चौदहवीं का चाँद (कहानी) : सआदत हसन मंटो

Coat Patloon (Hindi Story) : Saadat Hasan Manto

अक्सर लोगों का तर्ज़-ए-ज़िंदगी, उन के हालात पर मुनहसिर होता है। और बाअज़ बे-कार अपनी तक़दीर का रोना रोते हैं। हालाँकि इस से हासिल-वुसूल कुछ भी नहीं होता। वो समझते हैं अगर हालात बेहतर होते तो वो ज़रूर दुनिया में कुछ कर दिखाते। बेशतर ऐसे भी हैं जो मजबूरियों के बाइस क़िस्मत पर शाकिर रहते हैं। उन की ज़िंदगी उन ट्राम कारों की तरह है जो हमेशा एक ही पटरी पर चलती रहती हैं। जब कंडम हो जाती हैं तो उन्हें महज़ लोहा समझ कर किसी कबाड़ी के पास फ़रोख़्त कर दिया जाता है।
ऐसे इंसान बहुत कम हैं। जिन्हों ने हालात की पर्वा न करते हुए ज़िंदगी की बागडोर अपने हाथ में सँभाल ली। टॉमसन विल्सन भी इसी क़बील से था।
इस ने अपनी ज़िंदगी बदलने के लिए अनोखा क़दम उठाया। पर उस की मंज़िल का चूँकि कोई पता नहीं था, इस लिए उस की कामयाबी के बारे में अंदाज़ा लगाना मुश्किल था।
उस के इस अनोखे-पन के मुताअल्लिक़ मैंने बहुत कुछ सुना। सब से पहले लोग यही कहते कि वो ख़लवत-पसंद है लेकिन मैंने दिल में तहय्या कर लिया कि किसी न किसी हीले उसे अपनी दास्तान-ए-ज़िंदगी बयान करने पर आमादा करलूंगा क्योंकि मुझे दूसरे आदमियों के बयान की सदाक़त पर एतिमाद नहीं था।
मैं चंद रोज़ के लिए एक सेहत अफ़्ज़ा मक़ाम पर गया, वहीं उस से मुलाक़ात हुई। में दरिया किनारे अपने मेज़बान के साथ खड़ा था कि वो एक दम पुकार उठा।“विल्सन”
मैंने पूछा। “कहाँ है”
मेरे मेज़बान ने जवाब दिया। “अरे भई! वही जो मुंडेर पर नीली क़मीस पहने हमारी तरफ़ पीठ किए बैठा है।”
मैंने उस की तरफ़ देखा और मुझे नीली क़मीस और सफ़ेद बालों वाला सर नज़र आया। मेरी बड़ी ख़्वाहिश थी कि वो मुड़ कर देखे और हम उसे सैर-ओ-तफ़रीह के लिए साथ ले जाएं।
उस वक़्त सूरज का अक्स दरिया में डूब रहा था। सैर करने वाले चहचहा रहे थे। इतने में गिरजे की यक-आहंग घंटियां बजने लगीं।
मैं उस वक़्त क़ुदरत की दिल-फ़रेबियों से इस क़दर मस्हूर हो चुका था कि विल्सन को अपनी तरफ़ आते न देख सका। जब वो मेरे पास से गुज़रा तो मेरे दोस्त ने उसे रोक लिया और उस का मुझ से तआरुफ़ कराया। उस ने मेरे साथ हाथ मिलाया, लेकिन किसी क़दर बेएतिनाई से...... मेरे दोस्त ने उस को महसूस किया और उस को शराब की दावत दी।
मदऊ किए जाने पर वो मुस्कुराया। अगरचे उस के दाँत ख़ूबसूरत ना थे फिर भी उस की मुस्कुराहट दिलकश थी....... वो नीली क़मीस और ख़ाकिसतरी पतलून पहने था जो किसी हद तक मैली थी। उस के लिबास को उस के जिस्म की साख़्त से कोई मुनासिबत नहीं थी।
उस का चेहरा लंबोतरा, पतले होंट और आँखें भूरे रंग की थीं।
चेहरे के ख़ुतूत नुमायां, जिन से नुमायां था कि जवानी में वो ज़रूर ख़ूबसूरत होगा। वज़ा-क़ता के एतबार से वो किसी बीमा कंपनी का एजेंट मालूम होता था।
हम चहल-क़दमी करते, एक रेस्तोरान में पहुंच कर, उस से मुल्हक़ा बाग़ीचे में बैठ गए और बेरे को शराब लाने के लिए कहा। होटल वाले की बीवी भी वहां मौजूद थी। अधेड़-पन की वजह से अब उस में वो बात नहीं रही थी लेकिन चेहरे का निखार अब भी गुज़री हुई करारी जवानी की चुग़लियाँ खा रहा था।
तीस साल पहले बड़े बड़े आर्टिस्ट इस के दीवाने थे, उस की बड़ी बड़ी शराबी आँखों और शहद भरी मुस्कुराहटों में अजब दिलकशी थी।
हम तीनों बैठे यूंही इधर उधर की बातें करते रहे। चूँकि मौज़ू दिलचस्प नहीं थे। इस लिए विल्सन थोड़ी देर के बाद रुख़स्त मांग कर चला गया। हम भी उस के रुख़स्त होने पर उदास होगए।
रास्ते में मेरे दोस्त ने विल्सन के बारे में कहा। “मुझे तो तुम्हारी सुनाई हुई कहानी बेसर-ओ-पा मालूम होती है।”
“क्यों?”
“वो इस किस्म की हरकत का मुर्तकिब नहीं हो सकता।”
उस ने कहा “कोई शख़्स किसी की फ़ितरत के मुताअल्लिक़ सही अंदाज़ा कैसे लगा सकता है?”
“मुझे तो वो आम इंसान दिखाई देता है। जो चंद महफ़ूज़ किफ़ालतों के सहारे कारोबार से अलाहिदा हो चुका है।”
“तुम यही समझो, ठीक है।”
दूसरे दिन दरिया किनारे विल्सन हमें फिर दिखाई दिया। भूरे रंग का लिबास पहने, दाँतों में पाइप दबाये खड़ा था। ऐसा मालूम होता था कि उस के चेहरे की झुर्रियों और सफ़ेद बालों से भी जवानी फूट रही है।
हम कपड़े उतार कर पानी के अंदर चले गए। जब मैं नहा कर बाहर निकला तो विल्सन ज़मीन पर औंधे मुँह लेटा कोई किताब पढ़ रहा था। मैं सिगरेट सुलगा कर उस के पास गया।
उस ने किताब से नज़रें हटा कर मेरी तरफ़ देखा और पूछा “बस, नहा चुके।”
मैंने जवाब दिया। “हाँ..... आज तो लुत्फ़ आगया...... दुनिया में इस से बेहतर नहाने की और कोई जगह नहीं हो सकती...... तुम यहां कितनी मुद्दत से हो।”
उस ने जवाब दिया। “पंद्रह बरस से।”
ये कह कर वह दरिया की मचलती हुई नीली लहरों की तरफ़ देखने लगा, उस के बारीक होंटों पर लतीफ़ सी मुस्कुराहट खेलने लगी। “पहली बार यहां आते ही मुझे इस जगह से मुहब्बत होगई...... तुम्हें उस जर्मन का क़िस्सा मालूम है, जो एक बार यहां लंच खाने आया और यहीं का हो के रह गया...... वो चालीस साल यहां रहा....... मेरा भी यही हाल होगा। चालीस बरस नहीं तो पच्चीस तो कहीं नहीं गए।”
मैं चाहता था कि वो अपनी गुफ़्तुगू जारी रखी। उस के अलफ़ाज़ से ज़ाहिर था कि उस के अफ़साने की हक़ीक़त ज़रूर कुछ है।
इतने में मेरा दोस्त भीगा हुआ हमारी तरफ़ आया। बहुत ख़ुश था क्योंकि वो दरिया में एक मील तैर कर आरहा था। उस के आते ही हमारी गुफ़्तुगू का मौज़ू बदल गया। और बात अधूरी रह गई।
उस के बाद विल्सन से मुतअद्दिद बार मुलाक़ात हुई, उस की बातें बड़ी दिलचस्प होतीं। वो इस जज़ीरे के चप्पे चप्पे से वाक़िफ़ था।
एक दिन चांदनी रात का लुत्फ़ उठाने के बाद, मैंने और मेरे दोस्त ने सोचा कि चलो मोंटी सलारो की पहाड़ी की सैर करें। मैंने विल्सन से कहा कि “आओ यार तुम भी हमारे साथ चलो।”
विल्सन ने मेरी दावत क़बूल करली। लेकिन मेरा दोस्त नासाज़ि-ए-तब्अ का बहाना करके हम से जुदा होगया। ख़ैर, हम दोनों पहाड़ी की जानिब चल दिए और इस सैर का ख़ूब लुत्फ़ उठाया। शाम के धुंदलके में थके मांदे, भूके सराय में आए।
खाने का इंतिज़ाम पहले ही कर रख्खा था जो बहुत लज़ीज़ साबित हुआ। शराब, अंगूर की थी। पहली बोतल तो सिवय्यां खाने के साथ ही ख़त्म होगई। दूसरी के आख़िरी जाम पीने के बाद मेरे और विल्सन के दिमाग़ में बयक-वक़्त ये ख़याल समाने लगा कि ज़िंदगी कुछ ऐसी दुशवार नहीं।
हम उस वक़्त बाग़ीचे में अंगूरों से लदी हुई बेल के नीचे बैठे थे। रात की ख़ामोश फ़ज़ा में ठंडी हवा चल रही थी। सराय की ख़ादिमा हमारे लिए पनीर और इंजीरें ले आई।
विल्सन थोड़े से वक़्फ़े के बाद मुझ से मुख़ातब हुआ। “हमारे चलने में अभी काफ़ी देर है। चांद कम अज़ कम एक घंटे तक पहाड़ी के ऊपर आएगा।”
मैंने कहा। “हमारे पास फ़ुर्सत ही फ़ुर्सत है...... यहां आकर कोई इंसान भी उजलत के मुताअल्लिक़ नहीं सोच सकता।”
विल्सन मुस्कुराया। “फ़ुर्सत..... काश लोग इस से वाक़िफ़ होते। हर इंसान को ये चीज़ मुफ़्त मयस्सर हो सकती है। लेकिन लोग कुछ ऐसे बेवक़ूफ़ हैं कि वो इसे हासिल करने की कोशिश ही नहीं करते....... काम? ........ कमबख़्त, इतना समझने के भी अहल नहीं कि काम करने से ग़र्ज़ सिर्फ़ फ़ुर्सत हासिल करना है।”
शराब का असर उमूमन बाअज़ लोगों को गौर-ओ-फ़िक्र की तरफ़ ले जाता है। विल्सन का ख़याल अपनी जगह दरुस्त था। मगर कोई अछूती और अनोखी बात नहीं थी।
उस ने सिगरेट सुलगाया और कहने लगा। “जब मैं पहली बार यहां आया, तो चांदनी रात का समां था ...... आज भी वही चौदहवीं का चांद आसमान पर नज़र आएगा।
मैं मुस्कुरा दिया। “ज़रूर नज़र आएगा”
वो बोला। “दोस्त, मेरा मज़ाक़ न उड़ाओ........ जब मैं अपनी ज़िंदगी के पिछले पंद्रह बर्सों पर नज़र डालता हूँ तो मुझे ये तवील अर्सा एक महीने का धुंदलका वक़्फ़ा सा लगता है....... आह, वो रात, जब पहली बार, मैंने चबूतरे पर बैठ कर चांद का नज़ारा किया। किरणें दरिया की सतह पर चांदी के पतरे चढ़ा रही थीं। मैंने उस वक़्त शराब ज़रूर पी रखी थी। लेकिन दरिया के नज़ारे और आस पास की फ़िज़ा ने जो नशा पैदा किया। वो शराब कभी पैदा ना कर सकती।”
उस के होंट ख़ुश्क होने लगे। उस ने अपना गिलास उठाया, मगर वो ख़ाली था, एक बोतल मंगवाई गई, विल्सन ने दो चार बड़े बड़े घूँट पीए और कहने लगा। “अगले दिन मैं दरिया किनारे नहाया और जज़ीरे में इधर उधर घूमता रहा...... बड़ी रौनक़ थी....... मालूम हुआ कि हुस्न-ओ-इश्क़ की देवी अफ़्रो डाइट का तयोहार है...... मगर मेरी तक़दीर में सदा बैंक का मुंतज़िम होना ही लिखा होता तो यक़ीनन मुझे ऐसी सैर कभी नसीब न होती।”
मैंने इस से पूछा। “क्या तुम किसी बैंक के मैनेजर थे?”
“हाँ भाई था....... वो रात मेरे क़ियाम की आख़िरी रात थी क्योंकि पीर की सुब्ह मुझे बैंक में हाज़िर होना था। पर जब मैंने चांद दरिया और कश्तियों को देखा तो ऐसा बे-खु़द हुआ कि वापस जाने का ख़याल मेरे ज़ेहन से उतर गया।”
इस के बाद उस ने अपने गुज़िश्ता वाक़ियात तफ़सील से बताए और कहा कि वो जज़ीरे में पंद्रह साल से मुक़ीम है और अब उस की उम्र उनचास बरस की थी।
पहली बार जब वो यहां आया तो उस ने सोचा कि मुलाज़मत का तौक गले से उतार देना चाहिए और ज़िंदगी के बाक़ी अय्याम यहां की मस्हूर-कुन फ़ज़ाओं में गुज़ारने चाहिऐं।
जज़ीरे की फ़ज़ा और चांद की रौशनी विल्सन के दिमाग़ पर इस क़दर ग़ालिब आई कि उस ने बैंक की मुलाज़मत तर्क करदी। अगर वो चंद बरस और वहां रहता तो उसे माक़ूल पेंशन मिल जाती। मगर उस ने उस की मुतलक़ पर्वा न की। अलबत्ता बैंक वालों ने उसे उस की ख़िदमात के इव्ज़ इनाम दिया। विल्सन ने अपना घर बेचा और जज़ीरे का रुख़ किया। उस के अपने हिसाब के मुताबिक़ वो पच्चीस बरस तक ज़िंदगी बसर कर सकता था।
मेरी उस से कई मुलाक़ातें हुईं। इस दौरान में मुझे मालूम हुआ कि वो बड़ा एतिदाल पसंद है। उसे कोई ऐसी बात गवारा नहीं जो उस की आज़ादी में ख़लल डाले, इसी वजह से औरत भी उस को मुतअस्सिर न कर सकी। वो सिर्फ़ क़ुदरती मनाज़िर का परसतार था। उस की ज़िंदगी का वाहिद मक़सद सिर्फ़ अपने लिए ख़ुशी तलाश करना था और उसे ये नायाब चीज़ मिल गई थी।
बहुत कम इंसान ख़ुशी की तलाश करना जानते हैं, मैं नहीं कह सकता वो समझदार था या बेवक़ूफ़। इतना ज़रूर है कि अपनी ज़ात के हर पहलू से बख़ूबी वाक़िफ़ था।
आख़िरी मुलाक़ात के बाद मैंने अपने मेज़बान दोस्त से रुख़सत चाही और अपने घर रवाना होगया। इस दौरान में जंग छिड़ गई और मैं तेरह बरस तक इस जज़ीरे पर न जा सका।
तेरह बरस के बाद जब मैं जज़ीरे पर पहुंचा तो मेरे दोस्त की हालत बहुत ख़स्ता हो चुकी थी। मैंने एक होटल में कमरा किराए पर लिया खाने पर अपने दोस्त से विल्सन के मुतअल्लिक़ बात हुई।
वो ख़ामोश रहा। उस की ये ख़ामोशी बड़ी अफ़्सुर्दा थी। मैंने बे-चैन हो कर पूछा। “कहीं उस ने ख़ुद-कुशी तो नहीं करली।”
मेरे दोस्त ने आह भरी। “ये दर्द भरी दास्तान मैं तुम्हें क्या सुनाऊं.......” विल्सन की स्कीम माक़ूल थी कि वो पच्चीस बरस आराम से गुज़ार सकता है। पर उसे ये मालूम नहीं था कि आराम के पच्चीस बरस गुज़ारने के साथ ही उस की क़ुव्वत-ए-इरादी ख़त्म हो जाएगी।
क़ुव्वत-ए-इरादी को ज़िंदा रखने के लिए कश्मकश ज़रूरी है। हमवार ज़मीन पर चलने वाले पहाड़ियों पर नहीं चढ़ सकते....... उस का तमाम रुपया ख़त्म होगया। उधार लेता रहा। लेकिन ये सिलसिला कब तक जारी रहता। क़र्ज़ ख्वाहों ने उसे तंग करना शुरू किया। आख़िर एक रोज़ उस ने अपनी झोंपड़ी के उस कमरे में जहां वो सोता था, बहुत से कोइले जलाए और दरवाज़ा बंद कर दिया......
सुब्ह जब उस की नौकरानी नाशतादान तैय्यार करने आई तो उसे बेहोश पाया...... लोग उसे हस्पताल ले गए। बच गया पर उस का दिमाग़ क़रीब क़रीब माऊफ़ होगया....... मैं उस से मिलने गया लेकिन वो कुछ इस तरह हैरान नज़रों से मेरी तरफ़ देखने लगा जैसे मुझे पहचान नहीं सका।
मैंने अपने दोस्त से पूछा। “अब कहाँ रहता है।”
“घर बार तो उस का नीलाम होगया है....... पहाड़ियों पर आवारा फिरता रहता है। मैंने एक दो मर्तबा उसे पुकारा, मगर वो मेरी शक्ल देखते ही जंगली हिरनों की तरह क़ुलांचें भरता दौड़ गया।”
दो तीन दिन के बाद जब मैं और मेरा दोस्त चहल-क़दमी कर रहे थे कि मेरा दोस्त ज़ोर से पुकारा। “विल्सन”
मेरी निगाहों ने उसे ज़ैतून के दरख़्त के पीछे छुपता देखा। हमारे क़रीब पहुंचने पर उस ने कोई हरकत ना की, बस साकित-ओ-सामित खड़ा रहा। फिर ऐका ऐकी जवानों के मानिंद बेतहाशा भागना शुरू कर दिया। इस के बाद मैंने फिर उस को कभी ना देखा।
घर वापस आया तो एक बरस के बाद मेरे दोस्त का ख़त आया कि विल्सन मर गया। उस की लाश पहाड़ी के किनारे पड़ी थी। चेहरे से ये ज़ाहिर होता था कि सोते में दम निकल गया है...... उस रात चौदहवीं का चांद था..... मेरा ख़याल है, शायद ये चौदहवीं का चांद ही उस की मौत का सबब हो।
(1955)

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