आम (कहानी) : सआदत हसन मंटो

Aam (Hindi Story) : Saadat Hasan Manto

खज़ाने के तमाम कलर्क जानते थे कि मुंशी करीम बख़्श की रसाई बड़े साहब तक भी है। चुनांचे वो सब उस की इज़्ज़त करते थे। हर महीने पैंशन के काग़ज़ भरने और रुपया लेने के लिए जब वो खज़ाने में आता तो इस का काम इसी वजह से जल्द जल्द कर दिया जाता था। पच्चास रुपय उस को अपनी तीस साला ख़िदमात के इवज़ हर महीने सरकार की तरफ़ से मिलते थे। हर महीने दस दस के पाँच नोट वो अपने ख़फ़ीफ़ तौर पर काँपते हुए हाथों से पकड़ता और अपने पुराने वज़ा के लंबे कोट की अंदरूनी जेब में रख लेता। चश्मे में ख़ज़ानची की तरफ़ तशक्कुर भरी नज़रों से देखता और ये कह कर “अगर ज़िंदगी हुई तो अगले महीने फिर सलाम करने के लिए हाज़िर हूँगा” बड़े साहब के कमरे की तरफ़ चला जाता।
आठ बरस से इस का यही दस्तूर था। खज़ाने के क़रीब क़रीब हर क्लर्क को मालूम था कि मुंशी करीम बख़्श जो मुतालिबात-ए-ख़फ़ीफ़ा की कचहरी में कभी मुहाफ़िज़-ए-दफ़्तर हुआ करता था बेहद वज़ादार, शरीफ़ुत्तबा और हलीम आदमी है। मुंशी करीम बख़्श वाक़ई इन सिफ़ात का मालिक था। कचहरी में अपनी तवील मुलाज़मत के दौरान में आफ़िसरान बाला ने हमेशा उस की तारीफ़ की है। बाअज़ मुंसिफ़ों को तो मुंशी करीम बख़्श से मोहब्बत होगई थी। उस के ख़ुलूस का हर शख़्स क़ाइल था।
इस वक़्त मुंशी करीम बख़्श की उम्र पैंसठ से कुछ ऊपर थी। बुढ़ापे में आदमी उमूमन कमगो और हलीम हो जाता है मगर वो जवानी में भी ऐसी ही तबीयत का मालिक था। दूसरों की ख़िदमत करने का शौक़ इस उम्र में भी वैसे का वैसा ही क़ायम था।
खज़ाने का बड़ा अफ़्सर मुंशी करीम बख़्श के एक मुरब्बी और मेहरबान जज का लड़का था। जज साहब की वफ़ात पर उसे बहुत सदमा हुआ था अब वो हर महीने उन के लड़के को सलाम करने की ग़रज़ से ज़रूर मिलता था। इस से उसे बहुत तसकीन होती थी। मुंशी करीम बख़्श उन्हें छोटे जज साहब कहा करता था।
पैंशन के पच्चास रुपय जेब में डाल कर वह बरामदा तय करता और चक़ लगे कमरे के पास जा कर अपनी आमद की इत्तिला कराता। छोटे जज साहब उस को ज़्यादा देर तक बाहर खड़ा न रखते, फ़ौरन अंदर बुला लेते और सब काम छोड़कर उस से बातें शुरू करदेते।
“तशरीफ़ रखीए मुंशी साहब........ फ़रमाईए मिज़ाज कैसा है।”
“अल्लाह का लाख लाख शुक्र है........आपकी दुआ से बड़े मज़े में गुज़र रही है, मेरे लायक़ कोई ख़िदमत?”
“आप मुझे क्यों शर्मिंदा करते हैं। मेरे लायक़ कोई ख़िदमत हो तो फ़रमाईए। ख़िदमतगुज़ारी तो बंदे का काम है।”
“आप की बड़ी नवाज़िश है।”
इस क़िस्म की रस्मी गुफ़्तुगू के बाद मुंशी करीम जज साहब की मेहरबानियों का ज़िक्र छेड़ देता। उन के बुलंद किरदार की वज़ाहत बड़े फिदवियाना अंदाज़ में करता और बार बार कहता। “अल्लाह बख़्शे मरहूम फ़िरिश्ता खस्लत इंसान थे। ख़ुदा उन को करवट करवट जन्नत नसीब करे।”
मुंशी करीम बख़्श के लहजे में ख़ुशामद वग़ैरा की ज़र्रा भर मिलावट नहीं होती थी। वो जो कुछ कहता था। महसूस करके कहता था। इस के मुताल्लिक़ जज साहब के लड़के को जो अब खज़ाने के बड़े अफ़्सर थे अच्छी तरह मालूम था। यही वजह है कि वो उस को इज़्ज़त के साथ अपने पास बिठाते थे और देर तक इधर उधर की बातें करते रहते थे।
हर महीने दूसरी बातों के इलावा मुंशी करीम बख़्श के आम के बाग़ों का ज़िक्र भी आता था। मौसम आने पर जज साहब के लड़के की कोठी पर आमों का एक टोकरा पहुंच जाता था। मुंशी करीम बख़्श को ख़ुश करने के लिए वो हर महीने उस को याद-दहानी करा देते थे। “मुंशी साहब, देखें इस मौसम पर आमों का टोकरा भेजना न भोलीएगा।
पिछली बार आप ने जो आम भेजे थे उस में तो सिर्फ़ दो मेरे हिस्से में आए थे।”
कभी ये तीन हो जाते थे, कभी चार और कभी सिर्फ़ एक ही रह जाता था।
मुंशी करीम बख़्श ये सुन कर बहुत ख़ुश होता था। “हुज़ूर ऐसा कभी हो सकता है........ जूंही फ़सल तैय्यार हुई मैं फ़ौरन ही आप की ख़िदमत में टोकरा लेकर हाज़िर हो जाऊंगा........ दो कहीए दो हाज़िर करदूँ। ये बाग़ किस के हैं........ आप ही के तो हैं।”
कभी कभी छोटे जज साहब पूछ लिया करते थे। “मुंशी जी आप के बाग़ कहाँ हैं?”
“दुनिया नगर में हुज़ूर........ ज़्यादा नहीं हैं सिर्फ़ दो हैं। इस में से एक तो मैंने अपने छोटे भाई को दे रखा है जो इन दोनों का इंतिज़ाम वग़ैरा करता है।”
मई की पैंशन लेने के लिए मुंशी करीम बख़्श जून की दूसरी तारीख़ को खज़ाने गया दस दस के पाँच नोट अपने ख़फ़ीफ़ तौर पर काँपते हुए हाथों से कोट की अंदरूनी जेब में रख कर इस ने छोटे जज साहब के कमरा का रुख़ किया। हसब-ए-मामूल इन दोनों में वही रस्मी बातें होएं। आख़िर में आमों का ज़िक्र भी आया। जिस पर मुंशी करीम बख़्श ने कहा। “दुनिया नगर से चिट्ठी आई है कि अभी आमों के मुँह पर चीप नहीं आया। जूंही चीप आगया और फ़सल पक कर तैय्यार होगई मैं फ़ौरन पहला टोकरा लेकर आप की ख़िदमत में हाज़िर हो जाऊंगा........ छोटे जज साहब! इस दफ़ा ऐसे तोहफ़ा आम होंगे कि आप की तबीयत ख़ुश हो जाएगी। मलाई और शहद के घूँट न हूए तो मेरा ज़िम्मा। मैंने लिख दिया है कि छोटे जज साहब के लिए एक टोकरा खासतौर पर भरवा दिया जाये और सवारी गाड़ी से भेजा जाये ताकि जल्दी और एहतियात से पहुंचे। दस पंद्रह रोज़ आप को और इंतिज़ार करना पड़ेगा।”
छोटे जज साहब ने शुक्रिया अदा किया। मुंशी करीम बख़्श ने अपनी छतरी उठाई और ख़ुश ख़ुश घर वापिस आगया।
घर में उस की बीवी और बड़ी लड़की थी। ब्याह के दूसरे साल जिस का ख़ाविंद मर गया था। मुंशी करीम बख़्श की और कोई औलाद नहीं थी मगर उस मुख़्तसर से कुन्बे के बावजूद पच्चास रूपों में इस का गुज़र बहुत ही मुश्किल से होता था। इसी तंगी के बाइस उस की बीवी के तमाम ज़ेवर इन आठ बरसों में आहिस्ता आहिस्ता बिक गए थे।
मुंशी करीम बख़्श फ़ुज़ूलखर्च नहीं था। उस की बीवी और वो बड़े किफ़ायत शिआर थे मगर इस किफ़ायत शिआरी के बावस्फ़ तनख़्वाह में से एक पैसा भी उन के पास ना बचता था। उस की वजह सिर्फ़ ये थी कि मुंशी करीम बख़्श चंद आदमीयों की ख़िदमत करने में बेहद मुसर्रत महसूस करता था उन चंद ख़ासुलख़ास आदमीयों की ख़िदमतगुज़ारी में जिन से उसे दिली अक़ीदत थी।
इन ख़ास आदमीयों में से एक तो जज साहब के लड़के थे। दूसरे एक और अफ़्सर थे जो रिटायर हो कर अपनी ज़िंदगी का बक़ाया हिस्सा एक बहुत बड़ी कोठी में गुज़ार रहे थे। उन से मुंशी करीम बख़्श की मुलाक़ात हर रोज़ सुबह सवेरे कंपनी बाग़ में होती थी।
बाग़ की सैर के दौरान में मुंशी करीम बख़्श उन से हर रोज़ पिछले दिन की ख़बरें सुनता था। कभी कभी जब वो बीते हुए दिनों के तार छेड़ देता तो डिप्टी सुपरिन्टेन्डेन्ट साहब अपनी बहादुरी के क़िस्से सुनाना शुरू कर देते थे कि किस तरह उन्हों ने लायल पुर के जंगली इलाक़े में एक ख़ूँख़ार क़ातिल को पिस्तौल, ख़ंजर दिखाए बग़ैर गिरफ़्तार किया और किस तरह उन के रोब से एक डाकू सारा माल छोड़कर भाग गया।
कभी कभी मुंशी करीम बख़्श के आम के बाग़ों का भी ज़िक्र आजाता था। मुंशी साहब कहीए। “अब की दफ़ा फ़सल कैसी रहेगी।” फिर चलते चलते डिप्टी सुपरिन्टेन्डेन्ट साहब ये भी कहते। “पिछले साल आप ने जो आम भिजवाए थे बहुत ही अच्छे थे बेहद लज़ीज़ थे।”
“इंशाअल्लाह ख़ुदा के हुक्म से अब की दफ़ा भी ऐसे ही आम हाज़िर करूंगा।
एक ही बूटे के होंगे। वैसे ही लज़ीज़, बल्कि पहले से कुछ बढ़ चढ़ कर ही होंगे।”
उस आदमी को भी मुंशी करीम बख़्श हर साल मौसम पर एक टोकरा भेजता था। कोठी में टोकरा नौकरों के हवाले करके जब वो डिप्टी साहब से मिलता और वो इस का शुक्रिया अदा करते तो मुंशी करीम बख़्श निहायत इनकिसारी से काम लेते हुए कहता “डिप्टी साहब आप क्यों मुझे शर्मिंदा करते हैं........ अपने बाग़ हैं। अगर एक टोकरा यहां ले आया तो क्या होगया। बाज़ार से आप एक छोड़ कई टोकरे मंगवा सकते हैं........ ये आम चूँकि अपने बाग़ के हैं और बाग़ में सिर्फ़ एक बूटा है जिस के सब दाने घुलावट ख़ुशबू और मिठास में एक जैसे हैं इस लिए ये चंद तोहफ़े के तौर पर ले आया।”
आम देने के बाद जब वो कोठी से बाहर निकलता तो उस के चेहरे पर तिमतिमाहट होती थी एक अजीब क़िस्म की रुहानी तसकीन उसे महसूस होती थी जो कई दिनों तक उस को मसरूर रखती थी।
मुंशी करीम बख़्श इकहरे जिस्म का आदमी था। बुढ़ापे ने उस के बदन को ढीला कर दिया था। मगर ये ढीलापन बदसूरत मालूम नहीं होता था। उस के पतले पतले हाथों की फूली हुई रगें सर का ख़फ़ीफ़ सा इर्तिआश और चेहरे की गहिरी लकीरें उस की मतानत-ओ-संजीदगी में इज़ाफ़ा करती थीं। ऐसा मालूम होता था कि बुढ़ापे ने उस को निखार दिया है। कपड़े भी वो साफ़ सुथरे पहनता था जिस से ये निखार उभर आता था।
उस के चेहरे का रंग सफेदी माइल ज़र्द था। पतले पतले होंट जो दाँत निकल जाने के बाद अंदर की तरफ़ सिमटे रहते थे, हल्के सुर्ख़ थे, ख़ून की इस कमी के बाइस उस के चेहरे पर ऐसी सफ़ाई पैदा होगई थी जो अच्छी तरह मुँह धोने के बाद थोड़ी देर तक क़ायम रहा करती है।
वो कमज़ोर ज़रूर था, पैंसठ बरस की उम्र में कौन कमज़ोर नहीं हो जाता मगर इस कमज़ोरी के बावजूद उस में कई कई मील पैदल चलने की हिम्मत थी। खासतौर पर जब आमों का मौसम आता तो वो डिप्टी साहब और छोटे जज साहब को आमों के टोकरे भेजने के लिए इतनी दौड़ धूप करता था कि बीस पच्चीस बरस के जवान आदमी भी क्या करेंगे। बड़े एहतिमाम से टोकरे खोले जाते थे। इन का घास फूस अलग किया जाता था। दाग़ी या गले सड़े दाने अलग किए जाते थे। और साफ़ सुथरे आम नए टोकरों में गिन कर डाले जाते थे। मुंशी करीम बख़्श एक बार फिर इत्मिनान करने की ख़ातिर उन को गिन लेता था ताकि बाद में शर्मिंदगी न उठानी पड़े।
आम निकालते और टोकरों में डालते वक़्त मुंशी करीम बख़्श की बहन और उसकी बीवी के मुँह में पानी भर आता। मगर वो दोनों ख़ामोश रहतीं। बड़े बड़े रस भरे ख़ूबसूरत आमों का ढेर देख कर जब इन में से कोई ये कहे बग़ैर न रह सकती। “क्या हर्ज है अगर इस टोकरे में से दो आम निकाल लिए जाएं।” तो मुंशी करीम बख़्श से ये जवाब मिलता। “और आजाऐंगे इतना बेताब होने की क्या ज़रूरत है।”
ये सुन कर वो दोनों चुप हो जातीं और अपना काम करती रहतीं।
जब मुंशी करीम बख़्श के घर में आमों के टोकरे आते थे तो गली के सारे आदमीयों को उस की ख़बर लग जाती थी। अबदुल्लाह नीचा बंद का लड़का जो कबूतर पालने का शौक़ीन था दूसरे रोज़ ही आ धमकता था और मुंशी करीम बख़्श की बीवी से कहता था। “ख़ाला में घास लेने के लिए आया हूँ। कल खालूजान आमों के दो टोकरे लाए थे इन में से जितनी घास निकली हो मुझे दे दीजीए।”
हमसाई नूरां जिस ने कई मुर्ग़ियां पाल रखी थीं, उसी रोज़ शाम को मिलने आजाती थी और इधर उधर की बातें करने के बाद कहा करती थी। “पिछले बरस जो तुम ने मुझे एक टोकरा दिया था बिलकुल टूट गया है। अब के भी एक टोकरा देदो तो बड़ी मेहरबानी होगी।”
दोनों टोकरे और उन की घास यूं चली जाती।
हस्ब-ए-मामूल इस दफ़ा भी आमों के दो टोकरे आए गले सड़ने दाने अलग किए गए जो अच्छे थे उन को मुंशी करीम बख़्श ने अपनी निगरानी में गिनवा कर नए टोकरों में रखवाया। बारह बजे पहले पहल ये काम ख़त्म होगया। चुनांचे दोनों टोकरे ग़ुसलख़ाने में ठंडी जगह रख दिए गए ताकि आम ख़राब ना हो जाएं।
उधर से मुतमइन हो कर दोपहर का खाना खाने के बाद मुंशी करीम बख़्श कमरे में चारपाई पर लेट गया।
जून के आख़िरी दिन थे। इस क़दर गर्मी थी कि दीवारें तवे की तरह तप रही थीं। वो गरमीयों में आम तौर पर ग़ुसलख़ाने के अंदर ठंडे फ़र्श पर चटाई बिछा कर लेटा करता था। यहां मोरी के रस्ते ठंडी ठंडी हवा भी आजाती थी लेकिन अब के इस में दो बड़े बड़े टोकरे पड़े थे। उस को गर्म कमरे ही में जो बिलकुल तनूर बना हुआ था छः बजे तक वक़्त गुज़ारना था।
हर साल गरमीयों के मौसम में जब आमों के ये टोकरे आते उसे एक दिन आग के बिस्तर पर गुज़ारना पड़ता था मगर वो इस तकलीफ़ को ख़ंदापेशानी से बर्दाश्त कर लेता था। क़रीबन पाँच घंटे तक छोटा सा पंखा बार बार पानी में तर करके झलता रहता। इंतिहाई कोशिश करता कि नींद आजाए मगर एक पल के लिए भी उसे आराम नसीब न होता। जून की गर्मी और ज़िद्दी क़िस्म की मक्खियां किसे सोने देती हैं।
आमों के टोकरे ग़ुसलख़ाने में रखवा कर जब वो गर्म कमरे में लेटा तो पंखा झलते झलते एक दम उस का सर चकराया। आँखों के सामने अंधेरा सा छाने लगा। फिर उसे ऐसा महसूस हुआ कि उस का सांस उखड़ रहा है और वो सारे का सारा गहिराईयों में उतर रहा है इस क़िस्म के दौरे उसे कई बार पड़ चुके थे इस लिए कि इस का दिल कमज़ोर था मगर ऐसा ज़बरदस्त दौरा पहले कभी नहीं पड़ा था। सांस लेने में उस को बड़ी दिक़्क़त महसूस होने लगी, सर बहुत ज़ोर से चकराने लगा। घबरा कर इस ने आवाज़ दी और अपनी बीवी को बुलाया।
ये आवाज़ सुन कर उस की बीवी और बहन दोनों दौड़ी दौड़ी अंदर आएं दोनों जानती थीं कि उसे इस क़िस्म के दौरे क्यों पड़ते हैं। फ़ौरन ही उस की बहन ने अबदुल्लाह नीचा बंद के लड़के को बुलाया और उस से कहा कि डाक्टर को बुला लाए ताकि वो ताक़त की सोई लगा दे। लेकिन चंद मिनटों ही में मुंशी करीम बख़्श की हालत बहुत ज़्यादा बिगड़ गई। इस का दिल डूबने लगा। बे-क़रारी इस क़दर बढ़ गई कि वो चारपाई पर मछली की तरह तड़पने लगा। उस की बीवी और बहन ने ये देख कर शोर बरपा कर दिया। जिस के बाइस इस के पास कई आदमी जमा होगए।
बहुत कोशिश की गई, उस की हालत ठीक हो जाये लेकिन कामयाबी नसीब न हुई। डाक्टर बुलाने के लिए तीन चार आदमी दौड़ाए गए थे लेकिन इस से पहले कि इन में से कोई वापिस आए मुंशी करीम बख़्श ज़िंदगी के आख़िरी सांस लेने लगा। बड़ी मुश्किल से करवट बदल कर उस ने अबदुल्लाह नीचा बंद को जो इस के पास ही बैठा था अपनी तरफ़ मुतवज्जा किया और डूबती हूई आवाज़ में कहा। “तुम सब लोग बाहर चले जाओ। मैं अपनी बीवी से कुछ कहना चाहता हूँ।”
सब लोग बाहर चले गए उस की बीवी और लड़की दोनों अंदर दाख़िल हुईं रो रो कर उन का बुरा हाल हो रहा था। मुंशी करीम बख़्श ने इशारे से अपनी बीवी को पास बुलाया और कहा। “दोनों टोकरे आज शाम ही डिप्टी साहब और छोटे जज साहब की कोठी पर ज़रूर पहुंच जाने चाहिऐं। पड़े पड़े ख़राब हो जाऐंगे।”
इधर उधर देख कर इस ने बड़े धीमे लहजे में कहा। “देखो तुम्हें मेरी क़सम है मेरी मौत के बाद भी किसी को आमों का राज़ मालूम न हो। किसी से न कहना कि ये आम हम बाज़ार से ख़रीद कर लोगों को भेजते थे। कोई पूछे तो यही कहना कि दुनिया नगर में हमारे बाग़ हैं... बस... और देखो जब में मर जाऊं तो छोटे जज साहब और डिप्टी साहब को ज़रूर इत्तिला भेज देना।”
चंद लम्हात के बाद मुनशी करीम बख़्श मर गया, उस की मौत से डिप्टी साहब और छोटे साहब को लोगों ने मुत्तला कर दिया। मगर दोनों चंद नागुज़ीर मजबूरीयों के बाइस जनाज़े में शामिल न होसके।
(1943)

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