अनाधिकार प्रवेश (बांग्ला कहानी) : रवीन्द्रनाथ ठाकुर

Anadhikar Pravesh (Bangla Story in Hindi) : Rabindranath Tagore

किसी एक सुबह सड़क के पास खड़े हो कर एक लड़का एक दूसरे लड़के के साथ एक अतिसाहसिक कार्य से सम्बंधित शर्त रख रहा था। ठाकुरबाड़ी के पुष्पवाटिका से फूल तोड़ सकेगा या नहीं, यही उनके तर्क का विषय था। एक लड़का बोला, ‘सकेगा’ और दूसरा लड़का बोला ‘कभी नहीं सकेगा’।
ये काम सुनने में तो बहुत आसान है लेकिन करना उतना सहज नहीं, ऐसा क्यों है ये समझाने के लिए थोड़ा और विस्तार से बताना आवशयक है।
स्वर्गवासी माधवचन्द्र तर्कवाचस्पति की विधवा पत्नी जयकाली देवी राधानाथ जी के मन्दिर की उत्तराधिकारिणी हैं। अध्यापक महाशय को तर्कवाचस्पति उपाधि मिली ज़रूर थी लेकिन वो कभी अपनी पत्नी के सामने ये सिद्ध नहीं कर पाये थे। कुछ पंडितों का कहना था कि उनकी उपाधि सार्थक हुई थी क्योंकि सारे तर्क और वाक्य सबकुछ उनकी पत्नी के हिस्से ही आये थे और वो पतिरूप मे इसका फलभोग कर रहे थे।
सत्य तो यह था कि जयकाली ज़्यादा बात नहीं करती थी लेकिन बहुधा सिर्फ दो बातों में, कभी-कभी तो नीरव रह कर भी बड़ी-बड़ी बात करनेवालों की बोलती बन्द कर देती थी।
जयकाली दीर्घाकार, बलिष्ठ देहयष्टि, तीक्ष्णनासिकायुक्त प्रखरबुद्धि महिला थी। उनके पति के जीवित रहते ही उन्हें प्राप्त देवोत्तर संपत्ति उनके हाथ से निकली जा रही थी। किन्तु विधवा जयकाली ने अपनी समस्त बक़ाया संपत्ति वसूल कर उसकी सीमा-सरहद भी तय कर दी, जो उसका प्राप्य है कोई भी उसमें से एक रत्ती भी उसे वंचित नहीं कर सकता था।
इस महिला में बहुमात्रा में पौरुष होने के कारण उसका कोई संगी-साथी नहीं था। दूसरी स्त्रियां उससे भय खाती थीं। परनिंदा, छोटी बात या फिर बात-बात पर रोना-धोना उसके लिए असहनीय था। इतना ही नहीं पुरुष भी उससे भय ही खाते थे; क्योंकि ग्रामवासी चण्डीमण्डप में बैठ कर आलस्य से भरे गपबाजी में जो दिन बिताते थे उसे वो नीरव घृणापूर्ण कटाक्ष द्वारा धिक्कारती थी जो उनके स्थूल जड़त्व को भी भेद कर उनके ह्रदय में छेद कर देती थी।
प्रबल रूप में घृणा करना और उसी रूप में उसे प्रकट करने की असाधारण क्षमता थी उस प्रौढ़ा विधवा में। उनके विचारदृष्टि में यदि कोई अपराधी ठहरता तो उसे बातों से बिना बातों के भी भाव-भंगिमा से ही दग्ध कर देती थी।
गाँव के सारे कार्यक्रमों, आपदा-विपदा में उपस्थिति रहती। हर जगह वो अपने लिए एक गौरवपूर्ण सर्वोच्च स्थान बिना चेष्टा के ही प्राप्त कर लेती थी। जहां भी उनकी उपस्थिति रहेगी सबके बीच उन्हें ही प्रधान-पद मिलेगा इस विषय में न उनको और न ही दूसरों को कोई संदेह रहता।

रोगी सेवा में सिद्धहस्त थी लेकिन रोगी उनसे यमराज की भांति डरता। रोगमुक्त होने के लिए नियमपालन में लेशमात्र भी उल्लंघन जयकाली देवी की क्रोधाग्नि रोगी के बुखार से भी अधिक तप्त कर देती थी। दीर्घाकार ये महिला गाँव के मस्तक पर विधाता के कठोर नियमदंड की तरह सदैव उपस्थित रहती; कोई उनकी अवहेलना नहीं कर सकता था और न ही उनसे प्रेम करता था। गाँव के प्रत्येक व्यक्ति से उनका योगसूत्र था लेकिन फिर भी उनके जैसी एकाकी महिला और कोई नहीं थी।
जयकाली देवी निसंतान थी। मातृ-पितृहीन अपने भाई की दो संतानों को लालन-पालन के लिए अपने घर ले आई। घर में कोई पुरुष अभिभावक न होने के कारण उन दोनों पर कड़ा अनुशासन नहीं था और स्नेहान्ध बुआ के प्रेम से दोनों बिगड़ते जा रहे हैं ऐसी बात कोई नहीं कह सकता था। उन दोनों में से बड़े की उम्र अठारह वर्ष थी। कभी-कभी उसके विवाह के प्रस्ताव भी आने लगे थे और परिणयसूत्र में बंधने के प्रति उस किशोर का मन भी कदाचित उदासीन नहीं था लेकिन उसकी बुआ ने इस सुखवासना को एक दिन के लिए भी प्रश्रय नहीं दिया। अन्य महिलाओं की भांति किशोर नवदम्पत्ति के नवप्रेमोदगम दृश्य उनकी कल्पना में बहुत उपभोग्य, मनोरम जैसा कुछ नहीं था। और उनका भतीजा विवाह कर दूसरे पुरुषों की तरह दिनभर घर में पड़े रह कर पत्नी के प्रेम आह्लाद में खा-पी कर मोटा होता रहे- ये सम्भावना उनके सम्मुख असंभव प्रतीत होती थी। वो बहुत कड़े शब्दों में कहतीं- पुलिन पहले उपार्जन करना शुरू करे, उसके बाद ही बहू घर आएगी। बुआ के इतने कठोर वाक्य सुन आगंतुकों का हृदय फट जाता।
ठाकुरबाड़ी (मन्दिर) जयकाली देवी के लिए सर्वप्रमुख और यत्नशील धन था। भगवान के शयन, स्नान-आहार में तिलमात्र की त्रुटि भी असहनीय थी। पुजारी ब्राह्मण भी अपने दो देवताओं की अपेक्षा इस मानवी से सबसे ज़्यादा भय खाते थे। पहले, एक समय था जब स्वंय देवता के नाम से निकला हिस्सा भी उन्हें पूरा नहीं मिलता था। कारण; पुजारी ब्राह्मण की एक और पूजक-मूर्ति गोपनीय मन्दिर में थी; उसका नाम निस्तारिणी था।छुपा कर घी-दूध, छेना, मैदा, नैवेद्य स्वर्ग और नर्क में बराबर बाँट दिया करता था।लेकिन आजकल जयकाली के सामने देवता को उनके हिस्से का सोलह आना पूरा ही भोग चढ़ा दिया जाता है, उपदेवता को जीविका के लिए अब अन्यत्र उपाय देखना पड़ रहा है।
जयकाली की सेवा और यत्न से मन्दिर प्रांगण साफ-सुथरा झकझक करता है– कहीं एक तिनका भी पड़ा नहीं रहता। प्रांगण के पार्श्व में माधवी लता उग आयी है। उसके यदि एक भी सूखा पत्ता गिरे तो जयकाली तुरन्त उसे उठा कर बाहर फेंक देती है। मन्दिर की परिपाटी, शुद्धता और पवित्रता में लेशमात्र भी व्यवधान होने पर जयकाली देवी उसे सहन नहीं कर पाती थी। पहले गाँव के लड़के छुपा-छुपी खेलते हुए इसी प्रांगण में आश्रय लेते थे लेकिन अब ये सुयोग सम्भव नहीं। पर्व-उत्सव के अतिरिक्त मन्दिर प्रांगण में ऊधम मचाने की अनुमति किसी को नहीं। कभी-कभी बकरी शावक भी घुस आते थे पौधे लता-पत्ता खा कर अपनी भूख मिटाने के लिए, लेकिन अब यहां पाँव धरने पर दंड प्रहार खा कर मीमियाते हुए भागना पड़ता है।
अनाचारी व्यक्ति चाहे वो परम आत्मीय सम्बन्धी ही क्यों न हो उसका मन्दिर प्रांगण में प्रवेश नहीं हो सकता था। जयकाली की एक भगिनी का पति, जो खान-पान में धर्मच्युत, मांस लोलुप था आत्मीयतापूर्वक भेंट करने आया, किंतु जयकाली के त्वरित प्रवेश-विरोध प्रदर्शन पर सगी बहन से सम्बन्ध विच्छेद हो गया। इस मन्दिर से सम्बंधित अनावश्यक अतिरिक्त सतर्कता सामान्य व्यक्तियों के बीच पागलपन ही माना जाता था।
जयकाली बाकि हर जगह कठोर, दृढ और स्वतन्त्र थी, मात्र इस मन्दिर में वो सम्पूर्ण आत्मसमर्पित थी। इस मूर्ति के सामने जयकाली जननी, पत्नी, दासी—इनके सामने वो सतर्क, सुकोमल, सुंदर और नम्र थी। एकमात्र इस मन्दिर प्रस्तर और अंदर विराजे देवता के सामने ही जयकाली का निगूढ़ नारीस्वभाव चरितार्थ होता था, यही उसका स्वामी, पुत्र और समस्त संसार बन गया था।
इतना जानने के बाद पाठक अब समझ सकते हैं कि मन्दिरप्रांगण से फूल तोड़ कर दिखाने की प्रतिज्ञा करनेवाले लड़के के साहस की सचमुच कोई सीमा नहीं थी। वो जयकाली का छोटा भतीजा नलिन था। वो अपनी बुआ को बहुत अच्छी तरह जानता है फिर भी उसकी दुर्दांत प्रकृति, बुआ के अनुशासन के वश में नहीं आयी। जहाँ भी विपदा हो उसका आकर्षण भी वहीं होता, और जहाँ अनुशासन वहीं उसका मन उसे लंघित करने को चंचल हो उठता। जनश्रुति है, नलिन की बुआ भी अपने बाल्यकाल में उसी के स्वाभाव की अभिरूप थी।
जयकाली उस समय मातृ स्नेहमिश्रित भक्ति भाव सहित देवता की ओर दृष्टि टिकाये दालान में बैठ कर माला जाप कर रही थी।
लड़का दबे पाँव चुपचाप पीछे से आ कर माधवी लता के निचे खड़ा हो गया। देखा, निचली शाखाओं के फूल देवता को चढाने के लिए तोड़ लिए गए हैं, तब बहुत ही धीरे धीरे सावधानी से मंच पर चढ़ गया। ऊँची डाल पर छोटी-छोटी कलियाँ लगी हुई थीं, उन्हें ही तोड़ने के लिए उसने अपने शरीर और बाहों को ऊपर उठाना शुरू ही किया था की जीर्ण मंच मचमच की आवाज़ के साथ टूट कर टुकड़े हो गया। मंच से झूलती लताएँ और नलिन दोनो ही एक साथ भूमिसात हो गए।
जयकाली दौड़ कर आयी और अपने भतीजे के काण्ड की दर्शक बनी। ज़ोर से उसकी बाँह पकड़ उसे ज़मीन से उठाया। नलिन को काफी चोट आयी थी लेकिन उन चोटों को पर्याप्त सजा नहीं कहा जा सकता क्योंकि वो अज्ञात ही मिल जाता है ऐसा जयकाली देवी का विचार था, इसलिए उस चोटिल लड़के पर बुआ की कठोर मुष्टि का प्रहार भी पड़ने लगा। लड़के की आँख से एक बून्द आंसू नहीं टपका तब उसे खींचते हुए एक कमरे में ला कर बन्द कर दिया गया इतना ही नहीं आज शाम का नाश्ता भी न देने का आदेश हो गया।
खाना बन्द होने का आदेश सुन दासी लीलामति छलछलाती आँखों के साथ बच्चे को क्षमा कर देने का अनुरोध करने लगी किन्तु जयकाली का मन नहीं पसीजा। उस घर में ऐसा कोई दुःसाहसी नहीं था जो ब्राह्मणी के आदेश की अवमानना कर उस भूखे बच्चे को कुछ भी छुपा कर खिला सके।
जयकाली नया मंच बनाने का आदेश दे पुनः माला जाप करने दालान में आ कर बैठ गयी। कुछ देर बाद लीलामति पुनः उपस्थित हुई, बोली लड़का भूख से रो रहा है उसे कुछ खाने के लिए दे दूँ?
अविचलित एक शब्द में उत्तर मिला, नहीं! लीलामति चुपचाप लौट गयी। पास ही एक कमरे में बन्द नलिन के रोने का करुण स्वर धीरे-धीरे क्रोध गर्जना में परिवर्तित होने लगा—अंत में बहुत देर बाद उसका कातर रुद्ध कंठस्वर माला जपती हुई बुआ के कान तक पहुंचा।
नलिन का रुदन जब परिश्रांत और मौनप्राय हो आया ठीक तभी एक दूसरे प्राणी की डरी हुई कातर ध्वनि सुनाई पड़ने लगी और उसके साथ ही एकसाथ दौड़ते हुए चीत्कार करते कुछ लोगों की कलरव ध्वनि मन्दिर के सम्मुख उपस्थित हुई।
सहसा मन्दिर प्रांगण में पदध्वनि हुई। जयकाली पीछे मुड़ कर देखी, भूमि तक माधवी लता हिल रही है।
मृदु स्वर में जयकाली आवाज़ दी, ‘नलिन!’
कोई उत्तर नहीं मिला। समझी, किसी प्रकार बन्दीगृह से पलायन कर फिर से उन्हें तंग करने यहां पहुँच गया है।
अपनी मुस्कान होंठों को दबा कर छुपाते हुए प्रांगण में उत्तर आयी।
लताकुंज के पास जा कर पुनः आवाज़ लगायी, ‘नलिन!’
कोई उत्तर नहीं मिला। एक शाखा हटा कर जयकाली ने देखा, एक शूकर प्राणभय से आक्रांत हो घने लताकुंज में आश्रय ले कर छुपा है।
जो लताकुंज इष्टदेवता के वृन्दावन का प्रतिरूप, जिसकी खिली हुई कलियों की सुगन्ध गोपियों के श्वास सुरभि की याद दिलाती है और कालिंदी तट के सुखविहार, सौंदर्यस्वप्न को जागृत करती है--- जयकाली के प्राणों से भी अधिक यत्न से पवित्र बनाये रखे इस नंदनभूमि पर अकस्मात ऐसी वीभत्स घटना घट गयी!
पुजारी लाठी हाथ में ले दौड़ा आया।
जयकाली तुरंत ही अग्रसर हो उसे रोक दी और द्रुतगति से मंदिर का मुख्यद्वार अंदर से बन्द कर दी।
सुरापान से उन्मत डोम दल मन्दिर द्वार पर आकर चिल्लाने लगे उन्हें उनका बलि-पशु वापस चाहिए!
जयकाली बन्द द्वार के पीछे से ही चिल्ला कर बोली, ‘जाओ, यहाँ से भाग जाओ! मेरा मंदिर अपवित्र मत करो!
डोम दल वापस लौट गया। जयकाली ब्राह्मणी अपने राधानाथ जी के मन्दिर में एक अशुचि प्राणी को आश्रय देगी, ये प्रत्यक्ष देख कर भी किसी को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था।
इस सामान्य सी एक घटना ने अखिल जगत के महादेवता को भले ही परम प्रसन्न किया होगा किन्तु समाज नामधारी अतिक्षुद्र देवता बहुत क्षुब्ध हो गए।

(अनुवाद: रत्ना रॉय)

अनुवाद भेद: अनधिकार प्रवेश रबीन्द्रनाथ टैगोर

एक दिन प्रात:काल की बात है कि दो बालक राह किनारे खड़े तर्क कर रहे थे। एक बालक ने दूसरे बालक से विषम-साहस के एक काम के बारे में बाज़ी बदी थी। विवाद का विषय यह था कि ठाकुरबाड़ी के माधवी-लता-कुंज से फूल तोड़ लाना संभव है कि नहीं। एक बालक ने कहा कि 'मैं तो ज़रूर ला सकता हूँ' और दूसरे बालक का कहना था कि 'तुम हरगिज़ नहीं ला सकते।'
सुनने में तो यह काम बड़ा ही सहज-सरल जान पड़ता है। फिर क्या बात थी कि करने में यह काम उतना सरल नहीं था ? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए आवश्यक है कि इससे संबंधित वृत्तांत का विवरण कुछ और विस्तार के साथ प्रस्तुत किया जाए।
मंदिर राधानाथ जी का था और उसकी अधिकारिणी स्वर्गीय माधवचंद्र तर्कवाचस्पति की विधवा पत्नी जयकाली देवी थीं।
जयकाली का आकार दीर्घ, शरीर दृढ़, नासिका तीक्ष्ण और बुद्धि प्रखर थी। इनके पतिदेव के जीवनकाल में एक बार परिस्थिति ऐसी हो गई थी कि इस देवोत्तर संपत्ति के नष्ट हो जाने की आशंका उत्पन्न हो गई थी। उस समय जयकाली ने सारा ब़ाकी-ब़काया देना अदा करके, हद-चौहद्दी पक्की करके और लंबे अरसे से बेदख़ल जायदाद को दख़ल-क़ब्जे में ला करके सारा मामला साफ़-सूफ़ कर दिया था। किसी की यह मजाल नहीं थी कि जयकाली को उनके प्राप्य धन की एक कानी कौड़ी से भी वंचित कर सके।
स्त्री होने पर भी उनकी प्रकृति में पौरुष का अंश इतने प्रचुर परिमाण में था कि उनका यथार्थ संगी कोई भी नहीं हो सका था। स्त्रियाँ उनसे भय खाती थीं। परनिंदा, ओछी बात, रोना-धोना या नाक बजाना उन्हें तनिक भी सहन नहीं होता था। पुरुष भी उनसे डरे-डरे रहते थे। कारण यह था कि चंडी-मंडप की बैठक-बाजी में ग्रामवासी भद्र-पुरुषों का जो अगाध आलस्य व्यक्त होता था, उसे वह एक प्रकार के नीरव घृणापूर्ण तीक्ष्ण कटाक्ष से कुछ इतना धिक्कार सकती थीं कि उनकी धिक्कार आलसियों की स्थूल जड़ता को भेदकर सीधे अंतर में उतर पड़ता था।
प्रबल घृणा करने एवं उस घृणा को प्रबलतापूर्वक प्रगट करने की असाधारण क्षमता इस प्रौढ़ा विधवा में थी। विचार-निर्णय से जिसे अपराधी मान लेतीं, उसे वाणी और मौन से, भाव और भंगिमा से बिलकुल ही जलाकर भस्म कर डालना ही उनका स्वभाव था।
उनके हाथ गाँव के समस्त हर्ष-विषाद में, आपद्-संपद् में और क्रिया-कर्म में निरलस रूप से व्यस्त रहते थे। हर कहीं अतिसहज भाव से और अनायास ही अपने लिए गौरव का स्थान अधिकार कर लिया करती थीं। जहाँ कहीं भी वह उपस्थित होतीं वहाँ उनके अपने अथवा किसी अन्य उपस्थित व्यक्ति के मन में इस संबंध में रत्ती-भर भी संदेह नहीं रहता था कि सबके प्रधान के पद पर तो वही हैं।
रोगी की सेवा में वह सिद्धहस्त थीं, पर रोगी उनसे इतना भय खाता कि कोई यम से भी क्या डरेगा! पथ्य या नियम का लेशमात्र भी उल्लंघन होने पर उनका क्रोधानल रोगी को रोग के ताप की अपेक्षा कहीं अधिक उत्तप्त कर डालता था।
यह दीर्घाकृति कठिन-स्वभाव विधवा गाँव के मस्तक पर विधाता के कठोर नियम-दंड की भाँति सदा उद्यत रहती थीं। किसी को भी यह साहस नहीं हो सकता था कि वह उन्हें प्यार करे अथवा उनकी अवहेलना करे।
विधवा निस्संतान थीं। उनके घर में उनके दो मातृ-पितृहीन भतीजे पाले-पोसे जा रहे थे। यह तो कोई नहीं कह सकता था कि पुरुष अभिभावक के अभाव में इन बालकों पर किसी प्रकार का शासन नहीं था अथवा स्नेहांध फूफी-माँ के लाड़-दुलार के कारण वे बिगड़े जा रहे थे। बड़ा भतीजा अठारह वर्ष का हो गया था। अब तक उसके विवाह के प्रस्ताव भी आने लगे थे। परिणय बंधन के संबंध में उस बालक का अपना चित्त भी कोई उदासीन नहीं था। परंतु फूफी-माँ ने उसकी इस सुख-वासना को एक दिन के लिए भी कोई प्रश्रय नहीं दिया। वह कठिन हृदयतापूर्वक कहती कि नलिन पहले उपार्जन करना आरंभ कर ले तो पीछे घर में बहू लाएगा। फूफी-माँ के मुख से निकले इस कठोर वाक्य से पड़ोसिनों के हृदय विदीर्ण हो जाते।
ठाकुरबाड़ी जयकाली का सबसे अधिक प्यारा धन था। उसके लिए उनके यत्नों का कोई अंत न था। ठाकुरजी के सेवन, मज्जन, अशन-वसन-शयन आदि में तिल-भर त्रुटि भी कदापि नहीं हो सकती थी। पूजा-कार्य में नियुक्त दोनों ब्राह्मण देवता की अपेक्षा इस एक मानवी ठकुरानी से कहीं अधिक भयभीत रहते थे। पहले एक समय ऐसा भी था कि देवता के नाम पर उत्सर्ग किया हुआ पूरा नैवेद्य देवता को मिल नहीं पाता था। परंतु जयकाली के शासनकाल में पुजापे के शत-प्रतिशत अंश ठाकुरजी के भोग में ही लगते थे।
विधवा के यत्न से ठाकुरबाड़ी का प्रांगण स्वच्छता के मारे चमचमाता रहता था। कहीं एक तिनका तक भी पड़ा नहीं पाया जा सकता था। एक पार्श्व में मंच का अवलंबन करके माधवी-लता का वितान फैला था। उसके किसी शुष्क पत्र के झरते ही जयकाली उसे उठाकर बाहर डाल आती थीं। ठाकुरबाड़ी की परंपरागत परिपाटी से परखी जाने वाली परिच्छन्नता एवं पवित्रता में रंच मात्र का व्याघात भी विधवा के लिए नितांत असहनीय था। पहले तो टोले के लड़के लुका-छिपी खेलने के उपलक्ष्य में इस प्रांगण में प्रवेश करके इसके किसी प्रांतभाग में आश्रय ग्रहण किया करते थे और कभी-कभी टोले की बकरियों के पठरू भी पैठकर माधवी लता के वल्कलांश का थोड़ा-बहुत भक्षण कर जाया करते थे। परंतु जयकाली के काल में न तो लड़कों को वह सुयोग मिल पाता और न छागल-शिशुओं को ही। पर्व-दिवसों के अतिरिक्त कभी भी बालकों को मंदिर के प्रांगण में प्रवेश का अवसर नहीं मिल पाता था और छागल-शिशु भी दंड-प्रहार का आघात मात्र खाकर सिंहद्वार के पास से ही तीव्र स्वरों में अपनी अजा-जननी का आह्वान करते हुए लौट जाने को विवश हो जाते थे।
परम आत्मीय व्यक्ति भी यदि अनाचारी हो तो देवालय के प्रांगण में प्रवेश करने के अधिकार से सर्वथा वंचित रहना पड़ता था। जयकाली के एक बावरची-कर-पक्क-कुक्कुट-मांस-लोलुप-भगिनी-पति महोदय आत्मीय संदर्शन के उपलक्ष्य में ग्राम में उपस्थित होकर मंदिर के प्रांगण में प्रवेश का उपक्रम कर रहे थे कि जयकाली ने शीघ्रतापूर्वक तीव्र आपत्ति प्रकट की थी, जिसके कारण उनके लिए अपनी सहोदरा भगिनी तक से संबंध-विच्छेद की संभावना उपस्थित हो गई थी। इस देवालय के संबंध में विधवा को इतनी अतिरिक्त एवं अनावश्यक सतर्कता थी कि सर्वसाधारण के निकट तो वह बहुत-कुछ आडंबर सी प्रतीत होती थी।
अन्यत्र तो जयकाली सर्वत्र ही कठिन-कठोर थीं, उन्नत मस्तक थीं, स्वतंत्र निर्बंध थीं। परंतु केवल इस मंदिर के सम्मुख उन्होंने संपूर्ण रूप से आत्मसमर्पण कर दिया था। मंदिर में प्रतिष्ठित विग्रह के प्रति वह एकांत भाव से जननी, पत्नी, दासी आदि सब-कुछ थीं। उसके संबंध में वे सदैव सतर्क, सुकोमल, सुंदर एवं संपूर्णत: अवनम्र थीं। प्रस्तर-निर्मित यह मंदिर तथा इसमें प्रतिष्ठित प्रस्तर-प्रतिमा ये दो वस्तुएँ ही ऐसी थीं, जो उनके निगूढ़ नारी-स्वाभाव की एकमात्र चरितार्थक के विषय थीं। यही दो वस्तुएँ उनके स्वामी और पुत्र के स्थान पर थीं। यही दो उनका समस्त थीं।
इसी से पाठक समझ लेंगे कि जिस बालक ने मंदिर-प्रांगण से माधवी-मंजरी का आहरण करने की प्रतिज्ञा की थी, उसका साहस भी असीम रहा होगा। वह बालक और कोई नहीं, जयकाली का भ्रातुष्पुत्र नलिन था। वह अपनी फूफी-माँ को बड़ी भली तरह जानता था, तथापि उसकी दुर्दांत प्रकृति किसी प्रकार के भी शासन के वशवर्ती नहीं होती थी। जहाँ कहीं भी विपद की संभावना होती, वहाँ उसे एक विचित्र आकर्षण महसूस होता और जहाँ कहीं भी शासन या प्रतिबंध होता, वहाँ उल्लंघन करने के लिए उसका चित्त चंचल हो उठता। अनुश्रुति है कि अपने बाल्यकाल में उसकी फूफी-माँ का स्वभाव भी ठीक ऐसा ही था।
उस समय जयकाली मातृ-स्नेह मिश्रित भक्तिपूर्वक ठाकुरजी पर अपनी दृष्टि निबद्ध किए दालान में बैठी अनन्य-अभिनिविष्ट मन से माला जप रही थीं।
बालक पीछे से अशब्द-पदसंचारपूर्वक आकर माधवी-लता वितान तले खड़ा हो गया। उसने देखा कि निम्नतर शाखाओं के फूल तो पूजा के निमित्त तोड़े जाकर नि:शेष हो चुके थे। गत्यंतर न देख उसने अत्यंत धीरे-धीरे और बहुत ही सावधानीपूर्वक लता मंच पर आरोहण किया। उच्चतर प्रशाखाओं पर विकचोन्मुख कलिकाएँ देखकर उन्हें तोड़ने के लिए ज्यों ही उसने अपने शरीर एवं बाहु को प्रसारित किया, त्योंही उस प्रबल प्रयास के भार से माधवी-लता का जीर्ण मंच चरम शब्दपूर्वक टूट पड़ा। मंचाश्रित लता एवं बालक दोनों एकत्र ही भूमिसात् हुए।
जयकाली हड़बड़ाकर दौड़ी आईं। उन्होंने अपने भ्रातुष्पुत्र की कीर्ति का अवलोकन किया। बलपूर्वक उसकी भुजा पकड़ के उसे मिट्टी से उठाया। आघात तो उसे यथेष्ठ लगा था, किंतु उस आघात को दंड नहीं माना जा सकता था, क्योंकि वह तो ज्ञान-संज्ञाहीन जड़ का आघात था। अतएव मंचपतित बालक की व्यथित देह पर जयकाली का ज्ञान संज्ञायुक्त शासन-दंड मुहुर्मुह: बलपूर्वक वर्षित होने लगा। बालक ने बिंदु-मात्र भी अश्रुपात किए बिना ही उनके दंड को नीरवतापूर्वक सहन किया। इस पर उसकी फूफी माँ ने उसे घसीटकर घर में अवरुद्ध कर दिया। उसके उस दिन के सांयकालिक आहार का निषेध कर दिया गया।
आहार-निषेध का समाचार सुनकर दासी मोक्षदा ने कातर कंठ एवं जल-छलछल नेत्र से बालक को क्षमादान करने का अनुरोध किया। परंतु जयकाली का हृदय विगलित नहीं हुआ। उस घर में ऐसा दु:साहसी व्यक्ति कोई नहीं था, जो ठकुरानी को सूचना-वंचित रखकर गुप्त रूप से उस क्षुधित बालक के लिए खाद्य की व्यवस्था कर देता।
विधवा माधवी-मंच के पुन: संस्कार के लिए श्रमिक बुलाने का आदेश देकर पुनर्वार माला लेकर दालान में आ बैठीं। कुछ समय व्यतीत होने के पश्चात् मोक्षदा अत्यंत भयभीत भाव से उनके निकट गई और बोली, ''ठकुरानी माँ, छोटे बाबू भूख के मारे बिलख रहे हैं, उन्हें थोड़ा-सा दूध ला दूँ ?''
जयकाली ने अविचलित मुख-मुद्रा से कहा, ''नहीं !''
मोक्षदा लौट गई। अदूरवर्ती कुटीर-गृह से नलिन का करुण क्रंदन क्रम-क्रम से बढ़ता हुआ क्रोध के गर्जन के रूप में परिणत हो उठा-पर गर्जन-पर्व भी समाप्त हुआ और अंत में, बहुत देर के पश्चात् उसकी कातरता का परिश्रांत उच्छवास रह-रहकर जप-निरता फूफी माँ के कर्ण-कुहरों में पहुँच-पहुँचकर ध्वनित होने लगा।
नलिन का आर्त्त कंठ परिश्रांत एवं मौनप्राय हो चला था कि किसी और निकटवर्ती जीव की भीत एवं कातर ध्वनि कर्ण-गोचर होने लगी तथा उसके संग-संग ही धावमान मनुष्यों का दूरवर्ती चीत्कार शब्द उसके साथ मिश्रित होकर मंदिर के सम्मुखवर्ती मार्ग पर एक कोलाहल के रूप में उत्थित हो उठा।
सहसा मंदिर-प्रांगण में कोई पद-शब्द सुनाई पड़ा। पीछे मुड़कर जयकाली ने देखा कि भूपर्यस्त माधवी-लता आंदोलित हो रही है।
रोषपूर्ण कंठ से पुकारा, ''नलिन !''
कोई उत्तर नहीं मिला। जयकाली ने समझा कि दुर्दम नलिन किसी उपाय से बंदीशाला से पलायन करके मुझे चिढ़ाने आया है।
यही सोचकर वह अत्यंत कठिन मुद्रा बनाकर एवं अधर के ऊपर ओष्ठ को अत्यंत कठिन रूप से दाबकर प्रांगण में उतर आई।
लता-कुंज के निकट आकर पुनर्वार पुकारा, ''नलिन !''
उत्तर प्राप्त नहीं हुआ। उन्होंने माधवी की शाखा को उठाकर देखा कि एक अत्यंत ही मलिन-शूकर ने प्राण-भय से भीत होकर घन-पल्लव के अंतराल में आश्रय लिया है।
जो लता वितान इष्टक-निर्मित प्राचीर से परिवेष्ठित उस प्रांगण में वृदा-विपिन का संक्षिप्त प्रतिरूप हो, जिसकी विकसित कुसुम-मंजरी का सौरभ गोपिता-वंद के सुरभित नि:श्वास का स्मरण कराता रहता हो एवं कालिंदी-तीरवर्ती सुख-विहार के सौंदर्य-स्वप्न को जाग्रत करता रहता हो, विधवा जयकाली की उस प्राणाधिक यत्नों से लालित सुपवित्र नंदन-भूमि में अकस्मात् यह कैसा वीभत्स कांड घटित हो गया।
पुजारी ब्राह्मण लाठी लेकर उस मल-मलिन पशु को भगाने दौड़ा। जयकाली तत्क्षण नीचे उतर आई, पुजारी के शूकर-ताड़न कर्म का निषेध किया एवं भीतर से मंदिर प्रांगण का द्वार अवरुद्ध कर दिया।
अनति-काल अतिवाहित होन के पश्चात् सुरा-पान-मत्त डोम-दल मंदिर के द्वार पर उपस्थित होकर बलि-पशु के लिए चीत्कार करने लगा।
रुद्ध द्वार के पीछे खड़ी होकर जयकाली ने कहा, "लौट जाओ बेटो, लौट जाओ। मेरे मंदिर को अपवित्र मत कर बैठना।"
डोमों का दल लौट गया। वे प्राय: प्रत्यक्ष देखकर भी इस बात पर विश्वास नहीं कर सके कि जयकाली ठकुरानी अपने राधानाथ जी के मंदिर में उस अशुचि जंतु को आश्रय दे सकती हैं!

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