आग और धुआं (उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री

Aag Aur Dhuan (Novel) : Acharya Chatursen Shastri

नौ : आग और धुआं

ई० १७५४ में इंगलैण्ड और फ्रांस में राजनैतिक स्थितियाँ विभिन्न थीं। जबकि इंगलैण्ड सम्पूर्ण रूप से भारत की ओर समय-समय पर उचित सहायता भेजता रहा, तब फ्रांस अपने आन्तरिक झगड़ों में फंसा रहा। इंगलैण्ड के राज्य-परिवार में कभी पारिवारिक झगड़े उत्पन्न नहीं हुए, परन्तु फ्रांस का राज्य-परिवार आन्तरिक झगड़ों में फंसा रहा। त्रिचनापली के युद्ध में हार होने के बाद डूप्ले को फ्रांस बुला लिया गया। फ्रांस और अंग्रेजों ने परस्पर में सन्धि कर ली परन्तु अंग्रेज कब सन्धियों का पालन करते थे।

१८वीं शताब्दी के मध्य में फ्रांस का राज्य वंश अपनी भोगलिप्सा में डूबकर राजकोश को ऐश्वर्य और विलासिता में खाली कर रहा था। तत्कालीन फ्रांस का बादशाह लुई पंद्रहवां राजकोष को बिल्कुल समाप्त करके और अपनी अतृप्त भोगलिप्सा को अपने हृदय में लिए सन् १७७४ में मर गया। उसके बाद लुई सोलहवां सिंहासन पर बैठा।

नया बादशाह नवयुवक था और उसकी पत्नी आस्ट्रिया की राजकुमारी मेरी आत्वानेव बहुत सुन्दरी थी। पति-पत्नी का प्रेम आपस में बँटा हुआ था, परन्तु उन्होंने भी अपने ऐश्वर्य और सुख-भोग के लिए राजकोष को अंधाधुंध खर्च किया। प्रतिवर्ष प्रधानमंत्री राजकोष को भरने के लिए उपाय करते, परन्तु उनका प्रयत्न सफल नहीं होता था। १२ वर्ष के बाद बादशाह से कह दिया गया कि अब फ्रांस का दिवाला निकलने वाला है। बादशाह ने अमीरों, पादरियों और प्रजा के विशिष्ट व्यक्तियों को साथ लेकर कुछ उपाय करना चाहा, परन्तु फ्रांस-भर में प्रजा इतनी दुखी और पीड़ित हो चुकी थी कि महान क्रान्ति का सूत्रपात १७८६ में देश-भर में हुआ। फ्रांस में तीन राजनैतिक दल बन गए। गिरोण्डिस्ट, कोडिलियर और जैकोबिन। तीनों ही दल अपनी महारानी को आस्ट्रिया की राजकुमारी होने के कारण विदेशी समझ उसका तिरस्कार करते रहे और राजवंश का अन्त करने पर तुल गए। राज्यक्रान्ति हुई। खून बहाया जाने लगा और राज्य-सत्ता राज्यवंश से निकलकर राजनैतिक दलों के हाथों में आती-जाती रही। प्रजा के पास खाने को अन्न और पहनने को वस्त्र नहीं बचे थे। चारों ओर अराजकता और खून-खराबी का बोल-बाला था।

मेरी आत्वानेव का शैशव अपनी गरिमामयी माता मेरी थेरेसा की गोद में आमोद-प्रमोद में व्यतीत हुआ था। छोटी अवस्था में ही उसका विवाह फ्रांस के राजकुमार लुई १६वें से हो गया था। विवाह के पांच वर्ष बाद आत्वानेव को साम्राज्ञी पद प्राप्त हुआ। वह राजसत्ता में दृढ़ आस्था रखती थी, परन्तु फ्रांस की राजनीति क्रान्ति की ओर अग्रसर हो रही थी, और राजसत्ता संकटमय स्थिति में थी। उसका पति साहसी नहीं था। आत्वानेव ने अपने पति को अपने आदेशानुसार चलाना चाहा। वह नहीं चाहती थी कि सम्राट् के अधिकारों में किसी प्रकार का नियंत्रण हो। आत्वानेव के विचार फ्रांस की प्रजा का रोष उभारने में और भी सहायक बने।

फ्रांस की आर्थिक स्थिति बहुत दुर्दशा-ग्रस्त थी। सम्राट ने प्रसिद्ध अर्थशास्त्री तूर्गों के हाथ में स्थिति सुधार का कार्य सौंपा था परन्तु सामाग्री के हस्तक्षेप के कारण तूर्गो अधिक समय तक अर्थसचिव के पद पर न रह सका। आत्वानेव ने सम्राट् से कहा कि तुम्हारा कार्य फ्रांस-निवासियों से न हो सकेगा-तुम्हें अन्य राष्ट्रों से सहायता लेनी चाहिए।

लुई वार्सेल्स नगर में रहकर वहीं से राजकार्य की देख-रेख करता था। उसके कार्यों से पेरिस की जनता में असन्तोष पैदा हो रहा था और उपद्रव के लक्षण दीखने लगे थे। कुछ काल में राज्य-क्रान्ति आरम्भ हो गई उन्हीं दिनों पेरिस को भीषण दुर्भिक्ष का सामना करना पड़ा। क्रान्तिकारी विचारों के कारण पेरिस की जनता में जाग्रति हो चुकी थी। उन्हें यह असह्य हो गया कि राजा और रानी तो आनन्द से जीवन बितायें और प्रजा भूखों मरे। भूखे जन-समूह ने वार्सेल्स के राजभवन को घेर लिया। विवश होकर राजा और रानी को पेरिस आना पड़ा। वहाँ वे राजभवन में रहने लगे, परन्तु उनके कार्यों पर दृष्टि रखी जाने लगी। राजा तो किसी प्रकार उस स्थिति में रहने को प्रस्तुत था, परन्तु स्वतन्त्रता का अपहरण हो जाने से रानी को उस स्थिति में रहना बड़ा कष्टप्रद प्रतीत होने लगा। वह वहाँ से निकल भागने का विचार करने लगी।

इन्हीं दिनों फ्रांस की राज्य-परिषद् में शासन-विधान-सम्बन्धी बहुत से परिवर्तन हो गए थे, जिसके कारण राज-सत्ता के समर्थक बहुत से कुलीन मनुष्य फ्रांस की सीमा से बाहर चले गये थे। वे विदेशी राज्यों की सहायता से फ्रांस में राजसत्ता को निरापद करना चाहते थे। साम्राज्ञी गुप्त रीति से उनके कुचक्र में सम्मिलित थी। उनके परामर्श और सहायता से उसने राजभवन छोड़ने का प्रबन्ध कर लिया। एक दिन सुयोग देखकर प्रहरियों की आँख में धूल झोंककर राजवंश ने सीमाप्रान्त की ओर प्रस्थान कर दिया। वहाँ उनकी सहायता के लिए एक सेनानायक २५००० सैनिकों के साथ उपस्थित था, परन्तु यह सबके सब मार्ग में ही पकड़े गए। वनिस गाँव के पोस्टमास्टर के पुत्र ने उन्हें पहचान लिया। रानी ने हाथ जोड़े, प्रार्थना की, गिड़गिड़ाई और रोई भी, परन्तु उसके आँसुओं का कुछ फल न निकला। सबके सब पेरिस लाए गये और कड़े पहरे में बन्द कर दिए गए। राजा की स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण हो गई। उसकी इच्छा आत्मघात करने की होती थी। दस दिन तक निरन्तर उसने रानी से कोई बात न की। जब रानी से न रहा गया तो वह जाकर पति के चरणों पर गिर पड़ी और दोनों बच्चों को उसकी गोद में बैठाकर कहने लगी-"भाग्य के विरुद्ध युद्ध जारी रखने के लिए हमें धैर्य धारण करना ही होगा। यदि हमारा अन्त अवश्यंभावी है तो हम उसे रोक नहीं सकते, परन्तु मरने की कला हम अच्छी तरह जानते हैं। मरना ही है तो शासक की भांति मरें। बिना विरोध किए, बिना प्रति-शोध लिए ही हाथ पर हाथ रखकर बैठना उचित नहीं है। हमें अपने स्वत्व के लिए झगड़ते रहना चाहिए।"

रानी के हृदय में वीरता थी। वह झगड़ना जानती थी, परन्तु शासन करना उसे आता न था।

राजवंश के पेरिस-परित्याग से पूर्व बहुत से मनुष्य राजा के पक्ष में थे, परन्तु उनके इस प्रकार जाने से उनका पक्ष निर्बल हो गया। जनता सम्राट को पदच्युत करने की बात सोचने लगी। राज्य-परिषद् ने राजा के बहुत से अधिकार छीन लिए। उधर आस्ट्रिया और प्रशा के राजाओं ने फ्रांस के विरुद्ध युद्ध-घोषणा कर दी। लोग और भी जल उठे। राजा के आदर-सूचक चिह्न बन्द कर दिए गए। वह एक साधारण मनुष्य के समान हो गया। प्रजा के प्रति राजा की शुभेच्छाओं के विषय में कितने ही मनुष्य अब भी विश्वास करते थे, परन्तु आत्वानेव के कारण वह कुछ कार्य नहीं कर सकता था। पत्नी से विरुद्ध कार्य करने का उसे साहस न था। प्रजा की दृष्टि में साम्राज्ञी अवगुण, स्वेच्छाचार और विश्वासघात की सजीव प्रतिमूर्ति थी। नगर की स्त्रियां तक उससे घृणा करती थीं।

जब कभी वह राजभवन की खिड़की से बाहर झाँकती तो लोग उसका तिरस्कार करने लगते थे। उसके लिए अपशब्द कहने लगते थे। एक दिन एक मनुष्य अपने भाले की नोक रानी को दिखाकर कहने लगा-"मेरे जीवन में वह दिन शुभ होगा, जब तुम्हारा सिर इस भाले की नोक पर लटकता देख सकूँगा।"

साम्राज्ञी के लिए बाहर की ओर देखना भी अपराध हो गया था।

फ्रांस की परिषद् ने धर्मगुरुओं के विरुद्ध एक कानून बनाया। राजा की इसमें सम्मति नहीं थी। रानी के परामर्श से उसने मन्त्रिमंडल को विघ-टित कर दिया। पेरिस की जनता उत्तेजित हो गई। कुछ वक्ताओं के कहने से उसने राजभवन पर आक्रमण किया।

उपद्रवी पाँच घण्टों तक राजदम्पत्ति का तिरस्कार करते रहे। बहुत सी स्त्रियाँ साम्राज्ञी के कमरे में घुस गई और उसको नाना प्रकार से कष्ट देने लगीं। एक सुन्दरी युवती ने रानी के प्रति कुछ अपशब्द कहे। रानी से चुप न रहा गया। उसने उस युवती से कहा--"तुम मुझसे क्यों घृणा करती हो क्या मैंने अनजान में तुम्हारा कोई नुकसान या अपराध किया है?"

युवती ने उत्तर दिया-"मेरी तो कोई हानि तुमने नहीं की, परन्तु देश की दुर्दशा तुम्हारे ही कारण हुई है।"

रानी ने कहा-"अभागिनी! तुमको किसी ने मेरे विपरीत बहका दिया है। लोगों के जीवन को दुखमय बनाने से मुझे क्या लाभ है? मैं लौटकर अपने देश को नहीं जा सकती, यहाँ रहकर ही मैं सुखी या दुखी रह सकती हूँ। जब तुम लोग मुझसे प्रेम करते थे, मैं परम सुखी थी।"

युवती ने क्षमा मांगी, उसने कहा-"मैं तुम्हें नहीं जानती थी, परन्तु आज मालूम हुआ कि तुम उतनी बुरी नहीं हो, जितनी बुरी तुम्हें बतलाया जाता है।"

उपद्रवियों के चले जाने पर रानी राजा के चरणों पर गिर पड़ी और उसके घुटने पकड़कर घण्टों रोती रही।

राजा ने कहा-“आह! मैं तुम्हें यह दिन दिखाने के लिए तुम्हारे देश से क्यों लिवा लाया?"

इस घटना के बाद राष्ट्रीय संरक्षक दल के सेनानायक ने अपनी सहायता से उनको वह स्थान छोड़ने का परामर्श दिया, परन्तु राजा वहाँ से जाने को सहमत न हुआ। उसको विदेशी राष्ट्रों की सेनाओं का भरोसा था। राजा के प्रति जनता की श्रद्धा नित्य कम होती गई। उन्हें यह विश्वास हो गया कि राजा और रानी दोनों देशहित में बाधक हैं।

एक व्यक्ति ने तो परिषद् में कह दिया-"राजभवन ही सब अनर्थों का मूल है। उसका अन्त जल्द होना चाहिए।"

इसी बीच में ब्रन्सविक के ड्यूक ने फ्रांसीसियों को राजा के सम्मुख आत्म-समर्पण करने की धमकी दी। लोग भड़क गए। उन्होंने राजमहल पर आक्रमण कर दिया। राजवंश का जीवन बड़े संकट में था।

विद्रोही चिल्ला-चिल्लाकर कहते थे—“बढ़े चलो, राजा-रानी और उनके बच्चों का सिर काट कर भालों की नोंक पर लटका दो, राजवंश का एक भी प्राणी जीता न बचने पावे।"

विद्रोहियों ने राजमहल के रक्षकों को मार गिराया। रानी की दशा बड़ी खराब थी। एक ओर उसको पति और बालकों की चिन्ता थी, दूसरी ओर अपनी मृत्यु का भय। परन्तु उस समय भी उसमें कुछ साहस मौजूद था। उसने राजा से कहा-"मरने-मारने का यही अवसर है, तुम्हारे अधिकार में जो थोड़ी-सी सेना है, उसकी सहायता से विद्रोहियों को क्यों नहीं भगा देते?"

परन्तु उस समय ऐसा करना अपनी मृत्यु को समीप बुलाना था। राजा ने रानी की बात पर ध्यान नहीं दिया। उन दोनों ने समीपस्थ, परिषद-भवन में जाकर अपने प्राण बचाए। उसी दिन सम्राट लुई पदच्युत कर दिया गया और राजवंश को पेरिस के टेम्पिल-कारागार में रहने की आज्ञा हुई।

राजा-रानी, दोनों बालक और राजा की बहन उस कारागार में रहने लगे। इस बन्दी-जीवन में पति के साथ रहने से रानी को विशेष दुःख नहीं हुआ, पर दो ही दिन में राज-परिवार के सब नौकर वहां से हटा दिए गए। जेल के कर्मचारियों का व्यवहार बड़ा कठोर और रूखा था। कुछ दिनों बाद रानी को राजसत्ता का अन्त होने की सूचना मिली, उसी दिन उनसे राज्य सम्बन्धी वस्त्र, आभूषणादि सब छीन लिए गए उनके पहनने के लिए वस्त्रों तक का कुछ प्रबन्ध न किया गया। राजमहिषि राजा और बालकों के फटे कपड़ों को सीकर काम चलाने लगी। रानी का जीवन बड़ा दुःखपूर्ण हो गया। कहाँ एक राजमहिषी और कहाँ एक बन्दिनी। एक मास बाद लुई को वहाँ से हटाकर रानी से पृथक् रखा गया। रानी को अब अपना जीवन सचमुच बड़ा भार-रूप प्रतीत होने लगा। वह दिन-भर उदास रहती और दोनों बच्चों को गले लगाकर रोया करती। परन्तु अपनी ननद एलिजाबेथ की सान्त्वनाओं से उसका दुःख कुछ कम हो जाता। अपने भाई और भावज को सुखी रखने के लिए एलिजाबेथ ने अपने सुख को ठुकरा दिया था। उसे अपने शरीर और आराम की जरा भी परवाह नहीं थी।

मुसीबत का पहाड़ एक साथ ही टूटता है। कुछ ही दिनों में शासन की आज्ञा से राजकुमार को भी रानी की गोद से छीन लिया गया। उसको राजा के पास रहने की आज्ञा हुई। शासकगण समझते थे कि रानी इस राजकुमार को भी क्रान्ति का शत्नु बना देगी। हृदय पर पत्थर रखकर रानी ने यह भी दुःख सहा। इन सब प्राणियों को केवल भोजन के समय एकत्रित होने की आज्ञा मिल गई थी, परन्तु उनकी चौकसी पूरी-पूरी होती थी। उनकी रोटियों तक को देखा जाता था कि कहीं इसमें कोई षड्यन्त्र तो नहीं भरा है। वे लोग धीरे-धीरे बात नहीं कर सकते थे, फ्रेंच के अतिरिक्त दूसरी भाषा में बोलना भी उनके लिए निषिद्ध था।

इसी बीच में राजभवन की खोज होने पर वहाँ कुछ ऐसे गुप्त कागजपत्र मिले, जिनसे राजा का विदेशी राजाओं औरसरदारों से षड्यन्त्र करना सिद्ध होता था। परिषद् ने लुई पर देश के प्रति विश्वासघात का दोष लगाया। राजा पर अभियोग चलाया गया। ११ दिसम्बर, १७९२ को दोषी पाकर उसको मृत्यु-दण्ड की आज्ञा दी गई।

रानी यह समाचार सुनते ही लुई के समीप गई। आधे घण्टे तक सभी प्राणी चुप बैठे रहे, परन्तु उसके बाद रानी के आँसुओं और सिसकियों ने शान्ति भंग कर दी। रानी ने अपने आँसुओं से राजा के चरणों को तर कर दिया। दो घण्टे तक समस्त राज-परिवार अपने सुख-दुःख की बातें करता रहा। रानी ने पति के जीवन की उसअन्तिम रात्रि में पति के साथ रहने की इच्छा की, परन्तु लुई सहमत न हुआ। वह नहीं चाहता था कि मृत्यु के समय उनके मन में किसी प्रकार का मोह अथवा विकार उत्पन्न हो। अगले दिन प्रातःकाल मिलने का वचन देकर उन सबको विदा किया।

रात्रि-भर उसके हृदय में भावों का तुमुल संग्राम होता रहा। उसने सारी रात जागकर बिता दी। दूसरे दिन बिना मिले ही, बिना कुछ कहे सुने ही राजा उस स्थान से चला गया। वह जानता था कि अन्तिम विदाई के दृश्य की चोट को रानी सहन न कर सकेगी। अन्तिम समय पति से भेंट न हो, इससे बढ़कर दुर्भाग्य पत्नी का और क्या हो सकता है? रानी का व्यवहार चाहे जैसा रहा हो, वह लुई को हृदय से चाहती थी। उसके लिए उसका पति परमेश्वर के समान था। रानी ने पति की मृत्यु का समाचार सुना तो मूच्छित हो गई। चेतना लौटने पर वह उन्मादिनी के समान बकझक करने लगी। परन्तु ननद की सेवा-शुश्रुषा से उसकी दशा शीघ्र ही ठीक हो गई।

दस : आग और धुआं

जिस समय देहली के तख्त पर मुज्जिमशाह आसीन था, उस समय अफगानिस्तान के तीरा शहर का निवासी दाऊदखाँ भाग्य आजमाने भारत आया। दाऊदखाँ पठान था और उसमें वीरता की भावनाएँ उठ रही थीं। उस समय उत्तर भारत में कटहर प्रदेश (अवध के उत्तर और गंगा के पूर्व हिमालय की तराई में रामपुर, मुरादाबाद, बरेली और बिजनौर का सम्मिलित हरा-भरा सुहावना प्रदेश) छोटे-छोटे ताल्लुकों में बंटा हुआ था। ताल्लुकेदार राजपूत और ठाकुर थे, जो परस्पर में ईर्ष्या-द्वेष तथा शक्ति-संतुलन के लिए परस्पर में लड़ते रहते थे। अपनी ओर से लड़ाने के लिए वे कुछ अन्य वीर योद्धाओं की भी पारिश्रमिक देकर सहायता प्राप्त करते थे। दाऊदखाँ ने अपने कुछ वीर पठानों का संगठन करके एक योद्धादल बनाकर उन ताल्लुकदारों की आपस की लड़ाई में उनका साथ देकर युद्ध किया, जिससे उसकी वीरता की प्रसिद्धि हुई। वह जिस ताल्लुकेदार की ओर से लड़ता उसी की विजय होती थी। विजय होने पर उसे खूब रुपया मिलता था। एक बार बरेली के पास बाँकौली गाँव में दो जमींदारों में भयंकर लड़ाई हुई। बाँकौली गाँव सैयदों का था। सैयद जमकर लड़े, परन्तु अन्त में सब मारे गए। दाऊदखाँ ने इस लड़ाई में दूसरे जमींदार का पक्ष लेकर युद्ध किया था। लड़ाई जीतकर जब उसने बाँकौली गांव में प्रवेश किया तो उसे एक सूने घर में एक छः वर्ष का सुन्दर और तेजस्वी बालक एक कोने में बैठा हुआ मिला। दाऊदखां ने बालक को अपनी गोद में लेकर पूछा-"क्या तुम अकेले बचे हो?"

"हाँ।"

"तुम्हारा नाम?"

"मोहम्मद अली।

"तुन्हारे वालिद का?"

"दिलदार अली।"

"अब वह कहाँ है?"

"शायद लड़ाई में मारे गए।"

"घर के और लोग?"

"सब भाग गए।"

"क्या तुम मेरे साथ चलोगे?"

बालक ने यह प्रश्न सुनते ही दाऊदखाँ के मुँह की ओर देखा। उस समय उसमें वात्सल्य और प्रेम झलक रहा था। बालक ने कहा-"तुम मुझे मारोगे तो नहीं?"

"नहीं बेटे, मैं तुम्हें अपना बहादुर बेटा बनाऊँगा।"

दाऊदखाँ ने उसे अपने साथ ले लिया और दत्तक पुत्र बनाकर पालन-पोषण किया। उसका नया नाम रखा अली मोहम्मद खाँ। उसके पढ़ने-लिखने तथा युद्ध-शिक्षा की उचित व्यवस्था की। युवा होने पर अली मोहम्मद खाँ दाऊदखाँ की भाँति साहसी और वीर योद्धा बना।

कुछ समय बाद दाऊदखाँ कुमायूं के राजा के साथ हुए युद्ध में मारा गया। उसकी फौज ने अली मोहम्मद खाँ को अपना सरदार स्वीकार किया। अली मोहम्मद खाँ ने अपनी फौज में और भी वृद्धि की तथा अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए कुमायूँ के राजा पर आक्रमण किया। कुमायूं के राजा ने उसका सामना करने में असमर्थ समझ उससे संधि कर ली।

इससे अली मोहम्मद खाँ का साहस बढ़ गया। अतः उसने कटहर प्रान्त के छोटे-छोटे जमींदारों से युद्ध करके उनकी जमींदारी छीन-छीनकर अपने अधिकार में करनी आरम्भ की। धीरे-धीरे उसने सारा ही कटहर प्रान्त अपने प्रान्त में कर लिया। यही प्रान्त रुहेलखण्ड कहलाने लगा।

इस समय दिल्ली के तख्त पर मोहम्मदशाह रंगीला आसीन था। बादशाह ने अली मोहम्मद को काम का आदमी समझकर एक शाही फरमान भेजा जिसमें उसे फिदवी खास लिखा और कहा कि वह जाकर मुजफ्फर-नगर के बारा गाँव में निजामुलमुल्क आसिफजाँ की उसके प्रतिद्वन्द्वी जमींदार सेपुलदीन अली खाँ के विरुद्ध सहायता करे। अली मोहम्मद खाँ ने बादशाह का यह हुक्म तुरन्त पालन किया और आसिफखाँ की विजय कराकर लौट आया। बादशाह ने उसे पाँच हजारी मनसब, माहीमरातिब, नौबतनिशा, चबर और नक्कारखाना की उपाधियाँ देकर रुहेलखण्ड की सूबेदारी दी।

रुहेलखण्ड में उसे शासन करते थोड़ा ही समय हुआ था कि अली मोहम्मद खाँ की कुछ सख्तियों के जुल्म से तंग होकर वहाँ के जमींदारों ने दिल्ली के बादशाह से उसकी शिकायत की। बादशाह ने राजा हरनन्द को पचास हजार सेना देकर अली मोहम्मद खाँ को कैद करने के लिए भेजा। मुरादाबाद पहुँचकर हरनन्द ने बरेली और शाहबाद के शासक अब्बदुल-नबीखाँ को शाही सेना में आ मिलने का हुक्म दिया। अब्दुलनबीखाँ अली-मुहम्मदखाँ के साथ युद्ध नहीं करना चाहता था। उसने बहाना बनाकर अपने भाई दिलेर खाँ को राजा हरनन्द के पास भेज दिया। अली मोहम्मद राजा हरनन्द का आगमन सुन १२ हजार योद्धाओं को लेकर मुरादाबाद की ओर बढ़ा। दाल और जारू गांवों के पास दोनों ओर की सेनाओं का आमना-सामना हुआ। पहले ही दिन भयानक युद्ध हुआ, जिसमें राजा हरनन्द, उसका पुत्र मोतीलाल और दिलेरखाँ मारे गए तथा अधिकाँश सेना युद्ध में कट मरी। अन्ततः अब्दुलनबीखाँ अपने भाई दिलेरखाँ की मृत्यु का बदला लेने के लिए क्रोध में भरकर युद्ध-क्षेत्र में आया। उसने अपने साथ चुने हुए ५०० योद्धा लिए थे, परन्तु युद्ध-क्षेत्र में पहुँचते-पहुँचते उसके अधिकाँश योद्धा बहाना बनाकर मार्ग में ही उसका साथ छोड़ते गए। जिस समय वह युद्ध-भूमि में पहुंचा तब कठिनाई से सौ योद्धा भी उसके साथ न थे। अली मोहम्मद की सेना राजा हरनन्द के खेमों को लूट रही थी और वह किसी सरदार से बातें कर रहा था। अब्दुलनबीखाँ अकस्मात् उनपर टूट पड़ा और शत्रु के बहुत से सैनिक शीघ्रता से काट डाले गए। अली मोहम्मद ने अपनी सेना की तुरन्त व्यवस्था की और अब्दुलनबी से डटकर मुकाबला किया। अन्त में अब्दुलनबी भी मारा गया। अली मोहम्मद विजय-दुन्दभी बजाता हुआ लौट गया। उसने अपने राज्य का विस्तार किया। उसकी सेना में एक लाख सैनिक थे। खजाने में तीन करोड़ चार लाख रुपये और एक करोड़ सोलह लाख सोने की मोहरें थीं। उसके पाँच वेटे थे। वे सब रुहेले प्रसिद्ध हुए। तीस वर्ष नवाबी करके कुछ महीने बीमार रहकर उसकी मृत्यु हो गई।

अवध के नवाब बहुत दिनों से रुहेलखण्ड को हथियाना चाहते थे, मगर जब कभी सब रुहेले-सरदार मिलकर युद्ध का डंका बजाते थे, तब उनकी संख्या अस्सी हजार पहुंचती थी। इसके सिवा वे वीर भी थे, अतः नवाब को उन्हें छेड़ने का साहस न होता था। जब नवाब शुजाउद्दौला ने अंग्रेजों की धनलिप्सा को देखा, तो उसने वारेन हेस्टिग्स को लिखकर अंग्रेजी सेना की मदद मांगी। दोनों ने सलाह कर ली, और चालीस लाख रुपये और सेना का कुल खर्चा लेना स्वीकार करके अंग्रेजों ने भाड़े पर रुहेलों के विरुद्ध अपनी सेना देना स्वीकार कर लिया। रुहेलों से अंग्रेजों का कोई मतलब न था, न कुछ टण्टा था, इसके सिवा वे अन्य सूबेदारों की तरह बादशाह के अधिकार प्राप्त सूबेदार थे।

हेस्टिग्स ने कर्नल चैम्पियन की अधीनता में तीन ब्रिगेड अंग्रेजी सेना और चार हजार कड़ाबीनी रवाने किए। रुहेलों ने प्रथम तो बहुत-कुछ लिखा-पढ़ी की, पर अन्त में हारकर युद्ध की तैयारियाँ की, और हाफिज रहमत-खाँ चालीस हजार सेना लेकर अवध के नवाब और अंग्रेजों की सम्मिलित सेना की गति रोकने को अग्रसर हुए। कर्नल चैम्पियन के पास तीन ब्रिगेड अंग्रेजी

सेना और चार हजार कड़ाबीनी नवाबी सेना थी। २३ अप्रैल १७७४ को बाबुल-नाले पर घोर-युद्ध हुआ, और रुहेलों की वीरता से इस संयुक्त सेना के छक्के छूट गये। पर भारत से मुसलमानों का भाग्य-चक्र तेजी से फिर रहा था। अगले दिन हाफिज रहमतखाँ युद्ध में मारा गया, और पूर्वी सेनाओं के दस्तूर के अनुसार उसके मरते ही सेना का उत्साह भंग हो गया, और वह भाग चली। रुहेलों का अस्तित्व मिट गया।

नवाब की फौज ने भागते रुहेलों को मारने और लूटने में बड़ी फुर्ती दिखाई। एक लाख से अधिक रुहेले अंग्रेजों के आतंक से भयभीत होकर अपने सुख-निवासों को छोड़-छोड़कर विकट जंगलों में भाग गये।

नवाब ने फसल उजाड़ दी, कुछ घोड़ों से कुचलवा दी। नगर-गाँवों में आग लगवा दी। क्या मनुष्य, क्या स्त्री, क्या बालक, या तो कत्ल कर दिए गये, या अंग-भंग करके तड़पते छोड़ दिए गये, अथवा गुलाम बनाकर बेच दिए गये। रुहेले सरदारों की कुल-महिलाओं और कुमारी कन्याओं का अत्यन्त पाशविक ढंग से सतीत्व नष्ट किया गया। वे दाने-दाने के लिए दर-दर भीख मांगने लगीं। मुन्शी बेगम के अंगूठी छल्ले तक उतरवा लिए गए। महबूवखाँ की लड़की पर नवाब ने पाशविक अत्याचार किया, जिससे उसने विष खाकर आत्मघात कर लिया। डेढ़ करोड़ रुपये का माल लूटा गया। अस्सी लाख वार्षिक आय की रियासत नवाब के हाथ लगी। नवाब ने रुहेले सरदारों को पहले तो अभयदान दिया, बाद में विश्वासघात करके उन्हें कत्ल करा डाला। यन्त्रणाएँ भुगतने के लिए प्रसिद्ध रुहेले सरदार महबू- बुल्लाखाँ और फिदाउल्लाखां के परिवार वाले फैजाबाद भेज दिए गए।

इस युद्ध में हेस्टिग्स को भारी आर्थिक लाभ हुआ। इस तीन ब्रिगेड अंग्रेजी सेना का पूरे वर्ष भर का खर्च साढ़े सैंतीस लाख रुपया वसूल किया तथा साढ़े सढ़शठ लाख रुपये वार्षिक नवाब ने कम्पनी को और दिए। एक करोड़ रुपया नकद कम्पनी के खजाने के लिए भी दिया गया।

ग्यारह : आग और धुआं

फ्रांस के एक नगर में एक मध्यम श्रेणी के जौहरी परिवार में एक प्रतिभाशाली बालिका ने जन्म लिया। बालिका के पिता एक महत्त्वाकांक्षी उद्योगी पुरुष थे और थोड़ी पूंजी से ही अपनी उन्नति करते जाते थे। इन्हीं पिता की देखरेख में बालिका का शैशव-काल बीता। पिता ने पुत्री को उच्च से उच्च शिक्षा देने का प्रबन्ध कर दिया। उनके और कोई सन्तति नहीं थी, अतएव माँ ने भी अपना सारा बालिका के लालन-पालन में ही लगा दिया था, परन्तु अपने प्रेम के कारण कन्या की शिक्षा में उसने किसी प्रकार की त्रुटि न आने दी। उसने स्वयं बालिका को वीरता और धैर्य के भावों से बचपन ही में परिपक्व कर दिया। शैशव-काल में ही बालिका में भावी उन्नति के अंकुर प्रस्फुटित होने लगे थे। अध्ययन की ओर उसकी विशेष रुचि थी। अवकाश मिलने पर भी वह अपनी हमजोलियों में जाकर खेल-कूद न करती, वरन् एकान्त में बैठकर गम्भीरतापूर्वक प्रत्येक बात पर विचार किया करती थी। किसी एक वस्तु की जानकारी से सन्तुष्ट होकर बैठ रहना उसके लिए कठिन था। उसका अध्ययन-क्षत्र विस्तृत था। यौवन के आगम-काल में ही उसको धर्म, इतिहास, दर्शन, संगीत, चित्रकारी, नृत्य, विज्ञान, रसायन शास्त्र आदि का ज्ञान हो गया था। दूसरे देशों की भाषाओं को भी वह बड़ी रुचि से पढ़ती थी। रूसो, बोल्टेयर, मोन्टिस्कयू, प्लूटार्क जैसे प्रसिद्ध लेखकों की पुस्तकें बड़े ध्यान से पढ़ती थी। उसने अपने पिता का व्यवसाय भी सीख लिया। मूर्तियों में खुदाई का काम करके वह उन्हें अपने बाबा और दादी को दिया करती थी। वे दोनों वृद्ध प्राणी पौत्री की उन्नति को देखकर फूले न समाते थे और उसे बढ़ावा देने के लिए आभूषण दिया करते थे। घर का काम करने में भी उसे किसी प्रकार की हिच-किचाहट नहीं थी। बाजार से सौदा मोल ले आना, चौके में बैठकर शाक-भाजी तैयार करना, माँ की सहायता करना तो उसके नित्य के काम हो गए थे। संलग्नता और परिश्रम का उसके जीवन पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा।

उसे विलासिता से बड़ी घृणा थी। दूसरे का सर्वस्व अपहरण करके जो लोग आनन्द करते थे, उनको देखकर उसका तन जल उठता था। वह एक बार अपनी दादी के साथ किसी कुलीन मनुष्य के घर गई। वहाँ का असमान व्यवहार देखकर उसके हृदय को बड़ी ठेस लगी। बात-बात में निम्न श्रेणी के मनुष्यों के प्रति कुलीनों की उपेक्षा का भाव उसने देखा। एक दूसरे अवसर पर उसको एक बार वार्सेल्स के राजभवन में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, परन्तु वहाँ के अपव्यय और विलासिता को देखकर उसे बड़ा दुख हुआ। वह जानती थी कि उनके इस ऐश्वर्य-विलास में निर्धन मनुष्यों की आहे भरी हुई हैं। उसको वहाँ रहना भार मालूम पड़ा, वहाँ से लौटने पर ही उसके हृदय को शान्ति मिली।

युवा होने पर उसके विवाह की चर्चा होने लगी। उसका पिता किसी सम्पन्न व्यापारी के साथ अपनी पुत्री का विवाह करना चाहता था, परन्तु पिता के विचार से वह सहमत न थी। व्यापार से उसको घृणा थी। वह व्यापार को लोभ का साधन समझती थी। उसको ऐसे पति की चाह थी, जिसके साथ उसके भावों और विचारों का साम्य हो सके। उसको ऐश्वर्य की चाह न थी, वह आत्मा के साथ अपना बन्धन करना चाहती थी। जब उसके एक पड़ोसी धनी कसाई ने उसके साथ विवाह का प्रस्ताव किया तो उसने स्पष्ट शब्दों में अपने पिता से कह दिया-"मैं अपने विचार को नहीं बदल सकती। ऐसे मनुष्य से विवाह करने की अपेक्षा जीवन भर अविवाहित रहकर कुमारी रहना मुझे अधिक पसन्द है।"

पिता ने बहुत समझाया, धन का प्रलोभन दिखाया, परन्तु उसका कोई असर न हुआ।

कुछ समय के बाद उसका रोलॉ नामक एक व्यक्ति से परिचय हुआ। उसने रोलॉ में अपने विचारों के अनुरूप पति के सभी लक्षण देखे। उसने उसके साथ विवाह करने का निश्चय किया, परन्तु पिता ने इस विवाह में सम्मति न दी। रोलॉ की अवस्था उस समय लगभग पचास वर्ष थी, उसका अधिकांश जीवन कठोर तपस्या में बीता था। ऐसे मनुष्य के हाथ में अपनी कन्या को अर्पण करना उसने महान् पातक समझा। कन्या को बड़ा दुख हुआ। उसने घर-बार सब छोड़ दिया और एक देव-मन्दिर में जाकर तपस्वियों के समान जीवन बिताने लगी। अन्त में उसके विचारों की विजय हुई। छः मास बाद दोनों का विवाह हो गया। अवस्था भेद के कारण पत्नी अपने पति की शिष्या के समान जान पड़ती थी, परन्तु मादाम रोलॉ को इस विवाह से बड़ी प्रसन्नता थी। उनकी दृष्टि में विवाह नैसर्गिक और पवित्र बंधन था, जहाँ दो आत्माओं का मिलन होता है।

विवाह के बाद मादाम रोला अपने पति के साथ एमिन्स नगर में रहने लगी। पति की सेवा-सुश्रुषा में ही उसका सारा समय बीतता था। वह अपने पति का बड़ा सम्मान करती थी। वह स्वयं ही उसको पौष्टिक भोजन बनाकर खिलाया करती। विवाह के दो वर्ष बाद उनके यहाँ एक पुत्री का जन्म हुआ। कुछ वर्ष उपरान्त रोलॉ अपने गांव लियोन्स में रहने लगा। वहाँ पर मादाम रोलॉ ने आसपास के ग्रामीण कृषकों से परिचय किया। समय-समय पर वह उनकी सहायता भी करती और उनके घर जाकर स्वयं औषधि का प्रबन्ध कर आती। पिता के घर पर औषधि-सम्बन्धी कुछ ज्ञान उसने प्राप्त कर लिया था। दूर-दूर के गाँवों से लोग रोगी की औषधि कराने उसको लिवा ले जाते। रविवार के दिन बहुत से किसान अपनी-अपनी तुच्छ भेंट देने के लिये उसके घर आते थे। इन भोले-भाले किसानों की सादगी और पवित्रता पर वह मुग्ध हो गई थी।

इन्हीं दिनों फ्रांस में राज्य-क्राँति आरम्भ हो गई। पेरिस की घटनाओं के समाचार मादाम रोलॉ के कानों में पड़े। उसे विश्वास हो गया कि इस क्रांति से मनुष्य-समाज का उद्धार होगा, श्रमिक लोगों के दुःख दूर होंगे और एक नवीन युग का आरम्भ होगा। मादाम रोलॉ के हृदय में अग्नि प्रज्वलित हो गई। अपना कर्तव्य पालन करने के लिये वह भी उद्यत हो उठी। उसने पति से अपने विचार कहे। दोनों के समान विचार थे। एक बार रोलॉ नगर-समिति की ओर से परिषद् में उपस्थित होने के लिये पेरिस गया। साथ में उसकी पत्नी भी थी। पेरिस में बहुत शीघ्र अनेक मनुष्य मादाम रोलॉ के अनुयायी हो गये। ब्रिसो, पितियन, बूजो और रोब्सपीयर का उस समय बड़ा जोर था। ये सब मादाम रोलॉ के स्थान पर इकट्ठे हो-होकर राज्य की स्थिति पर विचार किया करते थे। ये लोग फ्रांस में प्रजा-तन्त्र शासन-विधान स्थापित करना चाहते थे। इन लोगों ने समय पड़ने पर एक-दूसरे की सहायता करना निश्चय कर लिया। इस निश्चय पर अन्य सब मनुष्य तो दृढ़ न रहे, परन्तु मादाम रोलॉ ने अपनी बात का पालन किया। एक बार जब रोब्सपीयर का जीवन संकट में पड़ गया तो मादाम रोलॉ ने ही अपने यहाँ आश्रय देकर उसको बचाया था। कार्य की समाप्ति पर दोनों पति-पत्नी लियोन्स लौट आए, परन्तु मादाम रोलॉ वहाँ न रह सकी। वहाँ रहकर वह देश-हित के कार्य में योग नहीं दे सकती थी।

खूब सोच-विचार के बाद दिसम्बर मास में दोनों पति-पत्नी फिर पेरिस लौट आए।

इस बार मादाम रोलॉ ने बड़े उत्साह से कार्य आरम्भ किया। उसका सब समय राजनैतिक कार्यक्रम की पूर्ति में बीतने लगा। फ्रांस में प्रजातन्त्र शासन-विधान प्रचलित करना ही उसका उद्देश्य था। उसने अपने विचार उस समय के प्रमुख और प्रसिद्ध मनुष्यों पर प्रकट किये। उसके नेत्रों में आकर्षण था और वाणी में माधुर्य। उसके तेजस्वी मुख को देखकर किसी को भी उसका विरोध करने का साहस न होता था। कुछ ही समय में उसने अपने अनेक अनुयायी बना लिये। इसी समय गिरोण्डिस्ट दल ने शासन-सूत्र अपने हाथ में कर लिया और रोलॉ की अध्यक्षता में मन्त्रिमण्डल का निर्माण किया।

रोलॉ को राज्य-सम्बन्धी कार्यों में अपनी पत्नी से बड़ी सहायता मिलती थी। जिन गुत्थियों को सुलझाने में उनकी बुद्धि चकरा जाती, उन सबको मादाम रोलॉ शीघ्र ही ठीक कर दिया करती थी। वह मनुष्य की परख बड़ी जल्दी कर लेती थी। कई बार उसने अपने पति को अपने सहकारियों से सचेत रहने के लिये कहा था।

'दुमरो' नामक व्यक्ति को देखकर उसने अपने पति से कहा- "इस मनुष्य पर अपनी दृष्टि रखना, यह बड़ा भयंकर आदमी है। समय आने पर यह आपको मन्त्रिमंडल से बाहर निकाल देगा।"

रोलॉ की लापरवाही से भविष्य में ऐसा ही हुआ, परन्तु मादाम रोलॉ के कारण गिरोण्डिस्ट-दल परिषद् में अपना पैर जमाए रहा। नित्य प्रति उसके स्थान पर इन लोगों की बैठक हुआ करती, कार्यक्रम, साधन आदि पर विचार होता। इन बैठकों का प्राण मादाम रोलॉ ही थी। लोगों को नई-नई बातें सुझाना ही उसका काम था। उसकी अलौकिक बुद्धि और प्रखर-प्रतिभा को देखकर सब चकित होते थे।

परन्तु कुछ मनुष्य उसके विरुद्ध भी कार्य कर रहे थे। उनमें एक रोब्सपीयर भी था। सिद्धान्त के नाम पर वह गिरोण्डिस्ट दल से अलग हो गया था। जब सम्राट लुई १६वें के अपराध पर परिषद् में विचार हो रहा था, उस समय रोब्सपीयर के कुछ साथियों ने मादाम रोलॉ पर यह दोष लगाया था कि राजा को बचाने वालों में मादाम रोलॉ भी शामिल है। उस समय मादाम रोलॉ ने स्वयं सफाई पेश करके अपनी निर्दोषता सिद्ध की थी, परन्तु गिरोण्डिस्ट दल की नीति के असफल होने से मादाम रोलॉ का प्रभाव कम होता गया। जून, सन् १७६३ में गिरोण्डिस्ट के हाथ से शासन-सूत्र छीन लिया गया।

गिरोण्डिस्ट दल के छिन्न-भिन्न होने के पश्चात् रोलॉ राजनीति क्षेत्र से अलग हो गया। विरोधियों ने अपने भाषणों द्वारा जनता की दृष्टि में दोनों पति-पत्नियों को गिरा दिया था। इस अपयश के कारण पेरिस में रहना मादाम रोलॉ के लिये कठिन हो गया। पति और पुत्री को लेकर उसने घर लौट जाने का विचार किया, परन्तु घटना-चक्र में फँस जाने के कारण वह पेरिस नगर को न छोड़ सकी।

इस बीच में क्रांतिकारी न्यायालय ने रोलॉ को दोषी ठहराकर उस पर अभियोग चलाना निश्चित किया। गिरफ्तारी का वारण्ट लेकर कुछ कर्मचारी उसके मकान पर पहुंचे। उसने आत्म-समर्पण करने से इंकार कर दिया। भावी अनर्थ की आशंका से मादाम रोलॉ को बड़ा कष्ट हुआ। उसने पति के छुटकारे के लिए परिषद् के नाम एक पार्थना-पत्र भेजा और स्वयं जाकर अध्यक्ष से मिली। परिषद् में बोलने के लिए उसने अध्यक्ष से आज्ञा माँगी। परन्तु वहाँ अधिकांश मनुष्य गिरोण्डिस्ट दल से जले-भुने बैठे थे, अतएव अध्यक्ष ने रोलॉ को चुप रहने का आदेश किया।

घर लौटकर रोलॉ अपने पति से मिली। उस समय उस पर से अभियोग हटा लिया गया था। उसी दिन रोलॉ ने पेरिस नगर के बाहर एक दूसरी जगह आश्रय लिया, परन्तु उसकी पत्नी वहाँ से न गई। सायंकाल परिषद्-भवन के समीप मादाम रोलॉ ने कुछ मनुष्यों के मुख से सुना कि गिरोण्डिस्ट दल के बाईस मनुष्य शीघ्र ही गिरफ्तार किए जाएँगे, उनमें वह भी शामिल थी। वह खिन्न मन से घर लौट आई। उसने अपनी सोई हुई पुत्री को छाती से लगाकर बार-बार चूमा । मृत्यु से उसको किसी प्रकार भय न था। मृत्यु को वह चिर-शांति का आश्रय समझती थी, परन्तु इस बालिका का मोह उसको सता रहा था। उसने अपने एक मिन्न के यहाँ उसको छोड़ने का विचार किया। एक पत्र अपने पति के नाम लिखकर वह सो रही, परन्तु थोड़ी देर में द्वार तोड़कर कुछ पुलिस कर्मचारी उसके घर में घुस आए। उन्होंने उसको गिरफ्तार कर लिया। मादाम रोलॉ को अपने पति के सुरक्षित होने से बड़ी प्रसन्नता हुई। अपने भृत्य को कन्या के संबंध में कुछ बातों का आदेश देकर मादाम रोलॉ कर्मचारियों के साथ हो ली।

एक कर्मचारी ने उससे पूछा-"क्या गाड़ी की खिड़कियाँ बन्द कर दूंँ?"

उसने कहा-"कदापि नहीं, मैंने कोई अपराध नहीं किया है, मुझे कोई लज्जा नहीं जो अपना मुँह ढाँकती फिरूँ।"

कर्मचारी ने उससे फिर कहा-"आप में मनुष्यों से अधिक साहस है, आप शांति और धैर्य से न्याय की प्रतीक्षा कीजिए।"

रोलॉ हँसी और कहने लगी-"न्याय! न्याय होता तो मैं आज यहाँ न होती। मैं निर्भय चित्त से फांसी के तख्ते पर चढूंगी। मुझे अब जीवन से घृणा हो गई है।"

गाड़ी कारागार के समीप खड़ी हो गई। मादाम रोलॉ को एक कोठरी में बन्द कर दिया गया।

परन्तु कारागार में भी कर्मचारियों ने उसके लिए बहुत-सी बातों की सुविधा कर दी। फल, फूल, पुस्तक, कलम, दवात, कागज, सभी चीजें उसे उपलब्ध थीं। कुछ खास मनुष्य उससे मिलने के लिए आते थे। कारागार में मादाम रोलॉ ने अपनी आत्मकथा लिखी और प्रहरियों की दृष्टि से छिपा-कर उसे अपने एक मित्र बोस्क को दे दी। यह व्यक्ति कभी-कभी मादाम रोलॉ से मिलने आया करता था। कुछ दिनों बाद मादाम को वहाँ से एक दूसरे कारागार में हटा दिया गया, जहाँ उसको नगर की दुराचारिणी स्त्रियों के साथ रहना पड़ा, परन्तु कुछ कर्मचारियों की कृपा से उसे एक अच्छी-सी कोठरी रहने को मिल गई। यहाँ पर उसने रोब्सपीयर के नाम एक पत्र लिखा-"अपराधी को प्रार्थना करने का कोई अधिकार नहीं है। गिड़गिडाना मेरी प्रकृति के विरुद्ध है। मैं दुख अच्छी तरह सह सकती हूँ। मैं भाग्य का रोना नहीं रोती। मैं तुम्हारे मन में दया उत्पन्न करने के लिए यह पत्र नहीं लिख रही हूँ। मैं तुम्हें तुम्हारा कर्तव्य सुझाना चाहती हूँ। याद रखो, भाग्य हमेशा साथ नहीं देता है, यही बात सर्व-साधारण में प्रिय होने के विषय में भी है। इतिहास इस बात का साक्षी है, जो कभी जनता के प्रिय थे, वही जनता के पैरों से ठुकराए गए।"

परन्तु उसने यह पत्र रोब्सपीयर के पास नहीं भेजा। जिसके एक बार वह स्वयं प्राण बचा चुकी थी, उसके सामने दीन बनने में उसको बड़ी ग्लानि प्रतीत हुई। उसने वह पत्न टुकड़े-टुकड़े कर डाला तब से वह किसी न किसी प्रकार समय बिताती रही। एक बार विष-पान करके जीवन अन्त करने का विचार भी उसके मन में उदय हुआ। एक कर्मचारी की सहायता से उसको कुछ विष मिल गया। मरने से पूर्व उसने पति, मित्रों के लिए कई पत्र लिखे, परन्तु पुत्री की स्मृति ने मरने न दिया। उसने विष का प्याला दूर फेंक दिया। वह कठिन से कठिन दुख सहने के लिए तैयार हो गई।

शीघ्र ही उस स्थान से वह एक तंग, गंदी और अंधकारपूर्ण कोठरी में बन्द कर दी गई। केवल विचार के समय न्यायालय में उपस्थित होने के लिए बाहर निकाली जाती थी। बड़ी निर्भीकता से उसने विचारपति के प्रश्नों का उत्तर दिया।

मृत्यु-दण्ड सुनकर उसने बड़े कटु शब्दों में विचारपति से कहा-"उन महात्मा पुरुषों का साथ देने में, जिनके रक्त से आपके हाथ रंगे हुए हैं, आपने मेरी जो सहायता की है, मैं उसके लिए आपको धन्यवाद देती हूँ।"

जब वह अन्य अपराधियों के साथ फाँसी के स्थान को जा रही थी, नगर की बहुत-सी स्त्रियाँ चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगीं-"बध स्थान के लिए, बध-स्थान के लिए।

मादाम रोलॉ से चुप न रहा गया। उसने उन स्त्रियों से कहा-"मैं तो बध-स्थान को जा रही हूँ और कुछ क्षणों में ही वहाँ पहुँच जाऊँगी, पर वे जो मुझे वहाँ भेज रहे हैं, उन्हें भी शीघ्र ही मेरा अनुकरण करना होगा। मैं निर्दोष जा रही हूँ, उनके सिर पर रक्त का अपराध होगा और तुम जो आज हम लोगों के ऊपर हँस रही हो, आज से भी अधिक उन लोगों के दंड पर हँसोगी।"

मादाम रोलॉ का कथन अक्षरसः सत्य सिद्ध हुआ।

मादाम रोलॉ की गाड़ी में एक वृद्ध मनुष्य भी था। वह मार्ग भर रोता रहा, परन्तु रोलॉ ने उसको सान्त्वना देकर धीरज बंधाया। बध-स्थान पर सबसे पहले मादाम रोलॉ को ही फाँसी लगनी थी, पर उसने बधिक से प्रार्थना की कि-"पहले उस वृद्ध को फाँसी पर चढ़ाओ, वह मेरी मृत्यु न देख सकेगा, उसका हृदय फट जायेगा। मैं तो पीछे भी मर लूंगी।"

बधिक ने उसकी बात मान ली। हृदय कड़ा करके मादाम रोलॉ ने वृद्ध का सिर कटते देखा। वृद्ध के मरने के बाद वह अपने स्थान से हटी। पास ही में स्वतन्त्रता देवी की मूर्ति रखी थी। उसके सामने नत-मस्तक होकर मादाम रोलॉ ने दीर्घ निश्वास भरकर कहा-"स्वाधीनते! स्वतन्त्रते। तुम्हारे नाम पर मनुष्यों ने कितने अपराध किये हैं।"

इतना कहकर वह गिलेटिन पर जाकर खड़ी हो गई और अपना गला छुरी के नीचे रख दिया। क्षण-मात्र में उसका सिर धड़ से अलग हो गया। यह ८ नवम्बर, सन् १७६३ की घटना है।

रोलॉ के पति ने जब अपनी स्त्री की मृत्यु का समाचार सुना तो उसके लिए एक क्षण भी इस संसार में रहना कठिन हो गया । वह अपने स्थान से भाग निकला और आत्महत्या कर ली।

बारह : आग और धुआं

रूहेलखंड युद्ध के अत्याचारों की कहानी इंगलैण्ड में विभिन्न रूप धारण करके पहुँची। गवर्नर के कार्य को दोषपूर्ण कहा गया। अन्त में १७७३ में लार्डनार्थ के द्वारा पालियामेंट में एक बिल रेग्युलेटिंग एक्ट' पास हुआ, जिसके द्वारा 'ईस्ट इंडिया कम्पनी' के हाथ से भारतीय शासन इंग्लैण्ड के राजा के हाथ में चला गया। बंगाल में एक गवर्नर जनरल नियुक्त करने का निश्चय हुआ। गवर्नर जनरल की कौन्सिल में चार सदस्य भी नियत किए गए। एक गवर्नर जनरल की शासन काल अवधि पाँच वर्ष नियत हुई। हेस्टिंग्स ही को गवर्नर जनरल पद दिया गया। उनका वेतन डेढ़ लाख वार्षिक नियत हुआ। उनकी कौंसिल के नये चार सदस्य जनरल क्लेवरिंग, कर्नल मानसून, सर फिलिप फ्रांसिस और रिचर्ड बारबल थे।

पार्लियामेंट के नये एक्ट के अनुसार भारत में एक नयी बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट खोली गई। इसके एक प्रधान न्यायधीश और तीन न्यायधीश नियत हुए। प्रधान न्यायधीश का वेतन एक लाख बीस हजार रुपया तथा दूसरे न्यायधीशों का ६० हजार रुपया वार्षिक वेतन नियत हुआ। इस कोर्ट का पहला प्रधान न्यायधीश सर इलिजा इम्पे को बनाया गया। इम्पे हेस्टिग्स के बाल-सहपाठी रहे थे।

गवर्नर जनरल और उनकी नई कौन्सिल की पहली बैठक बैठी। पहले ही दिन हेस्टिग्स को ज्ञात हो गया कि वह अब स्वतन्त्र नहीं रह गए हैं। बैठक आरम्भ होने पर हेस्टिग्स ने अपनी शासन सम्बन्धी रिपोर्ट सदस्यों को सुनाई। जब रूहेला युद्ध और बनारस की सन्धि का प्रसंग आया तब कर्नल मानसून ने कहा-“गवर्नर जनरल और उनके एजेण्ट के बीच इस विषय में जो लिखा-पढ़ी उस दिन तक हुई, वह सब हमारे सामने रखी जाय।"

हेस्टिग्स हतप्रभ होकर बोले-"वे अत्यन्त गोपनीय कागजात हैं, अतः सब नहीं दिखाए जा सकते। सभ्य केवल वह अंश देख सकते हैं जिसे सर्व- साधारण में दिखाये जाने से हानि की संभावना नहीं है।"

इस उत्तर से गवर्नर जनरल और सदस्यों में विग्रह उठ खड़ा हुआ। जो अधिकार गवर्नर जनरल को थे वही अधिकार प्रत्येक सदस्य को भी थे। गवर्नर जनरल मनमानी नहीं कर सकते थे। कर्नल मानसून, क्लेवरिंग और फ्रांसिस ने लखनऊ के रेजीडेन्ट मिडिलटन को पदच्युत कर दिया, कम्पनी की अंग्रेजी सेना तुरन्त लखनऊ से वापिस बुला ली गई और नवाब से फौरन रुपया तलब किया गया। रूहेला युद्ध की जाँच के लिए भी आदेश दिया गया।

तेरह : आग और धुआं

फ्रांस की राज्य-क्रान्ति के दिनों में वहाँ सभी दल शासन-सूत्र अपने हाथ में लेने के लिये आपस में झगड़ते रहते थे। जिस दल के हाथ में शासन अधिकार आ जाता, वही भाग्य विधायक समझा जाता। इन्हीं अधिकारियों के कारण उस समय फ्रांस में खून बहाया जा रहा था। विरोधियों के प्राण हरण के लिए सैकड़ों बधिक नियुक्त किये जाते थे। १७६२ के सितम्बर मास में ऐसे दो सौ बधिकों द्वारा तीन दिन के भीतर चौदह सौ मनुष्यों का वध केवल पेरिस नगर में हुआ। थक जाने पर इन बधिकों को मद्य और भोजन देकर कार्य जारी रखने के लिये फिर उत्तेजित किया जाता था। इन बधिकों पर १४६३ लिवर मुद्रा व्यय किये गये थे। इतने मनुष्यों की गर्दन काटने के लिए गिलेटिन यन्त्र काम में लाया जाता था। जून १७६३ में गिरोण्डिस्ट दल शासन से च्युत हो गया और दल के सदस्य छिपकर संघर्ष चलाने लगे। वे स्थान-स्थान पर भाषण देकर जनता को अपना पक्ष समझाते रहते थे।

नार्मण्डी प्रान्त के केईन नगर की एक गरीब किसान परिवार की युवती कन्या इन भाषणों को बहुत उत्सुकता से सुनती थी। इसका नाम शालोति कोर्दे था। कोर्दे के पिता को राजनीति और साहित्य से प्रेम था। बाल्यावस्था में माता की मृत्यु होने पर पिता ने उसका लालन-पालन किया और इस प्रकार तभी से वह भी अपने पिता के विचारों से प्रभावित होती गई। गरीबी असह्य होने पर पिता अपने बच्चों का भार उठाने में असमर्थ होकर गृह त्याग, एक मठ में ईश्वर चिन्तन करने लगे। कोर्दे भी अपने पिता के साथ वहीं रहने लगी। इससे वह संयमी और कठोर जीवन की अभ्यस्त हो गई। उसने रूसो, रेनल, प्लूटार्क आदि प्रसिद्ध लेखकों की पुस्तकों का अध्ययन किया। और देश सेवा की भावना मन में भरकर उसमें जूझ गई। नए सत्तारूढ़ दल के नेता मारोत की अमानवीय क्रूरता ने जनता में भय का संचार कर दिया। गिरोण्डिस्ट दल मारोत को नष्ट करने के उपाय सोचने लगा। उन्होंने उसके विरुद्ध एक राष्ट्रीय सेना की भरती आरम्भ की।

सैनिकों की संख्या में नित्य वृद्धि होती जा रही थी। एक दिन कोर्दै का एक परिचित युवक सेना में भरती होने के लिए आया। वह कोर्दे से स्नेह करता था। कोर्दे भी उसकी ओर आकृष्ट हुई थी, परन्तु वह अपना जीवन देश-हित में अर्पण करने की प्रतिज्ञा कर चुकी थी, अतः उस युवक के सम्मुख आत्म-समर्पण न कर सकी।

उसने अपना एक चित्र उस युवक को देकर कहा-"तुम्हें प्रेम करने का मुझे अधिकार नहीं है, व्यवहारिक दृष्टि से भी मुझे साथ रखने में तुम्हें कष्टों के सिवा और कुछ न मिल सकेगा। हाँ, इस चित्र के रूप में ही तुम मुझसे प्रेम कर सकते हो।"

युवक को निराश और उदास जाते देखकर कोर्दे की आँखों से अनायास आँसू निकल पड़े।

कोर्दे को रोती देखकर सेनापति पितियन ने पूछा-"यदि यह मनुष्य यहाँ से न जाय तो तुम्हें प्रसन्नता होगी?"

कोर्दे ने ये शब्द सुने और लज्जा से सिर झुका लिया। वह मुख से एक शब्द भी न निकाल सकी और वहाँ से चली गई।

इस घटना के बाद को का वहाँ रहना कठिन हो गया और शीघ्राति-शीघ्र पेरिस पहुँचने की इच्छा प्रबल होती गई। नवीन सेना के पेरिस पहुँचने से पूर्व मारोत का प्राणान्त कर देना ही उसका एक मात्र उद्देश्य था। उसने अपना कार्यक्रम और साधन निश्चित किया। किसी को भी उसके विचारों का पता न था और न स्वयं उसने किसी से इस विषय में कुछ कहा था, परन्तु हृदय के आवेग में आकर उसने अपनी चाची से एक दिन कुछ ऐसे शब्द कह दिये, जिससे अप्रत्यक्ष रूप में उसके विचारों का पता चल गया।

कोर्दे एकान्त में बैठी रो रही थी। चाची ने कारण पूछा।

कोर्दे के मुंह से निकल पड़ा-“मैं अपने देश, अपने सम्बन्धियों और तुम्हारे दुर्भाग्य के लिये रोती हूँ। जब तक मारोत इस संसार में मौजूद है, कोई भी व्यक्ति स्वतन्त्र जीवन की आशा नहीं कर सकता।"

उसी दिन बाजार में कुछ मनुष्यों को ताश खेलते देखकर बड़े तीन शब्दों में कोर्ट ने उनसे भी कहा- "तुम लोगों को खेलने की सूझी है और तुम्हारा देश मृत्यु-मुख में पड़ा है।"

पेरिस जाने की तैयारी करने के बाद कोर्दे मठ में जाकर पिता और बहनों से मिली। उसके दोनों भाई राजा की सेवा में चले गये थे। पिता से उसने इंगलैंड जाने का बहाना किया। पिता ने अनुमति दे दी। कोर्दे चाची के पास लौट आई। दो दिन चाची की सेवा करने के बाद, अपनी सखी-सहेलियों और चाची से विदा होकर और अन्तिम बार उस स्थान का नमस्कार कर कोर्दे ने पेरिस के लिये प्रस्थान किया। दो दिन के पश्चात् वह पेरिस पहुंच गई और यहाँ एक होटल में रहने का उसने प्रबन्ध किया।

पेरिस में कोर्दे नगर में एक प्रतिनिधि दूप्रे से मिली। उससे परिचय करने के लिये गिरोण्डिस्ट दल के एक सदस्य बार्बरी से कोर्ट ने केईन नगर में ही एक पत्र लिखा लिया था।

भेंट होने पर उसने प्रतिनिधि से कहा-"मुझे आप मन्त्री मारोत से मिला दीजिए, मुझे उनसे काम है।"

दूप्रे ने अगले दिन कोर्दे को मारोत के पास ले चलने का वचन दिया। चलते समय कोर्ट ने बहुत धीमे स्वर में दूप्रे से कहा-"आपका जीवन सुरक्षित नहीं है, आप इस स्थान को छोड़ दीजिये और केइन नगर जाकर अपने साथियों में मिल जाइए, परिषद् में आप अब कोई भी अच्छा कार्य नहीं कर सकते।"

दूप्रे ने कहा-“मैं पेरिस में नियुक्त हुआ हूँ, मैं इस स्थान को नहीं छोड़ूँगा।"

कोर्ट ने फिर कहा-"आप भूल करते हैं, मेरा विश्वास कीजिये और आगामी रात्रि से पूर्व ही यहाँ से चले जाइये।"

परन्तु दूप्रे ने उस समय कोर्दे की बातों पर ध्यान नहीं दिया, परन्तु शीघ्र ही अधिकारियों की शनि-दृष्टि उस पर पड़ गई। उसका नाम संदिग्ध मनुष्यों की सूची में लिख लिया गया।

दूसरे दिन बड़े सबेरे ये दोनों मारोत से मिलने गये, परन्तु मारोत ने संध्या के पूर्व भेंट करने में असमर्थता प्रकट की। कोर्दे उससे मिलकर मारोत के विषय में कुछ बातें जानना चाहती थी, पर अब उसने अपना विचार बदल दिया। समय नष्ट करना उसे व्यर्थ प्रतीत होने लगा। दूप्रे को धन्यवाद सहित विदा करके कोर्दे ने उसी दिन एक पैना छुरा खरीदकर अपने वस्त्रों में छिपा लिया। उसकी इच्छा मारोत को खुलेआम मारने की थी, परन्तु ऐसा अवसर मिलना कठिन था, अतएव उसने मारोत के स्थान पर ही उसका बध करने का निश्चय किया।

मारोत से भेंट होना बड़ा कठिन था। कोर्दे को एक युक्ति सूझी। कोर्दे जानती थी कि मारोत प्राणपण से प्रजातन्त्र-शासन-विधान की रक्षा करेगा। यदि उससे कहा जाय कि अमुख स्थान पर शासन-विधान के विरुद्ध लोगों ने उपद्रव किया है, तो वह मेरी बात अवश्य सुनेगा। इसी बहाने से कोर्दे ने मारोत से मिलना चाहा। इस आशय की सूचना उसने मारोत के पास भेजी, पर कोई सुनवाई न हुई। दो बार जाने पर भी कोर्दे को लौट आना पड़ा, पर वह हताश न हुई। उसने मन ही मन प्रतिज्ञा की कि चाहे जैसे हो, तीसरी बार जाने पर अपना उद्देश्य अवश्य सिद्ध करूँगी।

कोर्दे उसी दिन सन्ध्या-समय तीसरी बार फिर मारोत के मकान पर पहुँची। द्वार-रक्षक के द्वारा अन्दर जाने से रोकने पर वह उससे झगड़ने लगी। द्वार-रक्षक कोर्दे का मार्ग रोकता था और कोर्दै मारोत से मिलने के लिये अपने हठ पर अड़ी हुई थी। इन दोनों के वाक्युद्ध का शोर मकान के अन्दर मारोत के कानों में पड़ा। शब्दों द्वारा उसने इतना जान लिया कि यह वही स्त्री है, जो आज ही मुझसे मिलने के लिए दो पत्र भेज चुकी है। मारोत ने वहीं से कोर्दे को भीतर आने के लिये द्वार-रक्षक को आदेश दिया।

अन्दर जाने पर कोर्ट ने देखा कि मारोत अपने कमरे में उपस्थित है। उसके चारों ओर कागज-पत्र फैले हुये हैं और वह बड़े गौर से उनकी देख-भाल कर रहा है।

कुछ समय तक कोर्दै और मारोत में बातचीत होती रही। उपद्रवियों के नाम एक पर्चे पर लिखने के बाद बड़े निःशंक भाव से मारोत ने कहा-"एक सप्ताह पूर्व ही ये सब मौत के घाट उतार दिये जाएंगे।"

कोर्दे ऐसे शब्द सुनने की प्रतीक्षा में ही थी। मारोत के अभिमान को चूर्ण करने का उसे अवसर मिल गया। उसने बड़ी फुर्ती से अपने वस्त्रों में से छुरा निकाला और मारोत की छाती में पूरे वेग से घोंप दिया। यह सब करने में कोर्दे को पल भर का भी समय नहीं लगा। मारोत के मुँह से निकाला-"सहायता" और फिर उसका प्राण-पखेरू उड़ गया।

'सहायता' का शब्द सुनकर मारोत के कुछ भृत्य कमरे में दौड़ आये। उन्होंने कोर्दे को पकड़ लिया। एक मनुष्य ने एक कुर्सी उठा कर कोर्दे के शरीर पर दे मारी और वह बेहोश होकर गिर पड़ी। उसकी अचेतन अवस्था में मारोत की प्रेयसी ने, जो उस समय वहाँ खड़ी थी, कोर्ट को अपने पैरों से रौंद डाला। मारोत का मृत्यु समाचार बिजली की तरह सारे नगर में फैल गया। थोड़ी देर में पास-पड़ोसी, सरकारी कर्मचारी, नगर-रक्षक आदि सभी घटना-स्थल पर आ पहुँचे, मारोत का मकान बाहर और भीतर नर-समूह से भर गया।

बेहोशी दूर होने पर कोर्दै बिना किसी की सहायता के फर्श पर से उठ बैठी। उसने देखा, सैकड़ों आदमी उसे देखकर दाँत पीस रहे हैं। लाल-लाल आँखें दिखाकर अपने क्रोध में वे उसे भस्म कर देना चाहते हैं और घूसों द्वारा मारने के लिए प्रस्तुत हैं। वास्तव में यदि उस समय पुलिस कर्मचारी वहाँ न होते तो कोर्दै की अस्थियाँ तक मिलना कठिन हो जाता। कोर्ट इस दृश्य को देखकर तनिक भी विचलित न हुई। केवल मारोत की प्रेयसी को देखकर उसे कुछ पीड़ा हुई, परन्तु वह भी क्षणिक थी। पुलिस ने कोर्दे को ले जाकर कारागार में बन्द कर दिया।

पुलिस ने उससे प्रश्न किये-

"तुम इस छुरे को पहचानती हो?"

"हाँ।"

"किस कारण तुमने यह भीषण अपराध किया है?"

"मैंने देखा कि गृह-युद्ध से फ्रांस नष्ट हुआ चाहता है। मुझे यह विश्वास हो गया कि इन सब आपत्तियों का मुख्य कारण मारोत ही है।

मैंने अपने देश को बचाने के लिये अपना जीवन स्वेच्छा से बलिदान किया "जिन मनुष्यों ने तुम्हें इस कार्य में सहायता दी है, उनके नाम बताओ।"

"कोई भी मेरे विचारों से अवगत न था, मैंने अपनी चाची और पिता तक को धोखा दिया। बहुत कम मनुष्य मेरे सम्बन्धियों से मिलने आते रहे, किसी को भी मेरे विचारों के बारे में जरा भी सन्देह न था।"

"क्या केईन नगर छोड़ने से पूर्व मारोत के मारने का तुमने पूर्ण निश्चय नहीं कर लिया था?"

“यही तो मेरा एकमात्र उद्देश्य था।"

एक पुलिस अधिकारी को प्रतीत हुआ कि कोर्दे की साड़ी के एक छोर में कागज बंधा है। उसे जानने की उसे इच्छा हुई, परन्तु कोर्दे उसके विषय में विल्कुल भूल गई थी। उस अधिकारी को इस प्रकार घूरते देखकर कोर्दे ने समझा कि यह मेरे कौमार्य पर दृष्टिपात करके मेरी पवित्रता का अनादर कर रहा है। उसके हाथ बंधे हुए थे। वह किसी तरह भी अपने वस्त्रों को संभाल नहीं सकती थी। उसने अपनी लज्जा को ढकने के लिए शरीर को दुहरा करने की चेष्टा की, परन्तु उसके वक्षस्थल पर से वस्त्र हट गया और उसके स्तन वाहर निकल पड़े। कोर्दे को अपनी इस दशा से बड़ी लज्जा प्रतीत हुई। उसने बड़े दीन शब्दों में अधिकारियों से अपने हाथ खोलने की प्रार्थना की।

उसकी प्रार्थना स्वीकृत हुई। हाथ खुलने पर दीवार की ओर मुँह करके उसने झटपट अपने वस्त्रों को ठीक किया और अपने बयान पर हस्ताक्षर कर दिये। रस्सी से बंधने पर उसके हाथों में नीले दाग पड़ गये थे। इस बार हाथ बाँधे जाने पर उसने दस्ताने पहनाने का अनुरोध किया, परन्तु उसकी वह प्रार्थना स्वीकृत नहीं हुई।

मृत्यु-मुख में पड़े रहने पर भी एक लड़की के ऐसे शिष्ट, संयत और निर्भीक उत्तर सुनकर अधिकारी दंग रह गये। उस कागज में कोर्दै ने फ्रांस निवासियों के प्रति अपना सन्देश लिखा था। उस सन्देश की प्रत्येक पंक्ति में एक युवती के मार्मिक हृदय के उद्गार भरे हुए थे। सन्देश इस प्रकार था-"अभागे फ्रांस-निवासियो! मतभेद और इस प्रकार की मुसीबतों में कब तक पड़े रहोगे? मुट्ठी-भर मनुष्यों ने सर्व-साधारण का हित अपने हाथ में कर रखा है, उनके क्रोध का लक्ष्य क्यों बनते हो? अपने प्राणों को नष्ट करके फ्रांस के भग्नावशेष पर उनके अत्याचारों को स्थापित करना क्या तुम्हें उचित दीखता है? चारों ओर दल-बन्दियाँ हो रही हैं और मुट्ठी-भर मनुष्य क्रूर और अमानुषिक कार्यों द्वारा हम पर आधिपत्य जमाए हुए हैं। वे नित्य हमारे विरुद्ध षड्यन्त्र रचते हैं। हम अपना नाश कर रहे हैं। यदि यही दशा रही तो कुछ समय में हमारे अस्तित्व की स्मृति के अतिरिक्त और कुछ शेष न रह जायेगा।

"फ्रांस निवासियो! तुम अपने शत्रुओं को जानते हो, उठो और उनके विरुद्ध प्रस्थान कर दो, उन्हें शासनाधिकार से हटाकर फ्रांस में सुख और शान्ति स्थापित करो।

"ओ मेरे देश, तेरे दुखों से मेरा हृदय फटा जाता है। मैं तुझे अपने जीवन के अतिरिक्त और क्या दे सकती हूँ? मैं परमात्मा को धन्यवाद देती हूँ कि मुझे अपना जीवन अन्त करने की पूरी स्वतन्त्रता है। मेरी मृत्यु से किसी को भी हानि न होगी। मैं चाहती हूँ कि मेरा अन्तिम श्वास भी मेरे नागरिक भाइयों के लिए हितकर हो, मेरे कटे सिर को पेरिस नगर में मनुष्यों द्वारा इधर-उधर घुमाते देखकर वे कार्य-सिद्धि के लिए एक मत हो सकें, मेरे रक्त से अत्याचारियों का अन्त लिखा जाए और उनके क्रोध का अन्तिम निशाना बनूं।

"मेरे संरक्षक और मित्रों को किसी प्रकार का कष्ट न दिया जाय, क्योंकि मेरे विचारों से कोई भी अवगत न था। देशवासियो! मैं अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकी हूँ, पर मैंने आप लोगों को मार्ग दिखा दिया है। आप अपने शत्रुओं को जानते हैं। उठो और उनके विरुद्ध प्रस्थान करके उनका अन्त कर दो।"

दूसरे दिन क्रांतिकारी न्यायालय के अध्यक्ष उस वीरबाला कोर्दै को देखने के लिये आये। कारागार की अँधेरी कोठरी में वह उससे मिले। कोर्दे की युवा अवस्था और सुन्दरता को देखकर उनके हृदय में बड़ी दया उत्पन्न हुई। उसने कोर्ट को बचाना चाहा, परन्तु कोर्ट ने झूठ बोलकर अपना प्राण बचाने से इन्कार कर दिया। कारागार में कोर्ट को लिखने की सामग्री मिल गई थी। अपने मित्रों और पिता को उसने जो पत्र लिखे हैं, उनमें उसने अपने कार्य, दशा और विचारों का वर्णन किया है। पिता को उसने बड़े संक्षिप्त शब्दों में लिखा-"आपकी अनुमति बिना अपने जीवन का अन्त करने के लिये आप मुझे क्षमा करें। मेरे प्यारे पिता, विदा। आप मुझे भूल जाइये अथवा यदि उचित समझें तो मेरे भाग्य पर हर्ष मनाइए। मैंने बड़े पवित्र कार्य के लिये अपना उत्सर्ग किया है। मैं अपनी बहन को हृदय से प्यार करती हूँ। बाबा कोर्नेल के इस वाक्य को कभी न भूलियेगा-"मनुष्य को फाँसी से नहीं, वरन् अपने अपराधों से लज्जित होना चाहिए।"

कोर्नेल फ्रांस का प्रसिद्ध नाट्यकार हुआ है। वह कुशल कवि भी था। कोर्दे उसकी पौत्री थी। कदाचित् कोर्दे की वीरता में अप्रत्यक्ष रूप से कोर्नेल की कविता ही काम कर रही थी। कवि और वीर में कोई विशेष भेद नहीं। एक भावों द्वारा अनुभव करके जिस बात को शब्दों में व्यक्त करता है, दूसरा उसी को अपने कार्यों में परिणत कर देता है।

क्रान्तिकारी न्यायालय में कोर्दे का विचार हुआ। नियमानुसार अपनी ओर से एक वकील करने का कोर्दे को अधिकार था, परन्तु जिस मनुष्य को उसने नियुक्त किया था, वह वहाँ पर नहीं दिखाई दिया। तव अध्यक्ष ने एक दूसरे मनुष्य को इस कार्य के लिये नियत किया।

कोर्ट ने कहा-"मैं मानती हूँ कि वह साधन मेरे उपयुक्त न था, परन्तु मारोत के सम्मुख पहुँचने के लिये धोखा देना आवश्यक था।"

जज ने कोर्ट से पूछा-"तुम्हारे हृदय में मारोत के प्रति घृणा किसने उत्पन्न की?"

कोर्दे ने उत्तर दिया- "मुझे किसी दूसरे की घृणा की जरूरत ही क्या थी, स्वयं मेरी घृणा पर्याप्त थी। इसके अतिरिक्त जो कार्य स्वयं सोच-विचारकर नहीं किया जाता, उसका अन्त ठीक नहीं होता।"

"तुम उसकी किस बात से घृणा करती थीं? उसके दोषों से उसको मारकर किस फल को प्राप्त करने की इच्छा थी?"

"देश में शान्ति स्थापित करने की।"

"क्या तुम्हारा विश्वास है कि तुमने सब मारोतों का अन्त कर दिया है?"

"मारोत के मारे जाने से सम्भवतः दूसरे मनुष्य अत्याचार करने का साहस न कर सकेंगे। मैंने हजारों मनुष्यों को बचाने के लिये एक मनुष्य को मारा है। मैं क्रान्ति के पूर्व से ही प्रजातन्त्रवादी रही हूँ, परन्तु क्रान्ति की ओट में व्यर्थ का रक्तपात मुझे पसन्द नहीं है।"

जूरियों की सहायता से जज ने एकमत होकर कोर्ट को मृत्यु-दण्ड सुना दिया। कोर्दे के मुख पर भय अथवा शोक का कोई चिह्न प्रकट नहीं हुआ। उसने बड़े हर्ष से मृत्यु-दण्ड स्वीकार किया।

जज ने कोर्दे से पूछा-"तुम्हें इस दण्ड पर कोई आपत्ति तो नहीं है?"

कोर्दे ने कोई उत्तर नहीं दिया, परन्तु अपने वकील के प्रति उसने अवश्य ही कृतज्ञता प्रकट की। उसकी ओर देखकर कोर्दे ने कहा आपको धन्यवाद देती हूँ। आपने मेरी इच्छानुसार ही मेरी ओर से बयान दिया है। न्यायालय ने मेरी सब सम्पत्ति को जब्त कर लिया है, परन्तु कारागार में मेरी कुछ वस्तु अभी शेष है। आपके परिश्रम-स्वरूप वह वस्तु मैं आपको अर्पण करती हूँ।"

जिस समय कोर्ट का मुकद्दमा चल रहा था, एक चित्रकार कोर्दे का चित्र बनाने में मग्न था। कोर्ट को यह देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने सोचा कि इस चित्र द्वारा ही उसके देशवासी उसकी स्मृति बनाए रखेंगे। एक और भी मनुष्य वहाँ पर उपस्थित था, जिसे कोर्दे से पूर्ण सहानुभूति थी। उसकी मुखाकृति और भावों के उतार-चढ़ाव से यही प्रतीत होता था। जब मृत्यु-दण्ड सुनाया गया, तो उसका विरोध करने के लिये उसने अपने होंठ हिलाए, अपने स्थान से उठा भी, परन्तु असंख्य जन-समुदाय में कोर्ट का पक्ष-समर्थन करने की उसे हिम्मत न हुई। वह अपने स्थान पर बैठ गया। कोर्दे ने उसकी समस्त चेष्टाओं को देखा। उसे जानकर परम सन्तोष हुआ कि कम से कम एक मनुष्य वहाँ ऐसा अवश्य मौजूद है, जिसे उसके कार्यों से सहानुभूति है। कोर्दै ने मन ही मन उसको धन्यवाद दिया। वह युवक जर्मनी का एक प्रजातन्त्रवादी व्यक्ति था। उसका नाम आदमलक्ष था। किसी कार्यवश वह उस समय पेरिस आया हुआ था।

कोर्दै कारागार को लौट गई। वहाँ पर अपने अपूर्ण चित्र को पूरा करने के लिये दूसरे दिन सवेरे चित्रकार उससे मिला। बड़ी देर तक कोर्दे चित्रकार से बातचीत करती रही। थोड़ी देर में एक कैंची लेकर बधिक वहाँ पहुँचा। कोर्दै ने उससे वह कैंची ले ली और अपने रेशम के समान मुलायम बालों को काटकर चित्रकार को देते हुए उसने कहा-"आपके कष्ट के लिए किन शब्दों में धन्यवाद दूँ। आपको देने के लिए इसके अतिरिक्त मेरे पास कुछ नहीं है। कृतज्ञता-स्वरूप इनको आप अपने पास रख लीजिये, और मेरी स्मृति वनाए रखिएगा। आपसे एक अनुरोध है, कृपया मेरा एक चित्र मेरे पिता के पास भेज दीजियेगा।"

बधिक ने कोर्दे के हाथ बाँध दिये और एक गाड़ी में बैठाकर उसको वधस्थल की ओर ले चला। असंख्य मनुष्यों की भीड़ उसके साथ थी। उस भीड़ में आदमलक्ष भी था। अन्य सब मनुष्य तो कोर्दे की मृत्यु का कौतुक देखने के लिए जा रहे थे, परन्तु आदमलक्ष की धारणा दूसरे प्रकार की थी। उसका विश्वास था कि यदि मैं कोर्ट के निमित अपने प्राण विसर्जन कर दूँ, तो हम दोनों एक रूप होकर ब्रह्म में लीन हो जायेंगे।

कोर्दे निर्भय-चित्त से फाँसी के तख्ते पर चढ़ी। बधिक ने उसकी गर्दन से कपड़ा हटा दिया, जिसके कारण उसकी छाती खुल गई। मृत्यु के समय भी इस अनादर से कोर्ट को अपार कष्ट हुआ, परन्तु उसने शीघ्र ही छुरी के नीचे अपना गला रख दिया। क्षण मात्र में ही उसका गला कटकर नीचे गिर पड़ा। यह १७६३ के जुलाई मास की बात है। कोर्दे की मृत्यु पर गिरोण्डिस्ट दल के एक नेता वर्जीनियाँ ने कहा था-कोर्दै ने हमको मरने का पाठ पढ़ाया है।

कोर्दे की मृत्यु के कुछ दिनों बाद आदमलक्ष ने कोर्ट की निर्दोषता सिद्ध करते हुए एक विज्ञप्ति प्रकाशित की थी, जिसमें लिखा था कि कोर्ट के कार्य में मैंने भी सहायता की है। लक्ष शीघ्र ही बन्दी कर लिया गया। मृत्यु-दण्ड ने उसको संसार से मुक्त कर दिया। मरते समय उसके मन में केवल एक ही भावना थी-"मैं एक आदर्श रमणी के निमित्त प्राण-दान कर रहा हूँ।"

मारोत की मृत्यु के बाद देश में और भी अशान्ति हो गई। शासकों को कोर्दे के कार्य से गुप्त षड्यन्त्र की गन्ध आने लगी। उन्होंने अपने सब विरोधियों को मौत के घाट उतारने का निश्चय कर लिया। मारोत की मृत्यु के दिन से ही फ्रांस में 'आतंक का राज्य' आरम्भ हुआ। फ्रांस के कोने-कोने में गिलेटिन का प्रचार हो गया। राज्य-सत्ता के पक्षपाती, उदार-नीति के समर्थक सब मनुष्य कारागार में डाल दिए गए, उपद्रवियों को मृत्यु-दण्ड दिया गया, उनके गाँव के गाँव नष्ट कर दिए गए।

चौदह : आग और धुआं

साम्राज्ञी आत्वानेत कारागार में सख्त पहरे में रहती थी। शासकों को उससे डरने का कोई कारण नहीं था, परन्तु मारोत की मृत्यु के बाद वह भी उनकी दृष्टि में षंड्यन्त्र में सम्मिलित प्रतीत हुई। शासन ने उसपर भी अभियोग चलाने का निश्चय किया। सम्राट के कत्ल के बाद उसका पुत्र माता के ही पास रहता था, परन्तु अभियोग चलाने के निश्चय के बाद उसे मातां से पृथक् कर बन्दी पिता के कमरे में रखने की आज्ञा दी गई। रानी ने अपने पुत्र को अपने से अलग रखने का विरोध किया। दो घंटे तक वह अधिकारियों से झगड़ती रही, परन्तु वे किसी भाँति नहीं माने। माता के ममत्व का उन निष्ठुर व्यक्तियों को तनिक भी ध्यान नहीं हुआ। माता ने पुत्र को अपनी छाती से लगाकर भाग्य के भरोसे छोड़ दिया। अधिकारी उसे वहाँ से ले गए।

कुछ दिनों के बाद आत्वानेत को भी दूसरे बन्दीगृह में भेजने की आज्ञा हुई। एलिजाबेथ के अनुरोध को भी अधिकारियों ने स्वीकार नहीं किया। अब आत्वानेत को विश्वास हो गया कि अब वह अपने इन प्रियजनों से सदैव के लिए बिछुड़ रही है। वह स्थान छोड़ने से प्रथम उसने अपनी पुत्री को बहुत देर तक हृदय से लगाए रखा, और फिर उसका हाथ एलिजाबेथ के हाथों में देकर कहा-"बेटी, अब यही तेरे पिता माता और भाई के स्थान पर हैं। इनकी आज्ञा मानना, मेरे ही समान इनसे स्नेह रखना।"

उसने एलिजाबेथ को गले से लगाकर कहा-“मेरे इन भाग्यहीन बच्चों की अब तुम्ही माता हो। जिस प्रकार तुमने अब तक हमारा साथ नहीं छोड़ा, उसी प्रकार इन पर अपना स्नेह बनाए रखना। तुम्हारे सिवा अब संसार में इनका कौन है।

पुत्र को देखने के लिए वह तरसती रह गई। अधिकारी उसे अन्यत्रं बन्दीगृह में ले गए।

इस बन्दीगृह में आत्वानेत बहुत कष्ट में एकाकी जीवन व्यतीत करने लगी। धीरे-धीरे उसके मन में वीतराग उत्पन्न हुआ और वह मृत्यु की कामना करने लगी, जिससे वह शीघ्र अपने पति के पास पहुँच जाय।

उस पर अभियोग चला, वह दोषी प्रमाणित हुई। अदालत ने उसे भी मृत्युदण्ड दिया। दस महीने तक इस एकाकी बन्दीगृह की यातना भोगकर एक दिन प्रातःकाल ही उसे वध-स्थल पर ले जाया गया और अपने पति की मृत्यु के ग्यारह महीने बाद उसका सिर भी उसी गिलेटन पर रखकर काटा गया जिस पर उसके प्यारे पति और फ्रांस के सम्राट का काटा गया था। आत्वानेत ने जीवन पर्यन्त प्रजा का रोष और तिरस्कार सहा, परन्तु उसने अपनी गरिमा को नहीं गिराया। सिर काटने के समय भी वह भय, शोक और चिन्ता से मुक्त थी।

आत्वानेत को मारकर अधिकारियों ने गिरोण्डिस्ट दल के सदस्यों को ढूंढ-ढूंढकर मारना आरम्भ किया। कितने ही पुरुष और स्त्रियों के सिर गिलेटन पर रखकर काट डाले गए। सम्राट के पुत्र को ऐसी एकान्त कोठरी में रखा गया, जहाँ दिन का प्रकाश भी नहीं पहुँचता था। सर्दी के दिनों में उसे तापने के लिए आग भी नहीं जलाने दी जाती थी। उसे भोजन एक खिड़की में से दिया जाता था। कोई उससे बात नहीं कर सकता था। अन्त में एकान्तवास की यातना सहकर केवल १५ वर्ष की आयु में अपनी माता की मृत्यु के दो वर्ष बाद वह भी मृत्यु की गोद में सो गया।

पन्द्रह : आग और धुआं

हैदरअली के दादा वलीमुहम्मद एक मामूली फकीर थे, जो गुलबर्गा में दक्षिण के प्रसिद्ध साधु हजरत बन्दानेवाज गेसूदराज की दरगाह में रहा करते थे। इनके खर्च के लिये दरगाह से छोटी-सी रकम बँधी हुई थी। इनका एक पुत्र था, जिसका नाम मोहम्मदअली था। उसे शेखअली भी कहते थे। उसे भी लोग पहुंचा हुआ फकीर मानते थे। वह कुछ दिन बीजापुर में रहा, पीछे कर्नाटक के कोलार नामक स्थान में आकर ठहरा, कोलार का हाकिम शाह मुहम्मद दक्षिणी शेखअली का बड़ा भक्त था। शेखअली के चार बेटे थे। उन्होंने बाप से नौकरी की इजाजत माँगी। पर उसने समझाया- "हम साधुओं को दुनिया के धंधों में फंसना ठीक नहीं।" निदान, वे पिता की मृत्यु तक उसके पास रहे। पिता की मृत्यु पर बड़ा तो पिता के स्थान पर अधिकारी हुआ और सबसे छोटा अरकाट के नवाब के यहाँ फौज में जमादार हो गया और तंजोर के फकीर पीरजादा कुरहानुद्दीन की लड़की से शादी कर ली। इससे उसे दो पुत्र हुए-जिनमें छोटे का नाम हैदरअली था। उस समय उसका पिता सिरा के नवाव के यहाँ बाराँपुर कलाँ का किलेदार था। जब हैदरअली तीन वर्ष का था, तव उसका पिता किसी युद्ध में मारा गया। उनका सब सामान जब्त कर लिया गया और हैदरअली को भाई सहित नक्कारे में बन्द कराकर नक्कारे पर चोटें लगवानी शुरू करा दी गई। इस अवसर पर उसके चचा ने धन भेजकर उसका उद्धार किया और अपने पास रखा। वहाँ उसने युद्ध विद्या सीखी और समय आने पर दोनों भाई मैसूर की सेना में भर्ती हो गये।

मैसूर रियासत मरहठों को चौथ देती थी। इस समय निजाम और मैसूर राज्य का मिलकर अंग्रेजों से युद्ध हुआ। इस युद्ध में हैदरअली एक साधारण सवार की भाँति लड़ा।

इस युद्ध में हैदर ने जो कौशल दिखाया, उस पर मैसूर के दीवान की दृष्टि पड़ी और उसने हैदर को डिण्डीनल का फौजदार नियत कर दिया। वहाँ उसने अपनी सेना को फ्रांसीसी रीति से युद्ध करने की शिक्षा दी और तोपखाने में भी फ्रांसीसी कारीगर नियुक्त किये।

धीरे-धीरे उसका बल बढ़ता गया और वह प्रधान सेनापति हो गया। शीघ्र ही वह मैसूर का प्रधानमन्त्री हो गया। उस समय प्रधानमन्त्री ही राज-काज के कर्ता-धर्ता थे। महाराज तो साल में एकाध बार प्रजा को दर्शन देते थे। हैदरअली ने शीघ्र ही मैसूर की सम्पूर्ण सत्ता अधिकार में कर ली और प्रधानमन्त्री की पदवी उसकी खानदानी पदवी हो गई। दिल्ली के सम्राट ने भी उसे सीरा-प्रान्त का सूबेदार नियुक्त कर दिया।

अब हैदरअली ने राज्य की व्यवस्था की ओर ध्यान दिया और शीघ्र ही प्रबन्ध उत्तमता से होने लगा। इसके बाद उसने आस-पास के प्रान्त में विजय प्राप्त कर, रियासत को बढ़ाना प्रारम्भ किया।

यह वह समय था, जब मराठे बढ़ रहे थे। मराठों का मैसूर पर चार बार आक्रमण हुआ, पर अंत में उन्हें हैदरअली से सन्धि करनी पड़ी।

इस समय अंग्रेज कम्पनी की शक्ति भी किसी शक्ति की वृद्धि सहन न कर सकती थी। उन्होंसे छेड़-छाड़ की और हैदरअली के मित्र कर्नाटक के नवाब को भड़काकर फोड़ लिया। हैदर ने यह देख, निजाम से सन्धि की और दोनों ने मिलकर कर्नाटक और अंग्रेजी इलाके पर हमला कर दिया। निजाम की ओर से ५० हजार सेना सहायतार्थ आई थी। इतनी ही अंग्रेजी सेना जनरल स्मिथ की आधीनता में मद्रास से बढ़ी। हैदर के पास दो लाख सेना थी। इसमें से पचास हजार सेना लेकर उसने अंग्रेजी सेना की गति रोकी। परन्तु निजाम को भी अंग्रेजों ने फोड़ने की चेष्टा की। यह देख, हैदर ने सन्धि की चेष्टा की-पर, अंग्रेजों ने उसके दूत को अपमानित करके निकाल दिया। यह देख, हैदर युद्ध को सन्नद्ध हो गया और शीघ्र ही समस्त छीना हुआ देश लौटा लिया तथा अंग्रेज सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया।

इस समय हैदर के पुत्र टीपू की आयु १८ वर्ष की थी और वह पिता के साथ युद्ध के मैदान में था। हैदर ने उसे ५ हजार सेना देकर दूसरे रास्ते मद्रास भेज दिया। वह इतना शीघ्र मद्रास पहुँचा कि उसकी सेना को सिर पर देख, अंग्रेज गवर्नर घबरा गया और वे लोग भाग खड़े हुए। टीपू ने सेण्ट टॉमस नामक पहाड़ी पर कब्जा किया और आसपास के अंग्रेजी इलाके भी कब्जे में कर लिये।

उधर त्रिचनापल्ली में हैदर और जनरल स्मिथ का मुकाबला हुआ। ऐन मौके पर अपनी तमाम सेना को निजाम के अफसर ने इसे बुरी तरह पीछे हटाया कि हैदर की तमाम फौज में खलबली मच गई। यह विश्वास घात देख हैदर ने अपनी सेना कुछ पीछे हटाई।

उधर अंग्रेजों ने उड़ा दिया कि हैदर हार गया और टीपू को भी समाचार भेज दिया। टीपू उस समय मद्रास से एक मील दूर था। वह अंग्रेजों के भरें में आ गया और मद्रास को छोड़कर पिता से मिलने को चल दिया।

इधर हैदर, बेनियमबाड़ी के किले की ओर बढ़ा और उसे फतह करके आम्बूर की ओर गया। वहाँ उसे बहुत-सा हथियार और गोला-बारूद हाथ लगा। जनरल स्मिथ हार-पर-हार खाकर पीछे हटता गया। तब उसको सहायता के लिये कर्नल कुड एक नई सेना लेकर बंगाल से चला।

इस बीच में अंग्रेजों ने पादरियों द्वारा हैदर के यूरोपियन अफसरों को फोड़ने की पूरी कोशिश की और सफलता भी प्राप्त की। पर अन्त में हैदर ने अपना तमाम इलाका अंग्रेजों से छीन लिया। उधर अंग्रेजों ने बंगलौर को हथिया लिया था-उसे टीपू ने छीना। इस युद्ध में अनेक अंग्रेज अफसर सेनापति सहित गिरफ्तार किये गये। अन्त में हैदर वीरपुत्र सहित सेना को खदेड़ते हुए मद्रास तक पहुँचा। अंग्रेजों ने कप्तान ब्रुक को सुलह की बातचीत करने भेजा। हैदर ने जवाब दिया- "मैं मद्रास के फाटक पर आ रहा हूँ। गवर्नर और उसकी कौंसिल को जो कुछ कहना होगा-वहीं आकर सुनूंगा।"

वह साढ़े तीन दिन के अन्दर १३० मील का फासला तय करके अचानक मद्रास जा धमका और किले से दस मील दूर छावनी डाल दी। अंग्रेज काँप उठे। हैदर और अंग्रेजी सेना के बीच में 'सेण्ट टॉमस' की पहाड़ी थी। अंग्रेजों ने देखा कि यदि हैदर इसपर अधिकार कर लेगा-तो खैर नहीं। वे जल्दी-जल्दी वहाँ तोपें जमा रहे थे। पर हैदर एक चक्कर काटकर मद्रास के किले के दूसरे फाटक पर आ पहुँचा। अंग्रेजी सेना किले के दूसरी ओर फसील से दो-तीन मील के फासले पर थी। अंग्रेजों के भय का ठिकाना न था। पर हैदर ने पूर्व वचन के अनुसार गवर्नर को कहला भेजा—'कहो, क्या कहना चाहते हो?"-

गवर्नर ने तुरन्त डुग्रे और वैशियर को सुलह की बातचीत करने को भविष्य के लिये गवर्नर नियुक्त हो चुका था। वैशियर उस समय के गवर्नर का सगा भाई था।

अन्त में सन्धि हुई। उसमें कम्पनी का किसी प्रकार का राजनैतिक अधिकार नहीं माना गया। सन्धि-पत्र हैदर ने जैसा चाहा, वैसा ही इंगलिस्तान के बादशाह के नाम से लिखा गया। इस सन्धि के आधार पर हैदरअली और इंगलैण्ड के राजा में मित्रता कायम रही। दोनों ने अपने प्रान्त वापस लिये और हैदर ने एक मोटी रकम युद्ध के खर्च के लिए ली। दूसरी सन्धि के आधार पर अरकाट का नवाब मैसूर का सूबेदार समझा गया और भेजा।

बतौर खिराज के ६ लाख सालाना का देनदार बना। इसके सिवा एक नया युद्ध का जहाज, जिस पर उम्दा ५० तोपें थीं, हैदरअली को अंग्रेजों ने भेंट किया।

इस सन्धि का यह असर हुआ कि इंगलैण्ड में इसकी खबर पहुँचते ही ईस्ट-इण्डिया कम्पनी के हिस्सों की दर ४० फीसदी गिर गई।

कुछ दिन बाद मरहठों ने मैसूर पर आक्रमण किया। हैदर ने अंग्रेजों से मदद माँगी। पर उन्होंने इन्कार कर दिया। हैदर अंग्रेजों की चाल समझ गया। उसने टीपू को मरहठों पर सेना लेकर भेजा और ६ वर्ष के लिए दोनों में सन्धि हो गई। जब हैदर को यह निश्चय हो गया कि अंग्रेज सन्धि को तोड़ रहे हैं तो उसने अंग्रेजों पर चढ़ाई करने की तैयारी कर दी और निजाम से मदद माँगी। पर निजाम इस बार भी ऐन मौके पर दगा कर गया।

इसी बीच में नाना फड़नवीस ने हैदर से सन्धि कर ली। अंग्रेजों ने फिर सन्धि की बहुत चेष्टा की पर हैदर ने स्वीकार नहीं किया। कर्नाटक का नवाब मुहम्मदअली अंग्रेजों का मित्र था। हैदर ने पहले उसी की ओर रुख किया और सेना के कई भाग कर तमाम प्रान्त में फैला दिये। अंग्रेजों और नवाब की सेनाएँ हार-पर-हार खाने लगीं। अन्त में तमाम प्रान्त को हैदर ने अपने कब्जे में कर लिया। नवाब भागकर मद्रास चला गया। हैदर की सेनाएँ भी मद्रास जा धमकीं। अंग्रेजों की दो सेनाएँ उसके मुकाबले को उठीं। घनघोर युद्ध हुआ और हैदर ने अंग्रेजी सैन्य को बिलकुल नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। अरकाट के किले और नगर पर भी अधिकार हो गया। वहाँ उसने एक हाकिम नियत किया और शासन-प्रबन्ध ठीक किया।

उस समय वारेन हेस्टिग्स गवर्नर जनरल थे। यह समाचार सुन वह घबरा गये। बंगाल की हालत भयानक हो गई थी। भयानक दुर्भिक्ष था। पर फिर भी पाँच लाख रुपया नकद और एक भारी सेना उसने मद्रास के लिये भेजी। मद्रास पहुँचकर इस सेना के सेनापति ने सात लाख रुपये मुहम्मदअली से और वसूल किये और सैन्य-संग्रह कर हैदरअली के मुकाबले को बढ़ा। कई बार मुठभेड़ हुई और अंग्रेजों को भारी हानि उठाकर पीछे हटना पड़ा। अन्त में सेनापति सर कूट बंगाल लौटं गये। हैदर ने लगभग समस्त अंग्रेजी इलाका फतह कर लिया था। पर अचानक उसकी मृत्यु आरकाट के किले में हो गई। हैदरअली की पीठ में अदीठ (कारबंकल) फोड़ा हो गया था। उसी से उसकी मृत्यु हुई। मृत्यु के समय वह साठ वर्ष का था।

मृत्यु के समय उस तमाम इलाके को छोड़कर जो उसने हाल के युद्ध में अपने शत्रुओं से विजय किया था-शेष का क्षेत्रफल ८० हजार वर्ग मील था, जिसकी सालाना बचत, तमाम खर्चा निकालकर, ३ करोड़ रुपये से अधिक थी। उसकी सेना ३ लाख २४ हजार थी। खजाने में नकदी और जवाहरात मिलाकर ८० करोड़ से ऊपर था। उसकी पशुशाला में ७०० हाथी, ६००० ऊँट, ११००० घोड़े, ४००००० गाय और बैल, १००००० भैंसे, ६०००० भेड़ें थीं। शस्त्रागार में ६ लाख बन्दूकें, २ लाख तलवारें और २२ हजार तोपें थीं।

यह पहला ही हिदुस्तानी राजा था, जिसने अपने समुद्र-तट की रक्षा के लिए एक जहाजी बेड़ा-जो तोपों से सज्जित था, रखा हुआ था। यह जल सेना बहुत जबर्दस्त थी, और उसके जल-सेनापति अली रजा ने मलद्वीप के १२ हजार छोटे-छोटे टापुओं को हैदर के राज्य में मिला लिया था।

वह पढ़ा-लिखा न था। बड़ी कठिनता से वह अपने नाम का पहला अक्षर 'है' लिखना सीख पाया था। पर, इसे भी वह उल्टा-सीधा लिख पाता था। फिर भी उसने योरोप के बड़े-बड़े राज्यनीतिज्ञों के दाँत खट्टे कर दिये थे। उसकी स्मरण शक्ति ऐसी अलौकिक थी, कि वह एक-साथ कई काम किया करता था। एक साथ वह तीस-चालीस मुंशियों से काम लेता था। उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र टीपू ने युद्ध उसी भाँति जारी रखा। अंग्रेजों ने लल्लो-चप्पो करके सन्धि की। वह वीर था—पर अनुभव-शून्य था। उसने अंग्रेजों-से मित्रता की सन्धि स्थापित की, और जीता हुआ प्रान्त उन्हें लौटा दिया। कम्पनी ने उसे मैसूर का अधिकारी स्वीकार कर लिया था।

कुछ दिन तो चला। पीछे जब लॉर्ड कार्नवालिस गवर्नर होकर आयातो उसने देखा कि टीपू ने निजाम और मराठों से बिगाड़ कर लिया है। कॉर्नवालिस ने झट निजाम के साथ टीपू के बिरुद्ध एक समझौता किया।

इसके बाद उसने टीपू और मराठों में होती हुई सुलह में विघ्न डालकर मराठों से भी एक समझौता कर लिया। तीन बार उसने इंगलैंड से कुछ गोरी फौज तथा ५ लाख पौंड कर्ज भी मंगवाये।

अब त्रावनकोर के राजा से भी युद्ध छिड़वा दिया गया, और अंग्रेज उसकी मदद पर रहे। मुठभेड़ होने पर फिर टीपू ने अंग्रेजी सेना को हारपर-हार देनी आरम्भ की। अन्त में स्वयं कार्नवालिस ने सेना की बागडोर हाथ में ली। निजाम और मराठे उसकी सहायता को सेनाएँ ले-लेकर उससे मिल गये। ठीक युद्ध के समय तमाम योरोपियन अफसर और सिपाही शत्रु से मिल गये। टीपू के कुछ सेनापति और सरदार भी घूस से फोड़ लिये गये। यद्यपि टीपू की कठिनाइयाँ असाधारण थीं, पर उसने वीरता और दृढ़ता से कई महीने लोहा लिया। अन्त में बंगलौर अंग्रेजों के हाथ में आ गया-टीपू को पीछे हटना पड़ा।

अब कार्नवालिस ने मैसूर की राजधानी श्रीरंपपट्टन पर चढ़ाई की। टीपू ने युद्ध किया, और सुलह की भी पूरी चेष्टा की। अंग्रेजों ने लालबाग में हेदरअली की सुन्दर समाधि पर अधिकार कर लिया, और उसे लगभग नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। अन्त में दोनों दलों में सन्धि हुई, और टीपू का आधा राज्य लेकर कम्पनी, निजाम और मराठों ने बाँट लिया। इसके सिवा टीपू को ३ किस्तों में ३ करोड ३० हजार रुपया दण्ड देने का भी वचन देना पड़ा; और इस दण्ड की अदायगी तक अपने दो बेटों को-जिनमें एक की आयु १० वर्ष और दूसरे की ८ वर्ष की थी—बतौर बन्धक अंग्रेजों के हवाले करना पड़ा।

इस पराजय से टीपू का दिल टूट गया, और उसने पलंग-बिस्तर छोड़- कर टाट पर सोना शुरू कर दिया, और मृत्यु तक उसने ऐसा ही किया।

टीपू ने ठीक समय पर दण्ड का रुपया दे दिया, और बड़ी मुस्तैदी से वह अपने राज्य, राज्य-कोष और प्रबन्ध को ठीक करने लगा। युद्ध के कारण जो मुल्क की बर्वादी हुई थी, उसे ठीक करने में उसने अपनी सारी शक्ति लगा दी। सेना में भी नई भर्ती करना और उसे शिक्षा देना उसने आरम्भ किया। इस प्रकार शीघ्र ही उसने अपनी क्षति-पूर्ति कर ली।

उधर अंग्रेज सरकार भी बेखबर न थी। उधर भी सैन्य-संग्रह हो रहा था। निजाम सबसीडीयरी सेना के जाल में फंस चुका था, और पेशवा के पीछे सिन्धिया को लगा दिया था। पर प्रकट में दोनों ओर से मित्रता और प्रेम के पत्रों का भुगतान हो रहा था। अन्त में सन् १७६६ की ६ जनवरी को हठात् टीपू को वेलेजली का एक पत्र मिला, उसमें लिखा था-"अपने समुद्र-तट के समस्त नगर अंग्रेजों के हवाले कर दो, और २४ घण्टे के अन्दर जवाब दो।"

३ फरवरी को अंग्रेजी फौजें टीपू की ओर बढ़ने लगीं। परन्तु टीपू युद्ध को तैयार न था। उसने सन्धि की बहुत चेष्टा की, पर वेलेजली ने कुछ भी ध्यान न दिया। जल और थल दोनों ओर से टीपू को घेर लिया गया था। गुप्त साजिशों से बहुत से सरदार फोड़े जा चुके थे। अंग्रेजों के पास कुल तीस हजार सेना थी।

प्रारम्भ में टीपू ने अपने विश्वस्त सेनापति पुर्णियाँ को मुकाबले में भेजा। पर वह विश्वासघाती था। वह अंग्रेजी फौज के इधर-उधर चक्कर लगाता रहा और अंग्रेजी सेना आगे बढ़ती चली आई। यह देख, टीपू ने स्वयं आगे बढ़ने का इरादा किया। पर विश्वासघातियों ने उसे धोखा दिया और उसकी सेना को किसी और ही मार्ग पर ले गये। उधर अंग्रेजी सेना दूसरे ही मार्ग से रंगपट्टन आ रही थी। पता लगते ही टीपू ने पलटकर गुलशनबाद के पास अंग्रेजी सेना को रोका। कुछ देर घमासान युद्ध हुआ। सम्भव था, अंग्रेजी सेना भाग खड़ी होती-पर उसके सेनापति कमरुद्दीनखाँ ने दगा दी, और उलटकर टीपू की ही सेना पर टूट पड़ा। इस भाँति अंग्रेज विजयी हुए।

इसी बीच में टीपू ने सुना कि एक भारी सेना बम्बई की तरफ से चली आ रही है। टीपू वहाँ कुछ सेना छोड़, उधर दौड़ा, और बीच में ही उस पर टूटकर उसे भगा दिया। परन्तु उसके मुखबिर और सेनापति सभी विश्वासघाती थे। टीपू को वे बराबर गलत सूचना देते थे। ज्योंही टीपू लौटकर रंगपट्टन आया कि अंग्रेजी सेना ने शहर घेरकर तोपों से आग बरसाना शुरू कर दिया।

टीपू ने सेनायें भेजीं। पर सेनापतियों ने युद्ध के स्थान पर चारों ओर चक्कर लगाना शुरू कर दिया। अंग्रेज फतह कर रहे थे और टीपू को गलत खबरें मिल रही थीं। क्रोध में आकर टीपू ने तमाम नमकहरामों की सूची बनाकर एक विश्वस्त कर्मचारी को दी, और कहा-"इन्हें रात को ही कत्ल कर दो।" पर एक फर्राश की नमकहरामी से फण्डाफोड़ हो गया।

उसी दिन टीपू घोड़े पर चढ़कर किले की फसीलों का निरीक्षण करने निकला, और एक फसील पर अपना खेमा लगवाया।

ज्योतिषियों ने उससे कहा था-"आज का दिन दोपहर की सात घड़ी तक आपके लिए शुभ नहीं।"

उसने ज्योतिषियों की सलाह से स्नान किया, हवन-जप भी किया, और दो हाथी-जिन पर काली झूलें पड़ी थीं-और जिनके चारों कोनों में सोना, चाँदी, हीरा, मोती बँधे थे, ब्राह्मण को दान दिये, गरीबों को भी अटूट धन दिया। इसके बाद वह भोजन करने बैठा ही था, कि सूचना मिली-किले के प्रधान संरक्षक अब्दुलगफ्फारखाँ को कत्ल कर डाला गया है। टीपू तत्काल उठ खड़ा हुआ, और घोड़े पर सवार हो, स्वयं उसका चार्ज लेने किले में घुस गया। कुछ खास-खास सरदार साथ में थे।

उधर विश्वासघातियों ने सैयद गफ्फार को खत्म करते ही सफेद रूमाल हिलाकर अंग्रेजी सेना को संकेत कर दिया। यह देख, टीपू के सावधान होने से प्रथम ही दीवार के टूटे हिस्से से शत्रु के सैनिक किले में घुस गये।

एक नमकहराम सेनापति मीरसादिक यह खबर पा, सुल्तान के पीछे गया और जिस दरवाजे से टीपू किले में गया था, उसे मजबूती से बन्दकरवाकर दूसरे दरवाजे से मदद लेने के बहाने निकल गया। वहाँ वह पहरेदारों को यह समझा ही रहा था कि, मेरे जाते ही दरवाजा बन्द कर लेना और हरगिज न खोलना, कि एक वीर ने जो उसकी नमकहरामी को जानता था, कहा-"कम्बख्त मलऊन! सुलतान को दुश्मनों के हवाले करके यों जान बचाना चाहता है। ले, यह तेरे पापों की सजा है।" कहकर खट् से उसके दो टुकड़े कर दिये।

पर टीपू अब फंस चुका था। जब वह लौटकर दरवाजे पर गया, तो उसी के बेईमान सिपाही ने दरवाजा खोलने से इन्कार कर दिया। अंग्रेजी सेना टूटे हिस्से से किले में घुस चुकी थी। हताश हो, वह शत्रुओं पर टूट पड़ा। पर कुछ ही देर में एक गोली उसकी छाती में लगी। फिर भी वह अपनी बन्दूक से गोलियाँ छोड़ता ही रहा। पर फिर और एक गोली उसकी छाती में आकर लगी। घोड़ा भी घायल होकर गिर पड़ा। उसकी पगड़ी भो जमीन पर गिर गई। अब उसने पैदल खड़े होकर तलवार हाथ में ली। कुछ सैनिकों ने उसे पालकी में लिटा दिया। कुछ लोगों ने सलाह दी, कि अब आप अपने आपको अंग्रेजों के सुपुर्द कर दें। पर उसने अस्वीकार कर दिया। अंग्रेज सिपाही नजदीक आ गये थे। एक ने उसकी जड़ाऊ कमरपेटी उतारनी चाही। टीपू के हाथ में अभी तक तलवार थी-उसने उसका भरपूर हाथ मारा, और सिपाही दो टूक हो दूर जा पड़ा। इतने में एक गोली उसकी कनपटी को पार करती निकल गई।

रात को जब उसकी लाश मुों में से निकाली गई, तो तलवार अब भी उसकी मुट्ठी में कसी हुई थी। इस समय उसकी आयु ५० वर्ष की थी।

इस समय उसका बेटा फतह हैदर कागी घाटी पर युद्ध कर रहा था। पिता की मृत्यु की खबर सुनते ही वह उधर दौड़ा। पर नमकहराम सलाहकारों ने उसे लड़ाई बन्द करने की सलाह दी साथ ही जनरल हेरिस स्वय कुछ अफसरों के साथ उससे भेंट करने आये, और कहा कि यदि आप लड़ाई बन्द कर दें, तो आपको आपके पिता के तख्त पर बैठा दिया जायगा। इस पर विश्वास कर, फतह हैदर ने युद्ध बन्द कर दिया। पर यह सिर्फ बहाना था। अंग्रेजी सेना ने किले पर कब्जा कर लिया, और रंगपट्टन में अंग्रेजी सेना ने भारी लूट-खसोट और रक्तपात जारी कर दिया।

अब अंग्रेजी सेना महल में घुसी। टीपू को शेर पालने का शौक था। बाहरी सहन में अनगिनत शेर खुले फिरा करते थे। अंग्रेजी फौज ने भीतर घुसते ही इन्हें गोली से उड़ा दिया। महल में टीपू का खजाना, धन, रत्न और जवाहरात से ठसाठस भरा था। इस सब माल, हाथी, ऊँट भाँति-भाँति के असबाब पर अंग्रेज-सेना ने कब्जा कर लिया। सुलतान का ठोस सोने का तख्त तोड़ डाला गया, और हीरे- जवाहरात व मोतियों की माला और जेवरों के पिटारे नीलाम कर दिये गये। सिर्फ महल के जवाहरात की लूट का अन्दाजा १२ करोड़ रुपया था। उसका मूल्यवान पुस्तकालय और अन्य मूल्यवान पदार्थ रंगपट्टन से उठाकर लन्दन भेज दिये गये। उसके बाद टीपू के भाई करीम साहब, टीपू के बहार बेटों और उसकी बेगमों को कैद करके रायविल्लुर के किले में भेज दिया गया।

टीपू का सिंहासन सोने का बना हुआ था। सिंहासन की छतरी की कलगी में मोर बना था। मोर की गर्दन जमरुदों, शरीर हीरों तथा बीच-बीच में लालों की तीन धारियों से भरा हुआ था। चोंच एक बड़े जमर्रुद की थी, जिसके सिरे स्वर्णमंडित थे। इसमें एक बड़ा लाल और दो मोती भी लटक रहे थे। सिर की कलगी जमरुद और मोती की थी। पंख और परलाल हीरों और जमरुद के थे, जिनमें दोनों ओर सफेद छोटे मोती लटकते थे।

टीपू का राज्यचिन्ह 'सिंह' था। सिंहासन का चरणासन स्वर्ण-निर्मित सिंह-मुख था। सिंह की आँखें और दाँत बिल्लौर के थे, सिर के ऊपर की धारियाँ भी स्वर्ण की थीं।

उसकी पताकाओं पर सूर्य का चिह्न होता था। दो पताकाएँ लाल रेशम की होती थीं, जिनके बीच में स्वर्णरश्मियों के सूर्य बने हुए थे। बीच की पताका हरे रंग की होती थी, जिसपर सुनहरी सूर्य कढ़ा था। पताकाओं के सिरे सोने के थे जिनमें लाल हीरे और जमरुंद जड़े हुए थे।

ये दोनों अमूल्य धरोहर आजकल इंगलैंड के विंडसर कैसेल में रखे हुए थे।

टीपू की समाधि पर यह शेर खुदा है-

चूँ आँ मर्द मैंदा निहाँ शुद्ज दुनिया।
थके गुफ्त तारीख शमशीर गुल शुद।।

अर्थात्-जिस समय वह शूर दुनिया से गायब हुआ, उसी समय इतिहास के लिये तलवार गुम हो गई।

आग और धुआं : अध्याय (16-19)

आग और धुआं : अध्याय (4-8)