दबे पाँव (कहानी संग्रह) : वृंदावनलाल वर्मा

Dabe Paanv (Hindi Stories) : Vrindavan Lal Verma

अध्याय 1

कुछ समय हुआ एक दिन काशी से रायकृष्ण दास और चिरगाँव से मैथिलीशरण गुप्त साथ-साथ झाँसी आए। उनको देवगढ़ की मूर्ति कला देखनी थी - और मुझको दिखलानी थी। देवगढ़ पहुँचने के लिए झाँसी-बंबई लाइन पर जालौन स्टेशन मिलता है। वहाँ से देवगढ़ सात मील है। बैलगाड़ी से जाना पड़ता है, जंगली और पहाड़ी मार्ग है।

मैं इससे पहले दो बार देवगढ़ हो आया था। सरकार देवगढ़ को अपनी देखरेख में लेना चाहती थी। जैन संप्रदाय देना नहीं चाहता था, क्योंकि देवगढ़ के किले में प्राचीन जैन मंदिर थे, जिनके प्रबंध की ओर उपेक्षा अधिक थी और व्यवस्था कम। परंतु मैं जैन समिति का वकील था। मंदिर की अवस्था और व्यवस्था देखने के लिए जाना पड़ता था।

हम तीनों जाखलौन स्टेशन पर सवेरे पहुँच गए। मैंने आने की सूचना पहले ही भेज दी थी। स्टेशन पर उतरते ही कुछ हँसते-मुसकराते चेहरे नजर आए। एकाध चिंतित भी। चिंता का कारण मैंने मित्रों को सुनाया। पहली बार जब गया था, समिति के मुनीम ने मेरे भोजन की व्यवस्था के संबंध में पूछा।

मैंने कहा, 'दूध पी लूँगा।'

मुनीमजी ने पूछा, 'कितना ले आऊँ?'

मैंने उत्तर दिया, 'जितना मिल जाय।'

'सेर भर?'

'खैर! ज्यादा न मिले तो सेर भर ही सही।'

'दो सेर ले आऊँ?'

'कहा न, जितना मिल जाय।'

'यानी तीन-चार सेर?'

'क्या कहूँ, पाँच-छह सेर भी मिल जाय, तो भी हर्ज नहीं।'

'पाँच-छह सेर!' मुनीम ने आश्र्चर्य प्रकट किया। सिर खुजलाया और मुसकुराकर व्यंग्य करते हुए बोला -

'उसके साथ कुछ और भी?'

मुझे हँसी आ गई। मैंने कहा, 'यह तुम्हारी श्रद्धा के ऊपर निर्भर है।'

मुनीम सिर नीचा करके चला गया। थोड़ी देर में एक छोटे घड़े में पाँच सेर दूध और थोड़ी जलेबी लेकर लौट आया। उसके सामने ही मैंने सब समाप्त कर दिया। जब देवगढ़ वापस हुआ और झाँसी जाने को हुआ, मुनीम मेरे सामने सिकुड़ता-सकुचाता हुआ आया।

बोला, 'वर्माजी, बुरा न मानें तो अर्ज करूँ - एक रसीद दे दीजिए।'

मैंने अपनी स्मृति को टटोला-किस बात की रसीद माँगता है, फीस तो मैंने अभी ली नहीं है।

मैंने पूछा, 'किस बात की रसीद?'

मुनीम ने नीचा सिर किए हुए ही कहा, 'पाँच सेर दूध और पाव भर जलेबी की रसीद। समितिवाले यकीन नहीं करेंगे की वकील साहब पक्का सवा पाँच सेर डाल गए। शक करेंगे कि मुनीम पचा गया।'

मुझे हँसी आई। मैंने रसीद दे दी।

उस स्टेशन वाले की चिंता का कारण सुनाते ही रायकृष्ण दास और मैथिलीशरण गुप्त कहकहे लगाने लगे। चिंतित चेहरे पर शरारत की भी हल्की-पतली लहर थी।

उस पर भी हँसी आ गई। मैंने कहा, 'अब की बार वह सबकुछ नहीं है, मुनीमजी।'

हम लोग बैलगाड़ी से देवगढ़ पहुँचे। छकड़े के धक्कों और दचकों को हम लोगों ने अपनी बातों और हँसी में दबा लिया।

देवगढ़ के किले के नीचे गुप्तकालीन विष्णन मंदिर है। उस समय पुरातत्व विभाग ने उनको अपने अधिकार में नहीं लिया था। मंदिर खंडहर के रूप में था। पत्थरों में रामचरित के दृश्य उभरे पड़े थे। एक विशाल खंड पर, जो मंदिर की एक बगल में सटा हुआ था, शेषनाग की शय्या पर लेटे हुए विष्णु, लक्ष्मी और कुछ देवताओं का उभार था। उसको देखकर हम लोग विस्मय और श्रद्धा में एक साथ डूब गए। देखते-देखते आँखे थकी जा रही थीं; परंतु मन नहीं भरता था - मूर्तियों के उस खंडहर के चारों ओर जंगल और सूनसान। कुछ दूरी पर जंगली जानवरों की पुकारें और जंगल में काम करनेवाले थोड़े से मनुष्यों के कभी-कभी सुनाई पड़ जानेवाले शब्द। पवन की सनसनाहट में बरगद और पीपल के पत्तों की खरभरी। इन सबके ऊपर विष्णु की मूर्ति की बारीक मुसकान थी। एक ओर ऊँची पहाड़ी पर हरे-हरे पेड़ों में उलझा हुआ किला और उसके भीतर निस्तब्ध मंदिर और शांतिनाथ की मूर्तियाँ और दूसरी ओर विष्णु की वह अभय देनेवाली मधुर वरद मुसकराहट प्रकृति को गुदगुदी दे रही थी, वातावरण को विशालता, इतिहास को महानता और भविष्य को शाक्ति। हम लोगों को उसने जो कुछ दिया, उसके लिए हृदय बहुत छोटी जगह है।

पुकारें और जंगल में काम करनेवाले थोड़े से मनुष्यों के कभी-कभी सुनाई पड़ जाने वाले शब्द। पवन की सनसनाहट में बरगद और पीपल के पत्तों की खरभरी। इन सबके ऊपर विष्णु की मूर्ति की बारीक मुसकान थी। एक ओर ऊँची पहाड़ों पर हरे-हरे पेड़ों में उलझा हुआ किला और उसके भीतर निस्तब्ध मंदिर और शांतिनाथ की मूर्तियाँ और दूसरी ओर विष्णु की वह अभय देनेवाली मधुर वरद मुसकराहट प्रकृति को गुदगुदी दे रही थी, वातावरण को विशालता, इतिहास को महानता और भविष्य को शक्ति। हम लोगों को उसने जो कुछ दिया, उसके लिए ह्दय बहुत छोटी जगह है।

विष्णु की नाक के बिलकुल अग्र भाग को किसी मूर्ति भंजक ने टाँकी से छीला था। शायद वह उस समग्र मूर्ति के खंड करना चाहता था; परंतु - जान पड़ता है - उसके हाथ, हथौड़ी और टाँकी - सब कुंठित हो गए। क्रूरता और बर्बरता के ऊपर उस स्मित ने कोई मोहिनी डाल दी। अब उसका वशीकरण पुरातत्व विभाग के ऊपर है। मूर्तियाँ यथावत रख दी गई हैं। अहाता बना दिया गया है और चौकीदार रहता है।

हम लोग किले के मंदिरों में देखते फिरे। मूर्तियों की मुद्रा एकांत शांति की थी। उन सबका एकत्र प्रभाव मन में सुनसान पैदा करता था। परंतु उस सुनसान में होकर जब मन विष्णु के अर्धस्मित की ओर झाँकता था तब उस स्मित की झाँकी में जीवन दिखलाई पड़ जाता था।

घूमते-घूमते हम लोग किले के छोर पर पहुँचे। उस स्थान का नाम 'नाहर घाटी' है। वहाँ खड़े होकर बेतवा नदी का ऊबड़-खाबड़ प्रवाह देखा। किले की पहाड़ी से सटकर बहती है। नदी तल में टोरें, पत्थर, जल-राशियाँ और वृक्ष समूह हैं। नाहर घाटी के नीचे गहरा नीला जल और ऊपर, पहाड़ी पर से, बहता हुआ धूमरा-काला शिताजित्।

नदी तल में, एक टापू पर, कतारबंद वृक्ष समूह के देखकर मेरे मित्रों को आश्चर्य हुआ। एक ही कद के, एक-से डौल के, कतारों में खड़े पैड़ों को देखकर मनुष्य के बनाए उद्यान का भ्रम हुआ। परंतु उस वृक्ष समूह में प्रकृति और केवल प्रकृति की कला के सिवाय और किसी का हाथ था ही नहीं, इसलिए भ्रम की कोई गुंजाइश नहीं मिली।

पहाड़ों, जंगलों और नदी की करामातों के भिन्न-भिन्न दृश्यों को देखते-देखते मन थकता ही न था। यहाँ तक कि गाँठ का सब खाना निबटा लेने के बाद भी काली अँधेरी रात और विकट बीहड़ मार्ग की चिंता न थी। गई रात जाखलौन पहुँचकर क्या खाएँगे, इसकी कोई फिक्र नहीं। जब रात हो गई तब हम लोग वहाँ से टले।

बैलगाड़ी धीरे-धीरे टक-टक जा रही थी कि यकायक बैल रुक गए और बँगलें झाँकने लगे। तेंदुओं ने रास्ता रोक रखा था।

हम लोगों के हाथ में केवल बाबुआनी छड़ियाँ थीं तेंदुओं के मुकाबले के लिए। तोप-तमंचों के मुकाबले के लिए अकबर इलाहाबादी ने अखबार निकालने की सलाह दी; परंतु तेंदुओं का मुकाबला बाबुआनी छड़ियों से किस तरह किया जाए, इसकी सलाह हम लोग किससे लेते। अंत में हल्ला-गुल्ला करते हुए - और गाड़ीवान की बुद्धि का सहारा-लेकर किसी तरह जाखलौन लौटे। उस समय मेरे मन में एक भाव जागा था। यदि बंदूक हाथ में होती तो कितना हौसला न बढ़ता।

मेरे पिता परम वैष्णव थे। वर्तमान वैष्णव धर्म की परंपराओं में पले, हथियार निषेध कानून के वातावरण में घुले बीसवीं सदी के प्रारंभिक कालवाले के लिए बंदूक एक गैर जरूरी और दूर की समस्या थी। इसलिए वह भाव मन के एक कोने में समा गया।

कुछ दिनों बाद एक घटना फिर घटी।

मुझको कभी-कभी वकालत के संबंध में बाहर जाना पड़ता था। एक बार बरसात में मैं बैलगाड़ी से लौट रहा था। मार्ग में ही साँझ हो गई। पानी तो नहीं बरस रहा था, परंतु आकाश बादलों से घिरा हुआ था। रात होते ही अँधेरा बहुत सघन हो गया। बैल चलते-चलते एकदम ठिठक गए। बिजली चमकी और तेंदुआ बीच सड़क पर दिखलाई पड़ा। देवगढ़ की याद आ गई। परंतु उस समय साथ में हल्ला-गुल्ला करनेवाले लोग बहुत थे; यहाँ मैं, गाड़ीवान और मेरा मुंशी बस। एक उपाय सूझा। मैंने रूमाल फाड़कर छड़ी के सिरे पर लपेटा। दियासलाई से आग लगाई और तेंदुए को हल्ला करके डराया। वह चला गया, परंतु एक निश्चय मन में छोड़ गया - जंगली जानवर को भयभीत करने के लिए और अधिक रूमाल न फाड़कर आगे कारतूस फोड़ूँगा। बंदूक का लाइसेंस लिया। एक .310 बोर की राइफल सुलभ थी। ले ली। परंतु उससे संतोष नहीं हुआ। तब .12 बोर की दुनाली और 275 बोर पँचफैरा माउचर लिया।

अध्याय 2

हिंदी में कुछ-न-कुछ लिखने की लत पुरानी है। सन् 1909 में छपा हुआ मेरा एक नाटक सरकार को नापसंद आया। जब्त हो गया और मैं पुलिस के रगड़े में आया। परंतु रंगमंच पर अभिनय करने पर अभिनय करने का शौक था और नाटक लिखने का भी; उपन्यास तो मेरे पथ में बहुत देर में आए। चार-पाँच नाटक 1908 में लिखे थे। कई वर्षों के बाद उनको दुबारा पढ़ा। मैंने अपने से पूछा, 'ये किसके लिखे?' बड़ी ग्लानी हुई। मैंने उन सबको फाड़कर पानी में फेंक दिया। बंदूक सँभालने पर पुरानी कामनाएँ फिर जाग्रत हुईं। जंगल और पहाड़ों के भ्रमण ने विवश किया। अनेक प्रकार के स्त्री-पुरुष वकालती पेशे में मेरे अनुभव में आते रहे। उनकी ढाल-पुरुष वकालती पेशे में मेरे अनुभव में आते रहे। उनकी चाल-ढाल एक बँधे हुए ढाँचे की थी। कुछ थोड़े ही ऐसे मिले जिनको झूठ और छल-कपट से घिन हो। परंतु जंगलों, पहाड़ों और देहातों में जो नमूने मिले, वे बिलकुल दूसरे और एक-दूसरे से भिन्न। सच्चाई स्पष्ट और उनका झूठ भी उतना ही साफ। यह बात नहीं कि गूढ़ और रहस्यमय लोग न मिले हों - काफी संख्या में मिले और नगरवालों से कहीं अधिक गहरे। उनकी तह तक पहुँचने में आश्चर्य होता - अन्वेषण, विश्लेषण और संश्लेषण के विद्यार्थी को परम संतोष। मुझको यह सब बंदूक की ओट में मिला। शायद वैसे भी मिलता, और लोगों को यों ही प्राप्त हो जाता है; परंतु मुझको शायद इसी तरीके से लिखा बदा है।

मैं काम करते-करते प्रत्येक शनिवार की संध्या की बाट जोहा करता था। जो कुछ भी सवारी मिली, अपने मित्र श्री अयोध्याप्रसाद शर्मा को लेकर शनिवार की शाम को चल दिया; रविवार जंगल में बिताया और सोमवार को सवेरे काम पर वापस।

इस क्रम में सबसे पहले मुझको कई प्रकार के हिरन मिले।

झाँसी से चौबीस-पच्चीस मील दूर एक मित्र की बारात में शामिल होना था। जिस दिन टीका था उसी दिन झाँसी की कचहरी में अनिवार्य काम था। दूसरे दिन छुट्टी थी। काम चार बजे खत्म हुआ। और कोई सवारी न थी, एक ताँगा किराए पर किया। थोड़े से कपड़े लिये, गरमी की ऋतु थी-वैसे भी मैं साथ में बहुत कम कपड़े लेकर बाहर जाता हूँ - .12 बोर की दुनाली बंदूक ली पचास कारतूस। तेजी से भी जाते-जाते लगभग नौ बजे रात को गाँव जब करीब एक मील रह गया, पहुँचा। इस जगह पहूज नदी का रपटा मिला। रपटे के एक किनारे खुसफुस करते हुए बहुत से आदमी दिखलाई पड़े। उनको गिन नहीं सका; परंतु बीस से ऊपर लगे। ताँगेवाला डरा। मैंने उसको उत्साहित किया और तुरंत दुनाली में दो कारतूस डालकर तैयार हो गया।

उन लोगों ने कोई रोक-टोक नहीं की। ताँगा निकल गया। मैं जब बारात में पहुँचा, बड़ी धूमधाम देखी। इतनी रोशनी कि आँखें चौंधियाने लगीं। दूल्हा जेवरों से लदा हुआ था और अनेक बाराती सोने और मोतियों से अपने कंठ सजाए हुए थे। बारात में कम-से-कम पचास बंदूकें थीं और पुलिस की एक पूरी गारद। रक्षा के पूरे उपकरण थे। मैंने सोचा, 'यदि मैं डाकू होता तो केवल दो संगियों को लेकर सारी बारात लूट लेता। इस मरकरी रोशनी में बारातवाले बंदूकचियों की चकाचौंध खाई हुई आँखें कुछ भी न कर पातीं। मैं अंधेरे में ओट लेकर, चार-पाँच कारतूस दागकर सारी बारात को भगा देता।'

जैसे ही यह कल्पना मन में आई, मुझे पहूज नदी के रपटे पर मिले हुए उन बंदूकवालों का स्मरण हो आया।

बारात के नायक मेरे मित्र हिंदी स्कूल के मेरे छूटपन के सहपाठी थे। मैं उनको अलग ले गया। आपस में काफी बेतकल्लुफी थी।

मैंने पूछा, 'इतनी बंदूकों और पुलिस गारद की जरूरत क्यों पडी?'

'तुम्हें मालूम नहीं? मजबूतसिंह डाकू चालीस-पचास आदमियों का गिरोह लिये यहीं कहीं आसपास है। रखवाली के लिए ये सब बंदूकवाले और पुलिस के सिपाही आए हैं।' उन्होंने उत्तर दिया।

'जी हाँ, खूब रखवाली होगी! मजबूत सिंह थोड़ी सी आड़ लेकर इस प्रचंड रोशनी में इकट्ठे समूह पर जब गोली चलावेगा तब दस-बीस आदमी कुछ देर में ढेर हो जाएँगे और बाकी भगदड़ में शामिल होकर हवा हो जाएँगे। पुलिस कुछ नहीं कर सकेगी।'

'क्या किया जाय?'

'दूल्हा का सब गहना उतारकर एक बक्स में रक्खो, और इन पुरुष गुंडों ने जो सजावट की है उसको भी हटाकर बक्स में रखवा दो। इस काम को सावधानी के साथ चुपचाप करो। मैं डाकुओं को देख आया हूँ। अभी लगभग एक मील की दूरी पर हैं। थोड़ी देर में पास की पहाड़ी में आ छिपेंगे और मौका पाकर छापा मारेंगे।'

'गहने वाले बक्स का क्या होगा?'

'बारात का डेरा इस पहाड़ी के नीचेवाले पेड़ों की छाया में है। यहीं पर बक्स रख दो। डाकू धोखे में आएँगे। मैं एक आदमी को साथ लेकर यहीं रह जाऊँगा, तिलक-टीके में नहीं जाऊँगा। तुम बंदूकवालों के कई दस्ते बनाओ। कुछ को बारात से अलग अँधेरे-अँधेरे में आगे चलने दो, कुछ को बारात के अगल-बगल और कुछ को बिलकुल पीछे।'

मेरे मित्र मान गए। उन्होंने मेरे कहने के अनुसार काम किया। बारात टीके के लिए चल दी।

मैंने डेरे में बक्स रखा। मेरा साथी चिरगाँव का करामात था। वह मेरा शिकारी साथी था। उसके पास .12 बोर की इकनाली बंदूक थी। हमलोगों के साथ और कोई न था।

डेरा क्या, छाया के लिए एक पाल था। उसके अगल-बगल कनात या आड़-ओट कुछ न थी। बड़े-बड़े पेड़ अवश्य थे। पास ही पहाड़ी थी। हम लोगों के पास रोशनीवाला हंडा था। मैंने करामत से उस हड़े को हटवाकर पहाड़ी की तली में रखवा दिया। पाल के नीचे अँधेरा हो गया और पहाड़ी पर उजेला।

मैं और करामत फर्श पर औंधे लेट गए। बंदूकें भरकर छतिया लीं। मेरा रुख पहाड़ी की

इस लेटाई-लाइंगलोड-को लिये हुए बहुत विलंब न हुआ होगा कि पहाड़ी में लोगों के इकट्ठे होने की आहट मिली। मैंने करामत को संकेत किया और चुप पड़े रहने के लिए धीरे से कहा।

पहाड़ी में वे लोग जल्दी जमा हो गए। आश्चर्य करते होंगे कि किस बेढंगे ने पहाड़ी के पड़ोस में रोशनी का हंडा रख दिया।

डेरे में सुनसान प्रतीत करके उन्होंने एक मूर्खता की। आग जलाकर तंबाकू पीने लगे। हंडे की रोशनी और तंबाकू के लिए की हुई आग के प्रकाश में वे मेरी पहचान में आ गए। मैंने उनसे कहीं बढ़कर ज्यादा मूर्खता की।

मैं चिल्लाया, 'यहाँ है सब गहना! है तुममें से किसी की छाती में बाल, जो आकर इसको उठाए? उठाओ सिर और किया मैंने गोली से चकनाचूर।'

करामत ने धीरे से मेरी प्रताड़ना की। बोला, 'बड़े भैया, ऐसी चुनौती नहीं दी जाती।'

मैं अपने घमंड और बड़े बोल पर मन में सहमा; परंतु बात मुँह से निकल चुकी थी। अब तो उसका निभाना ही बाकी रह गया था। उसी समय करामत की ओर से एक बिच्छू मेरी तरफ आया। करामत ने धीरे से मुझको सावधान किया।

मैंने कहा, 'होगा! इतनी बेवकूफी के बाद अब मैं बिच्छू से बचने के लिए बैठ नहीं सकता।' बिच्छू मेरे कंधे के पास से आगे बढ़ा। मैं चुपचाप पड़ा था। वह धीरे-धीरे मेरी कुहनी के पास आ गया। शायद न काटता; परंतु यदि डंक मार देता तो एक हाथ बेकार हो जाता और यदि डाकू मेरे शेखी का जवाब देते तो मैं अपने घमंड के समर्थन में एक हाथ भी न उठा पाता। मैंने एक हाथ में बंदूक सँभाली और दूसरे हाथ में मुट्ठी से बिच्छू को खत्म कर दिया।

अब डाकुओं से भिड़ जाने के लिए पूरी साँस मिल गई। परंतु चोरों, बटमारों और लुटेरों में इतना साहस कहाँ होता है, जो इस प्रकार की चुनौती को स्वीकार करते।

वे धीरे-धीरे खिसक गए

पौ फटने के समय बारात लौटी। तब तक हम दोनों उसी लेटाई में अपनी पसलियों का भुरकस करते रहे।

बारात में मेरे कई शिकारी मित्र भी थे। एक लँगड़ा दढ़ियल शिकार का लती भी। उसके पास बंदूक न थी; परंतु खाने को हिरन चाहता था। साथ हो लिया।

चलते ही, थोड़ी देर बाद, हिरनों के झुंड-के-झुंड मिले। हिरन सब मिलाकर सौ के ऊपर होंगे। बड़े-बड़े सींगवाले कर छाल सब झुंडों में दस-बारह से कम न थे। उदय होते हुए सूर्य की कोमल किरणें उनकी चिकनी-चमकती हुई देहों पर रिपट रही थीं। आँखें बड़ी-बड़ी। इन्हीं की उपमा तो कवियों ने अपनी कामिनियों को दी हैं। गोली न चलाने का मोह उत्पन्न हुआ। परंतु किसानों की खेती का भरपूर नुकसान भी तो ये ही करते हैं। मोह को छोड़ दिया। अब केवल चुनाव का सवाल सामने था-इनमें से किसको निशाना बनाऊँ?

एक बहुत पुराना, बड़े सींगवाला एक झुंड का नायक था। उसको एक ही गोली से समाप्त कर दिया। बाकी भाग गए।

परंतु यह निशाने पर बहुत देर में था।

हिरन का शिकार काफी श्रम और सावधानी चाहता है। कभी निहुरकर चलना पड़ता है, कभी दर्जनों गज पेट के बल, कभी घुटने के बल और कभी-कभी गोद में बंदूक रखकर पीठ के बल घिसटना भी पड़ता है।

उस हिरन को लेकर करामत इत्यादि पहूज नदी के किनारे पहुँचे। एक भरके में की छाया के नीचे जा बैठे। नदी के उस पार से यह स्थान दिखलाई पड़ता था। नदी में धार पतली थी। पाट भी चौड़ा न था।

हम लोग रात भर के जागे थे। मैं एक पत्थर के सहारे टिक गया। बाकी लोग रूमाल या साफे से मुँह ढककर सो गए। इनमें लँगड़ा दढ़ियल भी था। करामत बैठा-बैठा बीड़ी पीने लगा।

इतने में उस पार एक देहाती दिखलाई पड़ा। उसने वहीं से पुकार लगाई, 'आग है, आग? तंबाखू पीना है।'

करामत ने शरारत की। व्यंग्य के स्वर में उत्तर दिया, 'हओ, है आग हमाए पास। आओ इतै, हम देवें आग।'

देहाती ने समझा, डाकुओं का गिरोह है; वह उलटे पाँव भागा।

परंतु उसके भागने का सही कारण उस समय मेरी समझ में नहीं आया था। थोड़ी ही देर में एक और आदमी नदी के उसी किनारे पर आया। वह कुछ क्षण खड़ा रहा। फिर धीरे-धीरे हम लोगों के पास आया। आकर बैठ गया। उसमें और करामत में बातचीत होने लगी।

आगंतुक ने कहा, 'हिरन तो बढ़िया मारा।'

करामत ने शेखी बघारी, 'हम लोगों का निशाना चूकता थोड़े ही है!'

'आप कहाँ से आ रहे हैं?'

'जहाँ से मन चाहा।'

'कहाँ जाएँगे?'

'जहाँ सींग समावें।'

'और लोग भी साथ हैं?'

'और लोग भी साथ हैं?'

'ज्यादा सवाल करने से गड़बड़ हो जाएगी।'

अब मुझको संदेह हुआ, करामत कोई अभिनय कर रहा है।

आगंतुक जाने को हुआ। उसी समय लँगड़े दढ़ियल ने अपने मुँह पर से साफे के छोर को हटाया। आगंतुक के अचरज का ठिकाना न रहा।

यकायक उसके मुँह से निकला, 'ओफ! आप लोग बहुत बच गए। थोड़ी ही देर में न जाने क्या से क्या हो जाता!'

लँगड़े दढ़ियल ने आगंतुक का अभिवादन किया, 'मामा, राम-राम!'

लँगड़ा आगंतुक का भानजा था।

करामत हँसकर बोला, 'क्यों, क्या हो गया?'

आगंतुक ने उत्तर दिया, 'हो तो कुछ नहीं गया, पर हो जाता। मैं पुलिसमैन हूँ। यहाँ आस-पास हथियारबंद पुलिस लगी हुई है। मजबूत सिंह डाकू के गिरोह की खबर लगी थी कि यहीं कहीं है। आप लोगों पर उसी गिरोह के होने का संदेह था। आप अपने जवाब से खुद डाकू बन बैठे। यदि मेरा भानजा साथ में न होता तो मैं अपने अफसर से जाकर कहता कि डाकुओं के गिरोह का एक खंड इसी भरके में है। गोली चलती।'

मैं पत्थर का सहारा छोड़कर बैठ गया।

मैंने कहा, 'और हम लोग समझते की हमको डाकुओं ने घर लिया। दुतरफा गोली चलती और मौतें होती।'

आगंतुक ने करामत को फटकार लगाई, 'आप लोग बारात में आए हैं, आपको साफ कहना चाहिए था। आपकी इस भद्दी गलती के कारण न जाने कितनी जानें जातीं।'

मैंने भी करामत को एक नरम-गरम व्याख्यान दिया।

बुंदेलखंड में डाकू जंगलों, पहाड़ों और भरकों का ही सहारा पकड़ते हैं और वहीं शिकारियों का भी भ्रमण होता है। ऐसी दशा में बिना पहचान वाले लोग किसी भ्रम को मन में बसा लेवें तो कोई अचरज नहीं।

और फिर रातवाली शेखी की तौल में यह शेखी तो बिलकुल ही पोच थी। निरुद्देश्य और बेकार।

उस लँगड़े दढ़ियल की उपस्थिति ने वरदान का काम किया, नहीं तो मैं, करामत मियाँ और शायद मेरे अन्य साथी भी उस दिन ढेर हो जाते।

अध्याय 3

चिंकारे का शिकार करछाल के शिकार से भी अधिक कष्टसाध्य है। चिंकारा बहुत ही सावधान जानवर होता है। उसे संकट का संदेह हुआ कि फुसकारी मारी और छलाँग मारकर गया। हिरन संकट से छुटकारा पाने के लिए दूर भागकर दम लेता है। चिंकारा थोड़ी दूर ठहरता है। चिंकारा झोरों और भरकों में अधिक रहता है। तिल और गेहूँ के उगते हुए पौधों को खोंट-खोंटकर नुकसान पहुँचाता है; परंतु हिरन की अपेक्षा कम। हिरन से छोटा है। सींग भँजे हुए और सीधे खड़े होते हैं। मादा के भी सींग होते हैं, परंतु छोटे-छोटे। मादा हिरन के सींग नहीं होते हैं। और बातों में दोनों मिलते जुलते हैं। ये दोनों दिन में दो-तीन बार पानी पीते हैं। रात भर कुछ-न-कुछ खाते ही हैं। दिन में काफी चरते हैं; परंतु सोने को भी कई घंटे देते हैं। सोते समय इनके झुंड के दो-एक होकर चौकसी करते हैं। खतरे का शक हुआ कि पहरेवालों ने चौकड़ी ली और बाकी भी तुरंत सचेत होकर भाग निकले।

दोनों वर्गों का जनन समय वसंत ऋतु है। जब पलाश के पत्ते झड़ जाते हैं और उसमें बड़े-बड़े लाल फूलों के गुच्छे लगते हैं, तब इनके छौने कूदने-फाँदने लायक हो जाते हैं।

दोनों जानवर काफी मजबूत होते हैं। पेट की गोली खाकर बहुत दूर निकल जाते हैं। मर तो जाते हैं, परंतु उनको पीड़ा होती है। सिर से लेकर जोड़ तक का निशाना ही शिकारी को अपयश ने देगा।

किसान और बहेलिए रस्सियों का जाल बनाकर इन जानवरों को पकड़ते हैं और लाठियों से मार डालते हैं, परंतु यह शिकार शिकार नहीं है।

हिरन और चिंकारे सूर्यास्त के पहले ही खेती चरने के लिए जंगल से निकल पड़ते हैं और सूर्योदय के उपरांत खेतों को छोड़ते हैं। बहुत से तो खेतों में या उनके बिलकुल करीब के झाड़-झंखाड़ में गुप्त हो जाते हैं और अवसर मिलते ही खेतों में घुस पड़ते हैं। जब गेहूँ और चने के पौधे बड़े हो जाते हैं तब इनको छिपने का काफी सुभीता मिल जाता है। ज्वार और बाजरा के पेड़ों में तो अनेक झुंड बसेरा ही डाल लेते हैं। ऐसी हालत में बिना हाँके के इनका शिकार दुःसाध्य है।

इनके हाँके का शिकार बहुत संकटमय है। खड़ी खेती के दो-तीन ओर से हँकाई होती है। एक कोने पर बंदूकवाला खड़ा हो जाता है। ये जानवर झुंड बाँधकर खेतों में से नहीं निकलते। कोई इधर होकर भागता है और कोई उधर होकर। शिकारी अनुभवहीन हुआ तो वह भी मोहवश अपना ठौर-ठिकाना छोड़ देता है और धाँय-धाँय कर उठता है। कभी-कभी इसका फल भयंकर होता है। गोली या छर्रा बंदूक को छोड़ते ही फिर शिकारी के बस का नहीं रहता, और वह किसी भी हँकाईवाले के शरीर में जाकर धँस सकता है।

ये जानवर घरने जंगल या पहाड़ों में नहीं रहते। बिखरी-सँकरी झाड़ी और भरके ही इनके घर हैं। इन्हीं स्थानों में गाँववाले और जंगलवासी घास व लड़की के लिए घूमते-फिरते रहते हैं। इसलिए शिकारियों के बहुत सावधानी के साथ इन स्थानों में बंदूक चलानी चाहिए। मैं यह बात उपदेश के तौर पर लिख रहा हूँ। आप बीती घटनाओं के अनुभव की बात कह रहा हूँ।

एक बार हिरन में से छर्रे का एक दाना निकलकर एक गाँववाले के पैर में धँस गया था। कुछ कठिनाई के साथ निकलवा पाया था। हड्डी बच गई, नहीं तो उसकी एक टाँग बेकार हो जाती।

एक दुर्घटना मेरी बंदूक से नहीं ही थी; परंतु हुई थी मेरे निकट।

एक बार एक मित्र की गोली से मेरी खोपड़ी भी बाल-बाल बची। मेरे वे मित्र कान से कम सुनते थे। निशाना भी बहुत सुहावना नहीं लगाते थे। परंतु मेरे साथ मटरगश्त करने की कामना उनके मन में बहुत दिन से थी। कई बार मैंने उनकी इच्छा को टाला। परंतु एक बात तो वे बिलकुल ही सिर हो गए। साथ गए। जंगल में छोटे-छोटे नाले थे। उन नालों की तली में हाँकवाले और नालों के किनारों पर हम लोग एक-दूसरे के कंधों के सामने थे। फासला काफी था। हँकाई के पहले तय हो गया था कि मुँह के सामने की तरफ बंदूक चलाई जावेगी, न तो अगल-बगल और न पीछे।

हँकाई में जानवर निकले। वे नाले की तली की सीध में भागे; परंतु तितर-बितर होकर। मेरे मित्र पहले तय की हुई सब बातों को भूल गए। नाले में उतर पड़े और मेरी ओर बंदूक दाग दी। उनकी बंदूक का निशाना जानवर पर तो नहीं पड़ा। एक समूचा टीला उनकी अनी पर चढ़ा और गोली फिसलकर भनभनाती हुई मेरे सिर पर से निकल गई।

मैंने उनको चिल्लाकर बुलाया। जब पास आए, मैंने उनसे पूछा -

'यह क्या किया, साहब?'

मेरे वे मित्र हकलाते थे।

उन्होंने हकलाकर उत्तर दिया, 'क क क्या ज ज जानवर घायल हो हो हो गया?'

मैंने कहा, 'जि जि जि जी नहीं। केवल मिट्टी का टि टि टि टीला थोड़ा सा घायल हुआ और मेरी खो खो खोपड़ी बिलकुल बच गई।'

फिर हँसी के तूफान में हम लोग उस घटना को भूल गए।

इन मित्र को सावधानी का यह पहला पाठ शायद रट-रटकर याद करना पड़ा होगा। परंतु इस बात के बतलाने में कोई हानि नहीं जान पड़ती कि वे इस पहले 'श्रीगणेश' को बिलकुल भूल गए।

एक बार जंगल और बेतवा की ऊबड़-खाबड़ भूमि का सपाटा भरने के बाद उन्होंने दुबारा-तिबारा घूमने का हठ किया। उनका हँस-हँसकर हकलाना और किसी भी परिस्थिति में रुष्ट न होना हमारी छोटी सी शिकार मंडली को बड़ा भला लगता था, इसलिए उनको संकटसंपन्न समझते हुए भी मैं साथ लेने लगा।

फागुन का महीना था। खरी चाँदनी रात। तय हुआ कि पत्थरों और ढोंकों के समूहों में हम लोग बिखरकर बैठें। इन पत्थरों के अगल-बगल से संध्या के उपरांत प्रायः जानवर निकल पड़ते थे। हम सब अपने चुने हुए स्थानों पर जा बैठे।

बैठे-बैठे रात के दस बज गए। साथ में खाना था और पास ही बेतवा का निर्मल जल। भूख भी लग आई थी। जानवर कतराकर निकल चुके थे। कोई आशा शिकार की न रही। मैं अपने स्थान से उठा। सीटी बजाई। अन्य मित्र मेरे पास आकर इकट्ठे हो गए; परंतु ऊँचा सुननेवाले मित्र न आए। सीटी का उनपर प्रभाव ही क्या पड़ सकता था! हम लोग उनके स्थान की ओर चले। पैर पटकते हुए, खाँसते हुए और थोड़ी सी बातें करते हुए भी। ज्यादा शोर इसलिए नहीं कर रहे थे, क्योंकि नदी ही में रात को यत्र-तत्र लेटना था - शायद सवेरे तक कोई शिकार हाथ लग जाय।

अच्छा प्रकाश था। मित्र के कान के भरोसा तो न था, पर आँख का था। आवाज न सुनेंगे तो आँख से हम लोगों को देख तो लेंगे। तो भी हम लोग डरते-डरते उनके पास पहुँचे। लगता था, कहीं जानवर समझकर बंदूक न दाग दें।

देखें तो मित्र एक पत्थर से टिके हुए खर्राटे कस रहे हैं। बंदूक दूसरे पत्थर से टिकी हुई है। मैंने चुपचाप उनकी बंदूक उठाई और एक साथी को दे दी। वे सब जरा दूर चले गए। थोड़ी देर बाद मैंने नाम लेकर उनको पुकारा। वे हड़बड़ाकर उठ बैठे। मैं उनके सामने एक पत्थर पर बैठ गया। वे उस पत्थर को नहीं देख सकते थे, जिनके सहारे थोड़ी देर पहले ही उनकी बंदूक टिकी थी।

वे समझे, उनकी नींद को मैंने नहीं भाँपा।

कुछ लोग एक आँख सबको देखते हैं; परंतु वे किसी कान भी दुनिया भर की कुछ नहीं सुनते थे - और सबको ऐसा समझते भी थे।

बोले, 'बाट जो जो जोहते बड़ी देर हो गई। कोई भी जानवर नहीं निकला।'

मैंने कहा, 'मेरे पास से एक जानवर निकला। मैंने बंदूक चलाई। घायल होकर इसी ओर आया है। यहीं कहीं पड़ा होगा।'

वे बारीकी से मेरे चेहरे पर शरारत ढूँढ़ने लगे। मैं बिलकुल गंभीर था। बेचारे कुछ भी न ताड़ पाए।

मैंने प्रस्ताव किया, 'चलो न, जरा ढूँढ़ें।'

हम दोनों उठ खड़े हुए।

उन्होंने आँख बचाकर बंदूक की खोज की। बंदूक तो पहले ही खिसका दी गई थी। मैं आहट लेने के बहाने दूसरी ओर मुँह किए था।

मित्र परेशान थे - बंदूक कहाँ गई? कैसे चली गई? रहस्य देर तक छिपा नहीं रह सकता था।

मैंने कहा, 'वह घायल जानवर तुम्हारी बंदूक लेकर चंपत हो गया है।'

वे समझ गए और हँस पड़े। उनको स्वीकार करना पड़ा, 'मैं जरा देर के लिए झप गया था। इस बीच में आप आए और मेरी बंदूक उड़ा ले गए।'

मैंने कहा, 'बाट जो जो जोहते बड़ी देर हो गई। यहाँ तक कि ज ज ज जानवर बंदूक ही ले भागा।'

अधमुँदे कानवालों को शिकार का साथी बनाना अनगिनत आफतों को न्योता देना है।

इसके बाद फिर शायद ही कभी वे मेरा साथ आए हों। साथ आते, परंतु मैं सदा टाला-टाली करता रहा। यह टाला-टाली उनके हित में तो शायद थी ही, हम लोगों के हित में निर्विवाद थी।

यह सब जानते हुए भी नए शिकारियों को साथ लेना ही पड़ता है; परंतु इनको आरंभ में किसी अनुभवी शिकारी के साथ लगा देना श्रेयकर है। इससे उनका कोई अपमान न होगा और शिकारियों तथा हाँकेवालों की जान विपद् में पड़ने से बची रहेगी।

अध्याय 4

एक जगह जमकर बैठने का शिकार काफी कष्टदायक होता है। झाँखड़ या पत्थरों के चारों ओर ओट बना लेते हैं और उसके भीतर जानवरों को अगोट पर शिकारी बैठ जाते हैं-ऐसे ठौर पर, जहाँ होकर जानवर प्रायः निकलते हों। उनके खाँद-चिन्ह-दिन में देख लिए जाते हैं। प्रतीत होता है कि संध्या के उपरांत और सूर्योदय के पूर्व यहीं होकर निकलेंगे। इस आड़-ओट की बैठक को 'गड्ढा' भी कहते हैं। गड्ढा कभी-कभी वास्तव में गड्ढा होता है - खोदकर बैठने योग्य बनाया हुआ; परंतु चौगिर्दा आड़-ओटवाली बैठक को भी शिकारी 'गड्ढा' कह देते हैं। इसमें शिकारी लगभग सुरक्षित रहता है और जानवर इसके पास से असावधान होकर निकलता है। परंतु आड़-ओटवाले गड्ढे को कभी-कभी दो-एक दिन के लिए यों ही पड़ा छोड़ देते हैं; क्योंकि जानवर एक नया बिजूका-सा देखकर कतराकर निकल जाता है। जब यह नया विघ्न उसके अभ्यास में प्रवेश पा जाता है तब वह इससे सटकर भी निकल जाता है, और तब वह शिकारी का अवसर बन जाता है।

परंतु एक 'गड्ढे' के निकट यदि दूसरे शिकारी का 'गड्ढा' हो तो बहुत सावधानी बरतने की आवश्यकता है। सीधी सावधानी यह है कि निश्चित समय के पहले किसी भी अवस्था में शिकारी अपने गड्ढे को न छोड़े। नहीं तो मौत में बहुत कम कसर रह सकती है।

मेरा एक मुवक्किल वांडर वाल्डन नाम का था। उसके माता-पिता हॉलैंड के निवासी थे। वह हिंदुस्थान में उत्पन्न हुआ था। एक एंग्लो-इंडियन स्त्री और उसके पति के बीच में तलाक का मुकदमा चला। वांडर वाल्टन को इस मुकदमे में दिलचस्पी थी। तलाक होने के बाद उस स्त्री का पुनर्विवाह वांडर वाल्टन के साथ होने जा रहा था।

विवाह दूसरे दिन होने को था। गड्ढा बनाकर रात में शिकार के लिए बैठने का निश्चय करके वाल्टन अपने एक मित्र का साथ झाँसी के एक निकटवर्ती जंगल में गया। वाल्टन के मन में साध थी शिकार में एक जानवर हस्गत करके अपने मित्रों के विवाह के उपलक्ष्य में दावत देने की।

वे दोनों 'गड्ढे' बनाकर एक-दूसरे से थोड़ी दूर जा बैठे। दोनों से दूर एक जानवर निकला। वाल्टन गड्ढे में बैठे-बैठे उकता उठा था। गड्ढे से बाहर निकला और जाते हुए जानवर के आगे बढ़ा। उसके मित्र ने उसी को जानवर समझा।

'धाँय!' उसके मित्र ने गोली छोड़ी। वाल्टन पर वह गोली ऐसी पड़ी कि फिर वह अपने घर जीवित नहीं पहुँच पाया।

एक दुर्घटना तो हाल ही की है।

कुछ लोग बड़े चाव के साथ शिकार खेलने के लिए धसान तटवर्ती लहचूरा के जंगल में सन 1945 में गए। जंगल में जाते-जाते उनको रात हो गई। फैलपुट्ट होकर शिकार खेलने की इच्छा मन में उदय हुई और सब अलग अलग हो गए।

एक साहब के पास टॉर्च थी और दूसरे चश्मा लगाए थे। जंगल में घूम-घूमावों के कारण चाल सीधी तो रखी ही नहीं जा सकती। चश्मवाले साहब टॉर्चवाले के सामने आ गए। दबे-दबे आ ही रहे थे, टॉर्चवाले ने समझा कि कोई जानवर है। टॉर्च जलाई। उसके प्रकाश में सामनेवाले का चश्मा चमक उठा। टॉर्चवाले ने समझा, तेंदुआ है। चश्मेवाले ने सोचा होगा, इतनी रोशनी में भी क्या पहचाना न गया हूँगा! वे न बोले, चुप रहे। टॉर्चवाले ने धाड़ से गोली छोड़ दी। चश्मवाले पर गोली ऐसी चूक पड़ी कि वे उफ भी न कर पाए। धम से गिरे और उनका प्राणांत हो गया।

छोड़ा हुआ हथियार हाथ का रह ही कैसे सकता है! और फिर बंदूक की गोली!

एक बार मेरे मित्र शर्माजी मेरी गोली से बाल-बाल बचे थे।

शर्माजी एक गड्ढे में बैठे थे और मैं दूसरे में। कोई जानवर थोड़ी दूरी पर निकला। शर्माजी को चैन न पड़ा। वे अपना ठीहा छोड़कर जानवर की ओर रेंगे। मैंने उनकी आहट पर गोली छोड़ी। गोली एक पत्थर से टकराकर निकल गई।

अध्याय 5

हिरन वर्ग के जानवरों के लिए ढूका या ढुकाई का शिकार भी अच्छा समझा जाता है। इस शिकार में काफी परिश्रम करना पड़ता है। पेट के बल रेंगते हुए भी चलना पड़ता है; पहेल ही कहा जा चुका है।

कुछ लोग बंदूक के घोड़े चढ़ाकर इस प्रकार का शिकार करते हैं। मेरी समझ में बंदूक के घोड़े चढ़ाकर चलना केवल व्यर्थ ही नहीं है, बल्कि अत्यंत संकटपूर्ण भी है। जरा से झटके से घोड़े गिर सकते हैं और फिर वे बंदूकवाले को या किसी भी सामनेवाले को, बिना किसी पक्षपात के, साफ कर सकते हैं।

एक बार हिरन के शिकार में ढूका करते-करते मैं काफी दूर निकल गया। एक परिचित मेरे साथ थे। वैसे तो वे बिलकुल साथ रहे, पर एक जगह संग छूट गया। वहीं कुछ हिरन दिखलाई पड़े। मेरे घोड़े पहेल से चढ़े थे। पेड़ की एक डाल घोड़े से उलझी। घोड़ा गिरा और बंदूक चल गई। धक्के के कारण बंदूक के घोड़े का सिरा मेरे अँगूठे की जड़ में धँस गया और वे परिचित भाग्य से बच गए।

झाँसी से दो शिकारी हिरन के शिकार के लिए बेतवा किनारे गए। इनमें से एक को बंदूक के घोड़े चढ़ाए रखने की आदत थी। पैर फिसला। बंदूक को ठोकर लगी। नाल पेट की ओर लौट पड़ी और साथ ही घोड़े को ठोकर लगी। गोली पेट पर पड़कर, रीढ़ की हड्डी को तोड़कर बाहर निकल गई। घर पर बेचारे की लाश आई।

जानवर पर बंदूक चलाने के लिए इतना काफी समय मिलता है कि खाली बंदूक भी ले चलने कोई हानि नहीं है। फुरती के साथ खाली बंदूक में कारतूस डाले जा सकते हैं, घोड़े चढ़ाए जा सकते हैं और फायर किया जा सकता है।

हिरन का शिकार गाड़ी पर बैठकर टट्टी की ओट में भी सफलतापूर्वक किया जा सकता है। हिरन पूरे धोखे में आ जाते हैं और मारे जाते हैं। कुछ शिकारी इस प्रकार के शिकारी को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। वे कहते हैं कि यह कसाईपन है, शिकार खेलना नहीं है। परंतु जिनको जानवरों के मारने और खाने-खिलाने से ही प्रयोजन है, वे इस तरह की आलोचना की परवाह नहीं करते।

टट्टी के शिकार में कुतूहल, परिश्रम और चतुराई के होते हुए भी उक्त 'कसाईपन'और अधिक मात्रा में है। क्योंकि शिकारी हिरन को पंद्रह-बीस कदम के फासले से सहज ही मार लेता है, चूक ही नहीं सकता।

टट्टी का शिकार प्रायः दो शिकारी मिलकर खेलते हैं। मैंने तो कभी नहीं खेला, परंतु उनका विवरण खेलने वालों से विस्तारपूर्वक सुना है।

बाँस की कमचियों या सीधी डालोंवाले किसी भी पेड़ की पतली लकड़ियों से एक हलका ढाँचा बनाया जाता है। फिर इसमें पेड़ के ताजा पत्ते खोंस लिये जाते हैं। शिकारी इसको हाथ में थामे हुए आगे बढ़ते हैं-धीरे-धीरे। हिरन समझता है कि हवा से हिलनेवाला कोई झाड़-झंखाड़ है। धोखे में आ जाता है। टट्टी में शिकार के देखने और बंदूक चलाने के लिए छेद रहते हैं। जब टट्टीवाले शिकारी हिरन के पास आ जाते हैं तब टट्टी खड़ी कर ली जाती है। हिरन अनिश्चय में उसको देखता है-और इतने में ही बंदूक चल जाती है। अनाड़ी की भी नहीं चूकती।

तीर कमानवाले टट्टी के शिकार का बुहत सहारा लेते हैं; क्योंकि उनके लिए भोजन-प्राप्ति का यह सहज उपाय है। उनके लिए अब भी वही प्राचीन युग है - जीवन और मरण के बीच का कोई भी मध्य मार्ग वे नहीं जानते।

प्राचीन काल में भी गाड़ी से हिरन का शिकार खेला जाता था। बड़े लोग रथ पर से खेलते थे।

नाटक का दुष्यंत तेजी के साथ रथ के घोड़ों को भगा सकता था; परंतु तेजी के साथ भागते हुए घोड़ों को को हिरन छुला मिली नहीं देते, क्योंकि सीधे नहीं भागते और तिरछे भागते हुए हिरन का पीछा घोड़ेवाला रथ हर जगह नहीं कर सकता। किंतु नाटक की बात और है।

कल्पना जगत् के बाहर का शिकारी, जिसका अस्तित्व यथार्थ में हो, बहुत धीरे चलनेवाली बैलगाड़ी पर बैठता है या बहुत धीरे खिसकाई जानेवाली टट्टी के पीछे-पीछे चलता है। परंतु ढुकाई के बराबर परिश्रम इन दोनों में से किसी में भी नहीं है।



  • दबे पाँव : अध्याय (6-7)
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