसे सीने से चिमटा लेती। उसके दिमाग में अब कुछ ख़लल आ गया था। रात को घंटों पड़ी अकेली इश्क़-ओ-मुहब्बत की बातें किया करती। जितेन खूतूत अमृतराय ने पहले रवाना किये थे वह उसने अज़ सरे नौ रंगीन कागज पर जली हार्फों मे नक्ल़ कर लिये थे और तबीयत बहुत बेचैन होती तो पूर्णा से वह खुतूत पढ़वाकर सुनती और रोती। हाय, उसने अपने दिल पर ये जुल्म किये मग़र खुद्दारी भी ऐसी निबाही कि जो का हिस्सा था। उसने इस आख़िरी ख़त के बाद अमृतराय को एक ख़त भी न लिखा। घर के लोग उसके इलाज में रुपया ठीकरियों की तरह उड़ा रहे थे मगर कुछ फ़ायदा न होता था। उसकी शादी की बातचीत भी कई जगह से हो रही थी। मुंशी बदरीप्रसाद साहब के जी में बार-बार ये बात आती कि प्रमा को अमृतराय के ब्याह दें मगर शुमातते हमसाया के ख़याल से इरादा पलट देते थे। प्रेमा के साथ-साथ बेचारी पूर्णा भी मरीज बनी हुई थी।
आख़िर होली का दिन आया। शहर में चारों तरफ़ कबीर और होली की आवज़ें आने लगीं। चौतरफ़ा अबीर ओर गुलाल उड़ने लगे। आज का दिन बेचारी प्रेमा के लिए सख्त आज़माइश का था। क्योंकि सबेरेही से कराबतमन्दों के यहाँ से ज़नानी सवारिसयाँ आना शुरु हुई और उसके तूअन ओ करहन पुरतकल्लुफ कपड़े पहन कर मेहमानों की ज़ियाफ़त करना और उनके साथ होली खेलनी पड़ी। मगर हाय, उसके चेहरे से आज वो हसरत बरस रही थी जो इससे पहले कभी नज़र न आयी थी। रह-रहकर उसके कलेजे में कसक पैदा होती, रह-रहकर फ़र्तें इज्तराब से दिल में दर्द उठाता मगर बेचारी बिला ज़बान से उफ़ किये सब कुछ सह रही थी। रोज़ अकेले में रोया करती थीं। जिससे कुछ तसकीन हो जाया करती थी। आज मारे शर्म को रोवे क्योंकर। सबसे बड़ी दिक्कत ये थी कि रोज़ ब रोज़ पूर्णा बैठकर तशफ्फ़ीआमेज़ बातें कर के उसका दिल बहलाया करती। आज वो भी अपनी घर त्योहार मना रही थी।
पूर्णा का मकान पड़ोस में वाक़े था। उसके शौहर बसन्तकुमार एक निहायत हलीम-उल-मिज़ाज मगर शौक़ीन व मुहब्बतपिज़ीर तबीयत के नौजवान थे। हर बात में उसी की बात पर अमल करते। उसको थोड़ा-सा पढ़ाया भी था। अभी शादी हुए दो बरस भी न बीतने पाये थे और ज्यूँ-ज्यूँ दिन गुज़रते थे दोनों की मुहब्बत और ताज़ा होती जाती थी। पूर्णा भी अपनी शौहर की आशिक़े ज़ार थी। अपनी भोली-भोली बातें और अपनी दिलरुबायाना अदाओं से उनका ग़म ग़लत किया करती। जब कभी वह दौरे पर चले जाते तो वो रात भर ज़मीन पर पड़ी करवटें बदलती और रोती। पंडितजी तीस रुपये से ज्यादा मुशहिरेदार न थे मगर पूर्णा इस पर क़ाने थी और अपने को निहायत खुशकिस्मत और ख़याल करती थी। पंडितजी तहसीले ज़रा के लिए बेइन्तहा कोशिशें करते, सिर्फ इसलिए कि पूर्णा को अच्छा से अच्छे कपड़े पहनायें और अच्छे-अच्छे गहनों से आरास्ता करें। पूर्णा हरीस न थी। जब पंडितजी उसको कोई तोहफ़ा देते तो जामें फूली न समाती मगर कभी उसने ख्वाहिशों को पंडितजी से ज़ाहिर नहीं किया था।
हक़ तो ये है कि सच्ची मुहब्बत के मुकाबिले में पहनने-ओढ़ने का शौक कुछ यों ही सा रह गया था। होली का दिन सा आ गया। आज के दिन का क्या पूछना। जिसने साल भर चीथड़ों ही पर बसर किया हो वो आज़-कर्ज़ दाम ढूँढ़कर लाता है और खुशियाँ मानाता है। आज लोग लँगोटी में फाग खेलते है। आज के दिन रंज करना गुनाह है। पंडित बसन्तकुमार की शादी के बाद यह दूसरी होली थी। पहली होली में बेचारे तिहरदस्ती की वज़हसे बीवी की कुछ खातिर न कर सके थे। मगर इस होली के लिए उन्होंने अपनी हैसियत के मुआफिक बड़ी-बड़ी तैयारियाँ की है। सौ-डेढ़ सौ रुपये जो तनख्वाह के अलावा पसीना बहा-बहाकर वसूल किये थे उनसे अपनी प्यारी पूर्णा के लिए एक खूबसूरत कंगन बनवाया था। निहायत नफ़ीस और खुशरंग साड़ियाँ मोल लाये थे। इसके अलावा चन्द दोस्तों की दावत भी की थी और उनके वास्ते कई किस्म के मुरब्बे, अचार, लौज़ियात वग़ैरह मुहैया किये थे। पूर्णा आज मारे खुशी के जामे में फूली न समाती थी। उसकी नज़रों में आज अपने से ज्यादा खूबसूरत दुनिया में कोई औरत नहीं थी। वो बार-बार शौहर की तरफ प्यार भरी निगाहों से देखती और पंडितजी भी उसके सिंगार और फबन पर आज ऐसे शैदा हो रहे थे कि बार-बार घर में आते और उसको गले से लगाते।
कोई दस बजे होंगे कि पंडितजी घर में आये पूर्णा को बुलाकर मुस्कराते हुए बोले-प्यारी, आज तो जी चाहता है तुमको आँखों मे बिठा लूँ।
पूर्णा ने आहिस्ता से एक ठोका देकर और प्यार की निगाहों से देखकर कहा—वह देखो मैं तो पहले से ही बैठी हूँ।
इस अदा पर पंडितजी अज़खुरफ़ता हो गये, झट बीवी को गले से लगाकर प्यार किया। ज़रा और देर हुई तो पूर्णा ने कहा-अब दस बजा चाहते हैं, जरा बैठ जाओ तो तुमको उबटन मल दूँ। देर हो जायगी तो खाने में देर-सबेर होने से सरदर्द हा जायगा।
पंडितजी ने कहा—नहीं-नहीं रहने दो मैं उबटन न लगाऊँगा। लाओ धोती दो, नहा आऊँ।
पूर्णा—वाह, उबटन न मलवायेंगे आज की रीत ही यह है। आकर बैठ जाओ।
पंडितजी—नहीं, तुमको ख़ामका तकलीफ़ होगी और इस वक्त़ गर्मी है, जी नहीं चाहता।
पूर्णा न लपकर शौहर का हाथ पकड़ लिया और चारपाई पर बैठकर उबटन मलने लगी।
पंडित—मगर भई, जरा जल्दी करना। आज मैं गंगाजी नहाने जाया चाहता हूँ।
पूर्णा—अब दोपहर को गंगाजी कहाँ जाओं। महरी पानी लायेगी, यहीं पर नहा लो।
पंडित—नहीं प्यारी अज गंगा में बड़ा लुत्फ़ आयेगा।
पूर्णा—अच्छा तो जरा जल्दी लौट आना, यह नहीं कि इधर-उधर तैरने लगो। नहाते वक्त तुम बहुत दूर तक तैर जाया करते हो।
थोड़ी देर में पंडितजी उबटन मलवा चुके और एक रेशमी धोती, साबुन तौलिया और कमंडल मे लेकर नहाने चले। वह बिउमूम घाट से ज़रा अलग नहाया करते थे। पहुँचते ही नहाने लगे मगर आज ऐसी धीमी-धीमी हवा चल रही थी, पानी ऐस साफ़ और शफ्फाफ था, उसमें हलकोरे ऐसे भले मालूम होते थे और दिल ऐसी उमंगों पर था कि बेअख्तियार जी तैरने पर ललचाया। वह बहुत अच्छे तैराक थे, लगे तैरने। और खुशफ़ेलियाँ करने। दफ़अतन उनको बीच धारे में दो सुर्ख चीज़ बहती नज़र आई। गौर से देखा तो कँवल के फूल थे। दूर से ऐसे खुशनुमा मालुम होता थे कि बसन्तकुमार का जी उन पर लहराया। सोचा, अगर ये मिल जाये तो प्यारी पूर्णा के कानों के लिए झुमका बनाऊँ। लहीम व शहीम आदमी थे, हजारों बार घंटों मुतवातिर तैयार चुके थे। उनको कमिल था कि फूल ला सकता हूँ। दूर से फूल साकित मालूम होते थे, चुनांचे उनकी तरफ़ रुख किया मगर ज्यूँ-ज्यूँ वो तैरते थे फूल बहते जाते थे। बीच में कोई रेत ऐसा न था जिस पर बैठकर दम लेते। फर्ते जोश में उनको ये ख्याल गुजरा अगर आज़ा फूलों तक पहुँचते शलल हो गये तो लूँगा क्योकर। पूरे जोर से तैरना शुरु किया। कभी हाथों से कभी पैरों से ज़ोर मारते-मारते बड़ी मुशकिलों से धारों तक पहुँचे मगर उस वक्त़ तक हाथ-पांव दोनों थक गये थे, हत्ता कि फूलों के लेने के लिए जो हाथ लपकाना चाहा तो वो काबू में न थे। जब तक हाथ फैलाये कि फूल एक-दो क़दम और बहे फिर उनके पीछे चले। आखिर उस वक्त़ फूल हाथ लगे जब कि हाथों में तैरने की ताकत मुतलक न बाकी रही थी। हाय फूल दॉँतों से दबाये सोते से उन्होंने किनारे की तरफ देखा तो एसा मालूम हुआ गयो हज़ारो कोश की मंजिल है। उनका हौसला परस्त हो गया। हाथों मे ज़रा भी ताकत न थी। मालूम होता था कि वह जिस्म में है ही नहीं। हाय, उस वक्त़ बसन्तकुमार के चेहरे पर जो हसरत व बेबसी छायी हुई थी उसको ख़याल करने ही से छाती फटती है। उनको मालूम हुआ कि मैं डूबा जा रहा हूँ। उस वक्त़ प्यारी का ख़याल आया कि वो मेरा इन्तज़ार कर रही होगी। उसकी प्यारी-प्यारी मोहनी सूरत नज़रों के सामने खड़ी हो गयी। उन्होंने चाहा कि चिल्लाऊँ मगर बावजूद कोशिश के ज़बान से आवाज़ न निकली। आँखों से आँसू जारी हो गये और अफ़सोस एक मिनट में गंगामाता ने उनको हमेशा के लिए गोद मे ले लिया।
उधर का हाल सुनिए। पंडित जी चले आने के बाद पूर्णा ने बड़े तकल्लुफ से थालें परसी। एक बर्तन में गुलाल घोली, उसमें दो-चार क़तरे खुशबूयात के टपकाये। पंडित जी के लिए सन्दूक से नये कुर्ते निकाले, टोपी बड़ी खूबी से चुनी। आज पेशानी पर ज़ाफ़रान और चन्दन मलना मुबारक समझा जाता है, चुनांचे उसेन अपने नाजुक-नाजुक हाथों से चन्दन रगड़ा, पान लगाये, मेवे सरौते से कतर-कतर तशतरी में रखे। रात ही का प्रेमा के घर से खुशबूदार कलियाँ लेती आयी थी, उनको तर कपड़े से ढॉँकर रख दिया था, इस वक्त़ खूब खिल गयी थीं। उनकों तागे में गूँथकर ख़ूबसूरत हार तैयार किया। अपने शौहर का इन्तजार करने लगी। उसके अंदाज के मुताबिक़ उस वक्त़ तक पंडित जी को नहाकर आ जा ना चाहिए था। मगर नहीं, अभी कुछ देर नहीं हुई, आते होगे, एक दस मिनट और रास्ता देख लूँ। अब इन्तिशार हुआ। क्या करने लगे। धूप सख्त हो रही है। लौटते वक्त़ नहाया-बेनहाया एक हो जायगा। क्या जने यार दोस्तों से बातें करने लग गये हों। नहीं-नहीं, मैं उनको खूब जानती हूँ, दरिया नहाने जाते है तो तैरने की सूझती है। आज भी तैर रहे होंगे। ये सोचकर उसने कामिल आधा घंटे तक शौहर का और इन्तज़ार किया मगर जब से अब भी न आये तो उसको ज़रा बेचैनी मालूम होने लगी। महरी ने कहा—बिल्लों, जरा दौड़ों तो, जाओ, देखो क्या करने लगे।
महरी बड़ी नेकबखत बीवी थी। हर महीने में बिला माँगे तनख्वाह पाती थी और शायद ही कोई ऐसा दिन जाता था कि पूर्णा उसके साथ कुछ सलूक न करती हो। पस वो उन दोनों को बहुत अज़ीज रखती थी, फ़ौरन लपकी हुई गंगाजी की तरफ़ चली। वहाँ जाकर क्या देखती है कि किनारे पर दो-तीन मल्लाह जमा है। पंडितजी, की धोती-तौलिया वग़ैरह किनारे धरी है। ये देखते ही उसके पैर मन-मन भर के हो गये। दिल धड़-धड़ करने लगा। या नारायण, यह क्या ग़जब हो गया। बदहवासी के आलम में नज़दीक पहुँची तो एक मल्लाह ने कहा-काहे बिल्लो तुम्हारा पंडित नहाये आवा रहेन?
बिल्लो ने कुछ जवाब न दिया। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। सर पीटने लगी। मल्लाहों ने उसको समझाया कि अब रोये पिटे का होत है। उनका चीज बस्त लेव और घर का जावा। बेचारे बड़े भल मनई रहेन।
बेचारी बिल्लो ने पंडितजी की चीज़ेंली’ और रोती-पीटती घर की तरफ़ चली। ज्यूँ-ज्यूँ वो मकान के करीब आती थी त्यूँ-त्यूँ उसके कदम पीछे को हटे जाते थे। हाय नारायण, पूर्णा को कैसे ये ख़बर सुनाऊँ उसकी क्या गत होगी। बिचरिया सब तैयारी किये शौहर का इन्तज़ार कर रही है, ये खबर सुनकर बेचारी की छाती फट जायगी।
इन्हीं ख़यालात में ग़र्क बिल्लों रोती घर में दाख़िल हुई। तमाम चीजें’ ज़मीन पर पटका दी’ और छाती पर दुहत्तड़ मार हाय-हाय करने लगी। ग़रीब पूर्णा आज ऐसी ख़ुश थी कि उसका दिल आज उमंगों और अरमानों से ऐसा भरा हुआ था कि यकाय इस सदमए जाँकह की ख़बर ने पहुँचकर उसको महमूब कर दिया। वह न रायी न चिल्लायी न बेहोश होकर गिरी, जहाँ खड़ी थी वही दो-तीन मिनट तक बेहिस-ओ-हरकत खड़ी रही। यकायक उसके हवास हुए और उसको अपनी हालत का अन्दाज़ करने की क़ाबलियत हुई और तब उसने एक चीख़ मारी और पछाड़ा खाकर गिरने ही को थी कि बिल्लो ने उसको चारपाई पर लिटाकर पंखा झलने लगी। दस-पंद्रह मिनट में पस-पड़ोस की सदहा औरतें अन्दर जमा हो गयीं। बाहर भी बहुत से मर्द इकट्ठा हो गये। तजवीज़ हुई किजाल डलवाया जावे। बाबू कमलाप्रसाद भी तशरीफ़ लोये थे। फ़ौरन पुलिस को इत्तिला करके मदद मँगवयी। प्रेमा का ज्यूँ ही इस हादसए रुह-फ़र्सा की ख़बर मिली पैर तले से मिट्टी निकल गयी। फ़ौरन चादर ओढ़ ली और बदहवास ज़ीने से उतरी और गिरती-पड़ती पूर्णा के मकान की तरफ़ चली। हर चंद माँ ने रोका मगर उसने न माना। जिस वक्त़ प्रेमा पहुँची है पूर्णा के हवास बजा हा गये थे और वो निहायत दिल हिला देनावाली आवाज़ में रो रही थी। घर में सैकड़ों औरतों जमा थी’ मगर कोई ऐसी न थी जिसकी आँखों से आँसू न बह रहे हों। हाय, गरीब पूर्णा की हालत वाकई काबिले तरस थी। अभी एक घंटे पहले वो अपने को दुनिया की सबसे खुशकिस्मत औरतों में समझती थी मगर हाय, अब उसका-सा बदनसीब कोई न होगा। बेचारी समझाने से ज़रा ख़ामोश हो जाती मगर ज्यूँ ही कोई बात याद आ जाती त्यूँही फिर दिल फिर उमर आता और ऑसू की झड़ी लग जाती। हाय, क्या एक-दो बात करने की थी। उसने दो बरस तक अपने प्यारे शैहर की मुहब्बत का मज़ा लूटा था। उसकी एक-एक बात उसको याद आती जाती थी। आज उसने चलते-चलाते कहा था—प्यारी पूर्णा, जी चाहती है तुझको आँखों में बिठा लूँ। अफ़सोस अबा कौन प्यार करेगा। उस रेश्मी धोती और तौलिया की तरफ़ उसकी निगाह गयी तो बड़ी जोर से चीख़ उठी। यकायक प्रेमा को देखता तो झपटकर उठी और उसके मिलकर ऐसे दिलख़राश लहेजे में रोयी कि अन्दर तो बाहर मुंशी बदरीप्रसाद साहब, बाबू कमलाप्रसाद और दीगर हज़रात आँखों से रूमाल दिये बेअख्तियार रो रहे थे। प्रेमा बेचारी का महीनो रोते-रोते गलाबैठ गया था। हाँ, उसकी आँखो से आँसू बह रहे थे। पहले वो समझती थीकि मैं ही सारे जमाने मे बदकिस्मत हूँ मगर उस वक्त वो अपना दुख भूल गयी और बड़ी मुश्किल से जब्त करके बोली—प्यारी पूर्णा, ये क्या ग़जब होगया।
बेचारी पूर्णा कीहालत वासकई दर्दनाक थी। उसकी जिंदगी का बेड़ा पार लगानेवाला कोई न था। उसके मैके में बजुज़ एक बूढ़े बाप के औरकोई न था और वो बेचारा भी आज-कल का मेहमान हो रहा था। ससुराल में सिर्फ शौहर से नाता था, न सास न ससुर, न खेश न अकारिब, कोई चुल्लू भर पानी देनेवाला न था। असासा भी घर में कुछ न था कि जिंदगी भर कोकाफी होता। बेचारा शौहर अभी कुलदो बरस से नौकरी कर रहा था और आमदनी से खर्च किसीतरह कम न था। रूपया कहॉ सेजमा होता। पूर्णा को अभी तक ये सब बातें नहीं सूझी थीं। अभी उसको सोचने का मौका ही न मिला था। हाँ, बाहर मर्दाने में लोग में इस उम्र पर बातचीत कर रहे थे।
दो-ढाई घंटे तक तो उस मकान में औरतों का खूब हुजूम था। रोना-पीटना मचा था मगर शाम होते-होते सब औरतें अपने-अपने घरगयी। बेचारी प्रेमा को गश पर गश आने लगे थे इसलिए लोग वहाँ सेपालकी पर उठाकर ले गये और दिया में बत्ती पड़ते-पड़ते उसमकान में बजुज बिल्लों और पूर्णा केकोई न था। हाय, यही वक्त था कि बसंतकुमार दफ्तर से आते। पूर्णा उस वक्त दरवाजे पर खड़ी उनकी राह देखा करती थी और उनको देखते ही लपककर उनके हाथों से छतरी ले लेती थी।रोज़ उनके लिए जलेबियाँ लाकर घर देती थी। जब तक वो मिठाइयाँ खाते थे वो झटपट पान के बीडे लगाकर देती थी। वो आशिक जार दिन भर का थका-माँदा बीवी कीइन खातिरों से अपनी तमाम तकलीफों को भूलजाता। कहाँ वह मर्सरत अफजा खिदमते और कहाँ आज ये सन्नाटा। तमाम घर भायँ-भायँ कर रहा था। दीवारे काटने को दौड़ती थी। मालूम होता था कि दरो दीवार पर हसरत छायी है। बेचारी पूर्णा आँगन में खामोश बैठी थी। उसके कलेजे में अब रोने कीकूवत नहीं। हाँ, आँखो से आँसू के तार जारी है। उसको मालूम होता है किकोई दिल सेखून चूस रहाहै। उसके महसूसात कोबयान करने ही हमारी जबान में कूवत नहीं। हाय, इसवक्त पूर्णा पहचानी नहींजाती। उसका चेहरा जर्दहोगया है। होंठो पर पपड़ी छायी है। ऑखे सूज आयी है। सर के बाल खुलकर पेशानी पर आ गिरे है। रेशमी साडी फटकर तार-तार हो गयी है। जिस्म पर जेवर एक भीनहीं है। चूडियाँ टूटकर चकनाचूर हो गयी है। वो हसरत, हिर्मानसीबी, मातम की मुजस्सम तसवीर होरहीहै। उसकी ये हालत और भी नाकरबिले बर्दाश्त हो रही है क्याकि कोई उसको तसकीन देनेवाला नहीं है। ये सब कुछ होगया है मगर पूर्णा अभी तक कुल्ली तौर पर मायूस नहीं हुई है। उसके कान दरवाजे की तरफ लगे है कि कही कोई उनके सही व सलामत निकलने की खबर न लाता हो। अलमजदा दिलो का यही हाल होता है। उनकी आस टूट जाने पर भी बँधी रहती है।
शाम होते-होते इस पुरहसरत वाकये की खबर सारेशहर में गूँज उठी। तो सुनता था अफसोस करता था। बाबू अमृतराय कचहरी से आ रहे थे किरास्ते में उनको ये खबर मिली। वो बसंत कुमार को बखूबी जानते थे। उन्हीं की सिफारिश से पंडितजी को दफ्तर में वो जगह मिली थी। सख्त अफसोस हुआ। मकान परआते हीकपड़े बाइसिकिल पर सवार होपूर्णा के मकान कीतरफ पहुचे जाकर देखा तो चौतरफ सन्नाटा छाया हुआ है। दरो-दीवार से सन्नाटा बरस रहा है। पूर्णा ऐसी ही आवाजें के सुनने कीआदी हो रही है।रोज इसी वक्त वो उनके जूते की आवाज कान लगाकर सुना करती थी। चुनांचे इसवक्त ज्यूही उसने जूते की आवाज सुनी वो हैरत-अंग्रेज तेजी से दरवाजे की तरफ दौड़ी। नहीं मालूम उसको क्या ख्याल हुआ। किस उम्मीद परदौड़ी। मगर ज्यूही दरवाजे परआयी और बजाये अपने प्यारे शौहर के बाबू अम़तराय कोदेखा त्यूही हवास बजा हो रहे। शम से सर झुकालिया और रोती हुई उल्टे कदम वापस हुई। ऐसी मुसीबत के वक्तों पर हमदर्द कीसूरत गिरिया ओ जारी के लिए गोया एक बहाना हो जाती है। बाबू अमृतराय यहाँ बहुत कम आया करते थे। इस वक्त उनके आने से पूर्णा के दिल पर एक ताजा सदमा पहुचाया। दिल फेर उमँड़ आया और बावजूद हजार जब्त के आँखो से आँसू बहने लगे और ऐसा फूट फूटकर रोयी किबाबू अमृतराय जोफितरतन निहायत रकीक उल कल्ब आदमी थे अपने गिरिया को जब्त न कर सके। उस वक्त तक महरी बाहर आ गयी थी। उसने अमृतराय को बैठने के लिए एक कुर्सी दी और सर नीचा करके रोने लगी।
अमृतराय ने महरी को दिलासा दिया। उसको पूर्णा की खबरगीरी ताकीद की। देहलीज मेंखड़े होकर पूर्णा को समझाया और उसको हर तरह मदद देने का वादा करके चिराग जलते-जलते अपने बँगले की तरफ रवाना हुए। उसी वक्त प्रेमा गशोंसे बाज़याफ्त पाकर महताबी पर हवा खाने निकली थी। उसकी निगाह पूर्णा के दरवाजे की तरफ लगी हुई थी। उसके किसी को उसकेघर से निकलते देखा। गौर सेदेखा तो पहचान गयी। हाय, यह तो अमृतराय है। करके चिराग जलते-जलते अपने बँगले की तरफ रवाना हुए। उसी वक्त प्रेमा गशोंसे बाज़याफ्त पाकर महताबी पर हवा खाने निकली थी। उसकी निगाह पूर्णा के दरवाजे की तरफ लगी हुई थी। उसके किसी को उसकेघर से निकलते देखा। गौर सेदेखा तो पहचान गयी। हाय, यह तो अमृतराय है।

पांचवाँ बाब-ऐं ये गजरा क्या हो गया

पंडित बसंतकुमार का दुनियां से उठ जाना सिर्फ पूर्णा ही के लिए जानलेवा न था। प्रेमा की हालत उसकी सी थी। पहले वह अपनी किसमत पर रोया करती थी, अब पूर्णा की हमदर्दना बातों व दमसातियाँ आकर उसको रूलाती थीं। पूर्णा कभी उसको गाकर सुनाती, कभी उसके सामने कोई दिलचस्प किताब पढ़ती, कभी उसको बाग़ की सैर कराती मगर जब से उस बेचारी पर बिपत पड़ी थी, प्रेमा का गम गलत करने वाला कोई न था। अब उसको सिवाय चारपाई परपड़े रहने के और काम न था, न वो किसीसे हँसती बोलती थी न उसको खाने पीने से रगबत थी। शौके सिंगार उसको मुतलक न भाता था। सर के बाल दो दो हफ्ते न गूँथे जाते, सुरमेदानी अलग पड़ी रोया करती, कंघी अलग हाय-हाय करती। गहने बिलकुल उतार फेंके थे।सुबह से शाम तक अपनेकमरे मेंपड़ी खुदा मालूम क्या-क्या किया करती। कभी चारपाई पर लेटती, कभी जमीन पर करवटें बदलती। कभी इधर उधर बौखलायी हुई घूमती। अक्सर बाबू अमृतराय की तसवीर को देखा करती। और जब उनके पुराने खुतूत याद आते तो रोती। उसे मालूम होता था कि अब मै चंद दिनों की और मेहमान हूँ।
पहले दो माह तक बेचारी पूर्णा ब्राह्मणों की जियाफकत ओ तवाजो, शौहर की किरिया व करम से सॉँस लेने की मुतलक फुरसत नमिली कियहाँ आती। प्रेमा दो तीन बार बावजूद माँ की मुमनियत के वहाँ गयी थी। मगर वहाँ जाकर बजाय इसके किपूर्णा को तशफ्फी दे वो खुद रोने लगती थी। इस वजह से अब उधर न जाती। हाँ, शाम के वक्त वो महताबी पर जाकर जरूर बैठती इसलिए नहीं कि उसको समाँ सुहाना मालूम होता था या हवा खाने को जी चाहता था। नही, बल्कि सिर्फ इसलिए किवो कभी कभी अमृतराय को उधर से पूर्णा के घर जाते देखती। हाय, जिस वक्त वो उनको देखती उसका दिन बल्लियों उछलने लगता। जी चाहता किकूद पर पडूँ और उनके कदमों पर जान निसार कर दूँ। जब तक वो नजर आते वो टकटकी बॉँधे उनको देखा करती। जब वो नजरों से छुप जाते तब बेअख्तियार उसकी आँखो में आँसू भरजाते और कलेजा मसोसने लगता। ऐसा मालूम होता कि दिल बैठा जा रहा है। इसी तरह कई महीने बीत गये।
एक रोज वो हस्बे-मामूल अपने कमरे में लेटी हुई करवटें बदल रही थी कि पूर्णा अंदर आयी। हाय, उस वक्त ऐसा मालूम होता था कि उसके किसी मुहलिक आरजे से शिफा पायी है।चेहरा तर्द था और उस पर गजब की पजमुर्दगी छायी हुई थी। रूखसारे पिचके हुए थे और आँखो जिनमें अब चलत-फिरत बाकी न रही थी, अंदर घुसी हुई थी। सर के बाल शानों पर बेतरतीबी से इधर उधर बिखरे हुए थे। गहने जेवर का नाम न था। सिर्फ एक नैनसुख की साड़ी पहने हुई थी। उसको देखते ही प्रेमा दौड़कर उसके गले से चिमट गयी और उसको लाकर अपनी चारपाइ परबिठाया।
कई मिनट तक दोनों सखियाँ, खमोश थीं। दोनों के दिलो में खयालात का दरिया उमड़ा हुआ था। मगर जबानों में याराए गोयाई न था। आखिर पूर्णा ने कहां—प्यारी प्रेमा, क्या आजकल तबीयत खराब है? बिलकुल घुलकर काँटा हो गयी हो।
पूर्णा—(चश्मे पुरआब होकर) मेरी खैरियत क्या पूछती हो सखी, खैरियत तो मेरे लिए सुपना हो गयी। तीन महीने से ज्यादा हो गये मगर अब तक मेरी आँखो नहीं झपकी। मालूम होता है नींद आँसू होकर बह गयी।
प्रेमा—सखी, ईश्वर जानता है मेरा भी यही हाल है। अगर तुम ब्याही विधवा हो तो कुँवारी विधवा हूँ। हमारी तुम्हारी एक ही गत है। हाँ सखी, मैने ठान लिया है कि अब इसी सोग में जिंदगी काँटूगी।
पूर्णा—कैसी बातें करती हो प्यारी, मै अभागिनी हूँ, मेरा क्या, जितना सुख भोगना मेरी किस्मत में बदा था, भोग चुकी। मगर तुम अपने को क्यों घुलाये डालती हो। प्यारी, मै तुमसे सच कहती हूँ, बाबू अमृतराय कीहालत भी तुम्हारी हीसी है। वो मेरे यहाँ कईबार आये थे, निहायत मुतफक्किर मालूम होते है। मैंने एक रोज़ देख लिया था, वो तुम्हारे काढ़े हुएरूमाल लिये हुए थे।
प्रेमा का चेहरा यकायक खिल गया। फर्ते मसर्रत से आँखे जगमगाने लगी। उसने पूर्णा का हाथ अपने हाथ में ले लिया और उसकी आँखो से आँखे मिलाकर बड़ी संजीदगी से पूछा—मेरी जान, सच बताओ कभी उनसे इधर की बातें भीआती हैं?
पूर्णा—(मुसकराकर) क्यों नहीं, कई बार बात चलीं। मैने उनसे कहा—आप अपनी शादी क्योंनहीं करते। मगर उन्होंने इसका कुछ जवाब न दिया। हाँ, बुशरे से मालूम हुआ किइस किस्म कीबात उनको नागवार गुजरती है। इसी ख्याल से फिर यह तजफिरा छेड़ते डरती हूँ।
प्रेमा—तुम उनके सामने निकलती हो?
पूर्णा—क्या करूँ, बिला सामने आये काम तो नहीं चल सकता और सखी, अब उनसे क्या पर्दा करूँ। उन्होंने मुझ पर जो जो एहसान किये हैउनसे मैं कभी उरिन नहीं हो सकती। पहले ही दिन जब कि मुझ परयह बिपत पड़ी उसी रात को मेरे यहाँ चोरी हो गयी। जो कुछ असबाब था, जालिमों ने मूस लिया। सच मानो उस वक्त मेरे पास एक कौड़ी भी न थी। बडे फेर में पडी थी कि अब क्या करूँ। जिधर नजर दौड़ाती, अँधेरा नजर आता था।उसी दिन बाबू अमृतराय आये। ईश्वर उनको जुग जुग सलामत रखे, उन्होनें बिल्ली की तनखाह मुकर्रर कर दी और मेरे साथ भी बहुत कुछ सुलूक किया। अगर उसी वक्त आड़े न आते तो शायद अब तक बिला दाना मर गयी होती। सोचती हूँ कि वो इतने बड़े आदमी होकर मुझ भिखारिनी केदरवाजे पर आते है तो उनसे क्या पर्दा करूँ। और दुनिया ऐसी है कि इतना भी नहीं देख सकती। वो जो पडोस मेंपंडाइन रहती है, कई बार मेरे मकान पर आयी और बोली कि सर के बाल मूडा लो। विधवाओ को सर के बाल न रखने चाहिए। मगर मैंने अब तक उनका कहना नहीं माना। इस पर सारे मुहल्ले में तरह तरह की बाते निस्बत की जाती है। कोई कुछ कहता है, कोई कुछ। जितने मुँह उतनी बातें। बिल्लो आकर सब कहानी मुझसे कहती है। सब सुन लेती हूँ और रो धो कर चुप हो रहती हूँ। मेरीकिस्मत में दुख भोगना, लोगों की जली कटी सुनना न लिखा होता तो ये आफत ही काहे को आ पड़ती। मगर बालों ने क्या कसूर किया है जो उनको मुड़ा लू ईश्वर ने सब कुछ तो हर ही लिया, अब क्या इन बालों से भी हाथ धोऊँ।
ये कहकर पूर्णा ने शानों पर बिखरे हुए लंबे-लंबे बालों को बड़क इत्मीनान की निगाहों से देखा। प्रेमा ने उनको हाथ से सम्हालकर कहा—नहीं प्यारी पूर्णा, तुम्हें हमारी कसम बालों को मत मुड़ाना। पंडाइन को कहने दो। बाल मुड़ा लो। ईश्वर जाने कैसे खूबसूरत बाल है औरगो तुमने कंघी नहीं की है। ताहम बहुत खुबसूरत मालूम होते है। मुसीबत तो जो पड़ गयी उसे दिल ही जानता है। बालों को मुड़ाने से क्या फायदा। ये देखो नीचे कीतरफ जो खम पड़ गया है कैसा खुशनुमा मालूम होता है।
ये कहकर प्रेमा उठी, बक्स मेंसे खुशबूदार तेल निकाला और जबतक पूर्णा हाँय हाँय करे कि उसने उसके सर की चादर खिसकाकर तेल डाल दिया औरउसका सर जानू पर रखकर आहिस्ता आहिस्ता मलने लगी। पूर्णा—बेचारी इन नाजबरदारियों की मुतहम्मिल न हो सकी। उसकी आखों से आसू बहने लगे। बोली—प्यारी प्रेमा, ये क्या गजब करती हो। अभी क्या कम बदनामी हो रहीहै।जोबाल सँवारे निकलूँगी नहीं मालूम सब क्या कहेंगे। अब तुमसे क्या दिल की बात छिपाऊँ सखी, ईश्वर जानता है मुझे ये बाल खुद बोझ मालूम होते है। जब इस सूरत को देखने वाला ही जहान से उठगया। तो ये बाल किस काम के। मगर मैं जो इनको रखकर पड़ोसियों के लहने सहती हूँ तो सिर्फ इस ख्याल से कि सर के बाल मुड़ाकर मुझसे बाबू अमृतराय के सामने न निकला जायगा। हाय, सर मुड़ाकर मैं उनके सामने कैसे जाऊगी और वो अपने दिल में क्या समझेगे। ये कहकर पूर्णा फिर चश्मे पुरआब हो गयी और प्रेमा ने आहिस्ता आहिस्ता उसके सर में तेल मला। उसके बाद कंघी की। बेचारी पूर्णा तो मुद्दत से इन आराइशो व बनावटों को खैरबाद कह चुकी थी। इन हमदर्दना दमसाजियों ने उसके दिले दर्दमंद को मसोसनाशुरू किया मगर प्रेमा ने निहायत मुहब्बत आमेज अंदाज से उसके अंदाज से उसके बाल गूथे और तब आहिस्ता से एक आईना लाकर उसके सामने रख दिया। हाय, पूर्णा ने तीन महीने से आईना नहीं देखा था। उसको मालूम होता था कि मेरी सूरत बिलकुल उतर गयी होगी मगर आज जो देखा तो सिवाय इसके कि चेहरा जर्द हो गया था औरकोई तबदीली न मालूम हुई। बल्कि सादगी, हसरत और मायूसी ने एक नई कैफियत पैदा कर दी थी। आँखो मेंआँसू भर कर बोली—प्रेमा, ईश्वर के लिए अब बस करो। मेरी किस्मत में ये सिंगार बदा ही नहीं है। पड़ोसी देखेगे तो उनकी छाती फटेगी, नहीं मालूम क्या लगावें।ये कहकर वो खामोश हो गयी। और वो यादगारें जिनको भुलाने की वो कोशिश कर रही थी, ताजा हो आयीं। प्रेमा उसकी सूरत को टकटकी बॉँधकर देख रही थी। उसको पूर्णा कभी ऐसी हसीन न मालूम हुई थी। उसने प्यार से उसे गले लगा लिया औरबोली—पूर्णा, क्या हर्ज है अगर तुम मेरे यहाँ उठ आओ। हम तुम दोनों विधवा साथ-साथ रहेंगे। तुम्हें मेरी कसम। इंकार मत करों।
पूर्णा—प्यारी, इससे बढ़कर मुझे क्या खुशी हासिल हो सकती है कि मै तुम्हारे साथ साथ रहूँ। मगर हाय, अब तो मुझको फूँक फूँककर पैरधरना पड़ता है। नहीं मालूम जमाना क्या कहेगा? अलावा इसके इस मामले में बाबू अमृतराय की सलाह की भी जरूरत है, बिला उनकी मर्जी के कैसे आ सकती हूँ। जमाना कैसा अंधा है। ऐसे रहमदिल और गरीबपरवर शख्स को लोग कहते है कि ईसाई हो गया है। कहनेवालों के मुँह से न मालूम कैसे ऐसी झूठ बात निकलती है। मुझसेवो कहते थे कि मैं बहुत जल्द एक ऐसा स्थान बनवानेवाला हूँ जिसमें लावारिस विधवाएँ आकर रहेंगी। वहाँ उनके आराम व आसाइश का ख्याल रखा जायगा, और उनको पढ़ना लिखना और पूजा पाठ करना सिखाया जायगा। जिस आदमी केखयालात ऐसे पाक हो उसको वो लोग ईसाई और बेदीन बताते हैजो भूलकर भिखमंगे के सामने एक कोड़ी भी नहीं फेकते। कैसा अंधेर है।
प्रेमा ने बड़ी आवाजे दर्दनाक में जवाब दिया—क्या बतलाऊँ सखी, अपनी किस्मत पर इतनी मुद्दत तक अफसोस कियाकि अब अफसोस भी नहीं किया जाता। हाय, काश मे उनकी चेरी होती। ऐसे फययाज दाता की चेरी बनना भी एक फख़ है। क्यों पूर्णा क्या हो अब ब्याह न करेंगे? ये कहकर शर्म से सर झुका लिया।
पूर्णा—ब्याह, अरे वो तो मुहँ खोले बैठे है, तुम्हारे लाला जी ही नहीं मंजूर करते। मै येजोर देकर कह सकती हूँ कि अगर तुमसे उनकी शादी न हुई तो वो कुँवारे रहेंगे।
प्रेमा—यहाँ भी यही ठान लीहै किचेरी बनूँगी तो उन्हीं की..
कुछ देर तकयही बातें हुआ कीं। जब सूरज डूबने का वक्त आया तो प्रेमा ने कहा—चलो पूर्णा, तुमको बाग, कीसैर करा लॉँऊ। तीन महीने हो गये। मै उधर भूलकर भी नहीं गयी।
पूर्णा—मेरे बाल खोल दो तो चलूँ। तुम्हारी भावज देखेंगी तो ताना देंगी।
प्रेमा—ताना क्या देंगी, कोई खेल है। अगर इस घर में अब तुमको कोई तिरछी निगाह से भी देखे तो अपना औरउसका खून एक कर दूँ।
दोनो सखियाँ उटठी और हाथ में हाथ दिये जीन से उतरकर बाग मेंआयी। बाग क्या था, एक छोटी सी फुलवारी थी जिसमें जनाने से रास्ता बना हुआ था। प्रेमा को फूलों सेबहुत ज्यादा शौक था। इसलिए यहाँ गुलाब मोतिया, बेला वगैरह खूबसूरत क्यारियों में बकसरत लगे हुए थे। दो तीन लौड़ियाँ खास इस खित्ते के सैराब करने के लिए नौकर थी।
बाग के बीचो बीच में एक गोल चबूतरा बना हुआ था। दोनो सखियाँ उस चबूतरे परबैठी। शाम का सुहाना वक्त था। शफक की सुर्खी आसमान परनमूदार थी ठंडी ठंडी और अंबरबेज हवा चल रही थी। प्रेमा को देखते ही मालिन बहुत सी कलियाँ एक साथ तर कपड़े में लपेटकर लायी।प्रेमा नेउनको लेकर पूर्णा को दना चाहा। मगर वो आबदीद हो गयी और बोली—सखी, मुझे मुआफ रक्खो। उनकी बू बास तुमको मुबारक हो—सोहाग के साथ मैंने फूल भी त्याग दिये। हाय, जिसदिन वो नहाने गये। थे उस दिन मैंने ऐसी ही कलियों का एक हार तैयार किया था। उस दिन सेमैंने फूलों को हाथ नहीं लगाया। ये कहते कहते वो दफअतन चौंक पड़ी और बोली—प्यारी, अब मैं जाऊँगी। आज इतवार का दिन है। बाबू अमृतराय उमूमन इतवार को इसी वक्त आया करते है। शायद आज भी आ जाय। प्रेमा ने जहर खुद करके कहा—नहीं सखी, अभी उनके आने में आध घंटे की देर है।मुझे तोउस वक्त का ऐसा अंदाजा हो गया है। कि अगर कमरे में भी बंद कर दो तो शायद गलती न करूं। हाय सखी, तुमसे सच कहती हूं, झरोखे पर बैठकर रोज घंटों तक उनकी राह देखा करती हूं। कंबख्त दिल को बहुत समझाती हूं, नहीं मानता।
पूर्णा—जरा पहले से जाकर बिल्लों से कह दूँ। कमरे में झाडू दे दे, कल फिर मिलूँगी।
प्रेमा—कल जरूर आना प्यारी। न आओगी तो कहे देती हूं कुछ खाकर सो रहूंगी।
दोनो सखियाँ गले मिलीं। पूर्णा शर्माती हुई घूँघट से चेहरे को छुपाये अपने घर की तरफ चली और प्रेमा किसी के दीदार के इश्तियाक में महताबी पर जाकर टहलने लगी।
पूर्णा को पहुँचे मुश्किल से पंद्रह मिनट गुजरे होंगे कि बाबू अमृतराय बाइसिकिल पर फर फर करते आ मौजूद हुए। उन्होंने कपड़ों के बजाय बंगालियों की पोशाक जेबे बर की थी जो उन पर खूब सजती थी। गजब के जामाजेब-ओ-वजीह आदमी थे। बाजारो में जा निकलते तो लोग बेअख्तियार उनकी तरफ महत्व हो जाते। और शहर में ऐसी कौन सी कुँआरी लड़की होगी जो उनकी बीवी बनने की आरजू न रखती हो। मालूम केखिलाफ आज उनकी दाहिनी कलाईपर एक हार उनके गले में पड़ी हुई थी, हवा के नर्म नर्म झोंको से लहरा लहराकर एक कैफियत दिखती थी। जूते की आवाज सुनते ही बिल्लों ने बाबू साहब को कमरे में बिठा दिया।
अमृतराय—क्यों बिल्लों, खैरियत?
बिल्लो—हाँ सरकार, सब खैरियत।
इसी असना में निशस्तगाह का अंदरूनी दरवाजा खुला औरपूर्णा निकली। बाबू अमृतराय नेउसकी तरफ देखा तो हैरत में आ गये औरनिगाहें खुद-ब-खुद उसके चेहरे पर जम गयी। पूर्णा मारे शर्म के गड़ी जाती थी कि आज क्यों मेरी तरफ इस तरह ताक रहे है। उसको नहीं मालूम था कि आज मैंने बालों में तेल डाला है, कंघी की है, पेशानी पर सेंदूर कीएक बिंदी भी पड़ी हुई है। बाबू अमृतराय ने उसको इस बनाव चुनाव के साथ कभी नहीं देखा था और न उनको कभी ख्याल हुआ था कि वे ऐसी हसीन होगी। चंद मिनट तक तो पूर्णा सर नीचा किये खड़ी रही। यकायक उसको बपने गुँथे हुए बालों का ख्याल आ गया और उसने फौरन शर्मा के गर्दन नीची कर ली। घूँघट को बढ़ाकर चेहरा छुपा लिया और यह ख्याल करके कि शायद बाबू साहब इस बनाव-सिंगार से नाराज हैं उसने निहायत भोलेपन के साथ यूँ माजरत की, ‘मै क्या करूँ, आज प्रेमा के घर गयी थी, उन्होने जबर्दस्ती सर में तेल डालकर बाल गूथ दिये। मैं कल सब बाल कटवा डालू। ये कहते कहते आँखो मेंआँसू भर आये।
एक तो उसके बनाव सिंगार, दूसरे उसके भोलेपन ने बाबू साहब को लुभा लिया। बेअख्तियार बोल उटठे ‘नहीं’, नहीं, तुम्हें मेरे सर की कसम, ऐसा हरगिज न करना। मै बहुत खुश हूँ कि तुम्हारी सखी ने तुम्हारे ऊपर यह मेहरबानी की। अगर इस वक्त वो यहाँ होती तो मैं उनका इस एहसान के लिए शुक्रिया अदा करता। पूर्णा पढी लिखी औरत थी, हिन्दी के मुश्किल दोहरों के माने निकाल लेती। इस इशारे को समझ गयी औरझेंपकर गर्दन नीची करली।
प्रेमा का नाम सुनकर बाबू साहब को ख्वाहिश पैदा हुई कि जरा उनकी निस्बत कुछ और हालात मालूम करें। बोले—तुम्हारी सखी प्रेमा है तो अच्छी तरह?
पूर्णा—अच्छी तरह क्या है, आज उनको देखकर मैं अपनी मुसीबत भूल गयी। वो बिलकुल सूखकर काँटा हो गयी है।महीनों से खाना पीना बराये नाम है। दिन भर पलंग पर पड़े पड़े रोया करती है। घरवाले लाख समझाते हैं, नहीं मानतीं। आज मुझे देखकर बहुत खुश हुई औरबड़ी देर तक अपने दुख दर्द की दास्तान सुनाती रही। आखिर में उन्होंने कहा—पूर्णा, अगर चेरी बनूँगी तो बाबू अमृतराय की वर्नाकुँआरी रहूँगी।
इस खबर को सुनकर अमृतराय के चेहरे पर एक हसरत सी छा गयी। बोले—सच?
पूर्णा—जी हाँ, उनकी हालत निहायत नाजुक है। मुझसे बार बार पूछती थीं कि तुमसे बाबू साहब से कभी इधर का जिक्र आता है? मैंने कह दिया कि वो तुम्हारे फ़िराक में बहुत बेचैन है। इस पर बहुत खुश हुई।
अमृतराय—तुमको कैसे मालूम हुआ कि मै प्रेमा के फ़िराक में बेचैन हूँ। कोई ज़माना वो था जब मैं उनका फ़िदाई था और उनसे शादी करने का अरमान रखता था मगर अब वो बातें गुजर गयीं। मुंशी बदरीप्रसाद ने मुझे इस एजाज के काबिल नहीं समझा। मुझे यह सुनकर सख्त अफसोस हुआ कि प्रेमा अभी तक मुझको याद करती है।
पूर्णा—बाबू साहब, लौंडी की गुस्ताखी मुआफ़। मुझेतो यकीन नहीं आता कि प्रेमा की मुहब्बत आपके दिल मेंनहीं है। लोग कहते है, मुहब्बत एक हो ही नहीं सकती। ईश्वर जाने आज जब मैने उनसे आपका ज़िक्र किया तो फूल की तरह खिल गयीं। चेहरा रोशन हो गया, मुझे गले लगाकर कहा—सखी, उनसे कह देना कि अगर अब भी मुझ पर तरस न खायँगे तो मैं जहर खा लूँगी।
अमृतराय—पूर्णा, हमको सख्त अफसोस है उनकी हालत पर—इसमें कोई शक नहीं कि पहले मैं उन पर शैदा था मगर मैंने कामयाबी की कोईउम्मीद न देखकर रो-रोकर इस आग को बुझाया। अब इसके बजाय कोई दूसरी ही तमन्ना पैदा हो गयी है और अगर ये भी पूरी न हुई तो यकीन जानों कि मै बिन ब्याहा ही रहूँगा। ये कहकर वो जमीन की तरफ ताकने लगे।
पूर्णा को ख्याल था कि बाबू अमृतराय की शादी प्रेमा से हो या न हो वो उससे मुहब्बत जरूर करते है। मगर जब उसको मालूम हुआ कि उनकी शादी कहीं और होनेवाली है तो उनकी बातों पर यकीन आ गया। मुस्कराहट शर्माती हुई बोली—ईश्वर आपकी यह मुराद पूरी करे। शहर में कौन ऐसा रईस है जो आपसे नाता करना फ़ख न समझता हो। अगर इस काम में मुझसे कोई खिदमत अंजाम पा जायेंगी तो मै अपेन को निहायत खुशकिस्मत समझूंगी। जो काम मेरे काबिल हो वो फ़रमा दीजिए, मैं बसरोचश्म बजा लाऊंगी।
अमृतराय—(मुस्कराकर) तुम्हारे बिला तो इस काम का अंजाम पाना ही मुहाल है। बल्कि तुम्हारी रज़ामंदी पर इस तमन्ना का दारोमदार है।
पूर्णा बड़ी खुश हुई।फूली न समायी कि मै भीअब उनका कुछ काम कर सकूँगी। उसकी समझ में इस तुमले के माने न आयें, ‘तुम्हारी ही रज़ामंदी पर इस तमन्ना का दारोमदार है।‘ उसने समझा शायद मुझे नामा ओ पायाम का काम सुपुर्द होगा। उसने इन अलफ़ाज का मतलब छ: महीने के अंदर ही अंदर अच्छी तरह समझ लिया था। बाबू अमृतराय कुछ देर यहाँ और बैठे। उनकी नजरें आज बेअख्तियार इधर उधर से घूमकर आतीऔरपूर्णा के चेहरे पर गढ़ जाती। जब तक वो बैठे रहे पूर्णा को मारे शर्म के सर उठाने की जुरअत नहीं हुई अफ़सुरदा उटठे और चलते वक्त बोले—पूर्णा, मैं ये गजरा आज तुम्हारे वास्ते लाया हूँ। उम्मीद है कि तुम इसको कबूल करोगी। देखो, कैसा खुशनुमा बना है। यह कहकर उन्होंने हाथसे गजरा उसकी तरफ बढ़ाया।
पूर्णा मुतहैयर हो गयी। आज गैरमामूली खातिर कैसी? एक मिनट तकउसके दिल में पसोपेश हुआ कि लूँ या न लूँ। उन गजरों का ख्याल आयाजो उसने अपने शौहार के लिए होली के दिन बनाये थे। फिर प्रेमा की कलियों का ख्याल आ गया। उसने इरादा लिया कि मैं न लूंगी। जबान ने कहा, ‘मुझे मुआफ रखिये’। मगर हाथ एक बेअख्तियारी तौर परबढ़ गया। बाबू साहब ने खुश खुश गजरा उसके हाथ पहनाया। उसको खूब नजर भरकर देखा। बाद अजाँ बाहर निकल आये, बाइसिकिल परसवार होकर रवाना हो गये। पूर्णा कई मिनट तक नक्शे तसवीर बनी खड़ी रही। उसको खबर न थी कि मेरे हाथ में गजरे कैसे आ गये। मैंने तो इनकार किया था, जी चाहा कि फेंक दूँ मगर फिर ख्याल पलट गया। उसने गजरे कोहाथ मे पहन लिया। हाय, उस वक्त भी उसकी समझ में नआयाकि इस तुमले का क्या मतलब है। ‘तुम्हारी ही रजामंदी पर इस तमन्न का दारोमदारहै।
उधर प्रेमा महताबी पर टहल रही थी। उसने बाबू साहब को आते देखा था। उनकी वजा उसकी नजरों में खुब गयी थी। उसने कभी इसबनाव के साथ नहीं देखा था। सबसे ज्यादा ताज्जुब उसको इस बात का था कि उनके हाथो में गजरा क्यों है। वो उनकी वापसी का इंतजार कर रही थी। उसका जी झुझलाता था कि वो आज इतनी देर क्यों लगा रहे है। क्या बातें हो रही है। दफअतन बाइसिकिल नजर आयी। उसने फिरबाबू साहब को देखा। चेहराशिगुफ्ता था। हाथ पर नजर पड़ गयी। ऐं, ये गजरा क्या हो गया।

छठा बाब-मुए पर सौ दुर्रे

पूर्णा ने गजरा पहन तो लिया मगर रात भर उसकी आँखो में नींद नहीं आयी। उसकी समझ में यह बात न आती थी कि बाबू अमृतराय ने उसको गज़रा क्यों दिया। उसे मालूम होता था किपंडित बसंतकुमार उसकी तरफ निहायत कहर आलूद निगाहों से देख रहे है। उसने चाहा कि गजरा उतार कर फेंक दूं। मगर नहीं मालूम, क्यो उसके हाथ काँपने लगे। सारी रात उसने आँखो मेंकाटी। सुबह हुई, अभी सूरज भी न निकला था। पंडाइन व चौबाइन औरबाबू कमलाप्रसाद की बूढी महाराजिन मयसेठानी जी और कई दूसरी औरतों के पूर्णा के मकान में दाखिल हुई। उसने बड़े अदब से सबको बिठाया। सबके कदम छुए। बाद अजाँ, यह पंचायत होने लगी।
पंडाइन—(जो बुढ़ापे की वजह से सूखकर छुहारे की तरह होगयी थीं) क्यूँ दुल्हन, पंडित जी को गंगा लाभ हुएकितने दिनबीते?
पूर्णा—(डरते-डरते) तीन महीने से कुछ ज्यादा होता है।
पंडाइन—और अभी से तुम सबके घर आने जाने लगीं। क्या नाम कि कल तुम सरकार के घर चली गयी थीं। उनकी कुवारी कन्या के पास दिन भर बैठी रहीं। भला सोचो तो तुमने अच्छा किया याबुरा किया? क्या नाम, तुम्हारा औरउनका अब क्या साथ?जब वह तुम्हारी सखी थी तब थी। अब तो तुम विधवा हो गयीं। तुमको कम से कम साल भर तक घर से पांव बाहर नहींनिकलना चाहिए था। यह नहीं कि तुम दर्शन को नजाओ, स्नान को न जाओ: स्नान पूजा तो तुम्हारा धर्म है। हाँ, किसी सुहागन या किसी कुंवारी कन्या के ऊपर तुमको अपना साया नहीं डालना चाहिए।
पंडाइन खामोश हुई तो मुशी बदरीप्रसाद की महराजिन फरमाने लगीं—क्या बतलाऊँ, बडी सरकार और दुल्हन दोनो कल खून का घूँट पी के रह गयी। बड़ी सरकार तो ईश्वर जाने बिलख बिलख रो रही थीं कि एक तो बेचारी लड़की के यूँ ही जान के लाले पड़े हैदूसरे अबरॉँड बेवा के साथ उठना बैठना है, नहीं मालूम ईश्वर क्या करनेवाला है। छोटी सरकार मारे गुस्से के कापँ रही थी। बारे मैंने उनको समझाया कि आज मुआफ कीजिए। अभी वह बेचारी बच्चा है। रीत-ब्यौहार क्या जाने? सरकार का बेटा जिये, जब बहुत समझाया तब जानें मानीं। नहीं तो कहती थी कि मै अभी जाकर खड़े खडे निकाल देती हूं। सो बेटा, अब तुम सोहागिनों या कन्याओ के साथ बैठने जोग नहीं रही। अरे ईश्वर ने तो तुम परबिपत डाल दी। अब तुम्हारा धम यही है किचुपचाप अपने घर में पड़ी रहो। जो कुछ मयस्सर हो खाओ पियो और सरकार का बेटा जिये, जहाँ तक हो सके धर्म केकाम करो।
पूर्णा ने चाहा कि अब की कुछ जवाब दूँ किचौबाइन साहबाने पंद ओ नसायेह का दफ्तर खोला। ये एक मोटी, भदेसलऔर अधेड़ औरत थी, बात बात पर आखे मीचा करती थी और आवाज भी निहायत करख्त थी—भला इनसे पूछो कि अभी तुम्हारे दूल्हे को उटठे महीने भी नहीं बीते और तुमने अभी से आइना, कंघी, चोटी, सब करना शुरू कर दिया। क्या नाम कि तुम अब विधवा हो गयी। तुमको अब आइना-कंघी से क्या सरोकार है। क्या नाम कि मैंने हजारों औरतों को देखा जोपति के मरने के बाद गहना पाता नहीं पहनती। हंसना-बोलना तक छोड़ देती है। न कि आज तो सोहाग उठा और कल सिंगार पिटार होने लगा। क्या नाम कि मै लल्लो पत्तों की बात नहीं जानती। कहूंगी सच चाहे किसी को तीता लगे यामीठा। बाबू अमृतराय का रोज रोज यहां आना ठीक नहींहै, किनहीं सेठानी जी?
उस पर सेठानी जी ने हांक लगायी—(ये एक निहायत फ़रबा अदाम, मोटे-मोटे वजनी गहनों से लदी हुई बूढी थी। गोश्त के लोथड़े हडिडयों से अलग होकर नीचे लटक रहे थे। इसकी भी एक बहू बेवा होगयी थीजिसकी जिंदगी इसने अजीरन कर रखी थी। इसकी आदत थी कि बात करते वक्त हाथों से मटकाया करती थी) हय-हय जो बात सच होगी सब कोई कहेगा, भला किसी ने कभी रॉँड-बेवा को माथे पर बिंदी दिये देखा है। जबसोहाग उठ गया तो टीका कैसा। मेरी भी एक बहू विधवा है मगर उसको आज तक लाल साड़ी नहीं पहनने देती। नहीं मालूम इन छोकरियों का जी कैसा हैकि विधवा हो जाने पर सिंगार परललचाया करता है। अरे, उनको चाहिए कि बाबा अब हम रॉँड हो गये, हमको निगोड़े सिंगार से क्या लेना है।
महराजिन—सरकार का बेटा जिये, तुम बहुत ठीक कहती हो सेठानी जी, कल छोटी सरकार ने जो इनको मांग में टीका लगाये देखा तो खड़ी ठक रह गयी। सरकार का बेटा जिये, दॉँतो तले उँगली दबायी। अभी तीन दिन की विधवा और ये सिंगार करे।सोबेटा, अब तुमको समझ बूझकर काम करना चाहिए। तुम अब बच्च नहीं हो।
पूर्णा बेचारी बैठी बिसूर रही थी और यह सब बेरहम औरतें उसकी ले दे कर रही थी। उसने चाहा कि अब की बार कुछ अज्र माजरत करे मगर कौन सुनता है। सेठानी जी फिर गरज उठी औरहाथ चमका चमकाकर फरमाने लगी—औरक्या, जब कहने की बात होगी तो सब कोई कहेगा। चुप क्यों होपंडाइन? इनके लिए अब कोई राह-बाट निकाल दो।
पंडाइन—क्या नाम कि सांच के आंच नहीं। दुल्हन को चाहिए कि सबसे पहले ये लंबे लंबे केश कटवा डालें और क्या नाम कि दूसरों के घर आना जाना छोड़ दे।
चौबाइन—और बाबू अमृतराय को यहाँ रोज-रोज आना क्या जरूर?
महराजिन—सरकार का बेटा जिये, मैं भी यह बात कहने वाली थी। बाबू साहब के आने से बदनामी का डर है।
चंद और सिखावन कीबाते करके ये मस्मूरातें यहां से तशरीफ ले गयी और महराजिन भी मुंशी बदरीप्रसाद साहब के यहाँ खाना पकाने गयीं। उनसे औरछोटी सरकार से बहुत बनती थी।वो उनपर बहुत एतबार रखती थी। महराजिन ने जाते ही उनसे सारी कथा खूब रंगो रौगन नमक मिर्चलगाकर बयान की और छोटी सरकार ने इस वाकये को प्रेमा के जलाने और सुलगाने के लिए मुनासिब समझकर उसके कमरे की तरफ रूख किया।
यूं तो प्रेमा हर रोत रात जागा करती थी मगर कभी कभी घंटे आध घंटे के लिए नींद आ जाती थी। नींद क्या आ जाती थी, एक गशी सी आरिज हो जाती थी। मगर जब से उसने बाबू अमृतराय को बंगालियों की वजा में देखा था औरपूर्णा के घर से वापस आते वक्त उनकी कलाई पर उसको गजरा नजर नआया था उस वक्त से उसके पेट में खलबली पड़ी हुई थी कि कब पूर्णा आवे और कब सारा हाल मालूम हो। रात तो बडी बेचैनी से उठ उठ घड़ी पर नजर दौड़ाती, इस वक्त जो उसने पैरों की चाप सुनीतो समझी किपूर्णा आ रही है। फर्ते इश्तियाक से लपककर दरवाजे तक आयी मगर ज्यों ही अपनी भावज को देखा ठिठक गयी और बोली—कैसे चलीं भाभी?
दुल्हन साहबा तो चाहती थी कि छेड-छाड़ के लिए कोई जरिया हाथ आ जाय, यह सवाल सुनते ही तुनककर बोलीं—क्या बतलाऊँ कैसे चली? अब से जब तुम्हारे पास आया करूँगी तो इस सवाल का जवाब सोचकर आया करूँगा। तुम्हारी तरह सबका खून थोड़ा हीसफेद हो गया है कि चाहे घी काघड़ा ढलक जाये, घर में आग लगी है मगर अपने कमरे सेकदम बाहर न निकाले।
वो छोटा-सा जुमला प्रेम के मुँह से यूँ ही बिला किसी ख्याल के निकल आया था। उसके जो ये माने लगाये गये तो प्रेमा को निहायत नागवार गुजरा। बोली—भाभी तुम्हारी तो नाक परगुस्सा रहता है, जरा सी बात का बतंगड़ बना देती हो। भला मैंने कौन-सी बात बुरा मानने की कही थी।
भावज—कुछ नहीं, तुम तो जो कुछ कहती हो गोया मुंह से फूल झाड़ती हो। तुम्हारी जबान में शंकर घुली हुई है। दुनिया में जितने हैं उनकी नाक पर गुस्सा रहता है और तुम बड़ी सीता हो।
प्रेमा—(झल्लाकर) भावज, इस वक्त तुम्हारा मिजाज बिगड़ा हुआ है। ईश्वर के लिए मुझे दिक मत करों। मै तो यूँ ही अपनी जान को रो रहीहूँ।
भावज—(मटककर) हाँ, रानी, मेरा तो मिजाज बिगड़ा हुआ है, सर फिरा हुआ है। जरा सीधी हूँ न, मैं भी यारों को चोरी छुपे चिटठी पत्र लिखा करती, तसवीरें भेजा करती अँगूठियों का अदल बदल करती तो मैं भी होशियार कहलाती। मगर मान न मान मै तेरा मेहमान। तुम लाख चिटिठयाँ लिखो, लाख जतन करों मगर वो सोने की चिड़िया हाथ आने वाली नहीं।
ये जली-कटी सुनकर प्रेमासे जब्त न होसका। बेचारी कमजोर दिल की औरत थी और मुद्दतो से रंजो महन सहते सहते कलेजा और भी पक गया था, बे अख्तियार रोने लगी। भावज ने उसको रोते देखा तो आंखे जगमगा गयी। हत्तेरे की, यू सर करते हैं तीर को। बोली—बिलखती क्या हो, क्या अम्मा को सुनाकर देसिनिकाला करा दोगी? कुछ झुठ थोडा ही कहती हूँ। वही अमृतराय जिनके पास चुपके चुपके चिटिठयाँ लिखा करती थीं, अब आज दिनदहाड़े उस कहबा पूर्णा के घर आता है और घंटों वहीं रहता है। सुनती हूँ फूल के गजरे लाकर पिन्हाता है। शायद दो-एक कीमती जेवर भी दिये है।
प्रेमा इससे ज्यादा न सह सकी, गिड़गिड़ाकर बोली—भावज, मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, मुझ परदया करो। मुझे जो चाहो कह लो। (रोकर) बड़ी हो मारपीट लो। मगर किसी का नाम लेकर और उस पर छुद्दे रखकर मेरे गरीब दिलको मत जलाओ।
प्रेमा ने तो निहायत लजाजत से ये अलफाज कहे मगर छोटी सरकार ‘छुद्दे रखकर’ पर बरअंगेख्ता हो गयी। चमककर बोली—हाँ रानी, जो कुछ मैं कहती हूँ वो छुद्दे रखती हूँ। मुझे निहायत सामने झूठ बोलने से मिठाई मिलती है न? तुम्हारे सामने झूठ बोलूंगी तो तुम सोने के तख्त पर बिठा दोगी। मगर मैं एक झूठी हूँ, सारा जमाना तो नहीं झूठा है। आज सारे मुहल्ले में घर-घरयही चर्चा हो रहा है। बहुत तो पढ़ी-लिखी हो, भला तुम्हीं सोचो एक तीस बरस के संडे मरदुए का पूर्णा से क्या काम है। माना कि वो उसकी मदद करते है। मगर ये तो दुनिया है। जब एक पर आ पड़ती है तो दूसरा उसके आड़े आता है मगर शरीफ आदमी इस तरह दूसरों को बहकाया नहीं करते। और उस छोकरी को क्या बहकायेगा कोई, वो तो आप ही सात घाट का पानी पिये है। मैने जिस दिन उसकी तसवीर देखी थी उसी दिन ताड़ गयी थी कि एक ही बिस की गाठ है। अभी तीन दिन भी दूल्हे को मरे हुए नहीं बीते कि ताड़ गयी थी कि एक ही बिस कीगांठ है। अभी तीन दिन भी दूल्हे को मरे हुए नहीं बीते कि सबको झमकड़ा दिखाने लगी गोया दूल्हा क्या मरा एक बला दूर हुई। कलजब उसके कब्ज कदम यहां आये तो मैं जरा बाल गूथा रही थी नहीं तो डयोढी के भीतर तो कदम धरने ही न देती, चुडैल नहीं तो। यहां आकर तुम्हारी सहेली बनती है, इसी ने अमुतराय को अपना जोबन दिखा दिखा कर अपना लिया है। कल कैसा लचक लचककर ठुमक ठुमककर चलती थी। देख देख जी जलती है, हरजाई नहीं तो। खबरदार जो अब कभी तुमने उस चुडैल को यहां बिठाया। मैं उसकी सूरत नहीं देखना चाहती।
ज़बान वह बला है कि झूठ बात का भी यकीन दिला देती हैं। बहू साहबा ने तो जो कुछ फरमाया हर्फ बहर्फ सही था, भला उसका असर क्यों न होता। पहले तो प्रेमा ने उनकी बातें को लगो व शरारत आमेंज ख्याल किया मगर आख्रिर ख्याल ने पलटा खाया। भावज की बातों मेंरास्ती की झलक पायी। यकील आ गया। ताहम वो ऐसी ओछी नहीं थी कि उसी वक्त अमृतराय औरपूर्णा को कोसने लगती। हॉ, वो सीने पर हाथ धरे यहाँ से उठकर चली गयी और छोटी सरकार भी खरामा खरामा अपने कमरे में तशरीफ लायी। आइने मेंरुखे अनवर का मुलाहिजा किया और आप ही आप बोली—लोग कहते है। कि मुझसे खूबसूरत है, अबवे खूबसूरती कहां गयीर?
प्रेमा को तो पलंग पर लेटकर भावज की बातों को वाकयात सेमिलाने दीजिए, हम मर्दाने में चले। यहां कुछ और ही गुल खिला हुआ है। निहायत आरास्ता ओ पीरास्ता औरवसी दीवानखाना है। जमीन पर मिर्जापुर कके साख्त की खूबसूरत कालदीन बिछी हुई र्है। वो सामने की तरफ मुंशी गुलजारीलाल है और उनकी बगल में बाबू दाननाथ। दाहिने जानिब बाबू कमलाप्रसाद, मुंशी झम्मनलाल से कुछ काना-फूसी कर रहे है। बायीं जानिब दो असहाब और जलवा अफ़रोज है जिनको हम नही पहचानते। कई मिनट तक मुंशी बदरी प्रसाद साहब अखबार बढ़ते रहे। आखिर उन्होने सर उठाया और संजीदगी से बोले—बाबू अमृतराय की हरकतें अब बर्दाश्त से बाहर होती जाती।
गुलजारीलाल—बर्दाश्त, जनाब, अब उनकी तहरीरों और तकरीरों से यहाँ की सोसायटी कीसख्त तौहीन हो रही है। हमारा फर्ते कौमी है कि अब हम उनके नशे को उतारने कीफिक्र करें।
बाबू कमलाप्रसाद—बेशक बाप बहुत दुरूस्त फरमाते है। हमारा फर्ज था कि इब्तिदा ही इसकी फिक्र करते, ताहम अभी कुछ नहीं बिगड़ा है।
झम्मनलाल—अगर बिगड़ा है तो इब्तिदा है कि स्कूल और कालिज के चंद लौंडो ने उनकी पैरवी अख्तियार की है और मद्रास, बंबई के चंद सरबरआवुर्दा अशखास ने उनकी इयानत करने का बीड़ा उठाया है। अगर हम बहुत जल्द उनकी खबर नलेगे तो फिर आगे चलकर बड़ी मुश्किल दरपेशा होगी। देखिए, इस अखबार मेंपांच हफ्ते से बराबर उनके मजामीन फिरते है। ये मखफी नहीं है कि देहकानी उमूमन कमफहम कमडमगज होते है। बाबू अमृतराय में खाह किसी किस्म की लियाकत हो या नहो इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि उनकी वकालत अंधाधुध बढ़ रही है। मुवक्किलों को तो वो श्चस शीशे में उतार लेता है।
गुलजारीलाल—सबसे पहले हमारा काम ये होना चाहिए कि उनकी दरखास्त जो कमेटी में पेश की गयी है उसे मंसूख करा दे।
बाबू दाननाथ ने जो इन मुबाहिसां मेंबराये नाम हिस्सा लिये हुए थे, पूछा—कैसी दरखास्त?
गुलजारीलाल—क्या आपको मालूम नहीं, हजरत चाहते है कि वो दरिया के किनारेवाला सरसब्ज खित्ता हाथ आ जाय। शायद वहां एक खैरातखाना तामीर करायेगे। सुनता हूं उसमें बेवाएं रखी जायगी और उनकी खुरिश पोशिश का इंतजाम किया जायगा। मगर ऐसी कीमती और फायदे की जमीन हरगिज इसतरह जायानही की जा सकती।
मुंशी बदरीप्रसाद—नहीं, नहीं, ऐसा हरगिज नहीं हो सकता। बच्चा (कमलाप्रसाद) तुम आज उसी जमीन के लिए एक दरखास्त कमेटी में पेश कर दो, हम वहां ठाकुरद्वारा और धर्मशाला बनवायेगे।
गुलजारीलाल—हमको ये कोशिश करनी चाहिए कि अगर प्रेसीडेंट साहब बाबू अमृतराय की तरफदारी करें तो उनके मुआफ़िक फैसला न हो। उन्होनें अंग्रेजों से खूब इर्तिबात पैदा कर रक्खी है। क्या रायों की तादाद हमारी तरफ जियादा न होगी?
कमलाप्रसाद—इसमें कोई शक भी है, यह देखिए मेम्बरों की फेहरिस्त कुल सत्ताईस हजरात है, उनमें सात असहाय यहीं रौनक अफरोज है।गालिबान दस बारह वोट और हासिल कर लेना कुछ मुश्किल न होगा।
झम्मनलाल—हमको इतने ही परसब नहीं करना चाहिए। इन मजामीन का ददाशिकन जवाब देना भी जरूरी है। मैंने मोतबर खबर सुनी है। कि लाला धनुखधारी साहब फिर तशरीफ ला रहे है। हमको कोशिश करनी चाहिए कि पब्लिक हॉल में तकरीर करने का मौका उनको न मिले।
यहां से हजरत बैठे हुए ये चेमीगोइयां कर रहे थे कि यकायक एक आदमी ने अंदर आकर कहा—बाबू अमृतराय तशरीफ लाये है।
अमृतराय का नाम सुनते ही करीब करीब कु ल हजरत के चेहरों पर हवाइयाँ उडने लगी। खुसूसन मुंशी गूलजारीलाल और बाबू दाननाथ के चेहरे का रंग फक हो गया। बगले झाकने लगे, अगर कोई जगह छुपने की होती तो वो दोनो जरूर छुप जाते। दाननाथ समझे कि हमको बेवफा ख्याल करेगे। वो अभी तक दिल से अमृतराय के हमदर्द और खैरखाह थे गो अपना मतलब निकालने के लिए मुंशी बदरीप्रसाद से रब्त जब्त बढाना शुरू कर दिया था।
एक लम्हे में बाबू अमृतराय कोट पतलून पहले, सोला हैट लगाये, जूता चरमराते हुए अंदर दाखिल हुए। उनको देखते ही बजुज मुशी बदरीप्रसाद साहब के और सब हजरात ताजीमन उठ खड़े हुए। अमृतराय ने जाते ही बिला तअम्मुल अलेक सलेक के बाद यू गुफ्तगू करना शुरू की कि मैं आप सहाब की खिदमत में इसलिए हाजिर हुआ हूं कि एक कौमी इल्तिजा पेश करूं। आप लोगों पररोशन है कि इस शहर में अभी तक कोईऐसा पनाह का मुकान नहीं है। जहां लावारिस औरतों की परवरिश व परदाख्त का इंतजाम हो सके। ऐसी औरतों को सढ़कों पर फटेहालों इधर उधर मारे मारे फिरते देखना वाकई, निहायत इबरतनाक व शर्मनाक है। इससे हमारी तहजीब पर निहायत बदनुमा धब्बा है। इस सूबे के बड़े-बड़े शहरों में कौमी मुखैयरों ने इस कौमी जरूरत को पूरा किया है। उन्हीं की देखा-देखी मैने भी यह कोशिश करनी चाही। कि अगर मुमकिन होतो इस शहर पर से धब्बा मिटा दू। मगर ये मोहतबिश्शान काम ऐसा नहीं हैं कि मुझसे हेचमीरज व हेचमंदा से अंजाम पर सके। ताक्वते कि आप हजरत मेरी मदद न फरमायें। इसी गरज से मैने एक चंदा खांलाहै। मुझे उम्मीदे कामिल है किऐसे मौके पर जरूर आपकी फय्याजी अपना जौहर दिखायेगी। मै बहुत जल्द प्रोग्राम शया करनेवालाहूं जिसमें एक खैरातखाने के इंतजाम व इंसराम के मुताल्लिक तजवीक पेश की जायेगी और उन पर हादियाने कौम की राये मदऊ की जायगी।
ये कहते कहते बाबू अमृतराय ने झटपट जेब से फेहरिस्त निकाली और बिना किसी को आपस में नजरबाजियां या सरगोशियां करने की मोहलत दिये हुए उसको मुंशी गुलजारीलाल साहब के सामने पेश कर दिया। अब मुंशी जी सख्त अजाब मुबतिला है। एक हब्बा देने की नीयत नहीं है। मगर यह खौफ है कि कहीं और हजरत कुछ फय्याजी दिखायें तो मैं खामखाह नक्कू बनूं। अलावा इसके बाप मिस्टर अमृतराय के सच्चे हमदर्द में थे और उनके इसलाह के मशगलात से बडी दिलचस्पी जताते थे। उन्होने एक मिनट तकतअम्मुल किया, चाहा कि इधर उधर से कुछ इशारे किनाये पा जाय मगर अमृतराय पहले से होशियार थे, वो उनके सामने निगाह रोककर खड़े हो गये और मुस्कराकर बोले—सोचिए नहीं, मुझे आपसे बहुत कुछ उम्मीद है।
आखिर मुंशी गुलजारीलाल ने कोई मफर न देखकर झेपते हुए अपने नाम के मकाबिल पांच सौ रूपये की रकम तहरीर फरमायी। अमृतराय ने उनका शुक्रिया अदा किया और गौ और हजरात कुछ कानाफुसकी करने लगे थे मगर इसका कुछ ख्याल न करके उन्होने फेहरिस्त बाबू दाननाथ के सामने रख दी।
हम पहले कह चुके है कि बाबू दाननाथ अमृतराय के मकासिद से इत्तफाक रखते थे। मगर पहले जब उन्होने चंदे की फेहरिस्त देखी तो बड़े पसोपेशमें थे कि क्या करूं, अगर कुछ देता हूं तो शायद मुंशी बदरीप्रसाद बुरा मान जाय। नहीं देता, तो अमुतराय के नाराज हो जाने का खौफ है। इसी हंस बैस में थे कि बाबू गुलजारीलाल की मुबरदिरत ने उनको तुरअत दिलायी। फौरन अपने नाम के मकाबिल एक हजार की रकम लिखी। अमृतराय को उनसे इतनी उम्मीद न थी। बड़े गर्मजोशी से उनका शुकिया अदा किया। अब ये तशवीश हुई कि फेहरिस्त किसके सामने पेश की जाय। अगर मुंशी बदरीप्रसाद की खिदमत मेंपेश करूं तो शायद वो कुछ न दे और उनका बुख्ल दूसरे असहाब को भी मुतासिर करेगा। अगर किसी दूसरे साहब को दिखाता हूं तो शायद मुँशी साहब बुरा मानें कि मेरी तौहीन की। एक लमहा वह इसी सोच में रहे मगर बला के हाजिरजवाब आदमी थे। दिमाग ने फौरन फैसला कर लिया। उन्होंने फेहरिस्त ली, अदब से मुंशी बदरीप्रसाद की खिदमत मेंपेश करके कहा—मुझे आपसे खास एआनत की जरूरत है। न सिर्फ कि आप मेरे बुजुर्गवार है बल्कि तजबीज है कि ये इमारत नामे नामी से तामीर करायी जावे। मैंने कमिश्नर साहब को बुनियादी पत्थर रखने पर रजामंदकर लिया है।
मुंशी बदरीप्रसाद जहाँदीदा आदमी थे, मगर उस वक्त गच्चा खा गये। देखा कि दो मामूली वकीलों ने एक एक हजार रूपये दिये है और अलावा इसके कमिश्नरसाहब भी जलसे में तशरीफ लावेगे। इमारत मेरे ही नाम से तामीर होगी और उसको तारूफ मे लाने अख्तियार भी मुझको होगा। यही सोचते सोचते अपने नामे नामी के रूबरू दो हजार की खासी रकम तहरीर फरमायी। फिर क्या था, तिलिस्म टूट गया। कुल हाजिरीन ने अपनी हैसियतों के मुआफिक मददकी। एक दस मिनट में कोई सोलह सत्रह हजार रूपये हाथ आ गये, मिस्टर अमृतराय को अपनी हिकमतेअमली से कामयाबी की उम्मीद तो जरूर थी मगर इस हद तक नहीं। वो मारे खुशी के उछले जाते थे। इस गैर मुतवक्को कामयाबी से चेहरा कुंदन की तरह दमक रहा था चंदे की फहरिस्त जेब में दाखिल करके बोले—आप असहाब ने मेरे ऊपर बडा एहसान किया और मेरे ऊपर क्या शहर की बेकस दुखिया बेवाओं पर। मुझे उम्मीद है कि जब आप लोगों ने माली एआनत फरमायी तो कल कमेटी में मेरी दरखास्त पेश होगी उस पर भी नजरे इनायत मजबूल के नहीं दे सकती। मैने भी उनसे अर्ज कीकि कल कमेटी के रुबरु मेरी दरखास्त पेश होगी, जो फैसला कमेटी करेगी उसके कबूल करने में मुझे कोई उज्र न होगा। मै उनकी कीमत अदा करने कोतैयार हूं। मगर मुझे कामिल तवक्को है कि जब आपने मेरी इमदाद दरियादिली से की है तो इस जमीन को हासिल करने में भी कोशिश फरमावेगे।
ये कहकर बाबू अमृतराय यहाँ सेतशरीफ ले गये। मगर अफसोस उन्हें क्या मालूम था कि इस पर्दे की आड़ से जो मुंशी बदरीप्रसाद की कुर्सी के पीछे पडा हुआ था औरजहां से बाल खाने पर जाने का रास्ता था, कोई बैठा हुआ एक एक बात को सुन रहा है। बाबू साहब को आते प्रेमा ने देख लिया था।

सातवाँ बाब-आज से कभी मंदिर न जाऊँगी

बेचारी पूर्णा पंडाइन व चौबाइन बगैरहूम के चले जाने के बाद रोने लगी। वो सोचती थी कि हाय, अब मै ऐसी मनहूस समझी जाती हूँ कि किसी के साथ बैठ नहीं सकती। अब लोगों को मेरी सूरत से नफरत है। अभी नहीं मालूम क्या-क्या भोगना भाग में बदा है। या नारायण, तू ही मुझ दुखिया का बेड़ा पार लगा। मेरी शामत आयी थी कि खामखाह सर में तले डलवा लिया। यही बाल कमबख्त न होते तो काहे को आज इतना फजीता होता। इन्हीं बातो का ख्याल करते करते जब यह जुमला याद आ गया कि ‘बाबू अमृतराय का रोज रोज आना ठीक नहीं’ तो उसने सर पर हाथ मारकर कहा—
वो आते है तो मै कैसे मना करूँ। मैं तो उनका दिया खाती हूँ। सिवाय उनके अब मेरी खबर लेनेवाला और कौन है। उनसे कैसे कह दूँ कि तुम मत आओ। और फिर उनके आने मे हर्ज ही क्या है।बेचारे सीधे-सादे शरीफ आदमी है। कुछ शोहदे नहीं, आवारा नहीं, फिर उनके आने में क्या हर्ज है। नहीं-नहीं, मुझसे मना न किया जायेगा। अब तो मुझ पर मुसीबत आ हीपड़ी है। अब जिसके जी में जोआवे कहे। नहीं मालूम कल मुझे क्या हो गया। क्या भंग खा गयी थी कि प्रेमा के यहाँ जाकर आज इतनी फजीता करवायी। अब भूलकर भी उधर का रूख न करूँगी। मगर हाय, प्यारी प्रेमा के देखे बगैर क्योंकर रहा जायगा। मै नजाउंगी तो वो अपने दिल में क्या समझेगी। समझेगी क्या, उनकी माँ ने उनको पहले से ही मना कर दिया होगा।
इन ख्यालों से फुरसत पाकर उसने हस्बे मामूल गंगाजी का कस्द किया। तब से पंडितजी का इंतकाल हुआ था कि वो रोज बिला नागा गंगा नहाने जाया करती थी। मगर मुँह अँधेरे जाती औरसूरज निकलते निकलते लौट आती। आज इनबिन बुलाये मेहमानो की वजह सेदेर हो गयी। थोड़ी दूर चली थी कि रास्ते में सेठानी जी की बहू से मुलाकात हो गयी। उसका नाम रामकली था। बेचारी दो बरस से रँडापा भोग रही थी। उसका सिन भी मुश्किल से सोलह सत्रह बरस होगा।चेहरा मोहरा भी बुरा न थ। खदो-खाल निहायत दिलफरेब। अगर पूर्णा आम की तरह तुर्द थी तो उसका चेहरा जोशे जवानी से गुलाबी हो रहा था। बाल मेंतेल न था। न आँखो में काजल। न माँग मेंसेंदुर। न दॉँतो पर मिस्सी। ताहम उसकी आँखो में वो शोखी थी, चाल में वो लचक और होंठो परवो तबस्सुम जिनसे इन बनावटी आराइशों की जरुरत बाकी न रही थी। वो मटकती, इधर-उधर ताकती, मुस्कराती चलो जा रहीथी कि पूर्णा को देखते ही ठिठक गयी और बड़े अंदाज से हँसकर बोली—आओ बहन, आओ। तुम ऐसा चलती हो जानूँ बताशे पर पैर धर रही हो।
पूर्णा को ये जुमला नागवार मालूम हुआ। मगर उसने बड़ी नर्मी से जवाब दिय—क्या करूँ बहन, मुझसे तो औरतेज नहीं चला जाता।
रामकली—सुनती हूँ, कल हमारी डायन कई चुडैलों के साथ तुमको जलाने गयी थी। मुझे सताने से अभी तक जी नहीं भरा। क्या कहूँ बहन। ये सब ऐसा दुख देती है कि जी चाहता है जहर खा लूँ। और अगर यही हाल रहा तो एक न एक दिनयही होना है। नहीं मालूम ईश्वर का क्या बिगड़ा था कि एक दिन भी जिंदगी का सुख न भोगने पायी। भला तुम तो अपने पति के साथ दो बरस रही भी। मैने तो उसका मुँह भी नहीं देखा। जब तमाम औरतो को बनाव-सिंगार किये हँसी-खुशी चलते-फिरते देखती हूँ तो छाती पर सापँ लोटने लगता है। विधवा क्या हो गयी, घर भर की लौड़ी बना दी गयी। जो काम कोई न करे वो मै करूँ, उस पर रोज उठते जूती बैठते लात। काजल मत लगाओ, मिस्सी मत लगाओ, बाल मत गूँथाओ, रंगीन साड़ियाँ मत पहनो, पान मत खाओ। एक रोज एक गुलाबी साड़ी पहन ली थी तो वह चुडैल मारने उठी थी। जी मे तो आया कि सर के बाल नोच लूँ। मगर जहर का घूँट पी के रह गयी और वो तो वो उसकी बेटियाँ और दूसरी बहुऍ मेरी सूरत से नफरत रखती है। सुबह को कोई मेरा मुँह नहीं देखता। अभी पड़ोस ही में एकशादी हुई थी। सब की सब गहने में लद कर गाती बजाती गई। एक मै ही अभागिन घर में पड़ी रोती रही। भला बहन, अब कहाँ तक कोई जब्त करे। आखिर हम भी तो आदमी है। हमारी भी तो जवानी है। दूसरों की खुशी चहलपहल देख खामखाह दिल मे हौंसले होते है। जब भूख लगती है और खाना नहीं मिलता तो चोरी करनी पड़ती है।
ये कहकर रामकली ने पूर्णा का हाथ अपनेहाथ में ले लिया और मुस्कराकर आहिस्ता-आहिस्ता एक गीत गुनगुनाने लगी। पूर्णा को ये बेत कल्लुफियां सख्त नागवार मालूम होती थीं मगर मजबूर थी।,
रास्ते में हजारों ही आदमी मिले। सबकी नजरें इन दोनों औरतों की तरफ फिरती थी। फ़िके चुस्त किये जाते थे। मगर पूर्णा सर को ऊपर उठाती हीन थी। हाँ रामकली अलबत्ता मुस्करा-मुस्कराकर माशूकाना अंदाज से इधर उधर देखती थी। एक आध बरजस्ता जवाब भी देदेती। पूर्णा जब सड़क पर मर्दो को खड़े देखती तो बचाके कतराकर निकल जाती मगर रामकली को उनके बीच में घुसकर निकलने की जिंद थी। नहीं मालूम क्यूँ उसकी चादर सर से बार-बार ढलक जाती जिसको वो एक अंदाज से ओढ़ती थी। इसी तरह दरिया किनारे पहुँची। यहाँ हजारों मर्दऔर औरतें और बच्चे नहा रहे थे।
रामकली को देखते ही एक पंडित ने कहा—इधर सेठानी जी, इधर।
पंडा—(घूरकर)यह कौन है?
रामकली—(आँखे नचाकर)कोई होंगी। क्या तुम काजी हो क्या?
पंडा—जरा नाम सुन के कान खुस कर लें।
रामकली—ये मेरी सखी है। इनका नाम पूर्णा है।
पंडा—(हँसकर) अहा हा, क्या अच्छा नाम है। है भी तो पूरन चंद्रमा की तरह। अच्छा जोड़ा है।
पूर्णा बेचारी झेंपी। ये मजाक उसको निहायत नागवार मालूम हुआ। मगर रामकली ने अपने सर की लट एक हाथ से पकड़ औरदूसरे हाथ से छिटकाकर कहा—खबरदार, उनसे दिल्लगी मत करना।ये बाबू अमृतराय से पुजवाती है।
पंडा—ओ हो हो, खूब घर ताका है। है भी तो चंद्रमा की तरह। बाबू अमृतराय भी बड़े रसिया है, कभूँ-कभूँ यहाँ चले आते है। वो देखो जो नया घाट बन रहाहै वो बाबू साहब बनवा रहे है। फिर ऐसी मनोहर सूरतों का दशन हमको कैसे मिलेगा।
पूर्णा दिल में सख्त पशेमान थी कि काहे को इसके साथ आयी, अब तक तो नहा-धो के घर पहुँची होती। रामकली से बोली—बहन, नहाना हो तो नहाओ। मुझको देर होती है। अगर तुम अभी देर में जाओ तो मै अकेली जाए।
पंडा—नहीं-नहीं रानी, हम गरीबों पर इतनी खपा(खफा) मत होओ। जाओ सेठानी जी इनको नहला लाओ। सुनता हूँ आज कचहरी बंद है। बाबू साहब घर होंगे।
पूर्णा ने चादर उतारकर धर दी और साड़ी लेकर नहाने के लिए उतरना चाहती थी कि यकायक सब पंडे उठ-उठकर खड़े होने लगे। और एक लमहे मे बाबू अमृतराय एक सादा कुरता पहने, सादी टोपी सर पररखे, चश्मा लगाये, हाथ में पैमाइश का फीता लिये, चंद ठेकेदारों के साथ इधर आते दिखायी दिये। उनको देखते ही पूर्णा ने एक लंबी घूँघट निकाल ली। उसने चाहा कि नीचे के जीने पर उतर जाऊँ। मगर शर्मो-हया ने उसके पैरों को वहीं बॉँध दिया। बाबू साहब को इन जीनों की चौड़ाई-लंबाई नापना थी, चुनांचे वह पूर्णा से दो कदम के फासले पर खड़े होकर नपवाने लगे और कागज पेसिंल पर कुछ लिखने लगे। लिखते-लिखते आगेको कदम जो बढ़ाया तो पैर जीने के नीचे जा पड़ा और करीब थाकि वो औंधे मुँह गिरें और उसी वक्त इस कीमती जिंदगी काखातमा हो जाय कि पूर्णा ने झपटकर उनको सम्हाल लिया। बाबूसाहब ने चौंककर देखा तो दाहिना हाथ एक नाज़नीन के हाथ में है। जब तक पूर्णा अपना घूघँट बढ़ाये वो उसको पहचान गये औरबोले—अख्वाह, ‘तुम होपूर्णा। तुमने मेरी जान बचा ली।
पूर्णा ने उसका कुछ जवाब न दिया, बल्कि सर नीचा किये हुए जीने से उतर गयी। जब तक बाबू साहब पैमाइश करवाते रहे वो गंगा की तरफ रूख किये खड़ी रही। जब वो चलो गये तो रामकली मुस्कराती हुई आयी और बोली—बहन, आज तो तुमने बाबू साहब को गिरते-गिरते बचा लिया। आज से तो वो और भी तुम्हारे पैरो पर सर रखेंगे।
पूर्णा—(कड़ी निगाहों से देखकर) रामकली, ऐसी बातें न करों। मुझे ऐसी फ़िजूल दिल्लगी भली नहीं मालूम होती। आदमी आदमी के काम आता है। अगर मैनें उनको बचा लिया तो इसमें क्या अनोखी बात हो गयी।
रामकली—ऐ लो, तुम तो जामे से बाहर हो गयी। बस इसी जरा-सी बात पर।
पूर्णा—नहीं, मैं गुस्से मेंनहीं हूँ। मगर ऐसी बातें मुझको अच्छी नहीं लगती। ले, नहाकर चलोगी भी या आज सारा दिन यहीं बिताओगी?
रामकली—जब तक इधर-उधर जी बहले अच्छा है। घर पर सिवाय जलते अंगारो के और क्या रक्खा है।
कुछ देर में दोनों सखियाँ यहाँ से रवाना हुई तो रामकली नेकहा—क्यूँ बहन, पूजा करने चलोगी?
पूर्णा—नहीं सखी, मुझे बहुत देर हो जायगी और न मै कभी मंदिरों में पूजा करने गयी हूँ।
रामकली—आज तुमको चलना पड़ेगा, जरा देखो तो कैसी बहार की जगह है अगर दो-चार दिन जाओ तो फिर बिला गये तबीयत न माने। यही दो-तीन घंटे जो स्नान-पूजा में काटता है, मेरी खुशी का वक्त है। बाकी दिन-रात सिवाय गाली सुनने के और कोई काम नहीं।
पूर्णा—तुम जाओ। मैं न जाऊँगी। जी नहीं चाहता।
रामकली—चलो-चलो, नखरे न बघारो। दम की दम में तो लौटे आते है।
रास्ते में एक तमोली की दुकान पड़ी। काठ के जीनेनु मा तख्तों पर सफेद कपड़े पानी से भिगाकर बिछाये हुए थे। उस पर बँगला देसी व मघई पान बडी सफाई से चुने हुए थे। सामने दो बड़े-बड़े चौखटेदार आइने लगे हुए थे और एक छोटी सी चौकी पर खुशबूयात की शीशियाँ और मसालो की डिबियाँ खूबी से सजाकर धरी हुई थीं। तमोली एक सजीला जवान था। सर पर दुपल्ली टोपी चुनकर कज रखती थी, बदन में आबेरवाँ का चुन्नत पड़ा हुआ कुर्ता था। गले मेंसोने की ताबीजें, आंखो में सुर्मा, पेशानी पर सुर्ख टीका, होंठ पर पान की लाली नमूदार। इन दोनो औरतों को देखते ही बोला—सेठानी जी, सेठानी जी, आओ, पान खाती जाओ।
रामकली ने चट सर से चादर खिसका दी और फिर उसको एक अंदाज से ओढकर और दिलरूबायाना अंदाज से हंसकर कहा—अभी ठाकुरजी का परशाद नहीं पाया है।
तमोली—आओ, यह भी तो परशाद से कम नहीं। संतों के हाथ की चीज परशाद से बढ़कर होती है। आजकल तो कई दिन से तुम्हारे दर्शन ही नहीं हुए, ये तुम्हारे साथ कौन सखी है।
रामकली—(मटककर) ये हमारी सखी है, बेढब ताक रहे हो। क्या कुछ जी ललचा रहा है।
तमोली—वो तो हमारी तरफ ताकती ही नहीं। हाँ भाई, बड़े घर की है। हम जैसे तो तलुओं से सर रगड़ते होंगे।
यह कहकर तमोली ने बीड़े लगाये और एक पत्ते मे लपेटकर रामकली की तरफ तकल्लुफ से हाथ बढ़ाया। जब उसने लेने के लिए अपना हाथ फैलाया तो तमोली ने अपना हाथ खेंच लिया और हँसकर बोला—तुम्हारी सखी लें तो दें।
रामकली—लो सखी, पान खाओ।
पूर्णा—मैं न खाऊँगी।
रामकली—तुम्हारी कौन-सी सास बैठी है जो कोसेगी, मेरी तो सास मना करती है, उस पर भी हर रोज पान खाती हूँ।
पूर्णा—तुम्हारी आदत होगी। मैं पान नहीं खाती।
रामकली—आज मेरी खातिर से खाओ। तुम्हें हमारे सर की कसम लो।
लाचार पूर्णा ने गिलौरियाँ लीं और र्श्माते हुए खायी। अब जरा धूप तकलीफदेह मालूम होने लगी थी। उसने रामकली से कहा—किधर है तुम्हारा मंदिर। वहाँ तक चलते-चलते तो शायद शाम हो जावेगी।
रामकली—जितनी देर यहाँ हो, होने दो। घर पर क्या धरा है।
पूर्णा खामोश हो गयी। उसको बाबू अमृतराय के पैर फिसलने का ख्याल आ गया। हाय, जो कहीं वे आज गिर पड़ते तो दुश्मनों की जान परबन जाती। बड़ी खैरियत हो गयी। मैं बड़े मौके से आ गयी थी। आज देर मे आना सफल हो गया। इन्हीं ख्यालों में महत्व थी कि दफअतन रामकली ने कहा—लो सखी, आ गया मंदिर।
पूर्णा ने चौंककर दाहिने जानिब देखा तो एक निहायत आलीशान संगीन इमारत है। दरवाजा सतहें जमीन से बहुत ऊँचा है और वहाँ तक जाने के लिए दस बारह जीने बने हुए है। रामकली को इस इमारत में ले गयी। अंदर जाकर क्या देखती है कि एक पुश्ता वसीह सहन है जिसमे सैकड़ो मर्द और औरत जमा है। दाहिने जानिब एक बारदारी हैं जो तमाम तकल्लुफ़ात से आ रास्ता-ओ-पीरास्ता नज़र आती है। इस बारादरी में एक निहायत वजीह-ओ-शकील शख्स जर्द रेशम की मिर्जई पहने सर पर खूबसूरत गुलाबी रंग की पगड़ी बांधे मसनद पर तकिया लागाये बैठा है। पेचवाना लगा हुआ है। उसके रुबरू साज़िन्दे बैठे सुर मिला रहे हैं और एक महपार नाज़नीन पेशवाज़ पहने बसद नाजो-अंदाजा जलवा अफ़रोज है। सैकड़ों आदमी इधर-उधर बैठे हैं और सैकड़ों खड़े हैं। पूर्णा ने अन्दाज़ की यह कैफियत देखी तो चौंककर बोली—क्यूँ, तो नाचघर मालूम होता है। कहीं भूल तो नहीं गयी?
रामकली—(मुस्कराकर) चुप, ऐसा भी कोई कहता है? यही देवी का मन्दिर है। वे महंत जी बैठे हैं। देखती हो कैसा सजीला जवान है। आज सोमवार हैं। हर सोमवार को यहाँ कंचानियों का नाच है।
इसी आसना में एक बुलन्द क़ामत शख्स आता दिखायी दिया। कोई छ: फ़ीट का कद था और निहायत लहीम-ओ शहीम। बालों में कंधी की हुई थी, मुँह पान से भरे, माथे पर भभूत रमायेख् गले में बड़े-बड़े दानों की रुद्राक्ष माला पहने, शानों पर एक रेशमी दोपट्टा रक्खें, बड़ी, और सुर्ख आँखें से इधर-उधर ताकत उन दोनों औरतों के क़रीब आकर खड़ा हो गया। रामकली ने उसकी तरफ़ एक अंदाज से देखकर कहा—क्यूँ बाबा इन्द्रदत्त, कुछ परशाद-वरशाद नहीं बनाया?
बाबा इन्द्रदत्त ने फरमाया—तुम्हारे ख़ातिर सब हाज़िर है। पहले चलकर नाच देखो। ये कंचनी से बुलायी गयी है। महंत जी बेढब रीझे है। एक हजार रुपया इनाम दे चुके है।
रामकली ने यह सुनते ही पूर्णा का हाथ पकड़ा और बारादरी की तरफ़ चली। बीचारी पूर्णा जाना न चाहती थी मगर वहाँ सबके सामने इन्कार करते भी न बन पड़ता था। जाकर एक किनारे खड़ी हो गयी। बेशुमार औरतों जमा थी। एक से एक हसीन, गहने से गोंडनी की तरह लदी हुई थी। बेशुमार मर्द था। एक से एक खुशरु, आता दर्जे की पोशाकें पहने हुए, सब के सब एक ही जगह मिले-जुले खड़े थे। आपस में नजर-बाज़ियाँ हो रही थी। नज़रबाज़ियाँ ही नहीं, बल्कि दस्तदराज़ियाँ भी होती जाती थी, मुस्कार-मुस्कुरा राजो-नियाज़ की बातें की जा रही थी। औरतें मर्दो में, मर्द में, औरतों में ये मेलजोल, ख़िलत-मिलत, पूर्णा को कुछ ताज्जुबख़ेज मालूम हुआ। उसकी हिम्मत अन्दर घुसने की न पड़ी। एक कोने में बाहर ही दबक गयी। मगर रामकली अन्दर घुस गयी और वहाँ कोई आधा घण्टे तक उसने खूब गुलछर्रे उड़ाये। जब वो निकली है तो पसीने में ग़र्क थी। एक तमाम कपड़े मसल गये थे।
पूर्णा ने उसे देखते ही कहा—क्यूँ बहन, पूजा से ख़ाली हो गयी? अब भी घर चलोगी या नहीं।
रामकली—(हँसकर) अरे तुम बाहर ही खड़ी थीं क्या? ज़रा अन्दर चलकर देखो, क्या बहार है। ईश्वर जाने, कंचनी गाती क्या है दिल मसोस लेती। अब आज उसकी चाँदी हैं हज़ारों रुपये ले जायगी।
पूर्णा—दर्शन भी किया या गाना ही सुनती रही?
रामकली—दर्शन करने आती है मेरी बला। यहाँ तो ज़रा दिल बहलने से काम है। तुम्हारे साथ न होती तो कहीं घंटों में घर जाती। बाबा इन्द्रदत्त राय ने ऐसा लज़ीज परशाद दिया है कि क्या बताऊँ।
पूर्णा—क्या है? चरनामृत है?
रामकली—(हँसकर) चनामृत का बाबा है—भंग।
पूर्णा—ऐ है, तुमने भंग पी ली?
रामकली-यही तो परशाद है देवी जी का इसके पीने में क्या हर्ज है? सभी पीते है, देवीजो को शराब भी चढ़ती है। कहो तुमको पिलाऊँ?
पूर्णा—नहीं बहन, मुझे मुआफ, रक्खो।
इधर यही बातें हो रही थीं कि दस-पन्द्रह आदमी बारदरी से आकर उन दोनों औरतों के इर्द-गिर्द खड़े हो गये।
एक—(पूर्णा की तरफ़ घूरकर) अरे यारो, ये तो कोई नया सुरुप है।
दूसरा—ज़रा बचकर चलो, बचकर
इतने में किसी ने पूर्णा के शाने को आहिस्ता से धक्का दिया वो बिचारी सख्त अजाब में मुबतला हैं। जिधर देखती है, आदमी ही आदमी नज़र आते है। कोई इधर से क़हकहा लगाता है, कोई उधर से आवाज़े कसता है। रामकली हँस रही हैं। मज़ाको का बरजस्ता जवाब देती है। कभी चादर को खिसकाती है, कभी दुपट्टे को सम्हालती है।
एक आदमी ने उससे पूछा—सेठानी जी, यह कौन है?
रामकली—ये हमारी सखी हैं ज़रा दर्शन कराने लिवा लगी थी।
दूसरा—नहीं, ज़रुर लाया करो, ओ हो क्या रुप है
बारे ख़ुद-ख़ुद करके उन आदमियों से निजात मिली। पूर्णा बेतहाश भागी। रामकली भी उसके साथ हुई। घर पर आकर पूर्णा ने अहद किया कि अब कभी मन्दिर न जाऊँगी।

आठवाँ बाब-देखो तो दिलफ़रेबिये अंदाज़े नक्श़ पा
मौजे ख़ुराम यार भी क्या गुल कतर गयी।

बेचारी पूर्णा ने कान पकड़े कि अब मन्दिर कभी न जाऊँगी। ऐसे मन्दिरों पर इन्दर का बज़ भी गिरता। उस दिन से वो सारे दिन घर ही पर बैठी रहती। वक्त़ कटना पहाड़ हो जाता। न किसी के यहाँ आना न जाना। किसी से रब्त-जब्त, न कोई काम न धंधा। दिन कटे तो क्यूँ कर? पढ़े तो ज़रुर, मगर पढ़े क्या? दो-चार किस्से-कहानियाँ की किताबें पंडित जी के ज़माने की पड़ी हुई थीं मगर उनमें अब जी नहीं जगता था। बाज़ार जानेवाला कोई न था जिससे किताबें मंगवाती। ख़ुद जाते हुए उसकी रुह फ़ना होती थी। बिल्लो इस काम की न था। और सौदा-सुलफ़ तो वो बाज़ार से लाती मगर ग़रीब किताबों का मोल क्या जाने? दो-एक बार जी मे आया कि कोई किताब प्रेमा के घर से मँगवाऊँ मगर फिर कुछ समझकर खामोश हो रही। गुल-बूटे बनाने असके आते ही न थे। सीना जानती थी मगर सिये क्या?ये रोज़ बेशग़ली उसको बहुत खलती थी और हरदम उसको मुतफ़क्किर-ओ-मग़मूम रखती थी। ज़िन्दगी का चश्मा ख़ामोशी के साथ बहता चला जाता था। हाँ, कभी-पंडाइन व चौबाइन मय अपने चेले-चपाड़ों के आकर कुछ सिखावन की बातें सुनाती जाती थी। अब उनको पूर्णा से कोई शिकायत बाक़ी न रह गयी थी, बजुज इसके कि बाबू अमृतराय क्यूँ आया करते हैं। पूर्णा ने भी खुल्लम-खुल्ला कहा दिया था कि मैं उनको ओन से रोक नहीं सकती। और न कोई ऐसा बर्ताव कर सकती हूँ जिससे उनको मालूम हो कि मेरा इसको नागवार मालूम होता है। सच तो यह है कि पूर्णा को अब इन मुलाक़ातों में मज़ा आने लगा था। हफ्ते-भर किसी हमदर्द की सूरत नज़र न आती। किसी से हँसकर बोलने को जी तरस जात। पस, जब इतवार आता तो सुबह हीसे अमृतराय के ख़ैर मक़दम की तैयारियाँ होने लगतीं। बिल्लो बड़ी तंदिही से सारा मकान साफ़ करती, दरवाज़े के मक़बिल का सेहन भी साफ़ किया जाता। कमरे कुर्सियाँ, तसीवीरें बहुत क़रीने से आरास्ता की जाता। हफ्ते भर का जमा हुआ गर्दो-गुबार दूर किया जाता। पूर्णा ख़ुद भी मामूल से अच्छे और साफ़ कपड़े पहनती। हाँ, सर में तेल डालते या आइना—कंघी करती हुए वो डरती थी। जब बाबू अमृतराय आ जाते तो नहीं मालूम क्यूँ पूर्णा का मद्धम चेहरा कुन्दन की तरह दमकने लगता। उसकी प्यारी सूरत और ज़ियादा प्यारी मालूम होने लग़ती। जब तक बाबू साहब बैठे रहते, वो इसी कोशिश में रहती कि क्या बात करुं जिसमे ये यहाँ से खुश-खुश जावें। वो उनकी ख़ातिर से हँसती-बोलती। बाबू साहब ऐसे हँसमुख थे कि कि रोते को भी एक बार जरुर हँस देते। यहाँ वो खूब बुलबुल की तरह चहते। कोई ऐसी बात न करते जिससे पूर्णा के दिल में रंजों मलाल का शयेबा भी पैदा हो। जब उनके चललने का वक्त़ तो पूर्णा नहीं मालूम क्यूँ कुछ उदास हो जाती। बाबू साहब इसको इसको ताड़ जाते और पूर्णा के ख़ातिर से कुछ देर और बैठते। इसी तरह कभी-कभी घंटों बैठ जाते। जब चिराग़ में बत्ती पड़ने का वक्त़ आ जाता, बाबू साहब चले जाते और पूर्णा कुछ देर तक इधर-उधर बौखलायी हुई घूमती। जो-जो बातें हुई होती उनको फिर से दोहराती। ये वक्त़ उसको एक दिलख़ुशकुन ख़ाब-सा मालूम होता।
इसी तरह कई महीने गुजर गये और आख़िरश जो बात बाबू अमृतराय के दिल में थी वो क़रीब-करीब पूर हो गयी। यानी पूर्णा को अब मालूम होने लगा कि मेरे दिल में उनकी मुहब्बत समाती जाती है। अब बिचारी पूर्णा पहले से भी ज्यादा उदास रहने लगी। हाय, ओ दिल ख़ाना-ख़राब, क्या एक बार मुहब्बत करने से तेरा जी नहीं भरा जो तूने नपयी कुलफ़त मोल ली। वो बहुत कोशिश करती कि अमृतराय का ख़याल दिल में ने आने पाये मगर कुछ बस न चलता।
अपने दिल की हालत के अन्दाज करने का उसको यूँ मौका मिल कि एक राज बाबू अमृतराय वक्त़ मुअय्यना पर नहीं आये। थोड़ी देर तक तो ज़ब्त किये उनकी राह देखती रही मगर जब वो अब भी न आ़ये तब उसका दिल कुछ मसोसने लगा। बड़ी बेसब्री से दौड़ती हुई दरवाज़े पर आयी और कमिल आधा घण्टें तक कान लगाये खड़ी रही। कल्ब पर कुछ वही कैफियत तारी होने लगी जो पंडित जी के दौर पर जाने के वक्त़ हुआ करती। शुबहा हुआ कि कहीं दुश्मनों की तबीयत नासाज़ तो नहीं हो गयी। आंखें में आँसू भर आये। महरी से कहा—बिल्लो, ज़रा जाओ देखा तो बाबू साहब की तबीयत कैसी है? नहीं मालूम क्यूँ मेरा दिल बैठा जाता है। बिल्लो को भी बाबू साहब के बर्त्ताव ने गिरव़ादा बना लिया था और पूर्णा को तो वो अपनी लड़की समझती थी। उसको मालूम होता जाता था कि पूर्णा उनसे मुहब्बत करने लगी है। मगर उसकी समझ में नहीं आता था कि इस मुहब्बत का नतीजा क्या होगा। यही सोचते-विचारते के बाबू साहब के दौलतख़ाने पर पहुँची। मालूम हुआ कि वो आज दो-तीन ख़िद मतगारों के साथ लेकर बाज़ार गये हुए है। अभी तक नहीं आये। पुराने बूढ़ा कहार जो बावजूद बाबू साहब के मुतवारि तकाज़ों के आधी टॉँग की धोती बॉँधता था, बोला—बेटा, बड़ा खतब जमाना आवा है। हजार का सौदा होय तो, दुइ हजार का सौदा होय तो हम ही लियावत रहेन। आज खुद आप गये है। भला इतने बड़े आदमी का अस चाहत रहा। बाकी फिर अब अंग्रेजी जमाना आवा है। अंग्रेंजी-पढ़न-पढ़न के जन हुई जाय तौन अचरज नहीं है।
बिल्लो यहाँ से खुश-खुश बूढ़े कहार के सिर हिलाने पर हँसती हुई घर को वापस हुई। इधर जब से वो आयी थी पूर्णा की अजब कैफियत हो रही थी किसी पहल तैन ही नहीं आता था। उसे मालूम होता था कि बिल्लो की वापसी में भी देर रही है। इसी असना मैं जूतों की आवाज़ सुनायी दी। वो दौड़कर दरवाज़े पर आयी और बाबूसाहब को टहलते हुए पाया तो गोया उसको नेमत मिल गयी। झटपट अन्दर से दरवाज़ा खोला दिया, कुर्सी करीने से रख दी, और अन्दरुनी दरवाज़े पर सर नीचा करके खड़ी हो गयी। बाबू साहब लबाद पहने हुए थे। एक कुर्सी पर लबादा रक्खा और बोल-बिल्लो कहीं गयी है क्या?
पूर्णा—(लजाते हुए), जी हाँ, आप ही के यहाँ तो गयी है।
अमृतराय-मेरे यहाँ कब गयी? क्यूँ, कोई जरुरत थी?
पूर्णा—आपके आने में बहुत देर हुई तो मैंने समझा शायद दुश्मनों की तबीयत कुछ नासाज़ हो गयी हो, उसको भेजा कि जाकर देख आ।
अमृतराय—(प्यार की निगाहों से देखकर) मुझे सख्त अफ़सोस हुआ कि मेरे देर करने से तुमको तकलीफ़ उठानी पड़ी। फिर अब ऐसी ख़ता न होगी। मैं जरा बाज़ार चला गया था।
ये कहकर उन्होंने एक बार ज़ोर से पुकार—सुखई, अन्दर आओ।
और एक लमहे में दो-तीन आदमी कमरे में दाखिल हुए। एक के हाथ में ख़ूबसूरत लोहे का सन्दूक था और दूसरे के हाथ में तह किये हुए कपड़े थे। सब सामान तख्त़ पर धर दिया गया। बाबू साहब ने फ़रमाया—पूर्णा, मुझे उम्मीद है कि तुम ये सब चीज़े कबूल करोगी। चन्द रोज़ाना जरुरियात की चीजें है (हँसकर) ये देर में आने का जुर्माना है।
पूर्णा उन लोगो में न थी जो किसी चीज़ को लेना तो चाहते हैं मगर वज़ा की पाबन्दी के लिहाज से दो-चार बार ‘नहीं’ करना फ़र्ज समझते है। हाँ उसने इतना कहा—बाबू साहब, मैं आपका इस इनायत के लिए शुक्रिया अदा करती हूँ। मगर मेरे पास तो जो कुछ आपकी फय्याज़ी के बदौलत है वही जरुरत से ज्यादा है। मैं इतनी चीज़ें लेकर क्या करुँगी’’
अमृतरारय—जो तुम्हारा जी चाहे करो। तुमने क़बूल कर लिया और मेरी मेहनत ठिकाने लगी।
इसी असना में बिल्लो पहुँची। कमरे में बाबू साहब को देखते ही निहाल हो गयी। जब तख्त पर निगाह पहुँची और उन चीज़ों को देखा तो बोली—क्या इसके लिए आप बाज़ार गये थे? क्या नौकर-चाकर नहीं थे? बूढ़ा कहार रो रहा था कि मेरी दस्तूरी मारी गयी।
अमृतराय—(हँसकर दबी ज़बान से) वो सब कहार मेरे नौकर हैं। मेरे लिए बाज़ार से चीज़ें लाते है। तुम्हारी सरकार का मैं नौकर हूँ।
बिल्लो यह सुनकर मुस्कराती हुई अन्दर चली गयी तो पूर्णा ने कहा—आप बज़ा फ़रमाते है, मैं तो खुद आपकी लौंडियों की लौंडी हूँ।
इसके बाद चन्द और बातें हुई। माघ-पूस का ज़माना था। सर्दी सख्त पड़ रही थी। बाबू अमृतराय ज्यादा देर तक बैठा न सके। आठ बजते-बजते दौलखाने की तरफ़ रवाना हुए। उनके जाते ही पूर्णा ने फ़र्तें इश्तियाक़ से लोहे का सन्दूक खोला तो दंग रह गयी। उसमें ज़नाने सिंगार की तमाम चीजें मौजूद थीं, आला दर्जे की—खुशनुमा आइना, कंघी, खुशबूदार तेलों की शीशियाँ, मूबाफ़ हाथों के कंगन और गले का हार जड़ाऊँ, नगीनेदार चूड़ियाँ, एक निहायत नफ़ीस पायदान, रुहपरवर इतरियात से भरी हुई एक छोटी-सी सन्दूक़ची, लिखने-पढ़ने के सामान, चन्द क़िस्सा-कहानी की किताबें, अलावा इनके चन्दू और तकल्लुफ़ात की चीज़ें क़रीने से सजाकर धरी हुई थीं। कपड़े खोले तो अच्छी से अच्छी साड़ियाँ नज़र आयी। शर्बती, गुलनारी, धानी, गुलाबी, उन पर रेशमी गुलबूटे बने हुए:चादरे, खुशनुमा, बारीक, खुशवज़ा—बिल्लो इनको देख-देख जामे में फूली न समाती थी—वह ये सब चीज़ें जब तुम पहनोगी तो रानी हो जाओगी, रानी।
पूर्णा—(गिरी हुई आवाज) कुछ भंग खा गयी हो क्या बिल्लोख् मैं ये चीज़ें पहनूँगी तो जीती बचूँगी चौबाइन व सेठाइन ताने दे-देकर मार डालेगी।
बिल्लो-ताने क्या देंगी, कोई दिल्लगी है, उनके बाप का इसमें क्या इजारा। कोई उनसे कुछ माँगने जाता हैं।
पूर्णा ने बिल्लो को हैरत और इस्तेजाब की निगाहों से देखा। यही बिल्लो है जो अभी दो घझ्टे पहले चौबाइन और पंडाइन की हमख़ायल थी, मुझको पहने-ओढ़ने से बार-बार मना किया करती थी। यकायक ये क्या कायपलट हो गयी, बोली—मगर ज़माने के नेको-बद का भी ख्याल होता है।
बिल्लो—मैं यह थोड़ी कहती हूँ कि हरदम ये चीज़ें पहना करो। बल्कि जब बाबू साहब आवे।
पूर्णा-(शर्माकर) यह सिंगार करके मुझसे उनके सामने क्योंकर आया जायागा। तुम्हें याद है एक बार प्रेमा ने मेरे बाल गूँथ दिये थे जिसको आज महीनों बीत गये। उस दिन वो मेरी तरफ ऐसा ताकते थे कि बेअख्त़ियार क़ाबू से दिल बाहर हुआ जाता था। मुझसे फिर ऐसी भूल न होगी।
बिल्लो—नहीं बहूं उनकी मर्जी यही है तो क्या करोगी। इन्हीं चीज़ो के लिए वो बाज़ार गये थे। सैकड़ों नौकर-चाकर हैं मगर इन चीज़ें को खुद जाकर लाये। तुम उनकासे पहनोगी तो वो क्या कहेंगे?
पूर्णा(चश्मेपुरआब होकर) बिल्लो, बाबू अमृतराय नहीं मालूम क्या करानेवाला हैं। कुछ तुम्हीं बतलाओ मैं क्या करुँ। वो मुझसे दिन-दिन ज़ियादा मुहब्बत जताते है मैं अपने दिल को क्या कहूँ। तुमसे कहते शर्म आती है। वो भी कुछ बेबस हुआ जाता है। मोहल्लेवाले अलग बदनाम कर रहे है। नहीं मालूम ईश्वर को क्या करना मंजूर है।
बिल्लो—बहू, बाबू साहब का मिज़ाज ही ऐसा है कि दूसरों को लुभी लेता हैं। इसमें तुम्हारा क्या कुसूर है। इस गुफ्तगू के बाद पूर्णा तो सोने चली गयी और बिल्लो ने तमाम चीज़ें उठाकर करीने से रक्खी। सुबह उठकर पूर्णा ने जो किताबें पढ़ाना शुरु की जो बाबू साहब लाये थे। और ज्यूँ-ज्यूँ पढ़ती उसको मालूम होता कि कोई मेरा ही किस्सा कह रहा है। जब दो-एक सफ़े पढ़ लेती तो एक महबियत के आलम में घंटों दीवार की तरफ ताकती और रोती। उसको बहुत-सी बातें अपनी हालत से मिलती हुई नजर आयी। इन किस्सों में जो जी लगा तो इधर-उधर के तफ़क्कुरख़ेज ख्य़ालात दूर हो गये। और वो हफ्ता उसने पढ़ने में कटा। फिर आखिर इतवार का दिन आया। सुबह होते ही बिल्लो ने हँसकर कहा—आज साहब के आने का दिन है। आज जरुर से जरुर तुमको गर्हन पहनने पड़ेंगे।
पूर्णा—(दबी हुई आवाज़ से) आज तो मेरे सर में दर्द होता है।
बिल्लो—नौज, तुम्हारे बैरी का सर दर्द न करे जो तुमको देख न सके। इस बानेसे पीछा न छूटेगा।
पूर्णा—और जो किसी ने मुझे तना दिया तो जानना।
बिल्लो—जाने भी दो बहू, कैसी बात मुँह से निकालती हो। कौन है कहनेवाला।
सुबह ही से बिल्लो ने पूर्णा का बयान-सिंगार शुरु किया। महीनों से सर न मला गया था, आज खुशबूदार मसाले से मला गया। तेल डाला गया। कंघी की गयी। रेशमी मूबाफ़ लगाकर बाल गूँथे गय। और जब सेह-पहर को पूर्णा ने गुलाबी कुर्ती पहनकर उसपर रेशमी काम की शर्बती साड़ी, पहनी, हाथों में चूड़ियाँ कंगन सजाये तो वो बिलकुल हूर होने लगी। कभी उसने ऐसे बेशक़ीमत और पुरतकल्लुफ़ कपड़े न पहने थे और न वह कभी ऐसी सुघड़ मालूम हुई थी। वो अपनी सूरत आप देख-देख कुछ खुश भी होती थी, कुछ शर्माती भी थी और कुछ अफ़सोस भी करती थी। जब शाम का वक्त़ आया तो पूर्णा कुछ उदास मालूम होने लगी। ताहम उसकी आँखें दरवाज़े पर लगी हुई थीं। पाँच बजते-बजते मामूल से सबेर बाबू अमृतराय तशरीफ़ लाये। बिल्लो से ख़ैरोआफ़ियत पूछी और कुर्सी पर बैठ के किसी के दीदार के इश्तियाक़ में अन्दरुनी दरवाज़ें के तरफ टकटकी लगाकर देखने लगे। मगर पूर्णा वहाँ न थी। कोई दस मिनट तक तो बाबू साहब ने खामोशी से इन्तज़ार किया। बाद में अज़ॉँ बिल्लो से पूछा –क्यूँ महरिन, आज तुम्हारी सरकार कहाँ हैं?
बिल्लो—(मुस्कराकर) घर ही में तो है।
अमृतराय—तो आयीं क्यूँ नही? आज कुछ नारज़ हैं क्या?
बिल्लो—(हँसकर) उनका मन जाने।
अमृतराय—ज़रा जाकर लिवा आओ। अगर नाराज हों तो चलकर मनाऊँ।
ये सुनकर बिल्लो हँसती हुई अन्दर गयी और पूर्णा से बोली—बहू, उठोगी या वो आप ही मनाने आते है।
पूर्णा ने अब कोई चारा न देखा तो उट्टी और शर्म से सर झुकाये और घूँघट निकाले बदन को चुराती, लजाती, बल-खाती, एक हाथ मे गिलौरीदान लिये दरवाज़ें पर आकर खड़ी हो गयी। अमृतराय ने मुतहैयर होकर देखा। आँखें चुँधिया गयीं। एक लमहे तक महवियत का आलम तारी रहा। बाद अज़ॉँ मुस्कराकर बोले—चश्मे बद दूर।
पूर्णा—(लजाती हुई) मिज़ाज तो आपका अच्छा है?
अमृतराय—(तिरछी निगाहों से देखकर) अब तक अच्छा था। मगर अब ख़ैरियत नहीं नज़र आती।
पूर्णा समझ गयी। अमृतराय के संजीदा मज़ाक का मज़ा लेते-लेते वो कुछ हाज़िरजवाब हो गयी। है। बोली—अपने किये का क्या इलाज?
अमृतराय—क्या से किसी को ख़ामाख़ाह की दुश्मनी है।
पूर्णा ने शर्मा के मुँह फेरा लिया। बाबू अमृतराय हँसने लगे और पूर्णा की तरफ़ प्यार की निगाहों से देखा। उसकी हाज़िरजवाबी उनको बहुत भायी। कुछ देर तक और ऐसे ही लुत्फआमोज़ बातों का मज़ा लेते रहे। पूर्णा को भी ख्याल न था कि मेरी ये बेतकल्लुफ और बज़लासंजी मेरे लिए मौजूँ नहीं है। उसको इस वक्त़ न पंडाइन का ख़ौफ़ था। न पड़ोसियों का डर। बातों ही बातों में उसने मुस्कराहट अमृतराय से पूछा-आपके आजकल प्रेमा की कुछ ख़बर मिली है?
अमृतराय—नहीं, पूर्णा, मुझे इधर उनकी कुछ ख़बर नही थी। हाँ, इतना अलबत्ता जानता हूँ कि बाबू दाननाथ से क़राबत की बातचीत हो रही है।
पूर्णा—सख्त अफ़सोस है कि उनकी किस्मत में आपकी बीवी बनना नहीं लिखा है। मगर उनका जोड़ है तो आप ही से। हाँ, आपसे भी कहीं बातचीत हो रही थी। फ़रामाइए वो कौन खुशनसीब है। वो दिन जल्द आता कि मैं आपकी माशूक से मिलती।
अमृतराय—(पुरहसरत लहजे में) देखें कब किस्मत यावरी करती है। मैंने अपनी कोशिश में तो कुछ उठा नहीं रक्खा।
पूर्णा—तो क्या उधर ही से खिंचाव है, ताज्जबु है
अमृतराय—नही पूर्णा, मैं जरा बदक़िस्मत हूँ, अभी तक कोई कोशिश कारागर नहीं हुई। मगर सब कुछ तुम्हारे ही हाथों में है। अगर तुम चाहो तो मेरे सर कामयाबी का सेहरा बहुत जल्दी बँध सकता है। मैंने पहले कहा था और अब भी कहता हूँ कि तुम्हारी ही रज़ामन्दी पर मेरी कामयाबी का दारोमदार है।
पूर्णा हैरत से अमृतराय की तरफ देखने लगी। उसने अब की बार भी उनका मतलब साफ़-साफ़ न समझा। बोली—मेरी तरफ़ से आप ख़ातिर जमा रखिये। मुझसे जहाँ तक हो सकेगा उठान रखूँगी।
अमृतराय—इन अलफ़ाज का याद रखना पूर्णा, ऐसा न हो कि भूल जाओ। नहीं तो मुझ बेचारे के सब अरमान खाक में मिल में मिल जायेंगे।
ये कहकर बाबू अमृतराय उट्ठे और चलते वक्त़ पूर्णा की तरफ़ देखा। बेचारी पूर्णा की आँखें डबडबायी हुई थी गोया इल्तिजा कर रही थी कि जरा देर और बैठिये मगर अमृतराय को कोई ज़रुरी काम था। उन्होंने उसका हाथ अहिस्ता से लिया और डरते-डरते उसको चूमकर बोले—प्यारी पूर्णा, अपनी बातों को याद रखना।
ये कहा और दम के दम में गायब हो गये। पूर्णा खड़ी रहती रह गयी और एक दम में ऐसा मालूम हुआ कि कोई दिलखुशकुन ख्वाब था जो आँख खुलते ही ग़ायब हो गया।

नवाँ बाब-तुम सचमुच जादूगार हो

बाबू अमृतराय के चले जाने के बाद पूर्णा कुछ देर तक बदहवासी के आलम में खड़ी रही। बाद अज़ॉँ इन ख्यालात के झुरमुट ने उसको बेकाबू कर दिया।
आखिर वो मुझसे क्या चाहते है। मैं तो उनसे कह चुके कि मै आपकी कामयाबी की कोशिश में कोई बात उठा न रखूँगी। फिर यह मुझसे क्यूँ इस क़दर मुहब्बत जताते है क्यूँ ख़ामाख़ाह मुझको गुनाहागार करते है। मैं उनकी उस मोहनी सूरत को देखकर बेबस हो जाती हूँ। हाय-आज उन्होंने चलते वक्त़ मुझको प्यारी पूर्णा कहा था और मेरे हाथों के बोस लिये थे, नारायन वह मुझसे क्या चाहते है? अफ़सोस इस मुहब्बत का नतीजा क्या होगा?
यही ख्याल करते-करते उसने नतीजा जो सोचा तो मारे शर्म के चेहरा छुपा लिया। और खुद ब खुद बोल:
ना-ना, मुझसे ऐसा होगा। अगर उनका यह बर्ताव मेरे साथ बढ़ता गया तो मेरे लिए सिवाय जान देने के और कोई इलाज नहीं है। मैं ज़रुर ज़हर खा लूँगी।
इन्हीं ख्यालात में गलताँ थी कि नींद आ गयी। सबेरा हुआ, अभी नहाने जाने की तैयारी कर ही रही थी कि बाबू अमृतराय के आदमी ने आकर बिल्लो को बाहर से ज़ोर से पुकारा और उसको एक सरबमोहर लिफ़फ़ा मय छोटे-से बक्स के दकर अपनी राह लगा। बिल्लो ताज्जुब करती हुई अन्दर आयी और पूर्णा को वह बक्स दिखाकर ख़त पढ़ने को दिया। उसने काँपते हुए हाथों से ख़त को खोला तो यह लिखा था।
प्यारी पूर्णा, जिस दिन से मैंने तुमको पहले देखा है उसी दिन से तुम्हारा शैदाई हो रहा हूँ और यह मुहब्बत अब इन्तिहा तक पहुँच गयी है। मैंन नहीं मालूम कैसे इस आग को अब तक छुपाया है। पर अब यह सुलगापा नहीं सहा जात। मैं तुमको सच्चे दिल से प्यार करता हूँ और अब मेरी तुमसे यह इल्तिजा है कि मुझको अपनी गुलामी में कुबूल करो। मैं कोई नाजयज़ इरादा नहीं रखता। नारायन, हरगिज नहीं। तुमसे बाक़ायदा तौर पर शादी किया चाहता हूँ। ऐसी शादी बेशक अनोखी मालूम होगी। मगर मेरी बात यकीन मानो की अब इस देश में ऐसी शादी कहीं-कहीं होने लगी है। इस ख़त के साथ मैं तुम्हारे लिए एक जड़ाऊ कंगन भेजता हूँ। शाम को मैं तुम्हारे दर्शन को आऊँगा। अगर कंगन तुम्हरी कलाईयों पर नज़र आया तो समझ जाऊँगा कि मेरी दरख़ास्त कुबूल हो गयी, वर्ना दूसरे दिन शायद अमृतराय फिर तुमसे मुलाकात करने के लिए जिन्दा न रहे।
तुम्हारी शैदाई
अमृतराय

पूर्णा ने इस ख़त को गौर से पढ़ा। उसको उससे ज़रा भी ताज्जुब नहीं हुआ। ऐसा मालूम होता था कि किसी की मुन्तज़िर थी। उसने ठान लिया था कि जिस दिन बाबू साहब मुझसे खुल्लमखुल्ला तअश्शुक जातायेंगे और नाजायाज़ पेश करेंगे उसी दिन मै उनसे बिलकुल क़ता कर लूँगी। उनकी तमाम चीज़े उनके हवाले कर दूँगी और फिर जैसे बीतेगा बिताऊँगी। मगर इस खत को पढ़कर उसको अपने इरादे में कमज़ोरी मालूम होने लगी। क्योंकि उसको ख्वाब में भी ख्याल न था कि बाबू साहब बाक़ायदा शादी करेगे और न उसको वहम ही था कि बेवाओं की शादियाँ होती है सबसे बढ़कर यह बात थी बरहमन और छत्री में ताल्लुक क्या? मैं बिरहमनी वो छत्री, पस मेरा उनका क्या इलाका कुछ नहीं। उनकी चालाकी है। वो मुझे घर रखा चाहते है। मगर यह मुझसे न होगा। मेरे दिल में मुहब्बत ज़रुर है। मुझे आज तक ऐसी मुहब्बत किसी और की नहीं मालूम हुई। मगर मुझसे मुहब्बत की ख़ातिर इतना बड़ा पाप न उठाया जाएगा। मेरी खुशी तो इसमें है कि उनको नज़र भर के देखा करुँ और उनकी सेहत की खुशखबर पाया करुँ। मगर हाय, इस खत के आखिर जुमले ग़ज़ब के है। कहीं मेरे इनकार से उनके दुशमनों का बाल भी बीका हुआ तो मैं बेमौत मर जाऊँगी। या ईश्वर मैं क्या करुँ मेरी तो कुछ अक़ल काम नहीं करती।
बिल्लो पूर्णा के चेहरे का चढ़ाव-उतार बड़े ग़ौर से देख रही थी। जब वो ख़त को पढ़ चुकी तो उसने पूछा—क्यूँ बहू, क्या लिखा है?
पूर्णा—(संजीदा आवाज से) क्या बताऊँ क्या लिखा है।
बिल्लो—क्यूँ ख़ैरियत तो है, काई बुरी सुनावनी तो नहीं है?
पूर्णा—हाँ बिल्लो, इससे ज़ियाद बुरी सुनावानी हो ही नहीं सकती। अमृतराय कहते हैं कि मुझसे..
उससे और कुछ न कहा गया। बिल्लो समझ गयी मगर वहीं तक पहुँची जहाँ तक उसकी अक्ल ने मदद की। वो अमृतराय की बढ़ती हुई मुहब्बत को देख-देख दिल में समझ गयी थी कि वो एक न एक दिन पूर्णा को अपने घर जरुर डालेंगे। पूर्णा उनसे मुहब्बत करती है। उन पर जान देती है। वो पहले बहुत पसोपेश करेगी। मगर आख़िर मान जाएगी। उसने सैकड़ों रईसों को देखा था कि नाइनो, कहारियों को घर डाल लिया करते है। ग़ालिबन इस हालत में भी ऐसा होगा। इसमें उसको कोई बात अनोखी नहीं मालूम होती थी। क्योंकि उसको यकीन न था कि बाबू साहब पूर्णा से सच्ची मुहब्बत करते है। मगर बेचारे सिवाय इसके और कर ही क्या सकते हैं कि उसको घर में डाल लें। चुनांचे जब उसने पूर्णा को यूँ बातें करते देखा तो ताड़ गयी कि आज़माईश का मौका है वो जानती थी कि अगर पूर्णा राज़ी हुई तो उसकी बकिया जिन्दगी बड़े आराम से कटेंगी। बाबू साहब भी निहाल हो जाएँगे और मैं बूढ़ी भी उनकी बदौलत आराम करुँगी। मगर कहीं उसने इनकार किया तो दोनों की जिन्दगी का तल्ख हो जाएगी। यह बातें सोचकर उसने पूर्णा से पूछा—तुम क्या जवाब दोगी?
पूर्णा—जवाब, इसका जवाब सिवाय इनकार के और हो ही क्या सकता है? भला विधवाओं की शादी कहीं हुई और वो भी बरहमनी की छत्री से। मैंने इस किस्म के किस्से उन किताबों में पढ़े थे जो बाबू अमृतराय मुझे दे गये हैं। मगर वो किस्से हैं, तुमने कभी ऐसा होते भी देखा है।
बिल्लो समझी थी कि बाबू अमृतराय उसको घर डालने की कोशिश में हैं। शादी का तजकिरा सूना तो हैरत में आ गयी। बोली—भला ऐसा कहीं भया है? बाल सफेद हो गयो मगर ऐसा ब्याह नहीं देखा।
पूर्णा—बिल्लो, ये शादी—ब्याह सब बहानेबाजी हैं। उनका मतलब मैं समझ गयी। मुझसे ऐसा न होगा। मैं जहर खा लूँगी।
बिल्लो—बहू, ऐसी बातें जबान से मत निकालो। वो बेचारा भी तो अपने दिल से नाचार हैं, क्या करे?
पूर्णा—हाँ बिल्लो, उनको नहीं मालूम क्यूँ मुझसे मुहब्बत हो गयी है। और मेरे दिल का हाल तो तुमसे छिपा नहीं मगर काश वो मेरी जान माँगते तो मैं अभी दे देती। ईश्वर जानता है, मैं उनके जरा-से इशारे पर अपने को निछावर कर सकती हूँ। मगर वो जो चाहे चाहते हैं, वो मुझसे नहीं होने का। उसका ख़याल करते ही मेरा कलेजा काँपने लगाता है।
बिल्लो—हाँ भलेमानुसों में तो ऐसा नहीं होता। कमीनों में डोला आता है। मगर बहूत सच तो यह है, अगर तुम इन्कार करते हो उनका दिल टूट जाएगा। मुझे तो डर है कि कहीं वो जान पर न खेल जाएँ। और ये तो मैं कह सकती हूँ कि उनसे बिछड़ने के बाद तुमसे एक दम बेरोये न रहा जाएगा। चाहे तुमको बुरा लागे या भला।
पूर्णा—यह बस तो तुम सच कहती हो पर आखिर मैं क्या करुँ। वो मुझसे झूठ-सच शादी कर लेगे। शादी क्या करेंगे, शादी का नाम करेंगे। मगर ज़माना क्या कहेगा। लोग अभी से बदनातम कर रहे है, तब तो नहीं मालूम क्या हो जायेगा। सबसे बेहतर यही है कि जान दे दूँ। न रहे बॉँस न बजे बॉँसुरी। उनको दो-चार दिन तक अफ़सोस होगा आख़िर भूल जाएँगे। मेरी तो इज्ज़त बच जाएगी। वो कहते है कि ऐसी शादियाँ कहीं-कहीं होती है। जाने कहाँ होती है, यहाँ तो होती नहीं। यहाँ की बात यहाँ है, ज़माने की बात जमाने में है।
बिल्लो—ज़रा इस बक्स को तो खोलो, देखो इसमें क्या है।
पूर्णा खत पढ़कर परेशान हो रही थी कि अभी तक बक्स को छुआ भी न था। अब जो उसको खोला तो अन्दर सब्ज मख़मल में लिपटा हुआ एक क़ीमती कंगन पाया।
बिल्लो—ओ हो, इस पर तो जड़ाऊ काम किया हुआ है
पूर्णा—उन्होंने इस ख़त में लिखा है कि मैं शाम को आऊँगा और अगर तुमको यह कंगन पहने देखूँगा तो समझ जाऊँगा कि मेरी मंजूर है नहीं तो दूसरे दिन दुश्मन जिन्दा न रहेगे।
बिल्लो—क्या आज ही शाम को आवेगे?
पूर्णा—हाँ, आज ही शाम को तो आयेगे। अब तुम्हीं बतलाओ क्या करुँ। किससे जाकर इलाज पूछूँ।
यह कहकर पूर्णा ने दोनों हाथों से अपनी परेशानी ठोंक और ख़ामोश बैठकर सोचने लगी। नहाने कौन जाता है, खाने-पीने की किसको सुध है। दोपहर तक बैठी सोचा की मगर दिमाग ने कोई क़तराई फैसला न किया। हाँ ज्यूँ-ज्यूँ शाम का वक्त़ करीब आता था त्यूँ-त्यूँ उसका दिल धड़-धड़ करता था कि उसके सामने कैसे जाऊँगी। अगर वो कलाईयों पर कंगन न देखेगे तो क्या करेंगे। कहीं जान पर न खेल ज़ायँ। मगर तबीयत का कायदा है कि जब कोई बात हद से ज़ियादा महव करनेवाली होती है तो उस पर थोड़ा देर ग़ौर करने के बाद दिमाग बिलकुल बेकार हो जाता है। पूर्णा से अब सोचा भी न जाता था। वो पेशानी पर हाथ दिये बैठी दीवार की तरफ़ ताकती रही। बिल्लो भी खामोश मन मारे हुई थी। तीन बजे होगें कि यकायक बाबू अमृतराय की मानूस आवाज़ दरवाज़े पर ‘बिल्लो—बिल्लो’ कहते हुए सुनायी दी। बिल्लो बाहर दौड़ी और पूर्णा अपने कमरे में घुस गयी और दरवाज़े भेड़ लिया और उस वक्त़ उसका दिल भर आया और ज़ारो क़तार रोने लगी। इधर बाबू अमृतराय अज़हद बेचैन थे। बिल्लो को देखते ही उनकी मुश्ताक़ निगाहें बड़ी तेजी से उसके चेहरे की तरफ़ उठीं मगर उस पर अपनी कामयाबी की कोई बाउम्मीद झलक न पाकर ज़मीन की तरफ़ गड़ गयीं दबी हुई आवाज़ में बोले—बिल्लो, तुम्हारी उदासी देखकर मेरा दिल बैठा जाता है। क्या कोई खुशख़बरी न सुनाओगी?
बिल्लो ने हसरत से आँखें नीची कर लीं और अमृतराय ने आबदीद होकर कहा—मुझे तो इसका ख़ौफ पहले ही था, किस्मत को कोई क्या करे मगर ज़रा तुम उनसे मेरी मुलाकत करा देती, मुझे उम्मीद है कि वो मुझ पर अपनी इनायत ज़रुर करेंगी। मैं उनको आख़िरी बार देख लेता।
यह कहते—कहते अमृतराय की आवाज़ बेअख्तियार काँपने लगी। बिल्लो ने उनको रोते देखा तो घर में दौड़ी गयी और बोली—बहू, बहू बेचारी खड़े रो रहे है। कहते है कि मुझसे एक दम के लिए मिल जायँ।
पूर्णा—नहीं बिल्लो, मैं उनके सामने न जाऊँगी। हाय राम—क्या वो बहुत रो रहे है?
बिल्लो—क्या बताऊँ, बेचारों की दोनों आँखें लाल हैं। रुमाल भीगा गया है, कहा है कि हमको आखिरी बार अपनी सूरत दिखा जाए।
हाय, ये वक्त़ बेचारी कमज़ोर दिलवाली पूर्णा के लिए निहायत नाजुक था। अगर कंगन पहनकर अमृतराय के सामने जाती है कि जिन्दगी के सारे अरमान पूरे होते है, सारी अम्मेदे बर आती है। अगर बिला कंगन पहने जाती है तो उनके अरमानो का खून करती है और अपनी ज़िन्दगी को तलख़। उस हालत में बदनामी है और रुसवाई, इस हालत में हसरत है और नाकामी। उसका दिल दुबधे में है। आखिर बदनामी का ख़याल ग़ालिब आया। वो घूँघट निकालकर निशस्तगाह की तरफ़ चली। बिल्लो ने देखा कि उसकी हाथ पकड़कर खेंचा और चाहा कि कंगन पहना दे मगर पूर्णा ने हाथ को झटका देकर छुड़ा लिया और दम के दम में वो बाहरवाले कमरे के अन्दरुनी दरवाज़े पर आकर खड़ी हो गयी। उसने अमृतराय की तरफ़ देखा। आँखें लाल थीं। उन्होंने उसकी तरफ देखा। चेहरे से हसरत बरस रही थीं। दोनों निगाहें मिली। अमृतराय बेअख्तियाराना जोश से उसकी तरफ़ बढ़े और उसका हाथ लेकर कहा—पूर्णा, ईश्वर के लिए मुझ पर रहम करो।
उनके मुँह से कुछ न लिकाला। आवाज़ हलक़ में फँसकर रह गयी। पूर्णा की खुद्दारी आज़ तक कभी ऐसी इम्तिहान में न पड़ी थी। उसने रोते—रोते अपना सर अमृतराय के कंधे पर रख दिया कुछ कहना चाहा मगर आवाज़ न निकली। हाय खुद्दारी का बॉँध टूट गया और वह तमाम जोश जो रुका हुआ था उबल पड़ा। अमृतराय ग़ज़ब के नब्ज़शनास थे। समझ गये कि अब म़ौका है। उन्होंने आँखें के इशारे से बिल्लो से कंगन मँगवाया। पूर्णा को आहिस्ता से कुर्सी पर बिठा दिया। वो ज़रा भी न झिझकी। उसके हाथों में कंगन पहनाया। पूर्णा ने ज़रा भी हाथ न खींचा। तब अमृतराय ने जुरअत करके उसके हाथों को चूम लिया और उनकी आँखें मारे खुशी के जगमगाने लगीं। रोती हुई पूर्णा ने मुहब्बत निगाहों से उनकी तरफ़ और बोली—प्यारे अमृतराय, तुम सचमुच जादूगर हो।

दसवाँ बाब-शादी हो गयी

तजुर्बे की बात कि बसा औकात बेबुनियाद खबरें दूर-दूर तक मशहूर हो जाया करती है, तो भला जिस बात की कोई असलियत हो उसको ज़बानज़दे हर ख़ासोआम होने से कौन राक सकता है। चारों तरफ मशहूर हो रहा था कि बाबू अमृतराय इसलिए बिरहमनी के घर आया-जाया करते हैं। सारे शहर के लोग हलफ़ उठाने को तैयार रहते कि दोनों में नाज़ायज़ ताल्लुकात है। कुछ अर्से से चौबाइन व पंडाइन ने भी पूर्णा के शौको-सिंगारो पर हाशिया चढ़ाना छाड दिया था। चूँकि वा अब उनकी दानिश्त में उन कुयूद की पाबन्द न थी जिनका हर एक बेवा को पाबन्द होना चाहिए। जो लोग तालीमयाफ्त़ा थे और हिन्दुस्तान के दीगर सूबेजात की भी कुछ खबर रखते थे वे इन किस्सों को सुन-सुनकर ख़याल करते थे। शायद इसका नतीजा नकली शादी होगी हज़ारो बाअसर आशख़ास घात में थे कि अगर यह हज़रत रात को पूर्णा के मकान की तरफ जाने लगें तो जिन्दा वापस न जाए। अगर कोई अभी तक अमृतराय की नीयती की सफ़ाई पर एतबार करता था तो वो प्रेमा थी। वा बेचारी वफ़ादार लड़की ग़म पर ग़म और दुख पर दुख सहती थी। मगर अमृतराय की मुहब्बत उस पर सादिक़ थी। उसकी आस अभी तक बँधी हुई थी। उसके दिल में कोई बैठा हुआ कहता था कि तुम्हारी शादी ज़रुर अमृतराय से होगी। इसी उम्मीद पर वो जीती थी। और जितनी ख़बरें अमृतराय की निस्तबध मशहूर होती थी उनपर वो कुछ यूँ ही-सा यक़ीन लाती थी। हाँ, अक्सर उसको यह ख्याल पैदा होता था कि पूर्णा के घर बार-बार क्यों आते है? और शायद देखते-देखते, अपनी भावज और सारे घर की बातें सुनते-सुनते वह अमृतराय को बेवफ़-बदखुल्क समझने लगी है। मगर अभी तक उनकी मुहब्बत उसके दिल में बजिन्सेही मौजूद थी। वो उन लोगों मे थी जो एक बार दिल का सौदा चुका लेते है तो फिर अफ़सोस नहीं करते।
आज बाबू अमृतराय मुश्किल से बँगले पर पहुँचे होंगे कि उनकी शादी की ख़बर एक कान से दूसरे कान फैलने लगी। और शाम होत-होते सारे शहर में यही ख़बर गूँज रही थी। जो शख्स पहले सुनता तो एकबार न करता और जब उसको इस ख़बर की सेहत का य़कीन हो जाता है तो अमृतराय को सलवाते सुनाता। रात तो किसी तरह कटी। सुबह होते ही मुंशी बदरीप्रसाद साहब के दौलतख़ाने पर शहर के शुरफ़ा व उलमा उमरा व गुरबा मय कई हज़ार बिरहनों और शोहदो के जमा हुए और तजवीज़ होने लगी कि ये शादी क्यूँकर रोकी जावे।
पण्डित भृगुदत्त—विधवा विवाह वर्जित है। कोई हमसे शास्त्रार्थ कर ले।
कई आवारों ने मिलकर हाँक लगायी—हाँ, जरुर शास्त्रार्थ हो। अब इधर-उधर से सैकड़ों पंडित विद्यार्थी दबाये, सर घुटाये, और अँगोछा काँधे पर रखे मुँह में तम्बाकू को भरे एक जा-जमा हो गये और आपस में झकझक होने लगी कि ज़रुर शास्त्रार्थ हो। यह श्लोक पूछा जावे और उसके जवाब का यों जवाब दिया जावे। अगर जवाब में व्याकरण की एक ग़लती भी निकलते तो फिर फ़तह हमारे हाथ हैं। बहुत से कठमुल्ले गँवारे भी इसी जमाते में शरीक होकर शास्त्रार्थ चिल्ला रहे थे। बदरीप्रसाद साहब जहाँदीदा आदमी थे। जब उन आदमियों को शास्त्रार्थ पर आमादा देखा तो फ़रमाया, किससे शास्त्रार्थ किया जाएगा। मान लो वह शास्त्रार्थ न करें तब?
सेठ धूनीमल—बिला शास्त्रर्थ किए ब्याह कर लेंगे? (धोती सम्हालकर)—थानों में रपट कर दूँगा।
ठाकुर ज़ोरावर सिंह (मूँछों पर ताव देकर)—कोई ठट्ठा है ब्याह करना। सर काट लूँगा। खून की नदियाँ बह जाएगी।
राव साहब-बारात की बारात काट डाली जाएगी।
उस वक्त़ सैकड़ों आवारा शोहदे वहाँ आ डटे और आग में ईंधन लगाना शुरु किया।
एक—जरुर से जरुर सर काट डालूँगा।
दूसरा—घर में आग लगा देंगे, बारात जल-भुन जाएगी।
तीसरा—पहले उसे औरत का गला घोंट देंगे।
इधर तो ये हड़बोंग मचा हुआ था, खस निशस्तगाह में वोकला बैठ हुए शादी के नाज़ायज़ होने पर क़ानूनी बहस रहे थे। बड़ी गर्मी सी ज़खीम जिल्दों की वरक़गिरदानी हो रही थी। साल की पुरानी नज़ीरें पढ़ी जा रही थी ताकि कोई क़ानूनी गिरफ्त़ हाथ आ जाये। कई घण्टे तक यही चह-पहल रहा। आखिर खूब सर खपने के बाद यह राय हुई कि पहले ठाकुर ज़ोरावर सिंह अमृतराय को धमका दें। अगर वो इस पर भी न मानें तो जिस दिन बारात निकले सरे बाज़ार मारपीट हो और ये रेज़ोलूशन पास करने के बाद जलसा बर्खास्त हुआ। बाबू अमृतराय शादी की तैयारियों में मसरुफ़ थे कि ठाकुर ज़ोरावर सिंह का शुक्क़ा पहुँचा। लिखा था—
‘अमृतराय को ठाकुर ज़ोरावर सिंह की सलाम-बंदगी बहुत-बहुत तरह से पहुँचे। आग हमन सुना है कि आप किसी विधवा बिरहमनी से ब्याह करनेवाली है। हम आपस कहे देते है कि भूलकर भी ऐसा न कीजिएगा बर्ना आप जाने और आपका काम।

ज़ोरावर सिंह अलावा एक मुतमव्विल और बाअसर आदमी होने के शहर के लठैतों और शोहदो का सरदार था और बारहा बड़े-बड़ों को नीचा दिखा चुका था। उसकी धमकी ऐसी न थी जिसका अमृतराय पर कुछ असर न होता। इस रुक्के को पढ़ते ही उनके चेहरे का रंग उड़ गया। सोचने लगे कि उसको किसी हिकमत से पेर लूँ कि एक दूसरा रुक्का फिर पहुँचा, ये गुमनाम था और मजमून भी पहले ही रुक्के से मिलता-जुलता था। उसके बाद शाम होते-होते हज़ारों ही गुमनाम पुरजे आये। कोई कहता था अगर फिर ब्याह का नाम लिया तो घर में आग लया देगें काई सर काटने को धमकाता है, कोई पेट में लेगा भौकने के लिए तैयार बैठा था और कोई मूँछ के बाल उखाड़ने के लिए चुटकियाँ गर्म कर रहा था। अमृतराय ये तो जानते थे कि शरावाले मुख़ालिफ़त जरुर करेगे मगर इस किस्सम की मुख़ालिफत का उनको वहमोगुमान भी न था। इन धमकियों ने उन्हें वाक़ई खौफ़जदा कर दिया था और अपने से ज़ियादा अन्देशा उनको पूर्णा के बारे में था कि कहीं ज़ालिम उस बेचारी को कोई अज़ीयत न पहुँचा दें। चुनांचे वो वक्त़ कपड़े पहन बाइसिकिल पर सवार हो चटपट मजिस्ट्रेट की ख़िदमत में हाजिर हुए और उससे तमामो-कमाला वाकया बयान किया। अंग्रेंजों में उनका अच्छा रूसूख़ था। न इसलिए कि वो खुशामदी थे इसलिए कि वो रौनशख़याल और साफ़गो थे। मजिस्ट्रेट साहब उनके साथ बड़े अखलाक़ से पेश ओय। उनसे हमदर्दी जतायी और उसी वक्त़ सुपररिण्टेडेण्ट पुलिस को तहरीर किया कि आप बाबू अमृतराय की मुहाफिज़त के लिए पुलिस का एक गारद रवाना कर दे और त़ाक्कते कि शादी न हो जाय ख़बर लेते रहें ताकि मारपीट और खून-ख़राब न हो जाये। शाम होते-होते तीस मुसल्ला सिपाहियों की एक जमात उनकी मदद के लिए आ गयी जिनमें से पाँच मजबूत और ज़सीम जवानों को उन्होंने पूर्णा के मकान की हिफ़ज़त के लिए रवाना कर दिया।
शहरवालों ने जब अमृतराय की पेशबन्दियाँ देखी तो निहायत—बर-अफ़रोख्ता हूए और मुंशी बदरीप्रसाद ने मय कई बुजुर्गां के मजिस्ट्रेट की ख़िदमत में हाज़िर होकर फ़रियाद मचायी कि अगर सरकार दौलत मदार ने इस शादी के रोकन को कोई बन्दोबस्त न किया तोबलवा हो जाने को अंदेशा है। मगर मजिस्ट्रेटे से साफ़-साफ़ कह दिया कि सरकार को किसी शख्स के फेल में दस्तन्दाज़ी करना मंजूर नहीं है तावक्त़े कि अवाम को उसे फ़ेल से कोई नुकसान न पहुँचे। यह टका-सा ज़वाब पाकर मुंशी जी सख्त महजूब हुए। वहाँ से जल-भुनकर मकान पर आये और अपने मुशारों के साथ बैठकर क़तई फ़ैसला किया कि जिस वक्त़ बारात चले उसी वक्त़ पचास आदमी टूट पड़ें। पुलिसवालों की भी खबर लें और अमृतराय की हड्डी-पसली भी तोड़ के धर दें।
बाबू अमृमतराय के लिए वाक़ई यह नाजुक वक्त़ था मगर वो क़ौम का दिलदादा बड़े इस्तिक़लाल व जाँफ़िशानी से तैयारियों में मसरुफ था। शादी की तारीख़ आज से एक हफ्ते पर मुकर्रर की गयी चूँकि जिसादा ताख़ीर करना ख़तरे से खाली न था और यह हफ्ता बाबू साहब ने ऐसी परेशानी में कटा जिसका सिर्फ़ ख़याल किया जा सकता है। अलस्सबाह दो कानिटिस्ब्लों के साथ पिस्तौलों की जोड़ी लगाये रोज़ एक बार पूर्णा के मकान पर आते। पूर्णा के मकान पर आते। पूर्णा बेचारी मारे डर के के मरी जाती थी। वो अपने को बार-बार कोसती कि मैंने क्यूँ उनको उम्मीद दिलाकर ज़हमत मोल ली। अगर ज़ालिमों ने कहीं उनके दुश्मनों को कोई गजन्द पहुँचाया तो उसका कफ्फ़ारा मेरी ही गर्दन पर होगा। गो उसकी मुहाफ़िज़त के लिए कानस्टिबिल मामूर थे मगर वो रात-भर जागा करती। पत्ता भी खड़कता तो वह चौककर उठ बैठती। जब बाबू साहब को आकर उसके तसकीन देते तब ज़रा उसके जान में ज्ञान आती।
अमृतराय ने खुतूत इधर-उधर रवाना कर ही दिये थे, शादी की तारीख से चार दिन पहले से शुरफा आने शुरु हुए। कोई बम्बई से आता था, कोई मद्रास, कोई पंजाब कोई बंगाल से। बनारस में रिफार्म से इन्तिहा दर्जे का इखतिलाफ था और सारे हिन्दोस्तान के रिफ़ार्मरों के जी से लगी हुई थी कि चाहे हो, बनारस में रिफ़ार्म को रोशनी फैलाने का ऐसा नादिर मौक़ा हाथ से न देना चाहिए। वो इतनी दूर की मंजिले तय करके इसीलिए आये थे कि शादी का कामयाबी के साथ अंजाम तक पहुँचाये। वो जानते थे कि अगर इस शहर में ये शादी हो गयी तो फिर इस सूबे के दूसरे शहरों के रिफ़ार्मरों के लिए बड़ी आसानी हो जाएगी। अमृतराय मेहमानों की आवभगत में मशगूल थे और उनके पुरजोश पैरो जिनकी तादाद कलिज के दस-बारह तुलबा पर महदूद थी, साफ-सुथरी पोशाक पहने स्टेशन पर जाकर मेहमानो की तक़दीम करते और उनके तवाज़ो-तकरीम में बड़ी सरगर्मी दिखाते थे। शादी के दिन तक यहाँ कोई डेढ़ सौ शुरफा मुजतमा हो गये। अगर कोई शख्स हिन्दोस्तान की रौशनी, हुब्दुल वतनीव जोशे कौम को यकजा देखपना चाहता हो इस वक्त़ बाबू अमृत राय के माकन पर देख सकता था। बनारस के पुराने खयालवाले अहसहाब इन तैयारियों और मेहमानों की कसरत को देख-देकर दिल में हैरानी होते थे। मुंशी बदरीप्रसाद साहब और उनके हमख़याल आदमियों में कई बार मशवरे हुए हुए और हर बार कतई फ़ैसला हुआ कि चाहे जो हो मगर मारपीट ज़रुरी की जाए। चुनांचे सारा शहर आमादये जंगोकारज़ार था।
शादी के क़ब्ल को बाबू अमृतराय अपने पुरजोश पैरवों को लेकर पूर्णा के मकान पर पहुँचे और वहाँ उनको बारतियों की खातिर व तवाज़ो करने के लिए मामूर किया। बाद अज़ॉँ पूर्णा के पास गये। वो उनको देखते ही आबदीदा हो गयी।
अमृतराय—(गले से लगाकर) प्यारी पूर्णा, डरो मत। ईश्वर चाहेगा तो दुश्मन हमारे बाल भी बीका न कर सकेगे। हम कोई गुनाह नहीं कर रहे है। कल जो बारात तुम्हारे दरवाज़े पर आएगी वैसी बारात आज तक शहर में किसी के दरवाज़े पर न आयी होगी।
पूर्णा—मगर मैं क्या करुँ? मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि कल ज़रुर मारपिट होगी। मैं चारों तरफ़ यह ख़बर सुन रही हूँ। इस वक्त़ भी मुंशी बदरीप्रसाद के यहाँ लोग, जमा है।
अमृतराय—प्यारी, तुम इन बातों का जरा भी अन्देशा न करो। मुंशी जी के यहाँ तो ऐसे मशवरे महीनों से हो रहे है और हमेशा हुआ करेगे। इसका क्या खौफ है? तुम दिल को मज़बूत रखो। बस यह रात और दरमियान है। कल प्यारी पूर्णा मेरे ग़रीबख़ाने पर होगी। हाय, वो मेरे लिए कैसा खुशी का वक्त़ होगा।
पूर्णा यह सुनका वाक़ई अपने खौफ को भूल गयी। उसने अमृतराय को प्यार की निग़ाहों से देखा और जब बाबू साहब चलने लगे तो उनके गले से लिपट गयी और बोली—प्यारी अमृतराय, तुमको मेरी क़सम इन जालिमों से बचते रहना। आफ़वहों को सुन-सुन के मेरी रुह फ़ना हुई जाती है।
अमृतराय ने उसे सीने से लशफ्फी व दिलासा देकर अपने मकान को रवाने हुए। शाम के वक्त़ पूर्णा के मकान पर कई पंडित जिनकी शक्ल से शराफत बरस रही थी, रेश्मी मिर्जाइयाँ पहने, गले में फूलों का हार डाले, आये और वेद की रीति से रसूमात अदा करने लगे। पूर्णा दुलहिन की तरह सजायी गयी। भीतर-बाहर गैस की रोशनी से मुनव्वर हो रहा था। कानिस्टिबिल दरवाजे पर टहल रहे थे। वो नये खून और नयी रोशनी के तुलाब जिनको अमृतराय यहाँ पर तैनात कर गये थे, तैयारियों में मसरूफ थे। दरवाज़े का सेहन साफ़ किया जा रहा था। फ़र्श बिछाया जा रहा था। कुर्सियाँ आ रही थी। सारी रात इन्हीं तैयारियों में कटी और अलस्सबाह बारात अमृतराय के घर से रवाना हुई।
माशेअल्ला, क्या महज्जब बारात था और कैसे महज्जब बाराती, न बाज़ो का धड़-धड़ पड़-पड़, न बिगलों की घो-पों, -पो न पालकियों का झुरमुट, न सजे हुए घोड़ों की चिल्लापों, न मस्त हाथियों का रेल-पेल, न वर्दीपोश असबरदारों की कतार, न गुल न गुलदस्ते। बल्कि सफेदपोशों की एक जमात थी जो आहिस्ता-आहिस्ता चहलकदमी करती अपनी संजीदा रफ्तार से अपनी मुस्त किलमिज़ाजी का सुबूत देती हुई चली जा रही थी। हाँ, ई जाद यह थी की दोरुया जंगी पुलिस के आदमी वर्दियाँ डाले सीटे लिये खड़े थे। सड़क के इधर-उधर जा-बजा झुंड के झुंड आदमी लाठियाँ लिये जमा नज़र आते थे और बारात की तरफ देख-देखकर दॉँत पीसते।
मगर पुलिस का वो रोब था कि किसी क़दम हिलाने की जुरअत न पड़ती। बारातियों के पचास क़दम के फ़सले पर रिज़र्व पुलिस के सवार हथियारों से लैंस घोड़े पर रनपटरी जमाये भाले चमकाते और घोड़ों को उछालते चले जाते थे। ताहम हा लम्हा ये अन्देशा था कि कहीं पुलिस के खौफ का ये तिलिस्म टूट न जाए। बारातीयों के चेहरे से भी कामिल इत्मीनान नहीं जाहिर होता था और बाबू अमृतराय जो इस वक्त़ निहायत खूबसूरत वज़ा की शेरावानी पहने हुए थे, चौंक-चौंक कर इधर-उधर देखते थे। ज़रा भी खटपट होती तो सबके कान खड़े होते। एक मर्तबा ज़ालिमों ने वाकई धावा बोल दिया। फौरन चौतरफ़ा सन्नाटा छा गया मगर मिलिटरी पुलिस ने क्विक मार्च किया और दम के दम में चन्द शोरापुश्तों की मुश्के कस ली गयीं। फिर किसी को अपनी मुफ़सितापरदाज़ी को अमली सूरत में लाने का गुर्दा न हुआ। बारे खुदा-खुदा करके कोई आधा घण्टे मे बारात पूर्णा के मकान पर पहुँची। वहाँ पहले ही बाराती असहाब के खैर मक़दम का सामान किया गया था। सेहन में फ़र्श लगा हुआ था। कुर्सियों करीने मसरुफ़ थे और कुंड के इर्द-गिर्द चन्द पंडितो बैठे हुए वेद के श्लोक बड़ी खुशइलहानी से गा रहे थे। हवन की खुशबू से सारा मुहल्ला मुअत्तर हा रहा था। बारातियों के आते हीसब की परेशानी पर चन्दन और जफ़रान मला गया, सबके गलों में खूबसुरत हार पहनाये गये। बाद अज़ॉँ दूल्हा मय चन्द असहाब के मकान के अन्दर गया और वहाँ वेद रीति से शादी का रस्म अदा किया गया। न गीत हुआ न नाच न गाली-गलौज। बेचारी पूर्णा को सम्हालनेवाली कोई न था, सिर्फ बिल्लों मश्शाता का काम भी करती थी और ज़लीस का भी। अन्दर तो शादी हो रही थी, बाहर हज़ारों आदमी लाठियाँ और सोटे लिए गुल मचा रहे थे। पुलिसवाले उनको रोके हुए मकान के गिर्द एक हलका बॉँध खड़े थे। तमाम बाराती दम ब खुद थ। इसी वक्त़ में पुलिस का कप्तान भी आ पहुँचा। उसने आते ही हुक्म दिया कि भीड़ हटा दी जए और दम के दम में पुलिसवालों ने सोटो से मार-मारकर उस तूफ़ाने बेतमीज़ी को हटना शुरु किया। जंगी पुलिस ने डरने-के लिए बन्दूकों की दो-चार बाढ़े हवा मे सर कर दी। अब क्या था चौतरफ़ा भगदड़ मच गयी। मगर हमे उसी वक्त़ ठाकुर ज़ोरावर सिंह दोहरी पिस्तौल बॉँधे नजर पड़ा। उसकी मूँछे खड़ी थीं। आँखें से अंगारे उड़ रहे थे। उसको देखते देखते ही वो बेकायदा जो तित्तर-बित्तर हो रही थी फिर जमा होने लगी, जिस तरह सरदार को देखकर भागती हुई फौज दम पकड़ ले। एक लमहे में कोई हज़ारहा आदमी इकट्ठा हो गये और दिलावर ठाकुर ने ज्यूँ ही एक नारा मारा ‘जय दुर्गा जी की’ त्यूँ ही सारी जमात के दिलो में गोया कोई ताजा रुह आ गयी। जोश भड़कर उठा। खून में हरकत पैदा हुई और सब के सब दरियाकी तरह उमड़ते हुए आगे को बढ़े। मिलिटरी पुलिसवाला भी संगीन खोले हुए कतार के कतार हमले के मुन्तजिर खड़े थे। चौतरफ़ा एक खौफ़नाक सन्नाटा छाया हुआ था कि अब कोई दम में खून की नदी बहा चाहती है। पुलिस कप्तान बड़ी पामर्दी से अपने आदमियों का उभार रहा था कि दफ़अतन पिस्तौल की आवाज़ आयी और कप्तान की टोपी जमीन पर गिर पड़ी, मगर जख्म नहीं लगा। कप्तान ने देख लिया था कि पिस्तौल ज़ोरावर सिंह ने सर किया है। उसने भी चट अपनी बन्दूक सम्हाली और बन्दूक का शाने तक लाना था कि ठाकुर ज़ोरावर सिंह चारों खाने चित्त ज़मीन पर आ रहा। उसका गिरना था कि दिलावर सिपाहियों ने धावा किया और वो जमाता बदहवास होकर भागी। जिसके जहाँ सींग समये, चल निकला। कोई आधा घण्टे में चिड़िया का पूत भी न दिखायी दिया। बाहर तो यह तूफान बर्पा था, अन्दर दूल्हा और दुल्हन मारे डर के सूखे जाते। पूर्णा थर-थर काँप रही थी। उसको बार-बार रोना आता था कि ये मुझ अभागिनी के लिए इतना खून-ख़च्चर हो रहा है। अमृतराय के ख़यालात कुछ और ही थे। वो सोचते थे कि काश मैं पूर्णा के साथ किसी तरह बख़ैरियत मकान तक पहुँच जाता तो दुश्मनों के हौंसले पस्त हो जाते। पुलिस है तो काफ़ी। अरे ये बन्दूके चलाने लगी लीजिये, बेचारा ज़ोरावर सिंह मर गया। आधा घण्टे के ही अन्दर, जो अमृतराय को कई बरसों के बाराबर होता था, मियाँ-बीवी हमेशा के लिए एक-दूसरे से मिला दिये गये और तब यहाँ से बारात की रुखसनी की ठहरी।
पूर्णा एक फ़िनिस में बिठायी गयी और जिस तराह बारात आयी थी उसी तरह रवाना हुई। अब की मुख़लिफौन को सर उठानेकी जुरत न हुई। आदमी इधर-उधर जरुर जमा थे और क़ह़रआलूद निगाहों से इन जमात का देखते थे। इधर-उधर से पत्थर भी चलायये जा रहे थे तालियाँ बजायी जा रही थी, मुँह चिढ़ाया जा रहा था मगर उन शरारतों से ऐसे मुस्तक़िलमिजाज रिफ़ार्मरोकी संजीदगी में क्या खलल आ सकता था। हाँ, अन्दर फिनिस में बैठी हुई पूर्णा रो रही थी। ग़लिबन इसलिए कि दुल्हन दूल्हा के घर जाते वक्त़ जरुर रोया करती है। बारे खुदा-खुदा करके बारात ठिकाने पहुँची। दुल्हन उतारी गई। बारातियों की जान में जान आयी। अमृतराय की खुशी का क्या पूछना। दोड़-दौड़ सबसे हाथ मिलाते फिरते थे। बॉँछ खिली जाती थी। ज्योंही पूर्णा उस सजे हुए कमरे में रौनक अफ़रोज हुई, जो खुद भी दुल्हन की तरह सजा हुआ था, अमृतराय ने उसे आकर कहा—‘प्यारी, लो हम बख़ैरियत पहुँच गये। ऐ, तुम तो रो रही हो’ यह कहते हुए उन्होंने रुमाल से उसके आँसू पोंछे और उसको गले से लगाया।
पूर्णा को कुछ थोड़ी-सी खूशी महसूस हुई। उसकी तबीयत खुद-ब-खुद सम्हल गयी। उसने अमृतराय का हाथ पकड़ लिया और बोली—अब यहीं मेरे पास बैठिए आपको बाहर न जाने दूँगी। ओफ, जालिमों ने कैसा ऊधम मयाचा।
इस मुबारक रस्म के बाद बारातियों के चलने की तैयारियाँ होने लगी। मगर सबने इसरार किया कि लाला धनुखधारीलाल सबको अपनी तकरीर से एक बार फ़ैजियाब करें। चुनांचे दूसरे दिन अमृतराय के बँगले के मुकाबिलवाले सेहन मे एक शामियाना नसब कराया और बड़े धूमधाम का जलसा हुआ। वो धुँआधार तकरीरे हुई कि सैकड़ों आदमियों के कुफ्र टूट गये। एक जलसे की कामयाबी ने हिम्मत बढ़ायी, दो जलसे और हुए और दूनी कामयाबी के साथ। सारा शहर टूट पड़ता था। पुलिस का बराबर इन्तज़ाम रहा। वही लोग जो कल रिफ़ार्म के ख़िलाफ लाठियाँ लिय हुए थे, आज इन तक़रीरों को गौर से सुनते थे और चलते वक्त़ गो उन बातों अमल करने के लिए तैयार न हों मगर इतना जरुर कहते थे कि यार, यह सब बातें तो ठीक कहते हैं। इन जलसों के बाद दो बेवाओं की और शादियाँ हुई। दोनों दूल्हे अमृतराय के पुरजोश पैरवों मे से थे और दुल्हनों में से एक पूर्णा के साथ गंगा नहाने वाली रामकली थी। चौथे दिन तमाम हज़रात रूखसत हुए। पूर्णा बहुत कन्नी काटती फिरी। मगर ताहम बारातियों से मिज़ाजपुर्सी करनी पड़ी और लाला धनुखधारी ने तो तीन फिर आध-आध घंटे तक उसके अख़लाकी तलकीन की।
शादी के चौथे दिन बाद पूर्णा बैठी हुई थी कि एक औरत ने आकर उसको एक सर-ब-मोहर लिफ़ाफा दिया। पढ़ा तो प्रेमा का खत था। उसने उसको मुबारकबाद दी थी और बाबू अमृतराय की वह तसवीर, जो बरसों से उसके गले का हार थी, पूर्णा के लिए भेज दी थी। उस खत की आखिरी संतरे ये थी—
‘’सखी, तुम बड़ी भाग्यवान हो। ईश्वर सदा तुम्हारा सुहाग कायम रक्खे। मेरी हजारों उम्मीदें इस तसवीर से वाबस्ता थीं। तुम जानती हो कि मैंने उसको जान से ज़ियादा अज़ीज रख्रा मगर अब मैं इस काबिल नहीं कि इसकों अपने सीने पर रक्खूँ। अब ये तुमको मुबारक हो। प्यारी, मुझे भूलना मत। अपने प्यारे पति को मेरी तरफ से मुबारकबाद देना। अगर जिंदा रही तो तुमसे ज़रूर मुलाकात होगी।
तुम्हारी अभागी सखी
प्रेमा’’
पूर्णा ने इसको बार-बार पढ़ा। उसकी आँखों में आँसू भर आये। इस तसवीर को गले में पहन लिया और निहायत हमदर्दाना लहजे में इस खत का जवाब लिखा।
अफ़सोस, आज के पन्द्रहवे दिन बेचारी प्रेमा बाबू दाननाथ के गले बॉँध दी गयी। बड़े धूमधाम से बारात निकली। हज़ारों रूपया लूटा दिया गया। कई दिन तक साराशहर मुंशी बदरीप्रसाद साहब के दरवाजे परनाच देखतर रहा। लाखों का वारा-न्यारा हो गया। शादी के तीसरे ही दिन बाद मुंशी जी रहिये मुल्के बक़ा हुए। खुद उनको म़गफिरत करे।

ग्यारहवाँ बाब-दुश्मन चे कुनद चु मेहरबाँ बाशद दोस्त

मेहमानों की रूखमती के बाद ये उम्मीद की जाती थी कि मुखालिफीन अब सर न उठायेगें। खूसूसन इस वजह से कि उनकी ताकत मुशी बदरीप्रसाद और ठाकुर जोरावर सिंह के मर जाने से निहायत कमजोर-सी हो रही थी। मगर इत्तफाक में बड़ी कूवत है। एक हफ्ता भी न गुजरने पाया था, अन्देशा कुछ-कुछ कम ही चला था कि एक रोज सुबह को बाबू अमृतराय के तमाम शार्गिदपेशे उनकी खिदमत में हाजिर हुए और अर्ज किया कि हमारा इस्तीफा ले लिया जाए। बाबू सहाब अपने नौकरों से बहुत अच्छा बर्ताव रखते थे। पस उनको इस वक्त सख्त ताज्जुब हुआ। बोले—तुम लोग क्या चाहते हो? क्यूँ इस्तीफा देते हो?
नौकर—अब हुजूर हम लोग नौकरी न करेंगे।
अमृतराय—आखिर इसकी कोई वजह भी है। अगर तुम्हारी तनख्वाह कम हो तो बढ़ायी जा सकती है। अगर कोई दूसरी शिकायत हो तो रफा की जा सकती है। ये इस्तीफे की बातचीत कैसी औरफिर सब के सब एक साथ।
नौकर—हुजूर, तनख़ा की हमको जरा भी शिकायत नहीं। हुजूर तो हमका माई बाप की तरह मानत है। मुदा अब हमार कुछ बस नाहीं। जब हमारे बिरादरी जात से बाहर करत है, हुक्का-पानी बंद करत है, सब कहते है किउनके इहाँ नौकरी मत करों।
बाबू अमृतराय बात की तह तक पहुँच गये। मुख़ालिफ़ीन ने अपना और कोई बस चलता न देखकर सताने का ढ़ंग निकाला है। बोले—हम तुम्हारी तनख्वाह दूनी कर देंगे, अगर अपना इस्तीफा फेर लोगे। वर्ना तुम्हारा इस्तीफा नामजूर, तावक्ते कि हमको और कहीं खिदमतगार न मिल जाये।
नौकर—(हाथ जोड़कर) सरकार, हमारे ऊपर मेहरबानी की जाए। बिरादरी हमको आज ही खरिज कर देगी।
अमृतराय—(डॉँटकर) हम कुछ नहीं जानते, जब तक हमको नौकर न मिलेंगे, हम हरगिज इस्तीफा मंजूर न करेंगे। तुम लोग अंधे हो, देखते नहीं हो कि बिला नौकरों के हमारा काम क्यूँकर चलेगा?
नौकरों ने देखा कि ये इस तरह हरगिज छुटटी न देंगे चुनांचे उस वक्त तो वहाँ से चले आये। दिन-भर खूब दिल लगाकर काम किया। आठ बजे रात के करीब जब बाबू अमृतराय सैर करके आये तो कोई टमटम थामनेवाला न था। चारों तरफ घूम-घूमकर पुकारा। मगर सदाये ना बरखास्त। समझ गये कस्बख्तों ने धोखा दिया। खुद घोड़े को खोला, फेरने की कहाँ फुरसत। साज़ उतार अस्तबल में बॉँध दिया। अंदर गये तो क्या देखते है कि पूर्णा बैठी खाना पका रही है और बिल्लो इधर-उधर दौड़ रही है। नौकरों पर दातँ पीसका रह गये। पूर्णा से कहा—प्यारी, आज तुमको बड़ी तकलीफ़ हो रही है। कम्बख्तों ने सख्तधोखा दिया।
पूर्णा—(हँसकर) आज आपको अपने हाथ की रसोई खिलाऊँगी। कोई भारी इनाम दीजिएगा।
अमृतराय को उस वक्त दिल्लगी कहाँ सूझती थी, बेचारे चावल-दाल खाना भूल गये थे। कश्मीरी बिरहमन निहायत नफ़ीस खाने तैयार करता था। उस शहर में ऐसा बाहुनर बावर्ची कहीं न था। कितने शुरफां उसको नौकर रखने के लिए मुँह फैलाये हुए थे। मगर कोई ऐसी दरियादिली से तनखाह नहीं दे सकता था। उसके जाने काबाबू साहब को सख्त अफसोस हूआ।
अमृतराय ने बीवी से पूछा—ये बदमाश तुमसे पूछने भी आये थे या यूँ ही चले गये?
पूर्णा—मुझसे तो कोई भी नहीं पूछने आया। महराज अलबत्ता आया और रोता था कि मुझे लोग मरने को धमका रहे है।
अमृतराय—(गुस्से से हाथ मलकर) नहीं मालूम ये जालिम क्या करनेवाले है। ये कहकर बाहर आये, कपड़े उतारे। कहाँ तो रोज खिदमतगार आकर कपड़े उतारता था, जूते खोलता था, हाथ-मुहँ धुलवाता और महराज अच्छे से अच्छे खाने तैयार रखता और कहाँ यकायक आज सन्नाटा हो गया। बेचाने नाक-भौ सिकोड़े अंदर फिर गये। पूर्णा साफ थालियों मे खाना परोसे बैठी हुई थी औरदिल मेंखुश भी थी कि आज मुझे उनकी यह खिदमत करनेका मौका मिला। मगर जब उनका चेहरा देखा तो सहम गयी। कुछ बोलने की जुर्रत न पड़ी। हाँ, बिल्ला ने कहा—सरकार आप खामखा उदास होते है। नौकर-चाकर तो पैसे के यार है। यहीसब दो एक रोज इधर उधर रहेंगे फिर आप ही झख मारकर आयेंगे।
अमृतराय—(गुस्से को जब्त करके) नहीं मालूम बिल्लो, ये उन्हीं लोगो की शरारत है, उन्हीं जलिमों ने तमाम नौकरों को उभारकर भगा दिया है। और अभी नहीं मालूम क्या करनेवाले है। मुझे तो खौफ़ है किसारे शहर में कोई आदमी हमारे यहाँ नौकरी करने न आयेगा। हाँ, इलाके पर से कहार आ सकते है मगर वो सब देहाती गँवार होते है। बुजुज़ बार बरदारी के और किसी काम के नहीं होते। ये कहकर खाने बैठे। दो-चार निवाले खाये तो खाना मजेदार मालूम हुआ। पूर्णा निहायत लज़ीज खाने बना सकती थी। इस फन में उसको ख़ास मलका था, मगर जल्दी में बजुज मामूली चीजों के और कुछ न बना सकी थी। ताहम बाबू साहब ने खाने की बड़ी तारीफ की औरआला तौर परउसका सबूत भी दिया। रात तो इस तरह काम चला, अलस्सबा वो बाइसिकिल पर सवार होकर चंद अंग्रेजो से मिलने गये। और बिल्लो बाजार सौदा खरीदने गयी। मगर उसे कितना ताज्जुब हुआ जब कि बनियों ने उसको कोई चीज़ भी न दी। जिस दुकान पर जाती वहीं टका-सा जवाब पाती। सारा बाजार छ़ान डाला। मगर कहीं सौदा नमिला। नाचार मायूस होकर लौटी और पूर्णा से सारा किस्सा बयान किया। पूर्णा ने आज इरादा किया थाकि जरा अपने फन के जौहर दिखलाऊँगी, चीजों के न मिलने से दिल में ऐंठकर रह गयी। नाचार सादे खाने पकाकर धर दिये।
इसी तरह दो-तीन दिन गुजरे। चौथे दिन बाबू साहब के इलाके परसे चंद मोटे-ताजे हटटे-कटटे कहार आये जिनके भद्दे-भद्दे हाथ-पाँव और फूले हुए कंधे इस काबील न थे जो एक तहजीबायाफ्ता जटुलमैन की ख़िदमत कर सकें। बाबू साहब उनकोदेखकर खूब हँसे और कुछ ज़ादेराह देकर उल्टे कदम वापस किया और उसी वक्त मुशी धनुखधारी लाल के पास तार भेजा कि मुझको चंद खिदमतगारों की अशद ज़रूरत है। मुंशी जी साहब पहले हीसे सोचे हुए थे किबनारस जैसे शहर में जिस क़दर मुखालिफत हो थोड़ी है। तार पाते ही उन्होंने अपने होटल से पाँच ख़िदमतगारों को रवाना किया जिनमें एक कश्मीरी महराज भी था। दूसरे दिन ये नये खादिम आ पहुँचे। सब केसब पंजाबी थे जो न बिरादरी के गुलाम थे और न जिनको बिरादरी से ख़ारिज होने का खौफ़ था। उनको भी मुख़ालिफीन ने बरअंगेख्ता करना चाहा। मगर कुछ दॉँव न चला। नौकरों का इंतजाम तो इस तरह हुआ। सौदे का ये बंदोबस्त किया गया कि लखनऊ सेतमाम रोजाना जरूरियात की चीजें इकटठी मँगा ली जो कई महीनों के लिए काफी थी। मुख़ालिफों ने जब देखा कि इन शरारतों से बाबू साहब को कोई गजंद न पहूंचा तो और ही चाल चले। उनके मुवक्किलों को बहकाना शुरू किया कि वो तो ईसाई हो गये है। विधवा विवाह किया है। सब जानवरों का गोश्त खाते है। छूत-विचार नहींमानते। उनको छूना गुनाह है। गो देहात में भी रिफ़ार्म के लेक्चर दिये गये थे और अमृतराय के पुरजोश पैरो मुतवातिर दौरे कर रहे थे मगर इन लेक्चरों में अभी तक विधवा विवाह का जिक्र मसलहतन नहीं किया गया था। चुनांचे जब उनके मुवक्तिलो ने, जिनमें ज़ियादार राजपूत और भूमिहार थे, ये हालात सुने तो कसम खाई कि उनको अपना मुकद्दमा न देंगे। राम-राम, विधवा से विवाह कर लिया। अनकरीब दो हफ्ते तक बाबू अमृतराय साहब के मुवक्किलों में येबातें फैली और मुख़ालिफीन ने उनके खुब कान भरे जिसका नतीजा ये हुआ कि बाबू साहब की वकालत की सर्दबाज़ारी शुरू हो गयीं। जहाँ मारे मुकद्दमों के सॉँस लेने की फुर्सत न मिलती थी वहाँ अब दिन भर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने की नौबत आ गयी। हत्ता कि तीसरे हफ्ते में एक मुकद्दमा भी न मिला। उनकी बाज़ार ठंडी हुई तो मुशी गुलज़ारीलाल, बाबू दाननाथ साहब की चाँदी हो गयी। जब तीन हफ्ते तक बाबू अमृतराय साहब को इलजाम पर जाने की नौबत न आयी तो जज साहब को ताज्जुब हुआ। वो बाबू अमृतराय साहब की जेहानत व तब्बाई की बड़ी कद्र करते थे और अक्सर उनको अपने मकान पर बुलाकर पेचीदा मुक़द्दमा में उनकी राय लिया करते थे और बारहा उनको संगीन मुकद्दमों की तहक़ीकाती कमीशन का प्रेसीडेंट बनाया था। उन्होंने सरिश्तेदार से उनके इस तरह मफकूद होने का सबब पूछा। सरिश्तेदार साहब कौम के मुसलमान और निहायत रास्तबाज़ आदमी थे। उन्होंने मिन्नोइन सब हाल कह सुनाया। दूसरे दिन अमृतराय को इजलाम परखुद-ब-खुद बुलाया और देहाती ज़मींदारों के रूबरू उनसे देर तक आहिस्ता-आहिस्ता गुफ्तगू की। अमृतराय भी बेतकल्लफी से मुस्करा-मुस्कराकर उनकी बातों का जवाब देते थे। कई वकील उस वक्त साहब व बहादुर के पास काग़जात मुलाहिजे के लिए लाये मगर साहब बहादुर ने जरा भी तवज्जों न की। जब अमृतराय चले गये तो साहब ने कुर्सी से उठकर उनसे हाथ मिलाया औरजरा (ऊँची)आवाज में बोले—अच्छा बाबू साहब, जैसा आप कहता है हम इस मुकद्दमें में उसी माफ़िक करेगा।
जज साहब ये चाल चलकर मुन्तजिर थे कि देखे इसका क्या असर होता है। चुनांचे जब कचहरी बर्खासत हुई तो उन जमींदारों में जिनके मुकद्दमें आज पेश थे यूँ बातें होने लगीं—
ठाकुर साहब—(पगड़ी, बॉँधे, मूछे ऐठे, मिर्जई पहने, गले में बड़े-बड़े दानों का माला डाले) आज जज साहब अमृतराय से खूब-खूब बात करत रहेन। जरूर से जरूर उन्हीं की राय के मुताबिक फैसला होये।
मिश्र जी—(सर घुटाये, टीका लगाये, बरहना तन, अँगौछा कंधे पर रक्खे हुए) हाँ जान तो ऐसे पड़त है। जब बाबू साहब चले लागल तो जज साहब बोलेन किआप जैसा कहेंगे वैसा किया जायगा।
ठाकुर—काव कहीं अमृतराय समान वकील पिरथीमाँ नाहीं बा, बाकी फिर ईसाई होय गवा, रॉँड से बियाह किहेसि।
मिश्र जी—इतने तोपेंच पड़ा है। हमका तो जान पड़त है कि जरूरत मुकद्दमा हार जायें। इतना वकील हते बाकी उनको बराबरी कोऊ नाहीं ना। कइस बहस करत है, मानों सरसुती जिभ्या पर बैठी है। सो अगर उनका वकील किये होइत तो जरूर हमार जीत हुई जात।
इसी तरह की बातें दोनो में हुई चिराग जलते-जलते दोंनो बाबू अमृतराय के पास आये और मुकद्दमें की रूएदाद बयान की और अपने ख़ताओं की मुआफी चाही। बाबू साहब ने पहले ही समझ लिया था कि मुक़द्दमे बहस की कि फरीके सानी के वोकला खड़े मुँह ताका किये और शाम होते-होते मैदान अमृतराय के हाथ जा। इस मुकद्दमे का जीतना कहिए और कचहरी बर्खास्त होने के बादजज साहब का उनको मुबारकबाद देना कहिए कि घर जाते-जाते बाबू साहब के दरवाजे पर मुवक्किलों की भीड़ लग गयी और एक हफ्ते के अंदर-अंदर उनकी वकालत दूनी आबो-ताब से चमकी। मुख़ालिफो को फिर नीचा देखना पड़ा। सच है खुदा मेहरबान होतो कुल मेहरबान।
इसी असना में वो घाट जो बाबू साहब सरफे कसीर से बनवा रहे थे तैयार हो गया और मुख़ालिफीन को भी मजबूरन मोतरिफ़ होना पड़ा कि ऐसा खूबसूरत घाट इस सूबे में कहीं नहीं। चौतरफा संगीन चारदीवारी खिंची हुई थी। और दरिया से नहरों केरास्सते पानी आता था। अनाथालय भी तैयार हो गया। अख्खा कैसी आलीशान पुख्ता इमारत थी। ऐन दरिया के किनारे पर। उसके चारों तरफ अहाता घेरकर फूल लगा दिया था। फाटक पर संगमरमर के दो तख्ते वस्ल किये हुए थे। एक पर उन असहाब के असमाये गिरामी खुदे हुए थे। जिनकी फय्याजी से वो इमारत तामीर हुई थीऔर दूसरे पर इमारत का नाम और उसके अग़राज जली हुरूफ़ में लिखे हुए थे। गो इमारत तामीर हो चुकी थी मगर अभी तक दस्तूर-उल-अमल की पूरी पैरवी न हो सकी थी। दिक्कत यह थी कि सीना-पिरोना, गुल-बूटे काढ़ना, जुर्रब वगैरह बनाना सिखाने के लिए हिन्दुस्तानियाँ न मिलती थीं, हाँ, लाला धनुखधारीलाल साहब पर उनके मुहैया करने का बार डाला गया था और बहुत जल्द कामयाबी की उम्मीद थी। इस इमारत का इफ्तिताही जलसा बड़े धूमधाम से हुआ। दिलदारनगर के महाराजा साहब ने जो खुद भी निहायत फ़य्याज और नेक मर्द थे इमारत कोदस्ते मुबारक से खोला औरगो खुद विधवा विवाह के मुखालिफीन में थे, मगर इस अनाथालय के साथ सच्ची हमदर्दी जाहिर कीऔर बाबू अमृतराय के मसाइए जमीला की क़रार वाक़ई दाद दी। शहर के तमाम शुरफ़ा बिला इस्तस्ना इस जलसे में शरीक हुए और महाराजा साहब की बामौक़ा फय्याजी ने दम की दम में कई हजार रूपया वसूल करा दिया। और आज अमृतराय को मालूम हुआ कि मैंने अपनी ज़िंदगी में कुछ काम किया है।
जब से शादी हुई थी, पूर्णा नेबाबू साहब को कभी इतना खुश न पाया था जितना शादी से पहले पाती थी। इस पूरे महीने भर बेचारे तरद्दुदात में मुबतला थे। एक हफ्ता मेहमानों की रूखमती में लगा। एक हफ्ते तक नौकरों ने तकलीफ दी। बाद अजाँ दो-तीन हफ्ते तक वकालत की सर्दबाज़ारी रही जो इस वजह से और भी तफ़क्कुर का बाइस हो रही थी किघाट और अनाथलय के ठेकेदारों के बिल अदा करने थे। जब जरा वकालत सुधरी तो इस इफ्तिताही जलसे की तैयारियाँ शुरू हुई। गरज़ इस डेढ़ महीने तक उनको तफ़क्कुरात से आजादी न मिली। आज जब वह आये तो अज़हद खुश थे। चेहरा मुनव्वर हो रहा था। पूर्णा उनको मुतफक्किर देखती तो उसको निहायत रंज होता था और उनकी फ़िक्र दूर करने की बराबर कोशिश किया करती थी। आज उनको खुश देखा तो निहाल हो गयी। बाबू साहब ने उसे गले से लगाकर कहा—प्यारी पूर्णा, हमको आज मालूम होता है कि जिंदगी में कोई काम किया।
पूर्णा—ईश्वर आपके इरादों में बरकत दे। अभी आप न मालूम क्या-क्या करेंगे?
अमृतराय—तुमको इस अनाथालय की निगरानी करनी होगी। क्यों अच्छी होगा न?
पूर्णा—(हँसकर) तुम मुझे सिखा देना।
अमृतराय—मैं तुमको लेकर मद्रास और पूना चलूँगा। वहाँ के खैरातखानों का इंतजाम देखूँगा। और जरूरत के मुआफ़िक तरमीम करके वही कवाइद यहाँ भी जारी करूँगा। प्यारी, कल से तुमको मिस विलियम गाना सिखाने आया करेंगी।
पूर्णा—(हँसकर)तुम मुझे क्या-क्या सिखलाओगे। मुझसे ब्याह करने में नुमने धोखा खाया।
अमृतराय—बेशक धोखा खाया। मुहब्बत की बला अपने सर ली। इसी तरह देर तक बातें होती रहीं। आज दोनां मियाँ-बीवी बड़े चैन से बसर करने लगे। ज्यूँ-ज्यूँ दोनो की फ़ितरती खूबियाँ एक-दूसरे पर जाहिर होती थीं, उनकी मुहब्बत बढ़ती जाती थी। बीवी शौहर बीवी का दिलदादा, दोनों एकजान दो कालिब थे। जब बाबू अमृतराय कचहरी जाते तो पूर्णा गाना सीखती। जब वह कचहरी से आ जाते तो उनको गाना सुनाती। बाद अजाँ दोनो शाम को बाग़ में सैर करते। इसी तरह हँसी-खुशी एक महीना तय हो गया। खुशी के अय्याम जल्द कट जाते है।

बारहवाँ बाब-शिकवए ग़ैर का दिमाग किसे
यार से भी मुझे गिला न रहा।

प्रेमा की शादी हुए दो माह से ज्यादा गुजर चुके है। मगर उसके चेहरे पर मसर्रत व इत्मीनान की अलामतें नजर नहीं आतीं। वो हरदम मुतफ़क्किर-सी रहा करती है। उसका चेहरा जर्द है। आँखे बैठी हुई सर के बाल बिखरे, परीशान, उसके दिल मेंअभी तक बाबू अमृतराय की मुहब्ब्त बाकी है। वह हर चंद चाहती है कि दिल से उनकी सूरत निकाल डाले मगर उसका कुछ काबू नहीं चलता। गो बाबू दाननाथ उसके साथ सच्ची मुहब्बत ज़ाहिर करते हैं और अलावा वजीह-ओ-शकील नौजवान होने के निहायत हँसमुख, जरीक़तबा व मिलनसार आदमीहै मगर प्रेमा का दिल उनसे नहीं मिलता। वो उनकी खातिर करने में कोई दकीका नहीं फ़रोगुज़ाश्त करती। जब वे मौजूद होते है तो वो हँसती भी है, बातचीत भी करती है, मुहब्बत भी जताती है मगर जब वो चले जाते है तो फिर वो ग़मगीन होती है। अपने मौके में उसको रोने की आजादी थी। यहाँ रो भी नहीं सकती। या रोती है तो छुपकर। उसकी बूढ़ी सास उसको पान की तरह फेरा करती है न सिर्फ इस वजह सेकि वो उसका पास-ओ-लिहाज़ करती है। बल्कि इस वजह से कि वो अपने साथ निहायत बेशक़ीमत चीज लायी है। बेचारी प्रेमा की जिंदगी वाक़ई नाकाबिले रश्क है। उसकी हँसी जहरखंद होती है। वो कभी-कभी सास के तक़ाजे से सिंगार भी करती हैमगर उसके चेहरे पर वो रौनक़ और चमक-दमक नहीं पायी जाती जो दिली इत्मीनान का परतौ होती है। वो ज़ियादातर अपने ही कमरे में बैठी रहती है। हाँ कभी-कभी गाकर दिल बहलाती है। मगर उसका गाना इसलिए नहीं होता कि उसको खुशी हासिल हो। बरअक्स इसके वो दर्दनाक नग़मे गाती है और अक्सर रोती है। उसको मालूम होता है किमेरे दिल पर कोई बोझ धरा हुआ है।
बाबू दाननाथ इतना तो शादी करने के पहले ही जानते थे। कि प्रेमा अमृतराय पर जान देती है। मगर उन्होने समझा था किउसकी मुहब्बत मामूली मुहब्बत होगी। जब मैं उसको ब्याह कर लाऊँगा और उसके साथ इख़लाम व प्यार से पेश आऊँगा तो वो सब भूल जायगी और फिर हमारी ज़िंदगी बड़े इत्मीनान से बसर होगी। चुनांचे एक महीने तक उन्होंने उसकी दिलगिरफ्तगी की बहुत ज्यादा परवा न की। मगर उनको क्या मालूम था कि वो मुहब्बत का पौधा जो पाँच बरस तक खूने दिल से सींच-सींचकर परवान चढ़ाया गया है महीने-दो-महीने में हरगिज नहीं मुरझा सकता। उन्होंने दूसरे महीने भर भी जब्त किया मगर जब अब भी प्रेमा के चेहरे पर शिगुफ्त़गी व बशाश्त न नजर आयी तब तो उनको सदमा होने लगा। मुहब्बत और हसद का चोली-दामन का साथ है। दाननाथ सच्ची मुहब्बत करते थे मगर सच्ची मुहब्बत के एवज सच्ची मुहब्बत चाहते भी थे। एक रोज वो मामूल से सबेरे मकान पर वापस आये और प्रेमा के कमरे मे गये तो देखा कि वो सर झुकाये बैठी है। उनको देखते ही उसने सर उठाया, हाय। मुहब्बत के लहजे में बोली—मुझे आज न मालूम क्यूँ लाला जी की याद आ गयी थी। बड़ी देर से रो रही हूँ।
दाननाथ ने उसको देखते ही समझ लिया था कि अमृतराय के फ़िराक में ये आँसू बहाये जा रहे है। उस प्रेमा ने जो यूँ हवा बतलायी तो उनको निहायत नागवार मालूम हुआ। रूखे लहजे में बोले—तुम्हारी आँखे है, तुम्हारे आँसू भी, जितना रोया जाय रो लो। चाहे ये रोना किसी ज़िदा आदमी के लिए हो या मुर्दा के लिये।
प्रेमा इस आखिरी जुमले पर चौंक पड़ी और बिला जवाब दिये शौहर की तरफ मुस्तफ़सिराना निगाहों से देखने लगी। दाननाथ ने फिर कहा—क्या ताकती हो प्रेमा, मैं ऐसा अहमक़ नहीं हूँ।मैने भी आदमी देखे है और आदमी पहचानता हूँ। गो तुमने मुझको बिलकुल घोंघा समझ रखा होगा। मैं तुम्हारी एक-एक हरकत को गौर से देखता हूँ, मगर जितना ही देखता हूँ उतना ही ज्यादा सदमा दिल को होता है क्योंकि तुम्हारा बर्ताव मेरे साथ फीका है। गौ तुमको ये सुनना नागवार मालूम होगा मगर मजबूरन कहना पड़ता है कि तुम मुझसे मुहब्बत नहीं करती। मैंने अब तक इस नाजुक मुआमले परज़बान खोलने की जुर्रत नहीं की। और ईश्वर जानता है कि मैं तुम्हारी किस कदर मुहब्बत करता हूँ। मगर मुहब्बत चाहे जो कुछ भी बर्दाश्त करे, बेनियाजी बर्दाश्त नहीं कर सकती, और वे भी कैसी बेनियाजी, जिसका वजूद किसी रकीब के फ़िराक से हो। कोई आदमी खुशी से नहीं देख सकतर कि उसकी बीवी दूसरे के फ़िराक़ में आँसू बहाये। क्या तुम नहीं जानती हो कि हिन्दू औरत को शास्त्र के मुताबिक अपने शौहर के अलावा किसी दूसरे का ख्याल करना भी गुनाहगार बना देता है। प्रेमा, तुम एक आला दर्जे के शरीफ़ खानदान कीबेटी हो औरजिस खानदान की तुम बहू हो वो भी इस शहर में किसी से हेठा नहीं। क्या तुम्हारे लिए ये बाइसे नंग वशर्म नहीं है कि तुम उस आदमी के फ़िराक में आँसू बहाओ जिसने बावजूद तुम्हारे वालिद के मुतवातिर तकीज़ों के एक आवारा रॉँड बरहमनी को तुम परतरजीह दी। अफ़सोस है कि तुम उस आदमी को दिल में जगह देती हो जो तुम्हारा भूलकर भी ख्याल नहीं करता। इन्हीं आँखो ने अमृतराय को तुम्हारी तस्वीर पुरजा-पुरजा करके पैरों तले रौंदते देखा है। इन्हीं कानों ने उनको तुम्हारी शान में जा-ओ-बेजा बातें कहते सुना है। तुमको ताज्जुब क्यों होता है प्रेमा, क्या मेरी बातों का यकीन नहीं आया? क्या अमृतराय ने उन सर्दमेरियों काआला सुबूत नहीं दे दिया? क्या उन्होंने डंके की चोट नहीं साबित कर दिया कि वो खाक बराबर तुम्हारी कद्र नहीं करते? माना कि कोई जमाना वो था जब वो भी तुमसे शादी करने का अरमान रखते थे मगर अब वो अमृतराय नहीं रह गया। अब वो अमृतराय है, जिसकी आवारगी और बदचलनी की शहर का बच्चा-बच्चा कसम खा सकता है। मगर अफ़सोस तुम अभी तक उस नंगे खानदान के फ़िराक में आँसू बहा-बहाकर अपने और मेरे ख़ानदान के माथे पर कलंक का टीका लगाती हो।
दाननाथ गुस्से के जोश में थे। चेहरा तमतमाया हुआ था और आँखो से शोले न निकलते हो मगर इन्तिहा दर्जे की रोशनी जरूर पायी जाती थी। प्रेमा बेचारी सर नीचा किये खड़ी रो रही थी। शौहर की एक-एक बात उसके सीने के पार हुई जाती थी। सुनते-सुनते कलेजा मुँह को आ गया आखिर जब्त न हो सका, न रहागया। दाननाथ के पैरों पर गिर पड़ी और गर्म-गर्म अश्क के क़तरों से उनको भिगो दिया। दाननाथ ने फौरन पैर खिसका लिया। प्रेमा को चारपाई परबिठा दिया और बोले—प्रेमा, रोओ मत, तुम्हारे रोने से मेरे दिल को सदमा होता है। मैं तुमको रूलाना नहीं चाहता था मगर उन बातों को कहे बिना रह भी नहीं सकता था तो अगर दिल में रह गयीं तो नतीजा बुरा होगा। कान खोलकर सुनों। मैं तुमको जान से जियादा अजीज़ रखता हूँ। तुम्हारी आसाइश के लिए मै अपनी जान निछावर करने के लिए हाजिर हूँ। मैं तुम्हारे ज़रा से इशारे पर अपने को सदके कर सकता हूँ, मगर तुमको सिवाय अपने किसी और का ख़याल करते नहीं देख सकता। हाँ प्रेमा, मुझसे अब यह नहीं देखा जा सकता। एक महीने से मुझको यही दिक्कत हो रही है। मगर अब दिल पक गया है। अब वो जरा-सी ठेस भी बर्दाश्त नहीं कर सकता। अगर इस अगाहीं पर भी तुम अपने दिल परकाबू न पा सको तो मेरा कुछ कुसुर नहीं। बस इतना कहे देता हूँ कि एक औरत के दो शौहर नहीं जिंदा रह सकते।
यह कहते हुए बाबू दाननाथ गुस्से में भरें बाहर चले आये। बेचारी प्रेमा को ऐसा मालूम हुआ गोया किसी ने कलेजे में छुरी मार दी। उसको आज तक किसी ने भूलकर भी कोई कड़ी बात नहीं सुनायी थी। उसकी भावज कभी-कभी ताने दिया करती थीं मगर वो ऐसे सख्त नहीं मालूम होते थे। वो घण्टों रोती रही। बाद अज़ॉँ उसने शौहार की सारी बातों को सोचना शुरू किया और उसके कानों में यह आखिरी अलफाज़ गूँजने लगे, ‘एक औरत के दो शौहर जिंदा नहीं रह सकते।‘
इनका क्या मतलब है?

तेरहवाँ बाब-चंद हसरतनाक सानिहे

हम पहले कह चुके है कि तमाम तरद्दुदात से आजादी पाने के बाद एक माह तक पूर्णा ने बड़े चैन सेबसर की। रात-दिन चले जाते थें। किसी क़िस्म की फ़िक्र की परछाई भी न दिखायी देते थी। हाँ ये था कि जब बाबू अमृतराय कचहरी चले जाते तो अकेले उसका जी घबराता। पस उसने एक रोज़ उनसे कहा—कि अगर कोई हर्ज न हो तो रामकली और लछमी को इसी जगह बुला लीजिए ताकि उनकी सोहबत में वक्त कट जाया करे। रामकली को नाज़रीन जानते है। लछमी भी एक कायस्थ की लड़की थी और गौने के ही दिन बेवा हो गयी थी। इन दोनों औरतों ने पूर्णा की शादी हो जाने के बाद अपनी रजामंदी से दूसरी शादियाँ की थीं और बाबू अमृतराय ने उनके लिए मकान किराए पर लिया था और उनकी ख़ानादारी के एखराजात के मुतहम्मिल भी होते थे। बाबू साहब को पूर्णा की तजवीज़ बहुत अच्छी मालूम हुई और दूसरे ही दिन रामकली और लछमी इसी बँगले के एक हिस्से में ठहरा दी गयीं। पूर्णा ने इन दोनों औरतों को शादी होने के बाद नदेखा था। अब रामकली को देखा तो पहचानी न जाती थी और लछमी ने भी खूब रंग-रूप निकाले थे। दोनो औरतें पूर्णा के साथ हँसी-खुशी रहने लगी। बाबू साहब की तजबीज थी कि इन औरतों की तालीम अच्छी हो जाय तो अनाथलय की निगरानी उन्हीं के सुपुर्द रि दूँ। चुनांचे एक हुनरमंद लेड़ी अपनी सास को कोसा करतीथी। एक रोज पूर्णा ने उससे मुस्कराकर पूछा—क्यूँ रमन, आजकल मंदिर पूजा करने नहीं जाती हो?
रामकली ने झेंपकर जवाब दिया—सखी, तुम भी कहाँ का जिक्र ले बैठी। अब तो मुझको मंदिर के नाम से नफ़रत है।
लछमी को रामकली के पहले हालात मालूम थे। वो अक्सर उसको छेड़ा करती। उस वक्त् भी न रहा गया। बोल उठी—हाँ बुआ, अब मंदिर काहे का जाओगे। अब तो हँसने-बोलने का सामान घर ही पर मौजूद है।
रामकली—(तुनककर) तुमसे कौन बोलता है, जो लगीं ज़हर उगलने। बहन, इनको मना कर दो, ये हमारी बातों में न दखल दिया करें नहीं तो मै कभी कुछ कह बैठूँगी तो रोती फिरेंगी।
लछमी—(मुस्कराकर) मैंने झूठ थोंड़े कहा था जो तुमको ऐसा कड़वा मालूम हुआ। सो अगर सच बात कहने में ऐसी गर्म होती हो तो झूठ ही बोला करूँगी। मगर एक बात बतला दो। महतजी ने मंतर देते वक्त तुम्हारे कान में क्या कहा था। हमारी भती खाये जो झूठ बोले।
पूर्णा हँसने लगी मगर रामकली रूआँसी होकर बोली—सुनो लछमी, हमसे शरारत करोगी तो ठीक न होगा। मैं जितना तरह देती हूँ तुम उतना ही सर चढ़ी जाती हो। आपसे मतलब: महंत ने मेरे कान में कुछ ही कहा था। बड़ी आयी वहाँ से सीता बन के।
पूर्णा—लछमी, तुम हमारी सखी को नाहक सताती हो। जो पूछना हो ज़र मुलायमत से पूछना चाहिए कि यूँ। हाँ बुआ, तुम उनसे न बोलो, मुझको बतला दो उस तमोली ने तुमको पान खिलाते वक्त क्या कहा था?
रामकली—(बिगड़कर) अब तुम्हें भी छेड़खानी की सूझी। मैं कुछ कह बैठूगी तो बुरा मान जाओगी।
इसी तरह तीनों सखियों में हॅसी-मजाक, बोली-ठोली हुआ करती थी। साथ पढ़तीं साथ हवा खाने जाया करतीं, कई मर्तबा-गंगा स्नान को गयीं। मगर उस जनाने घाट पर जो अमृतराय ने बनवाया था। मालूम होता थाकि तीनों बहनें है। इन्हीं खुशियों में एक महीना गुजर गया। गोया वक्त़ भागा जाता था। मगर फ़लके नाहजा से किसी की खुशी कब देखी जाती है। एक रोज पूर्णा अपनी सखियों के साथ बाग में टहल-टहल के गहने बनाने के लिए फूल चुन रही थी कि एकऔरत ने आके उसके हाथ मे एक खत दिया। पूर्णा ने हर्फ पहचाना। प्रेमा का खत। ये लिखा हुआ था-
‘प्यारी पूर्णा, तुमसे मुलाकात करने का बहुत जी चाहता है। मगर यहाँ घर से पाँव बाहर निकालने की मुमानियत है। इसलिए मजबूरन यह ख़त लिखती हूँ। मुझे तुमसे एक बात कहनी है जो खत में नहीं लिख सकती। अगर तुम किसी मोतबर औरत को इस खत का जवाब देकर भेजो तो उससे जबानी कह दूँगी। निहायत जरूरीबात है।

तुम्हारी सखी,
प्रेमा
ख़त पढ़ते ही पूर्णा का चेहरा जर्द हो गया। उसको इस ख़त की मुख्तसर इबारत नहीं मालूम क्यूँ खटकने लगी। फौरन बिल्लों को बुलाया और प्रेमा के ख़त का जवाब देकर उधर रवाना किया। और उसके वापस आने में आध घंटा जो लगा वो पूर्णा ने निहायत बेचैनी से काटा। नौ बजते-बजते बिल्लों वापस आयी।
चेहरा ज़र्द, रंग फ़क, बदहवास, पूर्णा ने उसको देखते ही पूछा—क्यूँ बिल्लों खैरियत तोहै।
बिल्लों—(परेशानी ठोंककर) क्या कहूँ बहू, कुछ नहीं बनता। न जाने अभी क्या होनेवाला है।
पूर्णा—(घबराकर) क्या कहा, कुछ ख़त-वत तो नहीं दिया?
बिल्लों—ख़त कहाँ से देतीं। हमको अंदर बुलाते डरती थी। देखते ही रोने लगीं और कहा—बिल्लो, मैं क्या करूँ, मेरा जी यहाँ बिलकुल नहीं लगता। मैं अक्सर पिछली बातें याद करके रोया करती हूँ। एक दिन उन्होंने (बाबू दाननाथ) मुझे रोते देख लिया, बहुत बिगड़े, झल्लाये और चलते वक्त धमकाकर कहा कि एक औरत के दो चाहने वाले नहीं जिंदा रह सकते।
यह कहकर बिल्लो ख़ामोश हो गयी। पूर्णा की समझ मे पूरी बात न आयी। उसने कहा—हाँ-हाँ, खामोश क्यूँ हुई। जल्दी कहो, मेरा दम रूका हुआ है।
बिल्लों ने रोकर जवाब दिया—बहू, अब और क्या कहूँ। दाननाथ की नीयत बुरी है। वो समझते है किप्रेमा बाबू अमृतराय की मुहब्बत में रोती है।
इतना सुनना था कि पूर्णा पर सारी बातें रोशन हो गयीं। पैर तले से मिटटी निकल गयी। कुछ ग़शी-सी आ गयी। दोनों सखियाँ दौड़ी हुई आयीं, उसको संभाला, पूछने लगीं क्या हुआ, क्या हुआ। पूर्णा ने बहाना करके टाल दिया। मगर ये मनहूस खबर उसके कलेजे में तीर की तरह चुभ गयी। ईश्वर से दुआ माँगने लगी कि आज किसी तरह वो सही सलामत घर वापस आ जाते तो सब बातें कहती। फिर ख़याल आया कि अभी उनसे कहना मुनासिब नहीं, घबरा जायेंगे। इसी हैस-बैस में पड़ी थी। शाम के वक्त जब बाबू अमृतराय हस्बे मामूल कचहरी से आये तो देखा कि पूर्णा पिस्तौल लिये खिड़की से किसी चीज पर निशाना लगा रही है। उनको देखते ही उसने पिस्तौला अलग रख दिया। अमृतराय ने हँसकर कहा—शिकार के लिए नजरें काफी है, पिस्तौल पर मश्क करने की क्या जरूरत है।
पूर्णा ने अपनी सरासीमगी को छुपाया और बोली—मुझे पिस्तौल चलाना सिखा दो। मैंने दो-तीन बार चलाया मगर निशाना ठीक नहीं पड़ता।
बाबू साहब को पूर्णा के इस शौक पर अचम्भा हुआ। कहाँ तो रोज उनको देखते ही सब धंधा छोड़कर खिदमत के लिए दौड़ती थी और कहाँ आज पिस्तौल चलाने की धुन सवार है। मगर हसीनों के अंदाज कुछ निराले होते है, ये सोचकर उन्होंने पिस्तौल को हाथ में लिया और दो-तीन मर्तबा निशाना लगाकर उसको चलाना सिखाया। और अब पूर्णा ने फायर किया तो निशाना ठीक पड़ा। दूसरा फायर किया वो भी ठीक, चेहरा खुशी से चमक गया। पिस्तौल रख दिया और शौहर की खातिर व मुदारात में मसरूफ हो गयी।
अमृतराय—प्यारी, आज मैंने एक निहायत होशियार मुसव्विर बुलाया है जो तुम्हारी पूरे क़द की तसवीर बनायेगा।
पूर्णा—मेरी तस्वीर खिंचाकर क्या करोगे?
अमृतराय—कमरे में लगाऊँगा।
पूर्णा—तुम भी मेरे साथ बैठो।
अमृतराय—आज तुम अपनी तसवीर खिंचवा लो, फिर दूसरे दिन हम दोनों साथ बैठेंगे।
पूर्णा तसवींर खिंचाने की तैयारियाँ करने लगी। उसकी दोनों सखियाँ उसका बनाव-सँवार करने लगे। मगर उसका दिल आज बैठा जाता था। किसी नामालूम हादसे का खौफ़ उसके दिल पर गालिब होता जाता था। चार बजे के करीब मुसव्विर आया और डेढ़ घण्टे तक पूर्णा की तसवीर का ख़ाका खींचता रहा। उसके चले जाने के बाद गरूबे आफ़ताब के वक्त बाबू अमृतराय हस्बे मामूल सैर के लिए जाने लगे तो पूर्णा ने पूछा—कहाँ जा रहे हो?
अमृतराय—जरा सैर करता आऊँ, दो-चार साहबों से मुलाकात करना है।
पूर्णा—(प्यार से हाथ पकड़कर) आज मेरे साथ बाग में सैर करों। आज न जाने दूँगी।
अमृतराय—प्यारी, मैं अभी लौट आता हूँ। देर न होगी।
पूर्णा—नहीं, मैं आज न जाने दूँगी।
यह कहकर पूर्णा ने शौहार का हाथ पकड़कर खींच लिया। वो बीवी की इस भोली ज़िद पर बहुत खुश हुए। गले लगाकर कहा—अच्छा लो, प्यारी, आज न जायेंगे।
बड़ी देर तक पूर्णा अपने प्यारे पति के हाथ में हाथ दिये रविशो में टहलती रही और उनकी प्यारी बातों को सुन-सुन अपने कानों को खुश करती रही। वह बार-बार चाहती कि उनसे दाननाथ का सारा भेद खोल दूँ। मगर फिर सोचती कि उनको ख़ामखा तकलीफ होगी। जो कुछ सर पे आयेगी। उनकी खातिर से मै अकेले भुगत लूँगी।
सैर करने के बाद थोड़ी देर तक सखियों ने चंद नगमें अलापे। बाद अजाँ कई साहब मुलाकात के लिए आ गये। उनसे बातें होने लगी। इसी असना में नौ बजने को आए।बाबू साहब ने खाना खाया और अखबार लेकर लेटे। और पढ़ते-पढ़ते सो गये। मगर गरीब पूर्णा की आँखो मेंनींद कहाँ। दस बजे तकवो उनके सिरहानों बैठी एक किस्से की किताब पढ़ती रही। जब तमाम कुनबे के लोग सो गये और चारों तरफ सन्नाटा छा गया तो उसे अकेले डर मालूम होने लगा। वो डरते-डरते उठी और चारों तरफ के दरवाजे बंद कर लिये। अब जरा इत्मीनान हुआ तो पंखा लेकर शौहार को झलने लगी। जवानी की नींद, हजार जब्त करने पर भी एक झपकी आ ही गयी। मगर ऐसा डरावना खाब देखा कि चौंक पडी। हाथ-पाँव थर-थर काँपने लगे। दिल धड़कने लगा, बेअख्तियार शौहर का हाथ पकड़ा कि जगा दो मगर फिर यह समझकर कि उनकी प्यारी नींद उचट जायगी तो उनको तकलीफ़ होगी, उनका हाथ छोड़ दिया, अब इस वक्त उसकी हालत नागुफ्ताबेह है। चेहरा ज़र्द हो रहा है। डरी हुई निगाहों से इधर-उधर ताक रही है। पत्ता भी खड़कता है तो चौंक पड़ती है। लैम्प में शायद तेल नहीं है, उसकी धुँधली रोशनी में वो सन्नाटा और भी खौफ़नाक हो रहा है। तसवीरें जो दीवारों को जीनत दे रही है इस वक्त उसको घूरती हुई मालूम होती है।
यकायक घंटे की आवाज कान में आयी। घड़ी की सुइयों पर निगाह पड़ी। बारह बजे थे। वो उठी कि लैम्प गुल कर दे। दफअतन उसको कई आदमियों के पाँव की आहट मालूम हुई। उसका दिल बॉँसो उछलने लगा। झट पिस्तौल हाथ मे लिया और जब तक वो बाबू अमृतराय को जगाये कि वो मज़बूत दरवाजा आप ही खुल गया और कई आदमी धड़बडाते अंदर घुस आये। पूर्णा ने फौरन पिस्तौल सर किया। तड़ाके की आवाज़ आयी और उसके साथ ही कुछ खटपट की आवाजें भी सुनायी दीं। दो आवाजें पिस्तौल के छुटने की और हुई। फिर धमाके की आवाज़ आयी। इतने में बाबू अमृतराय चिल्लाये—दौड़ो दौड़ो। चोर, चोर।
हम आव़ाज के सुनते ही दो आदमी उनकी तरफ लपके मगर इतने में दरवाजे पर लालटेन की रोशनी नजर आयी और कई सिपाही वर्दियाँ डाले कमरे में दाखिल हो गये। चोर भागने लगे मगर दोनो पकड़े गये। सिपाहियों ने लालटेन लेकर ज़मीन पर देखा तो दो लाशें नज़र आयीं, एक पूर्णा की लाश थी। उसको देखते ही बाबू सिपाहियों ने गौर से देखा तो चौंककर बोले—अरे, यह तो बाबू दाननाथ है। सीने में गोली लग गयी।

ख़ात्मा

पूर्णा को दुनिया से उठे एक बरस बीत गया है। शाम का वक्त़ है। ठंडी, रूहपरवर हवा चल रही है। सूरज की रूखसती निगाहें खिड़की के दरवाजों से बाबू अमृतराय के आरास्ता-ओ-पीरास्ता कमरे में जाती और पूर्णा की कदे आदम तसवीर के क़दमों का चुपके से बोसा लेकर खिसक जाती है। सारा कमरा जगमगा रहा है। रामकली और लछमी जिनके चेहरे इस वक्त़ खिले जाते है, कमरे की आराइश में मसरूक है और रह-रहकर खिड़की की ओट से ताकती हैं, गोया किसी के आने का इंतजार कर रही है। दफ़अतन रामकली ने खुश होकर कहा—सखी, वो देखो, वो आ रहे है। इस वक्त़ उनके लिबास कैसे खुशनुमा होते है।
एक लमहे में एक निहायत खूबसूरत फिटन फाटक के अंदर दाखिल हुई और बरामदे में आकर रूकी। उसमें से बाबू अमृतराय उतरे मगर तनहा नहीं। उनका एक हाथ प्रेमा के हाथ में था। बाबू अमृतराय का वजीह चेहरा गो ज़र्द था मगर उस वक्त़ होंठो पर एक हल्का सा तबस्सुम नुमायाँ था। और गुलाबी रंग की नौशेरवानी और धानी रंग का बनारसी दोपटटा और नीले किनारे की रेशमी धोती उस वक्त़ उन पर कयामत का फबन पैदा कर रही थी। पेशानी पर जाफ़रान का टीका और गले में खूबसूरत हार इस जेबाइश के और भी पर लगा रहे थे।
प्रेमा हुस्न की तसवीर और जवानी की तसवीर हो रही थी। उसके चेहरे पर वह जर्दी और नकाहत, वह पजमुर्दगी और खामोशी न थी जो पहले पायी जाती थी बल्कि उसका गुलाबी रंग, उसका गदराया हुआ बदन, उसका अनोखा बनाव-चुनाव उसे नजरों में खुबाये देते है। चेहरा कुदंन की तरह दमन रहा है। गुलाबी रंग की सब्ज हाशिये की साड़ी और ऊदे रंग की कलाइयों पर चुनत की हुई कुर्ती इस वक्त़ ग़ज़ब ढा रही है। उस पर हाथों में जड़ाऊ कड़े, सर पर आड़ी रक्खी हुई झूमर और पाँव में ज़रदोजी के काम की खुशनुमा जूती और भी सोने में सुहागा हो रही है। इस वजा और इस बनाव से बाबू साहब को ख़ास उल्फत है क्यूँकि पूर्णा की तसवीर भी यही लिबास पहले दिखायी देती है और नजरें अव्वल में कोई मुश्किल से कह सकता है कि इस वक्त़ प्रेमा ही की सूरत मुनअकिस होकर आईने में यह जोबन नहीं दिखा रही है।
बाबू अमृतराय ने प्रेमा को उस कुर्सी पर बिठा दिया जो ख़ास इसीलिए बड़े तकल्लुफ़ से सजायी गयी थी और मुसमराकर बोले—प्यारी प्रेमा, आज मेरी जिंदगी का सबसे मुबारक दिन है।
प्रेमा ने पूर्णा की तसवीर की तरफ़ हसरत-आलूद निगाहों से देखकर कहा—हमारी जिंदगी का क्यों नहीं कहते।
प्रेमा ने यह जवाब दिया ही था कि उसकी नज़र एक सुर्ख चीज़ पर जा पड़ी जो पूर्णा की तसवीर के नीचे एक खूबसूरत दीवारगीरी पर धरी हुई थी। उसने फ़र्ते शौक़ से उसे हाथ में ले लिया, देखा तो पिस्तौल था।
बाबू अमृतराय ने गिरी हुई आवाज़ में कहा—ये प्यारी पूर्णा की आखिरी यादगार है। उस देवी ने इसी से मेरी जान बचायी थी।
ये कहते-कहते आवाज़ काँपने लगी और आँखो में आँसू डबडबा आये।
ये सुनकर प्रेमा ने उस पिस्तौल का बोसा लिया और फिर बड़े अदब के साथ उसको उसी मुकाम पर रख दिया।

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