चंद्रकांता संतति (उपन्यास) खंड 2 - आठवाँ भाग : देवकीनन्दन खत्री

Chandrakanta Santati (Novel) : Devaki Nandan Khatri

बयान - 1

मायारानी की कमर में से ताली लेकर जब लाडिली चली गई तो उसके घंटे भर बाद मायारानी होश में आकर उठ बैठी। उसके बदन में कुछ-कुछ दर्द हो रहा था जिसका सबब वह समझ नहीं सकती थी। उसे फिर उन्हीं खयालों ने आकर घेर लिया जिनकी बदौलत दो घण्टे पहले वह बहुत ही परेशान थी। न वह बैठकर आराम पा सकती थी और न कोई उपन्यास इत्यादि पढ़कर ही अपना जी बहला सकती। उसने अपनी आलमारी में से नाटक की किताब निकाली और शमादान के पास जाकर पढ़ना शुरू किया, पर नान्दी पढ़ते-पढ़ते ही उसकी आंखों पर पलकों का पर्दा पड़ गया और फिर आधे घंटे तक वह गम्भीर चिन्ता में डूबी रह गई, इसके बाद किसी के आने की आहट ने उसे चौंका दिया और वह घूमकर दरवाजे की तरफ देखने लगी। धनपत उसके सामने आकर खड़ी हो गई और बोली -

धनपत - मेरी प्यारी रानी, मैं देखती हूं कि इस समय तू बहुत ही उदास और किसी गम्भीर चिन्ता में डूबी हुई है, शायद अभी तक तेरी आंखों में निद्रादेवी का डेरा नहीं पड़ा।

माया - बेशक ऐसा ही है, मगर तेरे चेहरे पर भी...।

धनपत - मैं तो बहुत घबड़ा गई हूं क्योंकि अब यह बात लोगों को मालूम हुआ चाहती है। मैं खूब जानती हूं कि तुम्हारी कट्टर रिआया उसे जी-जान से..।

माया - बस-बस, आगे कहने की कोई आवश्यकता नहीं, इसी सोच ने तो मुझे बेकाम कर दिया है।

धनपत - मैं थोड़े दिनों के लिए तुमसे जुदा हो जाना उचित समझती हूं और यही कहने के लिए मैं यहां तक आयी हूं।

माया - (घबड़ाकर) तुझे क्या हो गया है मुंह से बात भी सम्हालकर नहीं निकालती!

धनपत - हां-हां, मुझसे भूल हो गई, इस समय तरद्दुद और डर ने मुझे बेकाम कर रखा है।

माया - अच्छा तो तू मुझसे जुदा होकर कहां जाएगी?

धनपत - जहां कहो।

माया - (कुछ सोचकर) अभी जल्दी न करो, इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह कब्जे में आ ही चुके हैं, सूर्योदय के पहले ही मैं उनका काम तमाम कर दूंगी।

धनपत - मगर उसका क्या बन्दोबस्त किया जायगा जिसके विषय में चण्डूल ने तेरे कान में...।

माया - आह, उसकी तरफ से भी अब मुझे निराशा हो गई, वह बड़ा जिद्दी है।

धनपत - तो क्यों नहीं उसकी तरफ से भी निश्चिन्त हो जाती हो?

माया - हां, अब यही होगा।

धनपत - फिर देर करने की क्या जरूरत है?

माया - मैं अभी जाती हूं, क्या तू भी मेरे साथ चलेगी?

धनपत - मैं चलने को तैयार हूं, मगर न मालूम उसे (चण्डूल को) यह बात क्योंकर मालूम हो गई।

माया - खैर, अब चलना चाहिए।

अब मायारानी का ध्यान कैदखाने की ताली पर गया। अपनी कमर में ताली न देखकर बहुत हैरान हुई। थोड़ी देर के लिए वह अपने को बिल्कुल ही भूल गई पर आखिर एक लम्बी सांस लेकर धनपत से बोली -

माया - आफत आने की यह दूसरी निशानी है।

धनपत - सो क्या मेरी समझ में कुछ भी न आया कि यकायक तेरी अवस्था क्यों बदल गई और किस नई घटना ने आकर तुझे घेर लिया।

माया - कैदखाने की ताली जिसे मैं सदा अपनी कमर में रखती थी, गायब हो गई।

धनपत - (घबड़ाकर) कहीं दूसरी जगह न रख दी हो।

माया - नहीं-नहीं, जरूर मेरे पास ही थी। चल लाडिली से पूछूं, शायद वह इस विषय में कुछ कह सके।

मायारानी धनपत को साथ लिए लाडिली के कमरे में गई मगर वहां लाडिली थी कहां जो मिलती। अब उसकी घबड़ाहट की कोई हद्द न रही। एकदम बोल उठी, ''बेशक लाडिली ने धोखा दिया।''

धनपत - उसे ढूंढ़ना चाहिए।

मायारानी - (आसमान की तरफ देखकर और लम्बी सांस लेकर) आह, यह पहर भर के लगभग रात जो बाकी है मेरे लिए बड़ी ही अनमोल है। इसे मैं लाडिली की खोज में व्यर्थ नहीं खोना चाहती। इतने ही समय में मुझे उस जिद्दी के पास पहुंचना और उसका सिर काटकर लौट आना है। कैदियों से भी ज्यादे तरद्दुद मुझे उसका है। हाय, अभी तक वह आवाज मेरे कानों में गूंज रही है जो चण्डूल ने कही थी। खैर, वहां जाते-जाते कैदखाने को भी देखती चलूंगी, (जोश में आकर) कैदी चाहे कैदखाने के बाहर हो जायं मगर इस बाग की चहारदीवारी को नहीं लांघ सकते। जा, बिहारीसिंह और हरनामसिंह को बहुत जल्द बुला ला।

धनपत दौड़ी हुई गई और थोड़ी ही देर में दोनों ऐयारों को साथ लिए हुए लौट आई। वे दोनों ऐयारी के सामान से दुरुस्त और हर एक काम के लिए मुस्तैद थे। यद्यपि बिहारीसिंह के चेहरे का रंग अच्छी तरह साफ नहीं हुआ था, तथापि उसकी कोशिश ने उसके चेहरे की सफाई आधी से ज्यादा कर दी थी, आशा थी कि दो ही एक दिन में वह आईने में अपनी असली सूरत देख लेगा।

कैदखाने का रास्ता पाठकों को मालूम है, क्योंकि तेजसिंह जब बिहारीसिंह की सूरत में यहां आए थे तो मायारानी के साथ कैदियों को देखने गये थे।

लाडिली के कमरे में से दस-बारह तीर और कमान ले के धनपत तथा दोनों ऐयारों को साथ लिए हुए मायारानी सुरंग में घुसी। जब कैदखाने के दरवाजे पर पहुंची तो दरवाजा ज्यों-का-त्यों बन्द पाया। कैदखाने की ताली और लाडिली के गायब होने का हाल कहके बिहारीसिंह और हरनामसिंह को ताकीद कर दी कि जब तक मैं लौटकर न आऊं तब तक तुम दोनों बड़ी होशियारी से इस दरवाजे पर पहरा दो। इसके बाद धनपत को साथ लिये हुए मायारानी बाग के तीसरे दर्जे में उसी रास्ते से गई जिस राह से तेजसिंह भेजे गये थे।

हम पहले लिख आए हैं कि बाग के तीसरे दर्जे में एक बुर्ज है और उसके चारों तरफ बहुत-से मकान, कमरे और कोठरियां हैं। बाग में एक छोटा-सा चश्मा बह रहा था जिसमें हाथ भर से ज्यादा पानी नहीं था। मायारानी उसी चश्मे के किनारे-किनारे थोड़ी दूर तक गई यहां तक कि वह एक मौलसिरी के पेड़ के नीचे पहुंची जहां संगमरमर का एक छोटा-सा चबूतरा बना हुआ था और उस चबूतरे पर पत्थर की मूरत आदमी के बराबर की बैठी हुई थी। रात पहर भर से कम बाकी थी। चन्द्रमा धीरे-धीरे निकलकर अपनी सफेद रोशनी पूरे आसमान पर फैला रहा था। मायारानी ने उस मूरत की कलाई पकड़कर उमेठी, साथ ही मूरत ने मुंह खोल दिया। मायारानी ने उसके मुंह में हाथ डालकर कोई पेंच घुमाना शुरू किया। थोड़ी देर में चबूतरे के सामने की तरफ का एक बड़ा-सा पत्थर हल्की आवाज के साथ हटकर अलग हो गया और नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां दिखाई दीं। अपने पीछे-पीछे धनपत को आने का इशारा करके मायारानी उस तहखाने में उतर गई। यद्यपि तहखाने में अंधेरा था मगर मायारानी ने टटोलकर एक आले पर से लालटेन और उसके बालने का सामान उतारा और बत्ती बालकर चारों तरफ देखने लगी। पूरब तरफ की सुरंग का एक छोटा-सा दरवाजा खुला हुआ था, दोनों उसके अन्दर घुसीं और सुरंग में चलने लगीं। लगभग सौ कदम जाने के बाद वह सुरंग खत्म हुई और ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियां दिखाई दीं। दोनों औरतें ऊपर चढ़ गईं और उस बुर्ज के निचले हिस्से में पहुंचीं जो बहुत-से मकानों से घिरा हुआ था। यहां भी उसी तरह का चबूतरा और उस पर पत्थर का आदमी बैठा हुआ था। वह भी किसी सुरंग का दरवाजा था जिसे मायारानी ने पहली रीति से खोला। यह सुरंग चौथे दर्जे में जाने के लिए थी।

दोनों औरतें उस सुरंग में घुसीं। दो सौ कदम के लगभग जाने के बाद वह सुरंग खत्म हुई और ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियां नजर आईं। दोनों औरतें ऊपर चढ़कर एक कोठरी में पहुंचीं जिसका दरवाजा खुला हुआ था। कोठरी के बाहर निकलकर धनपत और मायारानी ने अपने को बाग के चौथे हिस्से में पाया। इस बाग का पूरा-पूरा नक्शा हम आगे चलकर खींचेंगे यहां केवल मायारानी की कार्रवाई का हाल लिखते हैं।

कोठरी से आठ-दस कदम की दूरी पर पक्का मगर सूखा कुआं था जिसके अन्दर लोहे की एक मोटी जंजीर लटक रही थी। कुएं के ऊपर डोल और रस्सा पड़ा था। डोल में लालटेन रखकर कुएं के अन्दर ढीला और जब वह तह में पहुंच गया तो दोनों औरतें जंजीर थामकर कुएं के अन्दर उतर गईं। नीचे कुएं की दीवार के साथ छोटा-सा दरवाजा था जिसे खोलकर धनपत को पीछे आने का इशारा करके मायारानी हाथ में लालटेन लिये हुए अन्दर घुसी। वहां पर छोटी-छोटी कई कोठरियां थीं। निचली कोठरी में, जिसके आगे लोहे का जंगला लगा हुआ था, एक आदमी हाथ में फौलादी ढाल लिए टहलता हुआ दिखाई पड़ा। यहां बिल्कुल अंधेरा था मगर मायारानी के हाथ वाली लालटेन ने उस कोठरी की हर एक चीज और उस आदमी की सूरत बखूबी दिखा दी। इस समय उस आदमी की उम्र का अन्दाज करना मुश्किल है क्योंकि रंज और गम ने उसे सुखाकर कांटा कर दिया है, बड़ी-बड़ी आंखों के चारों तरफ स्याही दौड़ गई है और उसके चेहर पर झुर्रियां पड़ी हुई हैं, तो भी हर एक हालत पर ध्यान देकर कह सकते हैं कि वह किसी जमाने में बहुत ही हसीन और नाजुक रहा होगा मगर इस समय कैद ने उसे मुर्दा बना रखा है। उसके बदन के कपड़े बिल्कुल फटे और मैले थे और वह बहुत ही मजहूल हो रहा था। कोठरी के एक तरफ तांबे का घड़ा, लोटा और कुछ खाने का सामान रखा हुआ था, ओढ़ने और बिछाने के लिए दो कम्बल थे। कोठरी की पिछली दीवार में खिड़की थी जिसके अन्दर से बदबू आ रही थी।

मायारानी और धनपत को देखकर वह आदमी ठहर गया और इस अवस्था में भी लाल-लाल आंखें करके उन दोनों की तरफ देखने लगा।

मायारानी - यह आखिरी दफे मैं तेरे पास आई हूं।

कैदी - ईश्वर करे ऐसा ही हो और फिर तेरी सूरत दिखाई न दे।

मायारानी - अब भी अगर वह भेद मुझे बता दे तो तुझे छोड़ दूंगी।

कैदी - हरामजादी कमीनी औरत, दूर हो मेरे सामने से!

मायारानी - मालूम होता है वह भेद तू अपने साथ ले जायगा।

कैदी - बेशक ऐसा ही है।

मायारानी - यह ढाल तेरे हाथ में कहां से आई?

कैदी - तुझ चाण्डालिनी की इस बात का जवाब मैं क्यों दूं?

मायारानी - मालूम होता है कि तुझे अपनी जान प्यारी नहीं है और अब तू मौत के पंजे में पड़ना चाहता है!

कैदी - बेशक पहले मुझे अपनी जान प्यारी न थी, पांच दिन पीछे भोजन करना मुझे पसन्द न था, कभी-कभी तेरी सूरत देखने की बनिस्बत मौत को हजार दर्जे अच्छा समझता था, मगर अब मैं मरने के लिए तैयार नहीं हूं।

मायारानी - (हंसकर) तुझे मेरे हाथ से बचाने वाला कौन है?

कैदी - (ढाल दिखाकर) यह!

धनपत - (मायारानी के कान में) न मालूम यह ढाल इसे क्योंकर मिल गई! क्या चण्डूल यहां तो नहीं पहुंच गया

मायारानी - (धनपत से) कुछ समझ में नहीं आता। यह ढाल भविष्य बुरा बता रही है।

धनपत - मेरा कलेजा डर के मारे कांप रहा है।

मायारानी - (कैदी से) यह तुझे किसी तरह बचा नहीं सकती और मैं तेरी जान लिए बिना जा नहीं सकती।

कैदी - खैर, जो कुछ तू कर सके, कर ले।

मायारानी - तू जिद्दी और बेहया है।

कैदी - हरामजादी की बच्ची, बेहया तो तू है जो घड़ी-घड़ी के बाद मेरे सामने आती है।

इस बात के जवाब में मायारानी ने एक तीर कैदी को मारा, जिसे उसने बड़ी चालाकी से ढाल पर रोक लिया, दूसरा तीर चलाया, वह भी बेकार हुआ, तीसरा तीर चलाया, उससे भी कोई काम न चला। लाचार मायारानी कैदी का मुंह देखने लगी।

कैदी - तेरे किए अब कुछ भी न होगा।

मायारानी - खैर, देखूंगी, तू कब तक अपनी जान बचाता है।

कैदी - मेरी जान कोई भी नहीं ले सकता, बल्कि मुझे निश्चय हो गया कि अब तेरी मौत आ गई।

इसका जवाब मायारानी कुछ देना ही चाहती थी कि एक आवाज ने उसे चौंका दिया। कैदी की बात पूरी होने के साथ ही किसी ने कहा, ''बेशक मायारानी की मौत आ गई !''

 

बयान - 2

कैदखाने का हाल हम ऊपर लिख चुके हैं, पुनः लिखने की कोई आवश्यकता नहीं। उस कैदखाने में कई कोठरियां थीं जिनमें से आठ कोठरियों में तो हमारे बहादुर लोग कैद थे और बाकी कोठरियां खाली थीं। कोई आश्चर्य नहीं, यदि हमारे पाठक महाशय उन बहादुरों के नाम भूल गये हों जो इस समय मायारानी के कैदखाने में बेबस पड़े हैं अस्तु एक दफे पुनः याद दिला देते हैं। उस कैदखाने में कुंअर इन्द्रजीतसिंह, कुंअर आनन्दसिंह, तारासिंह, भैरोसिंह, देवीसिंह और शेरसिंह के अतिरिक्त एक कुमारी भी थी जिसके मुख की सुन्दर आभा ने उस कैदखाने में उजाला कर रखा था। पाठक समझ ही गये होंगे कि हमारा इशारा कामिनी की तरफ है। यद्यपि वह ऐसी कोठरी में बन्द थी जिसके अन्दर मर्दों की निगाह नहीं जा सकती थी तथापि कुंअर आनन्दसिंह को इस बात पर ढाढ़स थी कि उनकी प्यारी कामिनी उनसे दूर नहीं है, मगर कुंअर इन्द्रजीतसिंह के रंज का कोई ठिकाना न था। वे कुछ भी नहीं जानते थे कि उनकी प्यारी किशोरी कहां और किस अवस्था में है।

इस कैदखाने में छत के सहारे शीशे की एक कन्दील लटक रही थी। उसी में मायारानी का एक आदमी रोज जाकर रोशनी ठीक कर देता था। ठीक कर देना हम इसलिए कहते हैं, कि उस कैदखाने में अंधेरा रहने के कारण दिन-रात बत्ती जला करती थी और ठीक समय पर आदमी जाकर उसे दुरुस्त कर दिया करता था। खाने-पीने का सामान आठ पहर में एक दफे कैदियों को दिया जाता था। कैदखाने की भयानक अवस्था लिखने में हम विशेष समय नष्ट करना नहीं चाहते, क्योंकि हमें किस्सा बहुत लिखना है और जगह कम है।

अब हम उस संध्या का हाल लिखते हैं जिस दिन मायारानी से और चण्डूल से बातचीत हुई थी, या जब कमलिनी से लाडिली मिली थी। यों तो तहखाने के अन्दर दिन-रात समान था और कैदियों को इस बात का ज्ञान बिल्कुल नहीं हो सकता था कि सूर्य कब उदय और कब अस्त हुआ, तथापि बाहरी हिसाब से हमें समय लिखना ही पड़ता है।

संध्या होने के बाद एक आदमी कैदखाने में आया और कैदियों की तरफ देखकर बोला, ''मायारानी की तरफ से इस समय मैं आप लोगों के पास यह कहने के लिए आया हूं कि कल पहर दिन चढ़ने के पहले ही आप लोग इस दुनिया से उठा दिए जायंगे। इसके अतिरिक्त अपनी तरफ से अफसोस के साथ आपको इत्तिला देता हूं कि राजा वीरेन्द्रसिंह और रानी चन्द्रकांता को भी हमारी मायारानी ने गिरफ्तार कर लिया है। उन्हीं के सामने आप लोग मारे जायंगे, और इसके बाद उन दोनों की भी जान ली जायगी।''

इस आदमी के आने के पहले कैदी लोग सुस्त और उदास बैठे हुए थे, मगर जब इस आदमी ने आकर ऊपर लिखी बातें कहीं तो सभी की अवस्था बदल गई। क्रोध से सभी का चेहरा लाल हो गया और बदन कांपने लगा, लेकिन उस आदमी की बात का जवाब किसी ने भी कुछ न दिया।

कैदियों को सन्देशा देने के बाद मायारानी का आदमी उस कोठरी में गया, जिसमें हथकड़ी और बेड़ी से बेबस बेचारी कामिनी कैद थी। थोड़ी ही देर बाद कामिनी को साथ लिए हुए वह आदमी बाहर निकला। उस समय सभी की निगाह उस बेचारी पर पड़ी। देखा कि रंज, गम और दुःख के मारे वह सूखकर कांटा हो गई है। मालूम होता है मानो वर्षों से बीमार है। सिर के बाल खुले और फैले हुए हैं, साड़ी मैली और खराब हो गई है, मगर भोलापन, खूबसूरती और नजाकत ने इस अवस्था में भी उसका साथ नहीं छोड़ा है। उसके दोनों हाथ बंधे थे, और वह बेड़ी के सबब से अच्छी तरह कदम नहीं उठा सकती थी।

सभी को देखते-देखते कामिनी को साथ लिए हुए मायारानी का आदमी कैदखाने के बाहर चला गया और कैदखाने का दरवाजा फिर बन्द हो गया। ताली भरने की आवाज भी बहादुर कैदियों के कानों में पड़ी। यों तो वहां जितने कैदी थे, सभी क्रोध के मारे कांप रहे थे, मगर हमारे आनन्दसिंह की अवस्था कुछ और ही थी। एक तो अपने मां-बाप का हाल सुनकर जोश में आ ही चुके थे, दूसरे कामिनी को जो इस बेबसी के साथ कैदखाने के बाहर जाते देखा, और भी उबल पड़े, क्रोध सम्हाल न सके, उठके खड़े हो गए और जंगले वाली कोठरी में जिसमें कैद थे टहलने लगे। जिस जंगले वाली कोठरी में कुंअर इन्द्रजीतसिंह थे, वह आनन्दसिंह के ठीक सामने थी और ऐयार लोग भी उन्हें अच्छी तरह देख सकते थे। टहलने के साथ आनन्दसिंह के पैर की जंजीरी बोली, जिससे सभी का ध्यान उनकी तरफ जा रहा।

इन्द्रजीतसिंह - आनन्द!

आनन्दसिंह - आज्ञा!

इन्द्रजीतसिंह - क्या बेबसी हम लोगों का साथ न छोड़ेगी?

आनन्दसिंह - बेशक छोड़ेगी, अब हम लोग इस अवस्था में कदापि नहीं रह सकते। हम लोग जंगली शेर नहीं हैं जो जंगले के अन्दर बन्द पड़े रहें।

इन्द्रजीतसिंह - (खड़े होकर) हां, ऐसा ही है, यह लोहे की तार अब हमें रोक नहीं सकती!

इतना कहके इन्द्रजीतसिंह ने इष्टदेव का ध्यान कर अपनी कलाई उमेठी, और जोर करके हथकड़ी तोड़ डाली। बड़े भाई की देखादेखी आनन्दसिंह ने भी वैसा ही किया। हथकड़ी तोड़ने के बाद दोनों ने अपने पैरों की बेड़ियां खोलीं, और तब जंगले के बाहर निकलने का उद्योग करने लगे। दोनों हाथों से लोहे का छड़ जो जंगले में लगा हुआ था पकड़ के और लात अड़ा के खींचने लगे। इसमें कोई सन्देह नहीं कि दोनों कुमार बड़े बहादुर और ताकतवर थे। छड़ टेढ़े हो-होकर छेदों से बाहर निकलने लगे और बात-की-बात में दोनों शेर जंगले वाली कोठरी के बाहर निकलके खड़े हो गये। दोनों गले मिले, और इसके बाद हर एक जंगले के छड़ों को निकालकर दोनों भाइयों ने अपने ऐयारों को भी छुड़ाया, और जोश में आकर बोले, ''उद्योग से बढ़के दुनिया में कोई पदार्थ नहीं!''

आनन्दसिंह - ईश्वर चाहेगा तो अब थोड़ी देर में हम लोग इस कैदखाने के बाहर भी निकल जायंगे।

इन्द्रजीतसिंह - हां, अब हम लोगों को इसके लिए भी उद्योग करना चाहिए।

भैरोसिंह - हम लोग जोर करके तहखाने का दरवाजा उखाड़ डालेंगे, और इसी समय कम्बख्त मायारानी के सामने जा खड़े होंगे।

ऐयारों को साथ लिए हुए दोनों भाई सदर दरवाजे के पास गये जो बाहर से बन्द था। यह दरवाजा चार अंगुल मोटे लोहे का बना था और इसकी मजबूत चूल भी जमीन में बहुत गहरी घुसी हुई थी। इसलिए पूरे दो घण्टे तक मेहनत करने पर भी कोई नतीजा न निकला। क्रोध में आकर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने लोहे का छड़ जो जंगले में से निकला था उठा लिया, और बाईं तरफ की दीवार जो चूना और ईंटों से बनी हुई थी, तोड़ने लगे। उस समय ऐयारों ने दोनों भाइयों के हाथ से छड़ ले लिया, और दीवार तोड़ना शुरू किया।

पहर भर की मेहनत से दीवार में इतना बड़ा छेद हो गया कि आदमी उसकी राह बखूबी निकल जाय। भैरोसिंह ने झांककर देखा, उस तरफ बिल्कुल अंधेरा था और इस बात का ज्ञान जरा-भी नहीं हो सकता था कि दीवार के दूसरी तरफ क्या है। हम ऊपर लिख आए हैं कि इस कैदखाने में छत के सहारे शीशे की एक कन्दील लटकती थी। इस समय ऐयारों ने उसी कन्दील की रोशनी से काम लेना चाहा। तारासिंह ने भैरोसिह के कन्धे पर चढ़कर कन्दील उतार ली और उसे हाथ में लिए हुए उस सूराख की राह दूसरी तरफ निकल गये। इनके पीछे दोनों कुमार और ऐयार लोग भी गए। अब मालूम हुआ कि यह कोठरी है जो लगभग तीस हाथ के लम्बी और पन्द्रह हाथ से कम चौड़ी है। कुमार तथा ऐयार लोग अगर बिना रोशनी के इस कोठरी में आते तो जरूर दुःख भोगते, क्योंकि यहां जमीन बराबर न थी, बीचोंबीच में एक कुआं था और उसके चारों तरफ जमीन में चार दरवाजे बने हुए थे, जिनके देखने से मालूम होता था कि यहां कई तहखाने हैं, और ये दरवाजे नहीं, तहखानों के रास्ते हैं। इस समय उन दरवाजों के पल्ले जो लकड़ी के थे अच्छी तरह देखने से मालूम हुआ कि नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां बनी हुई हैं, और उस कुएं में भी लोहे की एक जंजीर लटक रही थी। इसके अतिरिक्त चारों तरफ की दीवारें बराबर थीं, अर्थात् किसी तरफ कोई दरवाजा न था, जिसे खोलकर ये लोग बाहर जाने की इच्छा करते।

इन्द्रजीतसिंह - मालूम होता है कि यहां आने या यहां से जाने के लिए इन तहखानों के सिवाय कोई राह नहीं है।

आनन्दसिंह - मैं भी यही समझता हूं।

देवीसिंह - इन तहखानों में उतरे बिना काम न चलेगा।

तारासिंह - आज्ञा हो तो मैं रोशनी लेकर एक तहखाने में उतरूं और देखूं कि क्या है।

इन्द्रजीतसिंह - खैर, जाओ, कोई हर्ज नहीं।

आज्ञा पाकर तारासिंह एक तहखाने के मुंह पर गये, मगर जब नीचे उतरने लगे तो कुछ देखकर रुक गये। कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने रुकने का सबब पूछा। जिसके जवाब में तारासिंह ने कहा, ''इस तहखाने में रोशनी मालूम होती है और धीरे-धीरे वह रोशनी तेज होती जाती है। मालूम होता है कि सुरंग है, और कोई आदमी हाथ में बत्ती लिये इसी तरफ आ रहा है।''

दोनों कुमार और ऐयार लोग भी वहां गये और झांककर देखने लगे। थोड़ी देर में दो कमसिन औरतें नजर पड़ीं, जो सीढ़ी के पास आकर ऊपर चढ़ने का इरादा कर रही थीं। एक के हाथ में मोमबत्ती थी, जिसे देखते ही कुमार ने पहचान लिया कि यह कमलिनी है, साथ में लाडिली भी थी, मगर उसे वे पहचानते न थे। हां, जब कैदी बनकर मायारानी के दरबार में लाए गये थे, तो मायारानी की बगल में बैठे हुए उसे देखा था और समझते थे कि वह भी हम लोगों की दुश्मन है। इस समय कमलिनी के साथ उसे देखकर कुमार को शक मालूम हुआ, क्योंकि इन्द्रजीतसिंह कमलिनी को दोस्त समझते थे और दोस्त के साथ दुश्मन का होना बेशक खटके की बात है।

कमलिनी जब सीढ़ी के पास पहुंची तो ऊपर रोशनी देखकर रुक गई। साथ ही कुमार ने पुकारकर कहा, ''डरो मत, ऊपर चली आओ, मैं हूं इन्द्रजीतसिंह!''

कमलिनी ने कुमार की आवाज पहचान ली और लाडिली को साथ लिये ऊपर चली आई, मगर दोनों कुमारों और उनके ऐयारों को वहां देखकर ताज्जुब करने लगी।

कमलिनी - आप लोग यहां कैसे आये?

इन्द्रजीतसिंह - यही बात मैं तुमसे पूछने वाला था!

कमलिनी - मैं तो आपको छुड़ाने के लिए आई हूं, मगर मालूम होता है कि मेरे आने के पहले ही, किसी ने पहुंचकर आप लोगों को छुड़ा दिया।

देवीसिंह - कोई दूसरा नहीं आया, दोनों कुमारों ने स्वयं अपनी-अपनी हथकड़ी तोड़ डाली, जंगलों के सींखचे खींचकर बाहर निकाल दिये और हम लोगों को भी कैद से छुड़ाया, इसके बाद दीवार तोड़कर हम लोग अभी थोड़ी देर हुई इधर आये हैं!

कमलिनी - (हंसकर) बहादुर हैं, यह न ऐसा करेंगे तो दूसरा कौन करेगा!

इन्द्रजीतसिंह - हम एक बात तुमसे और पूछना चाहते हैं।

कमलिनी - आपका मतलब मैं समझ गई। (लाडिली की तरफ देखकर) शायद इसके बारे में आप कुछ पूछेंगे!

इन्द्रजीतसिंह - हां ठीक है, क्योंकि इन्हें हमने उसके पास बैठा देखा था, जिसके फरेब ने हमारी यह दशा की है, और लोगों की बातों से यह भी मालूम हुआ कि उसका नाम मायारानी है।

कमलिनी - बहुत दिनों तक साथ रहने पर भी आपको मेरा भेद कुछ भी मालूम नहीं हुआ, मगर इस समय मैं इतना कह देना उचित समझती हूं कि यह मेरी छोटी बहिन है और मायारानी बड़ी बहिन है। हम तीनों बहिनें हैं। लेकिन अनबन होने के कारण मैं उससे अलग हो गई और आज इसने भी उसका साथ छोड़ दिया। आज से पहले वह मेरी ही दुश्मन थी, मगर आज से इसकी भी जिसका नाम लाडिली है, जान की प्यासी हो गयी, मगर इतना सुनने पर भी मैं समझती हूं कि आप मुझे अपना दुश्मन न समझते होंगे।

इन्द्रजीतसिंह - नहीं-नहीं, कदापि नहीं। मैं तुम्हें अपना हमदर्द समझता हूं, तुमने मेरे साथ बहुत-कुछ नेकी की है।

कमलिनी - आप लोगों को छुड़ाने के लिए तेजसिंह भी यहां आये थे, मगर गिरफ्तार हो गये!

इन्द्रजीतसिंह - क्या तेजसिंह भी गिरफ्तार हो गये लेकिन वे उस कैदखाने में नहीं लाये गये जहां हम लोग थे।

कमलिनी - वह दूसरी जगह रखे गये थे। मैंने उन्हें भी कैद से छुड़ाया है, अब थोड़ी ही देर में आप उनसे मिलना चाहते हैं।

आनन्दसिंह चुपचाप इन दोनों की बातें सुन रहे थे, और छिपी निगाहों से लाडिली के रूप की अलौकिक छटा का भी आनन्द ले रहे थे। लाडिली भी प्रेम की निगाहों से उन्हें देख रही थी। इस बात को कमलिनी ने भी जान लिया, मगर वह तरह दे गई। जब आनन्दसिंह ने तेजसिंह का हाल सुना तब चौंके और कमलिनी की तरफ देखकर बोले -

आनन्दसिंह - सुना है कि हमारे माता-पिता भी...।

कमलिनी - हां, उन दोनों को भी कम्बख्त मायारानी ने फंसा लिया है! हाय, मैंने सुना है कि वे दोनों बेचारे बड़े संकट में हैं और सहज ही में उन दोनों का छूटना मुश्किल है, तथापि उद्योग में विलम्ब न करना चाहिए। अब आप कोई सवाल न कीजिये और यहां से जल्द निकल चलिये।

राजा वीरेन्द्रसिंह और रानी चन्द्रकांता का हाल सुनकर सबके सब घबड़ा गये और आगे कुछ सवाल करने की हिम्मत न पड़ी। कुमार कमलिनी के साथ चलने के लिए तैयार हो गये और सभी को साथ लिए हुए कमलिनी फिर उसी तहखाने में उतर गई, जहां से आई थी। कुंअर इन्द्रजीतसिंह किशोरी का और आनन्दसिंह कामिनी का हाल पूछने के लिए बेचैन थे, मगर मौका न समझकर चुप रह गये।

नीचे जाने पर मालूम हुआ कि वह एक सुरंग का रास्ता था, मगर यह सुरंग साधारण न थी। इसकी चौड़ाई केवल इतनी थी कि दो आदमी बराबर मिलकर जा सकते थे। ऊंचाई की यह अवस्था थी कि हर एक मर्द हाथ ऊंचा करके उसकी छत छू सकता था। दोनों तरफ की दीवार स्याह पत्थर की थी, जिस पर तरह-तरह की खूबसूरत, भयानक और कहीं-कहीं आश्चर्यजनक तस्वीरें मुसौवरों की कारीगरी का नमूना दिखा रही थीं, अर्थात् रंगों से बनी थीं। पत्थर गढ़कर नहीं बनाई गई थीं, परन्तु उन तस्वीरों के रंग की भी यह अवस्था थी कि अभी दो-चार दिन की बनी मालूम होती थीं जिन्हें देख हमारे कुमारों और ऐयारों को बहुत ही ताज्जुब मालूम हो रहा था।

कमलिनी - (इन्द्रजीतसिंह से) आप चाहते होंगे कि इन विचित्र तस्वीरों को अच्छी तरह देखें!

इन्द्रजीतसिंह - बेशक ऐसा ही है, किंतु इस दौड़ादौड़ में ऐसी उत्तम तस्वीरों के देखने का आनन्द कुछ भी नहीं मिल सकता और यहां की एक-एक तस्वीर ध्यान देकर देखने योग्य है, परन्तु क्या किया जाय, जब से अपने माता-पिता का हाल तुम्हारी जुबानी सुना है, जी बेचैन हो रहा है, यही इच्छा होती है कि जहां तक जल्द हो सके, उनके पास पहुंचें और उन्हें कैद से छुड़ावें। तुम स्वयं कह चुकी हो कि वह बड़े संकट में पड़े हैं, परन्तु यह न जाना गया कि उन्हें किस प्रकार का संकट है!

कमलिनी - आपका कहना बहुत ठीक है, इन तस्वीरों को देखने के लिए बहुत समय चाहिए बल्कि इनका हाल और मतलब जानने के लिए कई दिन चाहिए, और यह समय यहां अटकने का नहीं है, मगर साथ ही इसके यह भी याद रखिये कि आप दो-चार या दस घण्टे के अन्दर ठिकाने पहुंचकर भी अपने माता-पिता को नहीं छुड़ा सकते। मुझे ठीक-ठीक मालूम नहीं कि वह किस कैदखाने में कैद हैं, पहले तो इसी बात का पता लगाने के लिए कई दिन नहीं तो कई पहर चाहिए।

इन्द्रजीतसिंह - तो क्या तुमने उन्हें अपनी आंखों से नहीं देखा?

कमलिनी - नहीं, मगर इतना जानती हूं कि इस बाग के चौथे दर्जे में किसी ठिकाने वे कैद हैं।

इन्द्रजीतसिंह - क्या इस बाग के कई दर्जे हैं, जिसमें मायारानी रहती है और जहां हम लोग बेबस करके लाये गये थे?

कमलिनी - हां, इस बाग के चार दर्जे हैं। पहले में तो सिपाहियों और नौकरों के ठहरने का ठिकाना है, दूसरे दर्जे में स्वयं मायारानी रहती है, तीसरे और चौथे दर्जे में कोई नहीं रहता। हां, यदि कोई ऐसा कैदी हो जिसे बहुत ही गुप्त रखना मंजूर हो तो वहां भेज दिया जाता है। तीसरे और चौथे दर्जे को तिलिस्म कहना चाहिए, बल्कि चौथा दर्जा तो (कांपकर) ओफ, बड़ी-बड़ी भयानक चीजों से भरा हुआ है।

इन्द्रजीतसिंह - तो उसी चौथे दर्जे में हमारे माता-पिता कैद हैं?

कमलिनी - जी हां।

आनन्दसिंह - शायद तुम्हारी छोटी बहिन कुछ जानती हों जो तुम्हारे साथ हैं?

कमलिनी - नहीं - नहीं, यह बेचारी तीसरे और चौथे दर्जे का हाल कुछ भी नहीं जानती।

लाडिली - बल्कि तीसरे और चौथे दर्जे का पूरा-पूरा हाल मायारानी को भी नहीं मालूम। कमलिनी बहिन को मालूम न था, मगर दो ही चार महीनों में न मालूम क्योंकर वहां का विचित्र हाल इन्हें मालूम हो गया। देखिये, इसी सुरंग को जिसमें हम लोग जा रहे हैं, मायारानी भी नहीं जानती और मुझे तो इसका कुछ गुमान भी न था।

यहां पर कमलिनी के साथ की वह मोमबत्ती जलकर पूरी हो गयी और कमलिनी ने उसे जमीन पर फेंक दिया। अब इस सुरंग में केवल उस कन्दील की रोशनी रह गई, जो ये लोग कैदखाने में से लाये थे और इस समय तारासिंह उसे अपने हाथ में लटकाये सभी के पीछे-पीछे आ रहे थे। कमलिनी के कहे मुताबिक तारासिंह अब कन्दील लिए हुए आगे-आगे चलने लगे। लगभग बीस कदम जाने के बाद एक चौमुहानी मिली, अर्थात् वहां से चारों तरफ सुरंगें गई हुई थीं। कमलिनी ने रुककर इन्द्रजीतसिंह की तरफ देखा और कहा, ''अब यहां से अगर हम लोग चाहें तो इस तिलिस्मी मकान के बाहर निकल जा सकते हैं।''

इन्द्रजीतसिंह - यह सामने वाला रास्ता कहां गया है?

कमलिनी - बाग के तीसरे और चौथे दर्जे में जाने के लिए यही रास्ता है और बायीं तरफ वाली सुरंग उस दूसरे दर्जे में गई है, जिसमें मायारानी रहती है।

आनन्दसिंह - और दाहिनी तरफ जाने से हम लोग कहां पहुंचेंगे?

कमलिनी - इस तिलिस्मी मकान या बाग से बाहर जाने के लिए वही राह है।

इन्द्रजीतसिंह - तो अब तुम हम लोगों को कहां ले जाना चाहती हो?

कमलिनी - जहां आप कहिए।

आनन्दसिंह - अगर मायारानी के बाग में ले चलो तो हम उसे इसी समय गिरफ्तार कर लें, इसके बाद सब काम सहज ही में हो जायगा।

कमलिनी - यह काम सहज नहीं है और इसके सिवाय जहां तक मैं समझती हूं, मायारानी इस समय अपने कमरे में न होगी या यदि होगी भी तो हर तरह से होशियार होगी। केवल इतना ही नहीं वहां जाने से और भी कई प्रकार का धोखा है। एक तो उस बाग की चहारदीवारी के बाहर कूदकर या कमन्द लगाकर निकल जाना असंभव है, दूसरे उस बाग की हिफाजत के लिए पांच सौ सिपाही मुकर्रर हैं जो हमेशा मुस्तैद और सहज ही मायारानी के पास पहुंच जाने के लिए तैयार रहते हैं। मायारानी को गिरफ्तार करके बाग के बाहर ले जाना कठिन है। मेरी समझ में तो आपको एक दफे यहां से बाहर निकल जाना चाहिए।

इन्द्रजीतसिंह - मगर मैं कुछ और ही चाहता हूं।

कमलिनी - वह क्या?

इन्द्रजीतसिंह - यदि तुमसे हो सके तो हमें किसी ऐसी जगह ले चलो, जो इस बाग की सरहद के अन्दर हो और जहां दो-तीन रोज तक गुप्त रीति से हम लोग रह भी सकें।

कमलिनी - (कुछ सोचकर) हां, यह हो सकता है और इस राय को मैं भी पसंद करती हूं।

लाडिली - (कमलिनी से) तुमने कौन-सी ऐसी जगह सोची है?

कमलिनी - ऐसी जगह बाग के तीसरे दर्जे में है, बल्कि चौथे दर्जे में भी है।

लाडिली - चौथे दर्जे में जाकर दो-तीन दिन तक रहना उचित नहीं क्योंकि वह बड़ी भयानक जगह है, क्या तुम वहां के भेद अच्छी तरह जानती हो?

कमलिनी - हरे कृष्ण गोविन्द! वहां का हाल जानना क्या खिलवाड़ है हां, एक मकान के अन्दर जाने का रास्ता जरूर मालूम है, जहां कोई दूसरा नहीं पहुंच सकता।

इन्द्रजीतसिंह - तो फिर उसी जगह हम लोगों को क्यों नहीं ले चलती हो?

कमलिनी - (कुछ सोचकर) हां, मुझे अब याद आया, इतनी देर से व्यर्थ भटक रही हूं। अच्छा आप लोग मेरे पीछे-पीछे चले आइये।

सभी को साथ लिए हुए कमलिनी रवाना हुई। थोड़ी दूर जाने के बाद एक बन्द दरवाजा मिला। वह दरवाजा लोहे का था। मगर यह नहीं मालूम होता था कि वह किस तरह खुलेगा क्योंकि न तो उसमें कहीं ताली लगाने की जगह थी, और न कोई जंजीर या कुंडी ही दिखाई देती थी। दरवाजे की दोनों बगल दीवार में तीन-तीन हाथ ऊंचे दो हाथी बने हुए थे। ये हाथी चांदी के थे और इनके धड़ का अगला हिस्सा कुछ आगे की तरफ बढ़ा हुआ था। एक हाथी की सूंड में दूसरे हाथी की सूंड गुंथी थी। इन दोनों हाथियों के अगले एक-एक पैर आगे बढ़े और कुछ जमीन की तरफ इस प्रकार मुड़े हुए थे, जिसके देखने से मालूम होता था कि दो सफेद हाथी क्रोध में आकर सूंड मिला रहे हैं और लड़ने के लिए तैयार हैं।

कमलिनी - एक ग्रन्थ के पढ़ने से मुझे मालूम हुआ कि दरवाजा कमानी के सहारे से खुलता और बन्द होता है और इसकी कमानी इन दोनों हाथियों के पेट में है, जिस पर दोनों सूंडों के दबाने से दबाव पहुंचता है, अस्तु यहां ताकत का काम है। इस दोनों सूंडों को जोर के साथ यहां तक झुकाना और दबाना चाहिए कि दरवाजे के साथ लग जायें। मैं देखना चाहती हूं कि आपके ऐयारों में कितनी ताकत है।

देवीसिंह - अगर किसी आदमी के झुकाये यह झुक सकता है, तो पहले मुझे उद्योग करने दीजिए।

कमलिनी - आइये-आइये, लीजिये, मैं हट जाती हूं।

देवीसिंह ने दोनों सूंडों पर हाथ रखा और छाती से अड़ाकर जोर किया, मगर एक बित्ते से ज्यादा न दबा सके और दरवाजा दो हाथ की दूरी पर था, इसलिए दो हाथ दबाकर ले जाने की आवश्यकता थी। आखिर देवीसिंह यह कहते हुए पीछे हटे, ''यह राक्षसी काम है।''

इसके बाद और ऐयारों ने भी जोर किया, मगर देवीसिंह से ज्यादा काम न कर सके। तब कमलिनी कुमारों की तरफ देखकर हंसी और बोली, ''सिवाय आप दोनों के यह काम किसी तीसरे से न हो सकेगा!''

आनन्दसिंह - (इन्द्रजीतसिंह की तरफ देखकर) यदि आज्ञा हो तो मैं भी जोर करूं

इन्द्रजीतसिंह - क्या हर्ज है, तुम यह काम बखूबी कर सकते हो!

आज्ञा पाते ही कुंअर आनन्दसिंह ने दोनों सूंडों पर हाथ रखके जोर किया और पहले ही जोर में दरवाजे के साथ लगा दिया। यह हाल देखते ही लाडिली ने जोश में आकर कहा, ''वाह-वाह! कैद की मुसीबत उठाकर कमजोर होने पर भी यह हाल है!''

दरवाजे के साथ सूंडों का लगना था कि हाथियों के चिंघाड़ने की हलकी आवाज आई और दरवाजा जो एक ही पल्ले का था, सरसर करता जमीन के अन्दर घुस गया। कमलिनी ने आनन्दसिंह से कहा, ''अब सूंड को पीछे की तरफ हटाइये, मगर पहले सूंड के नीचे से या उसके ऊपर से लांघकर दूसरी तरफ निकल चलिए।

हाथ में कंदील लिए हुए पहले तारासिंह टप गये और दरवाजे के उस पार जा खड़े हुए, तब इन्द्रजीतसिंह दरवाजे के उस पार पहुंचे, उसके बाद कुंअर आनन्दसिंह जाना ही चाहते थे कि एक नई घटना ने सब खेल ही बिगाड़ दिया।

दरवाजे के उस पार एक आदमी न मालूम कब से छिपा बैठा था। उसने फुर्ती से आगे बढ़कर एक लात उस कन्दील में मारी जो तारासिंह के हाथ में थी। कंदील हाथ से छूटकर जमीन पर तो न गिरी मगर बुझ गई और एकदम अन्धकार हो गया। यद्यपि यह काम उसने बड़ी फुर्ती से किया, तथापि इन लोगों की निगाह उस पर पड़ ही गई, लेकिन उसकी असली सूरत नजर न पड़ी क्योंकि वह काला कपड़ा पहने और अपने चेहरे को नकाब से छिपाये हुए था।

अंधेरा होते ही उसने दूसरा काम किया। भुजाली उसके पास थी, जिसका एक भरपूर हाथ उसने कुंअर इन्द्रजीतसिंह के सिर पर जमाया। अंधेरे के सबब से निशाने में फर्क पड़ गया तो भी कुमार के बायें मोढ़े पर गहरी चोट बैठी। चोट खाते ही कुमार ने पुकारकर कहा, ''सब कोई होशियार रहना! दुश्मन के हाथ में हर्बा है और वह मुझे जख्मी भी कर चुका है!''

यह हाल देख और सुनकर कमलिनी ने झट अपने तिलिस्मी खंजर से काम लिया। हम ऊपर लिख आये हैं कि उसकी कमर में दो तिलिस्मी खंजर हैं। उसने एक खंजर हाथ में लेकर उसका कब्जा दबाया और उसमें से बिजली की तरह चमक पैदा हुई जिससे कमलिनी के सिवाय जो आदमी वहां थे, कोई भी उस चमक को न सह सका और सभी ने अपनी-अपनी आंखें बन्द कर लीं।

दरवाजे के उस पार भी उसी तरह की सुरंग थी। कमलिनी ने देखा कि दुश्मन अपना काम करके सामने की तरफ भागा जा रहा है, मगर इस खंजर की चमक ने उसे भी चौंधिया दिया था। जिसका नतीजा यह हुआ कि कमलिनी बहुत जल्द ही उसके पास जा पहुंची और खंजर उसके बदन से लगा दिया, जिसके साथ ही वह बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा। खंजर कमर में रखकर कमलिनी लौटी और उसने अपने बटुए में से सामान निकालकर एक मोमबत्ती जलाई तथा इतने में हमारे ऐयार लोग भी दरवाजे के दूसरी तरफ जा पहुंचे।

कुंअर इन्द्रजीतसिंह के मोढ़े से खून निकल रहा था। यद्यपि कुमार को उसकी कुछ पहवाह न थी और उनके चेहरे पर भी किसी प्रकार का रंज न मालूम होता था तथापि देवीसिंह ने जख्म बांधने का इरादा किया, मगर कमलिनी ने रोककर अपने बटुए में से किसी प्रकार के तेल की एक शीशी निकाली और अपने नाजुक हाथों से घाव पर तेल लगाया, जिससे तुरन्त ही खून बन्द हो गया। इसके बाद अपने आंचल में से थोड़ा कपड़ा फाड़कर जख्म बांधा। उसके अहसान ने कुंअर इन्द्रजीतसिंह को पहले ही अपना कर लिया था, अब उसकी मुहब्बत और हमदर्दी ने उन्हें अच्छी तरह अपने काबू में कर लिया।

इन्द्रजीतसिंह - (कमलिनी से) तुम्हारे अहसानों के बोझ से मैं दबा ही जाता हूं। (मुस्कुराकर और धीरे से) देखना चाहिए, सिर उठाने का दिन भी कभी आता है या नहीं।

कमलिनी - (मुस्कुराकर) बस, रहने दीजिये, बहुत बातें न बनाइये।

आनन्दसिंह - मालूम होता है, वह शैतान भाग गया।

कमलिनी - नहीं-नहीं, मेरे सामने से भागकर निकल जाना जरा मुश्किल है, आगे चलकर आप उसे जमीन पर बेहोश पड़ा हुआ देखेंगे।

इन्द्रजीतसिंह - इस समय तो तुमने वह काम किया है जिसे करामात कहना चाहिए!

कमलिनी - मैं बेचारी क्या कर सकती हूं, इस समय तो (खंजर की तरफ इशारा करके) इसने बड़ा काम किया।

इन्द्रजीतसिंह - बेशक यह अनूठी चीज है, इसकी चमक ने तो आंखें बन्द कर दीं, कुछ देख भी न सके कि तुमने क्या किया।

कमलिनी - यह तिलिस्मी खंजर है और इसमें बहुत से गुण हैं।

इन्द्रजीतसिंह - मैं सुनना चाहता हूं कि इस खंजर में क्या-क्या गुण हैं। बल्कि और भी कई बातें पूछना चाहता हूं मगर यकायक दुश्मन के पहुंचने से...।

कमलिनी - खैर, ईश्वर की मर्जी, मैं खूब जानती हूं कि सिवाय इस शैतान के और कोई यहां तक नहीं आ सकता, तिस पर भी इस दरवाजे को खोलने की इसे सामर्थ्य न थी, इसी से चुपचाप दुबका हुआ था। मगर फिर भी इसका यहां तक पहुंच जाना ताज्जुब मालूम होता है।

इन्द्रजीतसिंह - क्या तुम उसे पहचानती हो

कमलिनी - हां, कुछ-कुछ शक तो होता है मगर निश्चय किये बिना कुछ नहीं कह सकती।

इन्द्रजीतसिंह - जो हो, मगर अब हम लोगों को यहां से निकल चलने के लिए जल्दी करनी चाहिए।

कमलिनी - पहले इस दरवाजे को बन्द कर लीजिये नहीं तो इस राह से दुश्मन के आ पहुंचने का डर रहेगा।

दरवाजे के दूसरी तरफ भी उसी प्रकार के दो हाथी बने हुए थे। कमलिनी के कहे मुताबिक आनन्दसिंह ने जोर से सूंड को दरवाजे की तरफ हटाया जिससे उस तरफ वाले हाथियों की सूंड ज्यों-की-त्यों सीधी हो गई और दरवाजा भी बन्द हो गया।

इन्द्रजीतसिंह - मालूम होता है कि इस तरफ से कोई दरवाजा खोलना चाहे तो इन हाथियों की सूंडों को, जो इस समय दरवाजे के साथ लगी हुई हैं, अपनी तरफ खींचकर सीधा करना पड़ेगा और ऐसा करने से उस तरफ के हाथियों की सूंडें दरवाजे के पास आ लगेंगी।

कमलिनी - आपका सोचना बहुत ठीक है, वास्तव में ऐसा ही है।

इन्द्रजीतसिंह - अच्छा, अब यहां से चल देना चाहिए, चलते-चलते इस खंजर का गुण भी कहो जिसकी करामात मैं अभी देख चुका हूं।

कमलिनी - चलते-चलते कहने की कोई जरूरत नहीं, मैं इसी जगह अच्छी तरह समझाकर एक खंजर आपके हवाले करती हूं।

उस खंजर में जो-जो गुण था उसके विषय में ऊपर कई जगह लिखा जा चुका है, कमलिनी ने कुंअर इन्द्रजीतसिंह को सब समझाया और इसके बाद खंजर के जोड़ की अंगूठी उनके हाथ में पहनाकर एक खंजर उनके हवाले किया, जिसे पाकर कुमार बहुत प्रसन्न हुए।

लाडिली - (कमलिनी से) एक खंजर छोटे कुमार को भी देना चाहिए।

कमलिनी - (मुस्कुराकर) आपकी सिफारिश की कोई जरूरत नहीं है, मैं खुद एक खंजर छोटे कुमार को दूंगी।

आनन्दसिंह - कब?

कमलिनी - यह दूसरा खंजर उसी तरह का मेरे पास है। इसे मैं आपको अभी दे देती मगर इसलिए रख छोड़ा है कि आप ही के लिए इस घर में अभी कई तरह का काम करना है, शायद कभी दुश्मनों के...।

आनन्दसिंह - नहीं-नहीं, यह खंजर, जो तुम्हारे पास रह गया है, लेकर मैं तुम्हें खतरे में नहीं डाल सकता, कल-परसों या दस दिन में जब मौका हो तब मुझे देना।

कमलिनी - जरूर दूंगी, अच्छा अब यहां से चलना चाहिए।

दोनों कुमारों और ऐयारों को साथ लिये हुए कमलिनी वहां से रवाना हुई और उस ठिकाने पहुंची जहां वह शैतान बेहोश पड़ा हुआ था जिसने कन्दील बुझाकर कुमार को जख्मी किया था। चेहरे पर से नकाब हटाते ही कमलिनी चौंकी और बोली, ''हैं, यह तो कोई दूसरा ही है! मैं समझे हुए थी कि दारोगा, किसी तरह राजा वीरेन्द्रसिंह की कैद से छूटकर आ गया होगा, मगर इसे तो मैं बिल्कुल नहीं पहचानती। (कुछ रुककर) उसनेमेरे साथ दगा तो नहीं की! कौन ठिकाना, ऐसे आदमी का विश्वास न करना चाहिए, मगर मैंने तो उसके साथ...''

ऊपर लिखी बातें कह कमलिनी चुप हो गई और थोड़ी देर तक किसी गम्भीर चिन्ता में डूबी-सी दिखाई पड़ी। आखिर कुंअर इन्द्रजीतसिंह से रहा न गया, धीरे से कमलिनी की उंगली पकड़कर बोले -

इन्द्रजीतसिंह - तुम्हें इस अवस्था में देखकर मुझे जान पड़ता है कि शायद कोई नयी मुसीबत आने वाली है जिसके विषय में तुम कुछ सोच रही हो।

कमलिनी - हां, ऐसा ही है, मेरे कामों में विघ्न पड़ता दिखाई देता है। अच्छा मर्जी परमेश्वर की! आपके लिए कष्ट उठाना क्या, जान तक देने को तैयार हूं। (कुछ रुककर) अब देर करना उचित नहीं, यहां से निकल ही जाना चाहिए।

इन्द्रजीतसिंह - क्या मायारानी के अनूठे बाग के बाहर निकलने को कहती हो?

कमलिनी - हां।

इन्द्रजीतसिंह - मैं तो सोचे हुए था कि माता-पिता को छुड़ाकर तभी यहां से जाऊंगा।

कमलिनी - मैंने भी यही निश्चय किया था, परन्तु अब क्या किया जाय, सबके पहले अपने को बचाना उचित है, यदि आप ही आफत में फंसेंगे तो उन्हें कौन छुड़ायेगा!

इन्द्रजीतसिंह - यहां की अद्भुत बातों से मैं अनजान हूं इसलिए जो कुछ करने को कहोगी करना ही पड़ेगा, नहीं तो मेरी राय तो यहां से भागने की न थी, क्योंकि जब मेरे हाथ-पैर खुले हैं और सचेत हूं तो एक क्या पांच सौ से भी डर नहीं सकता। जिस पर तुम्हारा दिया हुआ यह अनूठा तिलिस्मी खंजर पाकर तो साक्षात् काल का भी मुकाबला करने से बाज न आऊंगा।

कमलिनी - आपका कहना ठीक है, मैं आपकी बहादुरी को अच्छी तरह जानती हूं, परन्तु इस समय नीति यही कहती है कि यहां से निकल जाओ।

इन्द्रजीतसिंह - अगर ऐसा ही है तो चलो मैं चलता हूं। (धीरे-से कान में) तुम्हारी बुद्धिमानी पर मुझे डाह होता है।

कमलिनी - (धीरे से) डाह कैसा?

इन्द्रजीतसिंह - (दो कदम आगे ले जाकर) डाह इस बात का कि वह बड़ा ही भाग्यशाली होगा जिसके तुम पाले पड़ोगी।

इसके जवाब में कमलिनी ने कुमार को एक हल्की चुटकी काटी और धीरे से कहा, ''मुझे तो तुमसे बढ़कर भाग्यशाली कोई दिखाई नहीं पड़ता मगर...!''

आह, कमलिनी की इस बात ने तो कुमार को फड़का दिया लेकिन इस 'मगर' शब्द ने भी बड़ा अंधेर किया जिसका सबब हमारे मनचले पाठक स्वयं समझ जायंगे क्योंकि वे कमलिनी और कुंअर इन्द्रजीतसिंह की पहली बातें अभी भूले न होंगे, जो तालाब के बीच वाले उस मकान में हुई थीं जहां कमलिनी रहा करती थी।

कमलिनी - (देवीसिंह से) इस आदमी को जो बेहोश पड़ा है उठाके ले चलना चाहिए।

देवीसिंह - हां-हां, इसे मैं उठाकर ले चलूंगा।

इन्द्रजीतसिंह - शायद हम लोगों को फिर लौटना पड़े क्योंकि बाहर निकलने का रास्ता पीछे छोड़ आये हैं।

कमलिनी - हां, सुगम रास्ता तो यही था मगर अब मैं उधर न जाऊंगी। कौन ठिकाना हाथी वाले दरवाजे के उस तरफ दुश्मन लोग आ गये हों, क्योंकि कैदखाने की दीवार आप तोड़ ही चुके हैं और उधर वाली सुरंग का मुंह खुला रहने के कारण किसी का आना कठिन नहीं है।

इन्द्रजीतसिंह - तब दूसरी राह कौन-सी है क्या उधर चलोगी जिधर से यह दुश्मन आया है

कमलिनी - नहीं, उधर भी दुश्मनों का गुमान है, आइये मैं एक और ही राह से ले चलती हूं।

आगे - आगे कमलिनी और उसके पीछे दोनों कुमार और ऐयार लोग रवाना हुए।

यहां भी दोनों तरफ दीवारों पर सुन्दर तस्वीरें बनी हुई थीं। दस-बारह कदम आगे जाने के बाद बगल की दीवार पर एक छोटा-सा खुला हुआ दरवाजा था जिसे देखकर कमलिनी ने इन्द्रजीतसिंह से कहा, ''यह आदमी इसी राह से आया होगा, क्योंकि अभी तक दरवाजा खुला हुआ है, मगर मैं दूसरी ही राह से चलूंगी जो जरा कठिन है।''

कुमार - मैं तो कहता हूं कि इसी राह से चलो। दरवाजे पर दस-पांच दुश्मन मिल ही जायंगे तो क्या होगा।

कमलिनी - खैर, तब चलिये।

सब कोई उस राह से बाहर हुए और कमलिनी ने उस दरवाजे को जो एक खटके के सहारे खुलता और बन्द होता था बन्द कर दिया। उस तरफ भी थोड़ी दूर सुरंग में ही जाना पड़ा। जब सुरंग का अन्त हुआ तो छोटी-छोटी सीढ़ियां ऊपर चढ़ने के लिए मिलीं। कमलिनी ने ऊपर की तरफ देखा और कहा, ''यहां का दरवाजा तो बन्द है।'' सबके आगे कमलिनी और फिर दोनों कुमार और ऐयार लोग ऊपर चढ़े। ये सीढ़ियां घूमती हुई ऊपर गई थीं, मालूम होता था कि किसी बुर्ज पर चढ़ रहे हैं।

जब सीढ़ियों का अन्त हुआ तो एक चक्कर पहिए की तरह बना हुआ दिखाई दिया जिसे कमलिनी ने चार-पांच दफे घुमाया। खटके की आवाज के साथ पत्थर की चट्टान अलग हो गई और सभी लोग उस राह से निकलकर बाहर मैदान में दिखाई देने लगे। बाहर सन्नाटा देखकर कमलिनी ने कहा, ''शुक्र है कि यहां हमारा दुश्मन कोई नहीं दिखाई देता।''

जिस राह से कुमार और ऐयार लोग बाहर निकले वह पत्थर का एक चबूतरा था, जिसके ऊपर महादेव का लिंग स्थापित था। चबूतरे के नीचे की तरफ का बगल वाला पत्थर खुलकर जमीन के साथ सट गया था और वही बाहर निकलने का रास्ता बन गया था। लिंग की बगल में तांबे का बड़ा-सा नन्दी (बैल) बना हुआ था और उसके मोढ़े पर लोहे का एक सर्प कुण्डली मारे बैठा था। कमलिनी ने सांप के सिर को दोनों हाथ से पकड़कर उभाड़ा और साथ ही नन्दी ने मुंह खोल दिया, तब कमलिनी ने उसके मुंह में हाथ डालकर कोई पेंच घुमाया। वह पत्थर की चट्टान जो अलग हो गई थी फिर ज्यों-की-त्यों हो गई और सुरंग का मुंह बन्द हो गया। कमलिनी ने सांप के फन को फिर दबा दिया और बैल ने भी अपना मुंह बन्द कर लिया।

इन्द्रजीतसिंह - (कमलिनी से) यह दरवाजा भी अजब तरह से खुलता और बन्द होता है।

कमलिनी - हां, बड़ी कारीगरी से बनाया गया है।

इन्द्रजीतसिंह - इसके खोलने और बन्द करने की तरकीब मायारानी को मालूम होगी!

कमलिनी - जी हां, बल्कि (लाडिली की तरफ इशारा करके) यह भी जानती है, क्योंकि बाग के तीसरे दर्जे में जाने के लिए यह भी एक रास्ता है जिसे हम तीनों बहिनें जानती हैं, मगर उस हाथी वाले दरवाजे का हाल, जिसे आपने खोला था, सिवाय मेरे और कोई भी नहीं जानता।

आनन्दसिंह - यह जगह बड़ी भयानक मालूम पड़ती है!

कमलिनी - जी हां, यह पुराना मसान है और गंगाजी भी यहां से थोड़ी ही दूर पर हैं। किसी जमाने में जब का यह मसान है, गंगाजी इसी जगह पास ही में बहती थीं मगर अब कुछ दूर हट गईं और इस जगह बालू पड़ गया है।

आनन्दसिंह - खैर, अब क्या करना और कहां चलना चाहिए?

कमलिनी - अब हमको गंगा पार होकर जमानिया में पहुंचना चाहिए। वहां मैंने एक मकान किराये पर ले रखा है जो बहुत ही गुप्त स्थान में है, उसी में दो-तीन दिन रहकर कार्रवाई करूंगी।

इन्द्रजीतसिंह - गंगा के पार किस तरह जाना होगा?

कमलिनी - थोड़ी ही दूर पर गंगा के किनारे एक किश्ती बंधी हुई है जिस पर मैं आई थी, मैं समझती हूं वह किश्ती अभी तक वहां ही होगी।

सबेरा होने में कुछ विलम्ब न था। मन्द-मन्द दक्षिणी हवा चल रही थी और आसमान पर केवल दस-पांच तारे दिखाई पड़ रहे थे जिनके चेहरे की चमक-दमक चला-चली की उदासी के कारण मन्द पड़ती जा रही थी, जबकि कमलिनी और कुमार इत्यादि सब कोई वहां से रवाना हुए और उसी किश्ती पर सवार होकर जिसका जिक्र कमलिनी ने किया था, गंगापार हो गये।

 

बयान - 3

मायारानी उस बेचारे मुसीबत के मारे कैदी को रंज, डर और तरद्दुद की निगाहों से देख रही थी जबकि यह आवाज उसने सुनी, ''बेशक मायारानी की मौत आ गई!'' इस आवाज ने मायारानी को हद्द से ज्यादा बेचैन कर दिया। वह घबड़ाकर चारों तरफ देखने लगी मगर कुछ मालूम न हुआ कि यह आवाज कहां से आई। आखिर वह लाचार होकर धनपत को साथ लिये हुए वहां से लौटी और जिस तरह वहां गई थी उसी तरह बाग के तीसरे दर्जे से होती हुई कैदखाने के दरवाजे पर पहुंची जहां अपने दोनों ऐयार बिहारीसिंह और हरनामसिंह को छोड़ गई थी। मायारानी को देखते ही बिहारीसिंह बोला -

बिहारीसिंह - आप हम लोगों को यहां व्यर्थ ही छोड़ गईं!

मायारानी - हां, अब मैं भी यही सोचती हूं क्योंकि अगर तुम दोनों को अपने साथ ले जाती तो इसी समय टण्टा तै हो जाता। यद्यपि धनपत मेरे साथ थी और तुम लोग भी जानते हो कि यह बहुत ताकतवर है तथापि मेरा हौसला न पड़ा कि उसे बाहर निकालती।

बिहारीसिंह - (चौंककर) तो क्या आप अपने कैदी को देखने के लिए चौथे दर्जे में गई थीं! मगर मैंने जो कुछ कहा वह कुछ दूसरे मतलब से कहा था।

मायारानी - हां, मैं उसी दुश्मन के पास गई थी जिसके बारे में चण्डूल ने मुझे होशियार किया था, मगर तुमने यह किस मतलब से कहा कि आप हम लोगों को यहां व्यर्थ ही छोड़ गई थीं?

बिहारीसिंह - मैंने इस मतलब से कहा कि हम लोग यहां बैठे-बैठे जान रहे थे कि इस कैदखाने के अन्दर ऊधम मच रहा है मगर कुछ कर नहीं सकते थे।

मायारानी - ऊधम कैसा?

बिहारीसिंह - इस कैदखाने के अन्दर से दीवार तोड़ने की आवाज आ रही थी, मालूम होता है कि कैदियों की हथकड़ी-बेड़ी किसी ने खोल दीं।

मायारानी - मगर तुम्हारी बातों से यह जाना जाता है कि अभी कैदी लोग इसके अन्दर ही हैं। मैं सोच रही थी कि जब ताली लेकर लाडिली चली गई तो कहीं कैदियों को भी छुड़ा न ले गई हो।

बिहारीसिंह - नहीं-नहीं, कैदी बेशक इसके अन्दर थे और आपके जाने के बाद कैदियों की बातचीत की कुछ-कुछ आवाज भी आ रही थी, कुछ देर बाद दीवार तोड़ने की आहट मालूम होने लगी, मगर अब मैं नहीं कह सकता कि कैदी इसके अन्दर हैं या निकल गये, क्योंकि थोड़ी देर से भीतर सन्नाटा-सा जान पड़ता है, न तो किसी की बातचीत की आहट मिलती है, न दीवार तोड़ने की।

मायारानी - (कुछ सोचकर) दीवार तोड़कर इस बाग के बाहर निकल जाना जरा मुश्किल है, मगर मुझे ताज्जुब मालूम होता है कि उन कैदियों की हथकड़ी-बेड़ी किसने खोली और दीवार तोड़ने का सामान उन्हें क्योंकर मिला! शायद तुम्हें धोखा हुआ हो।

बिहारीसिंह - नहीं-नहीं, मुझे धोखा नहीं हुआ, मैं पागल नहीं हूं!

हरनामसिंह - क्या हम लोग इतना भी नहीं पहचान सकते कि यह दीवार तोड़ने की आवाज है

मायारानी - (ऊंची सांस लेकर) हाय, न मालूम मेरी क्या दुर्दशा होगी! खैर, कैदियों के बारे में मैं पीछे सोचूंगी, पहले तुम लोगों से एक दूसरे काम में मदद लिया चाहती हूं!

बिहारीसिंह - वह कौन-सा काम है?

मायारानी - मैंने जिस काम के लिए उसे कैद किया था वह न हुआ और न आशा है कि वह कोई भेद बताएगा, अतः अब उसे मारकर टण्टा मिटाया चाहती हूं।

बिहारीसिंह - हां आपने उसे जिस तरह की तकलीफ दे रखी है उससे तो उसका मर जाना ही उत्तम है। हाय, वह बेचारा इस योग्य न था। हाय, आपकी बदौलत मेरे भी लोक-परलोक दोनों बिगड़ गये! ऐसे नेक और होनहार मालिक के साथ आपके बहकाने से जो कुछ मैंने किया उसका दुःख जन्म भर न भूलूंगा।

मायारानी - और उन नेकियों को याद न करोगे जो मैंने तुम्हारे साथ की थीं।

बिहारीसिंह - खैर, अब इस विषय पर हुज्जत करना व्यर्थ है। जब लालच में आकर बुरा काम कर ही चुके तो अब रोना काहे का है।

हरनामसिंह - मुझे भी इस बात का बहुत ही दुःख है, देखा चाहिए क्या होता है। आजकल जो कुछ देखने-सुनने में आ रहा है उसका नतीजा अवश्य ही बुरा होगा।

मायारानी - (लम्बी सांस लेकर) खैर जो होगा देखा जायेगा मगर इस समय यदि सुस्ती करोगे तो मेरी जान तो जायेगी ही तुम लोग भी जीते न बचोगे।

बिहारीसिंह - यह तो हम लोगों को पहले ही मालूम हो चुका है कि अब उन बुरे कर्मों का फल शीघ्र ही भोगना पड़ेगा मगर खैर आप यह कहिए कि हम लोग क्या करें जान बचाने की क्या कोई सूरत दिखाई पड़ती है?

मायारानी - मेरे साथ बाग के चौथे दर्जे में चलकर पहले उस कैदी को मारकर छुट्टी करो तो दूसरा काम बताऊं।

हरनामसिंह - नहीं-नहीं-नहीं, यह काम मुझसे न हो सकेगा। बिहारीसिंह से हो सके तो इन्हें ले जाइए। मैं उनके ऊपर हर्बा नहीं उठा सकता। नारायण-नारायण, इस अनर्थ का भी कोई ठिकाना है।

मायारानी - (चिढ़कर) हरनाम, क्या तू पागल हो गया है जो मेरे सामने ऐसी बेतुकी बातें करता है अदब और लिहाज को भी तूने एकदम चूल्हे में डाल दिया! क्या तू मेरी सामर्थ्य को भूल गया

हरनामसिंह - नहीं, मैं आपकी सामर्थ्य को नहीं भूला बल्कि आपकी सामर्थ्य ने स्वयं आपका साथ छोड़ दिया।

बिहारीसिंह और हरनामसिंह की बातें सुनकर मायारानी को क्रोध तो बहुत आया परन्तु इस समय क्रोध करने का मौका न देखकर वह तरह दे गयी। मायारानी बड़ी ही चालबाज और दुष्ट औरत थी, समय पड़ने पर वह एक अदने को बाप बना लेती और काम न होने पर किसी को एक तिनके बराबर भी न मानती। इस समय अपने ऊपर संकट आया हुआ जान उसने दोनों ऐयारों को किसी तरह राजी रखना ही उचित समझा।

मायारानी - क्यों हरनामसिंह, तुमने कैसे जाना कि मेरी सामर्थ्य ने मेरा साथ छोड़ दिया?

हरनामसिंह - वह तो इसी से जाना जाता है कि बेबस कैदी की जान लेने के लिए हम लोगों को ले जाना चाहती हो। उस बेचारे को तो एक अदना लड़का भी मार सकता है।

बिहारीसिंह - हरनामसिंह का कहना ठीक है, बाहर खड़े होकर आपके हाथ से चलाई हुई एक तीर उसका काम तमाम कर सकती है।

मायारानी - नहीं, यदि ऐसा होता तो मैं उसे बिना मारे लौट न आती। मेरे कई तीर व्यर्थ गये और नतीजा कुछ भी न निकला!

बिहारीसिंह - (चौंककर) सो क्यों?

मायारानी - उसके हाथ में एक ढाल है। न मालूम वह ढाल उसे किसने दी जिस पर वह तीर रोकर हंसता है और कहता है कि अब मुझे कोई मार नहीं सकता।

बिहारीसिंह - (कुछ सोचकर) अब अनर्थ होने में कोई सन्देह नहीं, यह काम बेशक चण्डूल का है। कुछ समझ में नहीं आता कि वह कौन कम्बख्त है?

मायारानी - अब सोच-विचार में विलम्ब करना उचित नहीं, जो होना था सो हो चुका, अब जान बचाने की फिक्र करनी चाहिए।

बिहारीसिंह - आपने क्या विचारा?

मायारानी - तुम लोग यदि मेरी मदद न करोगे तो मेरी जान न बचेगी और जब मुझ पर आफत आवेगी तो तुम लोग भी जीते न बचोगे।

बिहारीसिंह - हां, यह तो ठीक है, जान बचाने के लिए कोई-न-कोई उद्योग तो करना ही होगा।

मायारानी - अच्छा तो तुम लोग मेरे साथ चलो और जिस तरह हो उस कैदी को यमलोक पहुंचाओ। मुझे विश्वास हो गया कि उस कैदी की जान के साथ हम लोगों की आधी बला टल जायेगी और इसके बदले में मैं तुम दोनों को एक लाख दूंगी।

हरनामसिंह - काम तो बड़ा कठिन है!

यद्यपि बिहारीसिंह और हरनामसिंह अपने हाथ से उस कैदी को मारना नहीं चाहते थे, तथापि मायारानी की मीठी-मीठी बातों से और रुपये की लालच तथा जान के डर से वे लोग यह अनर्थ करने के लिए तैयार हो गये। धनपत और दोनों ऐयारों को साथ लिए हुए मायारानी फिर बाग के चौथे दर्जे की ओर रवाना हुई। सूर्य भगवान के दर्शन तो नहीं हुए थे मगर सबेरा हो चुका था और मायारानी के नौकर नींद से उठकर अपने-अपने कामों में लग चुके थे। लेकिन मायारानी का ध्यान उस तरफ कुछ न था, उस बेचारे कैदी की जान लेना ही सबसे जरूरी काम समझ रखा था।

थोड़ी ही देर में चारों आदमी बाग के चौथे दर्जे में जा पहुंचे और कुएं के अन्दर उतरकर उस कैदखाने में गये जिसमें मायारानी का वह अनूठा कैदी बन्द था। मायारानी को उम्मीद थी कि उस कैदी को फिर उसी तरह हाथ में ढाल लिए हुए देखेगी, मगर ऐसा न हुआ। उस जंगले वाली कोठरी का दरवाजा खुला हुआ था और उस कैदी का कहीं पता न था।

वहां की ऐसी अवस्था देखकर मायारानी अपने रंज और गम को सम्हाल न सकी और एकदम 'हाय' करके जमीन पर गिरकर बेहोश हो गई। धनपत और दोनों ऐयारों के भी होश जाते रहे, उनके चेहरे पीले पड़ गए और निश्चय हो गया कि अब जान जाने में कोई कसर नहीं है। केवल इतना ही नहीं बल्कि डर के मारे वहां ठहरना भी वे लोग उचित न समझते थे मगर बेहोश मायारानी को वहां से उठाकर बाग के दूसरे दर्जे में ले जाना भी कठिन काम था। इसलिए लाचार होकर उन लोगों को वहां ठहरना पड़ा।

बिहारीसिंह ने अपने बटुए में से लखलखा निकालकर मायारानी को सुंघाया और कोई अर्क उसके मुंह में टपकाया। थोड़ी देर में मायारानी होश में आई और पड़े-पड़े, नीचे लिखी बातें प्रलाप की तरह बकने लगी -

''हाय, आज मेरी जिन्दगी का दिन पूरा हो गया और मेरी मौत आ पहुंची। हाय, मुझे तो अपनी जान का धोखा उसी दिन हो चुका था, जिस दिन कम्बख्त नानक ने दरबार में मेरे सामने कहा था कि 'उस कोठरी की ताली मेरे पास है जिसमें किसी के खून से लिखी हुई किताब रखी है।'1 इस समय उसी किताब ने धोखा दिया। हाय, उस किताब के लिए नानक को छोड़ देना ही बुरा हुआ। यह काम उसी हरामजादे का है, लाडिली और धनपत के किए कुछ भी न हुआ। (धनपत की तरफ देखकर) सच तो यह है कि मेरी मौत तेरे ही सबब से हुई। तेरी ही मुहब्बत ने मुझे गारत किया, तेरे ही सबब से मैंने पाप की गठरी सिर पर लादी, तेरे ही सबब से मैंने अपना धर्म खोया, तेरे ही सबब से मैं बुरे कामों पर उतारू हुई, तेरे ही सबब से मैंने

1. देखिए चौथा भाग, सातवां बयान।

अपने पति के साथ बुराई की, तेरे ही सबब से मैंने अपना सर्वस्व बिगाड़ दिया। तेरे ही सबब से मैं वीरेन्द्रसिंह के लड़कों के साथ बुराई करने के लिए तैयार हुई, तेरे ही सबब से कमलिनी मेरा साथ छोड़कर चली गई, और तेरे ही सबब से आज मैं इस दशा को पहुंची। हाय, इसमें कोई सन्देह नहीं कि बुरे कर्मों का बुरा फल अवश्य मिलता है। हाय, मुझ-सी औरत जिसे ईश्वर ने हर प्रकार का सुख दे रखा था आज बुरे कर्मों की बदौलत ही इस अवस्था को पहुंची। आह, मैंने क्या सोचा था और क्या हुआ क्या बुरे कर्म करके भी कोई सुख भोग सकता है! नहीं-नहीं, कभी नहीं, दृष्टान्त के लिए स्वयं मैं मौजूद हूं!''

मायारानी न मालूम और भी क्या-क्या बकती मगर एक आवाज ने उसके प्रलाप में विघ्न डाल दिया और उसके होश-हवास दुरुस्त कर दिए। किसी तरफ से यह आवाज आई - ''अब अफसोस करने से क्या होता है, बुरे कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा।''

बहुत-कुछ विचारने और चारों तरफ निगाह दौड़ाने पर भी किसी की समझ में न आया कि बोलने वाला कौन या कहां है। डर के मारे सभी के बदन में कंपकंपी पैदा हो गई। मायारानी उठ बैठी और धनपत तथा दोनों ऐयारों को साथ लिए और कांपते हुए कलेजे पर हाथ रखे वहां से अपने स्थान अर्थात् बाग के दूसरे दर्जे की तरफ भागी।

 

 

बयान - 4

कमलिनी की आज्ञानुसार बेहोश नागर की गठरी पीठ पर लादे हुए भूतनाथ कमलिनी के उस तिलिस्मी मकान की तरफ रवाना हुआ जो एक तालाब के बीचोंबीच में था। इस समय उसकी चाल तेज थी और वह खुशी के मारे बहुत ही उमंग और लापरवाही के साथ बड़े-बड़े कदम भरता जा रहा था। उसे दो बातों की खुशी थी, एक तो उन कागजों को वह अपने हाथ से जलाकर खाक कर चुका था जिनके सबब से वह मनोरमा और नागर के आधीन हो रहा था और जिनका भेद लोगों पर प्रकट होने के डर से अपने को मुर्दे से भी बदतर समझे हुए था। दूसरे, उस तिलिस्मी खंजर ने उसका दिमाग आसमान पर चढ़ा दिया था, और ये दोनों बातें कमलिनी की बदौलत उसे मिली थीं, एक तो भूतनाथ पहले ही भारी मक्कार ऐयार और होशियार था, अपनी चालाकी के सामने किसी को कुछ गिनता ही न था, दूसरे आज खंजर का मालिक बनके खुशी के मारे अन्धा हो गया। उसने समझ लिया कि अब न तो उसे किसी का डर है और न किसी की परवाह।

अब हम उसके दूसरे दिन का हाल लिखते हैं जिस दिन भूतनाथ नागर की गठरी पीठ पर लादे कमलिनी के मकान की तरफ रवाना हुआ था। भूतनाथ अपने को लोगों की निगाहों से बचाते हुए आबादी से दूर-दूर जंगल, मैदान, पगडंडी और पेचीले रास्ते पर सफर कर रहा था। दोपहर के समय वह एक छोटी-सी पहाड़ी के नीचे पहुंचा जिसके चारों तरफ मकोय और बेर इत्यादि कंटीले और झाड़ी वाले पेड़ों ने एक प्रकार का हलका-सा जंगल बना रखा था। उसी जगह एक छोटा-सा 'चूआ'1 भी था और पास ही में जामुन का एक छोटा-सा पेड़ था। थकावट और दोपहर की धूप से व्याकुल भूतनाथ ने दो-तीन घण्टे के लिए वहां आराम करना पसन्द किया। जामुन के पेड़ के नीचे गठरी उतारकर रख दी और आप भी उसी जगह जमीन पर चादर बिछाकर लेट गया। थोड़ी देर बाद जब सुस्ती जाती रही तो उठ बैठा, कुएं के जल से हाथ-मुंह धोकर कुछ मेवा खाया जो उसके बटुए में था और इसके बाद लखलखा सुंघा नागर को होश में लाया। नागर होश में आकर उठ बैठी और चारों तरफ देखने लगी। जब सामने बैठे भूतनाथ पर नजर पड़ी तो समझ गई कि कमलिनी की आज्ञानुसार यह मुझे कहीं लिए जाता है।

नागर - यह तो मैं समझ ही गई कि कमलिनी ने मुझे गिरफ्तार कर लिया और उसी की आज्ञा से तू मुझे लिए जाता है, मगर यह देखकर मुझे ताज्जुब होता है कि कैदी होने पर भी मेरे हाथ-पैर क्यों खुले हैं और मेरी बेहोशी क्यों दूर की गई?

भूतनाथ - तेरी बेहोशी इसलिए दूर की गयी कि जिससे तू भी इस दिलचस्प मैदान और यहां की साफ हवा का आनन्द उठा ले। तेरे हाथ-पैर बंधे रहने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि अब मैं तेरी तरफ से होशियार हूं, तू मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती, दूसरे तेरे पास वह अंगूठी भी अब नहीं रही जिसके भरोसे तू फूली हुई थी, तीसरे (खंजर की तरफ इशारा करके) यह अनूठा खंजर भी मेरे पास मौजूद है, फिर किसका डर है इसके अलावा उन कागजों को भी मैं जला चुका जो तेरे पास थे और जिनके सबब से मैं तुम लोगों के आधीन हो रहा था।

नागर - ठीक है, अब तुझे किसी का डर नहीं है, मगर फिर भी मैं इतना कहे बिना न रहूंगी कि तू हम लोगों के साथ दुश्मनी करके कोई फायदा नहीं उठा सकता और राजा वीरेन्द्रसिंह तेरा कसूर कभी माफ न करेंगे।

भूतनाथ - राजा वीरेन्द्रसिंह अवश्य मेरा कसूर माफ करेंगे और जब मैं उन कागजों को जला ही चुका तो मेरा कसूर साबित भी कैसे हो सकता है?

नागर - ऐसा होने पर भी तुझे सच्ची खुशी इस दुनिया में नहीं मिल सकती और राजा वीरेन्द्रसिंह के लिए जान दे देने पर भी तुझे उनसे कुछ विशेष लाभ नहीं हो सकता।

भूतनाथ - सो क्यों वह कौन सच्ची खुशी है जो मुझे नहीं मिल सकती?

नागर - तेरे लिए सच्ची खुशी यही है कि तेरे पास इतनी धन-दौलत हो कि तू बेफिक्र होकर अमीरों की तरह जिन्दगी काट सके और तेरे पास तेरी वह प्यारी स्त्री भी हो जो काशी में रहती थी और जिसके पेट से नानक पैदा हुआ है।

भूतनाथ - (चौंककर) तुझे यह कैसे मालूम हुआ कि वह मेरी ही स्त्री थी?

1. 'चूआ' - छोटा-सा (हाथ दो हाथ का) गड़हा जिसमें से पहाड़ी पानी धीरे-धीरे दिन-रात बारहों महीना निकला करता है।

नागर - वाह-वाह, क्या मुझसे कोई बात छिपी रह सकती है मालूम होता है नानक ने तुझसे वह सब हाल नहीं कहा जो तेरे निकल जाने के बाद उसे मालूम हुआ था और जिसकी बदौलत नानक को उस जगह का पता लग गया जहां किसी के खून से लिखी हुई किताब रखी हुई थी।

भूतनाथ - नहीं, नानक ने मुझसे वह सब हाल नहीं कहा, बल्कि वह यह भी नहीं जानता कि मैं ही उसका बाप हूं, हां, खून से लिखी किताब का हाल मुझे मालूम है।

नागर - शायद वह किताब अभी तक नानक ही के कब्जे में है।

भूतनाथ - उसका हाल मैं तुझसे नहीं कह सकता।

नागर - खैर, मुझे उसके विषय में कुछ जानने की इच्छा भी नहीं है।

भूतनाथ - हां, तो मेरी स्त्री का हाल तुझे मालूम है?

नागर - बेशक मालूम है।

भूतनाथ - क्या अभी तक वह जीती है?

नागर - हां, जीती है मगर अब चार-पांच दिन के बाद जीती न रहेगी।

भूतनाथ - सो क्यों क्या बीमार है?

नागर - नहीं बीमार नहीं है, जिसके यहां वह कैद है उसी ने उसके मारने का विचार किया है।

भूतनाथ - उसे किसने कैद कर रखा है?

नागर - यह हाल तुझसे मैं क्यों कहूं जब तू मेरा दुश्मन है और मुझे कैदी बनाकर लिए जाता है तो मैं तेरे साथ नेकी क्यों करूं?

भूतनाथ - इसके बदले में मैं तेरे साथ कुछ नेकी कर दूंगा।

नागर - बेशक इसमें कोई सन्देह नहीं कि तू हर तरह से मेरे साथ नेकी कर सकता है और मैं भी तेरे साथ बहुत-कुछ भलाई कर सकती हूं, सच तो यह है कि तुझ पर मेरा दावा है।

भूतनाथ - दावा कैसा?

नागर - (हंसकर) उस चांदनी रात में मेरी चुटिया के साथ फूल गूंथने का दावा! उस मसहरी के नीचे रूठ जाने का दावा! नाखून के साथ खून निकालने का दावा! और उस कसम की सचाई का दावा जो रोहतासगढ़ जाती समय नरमी लिए हुए कठोर पिण्डी पर - ! क्या और कहूं!

भूतनाथ - बस-बस-बस, मैं समझ गया! विशेष कहने की कोई आवश्यकता नहीं है। वह सब कार्रवाई तुम्हीं लोगों की तरफ से हुई थी। जरूर नानक की मां के गायब होने के बाद तू ही उसकी शक्ल बनाके बहुत दिनों तक मेरे घर रही और तेरे ही साथ बहुत दिनों तक मैंने ऐश किया।

नागर - और अन्त में वह 'रिक्तग्रन्थ' तुमने मेरे ही हाथ में दिया था।

भूतनाथ - ठीक है, ठीक है, तो तेरा दावा मुझ पर अब उतना ही हो सकता है जितना किसी बेईमान और बेमुरौवत रण्डी का अपने यार पर।

नागर - खैर उतना ही सही, मैं रण्डी तो हूं ही, मुझे चालाक और अपने काम का समझकर मनोरमा ने अपनी सखी बना लिया और इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि उसकी बदौलत मैंने बहुत कुछ सुख भोगा।

भूतनाथ - खैर तो मालूम हुआ कि यदि तू चाहे तो मेरी स्त्री को मुझसे मिला सकती है

नागर - बेशक ऐसा ही है मगर इसके बदले में तू मुझे क्या देगा

भूतनाथ - (खंजर की तरफ इशारा करके) यह तिलिस्मी खंजर छोड़कर जो मांगे सो तुझे दूं।

नागर - मैं तेरा खंजर नहीं लेना चाहती, मैं केवल इतना ही चाहती हूं कि तू वीरेन्द्रसिंह की तरफदारी छोड़ दे और हम लोगों का साथी बन जा। फिर तुझे हर तरह की खुशी मिल सकती है। तू करोड़ों रुपये का धनी हो जायगा और दुनिया में बड़ी खुशी से अपनी जिन्दगी बितावेगा।

भूतनाथ - यह मुश्किल बात है, ऐसा करने से मेरी सख्त बदनामी ही नहीं होगी बल्कि मैं बड़ी दुर्दशा के साथ मारा जाऊंगा।

नागर - तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा, मैं खूब जानती हूं कि इस समय जिस सूरत में तुम हो वह तुम्हारी असली सूरत नहीं है और कमलिनी से तुम्हारी नई जान-पहचान है, जरूर कमलिनी तुम्हारी असली सूरत से वाकिफ न होगी इसलिए तुम सूरत बदलकर दुनिया में घूम सकते हो और कमलिनी तुम्हारा कुछ भी नहीं कर सकती।

भूतनाथ - (हंसकर) कमलिनी को मेरा सब भेद मालूम है और कमलिनी के साथ दगा करना अपनी जान के साथ दुश्मनी करना है क्योंकि वह साधारण औरत नहीं है। वह जितनी ही खूबसूरत है उतनी ही बड़ी चालाक, धूर्त, विद्वान और ऐयार भी है और साथ इसके नेक और दयावान भी। ऐसे के साथ दगा करना बुरा है। ऐसा करने से दूसरे की क्या कहूं, खास मेरा लड़का नानक ही मुझसे घृणा करेगा।

नागर - नानक जिस समय अपनी मां का हाल सुनेगा, बहुत ही प्रसन्न होगा बल्कि मेरा अहसान मानेगा, रहा तुम्हारा कमलिनी से डरना तो वह बहुत बड़ी भूल है, महीने-दो महीने के अन्दर ही तुम सुन लोगे कि कमलिनी इस दुनिया से उठ गई, और यदि तुम हम लोगों की मदद करोगे तो आठ ही दस दिन में कमलिनी का नाम-निशान मिट जायगा। फिर तुम्हें किसी तरह का डर नहीं रहेगा और तुम्हारे इस खंजर का मुकाबला करने वाला भी इस दुनिया में कोई न रहेगा। तुम विश्वास करो कि कमलिनी बहुत जल्दी मारी जायगी और तब उसका साथ देने से तुम सूखे ही रह जाओगे। मैं तुम्हें फिर समझाकर कहती हूं कि हम लोगों की मदद करो। तुम्हारी मदद से हम लोग थोड़े ही दिनों में कमलिनी, राजा वीरेन्द्रसिंह और उनके दोनों कुमारों को मौत की चारपाई पर सुला देंगे। तुम्हारी खूबसूरत प्यारी जोरू तुम्हारे बगल में होगी, करोड़ों रुपये की सम्पत्ति के तुम मालिक होगे और मैं भी तुम्हारी रण्डी बनकर तुम्हारी बगल गर्म करूंगी क्योंकि मैं तुम्हें दिल से चाहती हूं, और ताज्जुब नहीं कि तुम्हें विजयगढ़ का राज्य दिला दूं। मैं समझती हूं कि तुम्हें मायारानी की ताकत का हाल मालूम होगा।

भूतनाथ - हां-हां मैं मशहूर मायारानी को अच्छी तरह जानता हूं, परन्तु उसके गुप्त भेदों का हाल कुछ-कुछ सिर्फ कमलिनी की जुबानी सुना है अच्छी तरह नहीं मालूम।

नागर - उसका हाल मैं तुमसे कहूंगी, वह लाखों आदमियों को इस तरह मार डालने की कुदरत रखती है कि किसी को कानों-कान मालूम न हो। उसके एक जरा से इशारे पर तुम दीन-दुनिया से बेकार कर दिए गए, तुम्हारी जोरू छीन ली गई, और तुम किसी को मुंह दिखाने लायक न रहे। कहो, जो मैं कहती हूं वह ठीक है या नहीं?

भूतनाथ - हां ठीक है मगर इस बात को मैं नहीं मान सकता कि वह गुप्त रीति से लाखों आदमियों को मार डालने की कुदरत रखती है। अगर ऐसा ही होता तो वीरेन्द्रसिंह आदि को तथा मुझे मारने में कठिनता ही काहे की थी!

नागर - यह कौन कहता है कि वीरेन्द्रसिंह आदि के मारने में उसे कठिनता है! इस समय वीरेन्द्रसिंह, उनके दोनों कुमार, किशोरी, कामिनी और तेजसिंह आदि कई ऐयारों को उसने कैद कर रखा है, जब चाहे तब मार डाले, और तुम्हें तो वह ऐसा समझती है जैसे तुम एक खटमल हो, हां कभी-कभी उसके ऐयार धोखा खा जायं तो यह बात दूसरी है। यही सबब था कि रिक्तग्रंथ हम लोगों के हाथ में आकर इत्तिफाक से निकल गया, परन्तु क्या हर्ज है, आज ही कल में वह किताब फिर महारानी मायारानी के हाथ में दिखाई देगी। यदि तुम हमारी बात न मानोगे तो कमलिनी तथा वीरेन्द्रसिंह इत्यादि के पहले ही मारे जाओगे। हम तुमसे कुछ काम निकालना चाहते हैं इसलिए तुम्हें छोड़े जा रहे हैं। फिर जरा-सी मदद के बदले में क्या तुम्हें दिया जाता है, इस पर भी ध्यान दो और यह मत सोचो कि कमलिनी ने मुझे और मनोरमा को कैद कर लिया तो कोई बड़ा काम किया, इससे मायारानी का कुछ भी न बिगड़ेगा और हम लोग भी ज्यादा दिन तक कैद में न रहेंगे। जो कुछ मैं कह चुकी हूं उस पर अच्छी तरह विचार करो और कमलिनी का साथ छोड़ो, नहीं तो पछताओगे और तुम्हारी जोरू भी बिलख-बिलखके मर जायगी। दुनिया में ऐश-आराम से बढ़कर कोई चीज नहीं है सो सब-कुछ तुम्हें दिया जाता है, और यदि यह कहो कि तेरी बातों का मुझे विश्वास क्योंकर हो तो इसका जवाब अभी से यह देती हूं कि मैं तुम्हारी दिलजमई ऐसी अच्छी तरह से कर दूंगी कि तुम स्वयं कहोगे कि हां, मुझे विश्वास हो गया। (मुस्कुराकर और नखरे के साथ भूतनाथ की उंगली दबाकर) मैं तुम्हें चाहती हूं इसीलिए इतना कहती हूं, नहीं तो मायारानी को तुम्हारी कुछ भी परवाह न थी, तुम्हारे साथ रहकर मैं भी दुनिया का कुछ आनन्द ले लूंगी।

नागर की बातें सुनकर भूतनाथ चिन्ता में पड़ गया और देर तक कुछ सोचता रह गया। इसके बाद वह नागर की तरफ देखकर बोला, ''खैर, तुम जो कुछ कहती हो मैं करूंगा और अपनी प्यारी स्त्री के साथ तुम्हारी मुहब्बत की भी कदर करूंगा!''

इतना सुनते ही नागर ने झट भूतनाथ के गले में हाथ डाल दिया और तब दोनों प्रेमी हंसते हुए उस छोटी-सी पहाड़ी के ऊपर चढ़ गये।

 

बयान - 5

दिन दो पहर से कुछ ज्यादा चढ़ चुका है मगर मायारानी को खाने-पीने की कुछ भी सुध नहीं है। पल-पल में उसकी परेशानी बढ़ती ही जाती है। यद्यपि बिहारीसिंह, हरनामसिंह और धनपत ये तीनों उसके पास मौजूद हैं परन्तु समझाने-बुझाने की तरफ किसी का ध्यान नहीं। उसे कोई भी नहीं दिलासा देता, कोई धीरज भी नहीं बंधाता और कोई भी यह विश्वास नहीं दिलाता कि तुझ पर आई हुई बला टल जायेगी, यहां तक कि किसी के मुंह से यह भी नहीं निकलता कि सब्र कर, हम लोग ऐयारी के फन में होशियार हैं, कोई-न-कोई काम अवश्य करेंगे।

ऊपर के बयानों को पढ़कर पाठक समझ ही गये होंगे कि मायारानी की तरह उसकी सखी धनपत और उसके दोनों ऐयार बिहारीसिंह तथा हरनामसिंह किसी भारी पाप के बोझ से दबे हुए हैं और ऊपर की घटनाओं ने उन तीनों की भी जान सुखा दी है। ये तीनों ही बदहोश और परेशान हो रहे हैं, इन तीनों को भी अपनी-अपनी फिक्र पड़ी है, और इस समय इन तीनों के अतिरिक्त कोई चौथा आदमी मायारानी के सामने नहीं है, फिर उसे कौन समझावे-बुझावे इनके सिवाय कोई चौथा आदमी उसके भेदों को जानता भी नहीं और न वह किसी को अपना भेद बताने का साहस कर सकती है। मायारानी की उदासी से चारों तरफ उदासी फैली हुई है। लौंडियों, नौकरों और सिपाहियों को भी चिन्ता ने आकर घेर लिया और कोई भी नहीं जानता कि क्या हुआ या क्या होने वाला है।

बहुत देर तक चुप रहने के बाद बिहारीसिंह ने सिर उठाया और मायारानी की तरफ देखकर कहा -

बिहारीसिंह - एक तो वीरेन्द्रसिंह के ऐयार स्वयं धुरंधर हैं जिनका मुकाबला कोई कर नहीं सकता, दूसरे कमलिनी की मदद से उन लोगों का साहस और भी बढ़ गया है।

धनपत - इसमें कोई सन्देह नहीं कि आजकल जो खराबी हो रही है वह सब कमलिनी ही की बदौलत है जिसका हम लोग कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।

मायारानी - अफसोस, वह कम्बख्त इस तिलिस्मी बाग के अन्दर आकर अपना काम कर जाय और किसी को कानोंकान खबर न हो! हाय, न मालूम हम लोगों की क्या दुर्दशा होने वाली है! क्या करूं, कहां भागकर जाऊं, अपनी जान बचाने के लिए क्या उद्योग करूं?

धनपत - अभी एकदम से हताश न हो जाना चाहिए बल्कि देखना चाहिए कि इस मुनादी का क्या असर रिआया के दिल पर होता है।

मायारानी - हां, मुझे जरा फिर से समझा के कह तो सही कि मुनादी वाले को क्या कह के पुकारने की आज्ञा मेरी तरफ से दी गई है उस समय मैं आपे में बिल्कुल न थी इससे कुछ समझ में न आया।

धनपत - आपकी तरफ से मैंने दीवान साहब को हुक्म दिया जिसका बन्दोबस्त उन्होंने पूरा-पूरा किया। मेरे सामने ही उन्होंने चार डुग्गी वालों को तलब किया और समझाकर कह दिया कि वे लोग शहर भर में पुकारकर इस बात की मुनादी कर दें कि ''सरकारी ऐयारों को मालूम हुआ है कि वीरेन्द्रसिंह का एक ऐयार राजा गोपालसिंह की सूरत बनाकर शहर में आया है, जिन्हें बैकुण्ठ पधारे पांच वर्ष के लगभग हो चुके हैं और रियाया को भड़काना चाहता है। जो कोई उस कम्बख्त का सिर काटकर लावेगा उसे एक लाख रुपया इनाम दिया जायगा।''

मायारानी - ठीक है, मगर देखना चाहिए इसका नतीजा क्या निकलता है।

बिहारीसिंह - दो दिन के अन्दर ही अन्दर कुछ काम न चला तो समझ लेना चाहिए कि इस मुनादी का असर उलटा ही होगा।

मायारानी - खैर, जो कुछ नसीब में लिखा है भोगूंगी, इस समय बदहवास होने से तो काम नहीं चलेगा। मगर यह तो कहो कि तुम दोनों ऐयार ऐसी अवस्था में मेरी सहायता किस रीति से करोगे?

बिहारीसिंह - मेरे किये तो कुछ न होगा। मैं खूब समझ चुका हूं कि वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों तथा कमलिनी का मुकाबला मैं किसी तरह नहीं कर सकता। देखो, तेजसिंह ने मेरा मुंह ऐसा काला किया कि अभी तक रंग साफ नहीं होता। न मालूम उसे कैसे-कैसे मसाले याद हैं। इसके अतिरिक्त तुम्हें अपने लिए शायद कुछ उम्मीद हो, मगर मैं तो बिल्कुल ही नाउम्मीद हो चुका हूं और अब एक घंटे के लिए भी यहां ठहरना बुरा समझता हूं।

मायारानी - क्या तुम वास्तव में ऐसा ही करोगे जैसा कह चुके हो।

बिहारीसिंह - हां बेशक मैं अपनी राय पक्की कर चुका हूं। मैं इसी समय यहां से चला जाऊंगा और फिर मेरा पता कोई भी न लगा सकेगा।

मायारानी - (हरनामसिंह की तरफ देखके) और तुम्हारी क्या राय है?

हरनामसिंह - मेरी भी वही राय है जो बिहारीसिंह की है।

मायारानी - खूब समझ-बूझकर मेरी बातों का जवाब दो।

हरनामसिंह - जो कुछ समझना था समझ चुका।

मायारानी - (कुछ सोचकर) अच्छा मैं एक तरकीब बताती हूं, अगर उससे कुछ काम न चले तो फिर जो कुछ तुम्हारी समझ में आवे करना या जहां जी चाहे जाना।

बिहारीसिंह - अब उद्योग करना वृथा है, मेरे किए कुछ भी न होगा!

मायारानी - नहीं-नहीं, घबड़ाओ मत, तुम जानते हो कि मैं इस तिलिस्म की रानी हूं और इस तिलिस्म में बहुत-सी अद्भुत चीजें हैं। मैं तुम दोनों को एक चीज देती हूं जिसे देखकर और जिसका मतलब समझकर तुम दोनों स्वयं कहोगे कि ''कोई हर्ज नहीं, अब हम लोग बात की बात में लाखों आदमियों की जान ले सकते हैं।''

हरनामसिंह - बेशक तुम इस तिलिस्म की रानी हो और तुम्हारे अधिकार में बहुत-सी अनमोल चीजें हैं परन्तु जब तक हम लोग उस वस्तु को देख नहीं लेते जिसके विषय में तुम कह रही हो, तब तक किसी तरह का वादा नहीं कर सकते।

मायारानी - मैं भी तो यही कह रही हूं, तुम दोनों मेरे साथ चलो और उस चीज को खुद देख लो, फिर अगर मन भरे तो मेरा साथ दो, नहीं तो जहां जी चाहे चले जाओ।

हरनामसिंह - खैर, पहले देखें तो सही वह कौन-सी अनूठी चीज है, जिस पर तुम्हें इतना भरोसा है।

मायारानी - हां, तुम मेरे साथ चलो, मैं अभी वह चीज तुम दोनों के हवाले करती हूं।

मायारानी उठ खड़ी हुई और धनपत तथा दोनों ऐयारों को साथ लिए हुए वहां से रवाना हुई। बाग में घूमती वह उस बुर्ज के पास गई जो बाग के पिछले कोने में था और जिसमें लाडिली और कमलिनी की मुलाकात हुई थी। उस बुर्ज के बगल ही में एक और कोठरी स्याह पत्थर से बनी हुई थी मगर यह मालूम न होता था कि उसका दरवाजा किधर से है क्योंकि पिछली तरफ तो बाग की दीवार थी और बाकी तीनों तरफ वाली कोठरी की स्याह दीवारों में दरवाजे का कहीं कोई निशान न था। मायारानी ने बिहारी से कहा, ''कमन्द लगाओ क्योंकि हम लोगों को इस कोठरी की छत पर चलना होगा।'' बिहारीसिंह ने वैसा ही किया। सबके पहले मायारानी कमन्द के सहारे उस कोठरी पर चढ़ गई और उसके बाद धनपत और दोनों ऐयार भी उसी छत पर जा पहुंचे।

ऊपर जाकर दोनों ऐयारों ने देखा कि छत के बीचोंबीच में एक दरवाजा ठीक वैसा ही है जैसा प्रायः तहखानों के मुंह पर रहता है। वह दरवाजा लकड़ी का था मगर उस पर लोहे की चादर मढ़ी हुई थी और उसमें एक साधारण ताला लगा हुआ था। मायारानी ने हरनामसिंह से कहा, ''यह ताला मामूली है, इसे किसी तरह खोलना चाहिए।''

बिहारीसिंह ने ऐयारी के बटुए में से लोहे की एक टेढ़ी सलाई निकाली और उसे ताले के मुंह में डालकर ताला खोल डाला, इसके बाद दरवाजे का पल्ला हटाकर किनारे किया। मायारानी ने दोनों ऐयारों को अन्दर जाने के लिए कहा, मगर बिहारीसिंह ने इनकार किया और कहा, ''पहले आप इसके अन्दर उतरिये तब हम लोग इसके अन्दर जायेंगे क्योंकि यहां की अद्भुत बातों से हम लोग बहुत डर गये हैं।'' लाचार होकर मायारानी कमन्द के सहारे उस कोठरी के अन्दर उतर गई और इसके बाद धनपत और दोनों ऐयार भी नीचे उतर गये।

ऊपर का दरवाजा खुला रहने से कोठरी के अन्दर चांदना पहुंच रहा था। यह कोठरी लगभग बीस हाथ के चौड़ी और इससे कुछ ज्यादा लम्बी थी। यहां की जमीन लकड़ी की थी और उस पर किसी तरह का मसाला चढ़ा हुआ था। कोठरी के बीचो-बीच में एक छोटा-सा सन्दूक पड़ा हुआ था। धनपत का हाथ पकड़े मायारानी एक किनारे खड़ी हो गई और दोनों ऐयारों की तरफ देखकर बोली, ''तुम दोनों मिलकर इस सन्दूक को मेरे पास लाओ।''

हुक्म के मुताबिक दोनों ऐयार उस सन्दूक के पास गए, मगर सन्दूक का कुण्डा पकड़ के उठाने का इरादा किया ही था कि उस जमीन का वह गोल हिस्सा जिस पर दोनों ऐयार खड़े थे किवाड़ के पल्ले की तरह एक तरफ से अन्दर की तरफ यकायक धंस गया और वे दोनों ऐयार जमीन के अन्दर जा रहे, साथ ही एक आवाज ऐसी आई जिसके सुनने से धनपत को मालूम हो गया कि दोनों ऐयार नीचे जल की तह तक पहुंच गये।

इसके बाद जमीन का वह हिस्सा जो लकड़ी का था फिर बराबर हो गया और सन्दूक भी उसी तरह दिखाई देने लगा।

यह हाल देख धनपत डर के मारे कांपने लगी और मायारानी की तरफ देखके बोली, ''क्या यह कोई कुआं है'?

मायारानी - हां, यह कुआं है और ऐसे नमकहरामों को सजा देने के लिए बनाया गया है! दोनों बेईमान ऐयार मेरा साथ छोड़के अपनी जान बचाना चाहते थे। हरामजादे पाजी नालायक, अब अपनी सजा को पहुंचे।

धनपत - इतने दिनों तक आपके साथ रहने पर भी इस कुंए का हाल मुझे मालूम न था।

मायारानी - यहां के बहुत-से भेद अभी तुम्हें मालूम नहीं हैं, खैर, अब यहां से चलना चाहिए।

धनपत को साथ लिए मायारानी उस कोठरी के बाहर निकली और दरवाजा बन्द करने बाद कमन्द के सहारे उतरकर अपने खास सोने वाले कमरे में चली आई। मायारानी की लौंडियों ने मायारानी को दोनों ऐयारों और धनपत के साथ उस कोठरी की तरफ जाते देखा था मगर अब केवल धनपत को साथ लिए लौटते देख उनको ताज्जुब हुआ लेकिन डर के मारे कुछ पूछ न सकी।

संध्या का समय हो गया। मायारानी अपने कमरे में जाकर मसहरी पर लेट गई। उस समय बहुत-सी लौंडियां उसके सामने थीं मगर इशारा पाकर सब बाहर चली गईं केवल धनपत वहां रह गई।

धनपत - आपने बहुत जल्दी की, बेचारे ऐयारों की जान व्यर्थ ही गई।

मायारानी - वे दोनों कमीने इसी लायक थे। इसीलिए मैं उनसे बार-बार पूछ रही थी, जब देख लिया कि वे अपने विचार पर दृढ़ हैं तो लाचार...।

धनपत - खैर, जो कुछ हुआ सो अच्छा हुआ लेकिन अब क्या करना चाहिए अफसोस यह है कि ऐसे समय में बेचारी मनोरमा भी नहीं है।

मायारानी - (लम्बी सांस लेकर) हाय, बेचारी मनोरमा मेरी सच्ची सहायक थी पर उसे भी तेजसिंह ने गिरफ्तार कर लिया। इसी खबर के साथ नागर ने कहला भेजा था कि भूतनाथ के कागजात अपने साथ लेकर उसे छुड़ाने जाती हूं, मगर उस बात को भी बहुत दिन बीत गए और अभी तक मालूम न हुआ कि नागर के जाने का क्या नतीजा निकला। तेजसिंह ने उसे भी गिरफ्तार कर लिया हो तो ताज्जुब नहीं, सच तो यह है कि भूतनाथ को मारने में मनोरमा ने बड़ी जल्दी की।

धनपत - बेशक भूतनाथ को मारने में उसने बड़ी भूल की, भूतनाथ से बहुत-कुछ काम निकलने की आशा थी!

इतने ही में बाहर से आवाज आई, ''थी नहीं बल्कि है!'' मायारानी ने दरवाजे की तरफ देखा तो नागर पर निगाह पड़ी।

मायारानी - आह, इस समय तेरा आना बहुत ही अच्छा हुआ, आ, मेरे पास आकर बैठ।

नागर - (मायारानी के पास बैठकर) मैं देखती हूं कि आज आपकी अवस्था बिल्कुल बदली हुई है। कहिये मिजाज तो अच्छा है?

मायारानी - अच्छा क्या है बस दम निकलने की देर है।

नागर - (घबड़ाकर) सो क्यों?

मायारानी - अब आई है तो सब-कुछ सुन ही लेगी, पर पहले अपना हाल तो कह कि मेरी प्यारी सखी मनोरमा को छुड़ा लाई या नहीं और चौखट के अन्दर पैर रखते ही तूने यह क्या कहा कि 'थी नहीं बल्कि है!' क्या भूतनाथ मारा नहीं गया क्या वह खबर झूठ थी।

नागर - हां वह खबर झूठ थी, मनोरमा ने भूतनाथ की जान नहीं ली और न उसे तेजसिंह ने गिरफ्तार किया है बल्कि वह कमलिनी की कैदी है।

मायारानी - तो वह औरत जो मनोरमा की खबर लेकर तेरे पास आई थी, झूठी थी?

नागर - वह स्वयं कमलिनी थी, मनोरमा को कैद कर चुकी थी और मुझे भी गिरफ्तार किया चाहती थी, वह तो असल में भूतनाथ के कागजात ले लेने का बन्दोबस्त कर रही थी बल्कि यों कहना चाहिए कि मैं उसके धोखे में आ गई थी। उसने मुझे गिरफ्तार कर लिया और भूतनाथ के कुल कागजात भी मुझसे लेकर जला दिये।

मायारानी - यह बहुत ही बुरा हुआ, अब भूतनाथ बिल्कुल हम लोगों के कब्जे से बाहर हो गया, खैर जीता है यही बहुत है। यह कह कि तेरी जान कैसे बची?

इसके बाद नागर ने अपना पूरा-पूरा हाल मायारानी के सामने कहा और उसने बड़े गौर से सुना। अन्त में नागर ने कहा, ''इस समय भूतनाथ को अपने साथ ले आई हूं जो जी से हम लोगों की मदद करने के लिए तैयार है।''

यह सुनकर कि भूतनाथ अब हम लोगों का पक्षपाती हो गया और नागर के साथ आया है मायारानी बहुत ही खुश हुई और उसे एक प्रकार की आशा बंध गई। उसने धनपत की तरफ देखकर कहा, ''ताज्जुब नहीं कि अब वह बला मेरे सिर से टल जाय जिसके टलने की आशा न थी।''

नागर - आपने अपना हाल तो कुछ कहा ही नहीं! यह जानने के लिए मेरा जी बेचैन हो रहा है कि आप क्यों उदास हो रही हैं और आप पर क्या बला आई है?

मायारानी - थोड़ी देर में तुझे सब-कुछ मालूम हो जायगा, पहले भूतनाथ को मेरे पास बुला ला, मैं स्वयं उससे कुछ बात किया चाहती हूं!

नागर - नहीं-नहीं, पहले आप अपना कुल हाल मुझसे कहिये क्योंकि मेरी तबीयत घबड़ा रही है।

मायारानी ने अपना बिल्कुल हाल अर्थात् तेजसिंह का पागल बनके आना, उन्हें बाग के तीसरे दर्जे में कैद करना, चण्डूल का यकायक पहुंचना और उसकी अद्भुत बातें तथा लाडिली का दगा दे जाना आदि नागर से कहा, मगर अपने पुराने कैदी के छुड़ाने का और दोनों ऐयारों के मार डालने का हाल छुपा रखा, हां उसके बदले में इतना कहा कि ''वीरेन्द्रसिंह का एक ऐयार मेरे पति की सूरत बनाकर आया है जिन्हें मरे पांच वर्ष के लगभग हुए, उसी को गिरफ्तार करने के लिए बिहारीसिंह और हरनामसिंह गये हैं।''

नागर - मगर यह तो कहिए कि चण्डूल ने आपके तथा बिहारीसिंह और हरनामसिंह के कान में क्या कहा था?

मायारानी - बहुत पूछने पर भी बिहारीसिंह और हरनामसिंह ने नहीं बताया कि चण्डूल ने उनके कान में क्या कहा था।

नागर - और आपके कान में उसने क्या कहा?

मायारानी - मेरे कान में तो उसने केवल इतना ही कहा था कि 'आठ दिन के अन्दर ही यह राज्य इन्द्रजीतसिंह का हो जायगा और तू मारी जायगी।' खैर, जो होगा देखा जायगा, अब भूतनाथ को यहां ले आ, उससे मिलने की बहुत जरूरत है।

नागर - बहुत अच्छा, तो क्या इसी जगह बुला लाऊं?

मायारानी - हां-हां, इसी जगह बुला ला। वह तो ऐयार है, उससे पर्दा काहे का।

नागर कुछ सोचती-विचारती वहां से रवाना हुई और भूतनाथ को जिसे बाग के फाटक पर छोड़ गई थी, साथ लेकर बाग के अन्दर घुसी। पहरे वालों ने किसी तरह का उज्र न किया और भूतनाथ इस बाग की हर एक चीज को अच्छी तरह देखता और ताज्जुब करता हुआ मायारानी के पास पहुंचा। नागर ने मायारानी की तरफ इशारा करके कहा, ''यही हम लोगों की मायारानी हैं।'' और भूतनाथ ने यह कहकर कि ''मैं बखूबी पहचानता हूं'' मायारानी को सलाम किया।

मायारानी ने भूतनाथ की उतनी ही खातिरदारी और चापलूसी की जितनी कोई खुदगर्ज आदमी उसकी खातिरदारी करता है जिससे कुछ मतलब निकालने की आवश्यकता होती है।

मायारानी - तुम्हारी स्त्री तुम्हें मिल गई?

भूतनाथ - जी हां, मिल गई और यह उस इनाम का पहला नमूना है जो आपकी ताबेदारी करने पर मुझे मिलने की आशा है।

मायारानी - नागर ने जो कुछ प्रतिज्ञा तुमसे की है मैं अवश्य पूरी करूंगी बल्कि उससे बहुत ज्यादा इनाम हर एक काम के बदले में दिया करूंगी।

भूतनाथ - मैं दिलोजान से आपके काम में उद्योग करूंगा और कमलिनी को बुरा धोखा दूंगा। वह जितना मुझ पर विश्वास रखती है, उतना ही पछतायेगी। परन्तु आपको कई बातों का खयाल रखना चाहिए।

मायारानी - वह क्या?

भूतनाथ - एक तो जाहिर में मैं कमलिनी का दोस्त बना रहूंगा, जिससे उसे मुझ पर किसी तरह का शक न हो, यदि आपका कोई जासूस मेरे विषय में आपको इस बात का सबूत दे कि मैं कमलिनी से मिला हुआ हूं तो आप किसी तरह की चिन्ता न कीजियेगा।

मायारानी - नहीं, नहीं, ऐसी छोटी-छोटी बातें मुझे समझाने की जरूरत नहीं है, मैं खूब जानती हूं कि बिना उससे मिले किसी तरह पर काम न चलेगा।

भूतनाथ - बेशक-बेशक, और इसी वजह से मैं बहुत छिपकर आपके पास आया करूंगा।

मायारानी - ऐसा होना ही चाहिए और दूसरी बात कौन-सी है

भूतनाथ - दूसरे यह कि मुझसे आप अपने भेद न छिपाया कीजिये क्योंकि ऐयार का काम बिना ठीक-ठीक भेद जाने नहीं चल सकता।

मायारानी - मुझे तुम पर पूरा भरोसा है, इसलिए मैं अपना कोई भेद तुमसे न छिपाऊंगी।

भूतनाथ - अच्छा, अब एक बात मैं आपसे और कहूंगा।

मायारानी - कहो!

भूतनाथ - नागर की जुबानी यह तो आपको मालूम ही हुआ होगा कि काशी में मनोरमा के तिलिस्मी मकान के अन्दर किशोरी के रखने का हाल अब कमलिनी जान गई है।

मायारानी - हां, नागर वह सब हाल मुझसे कह चुकी है।

भूतनाथ - ठीक है, तो आपने यह भी विचारा होगा कि किशोरी को उस मकान से निकालकर किसी दूसरे मकान में रखना चाहिए।

मायारानी - हां, मेरी तो यही राय है।

भूतनाथ - मगर नहीं, आप किशोरी को उसी मकान में रहने दीजिये, इस बात की खबर मैं किशोरी के पक्षपातियों को दूंगा जिसे सुनकर वे लोग किशोरी को छुड़ाने की नीयत से अवश्य उस मकान के अन्दर जायेंगे, उस समय उन लोगों को ऐसे ढंग से फंसा लूंगा कि किसी को पता न लगेगा और न इसी बात का शक किसी को होगा कि मैं आपका तरफदार हूं।

मायारानी - तुम्हारी यह राय बहुत अच्छी है, मैं भी इसे पसन्द करती हूं और ऐसा ही करूंगी।

भूतनाथ - अच्छा तो अब आप यह बताइये कि कुंअर इन्द्रजीतसिंह वगैरह के साथ आपने क्या बर्ताव किया जो आपके यहां कैद हैं?

मायारानी - (ऊंची सांस लेकर) अफसोस, कमलिनी उन लोगों को यहां से छुड़ा ले गई और मेरी छोटी बहिन लाडिली भी मुझे धोखा दे गई जिसका खुलासा हाल मैं तुमसे कहती हूं।

मायारानी ने अपना कुल हाल जो नागर से कहा था, भूतनाथ को कह सुनाया। मगर, अपने पुराने कैदी का हाल और यह बात कि चण्डूल ने उसके कान में क्या कहा था, भूतनाथ से भी छिपा रखा और उसके बदले में वह कहा जो नागर से कहा था। मगर, भूतनाथ ने उस जगह मुस्करा दिया जिससे मायारानी समझ गई कि भूतनाथ को मेरी बातों में कुछ शक हुआ।

मायारानी - जो कुछ मैं कह चुकी हूं, उसमें एक बात झूठ थी और एक को मैंने छिपा लिया।

भूतनाथ - (हंसकर) वह बात शायद मुझसे कहने योग्य नहीं है!

मायारानी - हां, मगर अब तो मैं वायदा कर चुकी हूं कि तुमसे कोई बात न छिपाऊंगी। इसलिए यद्यपि उस बात का भेद अभी तक मैंने नागर को भी नहीं दिया, मगर तुमसे जरूर कहूंगी। परन्तु इसके पहले एक बात तुमसे पूछूंगी। क्योंकि बहुत देर से उसके पूछने की इच्छा लगी है, पर बातों का सिलसिला दूसरी तरफ हो जाने के कारण पूछ न सकी।

भूतनाथ - खैर, अब पूछ लीजिए।

मायारानी - मनोरमा को कमलिनी की कैद से छुड़ाने के लिए तुमने क्या विचारा है?

भूतनाथ - मनोरमा को यद्यपि मैं सहज ही छुड़ा सकता हूं, परन्तु उसे भी इस ढंग से छुड़ाना चाहता हूं कि कमलिनी को मुझ पर शक न हो। अगर जरा भी शक हो जायगा तो वह सम्हल जायगी क्योंकि वह बड़ी धूर्त और शैतान है।

मायारानी - सो तो ठीक है, मगर कोई बन्दोबस्त तो करना ही चाहिए।

भूतनाथ - हां-हां, उसका बन्दोबस्त बहुत जल्द किया जायगा।

मायारानी - अच्छा, तो अब वह भेद की बात भी तुमसे कहती हूं, जिसे मैं अभी तक बड़ी कोशिश से छिपाये हुए थी, यहां तक कि अपनी प्यारी सखी मनोरमा को भी उस समय से आज तक मैंने कुछ नहीं कहा था। (नागर की तरफ देखकर) लो, तुम भी सुन लो।

मायारानी दो घण्टे तक अपने गुप्त भेदों की बात भूतनाथ से कहती रही और वह गौर से सुनता रहा और अन्त में मायारानी को कुछ समझा-बुझाकर और इनाम में हीरे की एक माला पाकर वहां से रवाना हुआ।

 

बयान - 6

रात आधी जा चुकी है, चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है, हवा भी एकदम बन्द है, यहां तक कि किसी पेड़ की एक पत्ती भी नहीं हिलती। आसमान में चांद तो नहीं दिखाई देता, मगर जंगल मैदान में चलने वाले मुसाफिरों को तारों की रोशनी जो अब बहुतायत से दिखाई दे रहे हैं, काफी है। ऐसे समय में गंगा के किनारे-किनारे दो मुसाफिर तेजी के साथ जमानिया की तरफ जा रहे हैं। जमानिया अब बहुत दूर नहीं है और ये दोनों मुसाफिर शहर के बाहरी प्रान्त में पहुंच चुके हैं।

अब ये दोनों आदमी शहर के पास पहुंच गये। मगर शहर के अन्दर न जाकर बाहर-ही-बाहर मैदान के उस हिस्से की तरफ जाने लगे जिधर पुराने जमाने की आबादी का कुछ-कुछ निशान मौजूद था। यहां बहुत-से टूटे-फूटे मकानों के कोई-कोई हिस्से बचे हुए थे जो बदमाशों तथा चोरों के काम में आते थे। यहां की निस्बत शहर के कमजोर दिमाग वालों और डरपोक आदमियों में तरह-तरह की गप्पें उड़ा करती थीं। कोई कहता था कि वहां किसी जमाने में बहुत-से आदमी मारे गये हैं और वे लोग भूत होकर अभी तक मौजूद हैं और उधर से आने-जाने वालों को सताया करते हैं, कोई कहता था कि उस जमीन में जिन्नों ने अपना घर बना लिया है और जो कोई उधर से जाता है उसे मारकर अपनी जात में मिला लिया करते हैं, इत्यादि तरह-तरह की बातें लोग करते थे। मगर उन दोनों मुसाफिरों को जो इस समय उसी तरफ कदम बढ़ाये जा रहे हैं, इन बातों की कुछ परवाह न थी।

थोड़ी ही देर में ये दोनों आदमी जिनमें से एक बहुत ही कमजोर और थका हुआ जान पड़ता था, उस हिस्से में जा पहुंचे और खड़े होकर चारों तरफ देखने लगे। पास ही में एक पुराना मकान दिखाई दिया जो तीन हिस्से से ज्यादा टूट चुका था और उसके चारों तरफ जंगली पेड़ों और लताओं ने एक भयानक-सा दृश्य बना रखा था। उसी जगह एक आदमी टहलता हुआ नजर आया, जो इन दोनों को देखते ही पास आया और बोला, ''हमारे साथियों ने उस नियत जगह पर ठहरना उचित न जाना और राय पक्की हुई कि एक नाव पर सवार होकर सब लोग काशी की तरफ रवाना हो जायं और उसी जगह से अपनी कार्रवाई करें। वे लोग नाव पर सवार हो चुके हैं, कमलिनीजी यह कहकर मुझे इस जगह छोड़ गई हैं कि तेजसिंह राजा गोपालसिंह को साथ लेकर आवें तो उन्हें लिए हुए बालाघाट की तरफ, जहां हम लोगों की नाव खड़ी होगी, बहुत जल्द चले आना।''

पाठक समझ ही गये होंगे कि ये दोनों मुसाफिर तेजसिंह और राजा गोपालसिंह (मायारानी के पुराने कैदी) थे। हां उस आदमी का परिचय हम दिये देते हैं, जो उन दोनों को इस भयानक स्थान में मिला था। यह तेजसिंह के प्यारे दोस्त देवीसिंह थे।

देवीसिंह की बात को सुनकर तेजसिंह अपने साथी राजा गोपालसिंह को साथ लिए हुए वहां से रवाना हुए और थोड़ी देर में गंगा के किनारे पहुंचकर उस नाव पर जा सवार हुए, जिस पर कमलिनी, लाडिली, इन्द्रजीतसिंह, आनन्दसिंह, तारासिंह, भैरोसिंह और शेरसिंह सवार थे। वह किश्ती बहुत छोटी तो न थी, मगर हल्की और तेज जाने वाली थी। मालूम होता है कि उसको उन लोगों ने खरीद लिया था, क्योंकि उस पर कोई मल्लाह न था और केवल ऐयार लोग खेकर ले जाने के लिए तैयार थे। तेजसिंह को और राजा गोपालसिंह को देखते ही सब उठ खड़े हुए। कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने खातिर के साथ राजा गोपालसिंह को अपने पास बैठाकर किश्ती किनारे से हटाने की आज्ञा दी और बात की बात में नाव किनारा छोड़कर दूर दिखाई देने लगी।

इन्द्रजीतसिंह - (राजा गोपालसिंह से) मैं इस समय आपको अपने पास देखकर बहुत ही प्रसन्न हूं, ईश्वर ही ने आपकी जान बचाई।

गोपाल - मुझे अपने बचने की कुछ भी आशा न थी, यह तो बस आपके चरणों का प्रताप है कि कमलिनी वहां गई और उसे इत्तिफाक से मेरा हाल मालूम हो गया।

कमलिनी - मुझे आशा थी कि आपको साथ लिए तेजसिंह सूर्य निकलने के साथ ही हम लोगों से आ मिलेंगे, मगर दो दिन की देर हो गई और यह दो दिन का समय बड़ी मुश्किल से बीता क्योंकि हम लोगों को बड़ी चिन्ता इस बात की थी कि आपके आने में देर क्यों हुई। अब सबके पहले इस विलम्ब का कारण हम लोग सुना चाहते हैं।

गोपालसिंह - तेजसिंह जिस समय मुझे कैद से छुड़ाकर उस तिलिस्मी बाग के बाहर हुए उस समय उन्होंने राजा वीरेन्द्रसिंह का जिक्र किया और कहा कि हरामजादी मायारानी ने राजा वीरेन्द्रसिंह और रानी चन्द्रकांता को भी इस तिलिस्म में कहीं पर कैद कर रखा है जिनका पता नहीं लगता। यह सुनते ही मैं उन्हें साथ लिए हुए फिर उसी तिलिस्मी बाग में चला गया। जहां-जहां मैं जा सकता था, जाकर अच्छी तरह पता लगाया क्योंकि कैद से छूट जाने पर मैं बिल्कुल ही लापरवाह और निडर हो गया था।

इन्द्रजीतसिंह - यह काम आपने बहुत ही उत्तम किया। हां, तो उनका कहीं पता लगा?

गोपालसिंह - (सिर हिलाकर) नहीं, वह खबर बिल्कुल झूठी थी। उसने आप लोगों को धोखा देने के लिए अपने ही दो आदमियों को राजा वीरेन्द्रसिंह और रानी चन्द्रकांता की शक्ल बनाकर रंग के कैद कर रखा है।

कमलिनी - यह आपको कैसे निश्चय हुआ?

गोपालसिंह - हमने स्वयं उन दोनों को अच्छी तरह आजमाकर देख लिया।

इन्द्रजीतसिंह - यह खबर सुनकर हम लोगों को हद से ज्यादा खुशी हुई। अब हम लोग उनकी तरफ से निश्चिन्त हो गये और केवल किशोरी और कामिनी की फिक्र रह गई।

तेजसिंह - बेशक हम लोग उनकी तरफ से निश्चिन्त हो गये (राजा गोपालसिंह की तरफ इशारा करके) इनके साथ दो दिन तक उस बाग में रहने और गुप्त स्थानों में घूमने का मौका मिला। ऐसी-ऐसी चीजें देखने में आईं कि होश दंग हो गये। यद्यपि राजा वीरेन्द्रसिंह के साथ विक्रमी तिलिस्म में मैं बहुत कुछ तमाशा देख चुका हूं परन्तु अब यही कहते बन पड़ता है कि इस तिलिस्म के आगे उसकी कोई हकीकत न थी।

कमलिनी - यह उस तिलिस्म के राजा ही ठहरे, फिर इनसे ज्यादा वहां का हाल कौन जान सकता था और किसकी सामर्थ्य थी कि दो दिन तक उस बाग में आपको रखकर घुमाये वहां का जितना हाल ये जानते हैं उसका सोलहवां हिस्सा भी मायारानी नहीं जानती। ये बेचारे नेक और धर्मात्मा हैं, पर न मालूम क्योंकर उस कम्बख्त के धोखे में पड़ गये।

आनन्दसिंह - बेशक इनका किस्सा बहुत ही दिलचस्प होगा।

गोपालसिंह - मैं अपना अनूठा किस्सा आपसे कहूंगा जिसे सुनकर आप अफसोस करेंगे। (लाडिली की तरफ देखकर) क्यों लाडिली, तू अच्छी तरह से तो है

लाडिली - (गद्गद स्वर से) इस समय मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं! क्या स्वप्न में भी गुमान हो सकता था कि इस जिन्दगी में पुनः आपको देखूंगी यह दिन आज कमलिनी बहिन की बदौलत देखने में आया।

गोपालसिंह - बेशक-बेशक, और ये पांच वर्ष मैंने किस मुसीबत में काटे हैं, सो बस मैं ही जानता हूं (कमलिनी की तरफ देखकर) मगर, तुझे उस तिलिस्मी बाग के अन्दर घुसने का साहस कैसे हुआ?

कमलिनी - 'रिक्तग्रन्थ' मेरे हाथ लग गया इसी से मैं इतना काम कर सकी।

गोपालसिंह - ठीक है, तब तो तू मुझसे भी ज्यादा अब वहां का हाल जान गई होगी।

इन्द्रजीतसिंह - (चौंककर और कमलिनी की तरफ देखकर) क्या 'रिक्तग्रन्थ' तुम्हारे पास है

कमलिनी - (हंसकर) जी हां, मगर इससे यह न समझ लीजिएगा कि मैंने आपके यहां चोरी की थी।

तेजसिंह - नहीं, नहीं, मैं खूब जानता हूं, 'रिक्तग्रन्थ' का चोर कोई दूसरा ही है, आपको नानक की बदौलत वह किताब हाथ लगी।

कमलिनी - जी हां, जिस समय तिलिस्मी बाग में नानक अपना किस्सा आपसे कह रहा था, मैं छिपकर सुन रही थी।

इन्द्रजीतसिंह - नानक का किस्सा कैसा है?

तेजसिंह - मैं आपसे कहता हूं, जरा सब्र कीजिए।

इस समय उस किश्ती पर ये जितने आदमी थे, उनमें केवल इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को किशोरी और कामिनी का ध्यान था। तेजसिंह ने अपने पागल बनने का हाल और उसी बीच में नानक का किस्सा जितना उसकी जुबानी सुना था कह सुनाया। तेजसिंह के पागल बनने का हाल सुनकर सभी को हंसी आ गई। दोनों कुमारों ने नानक का बाकी हाल कमलिनी से पूछा, जिसके जवाब में कमलिनी ने कहा - ''यद्यपि नानक का कुछ हाल मुझे मालूम है। मगर मैं इस समय कुछ भी न कहूंगी, क्योंकि उसका किस्सा सुने बिना इस समय कोई हर्ज भी नहीं। हां, इस समय थोड़ा-सा अपना हाल मैं आपसे कहूंगी।''

कमलिनी ने भूतनाथ का, मनोरमा और नागर का तथा अपना हाल जितना हम ऊपर लिख आये हैं, सभी के सामने कहना शुरू किया। अपना हाल कहते-कहते जब कमलिनी ने मनोरमा के मकान का अद्भुत हाल कहना शुरू किया तो सभी को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और किशोरी की अवस्था पर इन्द्रजीतसिंह को रुलाई आ गई। उनके दिल पर बड़ा ही सदमा गुजरा, मगर तेजसिंह के लिहाज से जिन्हें वे चाचा के बराबर समझते थे, अपने को सम्हाला। गोपालसिंह ने बहुत दिलासा देकर कहा, ''आप लोग घबड़ाइये नहीं, कम्बख्त मनोरमा के मकान का पूरा-पूरा भेद मैं जानता हूं, इसलिए मैं बहुत जल्द किशोरी को उसकी कैद से छुड़ा लूंगा।''

लाडिली - कामिनी भी उसी के मकान में भेज दी गई है।

गोपालसिंह - यह और अच्छी बात है, 'एक पंथ दो काज' हो जायगा।

इन्द्रजीतसिंह - (कमलिनी से) अब यह 'रिक्तग्रन्थ' मुझे कब मिलेगा?

कमलिनी - वह मेरे पास है, उसी की बदौलत मैं आपको उस कैदखाने से छुड़ा सकी और उसी की बदौलत आपको तिलिस्म तोड़ने में सुगमता होगी, मैं बहुत जल्द वह किताब आपके हवाले करूंगी।

गोपालसिंह - (चारों तरफ देखके कमलिनी से) ओफ, बात ही बात में हम लोग बहुत दूर निकल आए! क्या तुम्हारा इरादा काशी चलने का है

कमलिनी - जी हां, हम लोगों ने तो यही इरादा कर लिया है कि काशी चलकर किसी गुप्त स्थान में रहेंगे और उसी जगह से अपनी कार्रवाई करेंगे।

गोपालसिंह - मगर मेरी राय तो कुछ दूसरी है।

कमलिनी - वह क्या मुझे विश्वास है कि आप बनिस्बत मेरे हमें बहुत अच्छी राय देंगे।

गोपालसिंह - यद्यपि मैं इस शहर जमानिया का राजा हूं और इस शहर को फिर कब्जे में कर सकता हूं, परन्तु पांच वर्ष तक मेरे मरने की झूठी खबर लोगों में फैली रहने के कारण यहां की रिआया के मन में बहुत कुछ फर्क पड़ गया होगा। यदि ऐसा न भी हो तो भी मैं अपने को जाहिर नहीं करना चाहता और न मायारानी को ही अभी जान से मारूंगा, क्योंकि यदि वह मर ही जायगी तो अपने किये का यथार्थ फल मेरे देखते कौन भोगेगा इसलिए मैं थोड़े दिनों तक छिपे रहकर ही उसे सजा देना उचित समझता हूं।

कमलिनी - जैसी मर्जी।

गोपालसिंह - (कमलिनी से) इसलिए मैं चाहता हूं कि कुंअर साहब अपना एक ऐयार मुझे दें, मैं उसे साथ लेकर काशी जाऊंगा और किशोरी तथा कामिनी को, जो मनोरमा के मकान में कैद हैं, बहुत जल्द छुड़ा लाऊंगा, तब तक तुम दोनों कुमारों और लाडिली को अपने साथ लेकर मायारानी के उस तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में जाकर देवमन्दिर में रहो। वहां खाने के लिए मेवों की बहुतायत है और पानी का चश्मा भी जारी है। मायारानी को तुम लोगों का हाल मालूम न होगा, क्योंकि उसे वह स्थान मालूम नहीं है और न वहां तक जा ही सकती है। उसी जगह रहकर दोनों कुमारों को एक-दो दफे 'रिक्तग्रंथ' शुरू से आखिर तक अच्छी तरह पढ़ जाना चाहिए। जो बातें इनकी समझ में न आवें, तुम समझा देना और इसी बीच में वहां की बहुत-सी अद्भुत बातें भी ये देख लेंगे, इसलिए कि इनको बहुत जल्द वह तिलिस्म तोड़ना होगा, जैसा कि हम बुजुर्गों की लिखी किताबों में देख चुके हैं, वह इन्हीं लोगों के हाथ से टूटेगा।

कमलिनी - बेशक-बेशक।

गोपालसिंह - और एक ऐयार को रोहतासगढ़ भेज दो कि वहां जाकर महाराज वीरेन्द्रसिंह को कुमारों के कुशल-मंगल का हाल कहे और थोड़ी-सी फौज अपने साथ ले आकर जमानिया के मुकाबिले में लड़ाई शुरू कर दे, मगर वह लड़ाई जोर के साथ शीघ्र बखेड़ा निपटाने की नीयत से न की जाय जब तक कि हम लोग दूसरा हुक्म न दें। बस इसके बाद जब मैं अपना काम करके अर्थात् किशोरी और कामिनी को छुड़ाकर लौटूंगा और तुमसे मिलूंगा तो जो कुछ मुनासिब होगा किया जायगा। हां देवमन्दिर में रहकर मौका मिले तो मायारानी को गुप्त रूप से छेड़ती रहना।

कमलिनी - आपकी राय बहुत ठीक है, मगर आप कैद की तकलीफ उठाने के कारण बहुत ही सुस्त और कमजोर हो रहे हैं, इतनी तकलीफ क्योंकर उठा सकेंगे।

गोपालसिंह - तुम इसकी चिन्ता मत करो! (कुमारों की तरफ देखकर) आप लोग मेरी राय पसन्द करते हैं या नहीं?

कुमार - बेशक आपकी राय उत्तम है।

कमलिनी - अच्छा तो अपना तिलिस्मी खंजर जिसका गुण आपसे कह चुकी हूं, आपको देती हूं, यह आपकी बहुत सहायता करेगा।

गोपालसिंह - हां बेशक, यह खंजर ऐसी अवस्था में मेरे साथ रहने योग्य है, मैं तुम्हें किसी तरह का खतरा नहीं पहुंचा सकता, इसलिए खंजर को मैं तुमसे जुदा न करूंगा।

इन्द्रजीतसिंह - उस खंजर का जोड़ा, जो कमलिनी ने मुझे दिया है, मैं आपको देता हूं, आप इसे अवश्य अपने साथ रखें।

गोपालसिंह - नहीं-नहीं, इसकी कोई आवश्यकता नहीं।

इतना कहकर इन्द्रजीतसिंह ने वह खंजर जबर्दस्ती गोपालसिंह के हवाले किया और किश्ती किनारे लगाने का हुक्म दिया।

गोपालसिंह - अच्छा तो मेरे साथ कौन ऐयार चलेगा?

इन्द्रजीतसिंह - जिसे आप पसन्द करें! केवल तेजसिंह चाचा को मैं अपने पास रखना चाहता हूं, इसलिए कि इनकी जुबानी उन घटनाओं का हाल सुनूंगा जो आपको कैद से छुड़ाने के समय हुई होंगी।

गोपालसिंह - (हंसकर) बेशक वे बातें सुनने योग्य हैं!

देवीसिंह - आपके साथ मैं चलूंगा।

गोपालसिंह - अच्छी बात है।

इन्द्रजीतसिंह - भैरोसिंह को रोहतासगढ़ भेजता हूं!

गोपालसिंह - बहुत मुनासिब, मगर तेजसिंह के अतिरिक्त और दोनों ऐयारों को अर्थात् तारासिंह और शेरसिंह को अपने साथ मत फंसाये रहियेगा।

इन्द्रजीतसिंह - नहीं-नहीं, उन दोनों को अपने रहने का ठिकाना दिखाकर छोड़ देंगे, ये दोनों चारों तरफ घूमकर खबर लगाते रहेंगे।

गोपालसिंह - और मैं भी यही चाहता हूं। (कमलिनी की तरफ देखकर) बाग के चौथे दर्जे में जो देवमन्दिर है, वहां जाने का रास्ता तुझे अच्छी तरह मालूम है या नहीं

कमलिनी - 'रिक्तग्रन्थ' की बदौलत वहां का रास्ता मैं अच्छी तरह जानती हूं। इतने में किश्ती किनारे लगी और सब कोई उतर पड़े।

 

बयान - 7

राजा गोपालसिंह और देवीसिंह को काशी की तरफ और भैरोसिंह को रोहतासगढ़ की तरफ रवाना करके कमलिनी अपने साथियों को साथ लिए हुए मायारानी के तिलिस्मी बाग की तरफ रवाना हुई। इस समय रात नाममात्र को बाकी थी। प्रायः सुबह को चलने वाली दक्षिणी हवा ताजी खिली हुई खुशबूदार फूलों की कलियों में से अपने हिस्से की सबसे पहली खुशबू लिए हुए अठखेलियां करती सामने से चली आ रही थी। हमारे बहादुर कुमार लोग भी धीरे-धीरे उसी तरफ जा रहे थे। यद्यपि मायारानी का तिलिस्मी बाग यहां से बहुत दूर था, मगर वह खूबसूरत बंगला जो चश्मे के ऊपर बना हुआ था और जिसमें पहले-पहल नानक और बाबाजी (मायारानी के दारोगा) से मुलाकात हुई थी, थोड़ी ही दूर पर था, बल्कि उसकी स्याही दिखाई दे रही थी। हमारे पाठक इस बंगले को भी भूले न होंगे और उन्हें यह बात भी याद होगी कि नानक रामभोली को ढूंढ़ता हुआ चश्मे के किनारे चलकर इसी बंगले में पहुंचा था और इसी जगह से बेबस करके मायारानी के दरबार में पहुंचाया गया था।

इन्द्रजीतसिंह - (कमलिनी से) सूर्योदय के पहले ही हम लोगों को अपना सफर पूरा कर लेना चाहिए क्योंकि दूसरे के राज्य में बल्कि यों कहना चाहिए कि एक दुश्मन के राज्य में लापरवाही के साथ घूमना उचित नहीं है।

कमलिनी - ठीक है, मगर हमें अब बहुत दूर जाना भी नहीं है। (हाथ का इशारा करके) वह जो मकान दिखाई देता है, बस वहीं तक चलना है।

लाडिली - वह तो दारोगा वाला बंगला है!

कमलिनी - हां, और मैं समझती हूं कि जब से कम्बख्त दारोगा कैद हो गया है तब से वह खाली ही रहता होगा।

लाडिली - हां, वह मकान आजकल बिल्कुल खाली पड़ा है। वहां से एक सुरंग मायारानी के बाग तक गयी है। मगर उसका हाल सिवाय दारोगा के और किसी को मालूम नहीं है और दारोगा ने आज तक उसका भेद किसी से नहीं कहा।

कमलिनी - ठीक है, मगर मुझे उस सुरंग से कोई मतलब नहीं, उस मकान के पास ही चश्मे के दूसरी तरफ एक टीला है, मैं वहां चलूंगी क्योंकि आज दिन भर उसी टीले पर बिताना होगा।

लाडिली - यदि मायारानी का कोई आदमी मिल गया तो?

कमलिनी - एक नहीं अगर दस भी हों तो क्या परवाह!

थोड़ी ही देर में यह मण्डली उस मकान के पास जा पहुंची, जिसमें दारोगा रहा करता था। कमलिनी ने चाहा कि उस मकान के बगल से होकर चश्मे के पार चली जाय और उस टीले पर पहुंचे, जहां जाने की आवश्यकता थी, मगर बंगले के बरामदे में एक लम्बे कद के आदमी को टहलते देख वह रुकी और उसी तरफ गौर से देखने लगी। कमलिनी के रुकने से दोनों कुमार और ऐयार लोग भी रुक गये और सभी का ध्यान उसी तरफ जा रहा। सवेरा तो हो चुका था, मगर इतना साफ नहीं हुआ था कि सौ कदम की दूरी से कोई किसी को पहचान सके।

उस आदमी ने भी कुंअर इन्द्रजीतसिंह की मण्डली को देखा और तेजी से इन लोगों की तरफ बढ़ा। कुछ पास आते ही कमलिनी ने उसे पहचाना और कहा, ''यह तो भूतनाथ है!'' भूतनाथ नाम सुनते ही शेरसिंह कांप उठा, मगर दिल कड़ा करके चुपचाप खड़ा रह गया।

कमलिनी - (भूतनाथ से) वाह-वाह-वाह! तुम्हारे भरोसे पर अगर कोई काम छोड़ दिया जाय तो वह बिलकुल ही चौपट हो जाय!

भूतनाथ - (हाथ जोड़कर) माफ कीजिएगा, मुझसे एक भूल हो गई और इसी सबब से मैं आज्ञानुसार काशी में आपसे मिल न सका।

कमलिनी - भूल कैसी?

भूतनाथ - नागर को लिए हुए मैं आपके मकान की तरफ जा रहा था। एक दिन तो बखूबी चला गया, दूसरे दिन जब बहुत थक गया तो एक पहाड़ी के नीचे घने जंगल में उसकी गठरी रखकर सुस्ताने के लिए जमीन पर लेट गया, यकायक कम्बख्त नींद ने धर दबाया और मैं सो गया। जब आंख खुली तो नागर को अपने पास न देखकर घबड़ा गया और उसे चारों तरफ ढूंढ़ने लगा, मगर कहीं पता न लगा।

कमलिनी - अफसोस!

भूतनाथ - कई दिन तक मैं ढूंढ़ता रहा, आखिर भेष बदल जब काशी में आया तो खबर लगी कि नागर अपने मकान में मौजूद है। इसके बाद मैं गुप्त रीति से मायारानी के तिलिस्मी बाग के चारों तरफ घूमने लगा, वहां पता लगा कि दोनों कुमार और उनके ऐयारों को, जिन्हें मायारानी ने कैद कर रखा था, कोई छुड़ाकर ले गया, मैं उसी समय समझ गया कि यह काम आपका है। बस, तभी से आपको ढूंढ़ रहा हूं। इस समय इत्तिफाक से इधर आ निकला।

कमलिनी - (कुछ सोचकर) तुम तो अपने को बड़ा होशियार लगाते हो, मगर वास्तव में कुछ भी नहीं हो! खैर, हम लोगों के साथ चले आओ।

भूतनाथ को भी साथ लिए हुए कमलिनी वहां से रवाना हुई और चश्मे के पास से होकर उस टीले के पास पहुंची जिसके ऊपर जाने का इरादा था। कमलिनी जब अपने साथियों को पीछे-पीछे आने के लिए कहकर टीले के ऊपर चढ़ने लगी, तब शेरसिंह ने टोक दिया और कहा, ''यदि कोई हर्ज न हो तो आप मेरी एक बात पहले सुन लीजिये।''

कमलिनी - आप जो कुछ कहेंगे, मैं पहले ही समझ गई, आप चिन्ता न कीजिये और चले आइये।

शेरसिंह - ठीक है, मगर जब तक मैं कुछ कह न लूंगा, जी न मानेगा।

कमलिनी - (हंसकर) अच्छा कहिये।

शेरसिंह को अपने साथ आने का इशारा करके कमलिनी टीले के दूसरी तरफ चली और दोनों कुमार, तेजसिंह, तारासिंह, लाडिली और भूतनाथ को टीले के ऊपर धीरे-धीरे चढ़ने के लिए कह गई। टीले के पीछे निराले में पहुंचने पर शेरसिंह ने अपने दिल का हाल कहना शुरू किया -

शेरसिंह - चाहे आप भूतनाथ को कैसा ही नेक और ईमानदार समझती हों, मगर मैं इतना कहे बिना नहीं रह सकता कि आप उस बेईमान शैतान पर भरोसा न कीजिये।

कमलिनी - मैं पहले ही समझ गई थी कि आप यही बात मुझसे कहेंगे। इसमें कोई सन्देह नहीं कि भूतनाथ ने जो कुछ काम किये हैं वे उसकी नेकनामी, ईमानदारी और ऐयारी में बट्टा लगाते हैं, परन्तु आप कोई तरद्दुद न कीजिए, मैं बड़े-बड़े बेईमानों से अपना मतलब निकाल लेती हूं, मेरे साथ वह अगर जरा भी दगा करेगा तो उसे बेकाम करके छोड़ दूंगी।

शेरसिंह - मैं समझता हूं कि आप उसका पूरा-पूरा हाल नहीं जानतीं।

कमलिनी - भूतनाथ यद्यपि तुम्हारा भाई है, मगर मैं उसका हाल तुमसे भी ज्यादा जानती हूं। तुम्हें अगर डर है तो इसी बात का कि यदि कुमारों को मालूम हो जायगा कि वह तुम्हारा भाई है तो तुम्हारी तरफ से उनका दिल मैला हो जायगा या भूतनाथ अगर कोई बुराई कर बैठेगा तो मुफ्त में तुम भी बदनाम किये जाओगे।

शेरसिंह - हां-हां, बस इसी सोच में मैं मरा जाता हूं!

कमलिनी - तो तुम निश्चिन्त रहो। तुम्हारे सिर कोई बदनामी न आवेगी, जो कुछ होगा मैं समझ लूंगी।

शेरसिंह - अख्तियार आपको है, मुझे जो कुछ कहना था कह चुका।

दोनों कुमार और उनके साथी लोग टीले पर चढ़ चुके थे, इसके बाद शेरसिंह को अपने साथ लिए हुए कमलिनी भी यहां जा पहुंची। टीले के ऊपर की अवस्था देखने से मालूम होता था कि किसी जमाने में वहां पर जरूर कोई खूबसूरत मकान बना हुआ होगा, मगर इस समय तो एक कोठरी के सिवाय वहां और कुछ भी मौजूद न था। यह कोठरी बीस-पच्चीस आदमियों के बैठने के योग्य थी। कोठरी के बीचोंबीच पत्थर का एक चबूतरा बना हुआ था और उसके ऊपर पत्थर ही का शेर बैठा था। कमलिनी ने उसी जगह सभी को बैठने के लिए कहा और भूतनाथ की तरफ देखकर बोली, ''इसी जगह से एक रास्ता मायारानी के तिलिस्मी बाग में गया है। तुम्हें छोड़ सब लोगों को लेकर मैं वहां जाऊंगी और कुछ दिनों तक उसी बाग में रहकर अपना काम करूंगी। तब तक के लिए एक दूसरा काम तुम्हारे सुपुर्द करती हूं, आशा है कि तुम बड़ी होशियारी से उस काम को करोगे।''

भूतनाथ - जो कुछ आज्ञा हो, मैं करने के लिए तैयार हूं, मगर इस समय सबसे पहले मैं दो-चार बातें आपसे कहना चाहता हूं, यदि आप एकान्त में सुनें तो ठीक है।

कमलिनी - कोई हर्ज नहीं, तुम जो कुछ कहोगे मैं सुनने के लिए तैयार हूं।

इतना कहकर भूतनाथ को साथ लिए कमलिनी उस कोठरी के बाहर निकल आई और दूसरी तरफ एक पत्थर की चट्टान पर बैठकर भूतनाथ से बातचीत करने लगी। दो घड़ी से ज्यादा दोनों में बातचीत होती रही, जिसे इस जगह लिखना हम मुनासिब नहीं समझते। अन्त में भूतनाथ ने अपने बटुए में से कलम-दवात और कागज का टुकड़ा निकालकर कमलिनी के सामने रख दिया। कमलिनी ने एक चीठी अपने बहनोई राजा गोपालसिंह के नाम लिखी और उसमें यह लिखा कि ''भूतनाथ को यह चीठी देकर हम तुम्हारे पास भेजते हैं। इसे बहुत ही नेक और ईमानदार समझना और हर एक काम में इसकी राय और मदद लेना। यदि यह किसी जगह ले जाये तो बेखटके चले जाना और यदि अपनी इच्छानुसार कोई काम करने के लिए कहे तो उसमें किसी तरह का शक न करना। मैं इससे अपना भेद नहीं छिपाती और इसे अपना विश्वासपात्र समझती हूं।'' इसके बाद हस्ताक्षर और निशान करके वह चीठी भूतनाथ के हवाले की और कहा कि ''बस तुम इसी समय मनोरमा के मकान की तरफ चले जाओ और राजा गोपालसिंह से मिलकर काम करो या जो मुनासिब हो करो मगर देखो, खूब होशियारी से काम करना, मामला बहुत नाजुक है और तुम्हारे ईमान में जरा-सा फर्क पड़ेगा तो मैं बहुत बुरी तरह पेश आऊंगी।''

''आप हर तरह से बेफिक्र रहिए!'' कहकर भूतनाथ टीले के नीचे उतर आया और देखते-देखते सामने के जंगल में घुसकर गायब हो गया।

 

बयान - 8

अपनी बहिन लाडिली, ऐयारों और दोनों कुमारों को साथ लेकर कमलिनी राजा गोपालसिंह के कहे अनुसार मायारानी के तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में जाकर देवमन्दिर में कुछ दिन रहेगी। वहां रहकर ये लोग जो कुछ करेंगे, उसका हाल पीछे लिखेंगे, इस समय तो भूतनाथ का कुछ हाल लिखकर हम अपने पाठकों के दिल में एक प्रकार का खुटका पैदा करते हैं।

भूतनाथ कमलिनी से विदा होकर सीधे काशीजी की तरफ नहीं गया, बल्कि मायारानी से मिलने के लिए उसके खास बाग (तिलिस्मी बाग) की तरफ रवाना हुआ और दो पहर दिन चढ़ने के पहले ही बाग के फाटक पर जा पहुंचा। पहरे वाले सिपाहियों में से एक की तरफ देखकर बोला, ''जल्द इत्तिला कराओ कि भूतनाथ आया है।'' इसके जवाब में उस सिपाही ने कहा, ''आपके लिए रुकावट नहीं है आप चले जाइए, जब दूसरे दर्जे के फाटक पर जाइएगा तो लौंडियों से इत्तिला कराइयेगा।''

भूतनाथ बाग के अन्दर चला गया। जब दूसरे दर्जे के फाटक पर पहुंचा, तो लौंडियों ने उसके आने की इत्तिला की और वह बहुत जल्द मायारानी के सामने हाजिर किया गया।

मायारानी - कहो भूतनाथ, कुशल से तो हो तुम्हारे चेहरे पर खुशी की निशानी पाई जाती है, इससे मालूम होता है कि कोई खुशखबरी लाये हो और तुम्हारे शीघ्र लौट आने का भी यही सबब है। तुम जो चाहो कर सकते हो! हां, क्या खबर लाये।

भूतनाथ - अब तो मैं बहुत कुछ इनाम लूंगा, क्योंकि वह काम कर आया हूं जो सिवा मेरे दूसरा कोई कर ही नहीं सकता था।

मायारानी - बेशक तुम ऐसे ही हो, भला कहो तो सही क्या कर आये?

भूतनाथ - वह बात ऐसी नहीं है कि किसी के सामने कही जाये।

मायारानी - (लौंडियों को चले जाने का इशारा करके) बेशक मुझसे भूल हुई कि इन सभी के सामने तुमसे खुशी का सबब पूछती थी। हां, अब तो सन्नाटा हो गया।

भूतनाथ - आपने अपने पति गोपालसिंह के लिए जो उद्योग किया था, वह तो बिल्कुल ही निष्फल हुआ। मैं अभी कमलिनी के पास से चला आ रहा हूं। उसे मुझ पर पूरा भरोसा और विश्वास है और वह मुझसे अपना कोई भेद नहीं छिपाती। उसकी जबानी जो कुछ मुझे मालूम हुआ है उससे जाना जाता है कि गोपालसिंह अभी किसी के सामने अपने को जाहिर नहीं करेगा बल्कि गुप्त रहकर ही आपको तरह-तरह की तकलीफें पहुंचावेगा और अपना बदला लेगा।

मायारानी - (कांपकर) बेशक वह मुझे तकलीफ देगा। हाय, मैंने दुनिया का सुख कुछ भी नहीं भोगा। खैर, तुम कौन-सी खुशखबरी सुनाने आये हो सो तो कहो।

भूतनाथ - कह तो रहा हूं - पर आप स्वयं बीच में टोक देती हैं तो क्या करूं। हां तो इस समय आपको सताने के लिए बड़ी-बड़ी कार्रवाइयां हो रही हैं और रोहतासगढ़ से फोज चली आ रही है क्योंकि गोपालसिंह और तेजसिंह ने कुमारों की दिलजमई करा दी है कि राजा वीरेन्द्रसिंह और रानी चन्द्रकांता को मायारानी ने कैद नहीं किया बल्कि धोखा देने की नीयत से दो आदमियों को नकली चन्द्रकांता और वीरेन्द्रसिंह बनाकर कैद किया है। अब कुंअर इन्द्रजीतसिंह के दो ऐयारों को साथ लेकर गोपालसिंह किशोरी और कामिनी को छुड़ाने के लिए मनोरमा के मकान में गये हैं।

मायारानी - बिना बोले रहा नहीं जाता! मैं न तो कुंअर इन्द्रजीतसिंह, आनन्द या उनके ऐयारों से डरती हूं और न रोहतासगढ़ की फौज से डरती हूं, मैं अगर डरती हूं तो केवल गोपालसिंह से बल्कि उसके नाम से, क्योंकि मैं उसके साथ बुराई कर चुकी हूं और वह मेरे पंजे से निकल गया है। खैर, यह खबर तो तुमने अच्छी सुनाई कि वह किशोरी और कामिनी को छुड़ाने के लिए मनोरमा के मकान में गया है। मैं आज ही यहां से काशीजी की तरफ रवाना हो जाऊंगी और जिस तरह होगा, उसे गिरफ्तार करूंगी!

भूतनाथ - नहीं-नहीं, अब आप उसे कदापि गिरफ्तार नहीं कर सकतीं, आप क्या बल्कि आप-सी अगर दस हजार एक साथ हो जायें तो उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं।

मायारानी - (चिढ़कर) सो क्यों?

भूतनाथ - कमलिनी ने उसे एक ऐसी अनूठी चीज दी है कि वह जो चाहे कर सकता है और आप उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं।

मायारानी - वह कौन ऐसी अनमोल चीज है?

इसके जवाब में भूतनाथ ने उस तिलिस्मी खंजर का हाल और गुण बयान किया जो कमलिनी ने कुंअर इन्द्रजीतसिंह को दिया था और कुंअर साहब ने गोपालसिंह को दे दिया था। अभी तक उस खंजर का पूरा हाल मायारानी को मालूम न था इसलिए उसे बड़ा ही ताज्जुब हुआ और वह कुछ देर तक सोचने के बाद बोली -

मायारानी - अगर ऐसा खंजर उसके हाथ लग गया है तो उसका कोई भी कुछ बिगाड़ नहीं सकता। बस मैं अपनी जिन्दगी से निराश हो गई। परन्तु मुझे विश्वास नहीं होता कि ऐसा तिलिस्मी खंजर कहीं से कमलिनी के हाथ लगा। यह असम्भव है, बल्कि ऐसा खंजर हो ही नहीं सकता। कमलिनी ने तुमसे झूठ कहा होगा।

भूतनाथ - (हंसकर) नहीं-नहीं, बल्कि उसी तरह का एक खंजर कमलिनी ने मुझे भी दिया है। (कमर से खंजर निकालकर और हर तरह पर दिखाकर) देखिये, यही है।

मायारानी - (ताज्जुब से) हां-हां, अब मुझे याद आया। नागर ने अपना और तुम्हारा हाल बयान किया था तो ऐसे खंजर का जिक्र किया था और मैं इस बात को बिल्कुल भूल गई थी। खैर तो अब मैं उस पर किसी तरह फतह नहीं पा सकती।

भूतनाथ - नहीं, घबड़ाइये मत, उसके लिए भी मैं बन्दोबस्त करके आया हूं।

मायारानी - वह क्या?

भूतनाथ ने वह कमलिनी वाली चीठी बटुए में से निकालकर मायारानी के सामने रखी जिसे पढ़ते हुए वह खुश हो गई और बोली, ''शाबाश भूतनाथ, तुमने बड़ा ही काम किया! अब तो तुम उस नालायक को मेरे पंजे में इस तरह फंसा सकते हो कि कमलिनी को तुम पर कुछ भी शक न होगा।

भूतनाथ - बेशक ऐसा ही होगा। मगर अब हम लोगों को अपनी राह बदल देनी पड़ेगी अर्थात् पहले जो यह बात सोची गई थी कि किशोरी को छुड़ाने के लिए जो कोई वहां जायेगा, उसे फंसाते जायेंगे, सो न करना पड़ेगा।

मायारानी - तुम जैसा कहोगे वैसा ही किया जायेगा, बेशक तुम्हारी अक्ल हम लोगों से तेज है। तुम्हारा खयाल बहुत ठीक है अगर उसे पकड़ने की कोशिश की जायेगी तो वह कई आदमियों को मारकर निकल जायेगा और फिर कब्जे में न आवेगा, और ताज्जुब नहीं कि इसकी खबर भी लोगों को हो जाये, जो हमारे लिए बहुत बुरा होगा।

भूतनाथ - हां, अतः आप एक चीठी नागर के नाम की लिखकर मुझे दीजिए और उसमें केवल इतना ही लिखिए कि किशोरी और कामिनी को निकाल ले जाने वाले से रोक-टोक न करे बल्कि तरह दे जाये और उस मकान के तहखाने का भेद मुझे बता दे, फिर जब ये दोनों किशोरी और कामिनी को ले जायेंगे तो उसके बाद मैं उन्हें धोखा देकर दारोगा वाले बंगले में जो नहर के ऊपर है ले जाकर झट फंसा लूंगा। वहां के तहखानों की ताली आप मुझे दे दीजिये। कमलिनी की जबानी मैंने सुना है कि वहां का तहखाना बड़ा ही अनूठा है, इसलिए मैं समझता हूं कि मेरा काम उस मकान से बखूबी चलेगा। जब मैं गोपालसिंह को वहां फंसा लूंगा तो आपको खबर दूंगा, फिर आप जो चाहे कीजियेगा!

मायारानी - बस-बस, तुम्हारी यह राय बहुत ठीक है, अब मुझे निश्चय हो गया कि मुराद पूरी हो जायेगी!

मायारानी ने दारोगा वाले बंगले तथा तहखाने की ताली भूतनाथ के हवाले करके उसे वहां का भेद बता दिया और भूतनाथ के कहे बमूजिब एक चीठी भी नागर के नाम की लिख दी। दोनों चीजें लेकर भूतनाथ वहां से रवाना हुआ और काशीजी की तरफ तेजी के साथ चल निकला।

 

बयान - 9

रात पहर भर से ज्यादा जा चुकी है। काशी में मनोरमा के मकान के अन्दर फर्श पर नागर बैठी हुई और उसके पास ही एक खूबसूरत नौजवान आदमी छोटे-छोटे तीन-चार तकियों का सहारा लगाये अधलेटा-सा पड़ा जमीन की तरफ देखता हुआ कुछ सोच रहा है। इन दोनों के सिवाय कमरे में कोई तीसरा नहीं है।

नागर - मैं फिर भी तुम्हें कहती हूं कि किशोरी का ध्यान छोड़ दो क्योंकि इस समय मौका समझकर मायारानी ने उसे आराम के साथ रखने का हुक्म दिया है।

जवान - ठीक है मगर मैं उसे किसी तरह की तकलीफ तो नहीं देता फिर उसके पास मेरा जाना तुमने क्यों बन्द कर दिया?

नागर - बड़े अफसोस की बात है कि तुम मायारानी की तरफ कुछ भी ध्यान नहीं देते! जब भी तुम किशोरी के सामने जाते हो वह जान देने के लिए तैयार हो जाती है। तुम्हारे सबब से वह सूखकर कांटा हो गई है। मुझे निश्चय है कि दो-तीन दफे अगर तुम और उसके सामने आओगे तो वह जीती न बचेगी क्योंकि उसमें अब बात करने की भी ताकत नहीं रही, और उसका मरना मायारानी के हक में बहुत ही बुरा होगा। जब तक किशोरी को यह निश्चय न होगा कि तुम इस मकान से निकाल दिए गए तब तक वह मुझसे सीधी तरह बात भी न करेगी। ऐसी अवस्था में मायारानी की आज्ञानुसार मैं उसे कैद रखने की अवस्था में भी क्योंकर खुश रख सकती हूं।

जवान - (कुछ चिढ़कर) यह बात तो तुम कई दफे कह चुकी हो फिर घड़ी-घड़ी क्यों कहती हो

नागर - खैर न सही, सौ की सीधी एक ही कहे देती हूं कि किशोरी के बारे में तुम्हारी मुराद पूरी न होगी और जहां तक जल्द हो सके तुम्हें मायारानी के पास चले जाना पड़ेगा।

जवान - यदि ऐसा ही है तो लाचार होकर मुझे मायारानी के साथ दुश्मनी करनी पड़ेगी। मैं उसके कई ऐसे भेद जानता हूं कि उन्हें प्रकट करने में उसकी कुशल नहीं है।

नागर - अगर तुम्हारी यह नीयत है तो तुम अभी जहन्नुम में भेज दिये जाओगे।

जवान - तुम मेरा कुछ भी नहीं कर सकतीं, मैं तुम्हारी जहरीली अंगूठी से डरने वाला नहीं हूं।

इतना कहकर नौजवान उठ खड़ा हुआ और कमरे के बाहर निकला ही चाहता था कि सामने का दरवाजा खुला और भूतनाथ आता हुआ दिखाई दिया। नागर ने जवान की तरफ इशारा करके भूतनाथ से कहा, ''देखो, इस नालायक को मैं पहरों से समझा रही हूं मगर कुछ भी नहीं सुनता और जान बूझकर मायारानी को मुसीबत में डालना चाहता है!'' इसके जवाब में भूतनाथ ने कहा, ''हां, मैं भी पिछले दरवाजे की तरफ खड़ा-खड़ा इस हरामजादे की बातें सुन रहा था!''

'हरामजादे' का शब्द सुनते ही उस नौजवान को क्रोध चढ़ आया और वह हाथ में खंजर लेकर भूतनाथ की तरफ झपटा। भूतनाथ ने चालाकी से उसकी कलाई पकड़ ली और कमरबन्द में हाथ डालके ऐसी अड़ानी मारी कि वह धम्म से जमीन पर गिर पड़ा। नागर दौड़ी हुई बाहर चली गई और एक मजबूत रस्सी ले आई जो उस नौजवान के हाथ-पैर बांधने के काम में आई। भूतनाथ उस नौजवान को घसीटता हुआ दूसरी कोठरी में ले गया और नागर भी भूतनाथ के पीछे-पीछे चली गई।

आधे घण्टे के बाद नागर और भूतनाथ फिर उसी कमरे में आये और दोनों प्रेमी मसनद पर बैठकर खुशी-खुशी हंसी-दिल्लगी की बातें करने लगे। अन्दाज से मालूम होता है कि ये दोनों उस नौजवान को कहीं कैद कर आये हैं।

थोड़ी देर तक हंसी-दिल्लगी होती रही, इसके बाद मतलब की बातें होने लगीं। नागर के पूछने पर भूतनाथ ने अपना हाल कहा और सबके पहले वह चीठी नागर को दिखाई जो राजा गोपालसिंह के लिए कमलिनी ने लिख दी थी, इसके बाद मायारानी के पास जाने और बातचीत करने का खुलासा हाल कहके वह दूसरी चीठी भी नागर को दिखाई जो मायारानी ने नागर के नाम की लिखकर भूतनाथ के हवाले की थी। यह सब हाल सुनकर नागर बहुत खुश हुई और बोली, ''यह काम सिवाय तुम्हारे और किसी से नहीं हो सकता था और यदि तुम मायारानी की चीठी न भी लाते तो भी तुम्हारी आज्ञानुसार काम करने को मैं तैयार थी।''

भूतनाथ - सो तो ठीक है, मुझे भी यही आशा थी, परन्तु यों ही एक चीठी तुम्हारे नाम की लिखा ली।

नागर - पर ताज्जुब है कि राजा गोपालसिंह और देवीसिंह आज के पहले से इस शहर में आए हुए हैं मगर अभी तक इस मकान के अन्दर उन दोनों के आने की आहट नहीं मिली। न मालूम वे दोनों कहां और किस धुन में हैं! खैर जो होगा देखा जायगा, अब यह कहिये कि आप क्या करना चाहते हैं

भूतनाथ - (कुछ देर तक सोचकर) अगर ऐसा है तो मुझे स्वयं उन दोनों को ढूंढ़ना पड़ेगा। मुलाकात होने पर दोनों को गुप्त रीति से इस मकान के अन्दर ले आऊंगा और किशोरी-कामिनी को छुड़ाकर यहां से निकल जाऊंगा, फिर धोखा देकर किशोरी और कामिनी को अपने कब्जे कर लूंगा, अर्थात् उन्हें कोई दूसरा काम करने के लिए कहकर किशोरी और कामिनी को रोहतासगढ़ पहुंचाने का वादा कर ले जाऊंगा और उस गुप्त खोह में जिसे मैं अपना मकान समझता हूं और तुम्हें दिखा चुका हूं अपने आदमियों के सुपुर्द करके गोपालसिंह से आ मिलूंगा और फिर उसे कैद करके मायारानी के पास पहुंचा दूंगा जिससे वह अपने हाथ से उसे मारकर निश्चिन्त हो जाय।

नागर - बस-बस, तुम्हारी राय बहुत ठीक है, अगर इतना काम हो जाय तो फिर क्या चाहिए! मायारानी से मुंहमांगा इनाम मिले क्योंकि इस समय वह राजा गोपालसिंह के सबब से बहुत ही परेशान हो रही है, यहां तक कि कुंअर इन्द्रजीतसिंह वगैरह के हाथ से तिलिस्म को बचाने का ध्यान तक भी उसे बिलकुल ही जाता रहा। यदि वह गोपालसिंह को मारके निश्चिंत हो जायं तो अपने से बढ़कर भाग्यवान दुनिया में किसी को नहीं समझेगी जैसा कि थोड़े दिन पहले समझती थी।

भूतनाथ - जो मैं कह चुका हूं वही होगा इसमें कोई सन्देह नहीं। अच्छा अब तुम इस मकान का पूरा-पूरा भेद मुझे बता दो जिससे किसी तहखाने, कोठरी, रास्ते या चोरदरवाजे का हाल मुझसे छिपा न रहे।

नागर - बहुत अच्छा, चलिए उठिए, जहां तक हो सके इस काम से भी जल्द ही निपट लेना चाहिए।

नागर ने उस मकान का पूर-पूरा भेद भूतनाथ को बता दिया, हर एक कोठरी, तहखाना, रास्ता और चोरदरवाजा तथा सुरंग दिखा दिया और उनके खोलने और बन्द करने की विधि भी बता दी। इस काम से छुट्टी पाकर भूतनाथ नागर से बिदा हुआ और राजा गोपालसिंह तथा देवीसिंह की खोज में चारों ओर घूमने लगा।

 

बयान - 10

दूसरे दिन आधी रात जाते-जाते भूतनाथ फिर उसी मकान में नागर के पास पहुंचा। इस समय नागर आराम से सोई न थी बल्कि न मालूम किस धुन और फिक्र में मकान की पिछली तरफ नजरबाग में टहल रही थी। भूतनाथ को देखते ही वह हंसती हुई पास आई और बोली -

नागर - कहो, कुछ काम हुआ

भूतनाथ - काम तो बखूबी हो गया, उन दोनों से मुलाकात भी हुई और जो कुछ मैंने कहा दोनों ने मंजूर भी किया। कमलिनी की चीठी जब मैंने गोपालसिंह के हाथ में दी तो वे पढ़कर बहुत खुश हुए और बोले, ''कमलिनी ने जो कुछ लिखा है मैं उसे मंजूर करता हूं। वह तुम पर विश्वास रखती है तो मैं भी रखूंगा और जो कुछ कहोगे वही करूंगा।''

नागर - बस सब काम बखूबी बन गया, अच्छा अब क्या करना चाहिए

भूतनाथ - जाकर किवाड़ बन्द करके सो रहो और सिपाहियों को भी हुक्म दे दो कि आज कोई सिपाही पहरा न दे बल्कि सब आराम से सो रहें, यहां तक कि अगर किसी को इस बाग में देखें भी तो चुपके हो रहें।

नागर ''बहुत अच्छा'' कहकर अपने कमरे में चली गई और भूतनाथ के कहे मुताबिक सिपाहियों को हुक्म देकर अपने कमरे का दरवाजा बन्द करके चारपाई पर लेट रही। भूतनाथ उसी बाग में घूमता-फिरता पिछली दीवार के पास जहां एक चोरदरवाजा था जा पहुंचा और उसी जगह बैठकर किसी के आने की राह देखने लगा।

आधे घण्टे तक सन्नाटा रहा, इसके बाद किसी ने दरवाजे पर दो दफे हाथ से थपकी लगाई। भूतनाथ ने उठकर झट दरवाजा खोल दिया और दो आदमी उस राह से आ पहुंचे। बंधे हुए इशारे के होने से मालूम हो गया कि ये दोनों राजा गोपालसिंह और देवीसिंह हैं। भूतनाथ उन दोनों को अपने साथ लिए हुए धीरे-धीरे कदम रखता हुआ नजरबाग के बीचोंबीच आया जहां एक छोटा-सा फव्वारा था।

गोपालसिंह - (भूतनाथ से) कुछ मालूम है कि इस समय किस तरफ पहरा पड़ रहा है?

भूतनाथ - कहीं भी पहरा नहीं पड़ता चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। इस मकान में जितने आदमी रहते हैं सभी को मैंने बेहोशी की दवा दे दी है और सब के सब उठने के लिए मुर्दों से बाजी लगाकर पड़े हैं।

गोपालसिंह - तब तो हम लोग बड़ी लापरवाही से अपना काम कर सकते हैं?

भूतनाथ - बेशक!

गोपालसिंह - अच्छा मेरे पीछे-पीछे चले आओ। (हाथ का इशारा करके) हम उस हम्माम की राह तहखाने में घुसा चाहते हैं। क्या तुम्हें मालूम है कि इस समय किशोरी और कामिनी किस तहखाने में कैद हैं

भूतनाथ - हां, जरूर मालूम है। किशोरी और कामिनी दोनों एक ही साथ 'वायु-मण्डप' में कैद हैं।

गोपालसिंह - तब तो हम्माम में जाने की कोई जरूरत नहीं, अच्छा तुम ही आगे चलो।

भूतनाथ आगे - आगे रवाना हुआ और उसके पीछे राजा गोपालसिंह और देवीसिंह चलने लगे। तीनों आदमी उत्तर तरफ के दालान में पहुंचे जिसके दोनों तरफ दो कोठरियां थीं और इस समय दोनों कोठरियों का दरवाजा खुला हुआ था। तीनों आदमी दाहिनी तरफ वाली कोठरी में घुसे और अन्दर जाकर कोठरी का दरवाजा बन्द कर लिया। बटुए में से सामान निकालकर मोमबत्ती जलाई और देखा कि सामने दीवार में एक आलमारी है जिसका दरवाजा एक खटके पर खुला करता था। भूतनाथ उस दरवाजे को खोलना जानता था इसलिए पहले उसी ने खटके पर हाथ रखा। दरवाजा खुल जाने पर मालूम हुआ कि उसके अन्दर सीढ़ियां बनी हुई हैं। तीनों आदमी उस सीढ़ी की राह से नीचे तहखाने में उतर गये और एक कोठरी में पहुंचे जिसका दूसरा दरवाजा बन्द था। भूतनाथ ने उस दरवाजे को भी खोला और तीनों आदमियों ने दूसरी कोठरी में पहुंचकर देखा कि एक चारपाई पर बेचारी किशोरी पड़ी हुई है, सिरहाने की तरफ कामिनी बैठी धीरे-धीरे उसका सिर दबा रही थी। कामिनी का चेहरा जर्द और सुस्त था मगर किशोरी तो वर्षों की बीमार जान पड़ती थी। जिस चारपाई पर वह पड़ी थी उसका बिछावन बहुत मैला था, और उसी के पास एक दूसरी चारपाई बिछी हुई थी जो शायद कामिनी के लिए हो। कोठरी के एक कोने में पानी का घड़ा, गिलास और कुछ खाने का सामान रखा हुआ था।

किशोरी और कामिनी देवीसिंह को बखूबी पहचानती थीं मगर भूतनाथ को केवल कामिनी ही पहचानती थी, जब कमला के साथ शेरसिंह से मिलने के लिए कामिनी उस तिलिस्मी खंडहर में गई थी तब उसने भूतनाथ को देखा था और यह भी जानती थी कि भूतनाथ को देखकर शेरसिंह डर गया था मगर इसका सबब पूछने पर भी उसने कुछ न कहा था। इस समय वह फिर उसी भूतनाथ को यहां देखकर डर गई और जी में सोचने लगी कि एक बला में तो फंसी ही थी यह दूसरी बला कहां से आ पहुंची, मगर उसी के साथ देवीसिंह को देख उसे कुछ ढाढ़स हुई और किशोरी को तो पूरी उम्मीद हो गई कि ये लोग हमको छुड़ाने ही आये हैं। वह भूतनाथ और राजा गोपालसिंह को पहचानती न थी मगर सोच लिया कि शायद ये दोनों भी राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयार होंगे। किशोरी यद्यपि बहुत ही कमजोर बल्कि अधमरी-सी हो रही थी मगर इस समय यह जानकर कि कुंअर इन्द्रजीतसिंह के ऐयार हमें छुड़ाने आ गये हैं और अब शीघ्र ही इन्द्रजीतसिंह से मुलाकात होगी उसकी मुरझाई हुई आशालता हरी हो गई और उसमें जान आ गई। इस समय किशोरी का सिर कुछ खुला हुआ था जिसे उसने अपने हाथ से ढंक लिया और देवीसिंह की तरफ देखकर बोली -

किशोरी - मैं समझती हूं आज ईश्वर को मुझ पर दया आई है इसी से आप लोग मुझे यहां से छुड़ाकर ले जाने के लिए आए हैं।

देवीसिंह - जी हां, हम लोग आपको छुड़ाने के लिए ही आये हैं, मगर आपकी दशा देखकर रुलाई आती है। हाय, क्या दुनिया में भलों और नेकों को यही इनाम मिला करता है!

किशोरी - मैंने सुना था कि राजा साहब के दोनों लड़कों और ऐयारों को मायारानी ने कैद कर लिया है

देवीसिंह - जी हां, उन कैदी ऐयारों में मैं भी था परन्तु ईश्वर की कृपा से सब कोई छूट गए और अब हम लोग आपको और (कामिनी की तरफ इशारा करके) इनको छुड़ाने आये हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आप बहुत कुछ मुझसे पूछना चाहती हैं और मेरे पेट में भी बहुत-सी बातें कहने योग्य भरी हैं परन्तु यह अमूल्य समय बातों में नष्ट करने योग्य नहीं है इसलिए जो कुछ कहने-सुनने की बातें हैं फिर होती रहेंगी, इस समय जहां तक जल्द हो सके यहां से निकल चलना ही उत्तम है।

''हां ठीक है'' कहकर किशोरी उठ बैठी। उसमें चलने-फिरने की ताकत न थी परन्तु इस समय की खुशी ने उसके खून में कुछ जोश पैदा कर दिया और वह इस लायक हो गई कि कामिनी के मोढे पर हाथ रखके तहखाने से ऊपर आ सके और वहां से बाग की चहारदीवारी के बाहर जा सके। कामिनी यद्यपि भूतनाथ को देखकर सहम गई थी मगर देवीसिंह के भरोसे से उसने इस विषय में कुछ कहना उचित न जाना, दूसरे उसने यह सोच लिया कि इस कैदखाने से बढ़कर और कोई दुःख की जगह न होगी, अतएव यहां से तो निकल चलना ही उत्तम है!

किशोरी और कामिनी को लिये हुए तीनों आदमी तहखाने से बाहर निकले। इस समय भी उस मकान में चारों तरफ तथा नजरबाग में सन्नाटा ही था, इसलिए ये लोग बिना किसी रोकटोक उसी दरवाजे की राह यहां से बाहर निकल गये जिससे राजा गोपालसिंह बाग के अन्दर आये थे। थोड़ी दूर पर तीन घोड़े और एक रथ जिसके आगे दो घोड़े जुते हुए थे मौजूद था। रथ पर किशोरी और कामिनी को सवार कराया गया और तीनों घोड़ों पर राजा गोपालसिंह, देवीसिंह और भूतनाथ ने सवार होकर रथ को तेजी के साथ हांकने के लिए कहा। बात की बात में ये लोग शहर के बाहर हो गये बल्कि सुबह की सुफेदी निकलने के पहले ही लगभग पांच कोस दूर निकल जाने के बाद एक चौमुहानी पर रुककर विचार करने लगे कि अब रथ को किस तरफ ले चलना है या रथ की हिफाजत किसके सुपुर्द करनी चाहिए।

 

 

बयान - 11

ऊपर के बयान में जो कुछ लिख आये हैं उस बात को कई दिन बीत गये, आज भूतनाथ को हम फिर मायारानी के पास बैठे हुए देखते हैं। रंग-ढंग से जाना जाता है कि भूतनाथ की कार्रवाइयों से मायारानी बहुत ही प्रसन्न है और वह भूतनाथ को कद्र और इज्जत की निगाह से देखती है। इस समय मायारानी के सामने सिवाय भूतनाथ के कोई दूसरा आदमी मौजूद नहीं है।

मायारानी - इसमें कोई सन्देह नहीं कि तुमने मेरी जान बचा ली।

भूतनाथ - गोपालसिंह को धोखा देकर गिरफ्तार करने में मुझे बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। आज दो दिन से केवल पानी के सहारे मैं जान बचाये हूं। अभी तक तो कोई ऐसी बात नहीं हुई जिससे कमलिनी या राजा वीरेन्द्रसिंह के पक्ष वाले किसी को मुझ पर शक हो। राजा गोपालसिंह के साथ केवल देवीसिंह था जिसको मैंने किसी जरूरी काम के लिए रोहतासगढ़ जाने की सलाह दे दी और उसके जाने के बाद गोपालसिंह को बातों में उलझाकर दारोगा वाले मकान में ले जाकर कैद कर दिया।

मायारानी - तो उसे तुमने खत्म ही क्यों न कर दिया

भूतनाथ - केवल तुम्हारे विश्वास के लिए उसे जीता रख छोड़ा है।

मायारानी - (हंसकर) केवल उसका सिर ही काट लाने से मुझे पूरा विश्वास हो जाता! पर जो हुआ सो हुआ अब उसके मारने में विलम्ब न करना चाहिए!

भूतनाथ - ठीक है, जहां तक हो, अब इस काम में जल्दी करना ही उचित है क्योंकि अबकी दफे यदि वह छूट जायगा तो मेरी बड़ी दुर्गति होगी।

मायारानी - नहीं-नहीं, अब वह किसी तरह नहीं बच सकता। मैं तुम्हारे साथ चलती हूं और अपने हाथ से उसका सिर काटकर सदैव के लिए टंटा मिटाती हूं। घंटे भर और ठहर जाओ, अच्छी तरह अंधेरा हो जाने पर ही यहां से चलना उचित होगा, बल्कि तब तक तुम भोजन भी कर लो क्योंकि दो दिन के भूखे हो। यह तो कहो कि किशोरी और कामिनी को तुमने कहां छोड़ा?

भूतनाथ - किशोरी और कामिनी को मैं एक ऐसी खोह में रख आया हूं जहां से सिवाय मेरे कोई दूसरा उन्हें निकाल ही नहीं सकता। बहुत दिनों से मैं स्वयं उस खोह में रहता हूं और मेरे आदमी भी अभी तक वहां मौजूद हैं। अब केवल एक बात का खुटका मेरे जी में लगा हुआ है।

मायारानी - वह क्या?

भूतनाथ - यदि कमलिनी मुझसे पूछेगी कि किशोरी और कामिनी को कहां रख आये तो मैं क्या जवाब दूंगा यदि यह कहूंगा कि रोहतासगढ़ तुम्हारे तालाब वाले मकान में रख आया हूं तो बहुत जल्द झूठा बनूंगा और सब भंडा फूट जायगा।

मायारानी - हां सो तो ठीक है, मगर तुम चालाक हो, इसके लिए भी कोई न कोई बात जरूर सोच लोगे।

भूतनाथ - खैर, जो होगा देखा जायगा। अब कहिये कि आपका काम तो मैंने कर दिया अब इसका इनाम मुझे क्या मिलता है आपका कौल है कि जो मांगोगे वही मिलेगा।

मायारानी - हां-हां, जो कुछ तुम मांगोगे वही मिलेगा। जरा दारोगा वाले मकान में चलकर उसे मारकर निश्चिन्त हो जाऊं तो तुम्हें मुंहमांगा इनाम दूं। अच्छा यह तो कहो कि तुम चाहते क्या हो

भूतनाथ - दारोगा वाला मकान मुझे दे दीजिए और उसमें जो अजायबघर है उसकी ताली मेरे हवाले कर दीजिए।

मायारानी - (चौंककर) उस अजायबघर का हाल तुम्हें कैसे मालूम हुआ

भूतनाथ - कमलिनी की जुबानी मैंने सुना था कि वह भी तिलिस्म ही है और उसमें बहुत अच्छी-अच्छी चीजें हैं।

मायारानी - ठीक है मगर उसमें बहुत-सी ऐसी चीजें हैं जो यदि मेरे दुश्मनों के हाथ लगें तो आफत ही हो जाय।

भूतनाथ - मैं उस जगह को अपने लिए चाहता हूं किसी दूसरे के लिए नहीं, मेरे रहते कोई दूसरा आदमी उस मकान से फायदा नहीं उठा सकता।

मायारानी - (देर तक देखकर) खैर मैं दूंगी क्योंकि तुमने मुझ पर भारी अहसान किया है, मगर उस ताली को बड़ी हिफाजत से रखना। यद्यपि उसका पूरा-पूरा हाल मुझे मालूम नहीं है तथापि मैं समझती हूं कि वह कोई अनूठी चीज है क्योंकि गोपालसिंह उसे बड़े यत्न से अपने पास रखता था, हां अगर तुम अजायबघर की ताली मुझसे न लो तो मैं बहुत ज्यादा दौलत तुम्हें देने के लिए तैयार हूं।

भूतनाथ - आप तरद्दुद न कीजिये, उस चीज को आपका कोई दुश्मन मेरे कब्जे से नहीं ले जा सकता और आप देख लेंगी कि महीने भर के अन्दर ही अन्दर मैं आपके दुश्मनों का नाम-निशान मिटा दूंगा और खुल्लमखुल्ला अपनी प्यारी स्त्री को लेकर उस मकान में रहकर आपकी बदौलत खुशी से जिन्दगी बिताऊंगा।

मायारानी - (ऊंची सांस लेकर) अच्छा, दूंगी।

भूतनाथ - तो अब उसके देने में विलम्ब क्या है?

मायारानी - बस, उस काम से निपट जाने की देर है।

भूतनाथ - वहां भी केवल आपके चलने की ही देर है।

मायारानी - मैं कह चुकी हूं कि तुम भोजन कर लो, तब तक अंधेरा भी हो जाता है।

मायारानी ने घण्टी बजाई, जिसकी आवाज सुनते ही कई लौंडियां दौड़ी हुई आईं और हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो गईं। मायारानी ने भूतनाथ के लिए भोजन का सामान ठीक करने को कहा, और यह बहुत जल्द हो गया। भूतनाथ ने भोजन किया और अंधेरा होने पर मायारानी के साथ दारोगा वाले मकान में चलने के लिए तैयार हुआ। मायारानी ने धनपत को भी साथ लिया और तीनों आदमी चेहरे पर नकाब डाले घोड़ों पर सवार हो वहां से रवाना हुए तथा बात-की-बात में दारोगा वाले मकान के पास जा पहुंचे।1 पेड़ों के साथ घोड़ों को बांध तीनों आदमी उस मकान के अन्दर चले। हम ऊपर लिख आये हैं कि मायारानी ने इस मकान की ताली भूतनाथ को दे दी थी और मकान का भेद भी उसे बता दिया था। इसलिए भूतनाथ सबके आगे हुआ और उसके पीछे धनपत और मायारानी जाने लगीं। भूतनाथ उस मकान के दाहिनी तरफ वाले दालान में पहुंचा, जिसमें एक कोठरी बन्द दरवाजे की थी, मगर यह नहीं जान पड़ता था कि यह दरवाजा क्योंकर खुलेगा या ताली लगाने की जगह कहां है। दरवाजे के पास पहुंचकर भूतनाथ ने बटुए में से एक ताली निकाली और दरवाजे के दाहिनी तरफ की दीवार में जो लकड़ी की बनी हुई थी, पैर से धक्का देना शुरू किया। चार-पांच ठोकरों के बाद लकड़ी का एक छोटा-सा तख्ता अलग हो

1. इस मकान का जिक्र कई दफे आ चुका है, नानक इसी मकान में बाबाजी से मिला था।

गया, और उसके अन्दर हाथ जाने लायक सूराख दिखाई दिया। ताली लिए हुए उसी छेद के अन्दर भूतनाथ ने हाथ डाला और किसी गुप्त ताले में ताली लगाई। कोठरी का दरवाजा तुरत खुल गया और तीनों अन्दर चले गये। भीतर जाकर वह दरवाजा पुनः बन्द कर लिया, जिससे वह लकड़ी का टुकड़ा भी ज्यों-का-त्यों बराबर हो गया, जिसके अन्दर हाथ डालकर भूतनाथ ने ताला खोला था।

कोठरी के अन्दर बिल्कुल अंधेरा था इसलिए भूतनाथ ने अपने बटुए में से सामान निकालकर मोमबत्ती जलाई। अब मालूम हुआ कि कोठरी के बीचोंबीच में लोहे का एक गोल तख्ता जमीन में जड़ा हुआ है जिस पर लगभग चार या पांच आदमी खड़े हो सकते थे। उस तख्ते के बीचोंबीच में तीन हाथ ऊंचा लोहे का एक खम्भा था और उसके ऊपर एक चर्खी लगी हुई थी। तीनों आदमी उस खम्भे को थामकर खड़े हो गये और भूतनाथ ने दाहिने हाथ से चर्खी को घुमाना शुरू किया, साथ ही घड़घड़ाहट की आवाज आई और खम्भे के सहित वह लोहे का टुकाड़ा जमीन के अन्दर घुसने लगा। यहां तक कि लगभग बीस हाथ के नीचे जाकर जमीन पर ठहर गया और तीनों आदमी उस पर से उतर पड़े। अब ये तीनों एक लम्बी-चौड़ी कोठरी के अन्दर घुसे। कोठरी के पूरब तरफ दीवार में एक सुरंग बनी हुई थी, पश्चिम तरफ कुआं था, उत्तर तरफ चार सन्दूक पड़े हुए थे और दक्षिण तरफ एक जंगलेदार कोठरी बनी हुई थी, जिसके अन्दर एक आदमी जमीन पर औंधा पड़ा हुआ था और पास की जमीन खून से तरबतर हो रही थी। उसे देखते ही भूतनाथ चौंककर बोला -

भूतनाथ - ओफ, मालूम होता है कि इसने सिर पटककर जान दे दी (मायारानी की तरफ देखके) क्योंकि तुम्हारा सामना करना इसे मंजूर न था!

मायारानी - शायद ऐसा ही हो! आखिर मैं भी तो इसे मारने को ही आई थी। अच्छा हुआ, इसने अपनी जान आप ही दे दी, मगर अब यह क्योंकर निश्चय हो कि यह अभी जीता है या मर गया?

धनपत - (गौर से गोपालसिंह को देखकर) सांस लेने की आहट नहीं मालूम होती, जहां तक मैं समझती हूं इसमें दम नहीं है।

भूतनाथ - (मायारानी से) आप इस जंगले में जाकर इसे अच्छी तरह देखिये, कहिये तो ताला खोलूं।

मायारानी - नहीं-नहीं, मुझे अब भी इसके पास जाते डर मालूम होता है, कहीं नकल न किये हो! (गोपालसिंह को अच्छी तरह देखके) वह तिलिस्मी खंजर इसके पास नहीं दिखाई देता।

भूतनाथ - वह खंजर देवीसिंह ने एक सप्ताह के लिए इससे मांग लिया था, और इस समय उसी के पास है।

मायारानी - तब तो तुम बेखौफ इसके अन्दर जा सकते हो, अगर जीता भी होगा तो कुछ न कर सकेगा, क्योंकि इसका हाथ खाली है और तुम्हारे पास तिलिस्मी खंजर है!

भूतनाथ - बेशक, मैं इसके पास जाने में नहीं डरता।

उस जंगले के दरवाजे में एक ताला लगा हुआ था जिसे भूतनाथ ने खोला, और अन्दर जाकर राजा गोपालसिंह की लाश को सीधा किया, तब मायारानी की तरफ देखकर कहा, ''अब इसमें दम नहीं है, आप बेखौफ चली आवें और इसे देखें।'' मायारानी धनपत का हाथ थामे हुए उस कोठरी के अन्दर गई और अच्छी तरह गोपालसिंह को देखा। सिर फट जाने और खून निकलने के साथ ही दम निकल जाने से गोपालसिंह का चेहरा कुछ भयानक-सा हो गया था। मायारानी को जब निश्चय हो गया कि इसमें दम नहीं है, तब वह बहुत खुश हुई और भूतनाथ की तरफ देखकर बोली, ''अब मैं इस दुनिया में निश्चिन्त हुई। मगर इस लाश का भी नाम-निशान मिटा देना ही उचित है।''

भूतनाथ - यह कौन-सी बड़ी बात है। इसे ऊपर ले चलिए, और जंगल में से लकड़ियां बटोरकर फूंक दीजिए।

मायारानी - नहीं-नहीं, रात के वक्त जंगल में विशेष रोशनी होने से ताज्जुब नहीं कि किसी को शक हो या राजा वीरेन्द्रसिंह का कोई ऐयार ही इधर आ निकले और देख ले।

भूतनाथ - खैर, जाने दीजिए, इसकी भी एक सहज तरकीब बताता हूं।

मायारानी - वह क्या?

भूतनाथ - इसे ऊपर ले चलिए और टुकड़े-टुकड़े कर नहर में डाल दीजिए, बात की बात में मछलियां खा जायेंगी।

मायारानी - हां, यह राय बहुत ठीक है। अच्छा, इसे ले चलो।

भूतनाथ ने उस लाश को उठाकर उस लोहे के तख्ते पर रखा और तीनों आदमी खम्भे को थामकर खड़े हो गए। भूतनाथ ने उस चर्खी को उल्टा घुमाना शुरू किया। बात-की-बात में वह तख्ता ऊपर की जमीन के साथ बराबर मिल गया। भूतनाथ ने अन्दर से कोठरी का दरवाजा खोला और उस लाश को बाहर दालान में लाकर पटक दिया। इसके बाद उस कोठरी का दरवाजा जिस तरह पहले खोला था, उसी तरह बन्द कर दिया। मायारानी के इशारे से धनपत ने कमर से खंजर निकालकर लाश के टुकड़े किए और हड्डी और मांस नहर में डालने के बाद, नहर से जल लेकर जमीन धो डाली। इसके बाद हर तरह से निश्चिन्त हो अपने-अपने घोड़े पर सवार होकर तीनों आदमी तिलिस्मी बाग की तरफ रवाना हुए और आधी रात जाने के पहले ही वहां पहुंचकर भूतनाथ ने कहा, ''बस लाइए, अब मेरा इनाम दे दीजिये।''

मायारानी - हां-हां, लीजिए, इनाम देने के लिए मैं तैयार हूं। (मुस्कुराकर) लेकिन भूतनाथ, अगर इनाम में अजायबघर की ताली मैं तुम्हें न दूं, तो तुम क्या करोगे क्योंकि मेरा काम तो हो ही चुका है!

भूतनाथ - करेंगे क्या, बस अपनी जान दे देंगे!

मायारानी - अपनी जान दे दोगे तो मेरा क्या बिगड़ेगा?

भूतनाथ - (खिलखिलाकर हंसने के बाद) क्या तुम समझती हो कि मैं सहज ही में अपनी जान दे दूंगा नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। पहले तो मैं कमलिनी के पास जाकर अपना कसूर साफ-साफ कह दूंगा, इसके बाद तुम्हारे सब भेद खोल दूंगा, जो तुमने मुझे बताये हैं। इतना ही नहीं, बल्कि तुम्हारी जान लेकर तब कमलिनी के हाथ से मारा जाऊंगा। इस बाग का, दारोगा वाले मकान का, और मनोरमा के मकान का, रत्ती-रत्ती भेद मुझे मालूम हो चुका है और तुम खुद समझ सकती हो कि मैं कहां तक उपद्रव मचा सकता हूं! तुम यह भी न सोचना कि इस समय इस बाग में रहने के कारण मैं तुम्हारे कब्जे में हूं, क्योंकि वह...।

मायारानी - बस-बस, बहुत जोश में मत आओ, मैं दिल्लगी के तौर पर इतना कह गई, और तुम सच ही समझ गये! इस बात का पूरा-पूरा विश्वास रखना कि मायारानी वादा पूरा करने से हटने वाली नहीं है और इनाम देने में भी किसी से कम नहीं है। बैठो, मैं अभी अजायबघर की ताली ला देती हूं।

भूतनाथ - लाइए, और मुझे भी अपने कौल का सच्चा ही समझिये, ऐसे काम कर दिखाऊंगा कि खुश हो जाइएगा और ताज्जुब कीजिएगा।

मायारानी - देखो रंज न होना, मैं तुमसे एक बात और पूछती हूं।

भूतनाथ - (हंसकर) पूछिये-पूछिये।

मायारानी - अगर मैं धोखा देकर कोई दूसरी चीज तुम्हें दे दूं, तो तुम कैसे समझोगे कि अजायबघर की ताली यही है?

भूतनाथ - भूतनाथ को निरा मौलवी न समझ लेना। उस ताली को जो किताब की सूरत में है और जिसे दोनों तरफ से भौंरो ने घेरा हुआ है, भूतनाथ अच्छी तरह पहचानता है।

मायारानी - शाबाश, तुम बहुत ही होशियार और चालाक हो, किसी के फरेब में आने वाले नहीं, मालूम होता है कि इतनी जानकारी तुम्हें उसी कम्बख्त कमलिनी की बदौलत...?

भूतनाथ - जी हां, बेशक ऐसा ही है, मगर हाय! जिस कमलिनी ने मेरी इतनी इज्जत की, मैं आपके लिए उसी के साथ दुश्मनी कर रहा हूं और सो भी केवल इसी अजायबघर की ताली के लिए!

मायारानी - अजायबघर की ताली तो तुम्हारी इच्छानुसार तुम्हें देती ही हूं इसके बाद इससे भी बढ़कर एक ऐसी चीज तुम्हें दूंगी जिसे देखकर तुम भी कहोगे कि मायारानी ने कुछ दिया।

भूतनाथ - बेशक मुझे आपसे बहुत-कुछ उम्मीद है।

भूतनाथ को उसी जगह बैठाकर मायारानी कहीं चली गई, मगर आधे घण्टे के अन्दर एक जड़ाऊ डिब्बा हाथ में लिए हुए आ पहुंची और वह डिब्बा भूतनाथ के सामने रखकर बोली, ''लीजिए, वह अनोखी चीज हाजिर है।'' भूतनाथ ने डिब्बा खोला। उसके अन्दर गुटके की तरह एक छोटी-सी पुस्तक थी जिसे उलट-पुलटकर भूतनाथ ने अच्छी तरह देखा और तब कहा, ''बेशक यही है। अच्छा, अब मैं जाता हूं, जरा कमलिनी से मिलकर खबर लूं कि उधर क्या हो रहा है।''

भूतनाथ अजायबघर की ताली लेकर मायारानी से बिदा हुआ और तिलिस्मी बाग के बाहर होकर खुशी-खुशी उत्तर की तरफ चल निकला मगर थोड़ी ही दूर जाकर खड़ा हो गया और इधर-उधर देखने लगा। पेड़ की आड़ में से दो आदमी निकलकर भूतनाथ के सामने आये और एक ने आगे बढ़कर पूछा, ''टेम गिन चाप'1 इसके जवाब में भूतनाथ ने कहा, ''चेह2!'' इतना सुनकर उस आदमी ने भूतनाथ को गले से लगा लिया। इसके बाद तीनों आदमी एक साथ आगे की तरफ रवाना हुए।

1. (टेम गिन चाप) मिली वह ताली

2. (चेह) हां।

 

 

बयान - 12

आज से कुल आठ-दस दिन पहले मायारानी इतनी परेशान और घबड़ाई हुई थी कि जिसका कुछ हिसाब नहीं। वह जीते जी अपने को मुर्दा समझने लगी थी। राजा गोपालसिंह के छूट जाने के डर, चिन्ता, बेचैनी और घबड़ाहट ने चारों तरफ से उसे घेर लिया था, यहां तक कि राजा वीरेन्द्रसिंह के पक्ष वालों और कमलिनी का ध्यान भी उसके दिल से जाता रहा था जिनके लिए सैकड़ों ऊटक-नाटक उसे रचने पड़े थे और ध्यान था केवल गोपालसिंह का। कहीं ऐसा न हो कि गोपालसिंह का असल भेद रिआया को मालूम हो जाय, इसी सोच ने उसे बेकार कर दिया था। मगर आज वह भूतनाथ की बदौलत अपने को हर तरह से बेफिक्र मानती है, आई हुई बला को टला समझती है, और उसे विश्वास है कि अब कुछ दिन तक चैन से गुजरेगी। अब उसे केवल यही फिक्र रह गई कि कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के हाथ से तिलिस्म टूटने न पावे और कमलिनी को, जो यहां का बहुत-कुछ हाल जानती है और उन दोनों कुमारों से मिली हुई है किसी-न-किसी तरह गिरफ्तार करना या मार डालना चाहिए जिससे तिलिस्म तोड़ने में वह इन दोनों कुमारों को मदद न पहुंचा सके। वह समझती है कि इस समय केवल इस तिलिस्म की बदौलत ही हर एक पर मैं अपना रुआब जमा सकती हूं और बड़े-बड़े महाराजों के दिल में भी डर पैदा कर सकती हूं, इतना ही नहीं, बल्कि जो चाहे कर सकती हूं, और जब तिलिस्म ही न रहेगा तो मैं एक मामूली जमींदार के बराबर भी न समझी जाऊंगी, इत्यादि।

वास्तव में मायारानी का सोचना बहुत ठीक था, लेकिन फिर भी आज उसका दिमाग फिर आसमान पर चढ़ा हुआ है। भूतनाथ ऐसा ऐयार पाकर वह बहुत प्रसन्न है और उसे निश्चय है कि मैं जो चाहूंगी कर गुजरूंगी, हां लाडिली के चले जाने का उसे जरूर बहुत बड़ा रंज है।

जिस समय अजायबघर की ताली लेकर भूतनाथ उससे बिदा हुआ उस समय रात बहुत कम बाकी थी और मायारानी रात-भर की थकी और जागी हुई थी इसलिए चारपाई पर जाते ही सो गई और पहर भर दिन चढ़े तक सोई रही। जब धनपत ने आकर जगाया तो उठी और मामूली कामों से छुट्टी पाकर हंसी-दिल्लगी में उसके साथ समय बिताने लगी। दिन तो हंसी-दिल्लगी में बीत गया, मगर रात को उसने आश्चर्यजनक घटना देखी जिससे वह बहुत परेशान और दुखी हुई।

आधी रात जा चुकी है। मायारानी अपने कमरे में जो कीमती चीजों से भरा था, खूबसूरत जड़ाऊ पायों की मसहरी पर गाढ़ी नींद में सोई हुई है। कमरे के बाहर हाथ में नंगी तलवार लिए नौजवान और कमसिन लौंडियां पहरा दे रही हैं। जिस समय सोने के इरादे से पलंग पर जाकर मायारानी ने आंखें बन्द कीं उस समय केवल एक बिल्लौरी हांडी के अन्दर खुशबूदार तेल से भरे हुए बिल्लौरी गिलास में हलकी रोशनी हो रही थी और कमरे का दरवाजा भिड़काया हुआ था, मगर इस समय न जाने वह रोशनी क्यों गुल हो गई थी और कमरे के अन्दर अन्धकार हो रहा था।

मायारानी यद्यपि रानी, नौजवान और हर तरह से सुखिया थी मगर उसकी नींद बहुत ही कच्ची थी। जरा खुटका पाते ही वह उठ बैठती थी। इस समय भी यद्यपि वह गहरी नींद में सोई थी मगर शीशे के एक शमादान के टूटने और झन्नाटे की आवाज आने से चौंककर उठ बैठी। कमरे में अंधकार देख वह चारपाई से नीचे उतरी और टटोलती हुई दरवाजे के पास पहुंची मगर दरवाजा खोलना चाहा तो मालूम हुआ कि उसमें ताला लगा हुआ है। यह अद्भुत मामला देख वह बहुत घबड़ाई और डर के मारे उसका कलेजा धक-धक करने लगा। ''हैं ऐसा क्यों हुआ! इस कमरे के अन्दर कौन आया जिसने दरवाजे में ताला लगा दिया क्या बाहर पहरा नहीं पड़ता है! जरूर पड़ता होगा, फिर बिना इत्तिला किये इस कमरे के अन्दर आने का साहस किसको हुआ! अगर कोई आया है तो अवश्य अभी इस कमरे के अन्दर ही है क्योंकि दरवाजे में अभी तक ताला बन्द है। क्या यह काम धनपत का तो नहीं है! मगर इतना बड़ा हौसला वह नहीं कर सकती!''

ऐसे-ऐसे सोच-विचार ने मायारानी को घबड़ा दिया। वह यहां तक डरी कि मुंह से आवाज निकलना मुश्किल हो गया और वह अपनी लौंडियों को पुकार भी न सकी। अन्त में वह लाचार होकर दरवाजे के पास ही बैठ गई और आंखों से आंसू की बूंदें टपकाने लगीं। इतने ही में पैर की आहट जान पड़ीं। मालूम हुआ कि कोई आदमी इस कमरे के अन्दर टहल रहा है। अब मायारानी और भी डरी और दरवाजे से कुछ हटकर दीवार के पास चिपक गई। साफ मालूम होता था कि कोई आदमी पैर पटकता हुआ कमरे में घूम रहा है।

मायारानी यद्यपि दीवार के साथ दुबकी हुई थी मगर पैर पटककर चलने वाला आदमी पल-पल में उसके पास होता जाता था। अन्त में एक मजबूत हाथ ने मायारानी की कलाई पकड़ ली। मायारानी चिल्ला उठी और इसके साथ ही उस आदमी ने जिसने कलाई पकड़ी थी मायारानी के गाल पर जोर से एक तमाचा मारा जिसकी तकलीफ वह बर्दाश्त न कर सकी और बेहोश होकर जमीन की ओर झुक गई।

उस आदमी ने अपनी बगल से चोर लालटेन निकाली जिसके आगे से ढक्कन हटाते ही कमरे में उजाला हो गया। इस समय यदि मायारानी होश में आ जाती तो भी उस आदमी को न पहचान सकती क्योंकि वह अपने मुंह पर नकाब डाले हुए था। इस कमरे के चारों तरफ की दीवार आबनूस की लकड़ी से बनी हुई थी और उस पर उत्तम रीति से पालिश की हुई थी। पलंग के पायताने की तरफ दीवार में एक आदमी के घुसने लायक रास्ता हो गया था अर्थात् लकड़ी का तख्ता पल्ले की तरह घूमकर बगल में हट गया था। उस आदमी ने बेहोश मायारानी को धीरे से उठाकर उसकी चारपाई पर डाल दिया, इसके बाद कमरे के दरवाजे में जो ताला लगा हुआ था खोलकर अपने पास रखा और फिर पायताने की तरफ जाकर उसी दरार की राह दीवार के अन्दर घुस गया। उसके जाने के साथ ही लकड़ी का तख्ता भी बराबर हो गया।

घण्टे भर के बाद मायारानी होश में आई और आंख खोलकर देखने लगी मगर अभी तक कमरे में अंधेरा ही था।

हाथ से टटोलने और जांचने से मालूम हो गया कि वह चारपाई पर पड़ी हुई है। डर के मारे देर तक चारपाई पर पड़ी रही, जब किसी के पैर की आहट न मालूम हुई तो जी कड़ा करके उठी और दरवाजे के पास आई। कुण्डी खुली हुई थी, झट दरवाजा खोलकर कमरे के बाहर निकल आई। कई लौंडियों को नंगी तलवार लिए दरवाजे पर पहरा देते पाया। उसने लौंडियों से पूछा, ''कमरे के अन्दर कौन गया था' जिसके जवाब में उन्होंने ताज्जुब के साथ कहा, ''कोई नहीं।''

लौंडियों के कहने का विश्वास मायारानी को न हुआ, वह देर तक उन लोगों पर गुस्सा करती और बकती-झकती रही। उसे शक हो गया कि इन लोगों ने मेरे साथ दगा की और कुल लौंडियां दुश्मनों से मिली हुई हैं, मगर कसूर साबित किए बिना उन सभी को सजा देना भी उसने उचित न जाना।

डर के मारे मायारानी उस कमरे के अन्दर न गई, बाहर ही एक आरामकुर्सी पर बैठकर उसने बची हुई रात बिताई। रात तो बीत गई मगर सुबह की सुफेदी ने आसमान पर अपना दखल अभी नहीं जमाया था कि एक मालिन का हाथ पकड़े धनपत आ पहुंची और मायारानी को बाहर बैठे हुए देख ताज्जुब के साथ बोली, ''इस समय आप यहां क्यों बैठी हैं'?

मायारानी - (घबड़ाई हुई आवाज में) क्या कहूं, आज ईश्वर ने ही मेरी जान बचाई, नहीं तो मरने में कुछ बाकी न था!

धनपत - (ताज्जुब के साथ चौंककर) सो क्यों?

मायारानी - पहले यह तो कहो कि इस मालिन को कैदियों की तरह पकड़कर यहां लाने का क्या सबब है?

धनपत - नहीं, मैं पहले आपका हाल सुन लूंगी तो कुछ कहूंगी।

मायारानी ने धीरे-धीरे अपना पूरा हाल विस्तार के साथ धनपत से कहा जिसे सुनकर धनपत भी डरी और बोली, ''इन लौंडियों पर शक करना मुनासिब नहीं है, हां जब इस कम्बख्त मालिन का हाल आप सुनेंगी जिसे मैं गिरफ्तार करके लाई हूं तो आपका जी अवश्य दुखेगा और इस पर शक करना बल्कि यह निश्चय कर लेना अनुचित न होगा कि यह दुश्मनों से मिली हुई है। ये लौंडियां जिनके सुपुर्द पहरे का काम है और जिन पर आप शक करती हैं बहुत ही नेक और ईमानदार हैं, मैं इन लोगों को अच्छी तरह आजमा चुकी हूं।''

मायारानी - खैर, मैं इस विषय में अच्छी तरह सोचकर और इन सभी को आजमाकर निश्चय करूंगी, तुम यह कहो कि इस मालिन ने क्या कसूर किया है यह तो अपने काम में बहुत तेज और होशियार है!

धनपत - हां, बाग की दुरुस्ती और गुलबूटों के संवारने का काम तो यह बहुत ही अच्छी तरह जानती है। मगर इसका दिल नुकीले और विषैले कांटों से भरा हुआ है। आज रात को नींद न आने और कई तरह की चिन्ता के कारण मैं चारपाई पर आराम न कर सकी और यह सोचकर बाहर निकली कि बाग में टहलकर दिल बहलाऊंगी। मैं चुपचाप बाग में टहलने लगी मगर मेरा दिल तरह-तरह के विचारों से खाली न था, यहां तक कि सिर नीचा किये टहलते मैं हम्माम के पास जा पहुंची और वहां अंगूर की टट्टी में पत्तों की खड़खड़ाहट पाकर घबड़ा के रुक गई। थोड़ी ही देर में जब चुटकी बजाने की आवाज मेरे कान में पड़ी तब तो मैं चौंकी और सोचने लगी कि बेशक यहां कुछ दाल में काला है।

माया - उस समय तू अंगूर की टट्टी से कितनी दूर और किस तरफ थी?

धनपत मैं टट्टी के पूरब तरफ पास ही वाली चमेली की झाड़ी तक पहुंच चुकी थी, किंतु जब पत्तों की खड़खड़ाहट सुनी तो रुक गई और जब चुटकी की आवाज कानों में पड़ी तो झट झाड़ी के अन्दर छिप गई और अंगूर की टट्टी की तरफ ध्यान देकर देखने लगी। यद्यपि रात अंधेरी थी मगर मेरी आंखों ने चुटकी की आवाज के साथ ही दो आदमियों को टट्टी के अन्दर घुसते देख लिया।

मायारानी - चुटकी बजाने की आवाज कहां से आई थी?

धनपत - अंगूर की टट्टी के अन्दर से।

मायारानी - अच्छा तब क्या हुआ?

धनपत - मैं जमीन पर लेटकर धीरे-धीरे टट्टी की तरफ खिसकने लगी और उसके बहुत पास पहुंच गई, अन्त में किसी की आवाज भी मेरे कान में पड़ी और मैं ध्यान देकर सुनने लगी। बातें धीरे-धीरे हो रही थीं मगर मैं बहुत पास पहुंच जाने के कारण साफ-साफ सुन सकती थी। सबसे पहले जिसकी आवाज मेरे कानों में पड़ी, वह यही कम्बख्त मालिन थी।

मायारानी - अच्छा, इसने क्या कहा?

धनपत - इसने इतना कहा कि ''मैं बड़ी देर से तुम लोगों की राह देख रही हूं।'' इसके जवाब में आए हुए दोनों आदमियों में से एक ने कहा, ''बेशक तूने अपना वादा पूरा किया जिसका इनाम मैं इसी समय तुझे दूंगा, मगर आज किसी कारण से कमलिनी यहां न आ सकी, हम लोग केवल इतना ही कहने आए हैं कि कल आधी रात को आज ही की तरह फिर चोरदरवाजा खोल दीजियो, तुझे आज से ज्यादा इनाम दिया जायगा।'' यह कम्बख्त 'बहुत अच्छा' कहकर चुप हो गई और फिर किसी के बातचीत की आवाज न आई। थोड़ी ही देर में उन दोनों आदमियों को अंगूर की टट्टी से निकलकर दक्खिन की तरफ जाते हुए मैंने देखा, उन्हीं के पीछे-पीछे यह मालिन भी चली गई और मैं चुपचाप उसी जगह पड़ी रही।

मायारानी - तुमने गुल मचाकर उन दोनों को गिरफ्तार क्यों न किया?

धनपत - मैं यह सोचकर चुप हो रही कि यदि दोनों आदमी गिरफ्तार हो जायेंगे तो कल रात को इस बाग में कमलिनी का आना न होगा।

मायारानी - ठीक है, तुमने बहुत ठीक सोचा, हां तब क्या हुआ?

धनपत - थोड़ी देर बाद मैं वहां से उठी और पीछे की तरफ लौटकर बाग में होशियारी के साथ टहलने लगी। आधी घड़ी न बीती थी कि यह मालिन लौटकर आपके डेरे की तरफ जाती हुई मिली। मैंने झट इसकी कलाई पकड़ ली और यह देखने के लिए दरवाजे की तरफ गई कि इसने दरवाजा बन्द कर दिया या नहीं। वहां पहुंचकर मैंने दरवाजा बन्द पाया, तब इस कमीनी को लिए हुए मैं आपके पास आई।

मायारानी - (मालिन की तरफ देखकर) क्यों री! तुझ पर जो कुछ दोष लगाया गया है वह सच है या झूठ?

मालिन ने मायारानी को कुछ भी जवाब न दिया। तब मायारानी ने पहरा देने वाली लौंडियों की तरफ देखके कहा, ''आज रात को तुम लोगों की मदद से अगर कमलिनी गिरफ्तार हो गई तो ठीक है नहीं तो मैं समझूंगी कि तुम लोग भी इस मालिन की तरह नमकहराम होकर दुश्मनों से मिली हुई हो!''

पहरा देने वाली लौंडियों ने मायारानी को दण्डवत् किया और एक ने कुछ आगे बढ़कर और हाथ जोड़कर कहा, ''बेशक आप हम लोगों को नेक और ईमानदार पावेंगी! (धनपत की तरफ इशारा करके) आपकी बात से निश्चय होता है कि आज रात को कमलिनीजी इस बाग में जरूर आवेंगी। अगर ऐसा हुआ तो हम लोग उन्हें गिरफ्तार किए बिना कदापि न रहेंगे!''

मायारानी ने कहा, ''हां ऐसा ही होना चाहिए! मैं खुद भी इस काम में तुम लोगों का साथ दूंगी और आधी रात के समय अपने हाथ से चोरदरवाजा खोलकर उसे बाग के अन्दर आने का मौका दूंगी। देखो होशियार और खबरदार रहना, यह बात किसी के कान में न पड़ने पावे!

(आठवाँ भाग समाप्त)


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