हामिद का बच्चा (कहानी) : सआदत हसन मंटो

Hamid Ka Bachcha (Hindi Story) : Saadat Hasan Manto

लाहौर से बाबू हरगोपाल आए तो हामिद घर का रहा ना घाट का। उन्हों ने आते ही हामिद से कहा। “लो भई फ़ौरन एक टैक्सी का बंद-ओ-बस्त करो।”
हामिद ने कहा। “आप ज़रा तो आराम कर लीजिए। इतना लंबा सफ़र तय करके यहां आए हैं। थकावट होगी।”
बाबू हरगोपाल अपनी धुन के पक्के थे। “नहीं भाई मुझे थकावट वकावट कुछ नहीं। मैं यहां सैर की ग़रज़ से आया हूँ। आराम करने नहीं आया। बड़ी मुश्किल से दस दिन निकाले हैं। ये दस दिन तुम मेरे हो। जो मैं कहूंगा तुम्हें मानना होगा मैं अब के अय्याशी की इंतिहा करदेना चाहता हूँ...... सोडा मँगवाओ।”
हामिद ने बहुत मना किया कि देखिए बाबू हरगोपाल सुबह सवेरे मत शुरू कीजीए मगर वो न माने। बक्स खो कर जॉनी वॉकर की बोतल निकाली और उसे खोलना शुरू कर दिया।
“सोडा नहीं मंगवाते तो लाओ थोड़ा सा पानी लाओ...... क्या पानी भी नहीं दोगे।”
बाबू हरगोपाल, हामिद से उम्र में बड़े थे। हामिद तीस का था तो वो चालीस के थे। हामिद उन की इज़्ज़त करता था इस लिए कि इस के मरहूम बाप से बाबू साहिब के मरासिम थे। उस ने फ़ौरन सोडा मंगवाया और बड़ी लजाजत से कहा। “देखिए मुझे मजबूर न कीजीएगा। आप जानते हैं कि मेरी बीवी बड़ी सख़्त गीर है।”
मगर बाबू हरगोपाल के सामने उस की कोई पेश न चली और उसे साथ देना ही पड़ा।
जैसी कि उम्मीद थी, चार पैग पीने के बाद बाबू हरगोपाल ने हामिद से कहा। “लो भई अब चलें घूमने। मगर देखो कोई ऐसी टैक्सी पकड़ना जो ज़रा शानदार हो। प्राईवेट टैक्सी हो तो बहुत अच्छा है। मुझे इन मीटरों से नफ़रत है।”
हामिद ने प्राईवेट टैक्सी का बंद-ओ-बस्त कर दिया। नई फ़ोर्ड थी। ड्राईवर भी बहुत अच्छा था...... बाबू हरगोपाल बहुत ख़ुश हुए टैक्सी में बैठ कर अपना चौड़ा बटवा निकाला खोल कर देखा। सौसौ के कई नोट थे और इत्मिनान का सांस लिया और अपने आप से कहा। “काफ़ी हैं...... लो भई ड्राईवर अब चलो।”
ड्राईवर ने अपने सर पर टोपी को तिर्छा किया और पूछा। “कहाँ सेठ।”
बाबू हरगोपाल हामिद से मुख़ातब हुए “बोलो भई तुम।”
हामिद ने कुछ देर सोच कर एक ठिकाना बताया। टैक्सी ने उधर का रुख़ किया। थोड़ी ही देर के बाद बंबई का सब से बड़ा दलाल उन के साथ था। उस ने मुख़्तलिफ़ मुक़ामात से मुख़्तलिफ़ लड़कीयां निकाल निकाल कर पेश कीं मगर हामिद को कोई पसंद न आई वो नफ़ासतपसंद था। सफ़ाई का शैदा था। ये लड़कीयां सुर्ख़ी पाउडर के बावजूद उस को गंदी दिखाई दीं। इस के इलावा उन के चेहरों पर कसबीत की मोहर थी। ये उसे बहुत घिनाओनी मालूम होती थी। वो चाहता था कि औरत को कसबी होने पर भी औरत ही रहना चाहिए। अपने औरत पन को अपने पेशे के नीचे दबा नहीं देना चाहिए। इस के बरअक्स बाबू हरगोपाल ग़लाज़त पसंद था। लाखों में खेलता था। चाहता तो बंबई का पूरा शहर साबुन पानी से धुलवा देता मगर अपनी ज़ाती सफ़ाई का उसे कुछ ख़्याल नहीं था। नहाता था तो बहुत ही थोड़े पानी से। कई कई शैव नहीं करता था। गिलास चाहे मैला चकट हो, उठा कर इस में फ़रस्ट क्लास विस्की उंडेल देता था। ग़लीज़ भिकारन को सीने के साथ चिमटा कर सो जाता था और कहता था “लुतफ़ आगया...... क्या चीज़ थी।”
हामिद को हैरत होती थी कि ये बाबू किस क़िस्म का इंसान है। ऊपर निहायत ही क़ीमती शेरवानी है नीचे ऐसी बिनयान है कि उस को देखने से उबकाईयां आनी शुरू हो जाती हैं। रूमाल पास है लेकिन कुर्ते के दामन से नाक का बहता हुआ रेंठ साफ़ कररहा है। ग़लीज़ प्लेट में चाट खा कर ख़ुश होरहा है। तकीए के ग़ेलाफ़ मैले हो कर बदबू छोड़ रहे हैं मगर उसे उन को बदलवाने का ख़्याल तक नहीं आता...... हामिद ने इस के मुतअल्लिक़ बहुत ग़ौर किया था मगर किसी नतीजे पर न पहुंचा। उस ने कई मर्तबा बाबू हरगोपाल से कहा। “बाबू जी आप को ग़लाज़त से घिन क्यों नहीं आती।”
ये सुन कर बाबू हरगोपाल मुस्कुरा देते। “क्यों नहीं आती...... लेकिन तुम्हें तो हर जगह ग़लाज़त ही ग़लाज़त नज़र आती है। अब इस का क्या ईलाज है।”
हामिद ख़ामोश हो जाता और दिल ही दिल में बाबू हरगोपाल की ग़लाज़त पसंदी पर कुढ़ता रहता।
टैक्सी देर तक इधर उधर घूमती रही। दलाल ने जब देखा कि हामिद इंतिख़ाब के मुआमले में बहुत कड़ा है तो इस ने दिल में कुछ सोचा और ड्राईवर से कहा। “शिवा जी पार्क की तरफ़ दबाओ...... वो भी पसंद न आई तो क़सम ख़ुदा की भड़वा गीरी छोड़ दूंगा।”
टैक्सी शिवाजी पार्क की एक बंगला नुमा बिल्डिंग के पास रुकी। दलाल ऊपर चला गया। थोड़ी देर के बाद वापस आया और बाबू हरगोपाल और हामिद को अपने साथ ले गया।
बड़ा साफ़ सुथरा कमरा था। फ़र्श की टायलें चमक रही थीं। फ़र्नीचर पर गर्द का ज़र्रा तक नहीं था । इधर दीवार पर स्वामी विवेकानन्द की तस्वीर लटक रही थी। सामने गांधी जी की तस्वीर सूभाष का फ़ोटो भी था। मेज़ पर मरहट्टी की किताबें पड़ी थीं।
दलाल ने उन को बैठने के लिए कहा। दोनों सोफे पर बैठ गए। हामिद घर की सफ़ाई से बहुत मुतअस्सिर हुआ। चीज़ें मुख़्तसर थीं मगर करीने से रखी गई थीं। फ़िज़ा बड़ी संजीदा थी इस में कसबियों का वो बेशरम तीखा पन नहीं था।
हामिद बड़ी बेसबरी से लड़की की आमद का इंतिज़ार करने लगा। दूसरे कमरे से एक मर्द नमूदार हुआ। उस ने हौलेहौले सरगोशियों में दलाल से बातें कीं। बाबू हरगोपाल और हामिद की तरफ़ देखा और कहा। “अभी आती है...... नहा रही थी, कपड़े पहन रही है।”
ये कह कर वो चला गया।
हामिद ने गौरसे कमरे की चीज़ें देखना शुरू की। मेज़ के पास कोने में बड़ी ख़ूबसूरत रंगीन चटाई पड़ी थी। मेज़ पर किताबों के साथ दस पंद्रह रिसाले थे। नीचे बड़े नाज़ुक चप्पल चमकीले फ़र्श पर पड़े थे। कुछ इस अंदाज़ से कि अभी अभी उन से पांव निकल कर गए हैं। सामने शीशों वाली अलमारी में क़तार दर क़तार किताबें थीं।
बाबू हरगोपाल ने फ़र्श पर जब अपने सिगरट का आख़िरी हिस्सा अपनी गुरगाबी के नीचे दबाया तो हामिद को बहुत ग़ुस्सा आया। सोच ही रहा था कि उसे उठा कर बाहर फेंक दे कि दूसरे कमरे के दरवाज़े से इस के कानों में रेशमीं सरसराहट पहुंची। उस ने ज़ावीया बदल कर देखा। एक गौरी चिट्टी लड़की, बिलकुल नए काशटे में मलबूस नंगे पैर आरही थी।
............ काशटे का पल्लू इस के सर से खिसका। सीधी मांग थी। जब क़रीब आकर उस ने हाथ जोड़ कर परिणाम किया तो इस के चमकीले जोड़े में हामिद ने एक पत्ता अड़सा हुआ देखा। पत्ते का रंग सफेदी माइल था। मोटे जोड़े में जो बड़ी सफ़ाई से किया गया था ये पत्ता बहुत ख़ूबसूरत दिखाई देता था। हामिद ने परिणाम का जवाब उठ कर दिया। लड़की शरमाती लजाती उन के पास कुर्सी पर बैठ गई।
उस की उम्र हामिद के अंदाज़े के मुताबिक़ सतरह बरस से ऊपर नहीं थी। क़द दरमियाना, रंग गोरा जिस में हल्की हल्की प्यारी झलक थी। जिस तरह उस की साड़ी नई थी इसी तरह वो ख़ुद नई मालूम होती थी। कुर्सी पर बैठ कर इस ने बड़ी बड़ी स्याह आँखें झुका लीं। हामिद को ऐसा महसूस होने लगा कि वो आहिस्ता आहिस्ता इस के वजूद में सराएत कर रही है। लड़की बड़ी साफ़ सुथरी, बड़ी उजली थी।
बाबू हरगोपाल ने हामिद से कुछ कहा तो वो चौंक पड़ा जैसे उस को किसी ने झिंझोड़ कर जगा दिया है “क्या कहा बाबू हरगोपाल?”
बाबू हरगोपाल ने कहा। “बात करो भई।” फिर आवाज़ धीमी करदी। “मुझे तो कोई ख़ास पसंद नहीं।”
हामिद कबाब होगया। उस ने लड़की की तरफ़ देखा। धुला हुआ शबाब इस के सामने बैठा था। निखरी हुई बेदिमाग़ जवानी। रेशम में लिपटी हुई उस की नज़रों के सामने थी जिस को वो हासिल कर सकता था। एक रात के लिए नहीं, कई रातों के लिए, क्योंकि वो क़ीमत अदा करके अपनाई जा सकती थी, लेकिन हामिद ने जब ये सोचा तो उसे दुख हुआ कि ऐसा क्यों है। ये लड़की बिकाऊ माल हर्गिज़ नहीं होनी चाहिए थी। फिर उसे ख़्याल कि आया अगर ऐसा होता तो उस को हासिल कैसे करता।
बाबू हरगोपाल ने बड़े भोंडे अंदाज़ में पूछा। “क्या ख़्याल है भई।”
“ख़्याल?” हामिद फिर चौंका। आप को तो पसंद नहीं, “लेकिन में...... ” वो कुछ कहते कहते रुक गया।
बाबू हरगोपाल बड़े दोस्त नवाज़ थे। उठे और दलाल से कारोबारी अंदाज़ में पूछा। “क्यों भई क्या देना पड़ेगा?”
दलाल ने जवाब दिया। “छोकरी देख लीजिए। अभी ताज़ा ताज़ा धंदा शुरू किया है।”
बाबू हरगोपाल ने उस की बात काटी। “तुम उसे छोड़ो। मुआमले की बात करो।”
दलाल ने बीड़ी सुलगाई, “सौ रुपय होंगे। पूरा दिन रखिए या पूरी रात रखिए। एक डीढ़या कम नहीं होगा।”
बाबू हरगोपाल हामिद से मुख़ातब हुए। “क्यों भई।”
हामिद को बाबू हरगोपाल और दलाल की गुफ़्तगु बहुत नागवार गुज़र रही थी। उस को यूं महसूस होता था कि उस लड़की की तौहीन होरही है...... सौ रुपय में ये धड़कता हुआ शबाब ये दहकती हुई जवानी...... उस को ये सुन कर बहुत कोफ़्त हुई कि मरहट्टी हुस्न का जो ये नादिर नमूना उस के सामने सांस ले रहा था उस की क़ीमत सिर्फ़ सौ रुपय है...... मगर इस कोफ़्त के साथ ही इस ख़्याल ने उस के दिल में चुटकी ली कि सौ रुपय दे कर आदमी इस को हासिल तो कर सकता है। एक दिन या एक रात के लिए लेकिन फिर उस ने सोचा। सिर्फ़ एक दिन या एक रात के लिए...... इस के साथ तो आदमी को अपनी सारी उम्र बिता देनी चाहिए। इस की हस्ती में अपनी हस्ती मुदग़म कर देनी चाहिए।
बाबू हरगोपाल ने फिर पूछा। “क्यों भई क्या ख़्याल है?”
हामिद अपना ख़्याल ज़ाहिर नहीं करना चाहता था। बाबू हरगोपाल मुस्कुराया। जेब से बटवा निकाला और सौ का एक नोट दलाल को दे दिया। एक डीढ़या कम न एक डीढ़या ज़्यादा। फिर वो हामिद से मुख़ातब हुआ। “चलो भई...... मुआमला तय होगया।”
हामिद ख़ामोश होगया। दोनों नीचे उतर कर टैक्सी में बैठे। दलाल लड़की लेकर आगया। वो शरमाती लजाती उन के साथ बैठ गई...... होटल में एक कमरे का बंद-ओ-बस्त करके बाबू हरगोपाल अपने लिए कोई लड़की तलाश करने चला गया।
लड़की पलंग पर आँखें झुकाए बैठी थी। हामिद का दिल धक धक कर रहा था। बाबू हरगोपाल विस्की की बोतल छोड़ गया था। आधी के क़रीब बाक़ी थी। हामिद ने सोडा मंगवा कर एक बहुत बड़ा पैग लगाया। इस से उस में कुछ जुर्रत पैदा हुई। उस ने लड़की के पास बैठ कर पूछ। “आप का नाम?”
लड़की ने निगाहें उठा कर जवाब दिया। “लता मंगलाओंकर।
बड़ी प्यारी आवाज़ थी। हामिद ने एक बड़ा पैग अपने अंदर उंडेला और लता के सर से काशटे का पल्लू हटा कर इस के चमकीले बालों पर हाथ फेरा। लता ने बड़ी बड़ी स्याह आँखें झपकाईं। हामिद ने साड़ी का पल्लू बिलकुल नीचे गिरा दिया। चुस्त चोली के खुले गिरेबान से उस को लता के सीने की उभार की नन्ही सी धड़कती हुई झलक दिखाई दी। हामिद का सारा वजूद थर्रा गया। उस के दिल में ख़ाहिश पैदा हुई कि वो चोली बन कर लता के साथ चिमट जाये। उस की मीठी मीठी गर्मी महसूस करे और सो जाये।
लता हिंदूस्तानी नहीं जानती थी। उस को मंगलाओं से आए सिर्फ़ दो महीने हुए थे। मरहट्टी बोलती थी। बड़ी करख़त ज़बान है लेकिन इस के मुँह में ये बड़ी मुलाइम होगई थी। वो टूटी फूटी हिंदूस्तानी में हामिद की बातों का जवाब देती तो वो इस से कहता “नहीं लता, तुम मरहट्टी में बात करो। मुझे बहुत चानगली लगती।”
लफ़्ज़ “चानगली” सुन कर लता हंस पड़ती और सही तलफ़्फ़ुज़ उस को बताती, लेकिन हामिद चे और से की दरमयानी आवाज़ पैदा ना करसकता। इस पर दोनों खिलखिला कर हँसने लगते। हामिद उस की बातें न समझता लेकिन इसे न समझने में उस को लुत्फ़ आता था। कभी कभी वो उस के होंट चूम लेता और उस से कहता। “ये प्यारे प्यारे बोल जो तुम अपने मुँह से निकाल रही हो मेरे मुँह में डाल दो। मैं इन्हें पीना चाहता हूँ।”
वो कुछ न समझती और हंस देती। हामिद उसे अपने सीने के साथ लगा लेता। लता की बांहें बड़ी सिडौल और गौरी गौरी थीं उन पर चोली की छोटी छोटी आसतीनें फंसी हुई थीं। हामिद ने उन को भी कई बार चूमा लता का हर उज़ू हामिद को प्यारा लगता था।
रात को नौ बजे हामिद ने लता को इस के घर छोड़ा तो अपने अंदर एक ख़ला सा महसूस किया। इस के मुलाइम जिस्म का लम्स जैसे एक दम छाल की तरह उतरकर इस से जुदा होगया। सारी रात करवटें बदलता रहा। सुबह बाबू हरगोपाल आए। उन्हों ने तख़लीए में उस से पूछा “क्यों कैसी रही?”
हामिद ने सिर्फ़ इतना कहा। “ठीक थी।”
“चलते हो फिर?”
“नहीं मुझे एक ज़रूरी काम है।”
“बकवास न करो...... मैंने तुम से आते ही कह दिया था कि ये दस दिन तुम मेरे हो।”
हामिद ने बाबू हरगोपाल को यक़ीन दिलाया कि उसे वाक़ई बहुत ज़रूरी काम है। पूने जा रहा हूँ। वहां उस को एक आदमी से मिल कर अपना काम कराना है। बाबू हरगोपाल अंजाम कार मान गए और अकेले अय्याशी करने चले गए।
हामिद ने टैक्सी ली। बैंक से रुपय निकलवाये और सीधा लता के हाँ पहुंचा। वो अंदर नहा रही थी। कमरे में एक मर्द बैठा था, वही जिस ने पहले दिन कहा था। “अभी आती है...... नहा रही थी, कपड़े बदल रही है।” हामिद ने इस से कुछ देर बातें कीं और सौ का एक नोट इस के हवाले कर दिया। लता आई पहले से भी ज़्यादा साफ़ सुथरी और निखरी हुई। हाथ जोड़ कर इस ने परिणाम किया। हामिद उठा और उस मर्द से मुख़ातब हुआ “मैं चलता हूँ। तुम ले आओ इन्हें...... वक़्त पर छोड़ जाऊंगा।”
ये कह कर वो नीचे उतर गया, लता आई और हामिद के पास बैठ गई। उस का लम्स महसूस करके हामिद को बड़ी राहत हुई। वो उस को वहीं टैक्सी में अपने सीने के साथ भींच लेता मगर लता ने हाथ के इशारे से मना कर दिया।
शाम के साढ़े सात बजे तक वो उस के साथ रही...... जब उस को घर छोड़ा तो ऐसा महसूस किया कि उस के दिल की राहत उस से जुदा होगई है। रात भर वो बेचैन रहा। हामिद शादीशुदा था। छोटे छोटे दो बच्चों का बाप था। उस ने सोचा कि वो सख़्त हमाक़त कर रहा है। अगर उस की बीवी को पता चल गया तो आफ़त बरपा हो जाएगी। एक बार सिलसिला होगया ठीक है, मगर ये सिलसिला तो अब दराज़ होने की तरफ़ माइल था। उस ने अह्द कर लिया कि अब शिवाजी पार्क का रुख़ नहीं करेगा। मगर सुबह दस बजे वो फिर लता के साथ होटल में लेटा था।
पंद्रह रोज़ तक हामिद बिला नागा लता के हाँ जाता रहा...... उस के बैंक के एकाऊंट में से दो हज़ार रुपय उड़ चुके थे। कारोबार अलग उस की ग़ैरमौजूदगी के बाइस नुक़्सान उठा रहा था। हामिद को इस का कामिल एहसास था मगर लता उस के दिल-ओ-दिमाग़ पर बुरी तरह छा चुकी थी। लेकिन हामिद ने हिम्मत से काम लिया और एक दिन ये सिलसिला मुनक़ता कर दिया।
इस दौरान में बाबू हरगोपाल अपनी मैली और ग़लीज़ अय्याशीयां ख़त्म करके लाहौर वापस जा चुका था। हामिद ने ख़ुद को ज़बरदस्ती अपने कारोबारी कामों में मसरूफ़ कर दिया और लता को भूलने की कोशिश की।
चार महीने गुज़र गए। हामिद साबित क़दम रहा। लेकिन एक दिन इत्तिफ़ाक़ से उस का गुज़र शिवाजी पार्क से हुआ। हामिद ने ग़ैर इरादी तौर पर टैक्सी वाले से कहा। “रोक लो यहां।” टैक्सी रुकी। हामिद सोचने लगा। “नहीं ये ठीक नहीं...... टैक्सी वाले से कहो चले!” मगर दरवाज़ा खोल कर वो बाहर निकला और ऊपर चला गया।
लता आई तो हामिद ने देखा कि वो पहले से मोटी है। छातियां ज़्यादा बढ़ी हैं। चेहरे पर गोश्त बढ़ गया है। हामिद ने सौ रुपय दिए और उस को होटल में ले गया। यहां उस को जब मालूम हुआ कि लता हामिला है तो उस के औसान ख़ता होगए। सारा नशा हिरन होगया। घबरा कर उस ने पूछा। “ये...... ये हमल किस का है?”
लता कुछ न समझी। हामिद ने उस को बड़ी मुश्किल से समझाया तो उस ने सर हिला कर कहा। “हम को मालूम नहीं।”
हामिद पसीना पसीना होगया। “तुम्हें बिलकुल मालूम नहीं।”
लता ने सर हिलाया। “नहीं।”
हामिद ने थूक निगल कर पूछा। “कहीं...... मेरा तो नहीं?”
“मालूम नहीं।”
हामिद ने मज़ीद इस्तिफ़सार किया। बहुत ही बातें कीं तो उसे मालूम हुआ कि लता के लवाहिक़ीन ने हमल गिरवाने की बहुत कोशिश की मगर कामयाब ना हुए। कोई दवा असर नहीं करती थी। एक दवा ने तो उसे बीमार कर दिया चुनांचे एक महीना वो बिस्तर पर पड़ी रही। हामिद ने बहुत सोचा। एक ही बात उस की समझ में आई कि किसी अच्छे डाक्टर से मश्वरा करे और बहुत जल्दी करे क्योंकि बच्चे की ख़ातिर लता को गांव भेजा जा रहा था।
हामिद ने उस को घर छोड़ा और एक डाक्टर के पास गया जो उस का दोस्त था इस ने हामिद से कहा। “देखो ये मुआमला बड़ा ख़तरनाक है। ज़िंदगी और मौत का सवाल दरपेश होता है।”
हामिद ने इस से कहा। “यहां मेरी ज़िंदगी और मौत का सवाल है। नुतफ़ा यक़ीनन मेरा है। मैंने अच्छी तरह हिसाब लगाया है। उस से भी अच्छी तरह दरयाफ़्त किया है। ख़ुदा के लिए आप सोचिए मेरी पोज़ीशन किया है...... मेरी औलाद...... मैं तो ये सोचते ही काँप काँप जाता हूँ। आप मेरी मदद नहीं करेंगे तो सोचता सोचता पागल हो जाऊंगा।”
डाक्टर ने उस को दवा दे दी। हामिद ने लता को पहुंचा दी मगर कोई असर न हुआ। हामिद ख़ुशख़बरी सुनने के लिए बेक़रार था मगर लता ने उस से कहा कि उस पर पहले भी किसी दवा ने असर नहीं किया था। हामिद बड़ी मुश्किलों से एक और दवा लाया मगर ये भी कारगर साबित न हुई। अब लता का पेट साफ़ नुमायां था। इस के लवाहिक़ीन उसे गांव भेजना चाहते थे। लेकिन हामिद ने उन से कहा। “नहीं अभी ठहर जाओ...... मैं कुछ और बंद-ओ-बस्त करता हूँ।”
बंद-ओ-बस्त कुछ भी न हुआ। सोच सोच कर हामिद का दिमाग़ आजिज़ आगया। क्या करे किया न करे। कुछ उस की समझ में नहीं आता......बाबू हरगोपाल पर सौ लानतें भेजता था। अपने आप को कोसता था कि क्यों इस ने हिमाक़त की। ये सोचाता तो लरज़ जाता कि अगर लड़की पैदा हुई तो वो भी अपनी माँ की तरह पेशा करेगी। डूब मरने की बात है।
उस को लता से नफ़रत हो गई। इस का हुस्न इस के दिल में अब पहले से जज़बात पैदा न करनता। ग़लती से इस का हाथ लता से छू जाता तो उस को ऐसा महसूस होता कि उस ने अंगारों में हाथ झोंक दिया है। उस को अब लता की कोई अदा पसंद नहीं थी। उस की ज़बरदस्त ख़्वहिश थी कि वो उस का बच्चा जनने से पहले पहले मर जाये। वो और मर्दों के पास भी जाती रही थी, क्या उसे हामिद ही का नुत्फ़ा क़बूल करना था?
हामिद के जी में आया कि वो इस के सूजे हुए पेट में छुरा भोंक दे या कोई ऐसा हीला करे कि उस का बच्चा पेट ही में मर जाये। लता भी काफ़ी फ़िक्रमंद थी। उस की कभी ख़्वाहिश नहीं थी कि बच्चा हो। इस के इलावा उस को बहुत बोझ महसूस होता था। शुरू शुरू में तो उस को उल्टियों ने निढाल कर दिया था। अब हरवक़त इस के पेट में ईंठन सी रहती थी। मगर हामिद समझता था कि वो फ़िक्रमंद नहीं है। और कुछ नहीं तो कमबख़्त मेरी हालत देख कर ही तरस खा कर बच्चा क़ै करदे।
दवाएं छोड़कर टोने टोटके भी किए मगर बच्चा इतना हट धर्म था अपनी जगह पर क़ायम रहा...... थक हार कर हामिद ने लता को गांव जाने की इजाज़त दे दी लेकिन ख़ुद वहां जा कर मकान देख आया। हिसाब के मुताबिक़ बच्चा अक्तूबर के पहले हफ़्ते में पैदा होना था। हामिद ने सोच लिया था कि वो उसे किसी ना किसी तरह मरवा डालेगा, चुनांचे इस ग़रज़ से इस ने बंबई से एक बहुत बड़े दादा से राह-ओ-रस्म पैदा की, उस को ख़ूब खिलाता पिलाता रहा। इस पर उस का काफ़ी रुपया ख़र्च हुआ। मगर हामिद ने कोई ख़्याल न किया।
वक़्त आया तो उस ने अपनी सारी स्कीम दादा करीम को बता दी। एक हज़ार रुपय तय हुए। हामिद ने फ़ौरन दे दिए। दादा करीम ने कहा। “इतना छोटा बच्चा मुझ से नहीं मारा जाएगा। मैं लाकर तुम्हारे हवाले कर दूँगा। आगे तुम जानो और तुम्हारा काम। वैसे ये राज़ मेरे सीने में दफ़न रहेगा। उस की तुम कुछ फ़िक्र न करो।”
हामिद मान गया। उस ने सोचा कि वो बच्चे को गाड़ी की पटड़ी पर रख देगा। अपने आप कुचला जाएगा या किसी और तरकीब से इस का ख़ातमा करदेगा...... दादा करीम को साथ लेकर वो लता के गांव आ पहुंचा। दादा करीम ने बताया कि बच्चा पंद्रह रोज़ हुए पैदा हो चुका है। हामिद के दिल में वो जज़्बा पैदा हुआ जो अपने पहले लड़के की पैदाइश पर उस को महसूस हुआ था मगर इस ने उस को वहीं दबा दिया और करीम से कहा। “देखो आज रात ये काम हो जाये।”
रात के बारह बजे एक उजाड़ जगह पर हामिद खड़ा इंतिज़ार कर रहा था। इस के दिल-ओ-दिमाग़ में एक अजीब तूफ़ान बरपा था। वो ख़ुद को बड़ी मुश्किलों से क़ातिल में तबदील कर चुका था। वो पत्थर जो इस के सामने पड़ा था। बच्चे का सर कुचलने के लिए काफ़ी था। कई बार उसे उठा कर वो इस के वज़न का अंदाज़ा कर चुका था।
साढ़े बारह हुए तो हामिद को क़दमों की आवाज़ आई। हामिद का दिल इस ज़ोर से धड़कने लगा जैसे सीने से बाहर आजाएगा। दादा करीम अंधेरे में नमूदार हुआ। उस के हाथों में कपड़े की एक छोटी सी गठड़ी थी। पास आकर उस ने हामिद के काँपते हुए हाथों में दे दी और कहा। “मेरा काम ख़त्म हुआ मैं चला।”
ये कह वो चला गया। हामिद बहुत बरी तरह काँप रहा था। बच्चा कपड़े के अंदर हाथ पांव मार रहा था। हामिद ने उसे ज़मीन पर रख दिया। थोड़ी देर अपने लरज़े पर क़ाबू पाने की कोशिश की। जब ये कुछ कम हुआ तो इस ने वज़नी पत्थर उठाया। टटोल कर सर देखा। पत्थर ज़ोर से पटकने ही वाला था कि उस ने सोचा, बच्चे को एक नज़र देख तो लूं। पत्थर एक तरफ़ रख कर इस ने काँपते हुए हाथों से दिया सिलाई निकाली और एक तीली सुलगाई। ये उस की उंगलीयों ही में जल गई। उस की हिम्मत न पड़ी। कुछ देर सोचा। दिल मज़बूत किया। दया सिलाई की तीली जलाई। कपड़ा हटाया। पहले सरसरी नज़र से फिर एक दम ग़ौर से देखा। तीली बुझ गई...... ये किस की शक्ल थी?...... उस ने कहीं देखी थी। कहाँ?...... कब?
हामिद ने जल्दी जल्दी एक तीली जलाई और बच्चे के चेहरे को ग़ौर से देखा। एक दम उस की आँखों के सामने उस मर्द का चेहरा आ गया जिस के साथ लता शिवाजी पार्क में रहती थी...... हट तेरी ऐसी की तैसी...... हूबहू वही शक्ल...... वही नाक नक़्शा!
हामिद ने बच्चे को वहीं छोड़ा और क़हक़हे लगाता चला गया।

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