भाभी का बंदर : विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक'

Bhabhi Ka Bandar : Vishvambharnath Sharma Kaushik

मैं लपका चला जा रहा था। इसी समय एक ओर से आवाज आयी, “पण्डितजी !” मैंने घूमकर देखा- एक परिचित नवयुवक मेरी ओर आता दिखाई पड़ा। उसका नाम श्यामनारायण था और बी. ए. का विद्यार्थी था। मुझे उसने प्रणाम किया। मैंने मुस्कराते हुए प्रणाम का उत्तर देकर पूछा, “कहो, क्या हालचाल है; परीक्षा हो गई?”

“जी हाँ !”

“परचे कैसे किए?”

“अपनी समझ में तो मैंने ठीक ही किए हैं। पास होने की पूरी उम्मीद है।“

“तो बस ठीक है। कहाँ जा रहे हो?”

“ऐसे ही घूमने निकला हूँ। आप कहाँ जाएँगे?”

“पार्क की तरफ जा रहा हूँ।“

“तो चलिए, मैं भी उधर ही चल रहा हूँ।“

हम दोनों चले। कुछ देर तक इधर-उधर की बातें होती रही। सहसा वह बोल उठा, “पण्डितजी बंदर तो न पालिएगा?”

यह विचित्र प्रश्न सुनकर मैं चौंक पड़ा। मैंने उसकी ओर देखकर मुस्कराते हुए कहा, “क्यों, क्या बंदरों की आढ़त खोली है?”

वह हँसकर बोला, “नहीं, आढ़त तो नहीं खोली है। एक बंदर हमारे यहाँ है। हम उसे निकालना चाहते हैं; लेकिन ऐसी जगह देना चाहते हैं, जहाँ वह सुख से रहे। इसीलिए पूछा।“

“सुख से तो वह कंपनी बाग में रहेगा, जहाँ बंदरों की छावनी है। उसे कंपनी-बाग में छुड़वा दीजिए।“

“वहाँ उसका गुजारा नहीं होगा। वह पालतू बंदर है। बचपन से आदमियों की संगति में रहा है- कंपनी-बाग में नहीं रह सकता। जंगली बंदर पालतू बंदर को नहीं रहने देते।“

“मनुष्य की संगति में वह अछूत हो जाता है, इसीलिए शायद जंगली बंदर उसका बहिष्कार कर देते हैं।“

“कारण चाहे जो हो, पर बात ऐसी ही है। आपने कभी बंदर पाला है?”

“आप अपना मतलब फर्माइए।“

“न पाला हो तो पालकर देखिए। बड़ा लुत्फ आता है।“

“परंतु उस लुत्फ का तिरस्कार आप क्यों कर रहे हैं?”

“हम तो काफी लुत्फ उठा चुके। अब कुछ परिस्थिति ऐसी है, जिससे उसका रखना कठिन हो रहा है। इसीलिए किसी ऐसे व्यक्ति को देना चाहते हैं, जो उसे अच्छी तरह रखे।“

“खैर, मुझे तो बंदर-वंदर पालना नहीं है। अपने मित्रों से पूछूँगा, यदि कोई पालना चाहेगा, तो आपके यहाँ से मँगवाकर भिजवा दूँगा।“

“यदि ऐसा कर दीजिए तो बड़ी कृपा हो।“

‘कृपा’ शब्द सुनकर मैंने समझा कि कुछ दाल में काला है। क्योंकि कृपालु वह समझा जाता है जो कोई वस्तु देता है। जब दाता यह समझता कि उसकी दी हुई वस्तु ग्रहण करके प्रतिग्राही उस पर कृपा करेगा, तब मामला कुछ गड़बड़ होता है। यह सोचकर मैंने उससे कहा, “आखिर मामला क्या है, जो आप उसका दान करने के लिए इतने आतुर हैं? किसी ग्रह की शांति की शांति के लिए पंडितों ने बंदर का दान तो नहीं बताया है?”

“अजी नहीं, यह बात नहीं है।“

“तो फिर क्या बात है?”

“आप सुनना ही चाहते हैं तो चलिए, पार्क में बैठकर बताऊँगा।“

दस मिनट में हमलोग पार्क जा पहुँचे। एकांत स्थान ढूँढकर हम दोनों घास के फर्श पर बैठ गए। बैठते ही मैंने कहा, “अब बताइए, क्या मामला है?”

“लेकिन यह वादा कीजिए कि मामला सुन लेने के बाद भी आप बंदर को अपने किसी मित्र के हवाले करने का प्रयत्न करेंगे।“

“अच्छा, यही सही। अगर उस बंदर में किसी की हत्या करने की आदत नहीं है, तो अवश्य प्रयत्न कर दूँगा।“

“जी नहीं, बड़ा सीधा है—काटना तक नहीं जानता।“

‘तब कोई चिंता नहीं है।“

उसने कहना आरंभ किया।

“हमारी भाभी को जानवर पालने का बेहद शौक है। कुत्ता पाला है, बिल्ली है, तोता है, मैना है, खरगोश है। ये तो सब पहले से ही हैं, अभी पंद्रह-बीस दिन हुए, एक बंदर वाले से बंदर खरीद लिया। हमारे भाई साहब को कुत्ता तथा तोता-मैना रखने में तो कोई आपत्ति नहीं हुई, पर बिल्ली और खरगोश से उन्हें बड़ी चिढ़ है। और वाकई बात यह है कि इन दोनों की वजह से बड़ी गंदगी रहती है और ये नुकसान भी काफी करते हैं। लेकिन जब भाभी ने बंदर खरीदा तो भाई साहब का धैर्य छूट गया ! वह बोले, “आखिर तुम्हारा मतलब क्या है? क्या घर को चिड़ियाघर बनाना चाहती हो?”

परंतु भाभी ने उनको समझा दिया-जैसा कि वह सदैव समझा देती हैं। हमारे भइया में इतनी ही कमजोरी है-भाभी के हठ के सामने उन्हें दबना पड़ता है। अपनी इस हठ की ही बदौलत वह भइया को जैसा नाच नचाना चाहती हैं, नचा लेती हैं।

“आश्चर्य है कि यह दशा होते हुए भी आपकी भाभी को बंदर खरीदने की आवश्यकता महसूस हुई!” मैंने कहा।

मेरी बात पर ध्यान न देकर श्यामनारायण बोला, “जिस दिन बंदर लिया गया, उसी दिन घर में विद्रोह फैल गया। भइया तो कुढ़े ही, मुझे भी भाभी की यह हरकत अच्छी न लगी। परंतु भइया को ‘यद्भाव्यं तद्भविष्यति’ पर अवलंबित होते देख मुझे भी मौन धारण करना पड़ा। परंतु कुत्ते, बिल्ली तथा खरगोश ने तो खुल्लमखुल्ला विद्रोह का झंडा फहरा दिया। खरगोश तो बंदर की सूरत देखते ही दो छलाँग में अपने पिंजरे के अंदर दाखिल हो गया और उसने ‘अंदर रहो’ हड़ताल कर देने में ही कुशल समझी। बिल्ली भी बंदर की सूरत देखते ही फूँ-फाँ करती हुई दम उठाकर नौ-दो ग्यारह हो गई। परंतु कुत्तेराम को बिल्ली और खरगोश के अहिंसात्मक असहयोग में विश्वास नहीं हुआ। वह गुर्राकर बंदर की तरफ जो लपका तो बंदर महाशय उचक कर मेज पर चढ़ गए। मेज पर दो चीनी मिट्टी के गुलदान रक्खे थे। उनमें से एक नीचे गिरकर चूर हो गया। इधर कुत्तेराम अपने दोनों अगले पंजे मेज पर रखकर खड़े हो गए। बंदर ने मेज पर रहने में खतरा देखा। अतएव उचककर दीवार में बनी हुई एक खुली अलमारी पर चढ़ गया। उसमें कुछ बोतलें, शीशे के ग्लास रक्खे थे- उनमें से दो बोतलें-एक केवड़ा जल की, दूसरी आमला-हेयर-आइल की नीचे गिरकर फूट गईं। केवड़ा-जल तथा हेयर-आयल की सुगंध में युद्ध होने लगा। भाभी ने चिल्लाकर मुझे बुलाया। मैंने कमरे का दृश्य देखकर भाभी से कहा, “भाभी, बंदर तुमने बुरा पाला !”

भाभी झल्लाकर बोली, “अच्छा, उपदेश पीछे देना, पहले इस जैक (कुत्ते) को तो बाँधो।“

आतंकवादी जैक को मैंने बाँध दिया- हालांकि उसने बाँधे जाने का बड़ा विरोध किया। बंध जाने पर जैक ने धमकियाँ ‘ब्रॉडकास्ट’ करनी आरंभ की। हमलोगों के लिए वह कोरा भूँकना था, पर बंदरराम का उन धमकियों से पेट पतलाया जा रहा था। खैर, भाभी ने बंदर को तत्तो-थंबो करके अलमारी पर से उतारा। मैंने नुकसान का अनुमान लगाया। आमला हेयर आयल की बोतल 2 रूपये की, केवड़ा जल की बोतल 1) की और 1 रुपये का गुलदान। इस प्रकार 5) रुपये का नुकसान तो बंदरराम के गृहप्रवेश पर ही हुआ। मैंने भाभी से पूछा, “यह कितने में लिया?”

भाभी ने उत्तर दिया, “बीस आने में—क्यों?”

“अब कोई पूछे तो सवा छः रुपये बताना।“

“सवा छः नहीं, पचास बताना। चला वहाँ से बड़ा हिसाबी बनकर! जा, नौकर को भेज, यह काँच समेटे।“

मैंने चलते हुए कहा, “साल-छः महीना रहा तो पचास से अधिक का हो जाएगा।“

“संध्या समय जब भइया ऑफिस से लौटे तो नुकसान का हाल सुनकर बोले, मैंने तो पहले ही कहा था, मगर मेरी सुनता ही कौन है! यह जानवर महा उत्पाती होता है। अभी क्या हुआ है, आगे देखना, क्या-क्या होता है। भला, यह जानवर पालने योग्य है! लेकिन कहें किससे?”

“भइया बोले, ‘आखिर इसके पालने की आवश्यकता क्या थी, मेरी यही समझ में नहीं आता!”

“तुम्हारी समझ में तो कुछ भी नहीं आता! बंदर पालना अच्छा होता है। कहते हैं कि कोई बला घर में आती है तो बंदर के सिर पड़ती है-आदमी बच जाते हैं।“ भाभी ने कहा।

“फिलहाल तो यह खुद ही ऐसी बला हो रहा है कि सब बलाओं का ताऊ है।“

“तुम्हारे लिए होगा बला! चार-छः दिनों के बाद यदि बला कहोगे तो मान लूँगी-अभी नहीं मान सकती।“

“जैक दिन-भर चिल्ल-पों मचाता रहा; क्योंकि उसे बँधे रहने की आदत नहीं थी। रात आयी तो यह समस्या उठ खड़ी हुई कि बंदर कहाँ रखा जाए। रात में जैक को बाँधे रखना उचित नहीं था; क्योंकि वह बँधा रखा जाए तो घर-भर को रतजगा करना पड़े। यदि वह खुला रखा जाए तो बंदरराम की जान का बीमा कौन करे। अंत में भाभी ने बंदर को अपने पास रखने का जिम्मा लिया।“

“रात में बंदरराम भाभी की चारपाई पर लेटे। भइया ने जो यह दृश्य देखा तो जल-भूनकर कलाबत्तू हो गए। भाभी से बोले, ‘तो यह कहो, अब यह बगल में लिटाया जाएगा! हमसे तो यह बंदर ही अच्छा रहा। हमें तुमने कभी भी स्वेच्छा से इस प्रकार… ‘

भाभी बीच में ही बोल उठी, ‘क्या वाहियात बकते हो।‘

‘वाहियात नहीं, ठीक कहता हूँ। इस साले को देखकर मेरा खून खौलता है—देखो तो साला किस तरह लिपटा हुआ लेटा है ! यह मेरा अच्छा रकीब आया। किसी दिन क्रोध आ गया तो साले की टाँगें चीर डालूँगा।‘

‘हाँ, कल को अपने बाल-बच्चे होंगे और वे पास लेटेंगे तो तुम उन्हें भी न देख सकोगे।‘

“अच्छा, तो तुम इसे अपना बच्चा समझती हो? लेकिन यह भी तुम्हें अपनी माता ही समझता है, इसका क्या सुबूत है? बच्चा होता, तब भी गनीमत था, यह साला तो सोलहों आने बालिग है-जैसे 20-21 बरस का जवान पट्ठा होता है।“

‘इस पर भाभी बहुत झल्लाईं। उन्होंने बंदर को उठाकर नीचे फेंक दिया। बोलीं, ‘लो, न लिटाऊँगी ! जैक ने मार डाला तो तुम्हीं को हत्या लगेगी।‘

‘जैक बेचारा इस मुस्टंडे को भला क्या मारेगा ! इससे जैक की ही जान बच जाए तो गनीमत समझो।‘ भइया ने कहा।

“बंदरराम फिर उचककर चारपाई पर हो रहे और उसी प्रकार लेट रहे।“

भइया बोले—‘इस साले को लुत्फ आ गया, अब यह टलने वाला थोड़ा ही है।‘

‘भाभी ने फिर उठाकर फेंक दिया, परंतु, वह फिर आकर लेट गया। भाभी ठिनककर बोली, ‘बताओ, अब मैं क्या करूँ—यह तो बार-बार आ जाता है।‘

‘भइया बोले, ‘करोगी क्या-लिटाये रहो। इसने पिछले जन्म में जो पुण्य किया है, उसका फल तो इसे मिला ही चाहे।‘

दूसरे दिन एक तरफ बंदर बँधा, दूसरी तरफ जैक। अब क्या था, दोनों की प्रश्नोत्तरी चलने लगी। इधर जैक भूँकता था, उधर बंदर महोदय उछल-उछल कर अपनी भाषा में न जाने क्या-क्या सलवातें सुना रहे थे। खरगोशराम तो नजरबंद ही हो गए। वह अपने पिंजरे से ही यह सब दृश्य देखकर ईश्वर को धन्यवाद दे रहा था कि वह काफी सुरक्षित है। बिल्ली लापता थी। लेकिन, भोजन के समय फूँक-फूँककर पैर रखती हुई, काफी चौकन्नी, अपने चारों ओर देखती आयी। उसने दूर से देखा कि जैक और बंदर की जवाबी लड़ रही है। कुछ देर तक वह चुपचाप बैठी देखती रही। अब उसे विश्वास हो गया कि बंदरराम फिलहाल खतरनाक नहीं हैं। तब वह आयी; लेकिन भोजन से निवृत होने के पश्चात ‘आत्मनं सततं रक्षेत’ के सिद्धांतानुसार तुरंत ही अज्ञातवास में चली गयी।

‘मुझे मजाक सूझा। दूसरे बंदर को चुप करने का भी विचार था। हमारे यहाँ होली में भाँग की माजून बनी थी। उसमें में मैंने एक बरफी चुपके से लाकर बंदर को दी। बरफी लेकर पहले तो उसने सूँघी, तत्पश्चात थोड़ी-सी दाँत से कतरी। मीठी जो लगी तो झट से मुँह में रख ली। थोड़ी देर तक तो गाल में दाबे रहा, तत्पश्चात कहा गया। इसके पश्चात् मैं एक कार्यवश कुछ देर के लिए चला गया। वहाँ से लौटकर जो देखता हूँ, तो ऐंठासिंह चुपचाप अफीमची की भाँति सिर झुकाए और आँखें बंद किए बैठे हैं। मैंने कहा, ‘कहो दोस्त, क्या हाल हैं?’ मेरा कंठस्वर सुनकर उसने आँखें खोलीं। आँखें अंगारों की तरह सुर्ख हो रही थीं। कुछ क्षणों तक मेरी ओर देखकर फिर आँखें बंद कर लीं। मुझे एक और बात सूझी। कान धोने की पिचकारी में पानी भरा और लाकर उसके मुँह पर फच्च से मारी। मुँह पर पानी पड़ते ही ऐंठासिंह एकदम उछल पड़े और इस कदर खफा हुए कि यदि खुले होते तो मेरी खैर न थी।

भाभी बोली, ‘यह क्या करने लगे? बेचारे को परेशान करते हो।‘

मैंने कहा-‘जब पाला है तो इसका कुछ लुत्फ भी तो लेना चाहिए। सवा छः रुपये वसूल कैसे होंगे।‘

थोड़ी देर बाद ऐंठासिंह पुनः समाधिस्थ हो गए। मेरा इरादा फिर पिचकारी मारने का था; पर भाभी नाराज होने लगीं।

“दूसरे दिन मैंने फिर माजून की बरफी दी। उसने हाथ में लेकर बरफी सूँघी, फिर हाथ से जमीन पर रगड़ी—शायद उसका नशा पोंछने के लिए ऐसा किया हो। रगड़कर छोड़ दी और उसकी ओर पीठ करके बैठा। लेकिन बीच-बीच में सिर घुमाकर देख लेता था कि पड़ी है या नहीं। दो-चार दफे यह क्रिया करके फिर घूमा और पैर से धीरे-धीरे उसने बरफी को अपनी ओर खिसका-खिसकाकर अपने बिल्कुल निकट कर लिया और बैठ गया। मैंने एक लकड़ी से बरफी खींचने का प्रयत्न किया। ज्यों ही मैंने बरफी की ओर लकड़ी बढ़ायी, त्यों ही उसने चट उठाकर मुँह में दर ली। थोड़ी देर तक गाल में दाबे रहा, तत्पश्चात खा गया। आधे घंटे पश्चात् फिर वही दशा हुई। आँखें बंद, सिर झुका हुआ। मैंने पुनः पिचकारी का प्रहार किया। उसने फिर चौंककर छलाँग मारी। आज उसे बड़ा नागवार गुजरा। बड़ी देरतक मेरी ओर देखकर खों खों करता रहा। उस दिन से मेरी उसकी शत्रुता हो गई। जब मुझे देखता तो कान दबाकर खों-खों करने लगता। तीसरे दिन मेरी इच्छा फिर माजून देने की हुई। परंतु भाभी बिगड़ने लगीं कि ‘क्या उसे भँगेड़ी बनायेगा!” मैंने भी सोचा कि कहीं कमबख्त को भाँग की आदत पड़ गई तो बड़ी मुसीबत होगी। नशे के उतार के वक्त उसकी बुरी दशा होती थी। मिनिट-मिनिट पर जंभाई लेता, कभी लेट जाता, कभी फिर उठकर बैठता। जैक ने भूँकना बंद कर दिया था। वह भी चुपचाप उसकी इस दुर्दशा को देखा करता। उस समय ऐंठासिंह अपनी जान से बेजार दिखायी पड़ता था। मुँह लटककर लौकी हो जाता था। मैं पीछे से जाकर खोपड़ी पर एक चपत रसीद करता तो कुछ क्षणों के लिए आग बबूला होकर खूब चिल्लाता और उछल-फाँद करता, परंतु थोड़ी देर बाद फिर वही दशा हो जाती।

एक दिन भाभी की माता भाभी को देखने आयीं। वह काशी जा रही थीं- भाभी से मिलने के लिए चौबीस घंटे के लिए यहाँ ठहर गयीं। उस दिन संयोगवश बंदर की जंजीर, बाँधते समय कुछ ढीली रह जाने के कारण खुल गई। भाभी की माता जो उधर से निकलीं तो बंदर उचक कर उनके कंधे पर चढ़ गया। वह चीख मारकर भागीं। भागते समय ठोकर जो लगी तो मुँह के बल गिरीं। आगे के दो दाँत हिलते थे, वह टूटकर बाहर आ गए। बंदर कूदकर अलग हो गया। हमलोगों ने दौड़कर उन्हें उठाया। भाभी के काटो तो लहू नहीं। माता ने भाभी को बहुत डाँटा। बोली-‘वाह री लड़की, ऐसे-ऐसे जानवर पाल रखे हैं-कोई भला आदमी तेरे यहाँ क्यों आवेगा ! मैं अभी-अभी जाऊँगी, मेरा असवाब बँधवा दे।‘

भाभी ने खुशामद-वरामद करके उन्हें शांत किया। मैंने उनके दोनों दाँत पुड़िया में लपेटकर उन्हें दिए और कहा-‘इन्हें काशी जाकर गंगाजी में छोड़ देना।‘

जब माताजी का क्रोध शांत हुआ तो बोलीं-‘ये दाँत बड़ा दुख दे रहे थे। मैं इन्हें उखड़वाने का विचार कर भी रही थी।‘

यह सुनकर मैंने भाभी से कहा-‘यदि हमलोग दाँत उखाड़ने का व्यवसाय शुरू कर दें तो काफी आमदनी हो।‘

भाभी कुढ़कर रह गयीं। इधर बंदरराम ने उपद्रव मचाना शुरू किया। तीन-चार फूलों के गमले तोड़ डाले। जबसे बंदर बँधा रहने लगा था, तबसे खरगोशराम बाहर निकलने लगे थे। उस समय वह बाहर घूम रहा था। बंदर ने उसका कान पकड़ा और थोड़ी दूर तक घसीटता हुआ ले गया। हमलोग दौड़े तब छोड़ा। छूटते ही खरगोश बेतहाशा भागा और अपनी काबुक में घुस गया। उसने समझा होगा कि आज बला टल गई। भाभी ने बड़ी कठिनता से उसे पकड़ा। उन्हीं के वश का है भी, मुझसे तो शत्रुता ही मानता है।

“इस प्रकार जब छूट जाता, तब थोड़ी देर उपद्रव और कुछ-न-कुछ नुकसान करके काबू में आता। अभी तीन-चार दिनों की बात है, भइया से लिपट गया था।“

“क्यों?” मैंने पूछा।

“अब क्या बताऊँ !” इतना कहकर वह मुस्कराया।

“यदि सर्वथा अकथनीय बात हो तब तो न बताओ-अन्यथा बताने में क्या हर्ज है?”

“बात यह हुई कि इतवार का दिन था। दोपहर में भाभी ने बंदर को खोलकर अपने पास बँधवा लिया और उससे खेलने लगीं। इसी समय वहाँ भइया पहुँच गए। भइया ने भाभी से कुछ छेड़छाड़ की होगी-बस यह देखकर वह भइया से लिपट गया। वह तो कहिए कि भइया ने दोनों हाथों से उसकी गर्दन पकड़ ली अन्यथा बहुत संभव था कि वह भइया को भंभोड़ खाता। भइया भाभी से बोले-‘तुमने इसे मेरा खून करने के लिए पाला है। यदि तुम्हें इसी को खसम बनाके रखना हो तो रखो—आजसे तो मैं तुमसे बात नहीं करूँगा !’ इतना कहकर भइया क्रोध में भरे हुए घर के बाहर चले गए। दिन भर न जाने कहाँ रहे। रात के नौ बजे लौटे। भइया के चले जाने के बाद भाभी बहुत रोयी। मुझसे बोली-‘इस निगोड़े को किसी को दे दो या कहीं छुड़वा दो- अब मैं इसे नहीं रखूँगी।‘ उस दिन से वह रात-दिन बँधा रहता है। एक मिनट के लिए भी नहीं खोला जाता।

“और रात में कहाँ रहता है?” अपने राम ने पूछा।

“रात में भी बँधा रहता है। अब जैक उससे नहीं बोलता। वह समझ गया है कि यह भी घर का ही जानवर है।“

“तब गनीमत है। यदि कहीं उसकी आदत यही होती कि…..”

“श्यामनारायण मेरा तात्पर्य समझकर बोला-“नहीं, वह आदत नहीं रही ! भाभी ने उसे तीन-चार ही दिन अपने पास लिटाया। उसके बाद पहले तो जैक के डर से ऊपर छत पर बँधवा देती रहीं, बाद में जब जैक का विरोध भाव जाता रहा, तब कहीं भी बाँध दिया जाता था। हाँ, तीन-चार दिन तो वह खूब चीखा-चिल्लाया; परंतु फिर शांत हो गया। यह उस बंदर की कथा है। अब भाभी मेरी नाक में दम किए हुए हैं- नित्य कहती हैं कि बंदर का कुछ प्रबंध किया? अब आप ही बताइए, मैं क्या प्रबंध करूँ?”

“किसी बंदरवाले को दे दो।“

“बंदरवाले नहीं लेते। वे कहते हैं-‘हम क्या करेंगे ! सीखा हुआ होता तो हम ले लेते।“

“तो उसे कंपनी बाग में छुड़वा दो।“

“भाभी वहाँ नहीं छुड़वाने देती। कहती हैं, जंगली बंदर उसे मार डालेंगे।“

“अजी न कहीं मार डालेंगे। दो-एक रोज में सब हिल-मिल जाएँगे। भाभी से यह कह दो कि मित्र ने माँगा है, उनके यहाँ पहुँचाए देता हूँ और बाग में छुड़वा दो। झगड़ा मिटे।“

“हाँ, यह तरकीब ठीक है—थोड़ा झूठ तो बोलना पड़ेगा।“

“यदि आप हरिश्चंद्र के अवतार नहीं हैं तो ऐसे अवसर पर झूठ बोलने में कोई हर्ज भी नहीं है।“

“ठीक है, ऐसा ही करूँगा।“