Aaware : (Hindi Story) Bhagwati Charan Verma

आवारे : भगवतीचरण वर्मा (कहानी)

कुछ लोग दार्शनिक होते हैं, कुछ लोग दार्शनिक दिखते हैं। यह जरूरी नहीं कि जो दार्शनिक हो वह दार्शनिक न दिखे, या जो दार्शनिक दिखे वह दार्शनिक न हो, लेकिन आमतौर से होता यही है कि जो दार्शनिक होता है वह दार्शनिक दिखता नहीं है, और जो दार्शनिक दिखता है वह दार्शनिक होता नहीं हैं। रामगोपाल जिस समय बंबई नगर के दादर मुहल्ले के एक ईरानी होटल में गरमी की दोपहरी में बिजली के पंखे के नीचे एक प्याला चाय के साथ पावरोटी का टुकड़ा गले के नीचे उतारकर अपनी भूख शांत करने की कोशिश कर रहा था उस समय एक अच्छा-खासा दार्शनिक दिख रहा था।

बाल बिखरे हुए मत्थे पर शिकन, आँखों में चिंता की झलक, और बैठने के ढंग में एक विवशता से भरी लापरवाही। लेकिन अगर कोई उस समय रामगोपाल से कह देता कि वह दार्शनिक है तो यकीनी तौर से झुँझलाहट के साथ यही कहता, "आपकी बला से!" और फिर वह बिना दूसरा शब्द कहे अपने काम पर जुट जाता।

पावरोटी को गले के नीचे उतारने में रामगोपाल को मेहनत पड़ रही थी, और शायद सुस्ताने के खयाल से उसने अपना पर्स निकाला। दस-दस रुपए के पंद्रह नोट, गिलट के सात रुपए और एक अठन्नी और तीन इकन्नियाँ - इतनी जमा-पूँजी अभी उस पर्स में मौजूद थी।

इसके अलावा कुछ सिफारिशी चिठि्ठयाँ जिन्हें निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचाने के लिए उसने बंबई के कई फिल्म स्टूडियो के दर्जनों चक्कर लगाए लेकिन फाटक के पठान दरबानों ने उसे किसी हालत में अंदर न घुसने दिया और इसलिए अभी तक वे चिठि्ठयाँ उन स्थानों में न पहुँच सकीं, कुछ पते जो उसने रास्ते चलते हुए कुछ खास महत्वपूर्ण आदमियों की मुलाकात की यादगार में दर्ज कर लिए थे और छपे हुए करीब दस-बारह विजिटिंग कार्ड। रामगोपाल ने अपने पर्स की हरएक चीज को निकाला। जो गिनने की थीं उन्हें गिना, जो देखने की थीं, उन्हें देखा और जिन पर उसे सोचना था उन पर सोचना भी आरंभ कर दिया। लेकिन सोचने का अभ्यास न होने के कारण उसने पर्स अपनी जेब के हवाले करके फिर पावरोटी को गले के नीचे उतारने की कोशिश आरंभ कर दी।

"अरे, यह तो रामगोपाल मालूम होते हैं।" "हम लोगों को क्यों देखेंगे - अकेले -अकेले चाय पी रहे हैं।" रामगोपाल ने घूमकर देखा, सिंह और पांडे रामगोपाल की मेज की ही तरफ बढ़ रहे थे। रामगोपाल को मुस्कुराना पड़ा, "आओ भाई!" और यह कहकर उसने होटल ब्वॉय को आवाज दी, "दो प्याले चाय!" "कहो भाई, बहुत दिनों से दिखे नहीं, कहो कोई काम-वाम मिल गया है क्या?" बैठते हुए सिंह ने पूछा। "नहीं यार - अभी तक तो नहीं मिला, लेकिन उम्मीद पूरी है!" रामगोपाल ने जरा रूककर कहा, "वहाशमा कंपनी के डाइरेक्टर को तो जानते हो - अरे वही मिस्टर कमानी! कल शाम को उनसे मुलाकात हो गई थी - बड़ी तपाक के साथ मिले, गले में हाथ डाल दिया, बोले, "तुम्हें अगली पिक्चर में विलेन का काम दूँगा। वादा कर लिया है!"

पांडे हँस पड़ा, "तुम्हें विलेन और मुझे हीरो। मुझसे भी वादा किया था!" रामगोपाल चौंक पड़ा। उसे बड़ी आसानी से विलेन का पार्ट मिल सकता है, यही नहीं अगर कोई समझदार डायरेक्टर हो तो वह हीरो भी बना सकता है- इसका उसे पूरा यकीन था, लेकिन पांडे को जो आदमी हीरो बनाने की सोचे वह या तो पागल है या मजाक कर रहा है। उसने पांडे को फिर एक दफा गौर से देखकर कहा, "तुम्हें हीरो बनाने का वादा किया है सच कह रहो हो?" "अरे छोड़ो भी - गए हुए लोगों के वादों पर लड़ना-झगड़ना बेकार है!" सिंह ने इन दोनों की बात अधिक न बढ़े इसलिए कहा।

रामगोपाल का चेहरा उतर गया। सिंह की बात में तथ्य है, इस बात को उसने महसूस किया; एक बँधती हुई उम्मीद छूट गई। पांडे ने रामगोपाल के चेहरे की निराशा देख ली, उसने जरा मुलायमियत के साथ कहा, "इतना अफसोस करने की जरूरत नहीं। मुझे देखो, बंबई आए दो साल हो गए हैं लेकिन अभी तक सफलता नहीं मिली। पड़ा हूँ, बस उम्मीद पर।" रामगोपाल ने एक ठंडी साँस ली, "कब तक - कब तक इस तरह चलेगा। पास की रकम करीब-करीब खत्म हो चुकी थी, होटलवाले का बिल चढ़ रहा है - समझ में नहीं आता क्या करूँ।" पांडे ने कहा, "अगर मेरी सलाह मानो तो होटल छोड़ दो और एक कमरा किराए पर ले लो। जब तक कमरा न मिले तुम मेरे कमरे में रह सकते हो - अभी चार आदमी है, अब पाँच हो जाएँगे। वहाँ जी लग जाएगा, खर्चे की बचत हो जाएगी।"

रामगोपाल ने कुछ सोचा, "यार कहते तो ठीक हो। अभी होटल का तीन रूपया रोज दे रहा हूँ - नब्बे रुपए महीने की बचत बहुत काफी होती है।" "नब्बे की नहीं बल्कि अस्सी की, क्योंकि पांडे के कमरे में रहने पर तुम्हारा हिस्सा दस रुपए महीना आवेगा।" "अस्सी ही क्या कम है!" रामगोपाल ने मुस्कुराते हुए कहा। दिनभर के बाद उसके मुख पर यह पहली मुस्कराहट थी।

पांडे का पूरा नाम था रविशंकर पांडे। लखनऊ से बी.ए. पास करने के बाद जब उसके पिता एक जमींदार की लड़की के साथ दस हजार के लंबे दहेज पर उसकी शादी तै करा रहे थे, वह बिना कहे-सुने एक दिन बंबई के लिए रवाना हो गया इसलिए कि वह लड़की जिसके साथ उसकी शादी तै कराई जा रही थी, गँवार होने के साथ-साथ बदशक्ल थी। पांडे ने फिल्म काफी देखी थीं; और फिल्मों की सुंदरियों से मिलकर उनमें से किसी एक को अपनाकर अपने जीवन को सुखमय बनाने का प्रयत्न करना चाहता था। पांडे देखने-सुनने में बुरा न था, पैसे की भी उसके पिता के पास कोई खास कमी नहीं थी, और अपनी निजी योग्यता तथा प्रतिभा पर उसे विश्वास था।

बंबई आकर धीरे-धीरे उसे निराशाओं का सामना करना पड़ा और प्रत्येक निराशा के साथ उसका जोश ठंडा पड़ने लगा। न उसे प्रेमिका मिली और न उसे प्रतिभा और योग्यता के प्रदर्शन का मौका मिला। पास की रकम घटने लगी पिता ने अधिक पैसा देने से इन्कार कर दिया। इस उम्मीद पर कि हारकर पांडे को घर आना ही पड़ेगा। पर पिता शायद अपने पुत्र के जिद्दी स्वभाव को नहीं जानते थे। कदम उठकर पीछे नहीं पड़ता - सूरमा आगे बढ़ेगा नहीं तो मोर्चे पर खड़ा होकर अपनी जान दे देगा। पांडे भी कुछ ऐसे ही विचारों का था। बहुत दौड़-धूप करने पर एक फिल्म कंपनी में एक्स्ट्रा का काम मिल भी गया था, गोकि पैसे बहुत कम मिले थे। लिहाजा खर्च पूरा करने के लिए पांडे ने अपने कमरे में किराएदारों को बसा लिया था।

सिंह का पूरा नाम था जसवंतसिंह और वह आगरा जिले का रहनेवाला था। सिंह को गाने का बड़ा शौक था और उससे अधिक उसके आगरावाले मित्रों को विश्वास था कि अगर वह किसी फिल्म कंपनी में पहुँच जाए तो उसकी प्रतिभा चमक उठेगी और उसका भाग्य खुल जाएगा। रोज-रोज मित्रों की राय सुनते-सुनते सिंह की भी कुछ ऐसी ही राय हो गई थी। बाईस-तेईस साल का नवयुवक, दुनिया का उसे तजुर्बा न था। मित्रों ने दम-दिलासा देकर उसे बंबई लाद दिया। लेकिन बंबई आकर उसने देखा कि यहाँ हर जगह सिफारिश चलती है। कई जगह गया, अपने गाने सुनाए, लोगों ने उसकी तारीफ की लेकिन फिल्म कंपनी में जो काम न मिला सो न मिला। हाँ, एक-आध ट्यूशन उसे जरूर मिल गए और इस उम्मीद पर कि निकट भविष्य में उसे काम जरूर मिलेगा, उसे ट्यूशन से ही संतोष करना पड़ा। सिंह घर का खुशहाल न था। एक दिन जब वह एक फिल्म कंपनी के दरबान से गिड़गिड़ाकर भीतर घुसने का प्रयत्न कर रहा था, उसकी मुलाकात पांडे से हो गई। पांडे ने उसकी कहानी सुनी। कहानी सुनकर उसे दया आई उसने फुटपाथ पर या बरामदों में सोनेवाले उस युवक को अपने कमरे में आश्रय दिया। बाद में जब सिंह को कुछ कामकाज मिला तब सिंह पांडे के कमरे के किराए का एक भाग देने लगा।

रामगोपाल को साथ लेकर जब पांडे और सिंह कमरे में पहुँचे, उस समय मिस्टर परमेश्वरीदयाल वर्मा अपनी हजामत बना रहे थे। एक ट्रंक और एक बिस्तर के साथ एक नए आदमी का कमरे में प्रवेश देखकर मिस्टर वर्मा चौंके, घूरकर उन्होंने रामगोपाल को देखा। पांडे ने उसी समय मिस्टर वर्मा से रामगोपाल का परिचय कराया, "यह हैं मिस्टर रामगोपाल - आज से हम लोगों के साथ रहेंगे। आपके किराए का हिस्सा साढ़े बारह रुपए से घटकर दस रुपए रह गए।" लेकिन ढाई रुपए की बचत से मिस्टर वर्मा को कोई खास प्रसन्नता न हुई। उनका खयाल था कि एक कमरे में सिर्फ एक आदमी रहना चाहिए, जरूरत के वक्त दो रह सकते हैं, मजबूरी से तीन और जब गले आ पड़े तब चार।

उन्होंने गंभीरतापूर्वक कहा, "एक कमरे में पाँच आदमी - नान्सेंस - मैं किसी हालत में बर्दाश्त नहीं कर सकता।" "तो फिर आप यह कमरा छोड़ सकते हैं।" सिंह ने जरा रूखाई से कहा। "आप कौन होते हैं हमारे बीच में बोलनेवाले - कमरा पांडे का है। इन्हें जो कुछ कहना हो कहें।" "मैं बोलनेवाला इसलिए होता हूँ कि मैं भी कमरे का किराया देता हूँ हर महीना। आपकी तरह नहीं कि तीन महीने से आजकल में टरका रहे हैं।" "तो इसमें तुम्हारे बाप का क्या जाता है? नहीं है इसलिए नहीं देता, होगा तो एक-एक पैसा पांडे के पास पहुँच जाएगा।"

इस बातचीत में बाप का घसीटा जाना सिंह को अच्छा नहीं लगा, उसने अपनी चप्पल उतारी, "क्या कहा बे - सुअर कहीं का, मेरे बाप का फिर से तो नाम ले -" पांडे ने सिंह का हाथ पकड़कर बीच-बचाव किया। मिस्टर वर्मा शांत भाव से दाढ़ी बनाते रहे। मिस्टर वर्मा तीस साल के कद्दावर से आदमी थे। करीब पाँच साल पहले बंबई आए थे एक अंग्रेजी कंपनी में असिस्टेंट मैनेजर होकर। यारबास आदमी थे - किसी कदर दबंग थे। एक दिन उन्होंने और उनके अंगे्रज मैनेजर ने साथ-साथ पी और जी खोलकर पी। पीने के बाद इनमें और इनके मैनेजर में बातचीत आरंभ हुई, बातचीत ने वाद-विवाद का रूप धारण किया और वाद-विवाद ने जूते-लात का। मिस्टर वर्मा हाथ-पैर में अपने मैनेजर से तगड़े थे, उन्होंने मैनेजर को अधमरा कर दिया। दूसरे दिन वे नौकरी से बर्खास्त कर दिए गए।

नौकरी से निकाले जाने के बाद मिस्टर वर्मा को यह अनुभव हुआ कि नौकरी के माने होते हैं गुलामी - और उसमें कुछ राजनीतिक चेतना भी जाग्रत हुई। जो कुछ रकम उनके पास थी उसे बीवी-बच्चों को देकर उन्होंने उन्हें अपने देश रवाना किया, अकेले वे व्यापार करने के लिए बंबई में रह गए। फोर्ट एरिया में अपने एक मुलाकाती के दफ्तर में उन्होंने एक मेज अपनी डलवा ली और कमीशन एजेंसी का कारोबार शुरू कर दिया। पास की सारी रकम उन्होंने बीवी के हवाले कर दी थी, अपनी हैसियत बनाए रखकर ही वे कारोबार चला सकते थे और हैसियत के माने होते हैं अच्छे सूट, कीमती सिगरेट और मौके-बेमौके टैक्सी की सवारी। लिहाजा हैसियत बनाए रखने के लिए उन्हें खाने और रहने में किफायत करनी पड़ी। पांडे को मिस्टर वर्मा लखनऊ से ही जानते थे, इसलिए वे पांडे के साथ रहने लगे। कारोबर शूरू किए हुए उन्हें अभी कुल छह महीने हुए थे- और अब जाकर कहीं उन्हें इतना मिलने लगा था कि कर्ज लेकर काम न चलाना पड़े।

शेव करके मिस्टर वर्मा ने एक अच्छा-सा रेशमी सूट निकाला। सूट पहनते हुए उन्होंने कहा, "सिंह, कल, जो मेरी टाई ले गए थे वह कहाँ हैं?" "वहीं तुम्हारी खूँटी पर टाँग दी थी।" सिंह ने, जो उस समय एक जासूसी उपन्यास पढ़ने में व्यस्त हो गया था, बिना मिस्टर वर्मा की ओर देखे उत्तर दिया। "तुमने मुझे क्यों नहीं वापस की? जरूरत के वक्त तो गिड़गिड़ाकर माँग ले जाते हैं और फिर नवाब साहब की तरह चीज फेंके देते हैं - कमीने कहीं के।" सिंह पढ़ने में इतना व्यस्त था कि उसने मिस्टर वर्मा को उत्तर देने की कोई आवश्यकता नहीं समझी।

सिंह के मौन से मिस्टर वर्मा का पारा और भी चढ़ गया, "इन सालों से इतना कहा कि अगर तुम्हारे पास नहीं है तो मत पहनो, लेकिन जब शराफत हो तब मानें। माँगेंगे - नहीं दोगे तो आँख बचाकर उठा ले जाएँगे - अगर अबकी दफे यह हरकत हुई तो मैं कहे देता हूँ ठीक न होगा।" "क्या ठीक नहीं होगा?" एक कर्कश आवाज ने कहा। मिस्टर वर्मा ने घूमकर देखा कि छबीलदास गुप्ता कमरे के दरवाजे पर तने खड़े हैं- सिंह का सूट और वर्मा की टाई डाले हुए। "मुझसे बिना पूछे मेरी टाई क्यों ली?" कड़ककर वर्मा ने कहा। "तबीयत -" मुँह बनाते हुए गुप्ता ने जवाब दिया।

हद हो गई। अब मिस्टर वर्मा से न रहा गया। लपककर उन्होंने छबीलदास का गला पकड़ा- "तो फिर मेरी तबीयत यह है कि आज तुम्हारी अच्छी तरह मरम्मत कर दूँ।" "हाँ-हाँ। यह गजब मत करना।" सिंह डिटेक्टिव नावेल छोड़कर बीचबचाव करने दौड़ा, इस डर से कि कहीं इस हाथपाई में उसका सूट न फट जाए।

छबीलदास ने टाई गले से उतारकर वर्मा को दे दी और मिस्टर वर्मा सज-धजकर तैयार हो गए। अपने ट्रंक से उन्होंने स्टेट एक्सप्रेस का एक टिन निकाला और दस सिगरेटें जो वास्तव में स्टेट एक्सप्रेस की थीं, उन्होंने एक ओर हटाकर बाकी नंबर टेन सिगरेटों में से एक-एक उन्होंने कमरे में सब लोगों को दीं। इसके बाद वे अपने कारोबार के लिए रवाना हो गए।

छबीलदास टाई के हाथ से निकल जाने पर उदास हो गए थे। उस दिन उनका भाग्य खुलनेवाला था। बात यह थी कि पिछले दिन उन्हें सुशीला का पत्र मिला था और सुशीला ने उन्हें दूसरे दिन सुबह के समय अपने यहाँ मिलने के लिए बुलाया था। सुशीला छबीलदास के नगर बनारस की वेश्या की पुत्री थी। छबीलदास अचानक एक दिन उसके प्रेम में पड़ गए। उन दिनों छबीलदास हिंदू विश्वविद्यालय में एम.ए. में पढ़ते थे। उत्साही नवयुवक थे, राजनीतिक अभिरुचि के थे। काँग्रेस के पक्के कार्यकर्ता थे। विश्वविद्यालय में उनके व्याख्यानों की, उनके चरित्र-बल की, उनके व्यक्तित्व की धाक थी।

सुशीला की माता ने सुशीला को उच्च शिक्षा दिलाई। मैट्रिकुलेशन पास करके वह भी विश्वविद्यालय में भरती हुई थी। लेकिन सुशीला की माँ की संगिन-साथियों ने, उनके मेली-मुलाकातियों ने उसे समझाना शुरू किया कि वेश्या की लड़की को समाज में कोई स्थान नहीं मिलेगा। ऐसी हालत में उसे उच्च शिक्षा देना उसकी जिंदगी बरबाद कर देना था, और धीरे-धीरे सुशीला की माता को यह विश्वास होने लगा था कि सुशीला को कालेज से हटाकर उसे पेशे में लगा देने में ही सुशीला का कल्याण है। सुशीला को इन बातों की भनक पड़ गई थी, और लगातार कई दिनों तक इस नई समस्या पर सोच-विचार के बाद सुशीला इस निर्णय पर पहुँची कि उसी दिन शाम को उसे किसी योग्य, समझदार और नेक आदमी की सलाह लेनी चाहिए। उस दिन छबीलदास का एक महत्वपूर्ण व्याख्यान राजनीति और समाज पर हुआ था और उस व्याख्यान से सुशीला प्रभावित हुई थी।

हिम्मत करके सुशीला ने छबीलदास को अपनी दास्तान सुनाई और उसकी सलाह माँगी। सत्याग्रही किस्म के युवक छबीलदास ने सुशीला को दृढ़ता, चरित्र और सत्य पर कुर्बान हो जाने का संदेश दिया; सुशीला को ऐसा लगा मानो उसे एक पथ-प्रदर्शक, एक देवता, एक आराध्य मिल गया।

सुशीला और छबीलदास की दोस्ती बढ़ी, और यह दोस्ती लोगों की नजर में खटकी। इस दोस्ती की चर्चा छबीलदास के चचा लाला मलकूदास के कानों तक पहुँची। लाला मलकूदास की चौक में परचून की एक बहुत बड़ी दुकान थी और उनकी गणना नाकवालों में होती थी। उन्होंने इस विषय पर छबीलदास से जिरह-बहस की और जिरह-बहस के बाद इस नतीजे पर पहुँचे कि अगर जल्दी ही रोक-थाम नहीं की जाती तो लड़का वेश्या की लड़की से शादी करके सारे घर की नाक कटवा देगा। उन्होंने बलिया जाकर जहाँ उनके बड़े भाई, छबीलदास के पिता साह बुलाकीदास रहते थे, उस मामले में बातचीत की। साह बुलाकीदास बलिया जिले के महाजन, जमींदार और न जाने क्या-क्या थे। उन्होंने बीमारी का तार देकर छबीलदास को घर बुलाया और उनके हाथ-पैर बाँधकर जबर्दस्ती छबीलदास की शादी पास के एक जमींदार की लड़की से करा दी। दहेज में रुपए-पैसे, चीज वस्तु के साथ छबीलदास के ससूर ने, जिनके डाकू होने का लोगों को शक था, छबीलदास को एक धमकी भी दी कि अगर भविष्य में छबीलदास और सुशीला के संबंध में कोई शिकायत सुनी गई तो बनारस के बीच चौक में छबीलदास की जूतों से मरम्मत की जाएगी।

छबीलदास के चचा को शायद इस बात का पता नहीं था कि काँग्रेस का सत्याग्रही कार्यकर्ता बला का जिद्दी होता है। एक तो छबीलदास इस जबर्दस्तीवाली शादी से ही नाराज था, उस पर श्वसुर के इस नए किस्म के दहेज ने आग में घी का काम किया।

बनारस लौटकर छबीलदास को सुशीला ने बतलाया कि अब उसकी माँ बिना उससे पेशा कराए न मानेगी। छबीलदास ने सुशीला को अपनी कहानी सुनाई। दोनों में तय हुआ कि बंबई चला जाए। मोरारजी देसाई, कन्हैयालाल मुंशी आदि बड़े बड़े नेता वहाँ पर हैं ही, उन नेताओं के आश्रय में रहकर दोनों देश का काम करेंगे। उसी रात दोनों बंबई के लिए रवाना हो गए।

बंबई जाने पर सुशीला और छबीलदास दोनों को यह पता चला कि वास्तविकता कल्पना से कहीं अधिक कुरूप होती है। बड़े-बड़े नेताओं के पास इतना समय नहीं था कि इन लोगों से मिलें, छोटे नेताओं ने दरपरदा छबीलदास को ठुकराकर सुशीला को हथियाने की कोशिश की। और एक दिन छबीलदास को पता चला कि सुशीला एक करोड़पति सेठ के यहाँ, जो काँग्रेस का एक छोटा - मोटा कार्यकर्ता था, बैठ गई।

और जिस दिन सुशीला उसके यहाँ चली गई उस दिन छबीलदास को पता चला कि वह सुशीला से बहुत अधिक प्रेम करने लगा था। सुशीला को इस प्रकार करोड़पति के रुपयों के लोभ में पड़कर उसके प्रेम को ठुकरा देने से छबीलदास के हृदय को एक गहरी ठेस लगी। उसने चार-छह बार सुशीला से मिलने की कोशिश की, लेकिन सुशीला ने कोई-न-कोई बहाना बनाकर मिलने से इनकार कर दिया। उसने सुशीला को कई पत्र लिखे लेकिन उसे किसी भी पत्र का उत्तर न मिला। उसे काँग्रेस से और काँग्रेसी नेताओं से घृणा हो गई। एक बार सुशीला से मिलकर वह बतला देना चाहता था कि किस प्रकार उसने उसकी जिंदगी को बरबाद कर दिया। घर जाने की हिम्मत न होती थी क्योंकि डाकू ससुर की खौफनाक मूर्ति उसकी आँखों के आगे नाच उठती थी। पागल-सा वह बंबई की सड़कों की धूल छानता फिरता था।

एक दिन सिंह उसी पार्क में सोया था जिसमें छबीलदास सो रहा था। माली ने जब रात के समय दोनों को पार्क से निकाला तब इन दोनों का परिचय हुआ। सिंह ने पांडे के यहाँ जगह पाकर छबीलदास को भी अपने साथ बुला लिया। इसके बाद छबीलदास ने एक दफ्तर में क्लर्की कर ली।

"कहो भाई मुलाकात हुई?" पांडे ने पूछा। "हुई भी और नहीं भी हुई।" छबीलदास ने सिगरेट का एक गहरा कश खींचकर उत्तर दिया। "यह तो पहेली बुझा रहे हो।" सिंह हँस पड़ा।

"बात यह है कि जब मैंने उसके मकान में घंटी बजाई तो वह दरवाजे पर खुद आई। मुझे देखते ही चौंक उठी, बहुत धीमे स्वर में उसने कहा, "अभी जरा दो-एक आदमियों से कुछ जरूरी बातें हो रही हैं, शाम को पाँच-साढ़े पाँच बजे के बीच में चर्चगेट स्टेशन पर मिलना।"

शाम के समय छबीलदास चर्चगेट पहुँचा। सुशीला वहाँ पहले से ही मौजूद थी। उस समय वह बनारसी सिल्क की एक साड़ी पहने थी, शरीर पर गहने लदे थे, पर उसका चेहरा उतरा हुआ था और उसकी आँखें लाल थीं- मानो दिन-भर वह रोती रही हो। छबीलदास को देखते ही वह फूट पड़ी। उसन कहा, "छबील! मैं लुट गई।"

सुशीला के आँसू देखकर छबीलदास एकबारगी पिघल गया। उस समय वह यह भूल गया कि उसके सामने खड़ी स्त्री ने उसे धोखा दिया था। उसने कहा, "क्या बात है - इतना अधीर होने की कोई बात नहीं - मैं हूँ। बतलाओ तो क्या हुआ?"

"हीरालाल ने (उस सेठ का नाम था) मेरे जाली दस्तखत बनाकर बैंक से सब रुपए निकाल लिए - उसका दीवाला निकल गया है। मकान का किराया तीन महीने से नहीं दिया गया है, मकानवाले का नोटिस आया है। मेरी समझ में नहीं आता कि क्या करूँ।" "मकान का कितना किराया है?" छबीलदास ने पूछा। "डेढ़ सौ रूपया महीना - साढ़े चार सौ देने हैं। पास में एक पैसा नहीं।" यह कहकर सुशीला ने एक सोने की अँगूठी निकालकर छबीलदास को दी, "कल के लिए घर में अनाज नहीं है - इसे बेचकर कल कुछ रुपया ला देना।" छबीलदास के नेत्रों में करुणा छलछला पड़ी; उसने कहा, "सुशीला, मुझे अफसोस है कि मेरे पास रुपए नहीं है और तुम्हें यह दिन देखना पड़ा कि अपने गहने बेचो - भगवान की जैसी मरजी! कल सुबह मैं रुपये ले आऊँगा।"

छबीलदास सुशीला को एक पास के होटल में ले गया। वह कितना खुश था - एक साल बाद सुशीला उसके पास लौट आई। उस समय सुशीला के प्रति उसका क्रोध, उसके कर्मों के प्रति उसकी घृणा - वह सब लोप हो चुके थे। छबीलदास की जेब में जो ग्यारह आने पैसे थे उनका ईरानी होटल में जैसा-तैसा नाश्ता करके छबीलदास ने सुशीला को विदा दी। वह खुद बिना टिकट गाड़ी पर बैठकर घर आया। जिस समय छबीलदास घर लौटा वह प्रसन्न भी था, चिंतित भी था। उस समय कमरे में मिस्टर वर्मा बिस्तर पर लेटे हुए सुस्ता रहे थे और रामगोपाल एक उपन्यास पढ़कर समय काटने की कोशिश कर रहा था। सिंह और पांडे भोजन करने के लिए होटल चले गए थे।

सुशीला की अँगूठी बिके और वह भी छबीलदास के हाथों-छबीलदास का हृदय रो रहा था। आज उसे अपनी गरीबी, विवशता - यह सब बुरी तरह अखर रही थी। उसने वर्मा के चेहरे को देखा, शांत, गंभीर, निश्चिंत उसकी हिम्मत बढ़ी, "वर्मा - कुछ बिजनेस बढ़ा?"

वर्मा ने सिगरेट का धुआँ छोड़ते हुए कहा, "बढ़ेगा क्यों नहीं। आज ही एक पार्टी फँसी है - एक सौदे में करीब दो हजार मिल जाएँगे।" छबीलदास के हृदय की गति थोड़ी-सी तेज हुई, "यार - पच्चीस रुपए की सख्त जरूरत है - अगले हफ्ते वापस कर दूँगा।"

वर्मा ने छबीलदास को गौर से देखा। वे मौन भाव से छबीलदास को उसी तरह कुछ देर तक देखते रहे। छबीलदास का हृदय अब जोरों के साथ धड़कने लगा था। वर्मा ने आखिर अपनी खामोशी तोड़ी, "पचीस रुपए! ऐसी क्या जरूरत आ पड़ी?" छबीलदास की आशा और बढ़ी। "भाई जीवन-मरण का प्रश्न है। कल सुबह तक पचीस रुपए मुझे किसी तरह चाहिए ही।"

वर्मा ने उसी प्रकार गंभीरता से उत्तर दिया, "जीवन-मरण का प्रश्न है - तब तो तुम्हें किसी - न - किसी प्रकार रूपयों का इंतजाम करना ही होगा। मेरे पास तो इस समय एक पैसा नहीं है और अगर एक हफ्ता ठहर सकते तो पच्चीस-पचास-सौ जितना माँगते दे सकता था।" छबीलदास को ऐसा लगा मानो उसका हृदय बैठा जा रहा है; वह अपने दिल को सम्हालने में व्यस्त हो गया और वर्मा कह रहे थे, "देखो, मुझे कल पंद्रह रुपए की सख्त जरूरत है। एक सेठ को मैंने लंच के लिए बुलाया है - उससे बहुत बड़े बिजनेस की उम्मीद है। पच्चीस रुपए का तुम्हें इंतजाम करना ही है क्योंकि यह तुम्हारे जीवन-मरण का प्रश्न है, तो जैसे पच्चीस वैसे चालीस। कल सुबह तक पंद्रह रुपए मुझे दे देना - एक हफ्ते में मैं तुम्हें पंद्रह की जगह डेढ़ सौ रुपए वापस कर दूँगा।" रामगोपाल, वर्मा की यह बात सुनकर ठहाका मारकर हँस पड़ा।

वर्मा ने रामगोपाल के हँसने पर कोई ध्यान नहीं दिया। छबीलदास रामगोपाल की ओर घूमा, "आपका परिचय?" छबीलदास ने पूछा। छबीलदास से रामगोपाल का कोई परिचय न कराया गया था क्योंकि छबीलदास उस दिन सुबह से ही अपने मामलों में बुरी तरह उलझा हुआ था। "जी -मैं भी इसी कमरे में आज से रहने लगा हूँ - और आपका पड़ोसी हुआ। मैंने पांडे जी से आपकी दास्तान सुनी- काफी दिलचस्प थी।" "आपकी बला से।" छबीलदास ने रूखाई से उत्तर दिया। छबीलदास की रूखाई का रामगोपाल पर कोई खास असर नहीं पड़ा। इस समय वह छबीलदास से मित्रता बढ़ाने की कोशिश कर रहा था।

रामगोपाल सुलझे हुए दिमाग का आदमी था। एक साधारण कुल में बहुत बड़ी आकांक्षाएँ लेकर वह पैदा हुआ था, और उसके जीवन में नेकी, सत्य, ईमानदारी यह सब उसकी सुविधाओं पर अवलंबित थे। शायद इतना अधिक महत्वाकांक्षी और अवसरवादी होने के कारण वह आज तक न अपना कोई मित्र बना सका था और न कहीं टिक सका था। उसके रिश्तेदार उससे घबराते थे, जो स्पष्ट वक्ता थे और निर्भीक थे उन्होंने साफ-साफ उससे उनके घर में न आने को कह दिया था, जो शरीफ और मुहब्बतवाले थे वे ऐसी परिस्थिति पैदा कर देते थे कि रामगोपाल को जबर्दस्ती उनका घर छोड़ना पड़े।

ऐसा नहीं कि रामगोपाल को घर में पैसे की कोई तंगी रही हो। उसके पिता ने उसे नौकरी कर लेने को बहुत जोर दिया, मैट्रिकुलेशन-पास रामगोपाल को सौ-सवा सौ की नौकरी -बड़ी बात थी; लेकिन रामगोपाल की निगाह लाखों पर थी। उसने सुन रखा था कि सिनेमा लाइन एक ऐसी लाइन हैं जहाँ आदमी आसानी से लखपति या करोड़पति बन सकता है; और इसलिए पिता से अनुनय-विनय करके तथा एक लंबी रकम लेकर वह बंबई के लिए रवाना हो गया था।

बंबई में काफी चक्कर काटने के बाद एक बात उसकी समझ में और आई। अगर किसी युवक के साथ एक सुंदरी स्त्री है तो उसे आसानी से सफलता प्राप्त हो सकती है। लेकिन रामगोपाल को सुंदरी स्त्री कहाँ से मिलती। और आज छबीलदास की कहानी सुनकर एकाएक उनके दिमाग में यह बात आई - "क्या भगवान ने मुझे अनायास इस कमरे में इन लोगों के साथ मेरी सहायता करने के लिए भेज दिया है?" रामगोपाल ने कहा, "अजीब दुनिया हैं! दूसरों से हमदर्दी करो, उनकी सहायता करने की सोचो - लेकिन लोग इंसानियत से बात तक नहीं करते - जाने दीजिए, गलती हो गई।"

तीर निशाने पर पड़ा; छबीलदास रामगोपाल के बिस्तर पर बैठ गया, "माफ कीजिएगा! - बात यह है कि तबीयत अजीब उलझन में हैं, और वर्मा साहब जिस बेहूदेपन से पेश आए उससे दिमाग का पारा एकाएक बहुत चढ़ गया था।"

"खैर, कोई बात नहीं। तो अगर आप बुरा न मानें तो एक बात पूछूँ।" "हाँ, हाँ!" "सुशीला ने क्यों बुलाया था? क्या किसी मुसीबत में है?" छबीलदास ने कहा, "हाँ, बहुत बड़ी मुसीबत में हैं। इस सेठ ने उसे छोड़ दिया है। घर में खाने तक के लिए पैसा नहीं है।" यह कहकर उसने सुशीला की अँगूठी निकाली, "उसने यह अँगूठी बेचने को दी है, लेकिन मैं अँगूठी बेचना नहीं चाहता।"

"अँगूठी बेचना तो बुरा होगा।" "लेकिन मैं क्या करूँ - मेरे पास रुपए नही हैं।" छबीलदास ने जरा रूककर कहा, "अगर तुम मुझे पच्चीस रुपए उधार दे सको तो मेरी इज्जत बच जाए।"

रामगोपाल ने पच्चीस रुपए निकालकर छबीलदास को देकर कहा, "लेकिन इस पच्चीस रुपए से तो सुशीला का काम न चलेगा। आगे चलकर क्या करना होगा - तुमने यह भी सोचा?" छबीलदास ने देखा कि उसके सामने एक देवता पुरुष बैठा है। चंद मिनटों की मुलाकात में उसने छबीलदास को पच्चीस रुपए दे दिए। उसने कहा, "यह तो नहीं सोचा! तुम इसमें कुछ मदद कर सकते हो?"

रामगोपाल ने जरा हिचकिचाहट के साथ कहा, "आप मेरी सलाह मानो तो सुशीला को किसी फिल्म कंपनी में नौकर रखवा दो। मैं कई डायरेक्टरों को जानता हूँ - अगर तुम चाहो तो मैं दौड़ - धूप कर दूँगा। हजार - पाँच सौ रुपए की नौकरी आसानी से मिल जाएगी।"

बात छबीलदास की समझ में आ गई। उन्होंने रामगोपाल से हाथ मिलाया, "बात तुमने लाख रुपए की कही। मैं एक दिन तुम्हें सुशीला से मिलवा दूँगा। इस बीच में तुम अपने डायरेक्टर दोस्तों से बात कर लो।"

छबीलदास ने रामगोपाल का सुशीला से परिचय करा दिया। रामगोपाल सुशीला को लेकर सेवा फिल्म कंपनी को डायरेक्टर मिस्टर व्रती के यहाँ पहुँचा।

मिस्टर व्रती फिल्म लाइन में मशहूर आदमी थे। ना जाने कितनी फिल्में उन्होंने बनाई, न जाने कितनी फिल्में उन्होंने अधबनी छोड़ दी। बड़े ठाठ से रहते थे। उनके मकान में ही उनका दफ्तर था।

मिस्टर व्रती को एक नई हीरोइन की जरूरत थी क्योंकि उनके नए सेठ ने उनसे कह दिया था कि फर्स्ट क्लास नई-हीरोइन चाहिए, जिस तनख्वाह पर भी हो। मिस्टर व्रती के मकान पर हीरोइनों का ताँता लगा रहता था जिनमें कुछ व्रती साहब नामंजूर कर देते थे और कुछ को उनके नए सेठ। सुशीला को देखते ही व्रती साहब प्रसन्न हो गए; उनके दिल ने साफ कह दिया कि सेठ जी इस हीरोइन को पसंद कर लेंगे।

उन्होंने बजाय रामगोपाल के सुशीला से कहा, "मैंने आज से ही आपको हजार रुपए पर रख लिया - एक पिक्चर बनाने पर मैं आपकी तनख्वाह डेढ़ हजार रुपये महीने कर दूँगा।"

रामगोपाल ने उसी समय कहा, "वह तो ठीक है, लेकिन जब तक आप मुझे अपनी पिक्चर में रोल नहीं देंगे तब तक यह काम न करेंगी।" सुशीला ने आश्चर्य से रामगोपाल को देखा। रामगोपाल ने सुशीला से कह रखा था कि वह लखपती आदमी है, उसने सुशीला को बताया कि वे पच्चीस रुपए जो छबीलदास ने उसे दिए थे, रामगोपाल से लेकर दिए थे। और अब उसने देखा कि रामगोपाल उसकी नौकरी के कमीशन में खुद नौकरी माँग रहा है। लेकिन उसने उससे कुछ कहा नहीं, मिस्टर व्रती की ओर से आँखें हटा लीं।

"अच्छी बात है - आपको भी मैं एक पार्ट दे दूँगा; लेकिन तन्ख्वाह ज्यादा न दे सकूँगा।" और उसी समय रामगोपाल को सेवा फिल्म कंपनी में ढाई सौ रुपए महीने की जगह मिल गई। सेवा फिल्म कंपनी से निकलकर रामगोपाल ने सुशीला से कहा, "बहुत बड़ा काम हो गया - इसकी खुशी में आज ताजमहल होटल में खाना खाया जाए।" पिछले कुछ दिनों से सुशीला बहुत अधिक परेशान रही थी, आज उसकी परेशानियाँ दूर हो गई थीं। उसका जी हल्का था, और वह हँसना चाहती थी, घूमना चाहती थी। सेठ हीरालाल के साथ वह एकाध दफा ताजमहल होटल गई थी और वहाँ की चहल-पहल, वहाँ के वैभव से वह प्रभावित हुई थी। उसने कहा, "अच्छी बात है।"

सुशीला को लेकर रामगोपाल ताजमहल होटल पहुँचा। वहाँ उसने सुशीला से प्रेमालाप प्रारंभ किया। सुशीला उस दिन प्रसन्न थी। यह प्रेमालाप उसे बुरा नहीं लगा। वह रामगोपाल को प्रेमालाप में बढ़ावा दे रही थी। लेकिन उन दोनों को यह पता न था कि होटल के एक कोने में एक आदमी बैठा हुआ इन दोनों की गतिविधि को बड़े ध्यान से देख रहा था।

उस दिन मिस्टर वर्मा ने पंजाब के एक बहुत बड़े व्यापारी को फाँसा था और उसे वे ताजमहल होटल में डिनर खिलाने को ले गए थे। रामगोपाल को एक स्त्री के साथ ताजमहल होटल में बैठा देखकर स्वाभाविक रूप से मिस्टर वर्मा को कौतूहल हुआ; लेकिन उस कौतूहल को उन्हें जबर्दस्ती दबाना पड़ा। पर मिस्टर वर्मा साधारण ही चीजों को छोड़ देनेवाले जीव नहीं थे। जब मिस्टर वर्मा अपने कमरे में पहुँचे तो वे काफी खुश थे - दो हजार के फायदे का काम उन्होंने तय कर लिया था।

सुशीला को उसके घर पहुँचाकर रामगोपाल उस समय तक अपने कमरे में लौट आया था और छबीलदास से वह सुशीला की तथा अपनी सफलता की बात बतला रहा था। लेकिन इस बातचीत में वह ताजमहल होटल जाने की बात तथा सुशीला से अपनी प्रेम-वार्ता को दबा गया था। पांडे और सिंह को रामगोपाल के सौभाग्य पर ईर्ष्या हो रही थी। उसी समय मिस्टर वर्मा ने "मार लिया मैदान बंदे - मार लिया मैदान," गाना गुनगुनाते हुए कमरे में प्रवेश किया। आते ही तपाक से उन्होंने रामगोपाल से पूछा, "वाह भाई - बड़े छुपे रूस्तम निकले! किस खूबसूरत बला को ताजमहल होटल में फाँस ले गए थे?"

रामगोपाल पकड़ा गया, फिर भी उसने बचने की कोशिश की, "मेरी क्लास-फेलो थी, बंबई घूमने आई है।" "क्यों बनते हो यार - शक्ल से तो ऐक्ट्रेस मालूम होती है - मैं भी ताजमहल होटल में मौजूद था - और तुम दोनों किसी फिल्म कंपनी की बात भी कर रहे थे।" सिंह की ईर्ष्या रामगोपाल के सौभाग्य से काफी भड़क चुकी थी, उसने छूटते ही कहा, "सुशीला रही होगी। आज इन्हें और सुशीला, दोनों को नौकरी मिली है न! जश्न मनाने गए थे।" छबीलदास के चेहरे से सारी खुशी गायब हो गई, उसने जरा गंभीर स्वर में कहा, "तुम इतने कमीने निकलोगे - यह मुझे न मालूम था।"

वर्मा हँस पड़े। "इसमें कमीनेपन की क्या बात - कहा है न रंडी किसकी बीवी और भँडुआ किसका यार।" वर्मा की इस हँसी ने आग में घी का काम किया। छबीलदास ने रामगोपाल से कड़क कर कहा, "क्या जवाब देते हो?" रामगोपाल भी तन गया, "तुम मुझसे जवाब माँगनेवाले कौन होते हो? जवाब माँगना है तो सुशीला से माँगो जाकर।" पांडे ने किसी तरह मामला शांत करवाया।

मिस्टर व्रती ने सुशीला से कहा, "यह आदमी रामगोपाल, इसके सामने मैंने पूरी बात कहना ठीक नहीं समझा। अब मैं एक सवाल पूछना चाहता हूँ - यह रामगोपाल कौन है और इससे आपका क्या रिश्ता है?"

सुशीला ने उत्तर दिया, "मैं इसे बिलकुल नहीं जानती। मेरे एक मुलाकाती ने कहा था कि ये आपकी फिल्म कंपनी में मुझे पहुँचा देंगे।"

मिस्टर व्रती ने संतोष की एक गहरी साँस ली, " अगर मैं इसे अपनी कंपनी में न लूँ तो आपको कोई आपत्ति नहीं होगी , क्योंकि यह किसी काम का आदमी नहीं है।"

"इसमें मुझे क्या आपत्ति हो सकती है।" सुशीला ने शांत भाव से उत्तर दिया।

"एक बात और। मेरी कंपनी में रहकर आप बिना मेरी इजाजत किसी भी आदमी से नहीं मिल सकेंगी - मेरी कंपनी की यह पहली शर्त है।"

"अच्छी बात है।" सुशीला ने कहा।

मिस्टर व्रती उठ खड़े हुए, "आज शाम को पूना चलना है - वहाँ सेठ जी से बातें करनी हैं। आप शाम तक तैयार हो जाइए, टिकट मँगवाए लेता हूँ।" मिस्टर व्रती ने उसी समय कंपनी के दरबान को आज्ञा दी कि रामगोपाल को आफिस में घुसने न दिया जाए और उससे कह दिया जाए कि उसे नौकरी नहीं मिली। जिस समय सुशीला अपना असबाब ठीक करने अपने घर पहुँची, छबीलदास फुटपाथ के चक्कर लगा रहा था। सुशीला ने छबीलदास को अंदर बुलाया। छबीलदास भरा हुआ था, उसने कहा, "मैं तुम्हारे सर्विस पा जाने पर बधाई देने आया हूँ।"

सुशीला मुस्कुराकर अपना असबाब ठीक करने लगी।

"और इस बात पर भी कि तुम्हें एक नया मित्र मिल गया है जो तुम्हें ताजमहल होटल में खाना खिला सकता है, वहाँ तुमसे प्रेमालाप कर सकता है।"

सुशीला ने सूटकेस में कपड़े रखते हुए कहा, "तो क्या तुम मुझसे कैफियत तलब करने आए हो?"

छबीलदासहँस पड़ा, "मैं कैफियत तलब करनेवाला कौन होता हूँ। मैं तो वह साधन मात्र हूँ जो तुम्हारी मुसीबत पर काम आए।"

छबीलदास के इस स्वर से सुशीला को बुरा लगा, "आपका वह फर्ज था क्योंकि आप ही मुझको बनारस से बहका लाए थे। आगे से मैं आपसे इस तरह की न कोई सहायता माँगूँगी न आपसे कोई वास्ता रखूँगी।"

छबीलदास उठ खड़ा हुआ - तैश में।आज उसे अपने ऊपर ग्लानि हो रही थी। उसने कहा, "बहुत अच्छा। लेकिन याद रखना तुम्हें फिर मेरी जरूरत पड़ेगी - और उस दिन मैं तुम्हारे ये शब्द याद रखूँगा - आगे चलकर मुझसे किसी तरह की उम्मीद न रखना।" और वह चला आया।

उस छोटे-से कमरे में पाँच बिस्तर पड़े थे और पाँच आदमी लेटे थे। पांडे एक फिल्म मैगजीन उलट-पुलट रहा था, सिंह एक फिल्मी गाना गुनगुना रहा था। वर्मा सिगरेट के कश-के-कश ले रहा था। छबीलदास एक कोने में पड़ा सिसकियाँ ले रहा था। वह अपने विगत पर सोच रहा था, और वर्तमान की उस विगत से तुलना कर रहा था। और रामगोपाल दूसरे कोने में मौन अपने भविष्य पर चिंता कर रहा था।

रामगोपाल को एक दिन नौकरी मिली, दूसरे दिन उसकी नौकरी छूट गई। कल एक हीरोइन मिली जिसके साथ में रहकर उसने लखपती होने के सपने बनाए थे, आज वह हीरोइन हाथ से निकल गई। उसने जेब से अपना पर्स निकाला - अब उसमें कुल जमा-पूँजी पैंतीस रुपए रह गई थी।

पांडे ने मैगजीन रख दी। उसने रामगोपाल से पूछा, "क्यों, बड़े चुप हो? क्या बात है?" सिंह ने उत्तर दिया, "आज इनकी नौकरी छूट गई।" छबीलदास, जो अभी तक सिसकियाँ भर रहा था, चौंककर बैठ गया, "अच्छा हुआ। इन साले दगाबाजों के साथ होगा ही क्या? इस हाथ ले, उस हाथ दे।" और यकीनी तौर से छबीलदास का क्रोध और दु:ख ७५ प्रतिशत गायब हो गया था।

रामगोपाल से अब न रहा गया, वह उठ बैठा और उसने कहा, "अब जो किसी साले ने गाली दी तो मैं उसका मुँह तोड़ दूँगा।" मामला संगीन हो रहा था - वर्मा ने यह देखा और उठ बैठा। "आखिर मामला क्या है?"

सिंह ने कहा, "आज रामगोपाल को सेवा फिल्म कंपनी से जवाब मिल गया - सो ये झल्लाए हुए हैं। लेकिन छबीलदास आज क्यों इतने क्रोधित हो गए - यह समझ में नहीं आता।"

"वह मैं बतला दूँ।" वर्मा ने मुस्कुराते हुए कहा, "वह औरत - वही - क्या नाम है उसका - वह आज एक आदमी के साथ - शायद उसका नाम व्रती है - पूना गई है, साथ में मेरे पंजाबवाले सेठ भी थे जो उस कंपनी में रुपया लगा रहे हैं।" अब वर्मा से न रहा गया, वह खिलखिलाकर हँस पड़ा। "पंजाबवाले सेठ के पास पैसा है - वह पैसा खर्च तो होना ही चाहिए।"

पांडे उठा - उसने छबीलदास से कहा, "इसी बात पर नाराज हो गए? अरे भाई, एक दफा तुम्हें छोड़कर चली गई तो फिर अब वह फिर से तुम्हारी कैसे हो सकती थी - भूल जाओ उसे।" उधर सिंह रामगोपाल से कह रहा था, "ऐसी नौकरियाँ मिलेंगी और छूटेंगी - इस पर अफसोस करने की क्या बात है?" और पांडे और सिंह ने मिलकर छबीलदास और रामगोपाल से हाथ मिलवा दिया।

वर्मा ने एक-एक सिगरेट उन लोगों को दी - कमरे में सिगरेट का धुआँ भर गया। उस एक छोटे-से कमरे में भेड़ों की तरह रहनेवाले वे पाँचों युवक लेटे थे और सिगरेट पी रहे थे जैसे कुछ हुआ ही नहीं। भावना और चेतना से शून्य। और धीरे-धीरे वह पाँचो युवक सो गए सुबह उठकर फिर नित्य की तरह बेकारी, गैर-जिम्मेदारी की जिंदगी बिताने के लिए।

पुल के बीचोंबीच, एक-दूसरे से दो कदम की दूरी पर दोनों बाँके रुके। दोनों ने एक-दूसरे को थोड़ी देर गौर से देखा। फिर दोनों बाँकों की लाठियाँ उठीं, और दाहिने हाथ से बाएँ हाथ में चली गईं।

इस पारवाले बाँके ने कहा - "फिर उस्‍ताद!"

उस पारवाले बाँके ने कहा - "फिर उस्‍ताद!"

इस पारवाले बाँके ने अपना हाथ बढ़ाया, और उस पारवाले बाँके ने अपना हाथ बढ़ाया। और दोनों के पंजे गुँथ गए।

दोनों बाँकों के शागिर्दों ने नारा लगाया - "या अली !"

फिर क्‍या था! दोनों बाँके जोर लगा रहे हैं; पंजा टस-से-मस नहीं हो रहा है। दस मिनट तक तमाशबीन सकते की हालत में खड़े रहे।

इतने में इस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्‍ताद, गजब के कस हैं!"

उस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्‍ताद, बला का जोर है !"

इस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्‍ताद, अभी तक मैंने समझा था कि मेरे मुकाबिले का लखनऊ में कोई दूसरा नहीं है।"

उस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्‍ताद, आज कहीं जाकर मुझे अपनी जोड़ का जवाँ मर्द मिला!"

इस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्‍ताद, तबीयत नहीं होती कि तुम्‍हारे जैसे बहादुर आदमी का खून करूँ!"

उस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्‍ताद, तबीयत नहीं होती कि तुम्‍हारे जैसे शेरदिल आदमी की लाश गिराऊँ!"

थोड़ी देर के लिए दोनों मौन हो गए; पंजा गुँथा हुआ, टस-से-मस नहीं हो रहा है।

इस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्‍ताद, झगड़ा किस बात का है?"

उस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्‍ताद, यही सवाल मेरे सामने है!"

इस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्‍ताद, पुल के इस तरफ के हिस्‍से का मालिक मैं!"

उस पारवाले बाँके ने कहा - "उस्‍ताद, पुल के इस तरफ के हिस्‍से का मालिक मैं!"

और दोनों ने एक साथ कहा - "पुल की दूसरी तरफ से न हमें कोई मतलब है और न हमारे शागिर्दों को!"

दोनों के हाथ ढीले पड़े, दोनों ने एक-दूसरे को सलाम किया और फिर दोनों घूम पड़े। छाती फुलाए हुए दोनों बाँके अपने शागिर्दों से आ मिले। बिजली की तरह यह खबर फैल गई कि दोनों बराबर की जोड़ छूटे और उनमें सुलह हो गई।

इक्‍केवाले को पैसे देकर मैं वहाँ से पैदल ही लौट पड़ा क्‍योंकि देर हो जाने के कारण नख्‍खास जाना बेकार था।

इस पारवाला बाँका अपने शागिर्दों से घिरा चल रहा था। शागिर्द कह रहे थे - "उस्‍ताद, इस वक्‍त बड़ी समझदारी से काम लिया, वरना आज लाशें गिर जातीं।" - "उस्‍ताद हम सब-के-सब अपनी-अपनी जान दे देते!" - "लेकिन उस्‍ताद, गजब के कस हैं।"

इतने में किसी ने बाँके से कहा - "मुला स्‍वाँग खूब भरयो!"

बाँके ने देखा कि एक लंबा और तगड़ा देहाती, जिसके हाथ में एक भारी-सा लट्ठ है, सामने खड़ा मुस्‍कुरा रहा है।

उस वक्‍त बाँके खून का घूँट पीकर रह गए। उन्‍होंने सोचा - भला उस्‍ताद की मौजूदगी में उन्‍हें हाथ उठाने का कोई हक भी है?

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