आकारों के आसपास (कहानी) : कुँवर नारायण

Aakaron Ke Aaspas (Hindi Story) : Kunwar Narayan

इस कमरे की चार दीवारों से एक आन्तरिकता बनती है जिसमें सुरक्षा है और आत्मीय स्वतन्त्रता। चाहे बेसुध सोता रहूँ, कोई नहीं जगाएगा। चाहे संघर्ष करूँ-इन दीवारों से, या अपने से। हो सकता है कुछ टूटे, मुझमें या मुझसे : दोनों ही दशाओं में जो मिलेगा वह अपनी एक नई पहचान हो सकती है, या नया अवसर कि अपने को कहीं से शुरू करके कहीं भी समाप्त कर दूँ। इस तरह भी जी सकता हूँ कि बहुत-सी ऐसी चीज़ों को मुझे आज़माने का मौक़ा ही न मिले जिनसे मैं सहमत नहीं। अपने को धोखा दे सकता हूँ इस तरह कि बाहर कहीं ईश्वर की मृत्यु हो जाए...न सूरज चमके, न चाँद, न तारे...और यह जन्मसिद्ध दुनिया केवल झूठ लगे।

हवा शायद धीरे-धीरे किवाड़ खटखटाती है। उदासी में यह बाधा सुखद है। मैं उठकर दरवाजा खोल देता हूँ। “मैं अन्दर आ सकती हूँ ?” और इसके पहले कि मैं कुछ कह सकूँ वह निःसन्कोच कमरे में घुसकर अपने लायक जगह ढूँढ़ने लगती है, यहाँ, वहाँ, कहीं। बीच में मैं पड़ जाता हूँ तो कभी बाल विखेर देती, कभी चूम लेती, कभी गुदगुदाकर स्वयं हँस पड़ती। ढीठ और निर्लज्ज।

“अपनी उदासी से कहो थोड़ी जगह और दे तो उसको भी अन्दर बुला लूँ,” वह खिड़की की ओर इशारा करती है। एक चमकता हुआ हँसमुख चेहरा खिड़की के शीशे से झाँक रहा था। कोई शरारती बच्चा ? नहीं, शायद थोड़ी-सी रोशनी ढेर-से अँधेरे में। कुछ उछलते हुए मैंने खिड़की भी खोल दी। वह कूदकर कमरे में आ गया, इतनी फुर्ती से मानों कमरे में ही था। कुछ सोचकर वह ठिठक गया। उसके आने से मैंने कोई उत्साह क्‍यों नहीं दिखाया ? उसका आना कोई नई बात भले ही न रही हो, खुशी की बात तो थी ही। वह शायद कमरे की हर चीज़ से खेलना चाहता था और मेरी ओर से उस मौन अनुमति को चाह रहा था जिसे बच्चे अपना अधिकार समझते हैं। मुझे कुछ कहना नहीं था, केवल उसके लड़कपन के सामने अपने को उन्मुक्त छोड़ देना था। लेकिन, आज मुझसे इतना भी न हुआ और मैं जो उसकी ज़िद के आगे मजबूर हो जाया करता था, पत्थर बना बैठा रहा। मैंने उसे न दुत्कारा, न उसका स्वागत किया। केवल उस खुशी के प्रति जो वह लाया था इस तरह पेश आया मानों उसका कोई महत्त्व नहीं क्योंकि वह रोज़ की चीज़ है। वह रोशनी जो सारे कमरे में मचलने के लिए आतुर थी, ज़िद करने लगी। मैंने उठकर खिड़की बन्द कर दी और अनुभव किया कि मुझमें ही कुछ अपमानित हुआ। हवा ने शायद बुरा माना क्‍योंकि वह चुपचाप दरवाजे उढ़काकर बाहर चली गई। मैंने उस शान्ति को ग़नीमत समझा जो अकसर मेरे और दूसरों के बीच सम्भव हो जाया करती है।

और उसी रात एक अप्रत्याशित घटना घटी। पड़ोस में एक बच्चे की मृत्यु हो गई।

मेरी उदासी अजीब-सी व्यथा बन जाती है। वह कौन था ? वही तो नहीं जो यहाँ था ? मैं किस नाते उसे बार-बार सोच रहा हूँ? वह यहाँ था, बस, इसी नाते। ये तसवीरें जो बनाता हूँ-मात्र रेखाएँ और रंग-या वे स्वप्न जो बन जाते हैं, एक-दूसरे में घुले-मिले आकार, वह कहती, 'समझ में नहीं आते ।' मैं कहता, “ये चित्र हवा और रोशनी के हैं-और उसी तरह हैं जैसे आत्मा होती है पर समझ में नहीं आती।' होने को मानना पड़ता है, समझने से पहले। यही तो उस बच्चे की ज़िद थी, जो न जाने क्‍यों आज मेरी उदासी का आदर कर गया...वह जो मेरे चित्रों को देखकर खुश होता था और उन्हें ग़ैरज़रूरी नहीं समझता था...

इन दीवारों में एक आश्वासन है क्योंकि ये मेरी अपेक्षा बदलतीं नहीं। हवा और रोशनी जिनके आते ही कमरा बदल जाता है, बाहर रखे जा सकते हैं। मैं अपने को कहीं और से आरम्भ कर ले सकता हूँ, इस तरह कि न प्यार करूँ, न शोक, न आशा। ज़िन्दगी के मानी हैं बहुत-सी चीज़ें, कोई एक चीज़ नहीं। और तभी ऐसा लगा कि कमरे की चीज़ों ने मिलकर मेरे सामने एक ऐसी ज़िन्दगी रखी जिसमें न अच्छाई थी, न बुराई, क्योंकि उसमें न ज़रूरतें थीं, न कर्तव्य। केवल एक ऐसा क्रम था जिसमें कहीं स्वयं को साबित करने की मजबूरी न थी।

बाहर हवा चीखती-चिल्लाती रही, जैसे उसका कोई मर गया हो।

ये रास्ते-कुरास्ते सरपट दौड़ती बचकानी ज़रूरतें जो अपने हाथ-पाँव तोड़कर बिलख रही हैं-क्यों मानूँ कि इस तरह नहीं जीना, नहीं जीना है ? एक संघर्ष वह भी है जो अपनी ज़रूरतों से जीतने के लिए किया जाता है...।

लेकिन वह जो बाहर सिर पीट रही है, केवल हवा है : मेरी बात न समझेगी। लेकिन मैं उसके नाते कुछ इस तरह जीवित हूँ कि मुझे उसकी बात समझनी पड़ेगी...।

मैं चुपचाप उठकर किवाड़ खोलता हूँ और उस आदिम, जंगली तूफ़ान को सीने से चिपका लेता हूँ।

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