बिना मां के बच्चे : मिस्र की लोक-कथा

Bina Maan Ke Bachche : Egyptian Folk Tale

बहुत पुराने जमाने की बात है। एक आदमी अपने परिवार के साथ एक छोटे से गांव में रहता था। जब उसके बच्चे छोटे ही थे कि माँ की मृत्यु हो गयी। बच्चों की देखभाल के लिए पति को दूसरी शादी करनी पड़ी। कुछ सालों के बाद सौतेली माँ भी दो बच्चों की माँ बन गयी। अब चारों भाई-बहन एक साथ रहते थे।

कुछ समय के बाद सौतेली माँ एकदम बदल गयी। वह अपने बच्चों को अच्छा खाना खिलाती थी। अच्छे रंगीन कपड़े पहनाती थी और सौतेले बच्चों को पुराने कपड़े पहनाती थी। कुछ दिनों बाद सौतेली माँ ने उन्हें सूखी रोटी देकर गायों के ग्वाला भेजना शुरू कर दिया। अब वे दिन भर ग्वाला जाते और भूखे-प्यासे शाम को घर आते थे। ऐसे समय में उन्हें अपनी माँ की बहुत याद आती थी।

एक दिन दोनों बच्चों ने अपने हाथ की सूखी रोटी, अपनी काली गाय को देते हुए कहा, “माँ तुम हम पर ऐसी ही दया करो, जैसी हमारी माँ हम पर करती थी।” इतना कहना था कि गाय के थनों से दूध निकल आया। दोनों बच्चों ने खुश होकर भरपेट दूध पिया। अब वे रोज हाथ की रोटी उसे देते और गाय उन्हें भरपेट दूध पिलाती थी। इससे वे खुश रहते थे और उन्हें ग्वाला जाना भी अच्छा लगने लगा।

कुछ ही दिनों के बाद सौतेली माँ ने बच्चों के चेहरों में लाली देखी तो आश्चर्य में पड़ गयी। उसे अपने बच्चों पर बड़ी दया आयी कि वे तो दुबले-पतले ही थे।

दूसरे ही दिन से उसने अपने बच्चों को भी सूखी रोटी देना शुरू कर दिया। दो-तीन सप्ताह बाद उसने देखा कि बच्चे हट्टे-कटटे होने के बदले कुछ ज्यादा ही दुबले-पतले दिखायी देने लगे थे।

अब माँ थोड़ी उलझन में पड़ गयी। उसने अपने एक बच्चे को इसका राज जानने के लिए भाइयों के साथ ग्वाला भेजा और कहा कि वह ध्यान दे कि भाई दिन में क्‍या खाते हैं।

दूसरे दिन तीनों भाई गायों को लेकर जंगल की ओर निकल पड़े। गायों ने आराम से चरागाह में घास चरी। दोपहर का समय होने को आया। बच्चों के पेट भूख से कुलबुलाने लगे। पर उन्हें हिम्मत नहीं आ रही थी कि गाय से दूध माँगें। उन्हें डर था कि उनका सौतेला भाई माँ से चुगली न कर दे। भूख सहन से बाहर होने पर वे भाई से बोले कि हमारी काली गाय हमें दूध देती है, इसी से हम अपनी भूख मिटाते हैं। यह बात तुम किसी को मत बताना। भाई ने कहा, “मैं इस बात को किसी से नहीं कहूँगा। चिन्ता मत करो।” अब दोनों भाई खुश हुए और अपनी रोटी गाय को देते हुए बोले--'ओ प्यारी माँ! हम पर ऐसी दया करो, जैसी हमारी माँ हम पर करती थीं।'' ऐसा सुनते ही गाय ने तीनों भाइयों को पेट भरकर दूध पिलाया। शाम होने पर तीनों भाई गायों को लेकर घर आये तो माँ ने अपने बेटे से पूछा, “तुमने चरागाह में क्या खाया?”' बेटे ने कहा, “हमने वही खाया जो तुमने हमें दिया था। वह तो ऐसा भी नहीं था जैसा खाना कुत्तों को मिलता है।” ऐसा सुनकर माँ को बड़ा बुरा लगा।

दूसरे दिन उसने भाइयों के साथ बेटी को भेजा और कहा कि वह ध्यान से देखे कि दोनों भाई क्या खाना खाते हैं।

अब बेटी भाइयों के साथ चरागाह में गयी। दोपहर होने को आयी। बच्चों को भूख लगने लगी। उन्होंने पिछले दिन की तरह ही बहन से भी कहा, “प्यारी बहन! तुम किसी से भी मत कहना कि हमें खाना कैसे मिलता है।” बहन ने भरोसा दिलाया कि वह किसी से नहीं कहेगी। अब भाई गाय के पास गये और अपने हाथ की सूखी रोटी देते हुए बोले--“ओ प्यारी माँ हम पर ऐसी ही दया करो, जैसी हमारी माँ करती थी।” उस दिन गाय ने उन्हें ढेर सारा खाना दिया। सबने पेट भरकर खाया। लड़की ने थोड़ा-सा खाना अपनी चुन्नी में छिपा लिया।

घर पहुँचते ही माँ ने पूछा कि तुमने चरागाह में क्या खाया? बेटी ने उत्तर दिया--“मेरी चुन्नी से पूछो, मुझ से नहीं।” माँ ने चुन्नी देखी तो उसमें खाना था। माँ ने पूछा--“यह कहाँ से आया?” बेटी ने माँ से कहा कि इसका जवाब चुन्नी ही दे रही है कि खाना गाय ने दिया था।

यह जानकर माँ को बड़ा गुस्सा आया कि सौतेले बच्चे चरागाह में मजे कर रहे हैं। उसने उनकी काली गाय को ही मारने की ठान ली। उसने बीमार होने का बहाना करके वैद्य से कहा कि वह उसके पति से कहे कि काली गाय का मांस खाकर ही वह अच्छी हो सकती है। वैद्य ने ऐसा ही किया। उसके पति को कहा कि उनके घर की काली गाय को ही मारना होगा।

बाप ने तुरन्त ही बच्चों को समाचार भेजा कि माँ को बचाने के लिए उन्हें काली गाय को मारना होगा। उसे लेने वे चरागाह में आ रहे हैं। यह सुनकर दोनों बच्चे गाय के गले में हाथ डालकर रोने लगे। तभी बाप व बेटा चरागाह पर आ पहुँचे। उन्होंने गाय के गले से लिपटे बच्चों के हाथों को हटाकर उन्हें दूर किया और घर को चल पड़े। बच्चे भी पीछे-पीछे घर आये और पिता से कहा--“'पिताजी इसे नहीं मारें, नहीं तो हम फिर से बिना माँ के हो जायेंगे।” उनकी बात पर सबने उनकी खिल्ली उड़ाई और उसी समय गाय को मार दिया गया। माँ ने उसका मांस खाया। उसके पति व बच्चों ने भी खाया। लेकिन इन दोनों भाइयों की आँखों से आँसुओं की धार बहती रही। वे कुछ भी नहीं बोले और जो मांस उन्हें मिला, उसे वे अपने खेत में लें गये। उसके बाद आस-पास लकड़ी इकट्ठा करके उसका दाह संस्कार किया। उससे जो राख बनी, उसे अपने चरागाह में ले गये। वहाँ उन्होंने एक गड्ढा खोदा और जो अस्थियाँ बची थीं, उन्हें व राख को दफना दिया।

दूसरे दिन से दोनों भाई फिर से ग्वाला जाने लगे। फर्क इतना ही था कि काली गाय उनके साथ नहीं थी। वे रोज चरागाह में अपनी गाय की अस्थियों के पास जाकर प्रेम के दो आँसू बहाकर दूसरी गायों के साथ घर लौट आते।

एक दिन हमेशा की तरह वे चरागाह में पहुँचे तो देखा कि अस्थियों की जगह पर एक सुन्दर अलोवेर (घृतकुमारी) का पौधा खड़ा था। वे आश्चर्य से उसके पास गये और उसकी लम्बी-लम्बी पत्तियों को सहलाने लगे। तभी उस सुन्दर पौधे ने उन्हें अपनी गोद में ले लिया और खाने की बौछार कर दी। दोनों भाई उस पर लिपटे हुए बोले--“हमारी माँ कभी गाय बनकर आती है, कभी अलोवेर की बहार बनकर आती है। माँ कितनी अच्छी होती है। क्‍यों! है न?” कहकर दोनों भाई हँसने लगे।

कहते हैं कि उसके बाद वे दोनों भाई अपनी सौतेली माँ के पास नहीं गये। उसी घृतकुमारी ने उनका पालन-पोषण कर उन्हें बड़ा बनाया।

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